Saturday, July 01, 2017

रथपति बस्तर शासक (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 14)


बस्तर पर शासन करने वाले चौथे राजा थे - पुरुषोत्तम देव (1468-1534 ई.)। राजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा पेट के बल सरकते हुए की थी। जगन्नाथपुरी में ही उन्हें ‘रथपति’ की उपाधि से विभूषित किया गया था। उस युग की परिस्थितियों को देखते हुए कटक में गजपतियों, सतारा में नरपतियों, बस्तर में रथपतियों तथा रतनपुर में अश्वपतियों की एक महासंघ के रूप में स्थापना की गयी थी जिससे कि मुगलों के विरुद्ध लड़ा जा सके (पी. वंस एगन्यू, ए रिपोर्ट ऑन दि सूबा ऑर प्रोविंस ऑफ छत्तीसगढ़; 1820)। राजा ने बस्तर लौट कर दशहरे के अवसर पर रथयात्रा निकालने की परम्परा आरंभ की जो आज भी कायम है। दशहरे के अतिरिक्त भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के अवसर पर भी पुरी में की जाने वाली सभी प्रक्रियाओं को पूर्ण करते हुए बस्तर में रथयात्रा निकाली जाती है। इस घटना की स्मृति को जीवित रखने के लिये बस्तर में गोंचा पर्व भी मनाया जाता है। 

बस्तर में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा तथा गोंचा पर्व अब छ: सौ वर्षों से अधिक प्राचीन हो गया है। बस्तर की रथयात्रा का ऐतिहासिक महत्व तो है किंतु तुपकी इस पर्व की विशिष्ठ आंचलिक पहचान है। ताड़ के पत्तों और बांस से तोपनुमा यंत्र तैयार कर इसके पृष्ठ भाग में मलकांगिनी के फल को प्रयुक्त कर ताकत से इसे चलाया जाता है। ऐसा करने पर धमाके की आवाज होती है। यह गामीणों की अपनी तोप है तथा यात्रा को सम्मान देने का विशिष्ठ तरीका है। समय के साथ तुपकी की आकृति और प्रकृति में कई प्रयोग देखने को मिले। अब इसे चमकीली पन्नियों से सज्जित किया जाता है, बांस के प्रयोग के अलग अलग आकार दिये जाते हैं, कलात्मकता और अनेक अन्य तरह की नवीनता इसमें की गयी है। इस वर्ष गोंचा पर्व में मुझे विशेष आकर्षित किया छ: फिट की विशाल तुपकी ने जो सामान्य तुपकी की तरह व्यवहार करती है और देखने में कोई छोटा-मोटा तोप ही है।


- राजीव रंजन प्रसाद 
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