Wednesday, June 25, 2008

आरूषी-आरूषी-आरूषी..


आरूषी-आरूषी-आरूषी
कान पक गये
तुम्हारा नाम सुन सुन कर
तुम्हारी मौत के बाद
मीडिया मदारी हो गया
और तुम्हारी लाश पर खेल
चौबीस गुणा सात
दिन रात..

तुम्हारा बाप दुश्चरित्र था?
तुम्हारे अपने नौकर के साथ संबंध थे?
तुम्हारे एम.एम.एस बाजार में थे?
नौकर को नौकर के दोस्त ने मारा?
नौकर का दोस्त तुमपर निगाह रखता था?
यह प्राईड किलिंग थी!!
नहीं लस्ट किलिंग थी?
किलिंग का समाजशास्त्र अब समझा
परिभाषा सहित..

सुबह की चाय के साथ
दोपहरे के खाने में
शाम पकौडे के साथ सॉस की मानिंद
और रात नीली रौशनी के चलचित्र की तरह
एक एक घर में
तुम्हारी आत्मा की अस्मत नोच
निर्लिबास कर, सीधा पहुँचायी गयी तुम
क्या प्रेतों को चुल्लू भर पानी डुबाता है?

सी.बी.आई खबरे पढेगी दूरदर्शन पर
सरकारी अधिकारी, सरकारी टेलीविजन पर ही प्राधिकृत हैं
और पुलिस वाले घरों में सेट टॉप बॉक्स लगायेंगे
सी आई डी सुबह अखबार बाँटेगी
और तुम्हारा कातिल मीडिया ढूढ निकालेगा
कि यही तो उसका काम है..

मनोहर कहानियों का सर्कुलेशन गिर रहा है
बधाई हो कि बुद्धू बक्से ही में
अब सब कुछ है
सेक्स भी, हत्या भी, बलात्कार भी
और अधनंगी अभिनेत्रियों की मादक वीडियोज भी
फिर तुममे तो वो सारा कुछ था
जिससे मसाला बनता है
एक मासूम चेहरा, रहस्यमय मौत और कमसिनता
नाक तेज होती है मीडिया कर्मी और कुत्तों, दोनों की
और दोनों ही गजब के खोजी होते हैं..

क्रांति होने वाली है
कि तुम्हारा कातिल पकडा जायेगा
और देश की आर्थिक स्थिति पटरी पर आयेगी
मँहगायी कॉटन की साडी पहन लेगी
न्यूकलियर डील पर चिडिया बैठेगी
संसद में काम होने लगेंगे
रेलें दौडेंगी, पुल बनेंगे
कि देश थम गया है
राष्ट्र, तेरा न कोई सुध लेवा है
न खबर ही किसी को तेरी
बिकती तो दिखती हैं,
दीपिका, मेनका, उर्वषी
या अभागी आरूषी..

***राजीव रंजन प्रसाद

Tuesday, June 24, 2008

इन पटाखों से कोई सिस्टम बदलता है? (एक कविता मेरे बस्तर के दर्द पर..)

मेरा बस्तर, जहाँ अक्सर,

घने जंगल में मैं जा कर

किसी तेंदू की छां पा कर,

इमलियाँ बीन कर ला कर

नमक उनमें लगा, कच्चा हरा खा कर

दाँतों को किये खट्टा, खुली साँसे लिया करता, बढा हूँ

मैं बचपन से जवानी तक यहीं पला हूँ, पढा हूँ..

मुझे मांदर बजाना जब, सुकारू नें सिखाया था

वो एक सप्ताह था, गरदन घुमा भी मैं न पाया था

वो दिन थे जब कि जंगल में, हवा ताजी, उजाले थे

आमचो बस्तर किमचो सुन्दर, किमचो भोले भले रे


मगर मुझसे किताबों ने मेरा बस्तर छुडाया है

मुझे अहसास है लेकिन, वो ऋण ही मेरी काया है

मुझे महुवे टपकते नें ही तो न्यूटन बनाया था

मुझे झरते हुए झरने नें कविता भी लिखाई थी

बोदी के जूडे में फसी कंघी ही फैशन था

वो कदमों का गजब एका, वो नाचा जब भी था देखा

मेरे अधनंगे यारों की गजब महफिल थी

तूमड में छलकती ताडी में भी जीवन था

बहुत से नौकरी वालों को धरती काला पानी थी

कोई आदिम के तीरों से, किसी को शेर से डर था

मेरा लेकिन यहीं घर था...


मैं अब हूँ दूर जंगल से, बहुत वह दौर भी बदला

मेरे साथी वो दंडक वन के, कुछ टीचर तो कुछ बाबू

मुझे मिलते हैं, जब जाता हूँ, बेहद गर्मजोशी से..

वो यादें याद आती हैं, वो बैठक फिर सताती है

मगर जंगल न जानें की हिदायत दे दी जाती है

यहाँ अब शेर भालू कम हैं, बताया मुझको जाता है

कि भीतर हैं तमंचे, गोलियाँ, बम हैं, डराया मुझको जाता है

तुम्हारा दोस्त सुकारू पुलिस में हो गया था

मगर अब याद ज़िन्दा है...


एक भीड है, जो खुद को नक्सलवादी कहती है

घने जंगल में अब यही बरबादी रहती है

हमें ही मार कर हमको ये किसका हक दिलायेंगे

ये मकसदहीन डाकू हैं, हमारा गोश्त खायेंगे

ये लेबल क्रांतिकारी का लगा कर दुबके फिरते हैं

ये वो चूहें हैं, जिनने खाल शेरों की पहन ली है

मगर कौव्वे नहा कर हंस बन जायें, नहीं संभव

हमें जो चाह है उस स्वप्न को हम शांति कहते हैं

लफंगे हैं वो, कत्ल-ए-आम को जो क्रांति कहते हैं..


वो झरना दूर से देखो, न जाना अबकि जंगल में

न फँस जाओ अमंगल में

तुम अपने ही ठिकाने से हुए बेदख्ल हो

तुम्हारे घर में उन दो-मुहे दगाबाजों का कब्जा है

तुम्हारे जो हितैषी बन, तुम्हारी पीठ पर खंजर चलाते हैं

आमचो बस्तर, किमचो सुन्दर था, लहू से बेगुनाहों के लाल लाल है

झंडा उठाने वाले जलीलों, तुम्हारी दलीलें भी बाकमाल हैं

तुम्हारे इन पटाखों से कोई सिस्टम बदलता है

घने बादल के पीछे से, नहीं सूरज निकलता है

अरे बिल से निकल आओ, अपनी बातों को अक्स दो

हमें फिर जीनें दो, जाओ, हमें बक्श दो...


*** राजीव रंजन प्रसाद

18.03.2007

मांदर एक बडा ढोल जिसे बस्तर के आदिवासी नृत्य/पर्वों में बजाते हैं

सुकारू, बोदी मेरे आदिवासी (बचपन के) मित्र

आमचो बस्तर किमचो सुन्दर, किमचो भोले भले रे - एकलोकगीत के बोल जिसका अर्थ हैमेरा बस्तर कितना सुन्दर कितनाभोला-भाला है।

Monday, June 23, 2008

मुझे मौत ही की सज़ा मिले..

मुझे मौत ही की सजा मिले।

मुझे गम के फंदे में झोल कर,
तुझे मुस्कुराने की बात हो
मुझको कबूल फिर रात है।

मुझे उफ न करने का दम्भ है
मुझे नश्तरों से गिला नहीं

मुझे रात भर तेरी कैद थी
तू जो खिल गया
मुझे मिल गया
वही रास्ता जहाँ जन्नतें
वही ठौर जिसको कि मन्नतें
कभी सजदा करके न पा सकी.

*** राजीव रंजन प्रसाद
16.04.2007

Sunday, June 22, 2008

खामोशी का खामोशी से कत्ल..



निर्जन में पायल की छम पर
शायद वीरानों के दिल में
हिरण कुलीचे भरता होगा

मटकी तेरे सिर पर और
ठीक कमर की लचक जहां पर
छल छल कर छलका करती जब
तुझको भिगा भिगा जाती है
दूर पहाडों की सिसकी पर
हवा चुहुल से मुस्काती है
पेडों की छाती पर जैसे
कोई चला कुल्हाड रहा हो

तेरे हलके पांव संभल कर
अलसायी घासों के सर पर
सहलाते से पड जाते हैं
जल कर पेडों की फुनगी के
हाथ मसलते ताज़ा पत्ते
तुझे बुलाते हिल जाते हैं

तुझको लेकिन खबर नहीं है
कि तूफान तुम्हारे पीछे
क्या हलचल करता आया है
खामोशी का खामोशी से
कत्ल किया चलता आया है..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२५.११.१९९५

Saturday, June 21, 2008

वाम पंथी और न्यूक्लियर डील..


वाम पंथी वाम पंथी
सडक रेल सब जाम पंथी
सुबह को ये हैं शाम पंथी
अजगर करे चाकरी
पंछी करे काम
बाबा मार्क्स कह गये
सबको लाल सलाम!!

मत चूको चौहान
जोड सरकार बनाओ
मेवा और मलाई खाओ
फिर माईक ले कर चिल्लाओ
वह सरकार निकम्मी है
हम जिसके साथी हैं
सच सफेद हाँथी
अब दुर्लभ नहीं रहे हैं
कामरेड हो गये हैं।

बंद करो यह शोर शराबा
न्यूज चैनलों भूत दिखाओ
गीदड भभकी में इतने मसाले
दीवाली मना रहे दीवाले!!
अमरीका से न्यूकलीयर डील हो
और सरकार गिर जायेगी
तो मुफ्त के चूहे चील कैसे खायेगी?
घूरे के जब जब दिन फिरते हैं
गाल बजा लेते हैं
राम भरोसे सरकार चलती है
ये पूवे पका लेते हैं।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Thursday, June 19, 2008

शिवशंकर संहार करो..


खोल कर नयन तीसरे
तांडव करो शंकर भोले
संहार करो, संहार करो
संहार करो उपकार करो..

सजल सजल उन दो आँखों में
केवल कमल नहीं खिलते
कोयल से काले चेहरे को
क्योंकर गज़ल नहीं कहते
चाँद निरंतर घट जाता है
और अमावस कहलाता है
घर भर में बटती है रोटी
उसके हिस्से रोज अमावस
जिन सपनों का कोई सच नहीं
वे सपने चंदा मामा हैं
अपनी बोटी रोज बेच कर
वो जीता, ये क्या ड्रामा है
तुम्हे चिढाता है,मिश्री के
दो दाने वह रोज चढा कर
मैं भूखा, तुम आहार करो..
संहार करो, उपकार करो..

खून चूसता है परजीवी
फिर भी महलों में रहता है
और पसीने के मोती के
घर गंदा नाला बहता है
जिन्दा लाशों की बस्ती में
सपनों से दो उसके बच्चे
टॉफी गंदी, दूध बुरा है
ये जुमले हैं कितने सच्चे
चंदामामा के पन्नों में
चौपाटी पर चने बेचते
बच्चे होते हैं प्यारे
पर क्या बचपन भी होते प्यारे?
बहुत चमकती उन आँखों के
छुई-मुई जैसे सपनों पर
शिवशंकर, अंगार धरो..
संहार करो, उपकार करो..

भांति-भांति के हिजडे देखो
कुछ खाकी में, कुछ खादी में
थोडा गोश्त, बहुत ड्रैकुले
इस कागज की आजादी में
कुछ तेरा भी, कुछ मेरा भी
हिस्सा है इस बरबादी में
हाँ नाखून हमारे भी हैं
भारत माँ नोची जाती में
जो भी अंबर से घबराया
हर बारिश में ओले खाया
जब पानी नें आँख उठाई
सूरज मेघों में था भाई
लेकिन मुर्दों में अंगडाई
बर्फ ध्रुवों की क्या गल पाई?
तुम चिरनिद्रा से प्यार करो..
संहार करो, उपकार करो..

सूरज की आँखों में आँखें
डालोगे, वह जल जायेगा
पर्बत को दाँतों से खींचो
देखोगे वह चल जायेगा
कुछ लोगों की ही मुठ्ठी में
तेरा हक क्योंकर घुटता है
जिसनें मन बारूद किया हो
क्या जमीर उसका लुटता है?
हाँथों में कुछ हाँथ थाम कर
छोटे बच्चो बढ कर देखो
चक्रवात को हटना होगा
बौनी आशा लड कर देखो
इंकलाब का नारा ले कर
झंडा सबसे प्यारा ले कर
हर पर्बत अधिकार करो..
संहार करो, उपकार करो..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.०२.२००७

Tuesday, June 17, 2008

टूटे मन का मुआवजा..

जो भी अभियान है,
एक दूकान है
जैसे कोई अधेडन लिपिस्टिक लपेटे
लबों पर खिलाती हो मुर्दा हँसी
तुम हँसे वो फँसी।

मैं फरेबों में जीते हुए थक गया
शाख में उलटे लटक पक गया
जिनके चेहरों में दिखते थे लब्बो-लुआब
मुझको दे कर के उल्लू कहते हैं वो
सीधा करो जनाब

ख्वाब सारे तो हैं झुनझुने थाम लो
ले के भोंपू जरा टीम लो टाम लो
बिक सको तो खुशी से कहो, दाम लो
मर सको तो सुकूं से मरो, जाम लो
जो करो एक भरम हो जो जीता रहे
जीत अपनी ही हो, हाँथ गीता रहे

रेत के हों महल उसकी बुनियाद क्या?
पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
जा के नापो फकीरे सडक दर सडक
मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को
यूं जमीं मे गडा, सुनता फरियाद क्या?

मैं पहाडी नदी से मिला था मगर
उसकी मैदान से दोस्ती हो गयी
मैं किनारे की बालू में टूटा हुआ
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?

*** राजीव रंजन प्रसाद
6.04.2008

Sunday, June 15, 2008

अब जल रही नदी है..

गुजरा हुआ जमाना
जिस पेड पर टंगा था
बंदर वहाँ बहुत थे
कुछ पोटली से उलझे
मिल गाँठ खोल डाली
पर हिल गयी जो डाली
पल झर गये नदी में
घुट मर गये नदी में
अब जल रही नदी है
मैं रिक्त हो गया हूँ..

*** राजीव रंजन प्रसाद
20.04.2007

Saturday, June 14, 2008

तुम मेरी ज़िन्दगी हो शराबी नदी..

तुम मुस्कुराये, जो ख्वाबों में आये
दिल के नासूर सारे, हरे हो गये..
याद की टीस से, आँख फिर नम हुई
हम जिया के जले, अधमरे हो गये।

तुमको जीते रहे, तुमको पीते रहे
तुम मेरी ज़िन्दगी हो शराबी नदी
मोड़ वो है कि अब रेत ही रेत है
और दरिया के सारे निशाँ खो गये।

एक जहर, दोपहर, पी के हम सो गये
सोच कर तेरे बिन क्या से क्या हो गये
सांस चलती रही, शान से मर गये
हम चले तो गये, तुम चले जो गये।

अपनी ही लाश ढोते हैं तो क्या करें
तनहा रातों में रोते हैं तो क्या करें
चैन से, नींद से, दिल से मजबूर हैं
मन की ही मान कर मनचले हो गये।

मीत कहते हो पर कितने रीते हो तुम
हार कह कर हमेशा ही जीते हो तुम
हम तो कहते हैं "राजीव" वो बात भी
जिससे हम अनकही दास्ताँ हो गये।

*** राजीव रंजन प्रसाद
10.08.2006

Thursday, June 12, 2008

सडक, आदमी और आसमान..


खाली सडक पर
बडी दूर से एक पत्थर को मारता हुआ ठोकर
सोचता रहा कि आसमान में सूराख
क्या रोशनी की नदी धरती पर उतार देगा?

अपने बौनेपन को उँट की टाँगों के पैमाने से नापा
पहाड मुझे देख कर मुस्कुराता रहा
जिसकी फुनगी पर आसमान टंगा था
आसमान में डैने फैला कर उडती हुई चील
गोरैया हुई जाती थी
मैनें अपनी कल्पना को उसके पंखों में बाँध दिया
फिर अपनी तलाश की
तो चींटी की तरह रेंगता मिला

आसमान से देखो तो आदमी कीडे नज़र आते हैं
मैनें मुस्कुरा कर तबीयत से पत्थर उछाला
”छपाक” आवाज़ आयी दो पल बाद
और मेरे पाँव सडक पर बढने लगे...

*** राजीव रंजन प्रसाद

Wednesday, June 11, 2008

हम अमरीका भाग जायेंगे....


शान बघारें, शोर मचायें
चिल्ल-पों, चीखें चिल्लायें
तोडें फोडें, आग लगायें
हमसे आजादी का मतलब
पूछ समंदर डूब गया था
आशाओं का बरगद सूखा
हम पानी के वही बुलबुले
उगते हैं, फट फट जाते हैं
हम खजूर के गाछ सरीखे
गूंगे की आवाज सरीखे
बेमकसद बेगैरत बादल
अंधे की आँखों का काजल
सूरज को ढाँप रहा, काला धुवां हैं
निर्लज्ज युवा हैं....

हमें ढूंढो, मिलेंगे हम
कोनों में, किनारों में
अगर कुछ शर्म होगी तो
तुम्हें मुँह फेरना होगा
नयी पीढी हैं, बेची है
यही एक चीज तो हमनें
वही हम्माम के भीतर
वही हम्माम के बाहर
जो नंगापन हकीकत है
हमारी सीरत है....

बहुत ताकत है बाहों में
बदन कसरत से गांठा है
बाँहों पर उभरते माँस के गोले
मगर बस ठंडे ओले हैं
वो कमसिन बाँह में आये
यही बाहों का मक्सद है
नयन दो चार हो जायें,
निगाहों का मक्सद है
वही डिगरी है, जिसमें
तोड कुर्सी लूट खाना है
मकसद ज़िन्दगी का
एक आसां घर बसाना है
न पूछो, चुल्लुओं पानी है
फिर भी जी रहे क्यों हैं....

मगर तुम पाओगे हमको
जहाँ भी आग पाओगे
कभी दूकान लूटोगे अगर
या बस जलाओगे
हम ही तो भीड हैं
जो भेड हो कर बहती जाती है
हम ईमान के चौकीदार हैं
धर्म के सिक्युरिटी गार्ड हैं हम....

लेकिन उम्मीद न रखना
वृद्ध, तिरस्कृत से देश मेरे
तुम्हारी आवाज हम सुन नहीं पाते
नमक हराम, अहसान फरोश, नपुंसक हैं हम
तुम चीख चीख कर यह कहोगे
तो क्या हम जाग जायेंगे?
तुम डूबता जहाज हो
हम अमरीका भाग जायेंगे...

*** राजीव रंजन प्रसाद
20.05.2007

Monday, June 09, 2008

बस्तर भारत का हिस्सा नहीं है?

क्रांति की एक चौराहे पर पुंगी बज रही थी “बोल मजूरे हल्ला बोल-हल्ला बोल, हल्ला बोल”। सूत्रधार चीख रहा था – दिल्ली बिजली से चमचमाती है और इधर बस्तर में जानवरों की तरह जीने के लिये विवश हैं लोग। सडक नहीं है, पीने का पानी हर गाँव नहीं पहुँचा, स्कूल नहीं हैं और अगर हैं भी तो उनमें मास्टर नहीं है......” नुक्कड पर खूब तालियाँ बजीं। तालियों का क्या है, परसों हमारे पडोसी के घर लडका हुआ, झुंड के झुंड तालियाँ बजाने वाले पहुँचे”। दिल्ली के पास “साउंड” है, “कैमरा” है और “एक्शन” है..नौकर ने मालिक का कत्ल किया- राष्ट्रीय खबर है। बाप नें बेटी का कत्ल कर दिया –सी.बी.आई जाँच करेगी। बीयर बार में कत्ल हुआ, समूचा राष्ट्र आंदोलन करेगा। ‘मानव’ केवल दिल्ली या कि नगरों-महा-नगरों में रहते हैं जिनके ‘अधिकार’ हैं। मेरे बस्तर क्या तुम इसी प्रजातांत्रिक, धर्मनिर्पेक्ष, समाजवादी लोकतंत्र का हिस्सा हो? बीते चार दिनों और चार रातों से बस्तर क्षेत्र में नक्सली आतंक वादियों नें अंधेरा कर रखा है। बिजली आपूर्ती ठप्प..काम-काज बंद, कल कारखाने (जो भी बचे खुचे हैं) बंद, जन जीवन स्थिर।.....और देश आराम से सो रहा है। जनवादी (तथाकथित) कलम और कैमरे, आरूषी को इंसाफ दिलाने के बाद फ्री होंगे। बस्तर में “क्या नहीं है” दुनिया जानती है, “क्या है” कोई नहीं देख पाता, चूंकि, अंधेरा आज मेरे बस्तर का चेहरा है।

जगदलपुर में तब गिने चुने होटल थे। एक फ्रांसीसी जोडा उडुपि होटल के एक कमरे में ठहरा हुआ था। उनसे मेरी मित्रता कोतूहल-वश हुई, और मुझसे मित्रता उन गोरों की मजबूरी थी। उडुपी रेस्टोरांट कॉलेज के दिनों में मेरा भी अड्डा था। वहीं इन झक्क-गोरे महोदय की मेम नें अबूझमाड के नंगे आदिवासियों के विषय में जानने के लिये समूह में बैठे हम स्टूडेंट्स से अंग्रेजी में वार्तारंभ किया। साथी आदिम दोस्तों के लिये ये गोरे अजूबे थे और वो गोरे तो बस्तर को अजायबघर समझ कर ही पहुँचे थे। उनके बहुत से मिथक मैने तोडे, वे वार्ता के बीच-बीच में अपने सवालों पर मेरे आक्रोश को ले कर हैरत में थे। उन्होने कहा भी, कि मिस्टर यही आपकी किताबों में बस्तर का चेहरा है। खैर, उन्होंने मुझे अपने साथ “कोटुमसर” चलने के लिये आमंत्रित किया। मैं उनके लिये गाईड बनने को तैयार भी हो गया। सुबह करीब दस बजे मैं होटल पहुँचा तो उनके सूजे हुए चेहरे और लाल आँखें देख कर घबरा गया? रात भर जगदलपुर के मोटे मोटे मच्छरों नें इन बिचारे विदेशियों का अभिनंदन किया था। पहले तो मैं पेट पकड कर हँसा जब मुझे समझ आया कि जिस “एनिमल” को ये अपनी गालियों से सम्मानित कर रहे हैं वे श्रीमान मच्छर जी हैं। रात किसी गडबडी के कारण दो घंटे बिजली चली गयी थी और उसकी दास्ताँ एसी थी कि मैं इनकी तकलीफ से पिघल गया। फ्रांस में मच्छर नहीं होते यह बात मेरे लिये इतने अचरज की नहीं थी जितना अचरज मुझे आधी नंगी फ्रांसीसी मेम साहब की उस जिज्ञासा से था जो बस्तर में नंगे आदिम तलाशते पहुँची थीं..वाह रे पर्यटक। कोटुमसर की स्टेलेक्टाईट और स्टेलेक्माईट की गुफा, जो कि चूने के पत्थर की पानी से क्रिया के कारण बनी हैं दर्शनीय है, वैज्ञानिक कारणों से भी और प्रकृतिप्रियता हो, तो भी। “गवरन्मेंट को इस गुफा में लाईटें लगवा कर टूरिस्ट को प्रमोट करना चाहिये” उस फ्रांसीसी नें पैट्रोमेक्स की रोशनी में उस गुफा की अद्भुतता से प्रभावित होते हुए कहा। मैं हँस पडा। मैं उसे क्या बताता कि यह अंचल घने अंधकार का ही साक्षी है और यही इसकी नियति भी है।

बस्तर का दर्द आवाज़ क्यों नहीं बनता यह प्रश्न गंभीर है। बहुत से बुद्धिजीवी लोगों नें विनायक सेन को रिहा कराने के लिये अभियान छेड रखा है। मैं सेन को नहीं जानता और इस लिये उन पर टिप्पणी करना मेरे लिये संभव नहीं। वो जेल में हैं तो भी बस्तर में कुछ नहीं बदला और वो रिहा हो जायेंगे तो भी कुछ नहीं बदलेगा। हाँ बस्तर के दर्द पर रायपुर या कि दिल्ली में जब चर्चायें होती हैं तो बहुत से सामाजिक आर्थिक कारणों की बाते की जाती हैं (सामाजिक कार्यकर्ता हैं, सामाजिक बातें ही करेंगे)। किसने बस्तर को देखा, समझा या जाना है, किसे दीखता है उसका दर्द। जो लडाईयों की घोषणायें कर जेल में बैठे हैं उन्हें या कि माओवादियों के समर्थन में लाल-पीले हो कर लिख रहे हैं और “लडाई जारी रहेगी” की घोषणाये कर रहे है उन्हें?, दुर्भाग्यवश इन सभी के लिये लडाई एक फैशन है। लडाई बस्तर के भीतर चल रही है और बहुत लम्बे समय से चल रही है। गुपचुप सुलगता हुआ यह अंचल जब भीतर से जागेगा उस दिन सैलाब आ जायेगा, मैं जानता हूँ। आज मेरे आदिम अंचल, तेरा शोषण जायज है चूंकि तेरे भीतर आयातित सोच तेरी अंतरात्मा कोंच रही है।

बस्तर अंचल का नक्शा उठा कर देखने की आवश्यकता है। उत्तर की ओर संभ्रांत छतीसगढ, दक्षिण की ओर आन्ध्रप्रदेश (वारंगल जैसे नक्सल प्रभावी क्षेत्र से जुडा), पश्चिम की ओर महाराष्ट और पूरब की ओर उडीसा। सभी निकटस्थ स्थान, विशिष्ट संस्कृति से जुडे हुए और बस्तर अंचल को सभी से कोई न कोई सौगात मिली है। मैं हल्बी भाषा सीखने का यत्न कर रहा था। बहुत कोशिश कर मैने उनकी गिनती के उच्चारण कॉपी में नोट कर लिये – वक्टी (एक), रंड (दो), मूडु (तीन), नालु (चार), आयदु (पाँच), आरू (छ:), चप्पु (सात), यमिदी (आठ), तमिदी (नौं) और पदि (दस)। जब बातो बातों में अपने एक दक्षिण भारतीय मित्र से इसका मैने जिक्र किया तो ज्ञात हुआ कि यही उच्चारण तेलुगु भाषा में भी गिनती के लिये प्रयुक्त होते हैं। एसी ही बहुत सी समानताये हैं - कुछ भाषा, तो कुछ पहनावे, तो कुछ त्योहारों में, जिनसे निकटवर्ती राज्यों की संस्कृति झलकती है। यही कारण भी है कि आसानी से माओवादियों (आतंकवादियों) को भी बस्तर अपनी आसान शरणस्थली लगता है, चूंकि यह क्षेत्र बिलकुल वैसा ही है जैसा कि यहाँ का मशहूर लोकगीत – आमचो बस्तर, किमचो सुन्दर, किमचो भोले भाले रे (मेरा बस्तर कितना सुन्दर, कितना भोला भाला है)।

बात अंधकार की है और मैं हर बार उसके कारण गिनने लगता हूँ। आज बस्तर और उसके दर्द से उपर एक सवाल ले कर उपस्थित हुआ हूँ – क्या बस्तर भारत का ही हिस्सा है?.......केरल राज्य से बडा और दुनिया के कई देशों से बडी भौगोलिक भूमि रखने वाला यह क्षेत्र क्या भारत का भूभाग है? एक समय में भारत में आई.ए.एस बनने के इच्छुक छात्र रटा करते थे कि “बस्तर” भारत का सबसे बडा जिला है, विभाजित होने के साथ विलोपित तो नहीं हो गया? एसा सोचने के कई गंभीर कारण भी हैं।.....।तब छतीसगढ मध्य-प्रदेश का ही हिस्सा था। स्नातकोत्तर के लिये मैं भोपाल पहुँचा। रैगिंग के दौरान जब मुझसे सवाल किया जाता – कहाँ से आये हो? मेरा उत्तर “बस्तर” सुनते ही दूसरा प्रश्न होता “यह कहाँ है?”। एक और वाकया रैगिंग का ही, मुझे बुलाया गया। सवाल फिर वही-कहाँ से आये हो? और बस्तर सुनते ही एक इंटेलिजेंट कमेंट – बस्तर, लेकिन तुम तो कपडे पहने हो? और पीछे एक सामूहिक हँसी। यही हँसी मेरे बस्तर का सच है। जो बात मैने तब कही थी दोहरा रहा हूँ – “इसी मिट्टी में मैने होश संभाले, इसी मिट्टी नें कपडे पहनना भी सिखाया और बस्तर की यही मिट्टी मेरा परिचय है”। मैंनें दो थप्पड खाये थे उस रात...हाँ मेरे बस्तर, तेरी माटी की केवल वही पूजा करते हैं, जिन्होंने चखा है तुझे, जिन्होंने तेरा मातृत्व महसूस किया है। भरत के वंशजो का यह देश शेरों के अब दाँत नहीं गिनता उन्हें चिडियाघर में देखने जाता है वह तुझसे क्या परिचित होगा? वह तो पूछेगा ही कि भारत के नक्शे में यह अजायबघर कहाँ है? अंधकार से डरने वालों का देश है भारत, वरना आरूषी के कत्ल के हथियार ढूंढ रहे कलमकार तेरे सपनों के कातिलों को पकड न लाते? कौन बस्तर, कहाँ बस्तर, कैसा बस्तर करने वाले इस देश के लोग जब उनके पीछे कैमरे और डायरियाँ लिये भागते हैं जिन्होने इस भूमि को अपनी दूकान चमकाने का सॉफ्ट टारगेट समझा है तो आत्मा सुलगती है। किताबों की दूकान, पचासों साल के बडे से बडे अखबार और टीवी की रिपोर्टिंग पर शोध कर लो, बस्तर पर तब ही लिखा गया है जब नक्सलियों ने वारदात की है, किसी हाई-प्रोफाईल एक्टिविस्ट जो मीडिया को रखैल की तरह लिये फिरते हैं वहाँ अपने ब्रम्ह-वाक्य कहने पहुँचे हैं या कि बस्तर में दशहरा हो।

मैं नक्सल समस्या को बस्तर की प्राथमिक समस्या मानने से गुरेज नहीं करता जिससे यह अंचल सौ साल और पिछड गया। क्या डाकू कभी चाहेगा कि उसके अड्डे तक सडक पहुँचे? उसके दरवाजे तक शिक्षा? दिल्हीराजरा से किरंदुल तक रेल्वे लाईन सुनते सुनते अधेड हो गया हूँ पता नहीं कब अंचल के बच्चे रेल देख कर नाचेंगे, तालियाँ बचायेंगे? कैसे आयेगी रेल? जो एक धुकधुकिया चलती भी है और भारत का खजाना भरती है, बस्तर से लौह अयस्क को विशाखापटनम तक पहुँचा कर...अब भगवान भरोसे सेवा हो गयी है। जो शिमला तक छोटी रेल में गये हैं वे इस रेल में किरंदुल से अरकू तक का सफर कर लें, मेरा दावा है कि धरती पर स्वर्ग उन्होने देख लिया, शिमला से कही अधिक नैसर्गिक।...लेकिन आज स्वर्गवासी हो जाने का खतरा है इस रेल की यात्रा में। कभी पटरी उखाडी जाती है कभी इंजन जलाया जाता है और उसके बाद विकास-विकास और क्रांति-क्रांति का नारा लगा कर किसे बेवकूफ बनाया जाता है? सरकार को कोसना तो फैशन है और इस फैशन का बखूबी पालन होता है। दिल्ली के खबरचियों की बस्तर पर लाई गयी खबरों को खरोंच कर देख लीजिये। नहीं, अभी सरकार कटघरे में नहीं, अभी सरकार की नाक में दम करने वाले पहले दोषी हैं। हाँ, उनपर काबू न पाया जाना सरकार की कमजोरी कही जा सकती है। यहाँ भी वामपंथी विचारधारा द्वारा पोषित आतंकवाद को ही दोषी माना जाना चाहिए चूंकि इस प्रकार के आतंकवाद में सभी कुछ प्रायोजित होता है, इसका समर्थन भी दर-असल कत्लेआम और बरबादी को सुन्दर शब्दों में ढकने का ही प्रायोजित कार्य हैं जिससे दुनिया को अंधेरे में रखा जा सके। हाँ वैसा ही अंधेरा फैलाया जा रहा है खबरों द्वारा, माओवादियों के समर्थकों द्वारा, जो बस्तर के भीतर गहरे पसरा हुआ है। बस्तर इस सबसे निजात चाहता है, यह कितने जानते है? बाहरी दुनिया नें जब बस्तर का नाम ही नहीं सुना तो वह इस अंचल के जख्म क्या जानेगी?

किसी मोहल्ले की बिजली भी चौबीस घंटे काट दी जाये तो तो लोग उग्र हो उठते हैं। बिजली विभाग में आ धमकते हैं, सरकार की हाय हाय होने लगती है, पुतले जलने लगते हैं यहाँ तक कि मोहल्ले की इस समस्या को राष्ट्रीय समस्या बना कर चौबीसो घंटे न्यूज चैनलों में दिखाया जाता है। आज मेरे अंचल में एसे चार चौबीस घंटे बीत चुके, पूरा दंतेवाडा जिला कुछ हद कर नारायणपुर और जगदलपुर में बिजली सप्लाई नक्सलियों नें ठप्प कर घुप्प अंधेरा कर दिया है। अंचल में पहले से व्याप्त अंधकार में यह अंधेरा किसी को नहीं दीखा? क्यों दीखे? जब बस्तर से ही भारत परिचित नहीं तो क्या खाक मीडिया उसका दर्द बेच सकेगी? बस्तर के हालात और सच्चाई दिखा कर न तो विजुअल मीडिया अपनी टी.आर.पी बढा सकते हैं न अखबार अपनी सर्कुलेशन, तो किसे फुर्सत है? यही आज की पत्रकारिता का लिटमस पेपर टेस्ट है जिसमें बडा सा “फेल” पत्रकारिता की अंकसूची में अंकित होता है। पत्रकारिता और साफसुथरी?, पत्रकारिता और अभियान?, पत्रकारिता और सोच?...जाने दो भाई इन कलमघसीटों की दुकानों पर ये लेबल केवल इश्तिहारी हैं। किसी पत्रकार को पुलिस पीट दे फिर देखिये इनकी “राष्ट्रीय एकता” खबरे रंग देंगे “पत्रकारिता पर हमला....”। मैं पत्रकारों को दूर से नमस्कार करता हूँ कि महोदय आप लोकतंत्र के स्तंभ हैं सनसनी दिखाईये, भविष्य बताईये, स्वर्ग का रास्ता खोज लाईये, सास-बहू के झगडे सुनाईये...बस्तर आपकी ओर उम्मीद से देखता भी नहीं है। मैं उस भारत से हाँथ जोड कर विनती करता हूँ जो जागा हुआ है या जाग सकता है, संवेदनशील है या सोच सकता है, मानव है या कि मानवता अभी शेष है उसमें, कि मेरे बस्तर को कैंसर हो गया है, बचा लो उसे। मैं नम आँखों से फरियाद करता हूँ कि एक मोमबत्ती इधर भी, इस नैसर्गिक और ममतामयी अंचल की आखिरी साँसों से पहले...
***राजीव रंजन प्रसाद
8.06.2008

Sunday, June 08, 2008

तो किस लिये दरिन्दे टीचर् न बनें आखिर?

एक बस्ता लिये
एक बोतल लिये
राह में तितलियों की तरह डोलती
बोलती तो हवा मिश्रियाँ घोलती
पैर में पंख थे, मन में जुगनू जले
वह कली/ अधखिली
खेलती/कूदती/झूलती
स्कूल चली...

शाम आयी मगर घर वो आयी नहीं
और आयी तो हर आँख पत्थर हुए
एक चादर कफन बन के फन खोल कर
पूछता था धरा डोलती क्यों नहीं?
वह पिता था जो परबत लिये आ रहा
और माँ ढह गयी
लाडली उठ मेरी, बोलती क्यों नहीं?

‘बलिहारी गुरु आपनों’
हे गोविन्द!! यह क्या बताया?
मसल कर मारी गयी यह मासूम
जबरन फटी हुई आँखे बंद किये जाने से पहले तक
तुमसे यही सवाल दागती रही थी

....और उसकी अंतिम यात्रा
सवालों के अनगिन दावानल लिये आक्रांता है
कोई कंदरा तलाश लो
कि आत्मा, परमात्मा से प्रश्न लिये आती है
गीता में तुमने ही कहा है
मेरे चाहे बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता
धिक्कार!! यह क्या चाहा तुमनें?
कुत्तों, सियारों, भेडियों को कौन अध्यापक बनाता है?
कुकुरमुत्तों से हर छत के नीचे
क्यों उग आते हैं स्कूल?
सरकार अपने होठों पर लाली लगाये
कौन सी फैशन परेड में है?
थू, यह समाज है
जिसे अपनी नपुंसकता शर्मिंदा नहीं करती।

पैसे ही फैंक कर गर
अच्छी हुई पढाई
तो कल से आँख मूंदो
हर कुछ तबाह होगा
काजल की कोठरी से कब तक निबाह होगा?
कुतिया जनेगी कुत्ते और सर्पिणी सफोले
साबुन लगा के कौवा ना हंस हो सकेगा
स्कूल हैं बाजार, विद्या का कैसा मंदिर?
तो किस लिये दरिंदे टीचर न बनें आखिर?

*** राजीव रंजन प्रसाद
26.10.2007

Friday, June 06, 2008

तुम्हारे आँसू बेमानी थे..

तुम्हारे अंतरद्वन्द्व नें प्याज काटी हो जैसे
तुम्हारे आँसू बेमानी थे कितने
बहुत थे लकिन कि मेरे जज़बातों को नाँव बना दो
और तैर जाने दो तुम्हारे भीतर
हर बार डूब गया हूँ मैं
अगर वो आँसू रहे होते
जल न गया होता अब तलक..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१९.११.१९९५

Thursday, June 05, 2008

तुम मुझे मार दोगी न माँ?

अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट आ गयी है
तुम जान गयी हो
कि तुम्हारे भीतर एक तितली है
तुम मार दोगी न मुझे माँ?

जब आहिस्ता-आहिस्ता
थमने लगेगी दिल की धडकन
और मैं पिघल जाउंगी
तुम्हारी ही कोख के भीतर
तुम्हारी आँख में आँसू तो न होगा?

आँखें बंद करो माँ
अपने ही जीवन को केनवास समझो
एक चित्र रचो मेरा
रंग भरो कल्पना के सारे
देखो मैं पंछी हूँ, सुन लो मैं गाती हूँ
छू लो मैं पंखुडी गुलाब की
मखमल सी सुबहा हूँ, गुलाबी शाम सलोनी
महसूस करो सतरंगी रंगों को सपनों में
महसूस करो मुझे...

एक बार मेरा चित्र खींच, रंग भर देखो
हलकी सी मुस्कुराहट होठों पर आयेगी,
शबनम को पलकों पर आनें मत देना
मेरी मौत से पहले, एक बार
अपने ही जीवन को केनवास समझो
एक चित्र रचो मेरा...

*** राजीव रंजन प्रसाद

Tuesday, June 03, 2008

नक्सलवादी या उनके समर्थक - सुकारू के हत्यारे कौन? (बस्तर का हूँ इस लिए चुप रहूँ - संस्मरण, कडी-2)

तब एसी मनहूसियत हवाओं में नहीं थी। उससे मैं पहली बार पुरानी बचेली के बाजार में मिला था जहाँ मुर्गे लडाये जाते थे। बडा जबरदस्त माहौल हुआ करता था। उसने लाल अकडदार मुर्गे पर दाँव लगाया हुआ था, कम्बख्त मुर्गा केवल देखने का ही मोटा था। सामने वाला मुर्गा सख्त जान निकला कुडकुडा कर झपटा और बस बीस ही सेकेंड में उसके पैर में बँधा छोटा सा चाकू अपना काम कर गया। मैं जिस कोतूहल से भीड का हिस्सा बना था उतना ही मजा मुझे उसकी अठन्नी शहीद होते देख कर हुआ, उसने मुझे लडाई आरंभ होने से पहले इशारे ही एसे किये थे। मैंने उसकी पीठ पर धपाका मारा और खिलखिला दिया और जवाब में उसकी अल्हड सी हँसी...मेरी उससे यदाकदा मुलाकात होने लगी। उसके शरीर पर सफेद शर्ट हमेशा ही होती थी। समय के साथ सफेद पीला, मटमैला कुचैला सब हो गया लेकिन उसके बदन से उतरा नहीं। यही उसकी स्कूल ड्रेस भी थी और यही उसके घर से बाहर निकलने पर शरीर पर रहने वाला एक मात्र आवरण। पहले पहल कॉलर की बटन भी लगती थी, फिर एक दो बटन बचे इसपर भी उसकी शर्ट शान से टंगी थी और गर्व से लहराती थी, उसपर निकर का हाल-ए-बयाँ न ही करूं तो बेहतर...पुराने बजार के पास के सरकारी स्कूल में वह पढता है, यह बात उसने मुझे गर्व से बतायी थी।

मुझे ब्लड-ग्रुप टेस्ट करने का प्रोजेक्टवर्क स्कूल से मिला था और कोई भी मुझसे अपनी उंगली पर नीडिल लगवाने को तैयार नहीं होता। मेरा पहला शिकार वही लडका हुआ और तभी मैं उसका नाम जान सका –सुकारू। उसमें अनोखा आकर्षण था, उसके पक्के शरीर में बिल्ले जैसी आँखें थीं और उसकी मुस्कुराहट में मधुरता थी। यह हमारी एसी मित्रता की शुरुआत थी जो धीरे धीरे घनिष्टता बन गयी। सुकारू के साथ मैनें जंगल जाना, जंगल की जानी अंजानी बूटियों से परिचित हुआ, पहली बार सल्फी पी और जंगल के दर्द से भी परिचित हुआ।

जंगल का अपना कानून होता है। जंगल शहरियों की आँखों से बडा रोचक प्रतीत होता है लेकिन उसके खौफ, उसकी जीवंतता और उसकी आत्मा तक कोई शायद ही पहुँचा हो। बस्तर का शोषण करने वाले कौन लोग हैं यह बात गंभीर सवाल उठाती है और क्या शोषित इतने दबे कुचले हैं कि वे अपनी लडाई खुद नहीं लड सकते यह प्रश्न भी मायने रखता है। एक पत्रकार महोदय उसी दर्म्यान अबूझमाड के जंगलों से एक आदिवासी युवती की तस्वीर उतार कर ले गये थे। इस तस्वीर को एक ख्यातिनाम पत्रिका नें मुख्यपृष्ठ पर स्थान दिया जिससे पढे लिखे आदिम समाज के भीतर कुलबुलाहट उठी। अर्धनग्नता वस्तुत: जीवन का हिस्सा है उसे कैमरे ने अपनी काली निगाह दी थी। काली इस लिये कि अधिकतम तथाकथित पत्रकारों को बस्तर के इसी स्वरूप में रुचि है। मैने बहुधा पर्यटक और पत्रकार टाईप के नवागंतुकों से यह प्रश्न सुने हैं – “वो जगह कहाँ है जहाँ आदिवासी अभी भी पूरे नंगे रहते हैं?” इस सवाल में उन सारे कलम के धंधेबाजों का सच छिपा है जो बस्तर के दर्द को जानने का दावा करते हैं और दिल्ली जैसी जगहों से इस अंचल की खबरें खुरचते हैं। आदिवासी युवती की अर्धनग्न तस्वीर के छापे जाने के सवाल को ले कर अंचल के ही नेताओं नें अपनी लडाई विधान सभा से ले कर संसद भवन तक लडी और कैमरों पर बैन लगवा कर ही वे शांत हुए। अंचल के वरिष्ठ नेता श्री मानकू राम सोढी की इस अभियान में बडी भूमिका कही जाती है। सुकारू की यादों के साथ इस प्रकरण को जोडने का कोई खास मकसद नहीं केवल यही कि इस उपेक्षित अंचल के भीतर आग है लेकिन सुसुप्त।

सुकारू के साथ उसकी झोपडी में बिताई वह एक रात मुझसे नहीं भूलती। नेरली गाँव से कुछ भीतर चंद झोपडियों का झुरमुट और उसमें से एक घर सुकारू का..हम वहाँ पहुँचे तो रात होने को थी। मम्मी स्कूल के किसी टूर से बाहर गयी थीं और मैंने चुपचाप सुकारू के साथ उसके घर पर रात रुकने का कार्यक्रम बना लिया था। कार्यक्रम शब्द सही होगा चूंकि घने जंगल में रात रुकने का एक रोमांच मैं करना चाहता था। उसके घर के भीतर का अंधेरा मेरे लिये दमघोटू था। विकास इतना ही गाँव तक पहुँचा था कि मिट्टीतेल से जलने वाली डिबिया नें अंधेरे से लडायी जारी रखी थी। हमने बाहर ही सोना उचित समझा और रस्सी की बुनी खटिया मेरे लिये बाहर डाल दी गयी। सुकारू के साथ गाँव, उनके रिवाज, घोटुल और तिहारों की बहुत सी बातें सारी रात सुनता रहा जिनके विषय में अगले आलेखों में प्रकाश डालूंगा। अपनी बात सुकारू की उस तडप से आरंभ करना आवश्यक समझता हूँ जिसमें उसके मन में एसी जिन्दगी की तमन्ना थी जिसमें उसके पास सायकल, रेडियो और चटख लाल रंग की कमीज हो। इस सपने के लिये उसे पास की लोहे की खदान में मजदूर हो जाने की तमन्ना है। मैं चार-आने और आठ-आने से बाहर निकल कर रुपया पहचानने वाली इस पीढी के सपने रात भर सुनता और डरता भी रहा चूंकि यह वन्य प्रांतर तेंदुओं के लिये तो जाना ही जाता है और भालू के घायल आदिवासी हमेशा ही अस्पताल में मैने देखे थे। तेज झिंगुर की आवाज और तारों से भरे आसमान के नीचे कोने में सुलगती जरा सी आग के बीच रात कटी और सुबह जब मैं घर पहुँचा तो जैसे एक दुनिया से दूसरी दुनियाँ में था। क्या आज के इस दौर में पिछडा पन अभिशाप नहीं है? तरक्की क्या अडतालीसवी सदी में इनका जीवन बदलेगी? माना कि यह अंधेरी रात उनके सामान्य जीवन का हिस्सा है लेकिन उजाले उन्हे मिलें यह किसका दायित्व है? और ये मानव संग्रहालय बन कर क्यों रहें? ये मानव हैं तो मानव के सारे वे अधिकार और मूल भूत सुविधाओं से इन्हे परिचित और सम्पन्न कराने का दायित्व किनका है?

सुकारू नें मुझसे किताबें भी ली और गाहे बगाहे अपनी किताबे और सवाल ले कर मेरे पास आता भी रहा। घडी नें इस बीच कुछ टिक टिक और कर ली थी...मैं अपनी ग्रेजुएशन पूरी करने के लिये जगदलपुर चला गया। छुट्टियों में बचेली लौटा तो एक खबर सुन कर आश्चर्य और हर्ष से भर उठा – सुकारू पुलिस का रंगरूट हो गया था। मुझसे मिला तो पुलिसिया हो जाने का गर्व उसके चेहरे से झलक रहा था। खाकी वर्दी में वह अलग ही नज़र आता था, उसकी आँखों में उसका सपना सच हो जाने की चमक थी।
मैं जिन दिनों अपनी स्कूली पढाई के दौर में था, नक्सल महसूस की जा सकने वाली समस्या नहीं थी। गाहे-बगाहे जंगल में उनके होने और संघर्ष करने की कथायें सुनी जाती और मेरे जेहन में रॉबिनहुड की कहानियाँ जीवंत हो उठती। बस्तर के दंतेवाडा क्षेत्र में तब उनका प्रभाव कम ही था। नारायणपुर जैसे अंचलों से अखबारों में छुटपुट हिंसा या वारदात की खबर भी मिलती तो बडे आतंक का सबब नहीं मानी जाती थीं। यह भी जानकारी बहुधा चर्चाओं में होती कि नक्सली क्रांतिकारी हैं और शोषण के खिलाफ लड रहे हैं। बस्तर में सरकारी बहुचर्चित तेन्दूपत्ता नीति के बनाये जाने के पीछे नक्सली दबाव माना जाता था। बचेली कम्युनिस्ट प्रभाव वाला क्षेत्र होने के कारण शोषण और आन्दोलन जैसे बडे बडे शब्द मुझे प्रभावित करने लगे। दंतेवाडा क्षेत्र से उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी का विधानसभा चुनाव जीतना तय माना जाता था, कारण था लोहे की खदानों का होना और उसके साथ ही इन खदानों की मजदूर यूनियनों का सक्रिय होना। मार्क्स और लेनिन पर पुस्तके भी सहजता से मुझे उपलब्ध हुई और वामपंथी विचारधारा मेरी रचनाओं में झलकने लगी थी। उन्ही दिनों, पाश की कविताओं नें मेरे रक्त में गर्मी भरी साथ ही इप्टा से जुड कर सफदर के हल्ला-बोल जैसे नुक्कड नाटकों को चौराहों चौराहों किया। शंकर गुहा नियोगी की नृशंस हत्या नें मेरे भीतर एसी चिनगी पैदा की कि हसिया और हथौडा जैसे अपनी विचारधारा बन गयी और लाल रंग एसा सपना जो व्यवस्था बदल कर एक नया सवेरा लायेगा। वो सुबह कभी तो आयेगी...सुकारू को पुलिस की वर्दी में देख कर उस दिन मेरे रोंगटे खडे हो गये थे और महसूस होता था कि इस वन प्रांत में सुबह बस होने वाली है।
फिर नक्सली समस्या हो जाने का दौर आया। बारूदी सुरंगे फटने की खबरों से अखबार रंगने लगे। थानों में हमलों की खबरे और पुलिसियों पर हमले की खबर आम हो गयी। ठेकेदारों पर हमले या कि उनसे वसूली की खबरें भी हवा में तैरने लगीं। बीच में एक बार सुकारू से मुलाकात हुई, उसने मारे जा रहे पुलिस वालों की बहुत सी एसी नृशंस कहानियाँ सुनायी कि पहली बार क्रांति और नक्सल मैनें दो अलग अलग शब्द महसूस किये। तभी कमजोर सरकारों का दौर आ गया देवगौडा, गुजराल, चंद्रशेखर जैसे बिना व्यापक जनाधार के लोग प्रधानमंत्री बनाये और गिराये जाने लगे। इसी समय में वामपंथी दलों की भूमिका और अवसरपरस्ती नें इस दल पर मेरी आस्था और विश्वास समाप्त कर दिया। शनै: शनै: बस्तर के परिप्रेक्ष्य में माओ और लेनिन जैसे शब्दों की जैसे जैसे मैने पुनर्विवेचना की, महसूस होने लगा कि एक बडा सा गुबारा जब फूटता है तो भीतर केवल हवा ही होती है। जगदलपुर में साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय हुआ और तभी प्रगतिशील और जाने कौन कौन से लेखक संघों से वास्ता पडा। मुझे गुरु मंत्र दिया गया कि मजदूर, पत्थर, पसीना, लहू, हसिया और हथौडा ही कविता और लेखन है। यह लिखते रहे तो बडे साहित्यकार बनने में देरी नहीं और इसके इतर तो साहित्य जगत में कुछ भी लिखते रहो......कोई स्थान नहीं। हाँ यही मेरे कई मिथकों के टूटने का वक्त था।


बस्तर को कैसी क्रांति चाहिये यह बात मेरे लिये बडा प्रश्न थी। उनकी सब्जियों, फलों और कंद-मूल को लूट के दाम बजार में बिकते पा कर हमेशा मुझे लगता था कि गलत है। उन्हे पूरे पूरे दिन पसीने में पत्थर तोडने की कीमत ग्यारह रुपये देख कर महसूस होता था कि शोषण है, उनकी इमली चंद आने में आन्ध्र के चतुर व्यापारी खरीद लेते तो लगता कि शोषण है......लेकिन शाम किसी बोदी के जूडे में नयी कंघी और मंद पी के मस्ती लेते किसी बुदरू को पाता तो लगता कि क्रांति क्या केवल फैशनेबल शब्द नहीं है। जगदलपुर में पढे लिखे आदिम तबके में भी राय बँटी हुई थी। इसी विषय पर कश्यप सर से हँस्टल में मेरी लम्बी चर्चा हुई। उन्होने मुझसे पूछा कि डाकू चंबल में ही क्यों और नक्सली जंगल में ही क्यों?....क्या बस्तर में सौ पचास पुलिस वालों को मार कर व्यवस्था बदल दी जायेगी? ये दिल्ली में या कि भोपाल में क्यों सक्रिय नहीं?...सवाल बेहद पेचीदा थे। मैं गहरे इस सवाल के उतरता गया। बस्तर के जंगल क्रांति की आड में केवल कुछ लोगों की पनाह या एशगाह तो नहीं? क्या नक्सली बस्तर के आदिम ही हैं या कि आयातित क्रांति है। आन्ध्रप्रदेश से भाग भाग कर बस्तर के जंगलों में छिपे नक्सली आहिस्ता आहिस्ता अपना प्रभाव इस क्षेत्र में बनाते जमाते रहे और समय के साथ इस अंचल के बहुत से युवक और युवतिया भी गुमराह हुई...क्या यह इस सारे संदर्भ का सच नहीं? जहाँ जहाँ वामपंथी सरकारे हैं क्या वहाँ एसी सुबह हो गयी है जिसकी झलक बस्तर के उन नौजवानों को जंगल के भीतर दिखायी जा रही है जो केवल सपना जीना चाहते हैं...नयी सुबह के साथ। जो इस तरह तो शायद कभी न आनी थी।

बारूदी सुरंग फटने से 12 पुलिसकर्मी मारे गये थे। सुकारू भी उनमें से एक था। यह खबर मुझे मिली तो सुकारू का चेहरा मेरी आँखों के आगे कौंध गया। उसके सपने, उसकी बातें...उसका सिपाही हो जाना एक क्रांति थी और बस्तर एसी ही क्रांति की तलाश में है, एसी ही सुबह की तलाश में है। आदिम बढ रहे हैं, बढ रहे हैं। आज उनमें से कुछ नेता हैं तो कुछ मास्टर, कुछ पुलिसिये तो कुछ कलेक्टर। कौन हैं वह जो बस्तर में आदमता का पक्षधर है? एसी कौन सी क्रांति है जो इन आदिमों के सीने फाड कर आयेगी? आह!! कैसी होगी वह कम्बख्त सुबह...लाल ही होगी नासपीटी।
मुझे सुकारू भुलाये नहीं भूलता। बस्तर आज सुलग रहा है। पुलिस वालों की मौत पर तथाकथित क्रांति की नीव रखी जा रही है। दिल्ली-मुम्बई से बडे बडे खुजेली दाढी वाले तकरीरे लिख रहे हैं और लेनिन-मार्क्स की गीता पढी जा रही है। इनकी भौंक इतनी तीखी है कि दिल्ली को नींद नहीं आती है और बेचारे आदिम कटघरे में नजर आ रहे हैं। जंगल में नक्सली जीने नहीं देंगे और जंगल के बाहर प्रेस-फोटोग्राफर और एक्टिविस्ट। रिटायरमेंट काटो भाई दिल्ली में या कलकत्ता में, बहुत से मसले वहाँ अनसुलझे हैं। ये आदिम अपनी लडाई खुद लड लेंगे, कौन तुम? जिन्हे इनकी न तो समझ है न ही इन्हे समझ सकने का माद्दा। चले आते हैं खादी का कुर्ता पहने छद्म चेहरे लगाये भेडिये और पीछे पीछे एडवेंचर करने हाई प्रोफाईल कलमची...।

मेरे भीतर लाल सोच सिमटने लगी थी। इप्टा मैने छोड दी थी और वामपंथ का ढोल पीटते लेखक संघों से नाता यह मान कर तोड लिया था कि मेरी कलम किसी यूनियन की मोहताज नहीं।....। एक शाम जगदलपुर बस स्टेंड के पास से गुजरते हुए ठिठक गया। थाने के पास बहुत से आदिवासी हुजूम बनाये खडे थे..चीख पुकार मची हुई थी। एसा दर्दनाक मंजर कि मुझसे रहा न गया। एक और नक्सली हमला, कुछ और पुलिस वाले हताहत। मैने भीड में से जगह बना कर अहाते के भीतर झांक कर देखा..उफ!! बीसियों लाशें पडी थीं। हर लाश उस कफन में लपेटी हुई जो रक्त सोख सोख कर लाल हो गया था। नसे सुलग उठीं..एक लाश एसी भी जिसे साबुत समेटा न जा सका था और गठरी में बाँध कर रखा गया था...गठरी से लाल लहू फर्श लाल कर गया था। यही क्रांति है? क्या इसी की हिमायत करते फिरते हैं कलम थाम कर पत्रकार, कवितायें लिख कर कवि और दढियल लेखक। क्या कलम का ईमान होता है?

तब से बहुत पानी इन्द्रावती में बह गया है। हाल ही में घर गया था तो आस पास के वीरान होते गाँवों के बारे में सुना। आखिर कहाँ जायें ये आदिम? सरकारी संरक्षण में या नक्सली शरण में या खुद बंदूख थाम लें....उनकी डगर में काँटे बहुत हैं चूंकि उनके लिये सहानुभूति किसे है? बाहरी दुनिया जानती है कि बस्तर में क्रांति हो रही है। आह सुकारू तुम मारे गये चूंकि पत्ते छोड कर तुमने खाकी पतलून पहन ली थी। क्रांति के आडे आ गये थे। बहुत जल्द दुनिया बदलने वाली है...बस्तर को श्रद्धांजली देने वाले दिल्ली में रिहर्सल कर रहे है। अखबार चीख रहे हैं – माओवादियों के समर्थकों के समर्थन में। अंधे यही सच मानते भी हैं। दुर्भाग्य मेरे बस्तर.....

***राजीव रंजन प्रसाद
3.06.2008

Monday, June 02, 2008

ग़म को सहने के लिये...

ज़िन्दगी अब तेरे नाम पे हँस के देखा
और छल छल के भरी आँख का पानी मुझको
चुपचाप कान ही में कह गया देखो
होठ इतने भी न फैलाओ मेरे यार सुनो
ग़म को सहने के लिये दम न निकालो अपना
चीख कर रो भी लो
बहुत देर तक ए मेरे दोस्त..

राजीव रंजन प्रसाद
८.१२.१९९५

Sunday, June 01, 2008

पुनर्जन्म का यकीन हो चला है..

तुम्हारे इन्तज़ार में एक उम्र गुज़ार दी मैनें
मुझे अब पुनर्जन्म का यकीन हो चला है
क्योंकि न मैं जीता रहा
न जी सके हो तुम मुझसे दूर..

एक उम्र खामोशियों की जो गुजरती है अब
कभी तो हमें जिला जायेगी
तुम्हारे क़रीब ही मेरी रूह को साँस आयेगी..

***राजीव रंजन प्रसाद
२०.११.१९९६