Thursday, January 24, 2013

सलवा जुडुम को दुष्प्रचार ने मारा है – महेन्द्र कर्मा [साक्षात्कार]




बस्तर में माओवादी हिंसा और सलवाजुडुम दोनो के ही अपने पक्ष-विपक्ष हैं। माओवादी हिंसा तो अभी जारी है लेकिन सलवाजुडुम अभियान की अब कमर टूट चुकी है। बस्तर की राजनीति में महेन्द्र कर्मा एक जाना पहचाना नाम हैं तथा भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के कार्यकर्ता से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने के बाद इन दिनो वे कांग्रेस के बडे आदिवासी नेताओं में गिने जाते हैं। उनका एक परिचय यह भी है कि सलवा जुडुम अभियान का उन्होंने अग्रिम पंक्ति में खड़े हो कर नेतृत्व किया था। महेन्द्र कर्मा प्रखर वक्ता भी हैं तथा बस्तर पर अपने विचार वे दृढता और आत्मविश्वास के साथ रखते हैं। बस्तर पर किये जा रहे अपने अध्ययन के दौरान महेन्द्र कर्मा से मेरी मुलाकात दंतेवाड़ा में हुई थी। मैने उनका साक्षात्कार रिकॉर्ड किया था जिसमें बिना अपना मत-मंतव्य जोडे शब्दश: प्रस्तुत कर रहा हूँ -  


राजीव रंजन: कर्मा जी, महाराजा प्रवीर का समय और आज का बस्तर; दोनों समयों मे आप कैसा परिवर्तन महसूस करते है?

महेन्द्र कर्मा: देखिए प्रवीर का पूरा समय राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच फसा हुआ समय था। प्रवीर राजतंत्र की अन्तिम कड़ी होने के साथ-साथ बहुत अच्छे विधायक थे। उन्होंन राजतंत्र के मानकों को उभारा जिसके परिणाम में 1966 का गोलीकाण्ड हुआ। प्रवीर बस्तरवासियों के बीच में बहुत ही लोकप्रिय थे तथा अपने समय के डेमोक्रेटिक सेटअप में एक अच्छे लीडर हो सकते थे। उन्होंने लीडर बनने की बजाय एक राजा होने की भूमिका ज्यादा निभाई।.....मैं समझता हूँ कि बस्तर ही नहीं पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर, परिवर्तन और विकास की आहट बहुत कम सुनाई दी है। जो भी डेवलेप्टमेन्ट; जो भी चेंजेज़ आए हैं वे बहुत ही स्लो हैं, धीमी प्रोसेज में आये हैं। बस्तर की जहाँ तक बात है, अचानक 1967 - 68 के उपरान्त जैसे ही यहाँ बैलाडिला प्रोजेक्ट आया तो वह यहाँ के शान्त माहौल में हलचल की तरह आया या कहिये एक शान्त झील में कोई बड़ा सा पत्थर फेंकने के बाद उठी लहरों का अहसास यहां के लोगों ने किया है। बैलाडिला के लिए भी यहाँ के लोग तैयार नहीं थें। अगर सरकार थोड़ा भी यहाँ के लोगों को इस बड़े और प्रभावित करने वाले अध्याय से जोड़ती, यहाँ के लोगों को इससे सीधे जोड पाती, यहाँ के शिक्षित लोगों के लिये यह एक अवसर की तरह आता तो मैं समझता हूँ कि इसका स्वागत भी होता और इसके दूरगामी परिणाम कुछ और बेहतर हो सकते थे, जो नही हुआ।

राजीव रंजन:  बैलाडिला तो आ गया लेकिन उस बीच में बस्तर में बोधघाट परियोजना बन्द हो गई या नगरनार प्रोजेक्ट बन्द हो गया। जिन्हें हम विकास परियोजनाएं कहते हैं वे बस्तर अंचल से एक-एक करके खत्म होती चली गई....?

महेन्द्र कर्मा: बस्तर में इस सम्बन्ध में दो प्रकार की विचारधारा हैं। एक विचारधारा वो, जो ऑर्थोडॉक्स है; वो लोग यहां के समाज, संस्कृति, धर्म जैसे बातों का भय दिखा कर बस्तर के विकास को रोक रहे हैं। दूसरी विचारधारा है जो यहाँ के संसाधनों पर आधारित हैं, यहाँ के लोगों के लिये विकास की पहल कर रही हैं। इसमें हम लोग भी हैं।....बस्तर में काम पैदा होना चाहिये, जितना सही तरह से संभव हो उद्योग धंधे भी लगने चाहिए, इस बात के हम लोग शुरू से सर्मथक रहे हैं। हमारा कहना है कि यहाँ के संसाधन सिर्फ ग्लोबल नहीं होने चाहिए, उन पर कहीं न कही इस जमीन का पहले हक है। पर वेल्यूऐटेड डेवलपमेंट होना चाहिए। वेल्युएडिशन की स्थिति में यहा एम्प्लॉयमेंट बढ जायेगा। आज जो बस्तर का आदमी है वह भी बदल गया है। उसके लिये अब बिलकुल एक नया युग हैं। उसकी सोच ही अलग हैं। वह बदलती दुनिया के साथ अपने आप को एडजेस्ट करना चाहता हैं। अभी इस तरह की तमाम चीजों पर बाते एक ब्लास्टिंग मोड में हैं....नए अवसर खुल सकते हैं। हम जो उनको नही दे पा रहे, इसका कोई तुक नहीं है। मेरा मानना है कि डिसाईजिव स्थिति में रहने के बाद भी, साधन सम्पन्नता के बाद भी हम यहाँ के लोगों के लिये विकास से सही अवसर खोल पाने में अब तक असफल ही रहे हैं।

राजीव रंजन: कर्मा जी, अपने बहुत खुलकर एक बात की है। इसी से जुड़ा हुआ एक प्रश्न करना चाहता हूँ कि जिन दिनों ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर में रहें, दो महत्वपूर्ण काम हुए। पहला तो प्रशासक के तौर पर उनके प्रयासों द्वारा अबूझमाड़ क्षेत्र को आम दुनिया से काट दिया गया और उसे एक आईसोलेटेड क्षेत्र बना दिया गया। दूसरा एक एक्टिविस्ट के तौर पर उन्होंने मावलीभाटा के पास बनने वाले स्टील प्लांट का विरोध किया; हालाकि बाद में उसका विरोध भी ब्रम्हदेव शर्मा को झेलना पड़ा था, दूसरे तरीके से। इन उदाहरणों से जुडा मेरा प्रश्न है कि क्या आप भी आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया को सही मानते हैं?

महेन्द्र कर्मा: दुनिया में जो भी विकास हुआ हैं, कुछ एक उदाहरणों को छोड दें तो आजादी के पहले से अब तक का जो पूरा हिन्दुस्तानी इतिहास हैं, वो सब संपर्कों पर आधारित इतिहास रहा  हैं।...कितने सारे आक्रमणों का दौर आया, मुगलो का युग आया और फिर अंग्रेज....अंग्रेज हमे कोई एज्युकेट करने नहीं आए थे। वो लोग तो भारत में अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए आये थे। वह तो जो भी लोग उनके सम्पर्को में आये, उन लोगों ने सम्पर्को का फायदा उठाया। संपर्क तो एक कैरियर है, एक वाहक है। दूसरी बात जिसका उदाहरण आपने स्वयं दिया- ब्रम्हदेव शर्मा; जो कि एक ऑर्थोडॉक्स आईडियोलॉजी का प्रतीक है। ये तमाम बस्तर की परियोजनाओं के विरोध करने वाले लोग कहीं न कही इसी आईडियोलॉजी के फॉलोअर लोग हैं। आदिवासी आईसोलेशन सही नहीं है।

राजीव रंजन: कर्मा जी, क्या आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया भी बस्तर में नक्सलिज्म का एक कारण हो सकता है? 

महेन्द्र कर्मा: जी हाँ बिलकुल। आजादी के बाद, जैसे मैंने कहा कि यहाँ संपर्कों का अभाव बना दिया गया जिससे इस आदिवासी क्षेत्र में समस्यायें पैदा हुई। हमारा डेवलपमेंट कॉंसेप्ट बहुत ज्यादा त्रुटिपूर्ण है। हम शहरों से गाँवो की ओर धीरे-धीरे चले; हमको गांवों से शहरों की और चलना चाहिए। यह जो नक्सलवाद जिसे आप कह रहे हैं इसी का खामियाजा है। नक्सलवादियों नें भी तो उन्हीं क्षेत्रों को को आईसोलेटेड थे, जहाँ प्रशासन की पहुँच नहीं थी, जहाँ विकास की रोशनी नहीं पहुँचाई गयी; उसी क्षेत्र को अपना आधार इलाका बनाया है। और अब ये सभी क्षेत्र और अधिक आईसोलेट और विचलित हो गये हैं। आईसोलेशन तो सीधे सीधे कूपमण्डूकता हैं, समझ गए आइसोलेशन मतलब?.....अगर आज के दौर में हम किसी भी समाज को या एक समूह विशेष को पृथक रखने का, या आईसोलेट करने का कोई भी काम करते है तो हम एक बार फिर उन्हे अभिशप्त  जिन्दगी जीने को प्रेरित और बाध्य दोनो ही कर रहे हैं।

राजीव रंजन: कर्मा जी इतिहास पलट कर देखा जाये तो हम पाते हैं कि बस्तर के आदिवासी हमेशा से जुझारू रहे है तथा अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम रहे हैंक्या कारण रहा की उनकी लड़ाई लड़ने के लिए बाहर से लोगों को आना पड़ा जिनका दावा हैं कि वे बस्तर के आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं; मेरा इशारा नक्सलियों की तरफ हैं?

महेन्द्र कर्मा: असल में तो नक्सली अपनी आईडियोलॉजी यहाँ के लोगों पर थोप रहे हैं इसके बाद भी वे यही सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये मूवमेंट उनका नहीं, आदिवासियों का हैं जबकि नक्सलवाद से आदिवासियों का कोई सम्बन्ध नही है, वो इसीलिए नही भी नहीं हैं, क्योंकि  आदिवासियों नें आजतक अपनी समस्याओं का निदान संविधान के दायरे से बाहर जा कर नहीं खोजा। वो संविधान के दायरे मे ही रहकर लोकतांत्रिक तरीके से, शांतिपूर्ण तरीके से, अपनी बात कहता रहा है। इसके साथ ही यह भी कहना चाहिये कि वो गूंगा भी नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति के तथा अपनी बात को कहने के तरीके अलग हैं; इस तरह की हिंसा का उसका चहरा या तरीका नहीं है।

राजीव रंजन: इसी बात को आगे बढाते हुए मैं आपसे सलवा जुडुम की भी बात करना चाहूंगा। कर्मा जी मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि सलवा जुडुम का इतिहास क्या है तथा इसके आरंभ होने की क्या परिस्थिति थी?

महेन्द्र कर्मा: आपको याद होगा कि सलवा जुडुम से पहले एक जन जागरण अभियान भी चला था 89 से 91 लगभग दो सालों तक; बिल्कुल वैसे ही, ये भी चला था। घटना यह हुई कि एक गांव में...गाँव का नाम नहीं ले रहा हूँ नहीं तो उस गांव के लोगों को नक्सली मार देंगे। तो एक गाँव में नक्सलियों की बैठक चल रही थी; बिल्कुल रोड़ किनारे यह सब चल रहा था। फोर्स का राशन जा रहा था, ड्राइवर नक्सलियों से मिला हुआ था; अचानक वो रोड छोड़ कर गाँव की ओर मुड़ गया। बिल्कुल बगल मे ही नक्सली लोग मीटिंग कर रहे थे तो फोर्स वाले जो दो जो ऊपर बैठे थे वो भाग के आ गए और राशन को उनके हैण्डओवर कर दिया। नक्सली वो राशन को लूट लाट कर ले गए। दूसरे दिन फोर्स जाकर गांव के कुछ लोगों को उठा कर थाना ले आई। थाने में बैठे लोगों नें विचार किया कि एक गलत आदमी की वजह से गांव के सियाने लोगों को पुलिस क्यों बिठाएगी? तो उन लोगों नें पुलिस से कहा कि एक आदमी की वजह से गाँव के सभी बडे सियाने क्यों परेशान हों। वो लोग गाँव गये और दोषी को पकडकर ले आये और पुलिस के हवाले कर दिया। पकड के तो ले आये लेकिन फिर गाँव वालों में डर भी जगा कि अब अगर हमने लोगों को हमारे साथ नही जोड़ा तो नक्सली आकार हमारे गांव को तो भून देंगेइस प्रकार से वहाँ के नक्सलियों के खिलाफ डर से शुरु हो कर सलवाजुडुम एक प्रतिष्ठा की लड़ाई, स्वाभिमान की लड़ाई, आन-बान की लड़ाई बनता गया। यह घटना तो बस शुरूआत थी। वहाँ के लोगों ने तब दस गाँव के लोंगों कों बुलाया। कहते है, बड़े आन्दोलन की शुरूआत या एक बड़े विद्रोह की शुरूआत छोटे कारणों से होती रही हैं। इतिहास इस बात का गवाह है।....अपने समय के समकालीन लोग किसी ईवेंट को कैसे देखते हैं; किसी घटना को किस तरह लेते हैं; हम लोगों नें इसे वैसे ही देखा हैं। ये मई की घटना थी, 18-19 जून को मैं दिल्ली में था। वहाँ मै पेपर पढ कर इस घटना को देख-समझ रहा था, फिर मुझे लगा, वहाँ तुरंत जाना चाहिए, ऐसी जगह पर जहाँ लोग तो अपने आप आन्दोलन करने के लिये इकट्ठा हो रहे हैं लेकिन उनके लिये लीडरशीप का पता नही हैं। मेरे वहाँ पहुँचते-पहुँचते 26 तारीख लग गई। वहाँ पहुँचने के बाद मैने इसे सिस्टमेटिक ढंग से चलाने की कोशिश की है। सलवा जुडुम के उपर जो हत्या बलात्कार के आरोप जगाये गये हैं वो दुष्प्रचार है; जो भी नक्सलियों के खिलाफ कोई आन्दोलन खडा करने की कोशिश करेगा उसको इसी प्रकार से दबाने का षडयंत्र किया जाता है। सच यह है कि हम लोग न तो अपने ही लोगों को मार सकते हैं न उनका बलात्कार कर सकते हैं।       

राजीव रंजन: सलवा जुडुम को क्या आप एक सशस्त्र आंदोलन के खिलाफ एक दूसरा सशस्त्र  आंदोलन मानते हैं?

महेन्द्र कर्मा: बिल्कुल नहीं, बिल्कुल नही। ऐसा था ही नहीं। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी समस्या का समाधान मास-मूमेंट होता है और यह हमारा मास-मूमेंट था। वह सशस्त्र था ही नहीं। हम हजारो लोग जब विलेज टू विलेज मूव कर रहे तो हमारी सुरक्षा में एक फोर्स था। फोर्स को अपनी भूमिका निभानी होती है; आज कोई भी जंगल जाएगा कोई जाँच कमीटी भी जाएगी तो उसके लिए भी फार्स लगायी जायेगी; हम तो फिर भी नक्सलियों के खिलाफ में लड़ रहे थे। यह बिल्कुल सशस्त्र मूवमेन्ट नहीं था....बहुत ज्यादा हुआ तो हमने अपने परम्परागत हथियार को जिनमे टंगिया, कुल्हाडी, तीर-धनुष को अपने साथ रखा। सभी जानते हैं कि यह हमारे परम्परागत हथियार हैं; कुछ लोंगों ने इसे ही फोर्स अटैक बताया; जैसे हम सशस्त्र लड़ाई लड़ रहे हैं।

राजीव रंजन: सलवाजुडुम के समाप्त होने में आप किसकी भूमिका मानते हैं?

महेन्द्र कर्मा: नक्सलियों के खिलाफ जब भी कोई बात या मूमेंट या बहस फ्लोर पर होती है तो उसे बहुत योजनाबद्ध तरीके से डिफ्यूज किया जाता है; और एसा करने वाले बहुत अच्छी तरह इसे करने में अब तक सफल रहे है... समझ गए। इन दिनो एक रूझान सा देखने को मिल रहा हैं...एंटी सिस्टम बाते करना आम हो गया हैं। मुझे लगता है इस मामले को हम लोग सही तरह से उठा नहीं पाये; हम अपना सही प्रेजेंटेशन नहीं दे पाये; सही पूछिये तो हमने उसकी जरूरत भी नहीं समझी। जमीन पर तो हम अपना पक्ष रोज रख रहे थे, लेकिन दिल्ली, भोपाल तक हम लोग अपना प्रजेन्टेशन नहीं दे पाये...... हम इस बात की जरूरत नहीं समझ रहे थे। जब हम जंगल में जमीनी लड़ाई लड़ रहे हैं तो हमे क्या जरूरत है कि दिल्ली और भोपाल में जाकर अपना पक्ष रखें। जो हमारी खिलाफत करने वाले लोग है वो प्रेजेंटेशन दिल्ली भोपाल में लगातार देते रहे।....इसी से हम हार गये। बहुत जबरदस्त धक्का लगा हमारे मूमेंट को। इतने बडे पब्लिक मूमेंट में ठहराव आ गया है, आन्दोलन खत्म हो गया है....यही चाह रहे थे नक्सली और वे सफल रहे; हम लोग हार गए।

राजीव रंजन: तो आपको अफसोस है?

महेन्द्र कर्मा: बहुत ज्यादा, और वो अफसोस तब तक रहेगा जब तक नक्सलवादी रहेगें। ये अफसोस बना रहेगा जब तक हमें फिर नई शुरूआत कोई नयी लड़ाई नहीं मिल जाती।

राजीव रंजन: कर्मा जी तो अब प्रश्न उठता है कि इस समस्या से कैसे निपटा जा सकता है?

महेन्द्र कर्मा: अब तो ऐसा है कि यह बात सिर्फ बस्तर की ही नहीं रह गयी है; अब तो यह पूरे देश की बात है। इसका समाधान पब्लिक के पास हैं; सरकार के पास है; फोर्सेज के पास है और कहीं न कहीं इन सभी को कलेक्टिवली सामने आना ही पडे़गा। एक बड़े सपोर्ट के साथ में; एक बड़े वॉल्यूम के साथ में। आज हम लोग कहां हैं?...और वो लोग कितना जबरदस्त दबाव बनाते हैं, गाँव के मुखिया से ले कर, एक सरपंच से लेकर परम्परिक जो हमारे रूरल ट्रैडिशनल सिस्टम हैं इन सभी को क्रश कर के रख दिया  है।  न गायता हैं, न पुजारी, न कोतवाल है, न पटेल है,  न सरपंच है। गांव में अब कोई भी नहीं है। जो भी है वो उनका आदमी है; वो हमारे ट्रेडिशन सेटअप को रिलीजियस सिस्टम को टारगेट करता हैं....देखिये कि जो ट्राइबल है वह नेचर के साथ रहने वाला आदमी है; प्रकृति का एक अभिन्न हिस्सा है और उसका अपना एक डैली रूटीन भी है। वो अपने कस्टम-सिस्टम के साथ जीने वाला आदमी हैं। लेकिन नक्सलवादी ये चाहता है कि ट्राइबल उसका अपना जो कुछ है उसको छोड दे; अपने जीने का तरीका बदल दे; कस्टम-सिस्टम छोड दे। उसी बात को वह अब कहीं बोल नही सकता, कहीं सही तरह से अभिव्यक्त नही कर पाता। इसी लिये उसके अन्दर एक गुस्सा है; इसी बात से वह लड़नें के लिए ललायित है; यही एक फैक्टर है जो उसको टैम्पर कर रहा हैं.......... वो अपनी बेसिक पहचान खो रहा हैं। समाधान इस लिये नहीं हो रहा है कि बडी पॉलिटिकल विल चाहिये। जब तक किसी सरकार में  कुर्बानी देने के माद्दा नहीं आयेगा तब तक....। हमने पंजाब में देखा है, हमने नार्थईस्ट में देखा है कि सरकारों को आतंकवाद नें निगला है। अगर एसा ही रहा तो मुझे लगता है बहुत जल्दी इस देश मे वभी नेपाल की स्थिति बन सकती हैं क्योंकि इस आतंकवाद को कोई रोक ही नही रहा हैं।

राजीव रंजन: आदिवासी नेता छत्तीसगढ़ की राजनीती में कहाँ है?

महेन्द्र कर्मा: अब करवट ले रहा हैंआदिवासी नेतृत्व आगे आ रहा है। उसे अब आप रोक भी नहीं सकते। इतने बर्निंग प्वाईंट पर आदमी यहाँ पर स्ट्रगल कर रहा है, ऐसे आदमी की आवाज को ज्यादा रोका नहीं जा सकता है।

राजीव रंजन:  आपसे बहुत सी बाते हुईं; बहुत-बहुत धन्यवाद आपका!!!

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Tuesday, January 22, 2013

नागयुगीन (760 – 1324 ई.) प्राचीन बस्तर में प्रशासनिक व्यवस्था।


नागयुगीन बस्तर वह सबसे महत्वपूर्ण कडी है जिसके अध्ययन द्वारा आधुनिक बस्तर के जनजातीय समाज में विद्यामन अनेक प्रथाओं, उनके सामाजिक ताने बाने को तथा जटिलताओं को समझने का यत्न किया जा सकता है। एक स्पष्ट विभागन रेखा है नागयुगीन समाज तथा उसके बाद के युगों में अत: अध्येताओं को इसी स्थल पर गहरे पानी उतरना चाहिये।

नाग राजाओं नें बस्तर तथा उसके आसपास एक विस्तृत भूभाग पर लगभग चार सौ वर्षों तक अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाये रखी थी। नाग शासन पूरी तरह से राजतंत्रात्मक था तथा युद्ध, न्याय तथा शांति हर अवसर पर किये जाने वाले प्रत्येक निर्णय पर राजा का कथन ही अंतिम माना जाता था। नाग युग में शासक प्रमुखता से राजा, राजाधिराज, महाराजा अथवा महाराजाधिराज जैसी उपाधियाँ धारण करते थे। राजा को दैवीशक्तियों से युक्त माना जाता था। नागयुगीन अभिलेखों में राजा के लिये परमेश्वर, प्रतिगण्डभैरव, परममाहेश्वर, विश्वम्भरेश्वर एवं महामाहेश्वर आदि सम्बोधन भी प्राप्त होते हैं। नागों का शासन क्षेत्र अर्थात तत्कालीन प्राचीन बस्तर चक्रकोटराष्ट्र कहलाता था। राष्ट्र का विभाजन महामण्डल (राज्य) में होता था (1324 ई. के एक अभिलेख में सैरहराजराज्य का उल्लेख मिलता है), जिसके प्रशासक महामाण्डलिक/महामण्डलेश्वर कहलाते थे। अगला विभाजन थे - मण्डल अर्थात नाडु (बारसूर अभिलेख में गोवर्धनाडु का उल्लेख आता है।), जिन्हें प्रशासकीय दृष्टि के वर्तमान संभागों के समतुल्य कहा जा सकता है; माण्डलिक ‘मण्डलाधिपति’ कहलाते थे। प्रत्येक नाडु अनेक ‘वाडि’ (विषय) मे बिभाजित थे, इन्हें वर्तमान प्रशासनिक ईकाइयों में जिलों के समतुल्य रखा जा सकता है; वडि के प्रशासक विषयपति कहलाते थे। यह प्रतीत होता है कि वाडि नागरिकों के कार्यों अथवा व्यावसायवार भी बँटे हुए थे। सोमेश्वरदेव के एक अभिलेख में जिन वाडियों की चर्चा है वे हैं – कुम्हारवाड, मोचिवाड, कंसारवाड, कल्लालवड, तेलिवाड, परियटवाड, चमारवाड तथा छिपवाड। यह जान कर सु:खद संतोष होता है कि नागयुग में शूद्र असम्मानित नहीं थे अपितु नाग नरेशों व महारानियों के दान अभिलेखों में मोची से ले कर ब्राम्हण तक के नाम उल्लेखित हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि समाज में वर्ग स्थापित होने के बाद भी विभेद व्यापक नहीं तथा तथा यह अंतर्सम्बंधो वाला समाज था। कार्य के आधार पर वाडियों के नाम रखे जाने को भी श्रम को प्राप्त सम्मान के रूप में विवेचना करना ही उचित जान पडता है। वाडि के अगले विभाजन नगर, पुर तथा ग्राम (नाडु) थे। ‘ग्राम’, ‘वाडा’ तथा ‘नार’ तीनों ही के तद्युगीन प्रयोग को आज भी देखा जा सकता है उदाहरण के लिये- जिणग्राम, दंतेवाडा, नकुलनार आदि। गामनायक गाँव के प्रशासक के लिये प्रयुक्त होता था, जो निर्वाचित नहीं अपितु राजाज्ञा से नियोक्त प्रतिनिधि होता था। आजीविका के लिये ग्रामनायक को गाँव का कोई भूखण्ड प्रदान कर दिया जाता था। छिंदक नागयुगीन अभिलेखों के अनुसार उस युग में द्वादश पात्रों द्वारा शासन व्यवस्था संचालित होती थी। ये हैं – सामंत, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी, सेनापति, श्रीकरण, धर्माध्यक्षमहापात्र, अंत:पुरीय, राष्ट्रकूट, प्रमुखन तथा दौरावारिक। राज्य की प्रमुख समस्याओं को सुनने तथा फैसले करने के लिये जो पंच प्रधान नियुक्त किये गये थे वे हैं – महाप्रधान (अमात्य), पाडिवाल (दौरावारिक), चामरकुमार (युवराज), सर्ववादी (पुरोहित) तथा सेनापति।

चोल अभिलेख से ज्ञात होता है कि बस्तर के जनजातीय योद्धा वीर और लड़ाकू थे। आदिवासी धनुर्धारी अपने अचूक लक्ष्यभेदन व कठोर धनुष धारण करने के लिये प्रसिद्ध थे। तद्युगीन नाग-दुर्गों पर उँची पताकायें लहराया करती थीं। आज भी बस्तर के वनवासी अपनी धनुर्विद्या के लिये विख्यात हैं। धनुर्धर तथा पदाति के अलाव नागों के पास अपनी अश्वों व गजों से सज्जित सेना थी। थोडी थोडी दूरी पर दुर्गम किले थे जो खाईयों से घिरे होते थे। किले की की प्राचीर का निर्माण मिट्टी, ईंट तथा प्रस्तर खण्डों से होता था। बारसूर, भैरमगढ, चक्रकोट, गढबोदरा, छिन्दगढ, तीरथगढ, बडे-डोंगर, राजपुर आदि अनेक दुर्ग नाग राजाओं की सुरक्षा के लिये निर्मित किये गये। धनुषवाण के अतिरिक्त तलवार, कृपाण, कटार, भाला, त्रिशूल, गदा, फरसा, आदि शस्त्रों का प्रयोग युद्ध में किया जाता था। पट्ट, सूर्य खोत्तर, शंख, घंटा, आदि युद्ध के वाद्य यंत्र थे। युद्ध व समारोहों के अवसर पर पताकायें ले कर चलने का प्रचलन था।

कृषकों को भूमि का स्वमित्व प्राप्त था। यदि राजा अथवा माण्डलिक को किसी कृषक से भूमि चाहिये होती थी तो वह भी सम्बद्ध भूमि को खरीदता था। दंतेवाडा अभिलेख इसकी तस्दीक करता है जहाँ उल्लेख है कि राजा नें एक कृषक से बोरिगाम खरीद कर भैरम के मंदिर हेतु दान कर दिया था। राजा द्वारा प्रदत्त भूमि अनुदान एवं पदवियाँ पुश्तैनी नहीं थे अत: सामंतों का बहुत हस्तक्षेप किसानों पर नहीं हो सका था। शोषण के यद्यपि दूसरे स्त्रोत खुले हुए थे और बहुतायत किसान कामगार कृषि ऋण के बोझ से दबे हुए थे। कर उगाहने की प्रथा जटिल थी एवं यह कार्य ठेके पर दिया जाता था। ठेकेदार की संविदा द्वारा सशर्त नियुक्ति होती थी। यह समझा जा सकता था कि इस प्रकार के ठेकेदार किस तरह ग्रामीण जनता को चूसते रहे होंगे। एक ओर खास वर्ग तो करो से छूट के अधिकारी बनते जा रहे थे जबकि नये नये कर व राजनीय अवसरों के आयोजनों हेतु बेसमय करों की उगाही से आदिवासी जनता पिस गयी थी। नाग युगीन मंदिर किसानो से जो कर वसूलते थे उसमें धन, खाद्यपदार्थ के अलावा दूध, तेल, घी, फूल, हार, वस्त्र तथा अन्य वओपज भी सम्मिलित थे। कर-वसूली सम्बन्धित अनीयमितताओं की विवेचना पंच-प्रधान करते थे तथा किसानों की भी राय ली जाती थी; एसा प्रतीत होता है कि उस युग में सभी क्षेत्रों के किसानों नें संयुक्त रूप से एक किसान महासभा का गठन किया था। उपरोक्त व्यवस्थाओं के बाद भी शिकायतों के अम्बार थे और किसानों में बार बार तथा अनेक प्रकार के करों की उगाही के कारण असंतोष व्याप्त था।
चक्रकोटयराष्ट्र के समस्त खनिज क्षेत्र पर राजा का ही अधिकार था। खनिकर्म के अलावा इस युग में वाणिज्य-व्यापार में अभूतपूर्व प्रगति हुई। सूती कपडा बुनने की कला व व्यापार नें खूब प्रगति की। सर्वाधिक मूर्तियाँ व मंदिर बस्तर को नाग युग की ही देन हैं अत: कहा जा सकता है कि स्थापत्य तथा मूर्तिकला का विकास हुआ। राजाओं द्वारा तडाग, कूप वापि तथा उद्यान आदि के निर्माण द्वारा जनकल्याण कारी कार्यों के प्रमाण भी मिलते हैं। समाज में अलगाव भले ही न आया हो तथापि कार्यों का जातिवार स्पष्ट विभाजन नागयुग तक आते आते हो गया था। ब्राम्हण वर्ग नें अन्य व्यवसायों से हाँथ खींच कर कर्मकाण्ड-पूजनपाठ व राजपरामर्शकर्ता तक अपनी भूमिका सीमित कर ली थी। हस्तशिल्प का विकास हो गया था अत: कारीगर वर्ग था, लेखन कार्य के लिये कायस्थ वर्ग था व्यापार के लिये बनिक वर्ग तथा स्पष्ट रूप में दास प्रथा विद्यमान न होते हुए भी दमित-श्रमिक-बेगारी वर्ग उपस्थित था। कुछ तद्युगीन कार्मिक – माली, मोची, कोसटा (कोसे से वस्त्र बनाने वाला), छिप (दर्जी), परियट (लोहार), तेलि (तेल का व्यवसाय करने वाले), साव (बिचौलिये), महाजन (उधार का व्यवसाय करने वाले), कोरी (बुनकर), राउत (गोपालक), भोई (धातुकर्मी), श्रेष्ठि (व्यापारी), छुरिकार (आयुध निर्माता) आदि थे।

संचार के साधनों का व अनेक यात्रा-मार्गों का इस युग में विकास हो गया था जिसका श्रेय प्राचीन मंदिरो विशेषकर नारायणपाल के विष्णु मंदिर को दिया जा सकता है। यह मंदिर एक तीर्थ बन चुका था जहाँ प्रार्थना-दर्शन हेतु दूर दूर से यात्री आया करते थे। नागपुर, चाँदा, कवर्धा, खैरागढ, दमोह, जबलपुर, अमरकण्टक, चित्तोड से यात्रियों के पोटागढ व नारायणपाल आने सम्बन्धी अभिलेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कई यात्रामार्ग चक्रकोट्यराष्ट्र को शेष भारत से जोडते रहे होंगे। यह कार्य व्यापार के लिये भी आवश्यक था जिसके यहाँ सुदूर दक्षिण तक किये जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। एक ज्ञात व्याख्या के अनुसार कभी कांकेर से विशाखापट्टनम के लिये  यात्री मार्ग आमपानी या सलूरघाट हो कर गुजरता था।

ग्रामीण जन वस्तु विनिमय आधारित अर्थव्यवस्था से संचालित थे तथापि श्रेष्ठि, महाजन जैसे तदयुगीन धनाड्य गद्याणक (स्वर्ण मुद्रा) का परस्परव्यवहार करते थे। 1921 में बिलासपुर के सोनसारी ग्राम से सोमेश्वरदेव प्रथम (1069 – 1111 ई.) के द्वारा जारी लगभग 600 स्वर्ण मुद्रायें प्राप्त हुई थीं। 59 ग्रेन भार वाली इन वर्तुलाकार स्वर्न मुद्राओं में व्याघ्रलांछन अंकित था। अब तक प्राप्त नागयुगीन स्वर्णमुद्राओं का इतिहास दो सौ वर्ष से अधिक का हो जाता है जहाँ राजा जगदेकभूषण धारावर्ष (1050-1060 ई.) से प्रारंभ कर लगभग 1250 ई. तक जारी मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। कार्य के बदले अनुदान की परम्परा नागयुग में रही उदाहरणार्थ नृत्यांगना को अनुदान अथवा मेडिपिट (बलि के लिये वध्य पकडने वाला) को अनुदान आदि। 

उपरोक्त विवरणों से यह कहा जा सकता है कि नागराजाओं नें प्रशासनिक व्यवस्था को बहुत जटिल बना दिया था जिस कारण जनता और राजा के बीत प्रशासकों के बहुत से वर्ग पनप गये थे। प्रशासन एक वृत्त बना रहे तभी यह चक्र चलता रहता है किंतु इस युग में जैसे जैसे व्यूरोक्रेसी हावी होने लगी पहली और आखिरी कडी नें अपने सहसम्बन्ध खो दिये। नागयुग का गौरव उसकी प्रगति थी तो पतन का कारण इस विकास की धारा को बनाये न रख पाना भी है। असंतोष अगर उत्पादक में होगा तो उपभोक्ता भी बहुत दिनों तक अपना उदर बढाये घूमता नहीं रह सकता और यही स्थिति जब प्रबल हुई तो नाग शासन के अनेक महामण्डल अलग अलग होने लगे। अपने  शासनके अंतिम वर्षों में तो चक्रकोटय अनेक राष्ट्रों का समूह बन गया था जिसमें कई नाग शासक विद्यमान थे। उनके मध्य अनेकता व जनता में व्याप्त असंतोष नें ही अगके आक्रांता को यहा अपने पैर पसारने की सहूलियत दी थी।
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Monday, January 21, 2013

माओवादी, मधुरांतक, नरबलि और प्राईवेट अंगों की शेविंग.....उफ़!!!!



माओवादी नेता सब्यसांची पाँडा का एक साक्षात्कार ‘दैनिक भास्कर’ में कुछ दिनो पहले पढने को मिला। इससे कुछ देर पहले मैं बस्तर के एक नाग वंशीय शासक मधुरांतक देव के विषय में पढ रहा था। ये दोनो ही विषय पता नहीं क्यों मेरी विचार श्रंखला में गुत्थमगुत्था होने लगे। वर्तमान पर बात करने से पहले मधुरांतक से आपको परिचित करा दूं। यह एक कुख्यात नागवंशीय शासक था जिसनें प्राचीन बस्तर अर्थात चक्रकोट पर 1062 से 1069 ई. के मध्य शासन किया। उल्लेखनीय है कि नाग राजाओं का शासन प्रबन्ध उनके राज्य को कई केन्द्रीय शासन द्वारा संचालित स्वायत्त मण्डलों में विभाजित करता था, इन्ही में से एक था मधुर मण्डल जिसमें छिन्दक नागराजाओं की ही एक कनिष्ठ शाखा के मधुरांतक देव का आधिपत्य था। माना जा सकता है कि मधुरांतक देव के पूर्वजों को माण्डलिक चोल राजाओं नें बनवाया होगा चूंकि राजेन्द्र चोल (1012 – 1044 ई.) के मधुर मण्डल पर विजय का उल्लेख अतीत में प्राप्त होता है। कहानी यह है कि चक्रकोट के राजा धारवर्ष जगदेक भूषण (1050 – 1062 ई.) के निधन के पश्चात चक्रकोटय में उत्तराधिकार को ले कर संघर्ष हुआ और राजनीतिक अस्थिरता हो गयी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर ‘मधुर-मण्डल’ के माण्डलिक मधुरांतक देव ने चक्रकोटय पर अपनी “एरावत के पृष्ठ भाग पर कमल-कदली अंकित” राज-पताका फहरा दी।

कहते हैं कि नितांत बरबर और निर्दयी था वह। उसे कुचल देना ही आता था। ड़र के साम्राज्य ने शासक और शासित के बीच स्वाभाविक दूरी उत्पन्न कर दी। उस पर अति यह कि अपनी कुल-अधिष्ठात्री माणिकेश्वरी देवी के सम्मुख नरबलि की प्रथा को नीयमित रखने के लिये उसने राजपुर गाँव को ही अर्पित कर दिया था। यह गाँव वर्तमान जगदलपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। वहाँ से जिसे चाहे उठा लो और देवी के सम्मुख धड़ से सिर को अलग कर दो। जिन खम्बों पर साम्राज्यों की छतें खड़ी  होती है वे शनै: शनै:  कुचले हुए लोगों की आँहों भर से खोखले हो उठते हैं। मधुरांतकदेव नें अपने राजपुर ताम्रपत्र में नरबलि के लिये राजपुर गाँव को दिये जाने का कारण जनकल्याण बताया है। जनता की लाशें बिछा कर कैसा और किस प्रकार का जनकल्याण संभव हो सकता था? लेकिन उसके पास अपने विचार का नशा था जो उसके द्वारा की जाने वाली हर हत्या को जायज ठहराने का कारण बन जाता था।

गंभीरता पूर्वक कई इतिहासकारों के मंतव्यों और ताम्रपत्रों-शिलालेखों के अनुवाद पढने के पश्चात मेरी यह राय बनी है कि यदि किसी कृत्य को गरिमा प्रदान की जाये तो वह प्रथा बन जाती है। नरबलि को मधुरांतक नें त्यौहार बना दिया था अत: यह उसकी मौत के बाद भी प्रथा समाप्त नहीं हुई अपितु किसी न किसी रूप में चलती रही। मधुरांतक के बाद नरबलि के लिये किसी शासक द्वारा गाँव समर्पित करने का उल्लेख तो नहीं मिलता लेकिन मेरिया अर्थात वध्य को पकड़ने के लिये  तरह तरह के हथकंडे अपनाये जाने लगे। कालांतर अपराधी अथवा कभी कभी कोई अनजान यात्री अथवा पडोसी राज्य से किसी व्यक्ति को पकड कर बलि दी जाने लगी। नर बलि के कारण बडे ही जनकल्याणकारी बताये जाते थे उदाहरण के लिये कर्नल मैकफर्सन का प्रतिवेदन (1852) उल्लेखनीय है जिसमें वर्णित है कि “भूमिदेवी की पूजा के निमित्त नरबलि दी जाती है। अकाल मौत से बचने के लिये, शिशु जन्म के अवसर पर, वन्य पशुओं के आतंक से गावों को बचाने के लिये, फसल को खराब होने से रोकने के लिये, गाँव पर, राज्य पर, मुखिया पर अथवा राजा पर कोई विपत्ति आने की स्थिति में भी नर बलि दी जाती है”।

मधुरांतक देव का क्या हुआ यह जानने से पहले चर्चा सव्यसाँची पाँडा की अखबारी समाचार के आलोक में करते हैं। अखबार लिखता है “शोषितों, वंचितों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले नक्‍सिलयों में आजकल अंदरूनी घमासान मचा है। हाल में पार्टी से निकाले गए माओवादी कमांडर सब्‍यसाची पांडा ने काफी बगावती तेवर दिखाए थे। वह अब बिल्‍कुल अकेला है। ओडिशा में नक्‍सल आंदोलन के 'पोस्‍टर ब्‍वॉय' के तौर पर मशहूर 43 साल का पांडा अब खुद को 'ओल्‍ड डॉग' की तरह मानता है जिसका उसकी पार्टी नामोनिशान मिटा देनी चाहती है। ओडिशा का सबसे अहम नक्सली नेता माने जाने वाले पांडा को 'शे गुवेरा' कहलाता था। पांडा ने एक खत लिख कर कई सवाल उठाए थे। उसने नक्‍सलियों के प्राइवेट पार्ट्स 'क्‍लीन शेव' करने के चलन पर जोर देने की परंपरा को भी गलत ठहराया है। उसका कहना है कि यह तेलुगु कैडरों में आम बात है और महिला काडरों को अक्‍सर ऐसा करने की सलाह दी जाती है। उसने लिखा है, 'महिला काडरों को बिना कपड़े के स्‍नान करने को भी कहा जाता है। मुझे समझ नहीं आता कि क्रांति का ऐसे बकवास सिद्धांतों से क्‍या ताल्‍लुक है?

इसे पढने के बाद मेरा दिमाग सन्नाटे में आ गया था। पिछले तीस सालों से बस्तर के जंगलों में तेलगु कैडर नें ही खास तौर पर ‘नरबलियों’ से सन्नाटा पसराया हुआ है। क्या इस तरह की जा रही है क्रांति जिसमें व्यक्ति की इतनी निजता पर भी दिशानिर्देश जारी किये गये हैं? उपरी तौर पर तो अभिव्यक्ति और अन्य तमाम प्रकार की आजादी के लिये लडी जाने वाली इस तथाकथित क्रांति का स्वरूप इतना घृणास्पद होगा मेरी सोच में भी नहीं था। बडी बात यह है कि यह उजागर करने वाला व्यक्ति स्वयं कुख्यात माओवादी रहा है। निजी अंगों से विचार और विचारधारा का क्या अंतर्सम्बन्ध है? अथवा क्या निजी अंगो से ही संबंध है तथा विचारधारायें कम्बल का कार्य करने लगी हैं? उफ़.....।

इस यौनविकार भरी लिजलिजी विचार प्रक्रिया से बाहर निकलते हैं और पाँडा की मन:स्थिति को समझने का यत्न करते हैं। ओपन' मैगजीन ने पांडा के खत अपने पास होने का दावा किया है। मैगजीन ने कहा है कि दुखी मन से लिखे गए इस खत में पांडा ने सीपीआई (माओवादी) के आलाकमान की गतिविधियों पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। खत में पांडा ने ऐसे सनसनीखेज खुलासे किए हैं जिनसे माओवादी नेतृत्‍व में फूट पड़ सकती है। पांडा ने कहा है कि माओवादी नेता खुद को मालिक समझ बैठे हैं और कैडर उनकी गलतियों का विरोध करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाते हैं। पांडा ने नक्सल नेतृत्व पर अकारण हिंसा फैलाने का आरोप लगाया है। पांडा ने लिखा है, हम कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी में किसी गलती के लिए पार्टी के सदस्‍य को सस्‍पेंड कर सकते हैं और जरूरत पड़ी तो उसकी हत्‍या भी की जा सकती है। पांडा ने सवालिया लहजे में कहा, क्‍या किसी क्रांतिकारी का काम केवल पुलिसवालों की हत्‍या करना ही रह गया है?” यह सवाल महत्वपूर्ण है, एकपूर्व माओवादी नेता द्वारा उठाये जाने के कारण इस सवाल को विषद चर्चा का विषय बनना चाहिये। यह सवाल उन सभी युवाओं के सामने पडना चाहिये जिनके सामने रात दिन क्रांति का ढोल पीटा जा रहा है और बंदूख उठाने के लिये कई उत्प्रेरक सामने रखे गये हैं। यह सवाल क्रांति के नाम पर किसी भी हथियार उठाने वाले को स्वयं से करना ही चाहिये कि क्या वे जाने अनजाने मधुरांतक देव तो नहीं बन रहे?

यह आम आदमी की बलि ही तो है; पांडा आगे लिखते कहते हैं पांडा ने बेवजह किसी खास वर्ग के विध्‍वंस के खिलाफ भी जमकर अपनी भड़ास निकाली है। उसने लिखा है, किसी पर मुखबिर होने का ठप्‍पा लगाकर उसे मारना-पीटना और जला देना ही समस्‍या का हल नहीं है। पांडा ने संबलपुर के पांच-छह गाँववालों, जिन्‍हें 2004 में मुखबिर होने के शक में मार डाला गया था, का उदाहरण देते हुए कहा, “केवल मैंने इसका विरोध किया था इस परिप्रेक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह उस व्यक्ति के द्वारा कही गयी बाते हैं जो अब तक आउटलुक, तहलका या बीबीसी जैसे खबरदात्री स्थलों में चंद दिन या महीने रहे घूमंतू पत्रकारों अथवा किसी राजनीतिक-विचारधाराबद्ध लेखकों की कही-सुनी-गढी-बढी-चढी बातों से बिलकुल अलग प्रतीत होती हैं। वह व्यक्ति जिसने वर्तमान की इस तथाकथित क्रांति को खाया-पीया-ओढा-बिछाया है उस पर बुद्धिजीवी केवल खखार कर नहीं रह सकते (यद्यपि मौन ही रहने वाला है)। अखबार सब्यसांची पाण्डा का परिचय देते हुए एवं माओवादी संगठनों की आंतरिक गुटबाजी पर जोर दे कर लिखता है कि “सब्यसाची पांडा भाकपा (माओवादी) राज्य (ओडिशा) संगठन का सचिव था। मार्च महीने में दो इतालवी नागरिकों के अपहरण के पीछे इसी का हाथ था। अपहृतों की रिहाई के बदले पांडा ने अपनी पत्‍नी मिली को जेल से छोड़े जाने की मांग की थी। उसे बाद में जमानत पर छोड़ दिया गया था। सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक पांडा नक्सली संगठन में आंध्र प्रदेश कैडर के नक्सलियों के दबदबे से परेशान था और ओडिशा में पांडा की बढ़ती ताकत से आंध्र के नक्सली नेता खुश नहीं थे। यही कारण है कि पांडा को अब तक सेंट्रल कमेटी या पोलित ब्यूरो में जगह नहीं दी गई थी”। 

क्रांति नरबलियों से नहीं आ सकती, प्राईवेट अंगों को शेव करने से भी नहीं आयेगी, महिला कैडरों को निर्वस्त्र नहाते ताकने वाले.....नहीं ला सकते क्रांति। इनसे क्रांति के मायनों की तलाश छोड कर हश्र की बात करते हैं और यहाँ मधुरांतक देव की चर्चा पुन: आवश्यक हो जाती है। इस शासक को एक जनक्रांति नें सत्ता से बेदखल किया था। हाँ, मैं यहाँ उसी बस्तर की बात कर रहा हूँ जिसे क्रांति सिखाने वाले देश भर में पिले पडे हैं। इस क्रांति का नेतृत्व किया था सोमेश्वरदेव (1069 – 1111 ई.) नें। वे दिवंगत नाग राजा धारवर्ष जगदेक भूषण के पुत्र थे। मधुरांतक द्वारा पराजित और निर्वासित किये जाने के बाद वे चक्रकोटय के निकट ही किसी गुप्त स्थान पर रहते हुए जन-शक्ति संचय में लगे थे। उनका कार्य कठिन नहीं था। हाहाकार करती प्रजा को एक योग्य नेता ही चाहिये था। राज्य में विद्रोह अवश्यंभावी था। सोमेश्वर देव ने जनभावना का लाभ उठाते हुए उनके क्रोध को युद्ध में झोंक दिया। आक्रमण हुआ तो किले के भीतर रह रहे नागरिकों में हर्ष का संचार हो गया। मधुरांतक ऐसी सेना को साथ लिये कितनी देर लड़ सकता था जिनकी सहानुभूति और भरोसा उसने खो दिया था? युद्ध समाप्त हुआ। मधुरांतक जंजीरों में जकड़ कर राजा सोमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। राजाज्ञा से जब आततायी मधुरांतक के सिर पर हाथी ने अपना पैर रखा तो यह दृश्य देखने के लिये नगर का एक-एक व्यक्ति उपस्थित था। किसी भी आँख में कोई सहानुभूति नहीं थी। क्या आधुनिक मधुरांतकों के पास यह घटना उदाहरण के तौर पर मौजूद है?......या जलक्रीडायें और रेजर की दुकाने ही क्रांति को आगे ठेलती रहेंगी? 
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Saturday, January 19, 2013

रहस्यमयी नागलोक तथा बस्तर में नाग शासन (760 – 1324 ई.)


हमारी कल्पनाशीलता नें नागों को अत्यधिक कलात्मकता और रहस्यमयता प्रदान की है। नाग सदियों से कविताओं का विषय रहे हैं। नाग आज की सिनेमा के किरदार भी हैं, जहाँ वे मनुष्य रूप में परिवर्तित हो कर प्रेम करते हैं, नृत्य करते हैं और पुन: अपने लोक में लौट जाते हैं। रोमांचित करती हैं नाग और उनके पाताल लोक से जुडी कहानियाँ। प्राचीन बस्तर में जहाँ नाग शासकों का उल्लेख मिलता है वहाँ एक अध्येता के रूप में मेरे मन में भी एसी ही रोमांचित कर देने वाली कहानियाँ प्रश्न खड़े करने लगीं। पहला प्रश्न तो यही कि नाग कौन थे? इसका उत्तर जटिल नहीं है चूंकि इतिहासकार मानते हैं कि पर्वतो (नग) में निवास करने वाली जनजातियाँ ही नाग कहलाने लगीं। दक्षिणापथ से नागों का सम्बन्ध प्राचीनकाल से जोडा भी जाता रहा है। वाल्मीकी रामायण (5.12.12) में नाग कन्याओं के अप्रतिम सौन्दर्य का उल्लेख है। रावण नें बलपूर्वक कई नागकन्याओं का हरण किया था – “प्रमथ्य राक्षसेन्देण नागकन्या: बलाद्धृता:”। नाग पाताल लोक में रहते थे जिसकी राजधानी भोगावती थी। पाताल लोक के सप्तगोदावरी क्षेत्र में होने की पुष्टि वामनपुराण के इस श्लोक से होती है – “पर्जन्यं तत्र चामंत्रय प्रेषयित्वा महाश्रमे। सप्तगोदावरे तीर्थे पातालम गमत कपि:”। अर्थात पाताल लोक और गोंडवाना पर्यायवाची शब्द कहे जा सकते हैं। इसके साथ ही भोगावती की भौगोलिक स्थिति की जानकारी रामायण के अरण्य काण्ड (32:13-14) से प्राप्त होती है जिसके अनुसार महर्षि अगस्त्य के आश्रम के निकट नागों की यह राजधानी अवस्थित थी। भोगावती का उल्लेख यदाकदा एक नदी के रूप में भी होता है जिसके विवरणों के विश्लेषन से इसे इन्द्रावती नदी माना जा सकता है। महाभारत के अनुसार भी भोगावती दक्षिणापथा में ही स्थित है जिसके शासक वासुकि, तक्षक तथा एरावत थे। दक्षिणापथ में महाभारत युग तक आर्यों की घुसपैठ बढ गयी थी जिसकारण नाग-आर्यों के बीच कई संघर्ष भी हुए। महाभारत में एसी कई कथाये उपलब्ध हैं। बौद्धग्रंथों में भोगावती का उल्लेख हिरण्यमयी नगरी के रूप में किया गया है। प्राचीन बस्तर के नाग शासक सोमेश्वरदेव प्रथम (1069-1111 ई.) के लिये भी भोगावती स्वामी का उल्लेख कई उपलब्ध एतिहासिक साक्ष्यों में हुआ है। प्राचीन बस्तर में शासन करने वाले सभी नाग राजा भोगावतीपुरवरेश्वर की उपाधि भी धारण करते थे।    

प्रश्न यह भी उठता है कि क्या नाग और गोंड भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? संभवत: महाभारत की एक कथा इसका कोई उत्तर दे सके जिसके अनुसार दुर्योधन के एक भाई कर्ण नें मध्यप्रदेश की पचमढी के निकट किसी नागकन्या के प्रति आसक्त हो कर उससे विवाह कर लिया। नागकन्या के पिता इस बेमेल विवाह से अप्रसन्न व असंतुष्ट थे अत: उन्होंने यह आदेश दिया कि उत्पन्न बालक का पिता के वंश से कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा एवं यह नागवंशी कहलायेगा। इस संतति के वंशज गोंड कहलायेंगे (वार्ड; 1868)। इस कहानी से साम्यता रखते हुए भी बस्तर के गढधनोरा में उपलब्ध एक कहानी गोंडों को कुरुवंश से नहीं जोडती अपितु उनके अनुसार कर्ण एक दानी गोंड राजा था जिसने अपने ही पुत्र की बलि दे दी थी। रसेल तथा हीरालाल (1916) के अनुसार छोटानागपुर के नागवंशी राजा मानते थे कि उनके पूर्वपुरुष नागदेवता और ब्राम्हण कन्या की युति से उत्पन्न हुए थे। 1908 में लाल-कालेन्द्रसिंह रचित बस्तर राज वंशावली (अप्रकाशित) के अनुसार “बस्तर के माडिया क्षेत्रों में नागों के 33 अभिलेख एवं 800 स्वर्ण मुद्रायें मिली हैं। अभिलेख के सभी नृपति स्वयं को पौराणिक नागों से सम्बद्ध करते हैं। बस्तर के बारसूर ग्राम के नेगी आज भी स्वयं को नागवंशी राजाओं के वंशज मानते हैं; तथा ये आदिवासी हैं”। इन मिथक कथाओं से गोंड उत्पत्ति के सूत्र भ्रामक लगते हों तथापि इतना अवश्य सिद्ध होता है कि गोण्डवाना ही वह रहस्यमयी नागलोक है जिसकी चर्चा उपरोक्त संदर्भों में की गयी है।

उल्लेखनीय है कि आधुनिक द्रविडों के पूर्वज कभी सिन्धु घाटी क्षेत्र के आस-पास निवासरत रहे होंगे जिसकी तस्दीक पाकिस्तान के बलुचिस्तान क्षेत्र में बोली जाने वाली द्रविड़ परिवार की ब्राहुई भाषा से होती है जो अब भी लगभग चार लाख लोगों द्वारा बोली जाती है। द्रविड ईसापूर्व तीसरी-चौथी सहस्त्राब्दि में भारत की ओर बढे तथा वर्तमान मध्यप्रदेश उनका प्रमुख ठिकाना बना एवं पद्मावती नागों की राजधानी बनायी गयी। यहाँ से वे अनेक धाराओं-शाखाओं मे विभाजित हो कर विभिन्न दिशाओं में चले गये। बस्तर के नाग शासकों का सम्बन्ध छिन्दक शाखा से जुडा पाया गया है। के पी जायसवाल नें अपनी किताब अंधकारयुगीन भारत (1955) में उल्लेख किया है कि गुप्तराजाओं से पराजय के फलस्वरूप पद्मावती के नाग दक्षिण की ओर चले गये तथा कुछ काल तक उनका शासन होशंगाबाद और जबलपुर जिलों में रहा। यहीं से वे बस्तर की ओर कूच कर गये।

इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार सिन्धु तट से मध्यप्रदेश आ कर बसे नागों नें यहाँ से पलायन करने के पश्चात कर्नाटक में शरण ली; यहाँ उनकी तीन उपशाखाओं का उल्लेख मिलता है – सेन्द्रक शाखा (मैसूर तथा लगभग सम्पूर्ण कर्नाटक में विस्तार), सेनावार शाखा (कर्नाटक के कडूर तथा सिमोगा में शासन) तथा सिन्द शाखा (छ: उपशाखायें जिनमें बस्तर भी सम्मिलित था)। जिन छ: सिन्द क्षेत्रों का उल्लेख है वे हैं – बागलकोट (बगदगे), एरमबिगगे (येलबुर्गा), बेलगवट्टि, हलावूर/बेल्लारी, चक्रकोट तथा भ्रमरकोट। अंतिम दो स्थल अर्थात चक्रकोट एवं भ्रमरकोट वर्तमान बस्तर का हिस्सा हैं। यहाँ शासन करने वाले नाग राजाओं को छिन्दक कहा गया है जिसकी उत्पत्ति सेन्द्रक से ही हुई है। बस्तर के छिन्दक नागों के भी दो घरानों का उल्लेख मिलता है – वरिष्ठ शाखा के मुकुट पर “सवत्सव्याघ्र” प्रतीक अंकित था तथा उनका ध्वज “फणिध्वज” रहा है। नाग की कनिष्ठ शाखा जिसके एक मात्र शासक मधुरांतक देव का ही प्रमुखता से उल्लेख मिलता है; वे “धनुषव्याघ्रलांछन” युक्त मुकुट चिन्ह एवं “कमल के पुष्प एवं कदलीपत्र” के ध्वज का प्रयोग करते थे।     

नल-गंग युगीन महाकांतार अथवा चक्रकोट्य़ में अनेकों स्वतंत्र तथा अर्ध-स्वतंत्र राज्य निर्मित हो गये थे, जिन्हें मण्डल कहा जाता था। आक्रांताओं के लिये यह भूमि सुलभ से सुलभतर होती गयी। नौवी शताब्दी में पूर्वी-चालुक्यों के चक्रकूट पर आक्रमण और विजय की जानकारी प्राप्त होती है। यह प्रतीत होता है कि इसी काल में किसी नागवंशी सामंत को माण्डलिक बनाया गया होगा। वल्लभराज (925-980 ई.) प्रथम ज्ञात नालवंशीय राजा है जिसकी पुष्टि एर्राकोट से प्राप्त एक तेलुगु अभिलेख से होती है। यह प्रस्तराभिलेख बारसूर के निकट उपेत नामक स्थान से प्राप्त हुआ है जिसमें कर उगाही करने वाले संविदाकारों के लिये राजा वल्लभराज की शर्तों का वर्णन है। अगले शासक शंखपाल (980-1012 ई.) के सम्बन्ध में अधिकतम जानकारी साहित्यिक प्रमाणों से उपलब्ध होती है। मालवा के सिन्धुराजा के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल नें महाकाव्य “नवसाहसांकचरित” की 1005 ई. के लगभग रचना की थी जिसमें नागवंशी राजा शंखपाल का उल्लेख है जिसने सिन्धुराज की युद्ध में सहायता की थी। यह भी उल्लेख है कि राजा शंखपाल की पुत्री शशिप्रभा का विवाह सिन्धुराज से किया जाता है। संदर्भों के आधार पर यह संभावना बनती है कि बंगाल के किसी पाल राजा के 1012 ई. में हुए आक्रमण तथा उसी युद्ध में शंखपाल की मृत्यु हो गयी जिसके परिणाम स्वरूप राजा नृपति भूषण (1012-1050 ई.) चक्रकोटय क्षेत्र के राजा हुए। इन्हीं समयों में चोल राजा राजेन्द्र (1011-1022 ई.) के चक्रकोटय पर आक्रमण कर अधिकार करने का भी उल्लेख मिलता है। संभवत: नृपतिभूषण से पुन: स्वयं को स्वाधीन कर लिया होगा। नृपति भूषण के निधन के पश्चात जगदेकभूषण धारवर्ष (1050-1062 ई.) चक्रकोटय के राजा हुए। 1062 ई में उनके निधन के बाद चक्रकोटय में उत्तराधिकार को ले कर संघर्ष हुआ और राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर ‘मधुर-मण्डल’ के मधुरांतक देव (1062- 1069 ई.) ने चक्रकोटय पर अपनी “एरावत के पृष्ठ भाग पर कमल-कदली अंकित” राज-पताका फहरा दी। मधुरांतक देव को अपनी क्रूरता तथा निरंकुशता के लिये भी जाना जाता है। कहा जाता है कि उसने जगदलपुर से 22 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित राजपुर नाम के गाँव को नरबलि के लिये एक मंदिर को दान में दे दिया था। मधुरांतक बहुत समय तक शासन नहीं कर सका, जगदेक भूषण धारावर्ष के पुत्र सोमेश्वर प्रथम (1069-1111 ई.) नें युद्ध में उसका वध कर दिया तथा वे चक्रकोटक के निष्कंटक शासक बन गये। सोमेश्वर प्रथम की दो पत्नियाँ थीं सासन महादेवी तथा धारण महादेवी। धारण महादेवी अभिलेखों की दानदात्री भी रही हैं। ग्यारहवी शताब्दी के दंतेवाड़ा से प्राप्त एक शिलालेख में राजा सोमेश्वरदेव प्रथम की बहन मासकदेवी का उल्लेख मिलता है जो किसानों के द्वारा जबरन तथा बार बार लगान वसूली से चिंतित प्रतीत होती हैं। मासक देवी किसानों के बीच जाती हैं उनकी समस्यायें सुनती हैं तथा शासन से अलग इकाई होने के बाद भी समस्या के निदान की सक्रिय पहल करती हैं। वे पाँच महासभाओं के प्रमुखों तथा किसान प्रतिनिधियों के साथ बैठक करती हैं। लिये गये निर्णय को राजाज्ञा की तरह जारी करती हैं कि भविष्य में अनीयमित लगान वसूली किसी शासकीय अधिकारी द्वारा नहीं की जायेगी। एसा करने वाले को विद्रोही तथा राज्य का शत्रु समझा जायेगा। सोमेश्वर देव की माता गुण्ड महादेवी भगवान विष्णु की भक्त थी। उन्होंने नारायणपाल में भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था तथा यह गाँव मंदिर को दान में दे दिया था। नारायणपाल का विष्णु मंदिर आज भी संरक्षित अवस्था में उपलब्ध है। सोमेश्वर प्रथम के शासनकाल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलेख कुरुसपाल से प्राप्त हुआ है जिसमें उनकी समस्त युद्ध विजयों की गाथा अंकित है। ज्ञात होता है कि उन्होंने वेंगी पर आक्रमण कर उसे जला दिया था; भद्रपट्टन तथा वज्र के साथ साथ दक्षिण कोसल के बडे क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। उनके उत्तराधिकारी थे कन्हारदेव प्रथम (1111-1153 ई.)। कुरुसपाल अभिलेख, राजपुर ताम्रपत्र और नारायणपाल अभिलेख में कन्हारदेव प्रथम का उल्लेख आता है। यह उनके शासन काल की ही घटना है कि रतनपुर के कलचुरी सामंत जगपालदेव (1145 ई.) नें काकर्य (कांकेर) पर विजय प्राप्त की थी। कन्हार देव प्रथम के बाद चक्रकोटय के इतिहास पर पुन: लगभग पचहत्तर वर्ष का अंधकार मिलता है। बहुत सीमित जानकारी बारसूर अभिलेख से प्राप्त होती है जिसके अनुसार कन्हारदेव द्वितीय (1153-1195) का शासन काल सोमेशवर द्वितीय (1195-1218 ई.) के पहले रहा होगा। सोमेश्वर द्वितीय पहले नगवंशी शासक हैं जिन्हें चक्रवर्ती अर्थात सम्राट होने की उपाधि प्राप्त थी। संभव है विभिन्न माण्डलिक राजाओं नें उनकी आधीनता स्वीकार कर ली होगी। बारसूर अभिलेख के अनुसार उन्होंने बारसूर के ही दो शिवमंदिरों के संचालन के लिये एक गाँव दान में दे दिया था। इसके बाद के शासक थे जगदेकभूषण नरसिंहदेव (1218-1224 ई.) उन्हें मणिकेश्वरी देवी का भक्त बताया गया है। मणिकेश्वरी देवी का मंदिर वर्तमान दंतेवाडा में दंतेश्वरी मंदिर से लग कर अवस्थित है। एसी जानकारियाँ है कि उनके शासनकाल में बस्तर का शिव धर्म तांत्रिक समुदाय में परिवर्तित होने लगा था। वस्तुत: नाग राजाओं की शासन प्रणाली से सम्बन्धित कुछ जानकारी हमें जयसिंह देव (1224-1248 ई.) के समय के अभिलेखों से प्राप्त होती है। महाराजा राष्ट्र का अधिपति होता था जिसके आधीन महामण्डलेश्वर (महामण्डल के शासक) होते थे। इसके बाद माण्डलिक, विषयपति तथा ग्रामनायक आते थे। राजा की सहायता तब पाँच मंत्री किया करते थे जिन्हें पंच प्रधान कहा जाता था। पंचप्रधान के अंतर्गत मुख्यमंत्री, प्रमुख सेनानायक, प्रमुख चामरधारी, राजकुमार तथा गुप्तचर संस्था के प्रमुख सम्मिलित होते थे। नाग युग में कोट या राज्य प्रमुख प्रशासकीय क्षेत्र थे जो नाडु में विभाजित थे। नाडु को प्रशासनिक संभाग अथवा मण्डल भी माना जा सकता है। ये मण्डल जिलों में विभाजित थे जिन्हें वाडि कहा गया है। वाडि अथवा जिलों का अगला विभाजन महानगर, पुर तथा ग्राम के रूप में होता था। इसके बाद इतिहास का एक और अंघेरा समय जो पुन: लगभग पचहत्तर वर्ष का है, आता है जिसके सम्बन्ध में कोई अभिलेख अथवा साक्ष्य सामने नहीं आया है। हरिश्चंद देव (1300-1324 ई.) अगले ज्ञात राजा हैं जो चक्रकोटय में नाग शासन की अंतिम कडी कहे जा सकते हैं। काकतीय राजा अन्नमदेव के साथ उनका संघर्ष 1324 में हुआ तथा उनकी मृत्यु के साथ ही बस्तर के इतिहास का नया अध्याय प्रारंभ होता है।
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Tuesday, January 15, 2013

राजीव रंजन प्रसाद के उपन्यास “आमचो बस्तर” पर डॉ. कौशलेन्द्र की समालोचना



नक्सलवाद बस्तर का मैलिग्नेण्ट कैंसर है डॉ. कौशलेन्द्र

“आमचो बस्तर” को प्रकाशित हुए दूसरा वर्ष हो गया है। इस बीच हार्ड बाउंड तथा पेपरबैक दोनो संस्करण बाजार में आ गये हैं। प्रसन्नता इस बात की अधिक है कि मुझे अब भी प्रतिक्रियायें निरंतर प्राप्त हो रही हैं। नवीनतम समालोचनात्मक प्रतिक्रिया दी है कांकेर (बस्तर) के डॉ. कौशलेन्द्र नें। इस समालोचना को उन्होंने अपने ब्ळोग “बस्तर की अभिव्यक्ति” पर भी प्रकाशित किया है। यह समालोचना मैं अपने मित्रों के लिये उपलब्ध करवा रहा हूँ: -
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राजीव रंजन प्रसाद का हालिया लिखा उपन्यास आमचो बस्तरअपनी ही धरती पर बेगानों के साथ मिलकर अपनों द्वारा क्रूरता से छिछियाये हुये पीड़ित संसार का इतिहास है, अतीत की गुफाओं में दफ़न किये जा चुके बस्तर के देशभक्त महानायकों की गौरवपूर्ण समाधि बनाने और उन पर श्रृद्धासुमन अर्पित कर बस्तर के इतिहास को पुनर्जीवित करने का सार्थक और स्तुत्य प्रयास है, शोषण की अजस्र प्रवाहित विषधारा के प्रति व्यापक चिंता है, छोटी-छोटी समस्याओं के विराट ज्वालामुखी हैं, विदूप हो ठठाते विकास की कड़्वी सच्चायी है, पत्रकारिता की निष्ठा पर अविश्वास है, गोलियों से बहे निर्दोष ख़ून और मासूम चीखों से अपने अहं को तुष्ट करती सत्ता की कहानी है, दुनिया के द्वारा ख़ारिज़ किये जा चुके आयातित विचारों की पोटली में छिपे बम हैं....और हैं ढेरों प्रश्न जो किसी भी निष्पक्ष पाठक को झकझोरने, अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने और एक नई क्रांति के लिये पृष्ठभूमि की आवश्यकता पर चिंतन करने को विवश करते हैं। 

उपन्यास के भीतर से एक आह उठती है  मेरे बस्तर! क्या तुम इसी प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी लोकतंत्र का हिस्सा हो? क्या बस्तर भारत का ही हिस्सा है?”  देश को आज़ाद हुये आधी सदी से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस तरह के आह भरे प्रश्न आज़ादी के स्वरूप और औचित्य के लिये चुनौती हैं।  

कई बार मैं यह सोचने के लिये विवश हुआ हूँ कि नैसर्गिक सौन्दर्य और प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर बस्तर कहीं इस आर्यावर्त की अभिषप्त भूमि तो नहींत्रेतायुग में रावण का उपनिवेश रहा दण्डकवन, कलियुग में दुनिया के लिये अबूझ हो गया बस्तर, बीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश, भोसले और अरब आततायियों से आतंकित बस्तर, स्वतंत्र भारत में स्वाधीनसत्ता की गोलियों से भूने जाते निर्दोष गिरिवासियों-वनवासियों के शवों पर सिसकता बस्तर और वर्तमान में लाल-सबेरा के लाल-रक्त से प्रतिदिन स्नान करता बस्तर कब तक शोषित होता रहेगा और क्यों?

बस्तर की माटी में पले-बढ़े, अपने सर्वेक्षण और चिंतन को कलम के माध्यम से अभिव्यक्त करते राजीव रंजन प्रसाद के उपन्यास आमचो बस्तरके पात्र भी इन्हीं प्रश्नों से जूझते नज़र आते हैं। बस्तर के प्राच्य इतिहास को अपने में समेटे इस ऐतिहासिक उपन्यास की प्रथम यवनिका उठते ही एक गोला सा दगता है- आख़िर सुबह क्यों नहीं होती?” प्रश्न स्वगत उत्तर के रूप में अपने को और भी स्पष्ट करता है- रोज-रोज माओवादी हमलों में मारे जा रहे आदिवासियों से वैसे भी दुनिया का क्या उजड़ता है?”

प्रकृति ने तो बस्तर को बड़ी उदारता से सब कुछ बाँटा पर मनुष्य ने बस्तर को छलने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत की स्वतंत्रता के 12 वर्षों बाद बस्तर के वनवासियों के साथ भारत सरकार द्वारा एक क्रूर परिहास किया गया; उन्हें बताया गया कि भारत सरकार के द्वारा विजय चन्द्र भंज देव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया है, अब वे ही आप सबके महाराजा हैं।

प्रवीर चन्द्र भंज देव को अपना महाराजा ...अपना अन्नदाता ...अपना भगवान मानने वाले बस्तर के भोले-भाले लोगों को नहीं पता कब किसकी हुक़ूमत आयी और कब किसकी ख़त्म हो गयी। उन्हें दिल्ली नहीं मालुम, उन्हें भारत सरकार नहीं मालुम। उन्हें बदला हुआ सत्य न बताकर उनकी आस्था भंग की गयी। बस्तर राज्य को भारतसंघ में स्वेच्छा से सम्मिलित कर चुके महाराजा प्रवीर को भारत सरकार ने बस नाम भरका पूर्व राजा  मानने से इंकार करते हुये उनके छोटे भाई को नाम भरका राजा घोषित कर दिया, एक ऐसा राजा घोषित कर दिया जिसका कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं था। किंतु ...इस घोषणा में जिस बात का अस्तित्व था वह था झूठी शान की दिलासा में दो भाइयों को एक-दूसरे का शत्रु बनाकर सत्ता में बैठे लोगों की अहं की तुष्टि। इस तुष्टि का परिणाम हुआ 31 मार्च 1961 को बस्तर के लोहण्डीगुड़ा में आदिवासियों पर पुलिस की बर्बर फ़ायरिंग। और फिर बस्तर राजमहल में निहत्थे प्रवीरचन्द्र भंज देव की पुलिस द्वारा बर्बर हत्या। क्या स्वतंत्र भारत की यही तस्वीर है?

उपन्यासकार राजीव रंजन की एक बड़ी पीड़ा यह भी है कि देश के लोग बस्तर को अन्धों के हाथी की तरह देखते रहे हैं ...वह भी अपनी पूरी ज़िद के साथ। दूर दिल्ली में बस्तर के प्रति एक आम धारणा देश की संचार एवं सूचना व्यवस्था का परिहास करती है – “ ... अरे बस्तर से आये हो, लेकिन तुमने तो कपड़े पहन रखे हैं।

लोगों की दृष्टि में बस्तर कैसा है, लेखक ने इसका  बख़ूबी वर्णन किया है –“बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने के लिये दिल्ली से एक बड़ी पत्रिका के पत्रकार और प्रेस फ़ोटोग्राफ़र आये थे। जंगल-जंगल घूमे। उन्हे यहाँ की हरियाली में ख़ूबसूरती नज़र नहीं आयी। चित्रकोट और तीरथगढ़ जैसे जलप्रपात उन्हें सुन्दर नहीं लगे, न ही कुटुमसर जैसी गुफ़ाओं के रहस्य ने उन्हें रोमांचित किया। जिस ख़ूबसूरती की तलाश थी वह थी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी निर्वस्त्र आदिवासी युवती।

बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने आये एक फ़्रांसीसी जोड़े को भी किसी नग्न आदिवासी युवती की तलाश थी। घुटनों से ऊपर स्कर्ट और टीशर्ट पहनने वाली रीवा को देखकर स्थानीय युवक के मन प्रश्न उठता है कि आख़िर इतने ख़ुलेपन और न्यूनतम वस्त्रभूषा के बाद भी इन्हें बस्तर में निर्वस्त्र आदिम जीवन को ही देखने की उत्कंठा क्यों है?” आगे लेखक ने चुटकी लेते हुये लिखा है- “ ....वह पिछड़ों के नंगेपन और विकसितों के नंगेपन के बीच के अंतर का विश्लेषण कर रहा था।

लेखक बस्तर की इस कृत्रिम छवि से व्यथित है इसलिये उसे ऐतिहासिक हवाला देते हुये बस्तर राज्य के पूर्व मंत्री की हैसियत वाले एक पात्र के माध्यम से यह स्पष्ट करना पड़ा कि, “राजा अन्नमदेव से पहले नाग राजाओं की शासन पद्धति गणतंत्रात्मक थी। वैदिक युग से नागों के युग तक बस्तर की जनता का भौतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास हुआ था।आगे, लेखक ने बस्तर की त्रासदी को रेखांकित करते हुये एक स्थान पर लिखा - जब एक समाज बाहर और भीतर के द्वार बन्द करले तो समझिये उस समाज ने पीछे की ओर दौड़ लगाना आरम्भ कर दिया है। राजा अन्नमदेव गणतांत्रिक व्यवस्था को कायम नहीं रख सके ...

बस्तर की पृष्ठभूमि पर यह उपन्यास जंगल से दूर किसी महानगर के भव्य भवन के वातानुकूलित कक्ष में सुने-सुनाये मिथकों और कल्पना के सहारे नहीं लिखा गया बल्कि बस्तर के जंगल के भीतर बैठकर लिखा गया। इसीलिये उपन्यास एक ऐतिहासिक अभिलेख बन पड़ा है जिसके अतीत में खोये पात्र अत्याचार के विरुद्ध जूझते हुये और शोषण को अपनी नियति स्वीकार कर चुके आधुनिक पात्र विकास की आशा में बड़ी उत्सुकता से बस्तर से बाहर की ओर झाँकते नज़र आते हैं। गहन वन के अंधेरों को बेचकर ख़ुद के लिये रोशनी का ज़ख़ीरा जमा करते लोग बस्तर के अंधेरों को बनाये रखने के हिमायती हैं। अंधेरों के ख़िलाफ़ लड़ने की कसम खाते हुये कुछ तत्वों ने रूस और चीन से आयातित विचारों के सहारे एक समानांतर सत्ता कायम कर ली है जो अब ख़ुद भी अंधेरे बेचने लगी है। सत्ता के गलियारों में नक्सलवाद और माओवाद एक अज़ूबा फ़ैशन बनता जा रहा है जिसे समझने और समझाने की कोशिश में लेखक ने आदिवासी समाज की एनाटॉमी, प्रशासन की फ़िज़ियोलोजी और सत्ता की पैथो-फ़िज़ियोलॉजी का पूरी ईमानदारी के साथ विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण के प्रयास में एक कुशल जुलाहे की भूमिका निभाते हुये लेखक को अपनी बीविंग मशीन में आगे-पीछे के कई तानों-बानों को आपस में पिरोना पड़ा है जिसके कारण यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कई कहानियों को अपने में समेट कर चल सकने में समर्थ हो सका।

जल संसाधन की दृष्टि से बस्तर सम्पन्न है परन्तु बस्तर से होकर बहने वाली इन्द्रावती का लाभ पड़ोसी आन्ध्रप्रदेश के हिस्से में जाता है, लेखक ने इस जनसरोकार पर बहस छेड़ते हुये मुआवज़े के हक़ की बात अपने पाठकों के समक्ष रखी है।

आज़ादी के बाद विकास की गंगा बहाये जाने का दावा करने वाली राज्यों की देशी सरकारों के पक्षपातपूर्ण सत्य को उजागर करने में, जहाँ भी अवसर मिला लेखक पीछे नहीं हटता –“बचपन का अर्थ होता है तितली हो जाना, खिलखिलाना, कूदना, सपने बुनना और जगमग आँखों से आकाश के सारे तारे लूट लेना ...लेकिन ऐसा बचपनशैलेष ने एक बार फिर भरी निगाह से देखा ...नहीं, उसमें बचपन था ही कहाँवह लड़की आठ वर्ष की अधेड़ थी।”         

आदिवासी समाज की समस्याओं का निर्धारण वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता। किंतु किया यही जाता है इसलिये बस्तर को विकास की धारा में शामिल करने का प्रयास एक पाखण्ड से अधिक और कुछ नहीं हो पाता। स्वतंत्र भारत की शिक्षानीति पर प्रहार करते हुये लेखक ने कई प्रश्न उठाये हैं- सोमली नहीं समझ पाती कि पढ़ायी क्यों ख़रीदी जानी चाहिये। .... पेट्रोल और डीजल को सब्सिडी देने वाली सरकारें शिक्षा के लिये भी ऐसा ही क्यों नहीं करतीं? एक जैसी स्कूल ड्रेस कर देने से एक जैसी शिक्षा तो नहीं हो जाती?  ....क्या यह ख़तरनाक नहीं है कि विद्यार्थियों में उन संस्थानों का गर्व हो जाये जहाँ सुविधा-सम्पन्नता अधिक है? ...ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि जैसे स्कूल की ड्रेस एक जैसी होती है वैसे ही सबके स्कूल भी एक जैसे ही हों? उसी स्कूल में कलेक्टर का लड़का भी पढ़े तो वहीं झाड़ूराम की लड़की भी?”
देश में लागू की गयी व्यवस्था जब अपने नागरिकों में भेद करने लगे तो प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं – “ये तरक्की शालिनियों के ही हिस्से में क्यों है? यह कैसी व्यवस्था है जिसमें पिसने वाला अंततः मिट जाता है। व्यवस्था ऐसा सेतु क्यों नहीं बनती जिसका एक सिरा शालिनी हो और दूसरा सोमली?”

सरकारी तंत्र ने वर्ग भेद समाप्त करने के नाम पर वर्ग भेद को समाज में इस कदर व्याप्त कर दिया है कि जंगल से शहर तक इसकी कटु अनुभूति पीछा नहीं छोड़ती –“कितनी अजीब बात है शालिनी, जगदलपुर में आदिवासी-ग़ैरआदिवासी वाली गालियाँ सुनते रहे; अब पिछड़ों और ग़ैर-पिछड़ों वाली गालियाँ सुनो।

नक्सलवाद बस्तर का मैलिग्नेण्ट कैंसर है। नक्सलवाद के प्रति आदिवासियों के स्वाभाविक झुकाव का दावा करने वाले नक्सली दावों की पोल खोलते हुये लेखक ने हक़ीक़त का बयान करते हुये स्पष्ट कर दिया है कि अपनी मोटियारिन के दैहिक शोषण से उफ़नाये ठुरलू ने फावड़े से मुंशी की हत्या कर दी और जंगल में भागकर नक्सलियों की शरण में चला गया। ठुरलू के नक्सली बन जाने की घटना की व्याख्या लेखक ने अपने एक पात्र मरकाम के द्वारा कुछ इस तरह की- ठुरलू का नक्सलवादी हो जाना परिस्थिति का परिणाम है, किसी विचारधारा का नहीं।

सन् 1857 की क्रांति से तुलना करते हुये लेखक ने आधुनिक नक्सलियों की विचारधारा का विरोध कुछ इस तरह से किया- जैसे चिंगारी से आग लग जाती है वैसे ही क्रांति भी स्वतः स्फूर्त होती है। क्रांति आयातित नहीं होती, क्रांति के लिये बड़ी-बड़ी विचारधाराओं की किताबें नहीं चाटी जातीं, ...”

नक्सलियों द्वारा बारूदी सुरंगों के ज़रिये की जाने वाली हत्याओं की दैनिक परम्परा में शासकीय कर्मचारी की मौत पर लेखक का आक्रोश बहुत ही सधे शब्दों में व्यक्त होता है –“देवांगन आम आदमी थे या नहीं इस पर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों में मतभिन्नता हो सकती है। देवांगन तथाकथित क्रांतिकारियों के मापक में कितने डिग्री के आम आदमी कहलायेंगे इस पर समाजसेवियों तथा प्रबुद्ध लेखकों में महीनों का विचारमंथन अवश्यम्भावी है।

नक्सलियों द्वारा बलात् स्थापित आदिवासी क्रांति के हश्र की एक निहायत भोली और विवश अनुभूति लेखक की कलम से कुछ इस तरह व्यक्त होती है – “ .....अपने घर से उठाये जाने के बाद बोदी को महीनों शारीरिक और मानसिक यातनाओं के दौर से गुज़रना पड़ा। अब उसे याद नहीं कि वह कितने शरीरों के लिये मोम की गुड़िया बनी। क्या क्रांतिकारियों के शरीर नहीं होते?”

नक्सलियों के सच को प्रतिबिम्बित करती एक अभिव्यक्ति देखिये – “झोपड़ी के दरवाजे पर एक कागज़ चिपकाया गया जिस पर लाल स्याही से कुछ लिखा हुआ था। लिखे हुये अक्षर कोई नहीं समझता किंतु लाल रंग के आतंक से अब कौन परिचित नहीं? सुबह अंधेरा और फैला ....गाँव खाली हो गया।

नक्सलियों की तथाकथित जनक्रांति पर लेखक की चिंता पाठक को झकझोरती है – “यह कैसी क्रांति होने जा रही है जिसमें मरने और मारने वाला तो आदिवासी होगा लेकिन इस खेल के सूत्रधार शतरंज खेलेंगे।
कुख्यात ताड़मेटला काण्ड, जिसमें केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों को नक्सलियों द्वारा उड़ा दिया गया था, पर चर्चा करते हुये लेखक ने कहा है – “वे क्रांति कर रहे थे। उन्हें इतना लहू चुआना था कि एक-एक दिल में दहशत घर कर जाये। वे उन सभी के घरों में घना अंधेरा करने की नीयत से ही आये थे जो क्रांति की राह में रोड़ा बन गये हैं। ..... वो औरंगज़ेब के ज़माने थे जब व्यवस्थायें तलवार की नोक पर बदला करती होंगी। माओ के नाम पर ख़ून-ख़राबों ने कई दशक देख लिये, क्या बदल गयाकहाँ आयी वह लाल सुबहक्या आवाज़ उठाने का तरीका हथियार ही हैक्या लहू बहेगा तो ही बदलाव की कालीन बनेगा?”

शहरों में बैठकर जंगल के बारे में की जा रही पत्रकारिता की संदिग्ध निष्ठा लेखक को उद्वेलित करती है। प्रकाशन का व्यापार किसी लेखक के लेखनधर्म को किस तरह दुष्प्रभावित करता है इस पर एक व्यंग्य देखिये – “जानकारियाँ काफ़ी नहीं होतीं।......पाठक क्या पढ़ेंगे उसकी नब्ज़ पकड़ो। फिर नक्सलवाद क्या है? यह सोशियो-इकोनॉमिक प्रॉब्लेम है। ...तुम दोनों को अभी और पढ़ने की ज़रूरत है। मार्क्स को पढ़ो, लेनिन और माओ को जानो, चे ग्वेरा के संघर्ष को समझो तभी नक्सलवाद को गहराई से जान सकोगे। तभी तुम बस्तर के नक्सलवाद का सही विश्लेषण कर सकोगे।
 “मैंने बस्तर पर आर्टिकल लिखा था। मुझे नारायणपुर में रहते बीस साल से अधिक हो गये। मुझे सिखाता है कि बस्तर कैसा है और मुझे क्या लिखना चाहिये।
पत्रकारिता के हो रहे नैतिक पतन से आहत लेखक का एक व्यंग्य देखिये –“ देवी जी प्रयोग करके देखिये। आप ग़ुलाब हैं, ग़ुलाबी ड्रेस में ख़ूबसूरत दिखती हैं। कल हमारी रिपोर्ट ले जाइयेगा और अदब से झुककर खन्ना से मिलियेगा।
खन्ना के केबिन से बाहर आने के बाद निधि सीधे दीपक के पास आयी और बगल में बैठ गयी ...
क्या हुआ ? दीपक मुस्कराया।
कल मैटर लग जायेगा।
यह मेरी लिखी हुयी लाइन का नहीं, तुम्हारी नेक-लाइन का कमाल है।

पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता भी बस्तर की त्रासदियों में अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभाती है, लेखक की यह पीड़ा कुछ इस तरह अभिव्यक्त हुयी है – “ .....इन घटनाओं में राष्ट्रीयसमाचार बनने के तत्व क्यों नहीं हैं? दिल्ली के पास साउण्ड है, कैमरा है और एक्शन है ...नौकर ने मालिक का क़त्ल किया राष्ट्रीय ख़बर है। बाप ने बेटी का क़त्ल कर दिया सी.बी.आई. जाँच करेगी। बियर-बार में क़त्ल हुआ समूचा राष्ट्र आन्दोलन करेगा। मानव केवल दिल्ली या कि नगरों-महानगरों में रहते हैं जिनके अधिकार हैं?”

बस्तर के सच्चे इतिहास की सदा ही उपेक्षा की जाती रही है। लेखक ने प्रश्न किया है – “क्यों इतिहास बाबरों-अकबरों और अंग्रेजों के ही लिखे जाते हैं? भारत देश के इतने विशाल भूभाग के प्रति ओढ़ा गया अन्धकार क्या नक्सलियों को प्रोत्साहन नहीं है? क्या जयचन्दों और मीर ज़ाफरों की कहानिय़ाँ ही पाठ्यपुस्तकों में परोसी जायेंगी ? क्या गुण्डाधुर, डेबरीधुर, यादव राव, व्यंकटरव, गेंद सिंह जैसे संकल्पी और साहसी आदिवासी इतिहास के किसी पन्ने को दस्तक देने की क्षमता रख सकते हैं? क्या यह होगा कि अगले सौ-पचास साल बाद जब बस्तर का इतिहास लिखा जायेगा तो इसके नायक बदल चुके होंगे? अतीत के इन आदर्शों की स्मृतियों पर लाल खम्बे गड़ चुके होंगे?”

बस्तर की जनजातीय परम्परायें अनोखी और आकर्षक रही हैं। बस्तर एक दीर्घकाल तक शेष विश्व के लिये अबूझ रहा। बस्तर अपने घरेलू और बाहरी शोषकों के लिये उर्वर चारागाह रहा। बस्तर एक जीती जागती प्रयोगशाला रहा। पर्यटन की दृष्टि से विश्व स्तर का स्थान होते हुये भी बस्तर उपेक्षित रहा। बस्तर की धरती अमीर है पर इसके निवासी सदा ग़रीब रहे। बस्तर को दूर बैठकर करीब से देखने का एक अवसर है आमचो बस्तर
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