Tuesday, July 31, 2012

हृषिकेश सुलभ जी नें दुर्लभ तस्वीरों का खजाना हममें बाँट दिया..



हृषिकेश सुलभ जी से मुलाकात और यादें बस्तर की...।
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हृषिकेश जी को यत्र तत्र पढने का मौका मिला है तथा नाटक में रुचि हेने के कारण उनकी इस क्षेत्र में सक्रियता के समाचारों से भी परिचित होता रहा हूँ। साहित्य शिल्पी के लिये मैने एक आलेख भी हृषिकेष जी को शुभकामनायें प्रदान करने के लिये लिखा था जब 2010 में उन्हें इन्दु शर्मा कथा सम्मान प्राप्त हुआ था। इन सब के बाद भी मुझे जानकारी नहीं थी कि हृषिकेश जी का सम्बन्ध बस्तर से भी है। प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव पर लिखे मेरे आलेख पर जब उन्होंने टिप्पणी की तथा बस्तर से जुडे अपने संस्मरण बाँटे तब उनसे मिलने की प्रबल इच्छा और बलवति हो गयी। पटना आकाशवाणी केन्द्र में वे कार्यरत हैं और वहीं उनसे मुलाकात भी हुई। हृषिकेश जी जितना बडा व्यक्तित्व हैं उतने ही सरल भी हैं, उनसे मिल कर लगा ही नहीं कि यह हमारी पहली मुलाकात है। 

हृषिकेश जी 1980 के दौर में बस्तर में रहे हैं। यह दौर रेडियो का ही था। इस दौर में कार्यक्रम बालवाडी में मेरी कवितायें भी आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित होती थीं। जगदलपुर में रंगकर्म की पहचान कहे जाने वाले एम ए रहीम मेरे प्रति बहुत स्नेह रखते थे और बालवाणी से युववाणी तक के मेरे सफर में उनके साथ और मार्गदर्शन की अनेको मधुर स्मृतियाँ मेरे पास हैं, जो हृषिकेश जी के साथ बैठ कर जैसे ताजा हो गयीं। हृषिकेश जी बताते हैं कि कैसे जगदलपुर में अपनी नौकरी ज्वाईन करने के लिये वे उत्साह से निकलते हैं लेकिन जब केशकाल की सुन्दर किंतु दुर्गम घाटियों को पार करने लगते हैं तो बस्तर की एक तस्वीर उनके दिमाग में बनने लगती है। जगदलपुर उनके विचार में एक अति पिछडा गाँव प्रतीत होता है और वे नगर में उतरते ही सबसे पहले सामने दिखने वाले राजस्थान लॉज में कमरा ले लेते हैं। तभी उनकी नजर सामने एसटीडी पर पडती है और तब वे अहसास करते हैं कि जिस शहर में आकाशवाणी है वहाँ बुनियादी सुविधायें न होने का प्रश्न ही नहीं। धीरे धीरे जगदलपुर ही नहीं बस्तर नें भी उन्हें अपना बना लिया, इतना अपना कि हृषिकेश जी आज भी जब बस्तर की बात करते हैं तो उनकी आँखों में वहाँ की स्मृतियों में डूब जाने वाला रंग स्पष्ट नजर आता है। हृषिकेश जी बस्तर के गाँव गाँव घूमे तथा लोक जीवन और लोकगीतों को रिकॉर्ड किया है। उन्होंने बताया कि कई दुर्लभ रिकॉर्डिंग्स अभी भी उनके पास हैं तथा उस समय की खीची हुई तस्वीरें भी। हृषिकेश जी उन सौभाग्यशाली बस्तर प्रेमियों में से हैं जिन्हें निश्चिंतता से अबूझमाड घूमने-देखने और अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

उनके बताये दो संस्मरण मर्मस्पर्शी हैं। पहला लाला जगदलपुरी जी की सादगी से सम्बन्धित है। उन दिनों मध्यप्रदेश (तब छत्तीसगढ राज्य नहीं बना था) के मुख्यमंत्री थे अर्जुन सिंह। अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए मुख्यमंत्री नें लाला जगदलपुरी से मिलना तय किया और गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। यह प्रसंग असाधारण है तथा दो व्यक्तित्वों के विषय में बहुत कुछ कहता है। दूसरा प्रसंग है ब्रम्हदेव शर्मा से संबंधित। जिन दिनों ब्रम्हदेव शर्मा कलेक्टर थे उन दिनों उनके फरमान से शोषित मानी गयी आदिवासी युवतियों की उनके शोषक एनएमडीसी के कर्मचारी युवको से शादी करवा दी गयी। यह किसी समस्या का समाधान कैसे हो सकता था? शायद हमारे व्यूरोक्रेट्स स्वयं को सर्वज्ञाता समझने की गफलत में रहते हैं और उसी नजरिये से आदिवासी समाज और उनकी समस्याओं को समझते व समाधान सुझाते हैं। हृषिकेश जी बताते हैं कि जब तक ब्रम्हदेव कलेक्टर थे ये शादियाँ तभी तक टिकीं उसके बाद बहुतायत आदिवासी युवतियाँ परित्यक्तायें हो गयीं। परिणाम इतने घातक हुए कि कुछ युवतियाँ गंगामुण्डा में वेश्यावृत्ति करने के लिये बाध्य हो गयीं थीं। 

हृषिकेश जी नें अपनी स्मृतियों से बहुत पुराने दिन ताजा किये। उन्होंने गायक लोककलाकार याद किये, गाँवों में बिताये दिन याद किये, बस्तर में बनायी जाती तरह तरह की शराब और उसके तरीके याद किये, वहाँ की मस्ती, सादगी, अपनत्व.....बहुत कुछ हमारी घंटे भर की मिलाकार में बाहर आता रहा। उन्होंने आज के हालात के लिये गहरा दु:ख जाहिर किया और बस्तर का जो दुष्प्रचार किया जा रहा है एवं जिस तरह की तस्वीर देश दुनिया के सामने रखी जा रही है उसके प्रति असहमति भी जतायी। हृषिकेश जी नें बस्तर में बिताये अपने दिनों के दौरान 1910 के एक क्रांतिकारी लाल कालेन्द्र सिंह पर केन्द्रित एक नाटक भी लिखा था जिसकी प्रति अब उनके पास नहीं है। मृच्छकटिकम् की पुनर्रचना “माटीगाड़ी” और फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास का नाट्यांतर मैला आँचल लिखने वाले रचनाकार से बस्तर की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं के नाट्यरूपांतरण का अनुरोध तो कर ही सकता हूँ। हृषिकेश जी ने मुझे लाल कालेन्द्र पर आलेख पूरा करने के लिये प्रोत्साहित किया है और जल्दी ही मैं यह कार्य पूरा भी करूंगा। हृषिकेश जी एक और अनुरोध कि जो तस्वीरें आपके पास हैं तथा वे बस्तरिया महकते जिन्दा गीत भी जिनकी रिकॉर्डिंग आपके पास हैं उन्हें कृपया हम सब के साथ भी बाँट दीजिये। आपकी निगाह से देखें लोग - तीन दशक पहले का जिन्दा और सांस लेता बस्तर। 
[यह आलेख पटना से हृषिकेश जी से मिलाकात के पश्चात] 
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हृषिकेश जी नें अपना वायदा निभाते हुए 1980-81 के दौर के बस्तर की कुछ जीवंत तस्वीरें साझा की हैं। ये तस्वीरें इतिहास का हिस्सा तो बन ही गयी हैं साथ ही यह समझने में भी सहायक हैं कि लाल-हिंसा के वर्तमान दौर नें इस अंचल से क्या क्या छीन लिया है।  

चित्र-1 - बस्तर की एक आदिवासी युवती।


चित्र - 2 काकसाड़ नाच की तैयारी


चित्र -3 बस्तरिया युगल [चेलक और मोटियारी]


चित्र-4 बालों में पड़िया 


चित्र-5 हाट में पिया को निहारती आँखें


चित्र-6 सोड़ी औरत


चित्र-7 सियाड़ी की लता से रस्सी बनाते हाँथ


चित्र-8 बस्तरिया युवक


चित्र - 9 दोनी और पत्तल बनाती युवती


चित्र-10 हाट जाने की तैयारी


चित्र-11 अचरज भरी आँखें


चित्र-12 जंगल में साथ साथ जीवन 


चित्र-13 तीरथगढ जलप्रपात 


चित्र-14 चित्रकोट जलप्रपात 


चित्र-15 कोटुम्सर की गुफा


चित्र-16 मार्डिन नदी का पथरीला पाट 


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Friday, July 27, 2012

प्राचीन बस्तर - रामायणकालीन दण्डकारण्य का इतिहास [1]


सान्ध्य दैनिक - ट्रू सोल्जर में प्रकशित दिनांक 26.07.2012


रामायण को ले कर प्रगतिशील कहे जाने वाले समाज के अपने पूर्वाग्रह हैं तथा उसके बीच अंतर्निहित अतीत की ओर कोई शोध भरी दृष्टि से देखने का जोखिम नहीं उठाना चाहता। धार्मिक समाज भी मन की गुफाओं में प्रसन्न है; वह सदियों से स्थापित कविता की कल्पनाशीलता से बाहर नहीं आना चाहता तथा घटना के उपर आरोपित बिम्बों को पृथक करने का प्रयास नहीं करता। आज जब हम यह रटते इतराते रहते हैं कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ तो फिर प्राचीन अतीत के साहित्य को खारिज करते हुए क्या एक पूरे कालखण्ड का दर्पण तोडने का दुस्साहस हमारे ही पूर्वाग्रहों का नहीं है? वस्तुत: तर्क की आड़ में प्राचीन कविता के आलंकारिक तत्वों की पूर्णत: अव्हेलना कर के हमने मिथक और इतिहास को पृथक-पृथक करने का कार्य अब भी मनोयोग से नहीं किया है। हमें मध्यकालीन चारण-भाटों की नृप-स्तुतियों में तो इतिहास नजर आता है और अतिश्योक्तियों में भी प्रमाण तलाशने का दावा कर लिया जाता है किंतु पुरा अतीत को सम्प्रदाय विशेष की मनोभ्रांति कह कर खारिज कर देते हैं....हमारी यह वृत्ति हमें एक दिन बहुत भारी पडने वाली है। बस्तर के रामायणकाल पर बात करने से यह भूमिका इस लिये क्योंकि दण्डकारण्य क्षेत्र की उपेक्षा इतिहास अन्वेषण ही नहीं धार्मिक महत्व, दोनो ही दृष्टियों से हुई है। विचारधारा वादी इतिहासकारों का यदि बस चले तो जर्मनी या पोलैंड से किसी सोच का ताला बस्तर की पुरातनता पर जड कर निश्चिंत ही हो जायें और वापस मुगल सल्तनत पर अपने अध्ययन में व्यस्त दिखने लगें। 

धर्म के झंडाबरदारों को भी या तो अयोध्या नज़र आती है या श्रीलंका किंतु उस बस्तर अथवा दण्डकारण्य की धार्मिक महत्ता पर मौन किसलिये जब कि हनूमान भी इसी धरती नें दिये चूंकि किष्किन्धा राज्य के दण्डकारण्य में होने के प्रमाण मिलते हैं, राम के वनवास का दस वर्ष से अधिक समय यहीं के जंगलों में गुजरा है तथा उन्होंने गोदावरी नदी के पास जिस पंचवटी में वनवास काल बिताया था वह स्थान भी दण्ड़कारण्य में ही है। राम विंध्य पार कर दण्ड़कारण्य आये, उन दिनों यह क्षेत्र सभ्यता का बड़ा केंद्र भी हुआ करता था। अगस्त्य, सुतीक्ष्ण, शबरी, शम्बूक, माण्डकर्णि, शरभंग आदि ऋषि-मुनियों की यही कर्मस्थली रही है। तब शूर्पणखा, खर, दूषण, त्रिशिरा, अकम्पन, मारीच जैसे बलशाली राक्षस दण्ड़कारण्य में ही रहा करते थे और रावण की मर्यादा से बंधे हुए थे। सीता का रावण के द्वारा अपहरण भी दण्डकारण्य में ही हुआ तथा जटायु नें भी इसी पावन धरती पर प्राण त्यागे। सुग्रीव को राज्य दिला देने के बाद थोड़े समय के लिए राम जिस प्रस्त्रवण पर्वत पर रहने लगे थे वह स्थान भी दण्ड़कारण्य में ही है। 

प्राचीन समय के साहित्य से उस समाज की कल्पना करना हो तो हमें एक पूरा भूगोल गठित करना होगा जिसके साथ साथ मिथक कथा की यात्रा चल रही है। जनश्रुतियों, मुहावरों तथा लोकगीतों के पास भी ठहर कर बैठना होगा तभी किसी क्षेत्र की पुरातनता के प्रमाण दबे पाव आपकी ओर पहुँच सकते हैं। आईये वर्तमान में अतीत की कुछ आहट तलाशते हैं। दण्डकारण्य और बस्तर की साम्यता कहता बस्तर के काकतीय शासक दिक्पाल देव का एकशिलालेख दंतेवाडा से प्राप्त हुआ है जो दण्डकारण्य क्षेत्र में बस्तर राज्य होने की घोषणा करता है – 

‘दण्डकारण्य निकट वस्तर देशे राज्यं चकार। (1703 ई.) 

अपने एक लेख में मैने दण्डक जनपद के अरण्य होने की कथा प्रस्तुत की थी। इसी आलोक में बस्तर के ही प्राचीन दण्डकारण्य क्षेत्र होने का एक जीवित साक्ष्य हैं “दण्डामि माडिया आदिवासी” जो अबूझमाड के पर्वतीय क्षेत्रों से लगे मैदानों में आज भी निवास करते हैं। पहचान के साथ जुडा दण्डामि शब्द तथा मैदान क्षेत्र को आवास के लिये चुनना उनके एक समय के सांस्कृतिक परिवर्तन का हिस्सा होने को प्रमुखता से सत्यापित करता है। इसका सम्बन्ध उस काल के राजा दण्ड के शासन की स्मृतियों से प्रतीत भी होता है। इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल रतनपुर शिलालेख में उद्धरित दण्डकपुर का सम्बन्ध नारायणपुर तहसील के तन्नामक ग्राम से जोडते हैं इतना ही नहीं दण्डवन नाम से आज भी छोटे डोंगर के निकट के वन, बेडमाकोट के निकट के जंगल अथवा कोण्डागाँव के निकट के कुछ वन क्षेत्र आदिम समाज के बीच भी जाने जाते हैं। नारायणपुर के समीपस्थ क्षेत्रों में कसादण्ड, गौर दण्ड, बघनदण्ड जैसे गाँव भी मिलते हैं जिनमें उपसर्ग की तरह चिपका दण्ड शब्द प्राचीनता एवं एतिहासिकता की ओर ही इशारा करता है। 

प्राचीन ग्रंथों में दण्ड़कारण्य क्षेत्र की दक्षिणी सीमा गोदावरी और शैवल पर्वत मानी गयी है जबकि पूर्वी सीमा कलिंग तक जाती है। महानदी इसकी उत्तरी सीमा बनाती है तथा रामायण-काल में इस क्षेत्र की पश्चिमी सीमा विदर्भ जनपद से मिल जाती थी। इस तरह संपूर्ण वर्तमान बस्तर तथा आस-पास के कुछ क्षेत्र ‘प्राचीन बस्तर या दण्डकारण्य’ कहे जा सकते हैं। वाल्मीकी रामायण का अरण्य काण्ड वस्तुत: प्राचीन बस्तर अथवा दण्डकारण्य के इतिहास-भूगोल के दस्तावेजीकरण की तरह भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये वाल्मीकि रामायण में दो मंदाकिनी नदियों का उल्लेख मिलता है। अरण्यकाण्ड में उल्लेखित मंदाकिनी नदी अयोध्याकाण्ड की उल्लेखित मंदाकिनी नदी से पूर्णत: भिन्न हैं। अरण्यकाण्ड की मंदाकिनी अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण और अगस्त्य के आश्रम से महिमामंडित दंडकारण्य़ की मंदाकिनी है; वायुपुराण में इसी मंदाकिनी का उल्लेख इन्द्रनदी के नाम से भी हुआ है जिसे वर्तमान में इन्द्रावती के नाम से जाना जाता है। 

लेखक तथा स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुन्दरलाल त्रिपाठी नें बस्तर के भूगोल को निरूपित करने के लिये वाल्मीकी रामायण से राम के राज्याभिषेक के समय का एक प्रसंग उद्धरित किया है जहाँ मंथरा कैकेयी को याद दिलाती है कि अयोध्या से दक्षिण में दण्डकारण्य का क्षेत्र है जिसके निकट वैजयंतपुर में असुर राजा तिमिराध्वज राज करते हैं– 

दिशमास्थाय कैकेयी दक्षिणान दण्डकान प्रति। 
वैजयंतपुरमिति ख्यातं पुरं यत्र निमिध्वज:॥ 

दण्डकारण्य के भूगोल को कालांतर में भास नें अपने नाटक “प्रतिभा”, कालिदास नें “मेघदूत” तथा भवभूति नें “उत्तर रामचरित” में स्पष्ट किया है। 

रामायणकाल का वर्णन करते ग्रंथों में साल वन, पिप्लिका वन, मधुबन, केसरी वन, मतंगवन, आम्रवन आदि का वर्णन स्थान स्थान पर मिलता है यही वर्तमान बस्तर के भी प्रमुख पादप-वृक्ष-वनसमूह हैं। अरण्यकाण्ड का यह श्लोक देखें जो कि साल वनों तथा कंदमूल की दण्डकारण्य में प्रचुरता के विषय में उल्लेख है – 

समिदिभस्तियकलशै: फलमूलैश्च स्भोभितम। 
आरण्यैश्च महावृक्षै: पुष्पै: स्वादुफलैवृर्तम॥ 

दण्ड से प्रारंभ कर के राम के वनवास काल तक का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करने से यह सत्य निकल कर आता है कि आद्य एतिहासिक युग में आर्यों का प्रसार बस्तर तक हो गया था, इसका उल्लेख वाल्मीकी रामायण (अरण्यकाण्ड), अर्थशास्त्र, पद्मपुराण, रघुवंश, कामसूत्र, जातकों तथा जैन ग्रंथों आदि में भी मिलता है। बस्तर की स्थानीय परम्पराओं तथा स्थलों के नाम भगवान राम के साथ संबंध स्थापित करते हैं। इसका उदाहरण बस्तर क्षेत्र में शबरी नदी, रामगिरि पर्वत, चित्रकूट; नारायणपुर तहसील स्थित कोसलनार, राममेंटा, रामपुरम, रामारम, लखनपुरी, सीतानगर, सीतारम, रावणग्राम आदि हैं (वी डी झा, उपरिवत 1982, पृ 11-12)। अर्थात वैदिक साहित्य में उल्लेखित शव विसर्जन तथा कब्र निर्माण विषय निर्देशो का अक्षरक्ष: पालन करने वाले अबूझमाड़िया एवं दण्डामि माड़िया वैदिक आर्यों के सम्पर्क में आये थे तथापि उन्होंने अपनी मूल परम्पराओं को जीवित रखा। पं. गंगाधर सामंत नें बस्तर क्षेत्र को रावण का उद्यान कहा है। उन्होंने भी माड़ियाओं को बस्तर की प्राचीनता से निवास कर रही जनजाति निरूपित किया है। वे भी गोदावरी नदी, श्रीराम गिरि और शबदी नदी के अंतर्सम्बन्ध को राम के वनवास क्षेत्र से ही जोड कर देखते हैं। गंगाधर सावंत रावण और बस्तर क्षेत्र में उसके निरंतर आगमन को सिद्ध करने के लिये एक जनश्रुति का सहारा लेते हैं। वे कहते हैं स्थानीय लोग गिद्ध पक्षी को “रावना” कहते हैं संभवत: वे तब पुष्पक विमान से साम्यता, आकार व उसके रावण का वाहन होने के कारण एसा कहने लगे होंगे।

रामायणकालीन बस्तर निश्चित ही दो संस्कृतियों के प्रयाग का समय रहा। यह आर्यों का पुनरागमन काल था चूंकि एसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकु वंश के शासक दण्ड को शुक्राचार्य नें अपनी पुत्री से बलात्कार किये जाने से क्रोधित हो कर माडियाओं के सहयोग से वन्य क्षेत्र से खदेड दिया तथा उसके शासन प्रतीकों को आग के हवाले कर के क्षेत्र को निरा अरण्य बना दिया होगा। इसके बाद जितनी भी ज्ञात घटनायें हैं उनके कवितातत्वों को अलग करने के पश्चात ऋषि अगस्त्य के विन्ध्य पार कर के दक्षिणापथ आने तथा सर्वप्रथम यहाँ आश्रम के संचालन का उल्लेख मिलता है। आर्यों के आगमन की अगली आहट राम के कदमों के साथ ही आरंभ होती है। एक अन्य महत्वपूर्ण संदर्भ जो समझ आता है कि राम नें केवल युद्ध का मार्ग नहीं चुना अपितु संधि के मार्ग का ही अधिकतम उपयोग किया। रामायण में वर्णित तत्कालीन बस्तर की कई जनजातियों को प्रतीकों के माध्यम से श्लोको/काव्यग्रंथों में स्थान मिला है जैसे गीध (वर्तमान गदबा जनजाति से साम्यता); शबरी (शबर/ बोंडो परजा जनजाति); वानर, भालू आदि। इस संभी प्रतीकों में सहसम्बद्ध एवं वर्णित गुणों को वर्तमान की उपस्थित जनजातियों में अथवा उनके गोत्र चिन्हों की पहचान को सामने रख कर भी देखा जा सकता है। राम का युद्ध खर दूषण से हुआ; राम और रावण (दो भिन्न संस्कृतियों) के बीच एक बडे युद्ध की रूपरेखा जो दण्डकारण्य में तैयार हुई वह पूरी तरह से आर्य-द्रविड संघर्ष या इस तरह के किसी तर्क का अक्षरक्ष: सत्य आख्यान नहीं माना जा सकता चूंकि रावण से युद्ध करने वाली राम की सेना दण्डकवन और निकटवर्ती आम जनजातियों की निर्मित थी। यह उस काल के जटिल समाजशास्त्र को समझने का पहलू मात्र है कि राम शबरी के बेर ही नहीं खाते अपितु शबर जनजाति के साथ प्रेम का संबंध गठित कर लेते हैं। राम के लिये जटायु मित्र हैं और जटायु की वर्णित सभी विशेषताये बस्तर की गदबा जनजातियाँ धारण करती हैं। राम सुग्रीव का साथ ही नहीं देते अपितु वानर-भालू के प्रतीक धारण करने वाली शक्तिशाली जनजातियों से मित्रता भी हासिल कर लेते हैं। राम दण्डक प्रवास के दौरान कुछ सेनाओं से भी युद्ध करते हैं जिसके लिये आम जनजातियाँ ही उनकी सहयोगी होती हैं। डॉ. हीरालाल शुक्ल लंका को भी गोदावरी डेल्टा में ही निरूपित करते हैं।

रामायण में वर्णित वानर कौन थे यह विवाद का विषय रहा है कई विद्वान मुण्डा जनजातियों से उन्हें जोड कर देखते हैं तो कुछ विद्वानों नें छत्तीसगढ की ही उराँव जनजाति को रामायण कालीन वानर माना है। डॉ. हीरालाल शुक्ल नें अपनी पुस्तक रामायण का पुरातत्व में वानर प्रजाति के सभी गुणों का प्राचीन ग्रंथो से प्राप्त उल्लेखों के आधार पर अध्ययन किया है। उनके अनुसार ऋष्यमूक, पम्पासर तथा किष्किन्धा के ज्ञान के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीन किष्किन्धा जनपद अर्थात वर्तमान कोरापुट, कालाहांडी तथा काकिनाडु जिलों में निवास करने वाली आदिम प्रजाति कंध ही प्राचीन वानर प्रजाति की उत्तराधिकारिणी कही जा सकती है। केदारनाथ ठाकुर (1908) भी इस बात का उल्लेख अपनी कृति बस्तर भूषण मे करते हुए कहते हैं कि कंध (खोंड, कोंडा) स्वयं को वानरवंशी मानते हैं। इस जाति का गोत्रप्रतीक वानर है तथा वंशो के नाम सुग्री, हनु, जाम्ब आदि हैं जो कि इन्हें रामायण में वर्णित वानर प्रजाति के बहुत निकट ले आते हैं। डॉ. हीरालाल आगे उल्लेख करते हैं कि कंध के अन्य पर्यायवाची खोंड, कोडा, कुई, कुवि तथा कुबि प्रभृति है जो इन्हें कोयतूर (गोंड) जनजाति के निकट अधिक सिद्ध करती है। प्रकृति की दृष्टि से ये बस्तर की दण्दामि माडिया प्रजाति से बहुत भिन्न नहीं हैं। इन कडियों को आपस में जोडने पर यह स्पष्ट नहीं होता कि आखिर राक्षस किसे कहा गया है? कई विद्वान गोंड जनजाति की कुछ शाखाओं में राक्षस होने की साम्यता तलाशते हैं तो कुछ के अनुसार प्राक मध्यवर्ती द्रविड जन या आन्ध्र जन प्राप्त विवरणों एवं प्राचीन ज्ञात भूगोल के अधिक निकट मिलते हैं। सातवाहनों और राक्षसों के बीच साम्यता के कई उदाहरण इतिहासकार तलाशते हैं। 

इस सभी उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि रामायण कालीन बस्तर विभिन्न मूल जनजातियों से आर्यों का संघर्ष ही नहीं संधि काल भी रहा है। मेरे एसा मानने के कुछ अन्य कारण भी हैं। बस्तर क्षेत्र में न केवल आर्य आगमन अपितु सुदूर दक्षिण के क्षेत्रों से भी आगमन एवं आक्रमण के उल्लेख मिलते हैं। रामायणकालीन वृतांतों अथवा जनश्रुतियों में जनजातियों के मध्य संघर्ष की कथा नहीं मिलती, किसी तरह के गृहयुद्ध का कोई उल्लेख नहीं है यद्यपि सिंहासन अथवा सत्ता को ले कर पारिवारिक खींचतान की अवश्य कुछ कथायें विद्यमान हैं। एसे में बस्तर और राम के सम्बन्धों को संघर्ष के साथ कम तथा सांस्कृतिक सम्मिलन के साथ अधिक देखना चाहिये। राम के बस्तर से निकल कर दक्षिण की ओर प्रस्थान करने के पश्चात के संघर्ष की भले ही व्यापक समीक्षायें की जायें। रामायणकालीन बस्तर अनेक जनजातिगत विशेषताओं से युक्त क्षेत्र रहा है तथा प्रतीत होता है कि आदिकाल से ही यह क्षेत्र संस्कृति सम्मिश्रण की मध्यरेखा ही बना रहा है। इस कडी के साथ चल कर भी प्रतीत होता है कि तत्कालीन बस्तर अपने लचीलेपन के कारण मिटने से बचा भी रहा।
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चित्र प्रस्तुति: http://www.johann-rousselot.com/ से साभार; 
यह तस्वीर दंतेवाडा के निकट खींची गयी बतायी जाती है।

Sunday, July 22, 2012

बस्तर मे जीवित पुरापाषाणकाल और कातिल विचारधारायें।


बस्तर क्षेत्र के इतिहास की विवेचना हम बस्तर क्षेत्र के इतिहास की विवेचना हम अत्यधिक सतही प्रमाणों के आधार पर कर पाते हैं। संभवत: हमारे युग को ज्ञान की लालसा ही नहीं रही और हमारी पीढी केवल उन विषयों के अध्ययन तक सिकुडती जा रही हैं जिसके केन्द्र में पैसा बैठा हुआ है। मगध क्षेत्र के बस्तर से अंतर्सम्बन्धों पर काम करते हुए भी यही दु:खद आश्चर्य मेरे सम्मुख था कि अंग्रेजों नें नालंदा के पुरावशेषों को बाहर लाने का जितना काम कर दिया वहीं आज भी हम ठहरे हुए हैं। न तो अब तक नालंदा विश्वविद्यालय का मुख्यद्वार प्राप्त हुआ है न ही उन पुरा-पुस्तकालयों का स्थल जिन्हें खिलजी नें आग लगा कर मिटाने का यत्न किया था। यही हाल वैशाली की उस पुरा-संसद का है जहाँ राजा ‘विशालगढ का किला’ नाम से खुदाई हो रही है। वैशाली में इस स्थल पर विश्व की सबसे प्राचीन संसद विद्यमान है जब इतने सालों में हमारे इतिहासकारों नें उसके अवशेष ही बाहर लाने में कोई रुचि नहीं दिखाई तो बस्तर के अतीत पर प्रामाणिकता से कितनी बात हो सकती है कहना कठिन है। कलिंग, आन्ध्र, कोशल, विदर्भ से घिरा बस्तर (दण्डकारण्य़) का क्षेत्र अपने अतीत को जानते के लिये इन्हीं क्षेत्रों की ओर लोलुप निगाहों से देखता है क्योंकि यहाँ बडी शासन-प्रणालियों की सत्ताएं रही हैं। इसके साथ ही आपको आदिम जीवन शैली को बहुत बारीकी से परखना होगा तो भी अतीत की रेखायें विद्यमान नज़र आयेंगी।  


माडिया जीवन शैली नें पाषाण युगीन अवस्था को अब भी बचा कर रखा है। मृतक स्मृति चिन्ह आज भी एक जीवित परम्परा है। इतना ही नहीं अबूझमाड़िया मुख्यत: स्थानांतरिक खेती करते हैं तथा इनकी कृषि परम्परा को दाही कहा जाता है; यह भी एक पुरा-परम्परा है जिसका सम्बन्ध पाषाण काल से ही है। माडिया जनजाति का बस्तर क्षेत्र में बाहुल्य है तथा इस क्षेत्र में उन्हें खदेडे जाने तथा दुर्गम क्षेत्रों में समेटे जाने जैसे कथनों को अवधारणा ही कहा जायेगा क्योंकि आर्यों के आगमन से बहुत पहले से यह अबूझमाड़ माड़ियाओं की ही भूमि बनी रही है। बिना किसी विवेचना किये एक नव-पुरापाषाण कालीन दृष्य की परिकल्पना कीजिये जब कबीलों के आक्रमण तथा हिंसक पशुओं से सुरक्षा पाने के लिये आदिम समाज नें अपने आवास के इर्फगिर्द पत्थरों की बाड बना कर उसे सुरक्षित करना आरंभ किया होगा। उसने नुकीली लकडी से मिट्टी खोद कर बीज बोना और पत्थर के हँसिये से फसल काटना आरंभ किया होगा। इस दृश्य को साकार आज भी अबूझमाडिया करते हैं। वही जंगल जला कर खेती और आखेट। यह प्रकृया इतनी सहज उनके जीवन में रच बस गयी है कि इन्हें आज के विचारक समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद जैसी घुट्टी जबरन पिलाने को आतुर हैं अपितु इनसे ही बहुत कुछ सीखे जाने की आवश्यकता है। माड़िया समाज में खेती पर पूरे गाँव का अधिकार होता है यही कारण है कि जमीन सम्बन्धी विवाद उनके बीच नहीं देखे जाते। मूल आवश्यकता संरक्षण की है किंतु जनजातियों को उपेक्षित रख कर अथवा किसी विचारधारा प्रधान युद्ध में झोंक कर नहीं। आवश्यकता अनावश्यक परम्पराओं को तोडने के लिये उनको किसी बौद्धिक हथियार से कुचलने की भी नहीं है।    


इसकाल से एक अन्य अंतर्सम्बन्ध है अमूझमाड का विवस्त्र जीवन; अपितु महिलाओं का वक्षस्थलों को न ढक कर स्वाभाविक रहना भी अतीत से वर्तमान तक जुडी हुई कड़ी ही है। आश्चर्य है कि अरुन्धति राय का आलेख “वाकिंग विद द कामरेड्स” आदिवासी परम्पराओं की झूठी दास्तान प्रस्तुत करता है जिसे शहरी जिन्दाबाद-मुर्दाबाद वादी वर्ग नें बिना तर्क के हजम भी किया और आउटलुक जैसी पत्रिका नें बिना जाँच के छापा भी। अरुन्धति लिखती हैं (पृष्ठ – 75) कि “एक शाम अलाव के पास बैठी एक बूढी औरत उठी और उसने दादा लोगों के लिये एक गीत गाया। वह माड़िया आदिवासी थी जिनके बीच रिवाज था कि औरतें शादी के बाद चोलियाँ उतार दें और छातियाँ खुली रखें।....। औरतों के खिलाफ यह पहला मामला था जिसके खिलाफ पार्टी नें अभियान चलाने का फैसला किया”। यह वाक्यांश असत्य है। पहली और महत्वपूर्ण बात कि माडिया स्त्रियों में शादी के पहले हो या शादी के बाद; चोली (ब्ळाउज शब्द का प्रयोग अरुन्धति नें किया है) पहनने का चलन पुरा-काल से ही नहीं रहा है और इस रहन में उनकी स्वाभाविकता के पीछे हजारों साल का जैसे थे वाली जीवन शैली ही है। हमने समय के साथ पहला बदलाव देखा कि महिलाओं नें कमर पर पहने जाने वाले कपड़े के साथ खोंस कर लुंगी बाँध कर उससे वक्षस्थलों को ढकना आरंभ कर दिया था। अपनी बात सिद्ध करने के लिये मैं कुछ विद्वानों के उद्धरण लेना चाहूंगा। पं. केदारनाथ ठाकुर की 1908 में प्रकाशित पुस्तक इस सम्बन्ध में सबसे प्राचीन मानी जाती है उनकी नवकार प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक “बस्तर भूषण” के पृष्ठ 48 से माडिया स्त्री जीवन का उल्लेख लीजिये वे लिखते हैं “साधारण लोग रस्सी से गुहाद्वार और उपस्थ के सामने पत्ते बाँध लेते हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी बाकी सब शरीर खोले रहती हैं....चाहे राजा महाराजा आवैं इनका मामूली यही ठाठ है”। चोली इसके बाद भी जीवन शैली में उपस्थित नहीं दिखती अपितु डॉ. नारायण चौरे नारायणपुर और निकटवर्ती क्षेत्रों का अध्ययन कर अपनी किताब आदिवासियों के घोटुल (पृष्ठ -18) में लिखते हैं कि “गले में रंग बिरंगी लाल-सफेद घुंघचियों की माला, मोतियों की, काँच की, रंगीन गुरियों की, लाख या कौड़ी की, घास की बीजों की मालायें पहनती हैं। इनके स्तन खुले रहते है। इसका कारण वे अपने ही प्रेमी को अपना बना लेना चाहती हैं। घोटुल की मोटियारी के मतानुसार स्तन को वे लड़कियाँ ढकती हैं जिन्हें प्रेम करना नहीं आता, जो प्रेम को पाप समझे, प्रेम एसों के लिये गिरगिट की तरह होता है, जो उससे भूत की तरह भागे या भय खाए”। उपरोक्त उदाहरणों को यहाँ प्रस्तुत करने का मायना है कि समय के साथ साथ अब जा कर चोलियाँ माडिया स्त्री जीवन में स्वयं उपस्थित हुई और हो भी जायेंगी किंतु इस प्रक्रिया को किसी भ्रामक तर्क के आईने में देखना उचित नहीं। मेरा मानना है कि स्वत: होने वाले परिवर्तन, परम्पराओं में भी अपनी पुरातनता की खुशबू सहेज लेते हैं किंतु इस स्वाभाविकता का ‘लाल सलाम’ जबरन है और अनुचित है।


इसी आलोक में कुछ बातें बस्तर के बहुत पुराने अतीत की। प्रागैतिहासिक काल से ही यहाँ मानव रहा है। इन्द्रावती, नारंगी और कांगेर नदियों के किनारों से पुरा-पाषाण काल के मूठदार छुरे मिले हैं। उस समय का आदमी जिन उपकरणों से पशुओं की खाल या पेड़ों की छाल उतारता था, हड्डी तोड़ने, मांस काटने या चमडे में छेद करने में काम आने वाले उसके जो औजार थे, वे यहाँ मिले हैं। इसके बाद का समय यानी कि मध्य-पाषाणकाल; इन्द्रावती नदी तो खोज करने वालों के लिये खजाना हो सकती है। फ्लिट, चार्ट, जैस्पर, अगेट जैसे पत्थरों से बनाये गये तेज धार वाले हथियार इन्द्रावती नदी के किनारों पर खास कर खड़क घाट, कालीपुर, भाटेवाड़ा, देउरगाँव, गढ़चंदेला, घाटलोहंगा के पास मिले हैं। नारंगी नदी के किनारे भी गढ़बोदरा और राजपुर के आसपास ऐसे औजार और हथियार देखे जा सकते हैं। खोजने वालों को इन जगहों से कई तरह के खुरचन के यंत्र, अंडाकार मूठ वाला छुरा और छेद करने वाले औजार मिल रहे हैं। ये तो स्वाभाविक है क्योंकि उन दिनों आदमी की निर्भरता या तो शिकार पर रही होगी या कंदमूल पर। 


बस्तर और इसके आसपास के उत्तर-पाषाण युग का आदमी अच्छे किस्म के पत्थरों से कई कामों को एक साथ करने वाले उपकरण और औजार बनाने लगा। इस समय दांत वाले हड्डियों से बने हंसिये का उपयोग फसल काटने के लिये किया जाता था। विकास लगातार चलने वाली प्रक्रिया है इसीलिये इतिहास का हर अगला काल बेहतर औजारों के किये जाना गया। यानी कि उत्तर-पाषाणकाल का आदमी छोटे और प्रयोग करने में आसान हथियार बनाने लगा था; इनको लकड़ी, हड्डी या मिट्टी की मूठों में फँसा कर बाँधा जाता था। हथियार तो चर्ट, जैस्पर या क्वार्ट्ज जैसे मजबूत पत्थरों से ही बनाए जाते थे। इस समय के अवशेष इन्द्रावती नदी के किनारों पर मिलेंगे खास तौर पर चित्रकोट, गढ़चंदेला तथा लोहांगा के आसपास...। नव पाषाणकाल तक आते आते यहाँ के आदमी चित्रकार हो गये थे। कई गुफायें उपलब्ध हैं जिनकी छतों पर शिकार करने, शहद इकट्ठे करने, नाचने-गाने, जानवरों की लड़ाईयाँ, आग की पूजा, पेड़-पौधों से संबंधित बहुत से चित्र बने मिलेंगे। जैसा जीवन वे जी रहे थे उसे चित्र बना कर हमारे लिये इतिहास छोड़ गये। नड़पल्ली पहाड़ी दक्षिण बस्तर में है जहाँ लगभग चार हजार फुट की उँचाई पर एक नव-पाषाण काल की गुफा है जिसमें हिरणों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इन्द्रावती नदी के किनारे, मटनार गाँव के पास भी इस समय के बने गुफा-चित्र मिलते हैं जिसमें जानवरों की आकृतियाँ बनायी गयी हैं। मटनार में एक चित्र ने मेरा ध्यान खींचा था जिसमें आदमी की हथेलियों से किसी अलौकिक शक्ति की पूजा का संकेत मालूम पड़ता है। फरसगाँव के पास आलोर गाँव में भी चिड़िया के चित्र बने हुए हैं। ये गुफा चित्र ही बताते हैं कि तब इन्द्रावती नदी में नाव चलायी जाने लगी होगी इतनी ही नहीं  मछली का शिकार करने के प्रमाण भी मिलते हैं।  


बस्तर और इसके आसपास नव पाषाणकाल में मानव सभ्यता का ठीक-ठाक विकास हो गया था। उस समय का आदमी खेती करने लगा था; जानवर पालना जान गया था; घर बना कर रहने लगा था; बर्तन बनाना जान गया था....।  इसी समय से आदमी जंगल जला कर, खाली हुई जमीन को नुकीली लकड़ी से खोद कर खेती करने लगा था। वह अपनी फसल बचाने के लिये झोपड़ी बना कर रहने लगा होगा। अनाज और पानी जमा करने के लिये बनाये गये मिट्टी के बर्तन के अवशेष कई जगहों पर मिले हैं। नव-पाषाण काल के पेड़ काटने के लिये बनाये गये पत्थर के औजार तो देखने लायक हैं। समय के साथ अनाज, जानवरों और औजारों के लिये कबीलों में आपसी झगड़े भी हुए। घरों और पालतू जानवरों को हिंसक जानवरों से बचाने के लिये पत्थर की बाड़ लगायी जाने लगी। उसूर, छोटे ड़ोंगर, गढ़चंदेला और गढ़धनोरा में नवपाषाणकाल के अवशेष और उपकरण देखे जा सकते हैं। गढ़चंदेला, गढ़धनोरा और वोदरा में तो उँची पहाड़ी पर नवपाषाण काल के बने आवास स्थल भी देखने को मिल जायेंगे। पाषाणयुग के बाद ताम्र और लौह युग आये। सभ्यता के इन युगों की बहुत सीमित जानकारी ही मिल पायी है। इन युगों के कुछ उपकरण दक्षिण बस्तर में मिले हैं इनमे बहुत खास है नुकीले बेल्ट वाली एक कुल्हाड़ी।


बी. डी. कृष्णास्वामि अपनी कृति “प्री हिस्टोरिक बस्तर” में उल्लेख करते हैं कि ईसा से लगभग एक सहस्त्राब्दि पूर्व महापाषाणीय शवागारों का प्रचनल था। शवों को गाड़ने के लिये बड़े शिलाखंडों का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार के शवगारों के उस समय के अवशेष करकेली, सकनपल्ली, हांदागुडा, गोंगपाल, नेला-कांकेर तथा राये में मिल जायेंगे। उन दिनों भी शव के साथ कब्र में अन्न, जल, अस्त्र-शस्त्र और मिट्टी के बर्तन जैसी चीजें रखी जाती थी। आज भी बस्तर के माड़िया ठीक यही करते हैं; इसी तरह शवागारों के उपर स्तंभों को गाडते हैं। यह परम्परा बहुत खूबसूरती से हजारों हजार साल का सफर तय करती हुई आज तक आ पहुँची है। जैसा कि मैंने आरंभ में कहा था समय स्वयं परम्पराओं को खूबसूरत स्वरूप दे देता है तथा उनमें आधुनिकता का स्त: समावेश होने लगता है, इन्हें खण्डित करने की आवश्यकता नहीं। मृतक स्तम्भ समय के साथ नक्काशीदार खम्बों में भी परिवर्तित हुए। अस्त्र-शस्त्र, चिडिया, जानवर या आदमी की आकृतियों नें इन मृतक स्तम्भों में जगह बनाना आरंभ किया। गायता के स्मृति स्तंभ कर कपडा लपेटने की प्रथा भी प्राचीन स्वरूप में नये बदलाव का संकेत देती है। अबूझमाड एक जीवित संग्रहालय है जहाँ अब सोच की खुली ऑक्सीजन कम हो गयी है। जंगल के भीतर आन्ध्र और निकटवर्ती राज्यों से घुस आये तथाकथित क्रांतिकारियों नें बिना विचार किये जीवन शैली तहा परम्पराओं में जो बदलाव जाने की कोशिश आरंभ की है वह संवेदनहीनता है। माओवाद के नाम पर माड क्षेत्र में जारी युद्ध में मारे जाने वाले अधिकतम लोग माडिया ही हैं क्योंकि उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में खडा किया गया है। मारे जाने के बाद उनके अंतिम कर्म तो परम्परागत हों भले ही बंदूख वालों को ईश्वर पर आस्था नहीं तथापि इतिहास पर तो होनी चाहिये? लाल रंग के जिन स्तूपों जिनका निर्माण मृतकों की स्मृतियों को जिन्दा रखने के बहाने इन दिनों देखने में आ रहा है वे प्राचीन काल में बनाये जाने वाले युद्ध स्तंभों जैसे हैं इनका आदिम परम्पराओं से कोई लेना देना नहीं है। विचारधारा अपनी जगह है, युद्ध और उसकी सच्चाईयाँ अपनी जगह है किंतु माड क्षेत्र की जीवित परम्परा को इस तरह मरते देख कर असंतोष होता है कि वह माडिया जो अपने पहचान के संकट से कभी नहीं गुजरा उसे पहचानना कठिन हो जायेगा। क्रांति माडिया स्त्रियों को हरी बुश्शर्ट पहना कर, बंदूख थमा देने से आनी होती तो कब का आ जाती। माडिया बच्चे हरे भरे जंगल के बीच गुजरी सडक से हो कर स्कूल जायें लेकिन मांदर की थाप पर उनके कदम थिरकना न भूलें तो क्रांति आयेगी। माडिया दफ्तरों तक पहुँचें, खेती के तरीकों में आधुनिकता लायें, अस्पतालों और बिलजी जैसी मूलभूत आवश्यकतायें उनके घर तक आ पहुँचे किंतु जब उसका देहावसान हो तो परिजन परम्परा के पुरातनता की खुशबू बनाये रखें और स्मृति स्तंभ उसकी यादों को चिरजीवी रखें तब आयेगी माडिया क्षेत्रों में क्रांति साथ ही वे जीवित रख पायेंगे विश्व की सबसे प्राचीनतम और सुन्दरतम परम्परायें। मुझे लगने लगा है कि इस जीवित पुरापाषाणकाल को कातिल विचारधाराओं से बचाना आवश्यक है।      

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Tuesday, July 17, 2012

भगवान पुस्तकालय के संरक्षण की दृष्टि से जिला प्रशासन को लिखा गया पत्र।


भागलपुर स्थित भगवान पुस्तकालय स्थानीय नहीं अपितु राष्ट्रीय धरोहर है। यह पत्र पुस्तकालय की स्थिति भी स्पष्ट करता है तथा इसके संरक्षण के लिये भागलपुर जिला प्रशासन से एक अपील भी है। अपेक्षा करता हूँ कि प्रसाशन की ओर से सकारात्मक पहल होगी। एक नागरिक के तौर पर जो मेरा दायित्व था उतना कार्य करने की मेरी कोशिश है।
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जिलाधिकारी
भागलपुर जिला
बिहार

विषय: भगवान पुस्तकालय के संरक्षण के सम्बन्ध में।

महोदय,

मैं एक लेखक हूँ तथा वर्तमान में देहरादून (उत्तराखण्ड) में अवस्थित हूँ। एक शोधकार्य के लिये पिछले दिनों आपके जिले में स्थित भगवान पुस्तकालय जाना हुआ। जितनी अपेक्षा और तैयारी के साथ मैं भागलपुर के प्राचीन भगवान पुस्तकालयपहुँचा था उतनी ही मायूसी इस बुनियादी सुविधा-विहीन पुस्तकालय को देख कर हुई। यहाँ पहुँचने की अभिरुचि उस जानकारी के कारण थी कि कुछ ही महीने पहले भगवान पुस्तकालय में पाण्डुलिपि संरक्षण केन्द्र के कुछ अधिकारियों को एक अलमारी में झोले में रखी हुई कुछ दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई जिनकी संख्या छ सौ से अधिक थी। इसी दौरान प्राप्त दस्तावेजों में से एक भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की हस्तलिखित वह चिट्ठी भी है जिसमें उन्होंने भगवान पुस्तकालय की मरम्मत के लिये भागलपुर के धनाड्य लोगों से अपील की है। यह पत्र 1934 का है जब भागलपुर में आये भूकम्प के कारण पुस्तकालय को भी नुकसान हुआ था; तब राजेंद्र बाबू बिहार सेंट्रल रिलीफ कमेटी की ओर से भूकंप पीडि़तों की सेवा करने में जुट गये थे। भूकंप में भगवान पुस्तकालय के मुख्य भवन का गुंबद लटक गया था। इसकी मरम्मत के लिए तत्कालीन पुस्तकालयाध्यक्ष स्व. पंडित उग्र नारायण झा ने मुंगेर में उनसे मुलाकात कर मदद का अनुरोध किया। इस पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नें भागलपुर के धनाढ्य परिवारों के नाम पत्र लिखकर पुस्तकालय को आर्थिक सहायता करने का अनुरोध किया था। आज लगता है कि राजेन्द्र बाबू की अपील निरर्थक रह गयी है, यहाँ तक कि उनके हाँथों के लिखे कागज हमसे संभाले नहीं संभलते? यह स्थिति तब है जब कि रजत जयंती, स्वर्ण जयंती एवं हीरक जयंती मना चुके इस गौरवशाली पुस्तकालय मे आगामी 7 दिसम्बर 2013 को इसकी स्थापना की 100 वीं जयंती मनाया जाना है।

मुख्यद्वार से पुस्तकालय तक पहुँचते हुए ही बदहाली का अंदेशा हो जाता है। भीतर प्रवेश करता हूँ तो सन्नाटा पसरा हुआ है। तलाशने पर एक कर्मचारी मिलता है जो बेचारा उमस और गर्मी का मारा बनियान चढाये पुस्तकालय के पीछे बैठा हुआ है। इस पुस्तकालय सहायक को संदर्भ बताता हूँ जिनपर सामग्री की मुझे तलाश है तो वह पहले सोचने की गंभीर मुद्रा बनाता है फिर एक मोटा सा रजिस्टर ला कर सामने रख देता है जो कि उपलब्ध पुस्तकों का कैटलॉग है। मैं कुछ किताबें चुनता हूँ तो वह तलाश कर मुझे देने की बजाय एक अलमारी की ओर उंगली दिखाता है जिसपर एक पीला साकागज चिपका है ध्यान से देखने पर ही अंदाजा होगा कि भीतर इतिहास की पुस्तकें रखी हैं। अलमारी खोलने में ताकत लगानी पडी; शायद इन्हें महीनों या सालों से खोला ही नहीं गया है? किताबों की हालात भी शर्मसार करने वाली है। यह किस किस्म का पुस्तकालय चल रहा है? आज के दौर में जहाँ पुस्कालय प्रबन्धन को विज्ञान कहा जाता है वहाँ साहित्य, इतिहास, कला हर किस्म की किताबों की एसी दुर्दशा कि देखी भी नहीं जाती?        

मेरे चिन्हित संदर्भ तो मुझे नहीं मिले किंतु मैंने एक एक कर कई किताबें टटोली और आवाक रह गया इतने पुराने और दुर्लभ संकलनों को देख कर। हालात इतने खराब है कि बहुतायत पुस्तके न तो क्रम से व्यवस्थित हैं न ही सभी की कैटलॉगिंग ही पूरी हुई है। कई टेबलों पर किताबें गट्ठर की शक्ल में रखी हुई हैं और आप नीचे दबी हुई पुस्तकें तो निकाल ही नहीं सकते। कई हजार किताबें उपर की अलमारियों में इस तरह रखी गयी हैं कि उनतक पाठकों के हाँथ तो नहीं पहुँच सकते अलबत्ता दीमक और चूहों की उनको उपलब्धता हो सकती है। कई संदर्भ पुस्तकें जिन्हें मैने उठाया उनपर दीमक नें छेद कर दिये थे। मैंनें पुस्तकालय सहायक से इस पुस्तकालय के अध्यक्ष से संपर्क करने के लिये कहा जिससे कि यहाँ उपलब्ध उन पाण्डुलिपियों को देख सकूं जिनके विषय में हालिया जानकारी प्रात हुई है। थोडी ही देर में कोई महिला अधिकारी आती हैं किंतु वे गर्दन हिलाकर इन पाण्डुलिपियों को दिखा पाने में असमर्थता जाहिर कर देती हैं। मै इन्हे देखने का निर्धारित शुल्क देने के लिये प्रस्तुत हूँ फिर इनकार क्यों? तो पता चलता है कि चाबी सेक्रेटरी साहब से मिलेगी। सेक्रेटरी साहब से संपर्क की कोशिश होती है तो पता चलता है कि वे शहर से बाहर हैं इस लिये अब दो सप्ताह के बाद ही आना होगा; अगर इन पाण्डुलिपियों में रुचि है। मुझे देहरादून लौटना था और इतना समय नहीं था, मन मसोस कर रह गया। किंतु यही अवस्था तो प्रत्येक शोधार्थी की होती होगी जो एसे महत्वपूर्ण पुस्तकालयों में बडी ही अपेक्षा के साथ पहुँचते हैं?

मुझे इन पाण्डुलिपियों को न देख पाने का अफसोस क्यों नहीं होना चाहिये? लगभग दो सौ साल का इतिहास इनके भीतर छिपा हुआ है। एक पाण्डुलिपि एसी भी है जिससे पता चलता है कि औरंगजेब की बेटी जैबुन्निशा की तालीम व तरबियत (शिक्षा-दीक्षा) भागलपुर के कुतुबखाना पीर शाह दमड़िया बाबा शाह मंजिल, खलीफ़ाबाग में हुई थी। वे 1665 ई के आसपास यहाँ रहा करती थीं। इसी स्थल से सम्बन्धित बादशाह अकबर का एक फ़रमान पत्र पुस्तकालय में उपलब्ध है जिसमे उन्होंने आदेश दिया था कि दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले बादशाह यहाँ दुआ मांगने आयेंगे। एक अन्य प्राप्त जानकारी रोचक है अंगरेजी शासनकाल में हाकिम उसी दरख्वास्त के पिछले पृष्ठ पर फ़ैसला लिखा करते थे, जो उन्हें पीड़ितों के द्वारा सौंपा जाता था; 1824, 1865, 1903 1904 ई की मिली पांडुलिपि (हस्तलिखित) से इस तथ्य की जानकारी मिली है। कई दुर्लभ ग्रंथ और कविता संकलन भी यहाँ उपलब्ध हुए है इनमें श्यामसुंदर द्वारा अवधि में लिखी गयी चतुप्रिया ग्रथांतर्गत भूल वर्णन, मथुरा प्रसाद चौबे व रामकृष्ण भट्ट की कविता मिली है। कविता की पाण्डुलिपि 150 साल पुरानी है। सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा 1934 में लिखी गयी पुस्तकालय परिदर्शन टिप्पणी मिली है, जो अंगरेजी में लिखी गयी है। मानीदेव की रचना काशीवासी सिंहराज का युद्ध वर्णन भी मिली है। कवि रघुनाथ की लिखी वसंत ऋतु कविता भी मिली है। सौभाग्य से पांडुलिपियों का तैयार डाटा बेस पटना पहुंचा दिया गया है। कई पाण्डुलिपियाँ अच्छी हालत में नहीं बतायी जाती हैं। इनकी समुचित स्कैनिक आदि कर के आधुनिक तकनीकों के माध्यम से अध्येताओं तक पहुँचाने की व्यवस्था राज्य सरकार को करनी चाहिये।  

महोदय उपरोक्त बाते लिखने का मेरा मंतव्य भगवान पुस्तकालय के बहाने सरोकारों के प्रति हमारी उपेक्षा की ओर प्रशासन का ध्यान दिलाना मात्र है। भगवान पुस्तकालय की स्थापना 7 दिसम्बर 1913 को भागलपुर के जमींदार सह ऑनरेरी मजिस्ट्रेट पंडित भगवान प्रसाद चौबे  एवं उनके भतीजे पंडित अलोपी प्रसाद चौबे  ने संयुक्त रूप से अपनी निजी भूमि, भवन एवं संसाधनों को समाज को समर्पित कर के किया था। इस पुस्तकालय का उद्घाटन भागलपुर के तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर एच जे मेकेन्टोस ने किया था। पुस्तकालय की स्थापना का एक उद्देश्य हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन को गति देना भी था। भगवान पुस्तकालय से लम्बे अर्से तक पुरुषोत्तमदास टंडन, डा. रामचन्द्र शुक्ल, डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. जाकिर हुसैन, भागवत झा आजाद, डा. जगजीवन राम, डा. जगन्नाथ कौशल, डा. ए. आर. किदवई, राहुल सांकृत्यायन जैसे दिग्गज राजनेताओं और साहित्यकारों का जुड़ाव बना रहा है। वर्ष 1955 में बिहार सरकार द्वारा इसका अधिग्रहण करने के बाद इसे प्रतिवर्ष 25,000 रुपये अनुदान मिलना प्रारंभ हुआ, जो अब बढ़कर 49,740 रुपये हुआ है; सही मायनों में यह नितांत अपर्याप्त राशि है। तथापि क्या अपने गौरवशाली अतीतका संरक्षण केवल सरकार का ही दायित्व है? अगर एसा होता तो 1934 में इसी पुस्तकालय के पुनरुद्धार के लिये राजेन्द्र बाबू आम जनता से अपील नहीं करते। केवल समय बदला है किंतु उनकी वही अपील आज भी कायम है। यह पुस्तकालय भागलपुर वासियों की दृष्टि और पहल की प्रतीक्षा कर रहा है। एक पहलू यह भी देखें कि भागलपुर जिले की कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 3,032,226 है। यह बिहार की कुल आबादी का 2.92 फीसदी है। मैने पुस्तकालय में वर्तमान सदस्य संख्या को जानना चाहा तो क्षोभ से भर उठा उत्तर मिला – “अब साठ लोग पुरने वाला है। मुझे कुछ पत्रकारों के माध्यम से यह ज्ञात हुआ कि सदस्य संख्या बढाने के लिये कोई अभियान ही नहीं चलाया गया है। इस तरह तो यह धरोहर आत्महत्या की ओर बढ रही है। मैं जानता हूँ कि इतना संवेदनहीन शहर तो नहीं हो सकता भागलपुर। मुझे उम्मीद है कि प्रबुद्ध प्रशासन जानकारी प्राप्त होते ही इस विषय को प्राथमिकता से संज्ञान में लेगा तथा पुस्तकालय के संरक्षण एवं प्रबन्धन के लिये आवश्यक दिशा निर्देश जारी किये जायेंगे।

महोदय, भगवान पुस्तकालय से संबंधित अपने विचारों को मैने वेब माध्यम से उठाया था तथा इस दिशा में देश-विदेश से अनेकों साहित्यकारों एवं पुस्तक प्रेमियों की प्रतिक्रियायें प्राप्त हुई हैं। वाराणसी से दैनिक जागरण में कार्यरत वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्यामबिहारी श्यामल नें लिखा है कि “भागलपुर के ऐतिहासक भगवान पुस्‍तकालय में अनेक दुर्लभ पुस्‍तकें और पांडुलिपियों का होना तो इसे महत्‍वपूर्ण बनाता ही है, इस तथ्‍य से यह और दुर्लभ हो जाता है कि‍ इसके साथ हमारी भाषा के महान साहित्‍यकारों की सम्‍बद्घता और स्‍मृतियां भी जुड़ी हुई हैं। इसके संरक्षण के लिए आगे आने वाली संस्‍था से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह यहां की दुर्लभ पांडुलिपियों को सबसे पहले तो वीडियो वर्जन में फिल्‍मीकृत करने जैसी समुचित पहल करे और ऐसा ही भरसक प्रयास पुरानी पुस्‍तकों को लेकर भी हो। इसके साथ ही पुस्‍तकालय विज्ञान के किसी योग्‍य जानकार से संपर्क कर तमाम पुस्‍तक-संपदा के सूचीकरण और नियमित संरक्षण-कार्य के लिए परामर्श ले। यह कार्य बिहार में भी पटना के खुदा बख्‍श लाइब्रेरी या सिन्‍हा पुस्‍तकालय जैसे ठोस संस्‍थानों से संपर्क कर पूरा किया जा सकता है। इस पुस्‍तकालय के साथ हमारे प्रथम राष्‍ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का भी सीधे जुड़ाव रहा है। आवश्‍यकता केवल इस बात की है कि ढंग से पहल हो और जाहिरन यह अभियान भागलपुर की धरती से शुरू हो तो बात आगे बढ़ सकती है”। कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक तथा वरिष्ठ वामपंथी विचारक श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी नें राज्य सरकार से इस मामले में दखल देने की उम्मीद की है। बोधि प्रकाशन से साहित्यकार तथा प्रकाशक श्री माया मृग जी नें पुस्तकालयों के संरक्षण और संग्रहण को एक कौशल बताते हुए किसी भी तरह की सहायता के लिये प्रस्तुत होने की बात कही है। जयपुर से वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती सरस्वती माथुर नें टिप्पणी की है कि जागते को जगाया जाना अधिक कठिन कार्य है; उन्होंने पुस्तकालय की दुर्दशा पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। लंदन से वरिष्ठ कथाकार एवं प्रतिष्ठित हिन्दी सम्मान “कथा यू.के के समन्वयक श्री तेजेन्द्र शर्मा नें पुस्तकालय संरक्षण को महत्वपूर्ण सरोकार माना है। दिल्ली विश्वविद्यालय से संगीता कुमारी, फिल्म निर्माण क्षेत्र से जुडी पंखुडी पल्लवी, सुदूर बस्तर क्षेत्र के भोपालपट्टनम से श्री संदीप राज नें भगवान पुस्तकालय के वर्तमान हालात पर अपनी चिंता व्यक्त की है। पुस्तकालय क्षेत्र से जुडे श्री गणेश कुमार साहू नें लिखा है कि “आए दिन हमे पढ्ने और सुनने मे आता है कि पुस्तकालय मे आई टी और इससे जुड़े प्रयोगों पर देश भर मे ढेर सारे सेमिनार/अधिवेशन आयोजित किए जाते है पर क्या कभी इस देश के तथाकथित पुस्तकालय बुद्धिजीवी ने सोचा भी होगा कि असली सेमिनार/अधिवेशन तो पुस्तकालय को बचाने से शुरू होता है” शारजाह से अभिव्यक्ति-अनुभूति वेब पत्रिकाओं की सम्पादिका तथा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती पूर्णिमा वर्मन नें सुझाव दिया है कि “किसी डिग्रीधारी अनुभवी लायब्रेरियन का सहयोग लेना चाहिये। अवकाश प्राप्त लाइ्ब्रेरियन भी सहयोग कर सकते हैं”।  मुम्बई से वरिष्ठ लेखिका मधु अरोडा नें सुझाव दिया है कि “यह एक बड़ा काम है क्‍योंकि सारी पुस्‍तकों को खोजना और उनका रिकॉर्ड आदि करना होगा। इसके लिये विभिन्‍न पुस्‍तकालयों की सहायता लेना होगा। पुस्‍तकालयों को पत्र लिखकर उनसे वहां के प्रशिक्षित लोग बुलवाए जायें और काम को करने के प्रयास किये जायें”। इसी संदर्भ को आगे बढाते हुए रांची से वरिष्ठ रंगकर्मी एवं आदिवासी मामलों के जाने माने लेखक श्री अश्विनी कुमार पंकज नें लिखा है कि “पुस्तकों का रखरखाव और पुस्तकालय का संचालन बहुत मुश्किल काम है। इसके लिए विशेषज्ञों की सलाह ली जानी चाहिए। मुझे संदेह है कि कोई एनजीओ ऐसे पुस्तकालय का रख रखाव दीर्घकालीन समय तक कर सकेगा। बेहतर यही होगा कि स्थानीय प्रशासन और नागरिकों को इसके लिए जिम्मेदार और जवाबदेह बनाया जाए। जो इसके रखरखाव की पूरी योजना बनाएं, उसका ब्लूप्रिंट सामने रखें तभी जो मदद करना चाहते हैं उनकी भूमिका स्पष्टतः तय हो सकेगी और यह कारगर भी होगी। पुस्तकालय का कंप्यूटीकरण और रेयर पुस्तकों का डिजिटाइजेशन भी जरूरी है और यह कार्यसूची में शामिल रहे”पुणे से कवि तथा  गीतकार श्री विश्वदीपक तनहा नें पुस्तकालय की देख रेख के लिये अनुभवी लाईब्रेरियन की आवश्यकता पर जोर दिया तो रायपुर से श्रीमती नीलिमा गडकरी नें लिखा कि “पाण्डुलिपि प्रबंधन का काम बेहद गंभीर और जटिल विषय है तथा इस में किसी कुशल प्रबंधन और पुस्तकालय विशेषज्ञ का सामंजस्य होना जरुरी है. मुझे लगता है इसमें स्थानीय विश्वविद्यालय और स्थानीय प्रशासन की भी सहायता ली जा सकती है”| जयपुर से टीवी पत्रकार श्री आर्य मनु नें पुस्तकालयों की प्रत्येक शहर में हो रही दुर्दशाओं पर ध्यान दिलाते हुए भगवान पुस्तकालय के बेहतर प्रबन्धन की अपील की है। बिहार से ही फिल्म निर्माता तथा पत्रकार श्री भवेश नन्दन झा नें लिखा है कि “अपने धरोहरों से लोगों का ध्यान हटता जा रहा है। कमोबेश सभी जगहों के हालात एक जैसे हैं, मधुबनी के पुस्तकालय जहाँ हम घंटों सुकून से पढ़ा करते थे आज दुर्दशा का शिकार है। इन मामलों में सरकारी तंत्र से खराब रवैया आम लोगों का होता है, जिनके लिए ये बना है”। दंतेवाडा, छत्तीसगढ से श्री चन्द्र मण्डावी नें अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है कि “देश के कई हिस्सो मे हमारी प्राचीन धरोहरें आज इसी तरह उपेक्षा का दर्द झेलते हुये विलुप्ति के कगार तक पहुच गयी हैं”। रांची से लेखक श्री रवि बाजपेयी लिखते हैं कि “अपनी धरोहरों की देखरेख हमारी जिम्मेदारी है, सरकार की नहीं| यदि लोग चाहेंगे तो स्थानीय प्रशासन व सरकार अपना काम करेगी| भागलपुर के लोगों को इस कुव्यवस्था के बारे में बताना आवश्यक है, निश्चय ही स्थानीय लोग इस पुस्तकालय के बचाव के लिए आगे आयेंगे”। वरिष्ठ कथाकार श्री बलराम अग्रवाल नें पुस्तकों के प्रति संवेदनशीलता को अपने पूर्वजों के प्रति आदर की अभिव्यक्ति के साथ जोडा है। मास्को से वरिष्ठ लेखक श्री अनिल जनविजय नें इसके संरक्षण में सभी प्रकार के सहयोग की मनोभावना के साथ आगे आने की इच्छा अभिव्यक्त की है। दंतेवाडा से सामाजिक कार्यकर्ता श्री संजय महापात्र नें लिखा है कि “यह आनेवाली पीढी के साथ हमारा अन्याय है”। राँची से पत्रकार श्री पुष्य मित्र नें भगवान पुस्तकालय की स्थिति पर दु:ख जताते हुए यहाँ जारी कुप्रबन्धन की ओर ध्यान दिलाया है। उनके अनुसार सदस्य बनाने की प्रक्रिया से ले कर पुस्तकों का रख रखाव सभी कुछ चिंताजनक है। जगदलपुर से श्री हेमंत नाग लिखते हैं कि स्थानीय प्रशासन को इसके संरक्षण में आगे आना चाहिये। सिलचर, असाम से श्री आकाश वर्मा नें इस दिशा में कुछ शीघ्र किये जाने की अपील की है। अमेरिका से हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका “हिन्दी चेतना” की सम्पादिका श्रीमती सुधा ओम ढींगरा लिखती है कि “हम विदेशी लाइब्रेरियों में हिन्दी साहित्य को जुटाने और सुरक्षित करवाने की कोशिश कर रहे हैं और भारत में यह हाल है” 

महोदय यह कुछ प्रतिक्रियायें भर हैं तथापि इससे प्रसन्नता होती है कि पुस्तकालय और इसके संरक्षण को ले कर अभी भी हमारा समाज तथा लेखक वर्ग जागरूक एवं चिंतित है। यह भी महत्वपूर्ण है कि वे धरोहरें जो आने वाली पीढी की अमानत हैं अगर वर्तमान द्वारा उपेक्षित भी की जा रही हैं तो भी उनका समुचित संरक्षण दाहित्व बनता है। जैसा कि जानकारी प्राप्त हुई है कि राज्य सरकार द्वारा पुस्तकालय को अनुदान भी प्राप्त होता है अत: आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया स्वयं संज्ञान ले कर पुस्तकालय के समुचित प्रबन्धन के लिये दिशा निर्देश प्रदान करने का कष्ट करें। भागलपुर विश्वविद्यालय में पुस्तकालय प्रबंधन का अध्ययन कराया जाता है यदि उनकी सहभागिता प्राप्त हो जाये तो वैज्ञानिक तरीके से तीन लाख से अधिक पुस्तकों का रखरखाव, कैटलॉगिंग तथा आम पाठक/शोधार्थियों तक उनका पहुँचाना संभव हो सकेगा। भागलपुर से ही एक गैर सरकारी संगठब लकी महिला एवं युवा संघ नें भी इस दिशा में कार्य करने की रुचि दिखायी है। उनका पत्र भी मैं साथ ही संलग्न कर रहा हूँ।  

महोदय, यह कार्य बडा उद्देश्य अंतर्निहित रखता है। आपके कुशल निर्देशन/मार्गदर्शन में यदि कार्य सम्पन्न हो जाये तो यह सौगात न केवल भागलपुर शहर के लिये होगी अपितु देश-विदेश के सभी हिन्दी/पुस्तक प्रेमियों के लिये भी होगी। हम सभी साहित्यकार/कलाकार/हिन्दीप्रेमी/विद्यार्थी/शोधार्थी आपकी ओर अपेक्षा भरी निगाह से देख रहे है। हमें अपेक्षा है कि आने वाले वर्ष में जब इस पुस्तकालय के स्थापना की सौंवी वर्षगाँठ मनायी जायेगी तब तक यह एक बेहतर तरीके से प्रबंधित तथा संरक्षित होगा। मुझे अपेक्षा है कि आप इस दिशा में अवश्य कारगर कदम उठायेंगे।

सादर।


भवदीय

अनुलग्नक: -   अ) भगवान पुस्तकालय में खीचे गये कुछ फोटोग्राफ्स।
आ) पुस्तकालय प्रबन्धन पर एक संक्षिप्त नोट।
ई) गैर सरकारी संस्था “लकी युवा एवं महिला संघ” का एक पत्र।

राजीव रंजन प्रसाद
221/7, मोहित नगर
देहरादून (उत्तराखण्ड) – 248006
चलभाष – 07895624088
ई-पता – rajeevnhpc102@gmail.com   


प्रतिलिपि:
1.    कुलपति महोदय, भागलपुर विश्वविद्यालय को इस अनुरोध के साथ कि पुस्तकालय विभाग तथा इसके शोधार्थियों के माध्यम के आपकी पहल द्वारा भगवान पुस्तकालय के बेहतर तथा वैज्ञानिक तरीके से प्रबन्धन की योजना तैयार की जा सकती है।

2.    संचालक – गैर सरकारी संगठन लकी युवा एवं महिला संघ, भागलपुर को इस अपेक्षा के साथ कि स्थानीय सरोकारों को स्थानीय लोग ही बेहतर तरीके से उठा सकते हैं एवं जागृति प्रसारित कर सकते हैं।


 [भगवान पुस्तकालय के मुख्यद्वार की तस्वीर]

[इन पुस्तकों तक पहुँचना असंभव है ये इसी तरह नष्ट हो सकती हैं]

[पुस्तकें तो बहुत हैं तथा दुर्लभ संकलन है किंतु समुचित कैटलॉगिंग व वैज्ञानिक तरीके से रखरखाव का अभाव दिखाई पडता है]

[प्राचीन अलमारियाँ हैं तथा उनमें से अधिक खुलती ही नहीं हैं, किताबें भरी पडी हैं लेकिन उनमें क्रमिकता का अभाव है, यहाँ फुर्सत में केवल अखबार पढने वाले पाठक ही दिखे। सदस्य संख्या को 60 से आगे बढाने के लिये भी कुछ किया जाना दिखाई नहीं पडता।]

[गैर सरकारी संस्था का इस दिशा में पहल हेतु पत्र] 

Tuesday, July 10, 2012

बस्तर में प्रगतिशील समाज एक दृष्टिकोण


तूम्बा बस्तर में हर किसी कंधे पर शान से विराजमान हुआ करता था। विषय में उतरने से पहले तूम्बे को केन्द्र में रख कर विमर्श करते हैं। लौकी के जो फल बुढ़ा जाते हैं उसको तोडकर उसका शीर्ष भाग काट लिया जाता है। इसके बाद सावधानी से भीतरी अंश को निकाल कर इसे खोखला बना लेते हैं। अब खोखले भाग में पानी भर कर उसे एक जगह सुरक्षित रख दिया जाता है। आठ दस दिनों में लौकी का भीतरी भाग पूरी तरह सड़ जाता है। सडे हुए अंश को बाहर निकाल कर अच्छी तरह धो कर सुखा दो और तूम्बा तैयार। यह आदिवासियों का वाटर बोटल, पेज कैरियर या सल्फी होल्डर सब कुछ है। इतना ही नहीं अंचल के कई वाद्य हैं जैसे किंदरी, तोहेली, डुमिर, रामबाजा....इन सभी में तूम्बे का घट लगा होता है। घोटुल मुरिया तो अपने कई नृत्यों में तूम्बों से भयानक मुखौटे भी बना कर प्रयोग में लाते हैं। एक भतरी कहावत भी है कि ‘तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी’। तूम्बा का फूटना एक अपशकुन है। इन भूमिका के बाद वर्तमान हालात पर एक दृष्टि – तूम्बा अब धीरे धीरे परम्परा से उठने लगा है। बहुतायत स्थलों में तूम्बे की जगह प्लास्टिक की डिस्पोजेबल बोतलों आदि नें ले ली है। एसा क्यों है कि जिस तूम्बे का उपयोग आम था, जो परम्परा का हिस्सा था, जिससे शगुन अपशगुन जैसे मिथक जुडे हुए थे वह धीरे धीरे आम उपयोग से बाहर जाता जा रहा है? क्या यह सामान्य बदलाव हैं? क्या इसी तरह एक समाज पूरी तरह बदल जायेगा और उसे मुख्यधारा हासिल होगी? केवल तूम्बे का प्रश्न नहीं है? वस्तुत: बदलाव की इतनी तेज हवा अन्यत्र नहीं देखी जा रही जो कुछ बस्तर में पिछले दस सालों में हो रहा है। इस कथन के अन्वेषण से पहले अपनी अपनी राजनीतिक सोच का चश्मा हमें परे रखना होगा। यह समस्या राजनीतिक नही है तथा इसके विमर्श और समाधान के लिये की जाने वाली राजनीति नुकसानदेय ही सिद्ध होगी। तूम्बे के प्रयोग में हो रही निरंतर कमी को जानने के प्रयास में मैंने कुछ साक्षात्कार किये थे और यह प्रतीत हुआ जैसे जड सूख रही हो। जैसे अपनी परम्परा, अपनी सोच और अपनी जीवनशैली में लगातार आ रहे बदलाबों नें कहीं जो हो रहा है उसे सहज स्वीकार कर लो की प्रवृत्ति तो नहीं प्रदान की है?

इसके उलट एक और बदलाव का उदाहरण सोचने पर बाध्य करता है। एनएमडीसी में कार्यरत एक आदिवासी साथी अशोक कुमार नाग नें हाल ही में कुछ तस्वीरें दिखायी थी जहाँ वे अपने गाँव में किसी परम्परागत उत्सव में शामिल होने गये थे। नगर के जीवन में पूरी स्वाभाविकता से रचा बसा आदिवासी साथी भी जब गाँव पहुँचता है तो वह मिट्टी के रंग में रच बस जाता है, आनंद पाता है, वहाँ के जीवन का बिलकुल वैसा ही हिस्सा हो जाता है जैसे कोई शिशु अपनी माँ की गोद में पहुँचकर सुकून और आनंद की साँस ले रहा हो।

अब एक तीसरी कहानी। इस कहानी नें मेरी सोच पर बहुत असर किया था तथा इसका उपयोग मैने अपने उपन्यास में भी किया है। मंगलू से मैं दंतेवाड़ा में मिला था। तब वह किसी सलवाजुडुम कैम्प में रह रहा था। मैने पूछा कि अपना घर-बाड़ी छोड कर क्यों भाग आये? उसने बताया कि उसके गाँव में माओवादी लोगों का हुकुम चलता है इससे उसे शिकायत नहीं थी। समस्या शुरु हुई जब उसके दो मुर्गों में से एक मुर्गा उसके ही पड़ोसी को बटाई में मिल गया। यह सामान्य प्रक्रिया है कि किसी गाँव को अपने कब्जे में लेने के बाद माओवादी वहाँ अवस्थित जन-जानवर आदि की गणना करते है फिर उपलब्ध धन-पशुधन को बराबरी के आधार पर बाँट देते हैं। रोज आधा पेट सोने वाला मंगलू पूंजीपति हो गया था क्योंकि अपने खून-पसीने से उसने दो मुर्गे सम्पत्ति बना ली थी। मंगलू इस बटाई के लिये सहमत नहीं था। उसने विरोध किया लेकिन दो चार थप्पड खाने के बाद उसे समानता का सिद्धांत समझ में आ गया। मंगलू के कुछ दिन भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए बीते। दुर्भाग्य से उसका मुर्गा मर गया। अब उसकी पीड़ा और बढ़ गयी थी। बटाई में चला गया मुर्गा वापस पाने के लिये वह पडोसी से रोज झगड़ने लगा। बात सरकार चलाने का दावा करने वालों तक भी पहुँची लेकिन मंगलू को मुर्गा वापस नहीं किया गया। मंगलू के लिये यह मुर्गा दिन की तड़प और रात का सपना बन गया था। एक दिन जब बर्दाश्त नें जवाब दे दिया तो वह उठा और अपने मुर्गे की गर्दन मरोड़ कर गाँव से भाग गया.....।“   
   
उपरोक्त तीनों उदाहरण काल्पनिक नहीं हैं तथा विषय को ठीक तरह से समझने में सहायक हो सकते हैं। पहला कि चाहे वह सरकारी प्रक्रियायें हों अथवा माओवादी पहल, आप न तो अपनी योजनाओं के प्रतिपादन में, अथवा, अपने विचार की स्वीकारोक्ति में तब तक सफल हो सकते हैं जब तक कि बात आम संवेदना से सीधे न जुडे। हो सकता है कि आपकी पहल बहुत वैज्ञानिक हो; हो सकता है कि आपके विचार अत्यधिक क्रांतिकारी हों किंतु अगर उनसे तूम्बा गुम हो जाता हो या मगलू को अपने मुर्गे की गर्दन मोड कर विस्थापित जीवन का चयन करना पडता है तो समझिये आपकी योजनायें धरी रह गयीं और आपकी क्रांति बह गयी इन्द्रावती में। रास्ता तो अशोक नाग का ही बनेगा जहाँ वह अपने लिये बेहतर जीवन की तलाश में पूरे संघर्ष के बाद सफल होते हैं, अपने बच्चों के लिये बेहतर भविष्य की नींव डालते हैं तथा जमीन की महक से भी जुडे रहते हैं। यही बदलाव की सही दिशा है और मेरी सोच किसी नारे या झंडे से बंधनें के लिये नहीं अपितु इसी दिशा की ओर इशारा करती है। नव निर्माण का श्रीगणेश और हम बस्तरिया करेंगे के जो भी आह्वाहन मेरे आलेखों में हैं वह आदिवासी साथियों के साथ इसी विमर्श और संवाद को बनाने की दिशा में हैं। मेरी निजी राय है कि आदिम समाज को आईसोलेट करने और मानवसंग्रहालय में बदलने की सोच दकियानूसी है। यद्यपि आधुनिकता से कई नकारात्मक बदलाव आते हैं; इसके अलावा माओवाद नें भी एक उपनिवेश बना कर बहुतायत गोंड बाहुल्य क्षेत्रों में जीवन का तरीका, परम्परा और संस्कृति पर प्रहार किया है। यह कोशिश मुझे किसी पौधे को जड से उखाडने के बाद नये बीज लगाने जैसी लगती है। यह बिलकुल अलग समाज का जन्म होगा जिसमें न तो बस्तरिया मिट्टी की महक होगी न पारम्परिक जीवंतता। जिसे इस कटुसत्य का अनुभव करना हो वे वीरान होते जंगलों, सिसकती देवगुडियों और मातागुडियों, बंद हो चुके घोटुलों, ले जाने वालों की राह तकते पाटदेवों के अवशेषों में उस बदलाव का आईना देख सकते हैं जो कैंसर की तरह शनै: शनै: बस्तर से बस्तरियापन खाये जा रहा है।

नक्सलबाडी से आरंभ हुआ आन्दोलन एक दिन वहीं दम तोड देता है। आन्ध्र के मुलुगु के जंगलों में पैर पसारने की कोशिश असफल होती है तो बंदूखे बस्तर का रुख कर लेती हैं। यह सबकुछ यहाँ से भी मिट जाने वाला है केवल समय की ही देरी है चूंकि यह इस धरती का स्वत: स्फूर्त आन्दोलन नहीं है, इस आन्दोलन नें इस मिट्टी के ‘सरोकारों से’ और यहाँ के ‘सरोकारों के लिये’ जन्म नहीं लिया अपितु यहाँ पाव धरने के बाद जमने और फैलने के लिये सरोकार तलाशे गये हैं। यह भूमकाल नहीं है। बस्तर में यह एक समस्या की तरह अवतरित हुआ तथा अनेक समस्याओं का जन्मदाता बन कर प्रसारित होता जा रहा है। हाँ इसका समाधान कोई जादू की छडी नहीं है लेकिन है तो बस्तरियों के पास ही। बस्तर का खून पीने वाले और भी कारक हैं जिसमें व्यवस्थागत दोषों से भी मुँह नहीं मोडा जा सकता। भ्रष्टाचार और शोषण कल भी बस्तर का सच था और आज भी है।

कुछ मोटे समाधानों पर पहले बात, नक्सलियों नें बहुत योजनाबद्ध तरीके से पटेल-माझी व्यवस्था द्वारा बस्तर के जंगल और शहर के बीच जारी संवाद को तोड दिया है। मुरिया दरबार अब केवल परम्परा रह गया है जबकि यह संवाद के पुनर्स्थापन की सबसे मजबूत कडी बन सकती है। यह समय बस्तर विश्वविद्यालय को अधिक अधिकार और स्वायत्तता देने का है जिससे न केवल आदिवासी भाषा, संस्कृति, इतिहास आदि पर शोधमूलक कार्य आरंभ हो सकें अपितु सीधे आदिवासी क्षेत्रों में संचालित महाविद्यालयों के माध्यम से रोजगार मूलक पाठ्यक्रम संचालित किये जा सकें। बस्तर में जब तक उच्च शिक्षा पर इस प्राथमिकता के साथ कार्य नहीं किया जायेगा कि यहाँ के बच्चे अंचल से बाहर निकल कर भी कार्य करने और देश की मुख्यधारा में सक्रिय योगदान देने जैसी क्षमता विकसित कर ले तब तक विकल्पहीनता की स्थिति तो बनी ही हुई है जो युवाओं को हताशा में गलत राह चुनने का अवसर प्रदान करती है। धार्मिक विश्वास को बहुत ही धैर्यपूर्वक आधुनीकीकरण से जोडा जा सकता है जो आदिवासी शिक्षित युवक बखूबी अंजाम दे सकते हैं - जहाँ हाशिये पर चले गये गुनिया, सिरहा और ओझा पारम्परिक चिकित्सा पद्यति के प्रशिक्षण के साथ असंभव क्षेत्रों की स्वास्थ्य सुविधायें बन जायें। [दुर्भाग्य वश मैं उस औषधि का नाम नहीं जानता, बचपन में मेरी पैर की हड्डी टूट जाने की अवस्था में उस अर्क से मालिश की जाती थी जिसके आश्चर्यजनक परिणाम मैने स्वयं महसूस किये हैं।] सहकारिता को आन्दोलन बनाये जाने के सख्त आवश्यकता है, अपितु दूर सुदूर क्षेत्रों में किसी समझौते के तहत नक्सली भी सहकारिता के लाभों को ग्रामीणों तक पहुँचाने में सहभागी बने तो आपत्ति नहीं होनी चाहिये। वन विभाग तथा पुलिस विभाग की कार्यशैली में बहुत खामियाँ हैं तथा इनके बेहतर प्रशिक्षण व सुधार की आवश्यकता बहुत समय से है। मुझे इन दोनों ही विभागों में स्थानीय अधिकता आवश्यक लगती है। एक और बात कि घोटुल जैसी संस्थायें पुन: जीवित की जानी चाहिये संभव हो तो आदिवासी समाज स्वयं उनमें किये जाने वाले बदलावों पर विचार करे तथापि सामाजिक समरसता और युवा पीढी के मध्य भावनात्मक और वैचारिक आदानप्रदान का यह मंच ध्वस्त नही होना चाहिये, किसी भी हाल में।

बस्तर में शिक्षित आदिवासी युवकों से ही उम्मीद बंधती है कि वे अपनी जडों की तलाश करने का यत्न करें। दुनिया के सभी जागरूक समाजों में भीतर से ही बदलाव हुए हैं। झारखण्ड के भगवान बिरसा मुण्डा के आन्दोलन के विषय में पढने के बाद मैं रोमांचित हो उठा था साथ ही यह पीदा भी हुई कि बस्तर के अनेकों नर-देवताओं तथा  बिरसा-मुण्डाओं को यह देश जानता ही नहीं। स्वयं बस्तर में आदिवासी युवा अनभिज्ञ हैं कि उनके अतीत में ही वर्तमान पर गर्व करने के हजारो कारण छिपे हुए हैं। इस धरती के पास अपने भगतसिंह और अपने गाँधी भी हैं तथा अगर उनके विशय में बस्तर की वर्तमान एवं आने वाली पीढी भी जागरूक हो जाये तो वह आन्दोलनों के वास्तविक अर्थ समझ सकेगी तथा भटकाव उनके लिये सहज रास्ता नहीं रहेगा। बहुत आवश्यक है कि आदिवासी आन्दोलन के नायकों आजमेर सिंह (1775); गेन्दसिंह (1825); दलगंजनसिंह (1842); श्यामसुन्दर जिया (1850); धुर्वाराव, व्यंकुटराव (1857); रामभोई, जुग्गाराजू, नागुलदोरा, कुन्यादोरा (1859); जुगराज कुँअर (1878); हिडमा माझी (1876); गुण्डाधुर, डेबरीधुर, हिडमापेद्दा, डोडापेद्दा, मुकुन्ददेव माछमारा, मूरतसिंह, रोडापेद्दा, सुकू पनारा, चकरू मुरिया, जोगी परजा, हरि चालकी, मड़कामी मासा, बोकड़ा बोडी, कुंडी कोसा, कुराटी सोमा (1910)  आदि पर समौचित जानकारियाँ पुस्तकों-पाठ्यपुस्तकों से माध्यम से बस्तर के आदिवासी जनमानस तक पहुँचें। यह शिक्षित बस्तरियों को ही करना होगा कि अपने गाँवों से जुडे रह कर मौखिक इतिहास और वर्तमान के सरोकार के बीच लम्बे समय से टूट गयी कडी को जोडने की कोशिश करें। यह शिक्षित आदिवासी युवकों का ही दायित्व है कि उनके बच्चे एक बेहतर भविष्य का सपना भी बुनें और मांदर की थाप पर थिरकना भी नहीं भूलें। हम दिल्ली तक अपनी बात जब पहुँचाने पहुँचे तो ठसके से मिनरल वाटर को खोल कर पानी गटकना भी जानें तथा अपनी मिटटी पर पैर धरते ही यहाँ की स्पन्दन भी शिद्दत से महसूस कर सकें और तूम्बें से गट गट गला तर करने में गर्व हमारा साथ दे। हाँ बदलाव भीतर से ही आयेगा बस्तरियों को ही जुटना होगा और निर्मित करना होगा अपना प्रगतिशील समाज।    

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Thursday, July 05, 2012

यह मुलाकात एक अविस्मरणीय संस्मरण बन गयी। [यात्रा वृतांत, भाग - 2]




सुबह सुबह रिम झिम बरसती बरखा नें एक बार कार्यक्रम पर पुनर्विचार करने की स्थिति ला दी थी। साथी अनुज जी के साथ उनकी बाईक पर ही निकल पडा। पटना शहर से लगभग सौ किलोमीटर से कुछ अधिक की दूरी पर अवस्थित हैं नालंदा के खण्डहर। पटना वुमेंस कॉलिज की बिल्डिंग से कुछ आगे निकलते दुर्घटना हो गयी। एक बाईकसवार नें गलत साईड से ओवरटेक किया और टकराने की स्थिति से बचने की कोशिश में तथा बारिश के कारण गीली सडक होने के कारण अनुज जी का संतुलन बिगडा और हम दोनो मय-सामान के सड़क पर। हल्की चोटे हैं थोडा कमर में दर्द भी है लेकिन कपडे झाड कर हम आगे बढ गये।

बिहार शरीफ पहुँने से लगभग पाँच-छ: किलोमीटर पहले ही चाय पीने के लिये छोटी सी दूकान पर रुका जिसे एक वयोवृद्ध चला रहे थे। चाय पीते पीते गंगा नदी और उसकी पवित्रता से बात शुरु हुई। थोडी ही देर में एक अन्य बुजुर्ग श्रोता भी इस चर्चा में सम्मिलित हो गये तथा अब बात राजगीर के उस इतिहास की होने लगी जिसमें से अधिकांश को आप जनश्रुतियाँ कह् कर वर्गीकृत करेंगे। एक बार लाला जगदलपुरी जी नें किसी चर्चा के दौरान कहा था कि जनश्रुतियों और मौखिक इतिहास को अनदेखा मत करना अन्यथा सत्य तक पहुँचने की किसी महत्वपूर्ण कडी को छोड दोगे। आज भी यही बात सत्य सिद्ध हुई क्योंकि गंगा से चर्चा जरासंध तक पहुँची थी चूंकि राजगीर में उनका अखाडा और खजाना होने जैसी मान्यतायें भी विद्यमान हैं। फिर पुरानी जमीनदारी व्यवस्था पर बात चल निकली कि यह इतना उर्वरा क्षेत्र है कि एक समय चार जमीन्दारों में यहाँ से वसूल लगान का पैसा बटता था। एक एक और दो दो पैसों के चलन की अर्थव्यवस्था के युग में भी यहाँ से लाख रुपये से अधिक की आमद होती थी। बहुत सी बाते हुईं और इस बीच चर्चा को विराम न लगे इस लिये मैं तीन कप चाय भी पी गया था। यह पीढी अपने अनुभवों से भरी हुई है, वे मुक्त हृदय से हमें और हमारी संततियों को अपना अब तक का अर्जित दे देना चाहते हैं। आवश्यकता बस उन्हें अपनी ही धुन में बोलने देने भर की है फिर अगर आपमें क्षमता है तो बटोर लीजिये यह अमूल्य निधि। जब “आमचो बस्तर” पर काम कर रहा था तब बहुत से सवाल एसे थे जिनके उत्तर पाने की जिज्ञासा में जिस भी चेहरे की ओर देखता अधिकांश डरकर मुँह फेर लेते थे। मुझे वहाँ भी बुजुर्ग आदिवासी पीढी ने ही सबसे अधिक सहयोग दिया था। उनकी बातों से ही मेरे उपन्यास की बहुत सी लघुकथायें बन पडी हैं।.....।

जब चलने लगा तो बुजुर्ग दूकानदार नें पैसे लेने से इनकार कर दिया। बहुत मुश्किल से उनको पैसे थमाये तो कुछ क्षण वे मेरा हाँथ थाम कर खडे ही रहे। मैंने उनके नाम नहीं पूछे और वे मेरा नाम नहीं जानते; मैं यह भी जानता हूँ कि दुबारा हमारी मुलाकात शायद ही हो लेकिन आत्मीयता के उस स्पन्दन को कभी नहीं भूल पाउंगा। बहुत कुछ पाया मैंने इन पलों में।
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पाटलीपुत्र के पुरावशेषों से बस्तर की तलाश!! [यात्रा वृतांत, भाग - 1]




कुछ दिनों का अवकाश। अभी कुछ दिन पटना मे हूँ। एक छोटा सा शोध विषय ले कर आया हूँ - एक समय के समृद्ध शासकों का दौर और तत्कालीन बस्तर से उनके राजनीतिक सम्बन्ध पर हो सकता है कोई सूत्र, कोई संदर्भ या कोई एसी शिला ही मिल जाये जो मुझे देख कर कहे कि आओ मैं देती हूँ तुम्हारे सवालों के जवाब!! बस्तर पर बहुत काम हुआ है और मैं शायद ही उन संदर्भों में कुछ नया जोड सकूं लेकिन पंक्तियों के बीच पढते हुए कई सवाल कुलबुलाते रहे जिन्हें मैने अपनी डायरी में उतार लिया है। उनके जवाब तो तलाशूंगा ही और उसके लिये पाटलीपुत्र के पुरावशेषों से मिलने का कार्यक्रम है कल से - राजगीर, नालंदा, वैशाली और बोध गया तो निश्चित ही। पटना में हृषिकेश जी से भी मिलूंगा इसी दौरान..।

इस पोस्ट के साथ लगी हुई तस्वीर भागलपुर के निकट अवस्थित प्राचीन विश्वविद्यालय विक्रमशिला की है। यहाँ तक पहुँचने के मार्ग नें मायूस लिया था तथापि इस धरोहर के संरक्षण के प्रयासों से आंशिक संतोष मिला। दुर्भाग्य वश स्थानीय लोगों में इस धरोहर के प्रति बहुत ललक देखने को नहीं मिली। यहाँ अवस्थित मुख्य भवन, छात्रावास के अवशेष, कक्षायें आदि आदि के भग्नावशेषों को देख कर गर्व किया जा सकता है कि यह हमारी भारतभूमि की थाती रही है। जहाँ कभी विक्रमशिला का पुस्तकालय था वह स्थान मनोहारी है तथा आज के विश्वविद्यालयों को अभी भी शिक्षा के मायने सिखाने में सक्षम है। आम का एक वृहत बागीचा जहाँ स्थान स्थान पर अध्येताओं को बैठने, मनन-चिंतन और विमर्श करने के स्थल साथ ही संदर्भ एकत्रित रखने के भवन के अवशेष यह बताते हैं कि हमने अपनी अध्ययन परम्परा को खो कर शायद अपना ही सर्वाधिक नुकसान किया है और महज किताबी कीट हो गये हैं। हमने अपनी जडों से अपने पाँव खींच लिये हैं इस लिये ही अपनी धरोह्जरों को खंडहर कहते हैं और उनकी उपेक्षा पर ग्लानि भी महसूस नहीं करते।
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यात्रा समय जून 18 - 2जुलाई के मध्य।