Tuesday, April 30, 2013

पुरुषोत्तमदेव, रथयात्रा तथा बस्तर का समाजशास्त्र



जनजातीय विकास के विभिन्न चरणों को वहाँ की राजनीति के क्रमबद्ध अध्ययन के बिना समझना कठिन प्रतीत होता है। जैसे बस्तर में अपने समय के साम्राज्यवादी शासकों की छाया पड़ी, धार्मिक आन्दोलनों का असर हुआ वैसे ही हर शासन व्यवस्था के उत्थान और पतन के साथ जनजातिगत समीकरणों में भी नई युतियाँ अथवा नव-समावेश देखे गये। यहाँ तक कि जब एक नया शासक वर्ग उदित हुआ तो दूसरे शासक वर्ग के वंशजो ने वनों के भीतर पलायन कर स्वयं को सुरक्षित करना उचित समझा। निश्चित ही यह प्रक्रिया नये तरीके के सांस्कृतिक समन्वयों को गढ़ती रही तथा नवीन परम्पराओं का भी समुद्भव होता रहा। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी किंतु राजा पुरुषोत्तम देव के शासन काल में बस्तर में नये सामाजिक समीकरण बने। इस संदर्भ को समझने के लिये काकतीय/चालुक्य नरेश पुरुषोत्तमदेव के शासन काल की कुछ प्रमुख विशेषताओं का अवलोकन किया जाना आवश्यक है। पुरुषोत्तमदेव के पूर्ववर्ती शासक भैरवदेव (1410-1468) के शासन काल के सम्बन्ध में ओड़िशा की प्राचीन साहित्यिक कृतियों में उल्लेख मिलता है कि उनके पिता हमीर देव (1369-1410) को पाटणा की सत्ता से युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई। भैरवदेव पर निश्चित ही पाटणा नरेश का दामाद होने के पश्चात भी गंग शासकों का दबाव बना रहा होगा। यद्यपि बस्तर में उपलब्ध राजवंशावलियाँ ओड़िशा के इस दावे को पुख्ता नहीं करती। यहाँ उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार भैरमदेव का शासनकाल यद्यपि उथल-पुथल भरा रहा किंतु यह गंग शासकों का उपनिवेश हर्गिज नहीं था। भैरवदेव की दो रानियाँ थीं मेघई अरिचकेलिन तथा जानकी कुँवर। रानी मेघई शिकार की शौकीन थीं। उनकी कालबान नाम की बंदूख देखने योग्य है। इसे दो व्यक्ति मिल कर भी उठाने की क्षमता नहीं रखते हैं। मेघई अरिचकेलिन एक वीरांगना थी जिन्होंने स्वयं नाग सरदारों के विद्रोह का दमन कर बस्तर शासन को स्थायित्व व शांति प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रो. वल्र्यानी तथा साहसी ने अपनी पुस्तक बस्तर का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहासमें लिखा है कि भैराजदेव नाम मात्र के शासक थे। उनके शासन का संचालन मेघावती द्वारा किया जाता था। रानी मेघावती (मेघई अरिचकेलिन) के शिकार की कथायें सदियों से चित्रकोट अंकल में प्रसिद्ध हैं। आगे चल कर रानी मेघावती की कालवान बंदूख को दशहरा अवसर पर अस्त्र-शस्त्र पूजा में सम्मिलित किया गया। कालवान बन्दूख की नली इस समय बची हुई है। यह भी माना जाता है कि एक समय प्रचलित चित्रकोट के मंधोता में गाड़ी में बैठ कर शिकार खेलने की परम्परा की जनक रानी मेघई अरिचकेलिन ही थीं। यही नहीं माना जाता है कि दंतेवाड़ा मंदिर की मेघी साड़ीभी मेघई रानी ने ही देवी को अर्पित की थी। इतनी विवेचना के पश्चात यह लिखना उचित ही होगा कि मेघई रानी वस्तुत: कोषकुण्ड (वर्तमान कुआकोण्डा) के महामेघवंशी जमीन्दार की पुत्री रही हैं। यदि बस्तर को चौहानो अथवा गंगो का उपनिवेश न भी स्वीकार किया जाये तब भी यह मानना ही होगा कि भैरवदेव का समय नाग-विद्रोहों के दमन का गंगो-चौहानों के दबावों से भरा तथा यदा-कदा रेड्डियों के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा है। आर सुब्रमण्यम ने दि सूर्यवंशी गजपतिज ऑफ ओड़िशामें जिक्र किया है कि ओड़िशा के गजपति राजा कपिलेन्द्र (1435-1468 ई) से भैरवदेव का इन्द्रावती तथा गोदावरी के मध्य की उर्वरा भूमि पर स्वामित्व को ले कर संघर्ष हुआ जिसमें राजा भैरवदेव मारे गये। यह सूत्र भी बस्तर वंशावली गाथाओं से पुष्ट नहीं होता।

भैरवदेव के बाद बस्तर पर शासन करने वाले चौथे राजा हुए - पुरुषोत्तम देव (14681534 ई.)। राजा ने रायपुर के कलचुरी शासकों पर चढ़ाई कर दी। दुर्भाग्यवश पराजित हो गये। इधर बस्तर सेना ने रायपुर पर आक्रमण किया, उधर कलचुरी राजा ब्रम्हदेव ने रतनपुर रियासत से सहायता माँगी। रतनपुर के राजा जगन्नाथ सिंह ने सेना भेज दी। संयुक्त सेनाओं ने चौतरफा आक्रमण किया। भगदड़ मच गयी। राजा पुरुषोत्तम देव अपने हाथी को युद्धभूमि से भगा ले गये। कलचुरियों की सेना पीछे लगी हुई थी। इससे पहले कि पुरुषोत्तम देव शत्रु सैनिकों द्वारा पकड़े जाते, एक सेनापति ने अपने वस्त्र राजा को पहना दिये। राजा उस सेनापति के घोड़े पर सवार बस्तरकी ओर भाग निकले। इतिहासकार डॉ. के के झा बताते हैं कि प्रतिवर्ष सम्पन्न बस्तर दशहरा में रथ के उपर खड़े हो कर एक व्यक्ति द्वारा वस्त्र खण्ड को लगातार हाँथ से दूर करने तथा समेटने की जो क्रिया सम्पन्न की जाती है वह इसी घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये है। यहाँ यह भी जोड़ना आवश्यक होगा कि पुरुषोत्तम देव के पलायन के पश्चात भी कलचुरियों ने पलट कर बस्तर भूमि पर आक्रमण नहीं किया। जिससे यह सिद्ध होता है कि भले ही विजय अभियान असफल हो गया हो तथापि पुरुषोत्तम देव शक्तिशाली शासक थे। उनके शासनकाल में ही राजधानी को मंधोता से हटा कर बस्तर लाया गया था। 

राजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा पेट के बल सरकते हुए की थी। जगन्नाथपुरी के राजा ने उनका भरपूर स्वागत किया तथा वहाँ उन्हें रथपतिकी उपाधि से विभूषित किया गया। पुरी के राजा ने मंदिर के पुजारी के माध्यम से 16 पहियों का रथ प्रदान किया। रथ के साथ सथ भगवान जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियाँ भी बस्तर लायी गयीं। राजा ने बस्तर लौट कर दशहरे के अवसर पर रथयात्रा निकालने की परम्परा आरंभ की। राजा की जगन्नाथपुरी यात्रा की स्मृति को जीवित रखने के लिये बस्तर में गोंचापर्व भी मनाया जाता है। स्थानीय ग्रामीण बाँस की छोटी छोटी नलियाँ बनाती हैं। ये यह नलियाँ तुपकीकहलाती है। इसमें मालकांगनी का फल रख कर बाँस की लकड़ी के दबाव से गोली की तरह चलाया जाता हैं।

पुरुषोत्तमदेव के समय की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना है कालापहाड़ का आक्रमण। कालापहाड़ के सम्बन्ध में केदारनाथ ठाकुर ने विस्तार से जानकारी दी है कि काला पहाड़ का वास्तविक नाम संभवत: कालचन्द्र रहा होगा जो कि बंगाल के पठान सुल्तान बाबेकशाह की सेना में उच्च पद पर कार्यरत था। उसे सुल्तान की कन्या दुलीमा से प्रेम हो गया। अनेक अडचनों के बाद दुलीमा से उसका निकाह तो सम्पन्न हो गया किंतु तत्कालीम पंडितों ने उसे हिन्दू धर्म से बहिष्कृत कर दिया। एक सम्पन्न ब्राम्हण कुल में जन्मे तथा उच्च सैनिक पद पर आसीन इस व्यक्ति ने बहिष्कार को अपना घोर अपमान करार दिया। उसने इस्लाम ग्रहण किया तथा अपना नाम मोहम्मद कामूली रख लिया। दिल्ली के शासक बहलोल लोदी (1451-1488) से भी उसकी मित्रता थी अत: एक बड़ी सेना संग्रह कर वह अपने अपमान को क्रूरता से सहलाने लगा। उसने हजारो विधर्मियों का कत्लेआम किया; अनेक मंदिर व देव प्रतिमाओं को नष्ट किया।  उसके कुकृत्यो व दहशत ने उसे प्रचलित नाम दिया काला पहाड़। काला पहाड़ ने ओड़िशा, आन्ध्र, कामरूप, दीनाजपुर, रंगपुर, कूचबिहार, जौनपुर तथा देवबनारस के साथ साथ बस्तर पर भी आक्रमण किया था।       

डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि कलचुरियों से युद्ध में 1534 ई. में राजा पुरुषोत्तमदेव की मृत्यु हुई। यद्यपि कलचुरियों के बस्तर पर शासन करने अथवा किसी अन्य प्रकार के हस्तक्षेप की कोई और जानकारी उपलब्ध नहीं होती। 1534 ई. में राजा पुरुषोत्तम देव मृत्यु के बाद जयसिंहदेव ने चौबीस वर्ष और फिर नरसिंह देव ने 1558 ई. से शासन किया। इन दोनों ही राजाओं के शासन आम तौर पर शांतिपूर्ण थे। यदि हम राजा पुरुषोत्तम देव के समय की महत्वपूर्ण घटनाओं की विवेचना करते हैं तो उनके समय की कई गतिविधियों, निर्णयों व कार्यों का आज भी असर पाते हैं। क्या बस्तर ग्राम एवं राजधानी को ले कर आना ही काकतीयों/चालिक्यों के शासित क्षेत्र का नाम बस्तर कर देता है? यह भी एक प्रबल संभावना है। बस्तर दशहरा की प्रसिद्ध रथयात्रा व कृष्ण-बलराम-सुभद्रा पूजन जैसी अन्य परम्परायें भी उनकी ही देन हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पुरुषोत्तम देव अपने साथ पुरी से अनेक ब्राम्हण, पंड़ा, शिक्षाशास्त्री तथा सबरा जाति के लोगों को ले कर लौटे थे जो बस्तर में ही बस गये। इतना ही नहीं राजा पुरुषोत्तमदेव की जगन्नाथपुरी यात्रा में उनके साथ बस्तर से जो आदिवासी गये थे उन्हें लौट कर राजा ने भद्र कह कर संबोधित किया तब से ही वे आदिवासी और उनके वंशज भतरा कहलाने लगे। जनजातीय समाज में ये बड़ी घटनायें थी जिनपर किसी समाजशास्त्री ने विवेचना प्रस्तुत नहीं की है। यह आगमन किसी आक्रांता का नहीं था। ये लोग जो राजा के साथ आये थे अपने साथ बिलकुल ही भिन्न सामाजिक परिवेश की पहचान ले कर पहुँचे थे। वे अपने साथ पूजा-पाठ-कर्म-काण्ड-पोथी-पतरी थामे हुए बस्तर पहुचे थे तथा उन्हे सीधे राजाश्रय भी प्राप्त हो गया था। इस दृष्टि से जनसंख्या में भले ही यह एक बहुत ही छोटा समूह जुड़ा किंतु प्रभाव की दृष्टि से एक वृहत घटना माना जाना चाहिये। यदि केवल दशहरा के ही पूजा अनुष्ठानों को ध्यान दे देखा जाये तो इसमे आदिवासी परम्पराओं और ब्राम्हण परम्पराओं का जबरदस्त घालमेल है। यहाँ पुजारी भी हैं तो सिरहा भी है; यहाँ अनुष्ठान हैं तो बलि भी है; यहाँ दंतेश्वरी और मावली माता हैं तो काछनदेवी भी है। एक आदिवासी समाज को भद्र कहे जाने और फिर भतरा के रूप में उन्हें एक पहचान मिलने की घटना के भी अनेक समाजशास्त्रीय दृष्टि से विवेच्य दूरगामी परिणाम हुए। पुरुषोत्तमदेव का समय बस्तर के समाज में बदलाव का एक बड़ा पड़ाव है जिसकी विस्तृत विवेचना से बस्तरिया सामाजिक संगठन की अनेक परतें खोली जा सकती हैं। समाजशास्त्र को भी इतिहास मे झांकना होगा अगर बस्तर की अबूझियत को पढ़ने की कोई इच्छाशक्ति किसी में है।      
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Thursday, April 25, 2013

अन्नमदेव एक किंवदंतियाँ अनेक

दिनांक 23.04.2013 को सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित 

यह समझने की कोशिश करनी चाहिये कि अन्नमदेव की उस व्यापक युद्ध विजय का क्या रहस्य था जिसमे वे प्रत्येक चरण पर सफलता का ध्वज बुलन्द करते जा रहे थे। भोपालपट्टनम में इन्द्रावती तथा गोदावरी नदी के पावन संगम पर अपना युद्धाभियान आरंभ करने से पूर्व अन्नमदेव के द्वारा शिव पूजा किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है जिसके पश्चात उसका विजय अभियान चक्रकोट मे अंतिम रूप से छिन्दक नाग राजा हरिश्चंददेव को पराजित किये जाने तक जारी रहता है। इतने शांतिपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन का उदाहरण भारतीय इतिहास में तलाश करने से भी नहीं मिलेगा जहाँ धीरे धीरे आक्रांता ही प्रजाप्रिय होता गया और छ: सौ सालों से शासक रहे नाग सत्ताच्युत हो कर स्थानीय जनजातियों के भीतर ही अपने अस्तित्व को घुला बैठे। अन्नमदेव के पास वारंगल जैसे बडे राज्य के अधिपति का भाई होने के कारण वृहद प्रशासकीय अनुभव होना स्वाभाविक था जिसका कि लम्बे समय से विकेन्द्रित होते जा रहे छिन्दक नागों में अभाव होने लगा था। अन्नमदेव पतन देख कर आ रहे थे अत: पतनोमुख नागों की मनोवृति तथा अनेकता के दुष्परिणामों से भी वे वाकिफ थे।

क्या आरंभ से ही उन्होंने बस्तर की आत्मा को समझने का प्रयास किया था? देखा जाये तो एक केन्द्रीय सत्ता की स्थापना 1324 ई के लगभग हो जाती है लेकिन नाग शासकों द्वारा चले आ रहे सामंतवादी ढाँचे से आरंभ में बहुत ही कम छेड छाड की गयी। बस्तर राज वंशावली (अप्रकाशित; रिकॉर्ड रूम जगदलपुर; लोकनाथ ठाकुर 1853) के अनुसार अन्नमदेव के वे अस्त्र-शस्त्र दिव्य थे जिससे उसने बस्तर राज्य पर विजय पायी तथा राजा को दिल्लीश्वरी, भुवनेश्वरी, मणिकेश्वरी तथा दंतेश्वरी देवियों का आशीष प्राप्त था – “दिल्लीश्वरी श्री भुवनेश्वरी च, मणुक्यदेवी शुभदंतिकेश्वरी। बाणं त्रिशूलं त्वथ शक्तिखड़्गे, क्रमेण देव्या: प्रददुनृरपाय। युद्ध में पराजित होने वाले राजाओं के साथ कठोर व्यवहार का उल्लेख किसी इतिहासकार ने नहीं किया है अपितु सत्ता परिवर्तन के दौर में अधिकतम या तो स्वत: पलायन कर गये अथवा संधि के मार्ग पर चल निकले या कि आत्मसमर्पण कर दिया। अन्नमदेव नें व्यवस्था बनाने रखने के लिये स्थान स्थान पर तेलगा और हलबा जाति के सैनिकों की चौकियाँ स्थापित की एवं मध्यवर्ती क्षेत्रों की जमीनदारी अपने विश्वासपात्रों को ही प्रदान की जैसे नाहर सिंह पामभोई को उन्होंने भोपालपट्टनम का जमीन्दार बनाया तो कुटरू की जमीन्दारी सामंत शाह को प्रदान की। एसे कुछ उदाहरणों के अतिरिक्त अन्नमदेव नें स्थानीयता का बेहद गहरे जा कर सम्मान किया तथा यहाँ की परम्पराओं के भीतर ही स्वयं को प्रतिस्थापित करने की कोशिश की। यही कारण है कि उनकी प्रसंशा में जो कुछ अतीत में लिखा जाता रहा वह उन्हें अद्भुत सिद्ध करता है।

स्वयं को सर्व-मान्य बनाने के लिये अन्नमदेव नें न केवल जनजातीय संतुलन को ध्यान में रखा अपितु अनेक धार्मिक मान्यताओं को राजकीय बना दिया। यह जानबूझ कर हुआ अथवा उनकी अविश्वसनीय विजय के फलस्वरूप हुआ किंतु वे स्वयं भी उन मिथकों का हिस्सा बन गये तो आज भी जनश्रुतियाँ है। वस्तुत: मणिकेश्वरी देवी तथा दंतेश्वरी देवी को ले कर इतिहासकारों में भ्रम की स्थिति आज भी है। डॉ. हीरालाल शुक्ल अपनी पुस्तक बस्तर के चालुक्य और गिरिजन में लिखते हैं कि कुछ लोगों का कहना है कि दंतेश्वरी की प्रतिमा दंतेवाड़ा में पहले से ही स्थापित थी तथा अन्नमदेव मणिकेश्वरी को वारंगल से ले कर आया था ( रसेल, 1908; दिब्रेट 1909)। स्मरणीय है कि नागवंशीय नरेशों की ईष्टदेवी भी मणिकेश्वरी थीं। एसा अनुमान किया जा सकता है कि कालांतर में मणिकेश्वरी देवी ही दंतेश्वरी नाम से परिणत हो गयीं।इसी बात को लाला जगदलुरी भाषा साम्यता से जोडते हुए आगे बढाते हैं। लाला जगदलपुरी लिखते हैं अन्नमदेव जब चक्रकोट की सीमा में प्रविष्ट हुए थे, तब उन दिनों छिन्दक नागवंशी राजाओं का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया था। अंतिम नागवंशी नदेश हरिश्चंद देव को अन्नमदेव ने पराजित किया और बीजापुर, भैरमगढ तथा बारसूर पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया। थोडे समय तक बारसूर मे रह कर दंतेवाडा की ओर चल पड़े। दंतेवाड़ा में अन्नमदेव ने कुछ समय तक अपनी राजधानी चलाई। दंतेवाड़ा को उन दिनो तारलागुडा कहते थे। बारसूर की प्राचीन दंतेश्वरी गुडी को नागो के समय पेदाअम्मागुडी कहा करते थे। तेलुगू में बडी माँ को पेदाअम्मा कहा जाता है। तेलुगु भाषा नागवंशी नरेशों की मातृभाषा थी। वे दक्षिण भारतीय थे। बारसूर की पेदाअम्मागुडी से अन्नमदेव ने पेदाअम्मा को दंतेवाड़ा ले जा कर मंदिर में स्थापित कर दिया। तारलागुड़ा में जब देवी दन्तावला अपने मंदिर में स्थापित हो गयी तब तारलागुडा का नाम बदल कर दंतावाड़ा हो गया। उसे लोग दंतेवाडा भी कहने लगे” (बस्तर- लोक कला संस्कृति प्रसंग; लाला जगदलपुरी; 2003)

यद्यपि दंतेश्वरी देवी के मिथकों का अन्नमदेव के विजय अभियान के साथ जुडा होना एतिहासिक तथ्यों को किसी अंतिम निष्कर्श पर नहीं पहुँचने देता कि वास्तव में दंतेश्वरी देवी वारंगल से बस्तर लायी गयीं अथवा वे मणिकेश्वरी देवी का ही बदला हुआ स्वरूप है अथवा मे बस्तर में पहले से ही स्थापित रही कोई देवी हैं जिसे अन्नमदेव नें अपने विजय अभियान के साथ जोड कर स्वयं को इसी धरती का प्रतिनिधि बनाने की सफल कोशिश की। इस सम्बन्ध में एक ज्ञात विवरण है कि उस समय दंतेश्वरी माई नें उन्हें एक उत्तम वस्त्र दिया और आशीर्वाद दिया कि इस वस्त्र को पहनने से तू विजयी होगा।....इसी वस्त्र से मालूम होता है राज्य का नाम बस्तर पड़ा हो” (बस्तर भूषण, केदार नाथ ठाकुर; 1908)। इसी बात को अपने शब्दों में अंतिम काकतीय नरेश प्रवीर चन्द्र भंजदेव नें भी शब्द दिये हैं – “अन्नमदेव अपने बचपन में प्रतिदिन कागज में कुछ लिख कर देवी दंतेश्वरी को चढाते थे। देवी नें प्रसन्न हो कर उन्हें कोई वर माँगने को कहा। अन्नमदेव ने अपने पिता से पूछ कर देवी से राज्य की याचना की। देवी ने कहा राजा आगे आगे चले और देवी पीछे पीछे। राजा जहाँ तक पीछे मुड़ कर नहीं देखेगा, उसका राज्य वहाँ तक विस्तृत होगा। राजा आगे बढता गया किंतु पैरी नदी की रेत मे देवी के पैर धँस जाने पर पायल की आवाज़ रुक गयी। कौतूहलवश राजा ने पीछे मुड़ कर देख लिया (राजिम के निकट)। अत: राजा के राज्य की सीमा वहीं समाप्त हो गयी” (लौहण्डीगुड़ा तरंगिणी; प्रवीर चन्द्र भंजदेव; 1963)

वस्तुत: जनजीवन को उसकी नब्ज के साथ ही थामा जा सकता है इस दृष्टि से अन्नमदेव आक्रांता हो कर भी नायक बन गये। वारंगल से आ कर सत्ता स्थापित करने के बाद भी अन्नमदेव को आक्रांता की दृष्टि से कम और एक देवी-उपासक के रूप में अधिक देखा गया। उनकी विजय को स्वाभाविक मान लिया गया क्योंकि यही प्रचारित था कि विजय तो देवी की कृपा से प्राप्त हुई है तथा जहाँ जहाँ तक देवी के वस्त्र को फैलना अथवा बिना पीछे मुडे राजा को चलना था वहाँ तक स्वत: अन्नमदेव का अधिकार हो ही जाना था। जन श्रुतियों, जन परम्पराओं तथा लोक कथाओं का हिस्सा बनते बनते अन्नमदेव आसानी से एक जननायक बन गये जिसने बस्तर के इतिहास को एक नया आकार प्रदान किया। उपसंहार में एक लोकगीत (डॉ. हीरालाल शुक्ल की कृति बस्तर के चालुक्य और गिरिजन में संकलित) जिसका संबंध बस्तर के प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव से है तथा जिसे आज भी दशहरा पर्व के अवसर पर सुना जा सकता है -

वरंगा हस्तना ले उतरै महाराज
मंधोता में डेरा लिहिन आज
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

आधा गढ, मंधोता, टीकागढ, डोंगर
छलेगढ, कोटपाड़, गुरुघर, माझीपाल
किलाघर बस्तर तुम्हार
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

गुड़ी दरबारा एबे बैठे महाराज
रंगीन के माहला लागै
आज होरे दरबार लागै
आज हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

नेगी असा बैठे, जोगी असा बैठे
बैठे सैदार बैदार वहाँ
बैठे नेगी कपडदार
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

यह गीत केवल अन्नमदेव के विजय की ही गाथा प्रस्तुत नहीं करता अपितु बाद में स्थापित राजकीय व्यवस्था और सामाजिक ताने बाने को अपने साथ जोडने की अन्नमदेव की वृत्ति को भी अपनी अंतिम पंक्तियों में प्रस्तुत करता है। किंवदंतिया केवल पढ कर भूल जाने के लिये नहीं होती अपितु अन्नमदेव के उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि इनका प्रयोग किसी राजनीति को भी सफल कर सकता है, कोई इतना गहरे जुडे तो।

Thursday, April 11, 2013

वीरांगना चमेली बावी: एक अविस्मरणीय समर गाथा

सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 9.04.2013 को प्रकाशित

रात बहुत हो चुकी थी लेकिन अन्नमदेव अभी सोये नहीं थे। उनकी आँखों के आगे रह रह कर उस वीरांगना की छवि उभर रही थी जिसनें आज के युद्ध का स्वयं नेतृत्व किया। नीले रंग का उत्तरीयांचल पहने हुए वह वीरांगना शरीर पर सभी युद्ध-आभूषण कसे हुए थी जिसमें भारी भरकम कवच एवं वह लौह मुकुट भी सम्मिलित था जिसमें शत्रु के तलवारों के प्रहार से बचने के लिये लोहे की ही अनेकों कडिया कंधे तक झूल रही थीं। वीरांगना नें अपने केश खुले छोड दिये थे तथा उसकी प्रत्येक हुंकार दर्शा रही थी जैसे साक्षात महाकाली ही युद्ध के मैदान में आज उपस्थित हुई हैं। अन्नमदेव हतप्रभ थे; वे तो आज ही अपनी विजय तय मान कर चल रहे थे फिर यह कैसा सुन्दर व्यवधान? उन्हें बताया गया था कि यह राजकन्या चमेली बावी है जो नाग राजा हरीश्चंद देव की पुत्री है। अन्नमदेव पुन: उस दृश्य को आँखों के आगे सजीव करने लगे जब युद्धक्षेत्र में राजकुमारी चमेली बावी अपनी दो अन्य सहयोगिनियों झालरमती नायकीन तथा घोघिया नायिका के साथ काकतीय सेना पर टूट पडी थीं। इतना सुव्यवस्थित युद्ध संचालन कि अपनी विजय को तय मान चुकी सेना घंटे भर के संघर्ष में ही तितर-बितर हो गयी और स्वयं अन्नमदेव पराजित तथा सैनिक सहायता के लिये प्रतीक्षारत तम्बू में ठहरे हुए यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब बारसूर और किलेपाल से उनके सरदार अपनी अपनी सैन्य टुकडियों के साथ पहुँचे और पुन: एक जबरदस्त हमला चक्रकोटय के अंतिम नाग दुर्ग पर किया जा सके।

अगले दिन की सुबह का समय और विचित्र स्थिति थी। आक्रांता सेना अपने तम्बुओं में सिमटी हुई थी जबकि वीरांगना चमेली बावी अपने शस्त्र चमकाते हुए अपनी सेना के साथ आर या पार के संघर्ष के लिये आतुर दिख रही थी। वह अन्नमदेव जिसने अब तक गोदावरी से महानदी तक का अधिकांश भाग जीत लिया था एक वृक्ष की आड से मंत्रमुग्ध इस राजकन्या को देख रहा था। चक्रकोट्य में आश्चर्य की स्थिति निर्मित हो गयी चूंकि इस तरह काकतीय पलायन कर जायेगे सोचा नहीं जा सकता था। तभी एक घुडसवार सफेद ध्वज बुलंद किये तेजी से आता दिखाई दिया। उसे किले के मुख्यद्वार पर ही रोक लिया गया। यह दूत था जो कि अन्नमदेव के एक पत्र के साथ राजा हरिश्चन्द देव से मिलना चाहता था। राजा घायल थे अत: दूत को उनके विश्रामकक्ष में ही उपस्थित किया गया। चूंकि सेना का नेतृत्व स्वयं चमेली बावी कर रही थी अत: वे भी अपनी सहायिकाओं के साथ महल के भीतर आ गयी।

बाहर अन्नमदेव के दिन की धड़कने बढी हुई थीं। वे प्रेम-पाश में बँध गये थे। सारी रात हाँथ में तलवार चमकाती हुई चमेली बावी का वह आक्रामक-मोहक स्वरूप सामने आता रहा और वे बेचैन हो उठते। यह युवति ही उनकी नायिका होने के योग्य है....। केवल रूप ही क्यों वीरता एसी अप्रतिम कि जिस ओर तलवार लिये उनका अश्व बढ जाता मानो रक्त की होली खेली जा रही होती। राजकुमारी चमेली नें कई बार अन्नमदेव की ओर बढने का प्रयास भी किया था किंतु काकतीय सरदारों नें इसे विफल बना दिया। तथापि एक अवसर पर वे अन्नमदेव के अत्यधिक निकट पहुँच गयी थी। अन्नमदेव नें तलवार का वार रोकते हुए वीरांगना की आँखों में प्रसंशा भाव से क्या देखा कि बस उसी के हो कर रह गये। काजल लगी हुई जो बडी-बडी आखें आग्नेय हो गयी थीं वे अब बहुत देर तक अपलक ही रह गये अन्नमदेव की आखों का स्वप्न बन गयी थी।

महाराज! दूत आने की आज्ञा चाहता है।द्वारपाल नें तेलुगू में तेज स्वर से उद्घोषणा की। अन्नमदेव के शिविर से दूत को भीतर भेजने का ध्वनि संकेत दिया गया। अन्नमदेव आश्वस्त थे कि वे जो चाहते हैं वही होगा। हरिश्चंददेव के अधिकार मे केवल गढिया, धाराउर, करेकोट और गढचन्देला के इलाके ही रह गये थे; यह अवश्य था कि भ्रामरकोट मण्डल के जिनमें मरदापाल, मंधोता, राजपुर, मांदला, मुण्डागढ, बोदरापाल, केशरपाल, कोटगढ, राजगढ, भेजरीपदर आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं; से कई पराजित नाग सरदार अपनी शेष सन्य क्षमताओं के साथ हरीश्चंद देव से मिल गये थे तथापि अब बराबरी की क्षमताओं का युद्ध नहीं रह गया था।

क्यों मौन हो पत्रवाहक?” अन्नमदेव नें बेचैनी से कहा। वे अपने मन का उत्तर सुनना चाहते थे आखिर प्रस्ताव ही मनमोहक बना कर भेजा गया था। हरिश्चंददेव से संधि की आकांक्षा के साथ अन्नमदेव नें कहलवाया था कि बस्तर राज्य की सीमा चक्रकोट से पहले ही समाप्त हो जायेगी तथा आपको काकतीय शासकों की ओर से हमेशा अभय प्राप्त होगा। चक्रकोट पर हुए किसी भी आक्रमण की स्थिति में भी आपको बस्तर राज्य से सहायता प्रदान की जायेगी.....राजा हरिश्चंददेव के साथ संधि की केवल एक शर्त है कि वे अपनी पुत्री राजकुमारी चमेली बावी का विवाह हमारे साथ करने के लिये सहमत हो जायें

क्या कहा राजा हरिश्चंद नें?” अन्नमदेव नें इस बार स्वर को उँचा कर बेचैन होते हुए पूछा।
जी राजा नें कहा कि अपनी बेटी के बदले उन्हें किसी राज्य की या जीवन की कामना नहीं है। पत्रवाहक नें दबे स्वर में कहा।

और कोई विशेष बात?” अन्नमदेव आवाक थे।

जी राजकुमारी नें अभद्रता का व्यवहार किया।

क्या कहा उन्होंने?”

“.....उन्होंने कहा कि स्त्री को संधि की वस्तु समझने वाले अन्नमदेव का विवाह प्रस्ताव मैं ठुकराती हूँ

ओहअन्नमदेव के केवल इतना ही कहा और मौन हो गये। यह तो एक कपोत का बाज को ललकारने भरा स्वर था; नागराजा का इतना दुस्साहस कि जली हुई रस्सी के बल पर अकड रहा है? “....और यह राजकुमारी स्वयं को आखिर क्या समझती हैं? अब आक्रमण होगा। विजय के चिन्ह स्वरूप बलात हरण किया जायेगा और मैं उस मृगनयनी-खड़्गधारिणी से विवाह करूंगा। अन्नमदेव की भँवे तनने लगीं थी।

सुबह होते ही युद्ध की दुंदुभि बजने लगी। दोनों ओर की सेनायें सुसजित खडी थीं। हरिश्चंददेव घायल होने के बाद भी अपने हाथी पर बैठ कर धनुष थामे अपने साथियों सैनिको का उत्साह बढा रहे थे। चमेली बावी नें सीधे उस सैन्यदल पर धावा बोलने का निश्चिय किया था किस ओर आक्रांता अन्नमदेव होंगे। यद्यपि आक्रांताओं नें भी भीषण तैयारी कर रखी थी। हरिश्चंद देव की कुल सैन्य क्षमता से कई गुना अधिक सैनिकों नें बारसूर, किलापाल और करंजकोट की ओर से चक्रकोट्य को चेर लिया था। भीषण संग्राम हुआ; नाग आहूतियाँ देते रहे और अन्नमदेव बेचैनी के साथ युद्ध के परिणाम तक पहुँचने की प्रतीक्षा करता रहा। आज कई बार आमने सामने के युद्ध में चमेली बावी नें उसे अपने तलवार चालन कौशल का परिचय दिया था। एसी प्रत्येक घटना अन्नमदेव के भीतर राजकुमारी चमेली के प्रति उसकी आसक्ति को बलवति करती जा रही थी। नहीं; अब युद्ध अधिक नहीं खीचा जाना चाहिये....अन्नमदेव अचूक धनुर्धर थे। धनुष मँगवाया गया तथा अब उन्होंने हरिश्चंददेव को निशाना बनाना आरंभ कर दिया। वाणों के आदान-प्रदान का दौर कुछ देर चला। तभी एक प्राणघातक वाण हरिश्चंद देव की छाती में आ धँसा। अन्नमदेव नें अब कि उस महावत को भी निशाना बनाया जो हरिश्चंद देव का हाथी युद्ध भूमि से लौटाने की कोशिश कर रहा था। नाग सेनाओं में हताशा और भगदड मच गयी। राजकुमारी नें स्थिति का अवलोकन किया और उन्हें पीछे हट कर नयी रणनीति बनाने के लिये बाध्य होना पड़ा। आनन फानन में राजकुमारी चमेली का तिलक कर उन्हें चक्रकोटय जी शासिका घोषित कर दिया गया यद्यपि इस समय केवल गिनती के सैनिक ही जयघोष करने के लिये शेष रह गये थे। बाहर युद्ध जारी था तथा अनेको वीर नाग सरदार अपनी नयी रानी तक अन्नमदेव की पहुँच को असंभव किये हुए थे। अपनी मनोकामना की पूर्ति में इस विलम्ब से कुपित अन्नमदेव नाग नें नाग सरदारो के पीछे अपने सैनिकों के कई कई जत्थे छोड़ दिये। भगदड मच गयी और अनेक सरदार व नाग सैनिक अबूझमाड़ की ओर खदेड दिये गये।

अब अन्नमदेव की विजयश्री का क्षण था। पत्थर निर्मित किले की पहले ही ढहा दी गयी दीवार से भीतर वे सज-धज कर तथा हाथी में बैठ कर प्रविष्ठ हुए। चारो ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। नगरवासी मौन आँखों से अपने नये शासक को देख रहे थे। सैनिक तेजी से आगे बढते हुए एक एक भवन और प्रतिष्ठान पर कब्जा करते जा रहे थे। राजकुमारी को गिरफ्तार कर प्रस्तुत करने के लिये एक दल को आगे भेजा गया था। अन्नमदेव चाहते थे कि राजकन्या का दर्पदमन किया जाये और तब वे उसके साथ सबके सम्मुख इसी समय विवाह करें।

क्या हुआ सामंत शाह, लौट आये?...कहाँ हैं राजकुमारी चमेली?”

“.....”

सबको साँप क्यों सूंघ गया है?क्या हुआ?” अन्नमदेव नें अपने सरदार सामंत शाह और उसके साथी सैनिकों के चेहरे के मनोभावों को पढने की कोशिश करते हुए कहा। 

“...जौहर राजा साहब। राजकुमारी अपनी दोनो मुख्य सहेलियों झालरमती और घोगिया के साथ मेरे सामने ही आग में कूद पडी और अपने प्राण दे दिये

तो तुमने बचाने की कोशिश नहीं की.....।बेचैनी में शब्दों नें अन्नमदेव का साथ छोड दिया था।

“...राजकुमारी आग में प्रवेश करने से पहले शांत थी, वे मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने मुझे सम्बोधित किया और कहा कि मैं जा कर अपने राजा से कह दूं कि आक्रमणकारी बल से किसी की जमीन तो हथिया सकते हैं लेकिन मन और प्रेम हथियारों से हासिल नहीं होते....।

हाथी अब उस ओर मोड दिया गया जिस ओर से धुँआ उठ रहा था। राजा की नम आँखे कोई नहीं देख सका। एसी पराजय की कल्पना भी अन्नमदेव ने नहीं की थी।

रिसेदेवी अब भी रूठी हुई हैं, मना लो माँ दंतेश्वरी

आलेख दिनांक 2.04.2013 को सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित

कांकेर से कुछ ही दूर छोटा सा ग्रामीण परिवेश है सिदेसर। नाम से स्पष्ट है कि सिद्धेश्वर का नाम कालांतर में बदल कर सिदेसर हो गया है। यहाँ ग्रामीणों की सहायता से मैं और भाई कमल शुक्ला प्राचीन शिव मंदिर के अवलोकनार्थ पहुँचे थे। इस स्थल से आगे बढते हुए हम एक अन्य गाँव रिसेवाडा पहुँचे। रिसेवाडा नाम के भी दो भाग है जो रिस अर्थात क्रोध तथा वाडा अर्थात ग्राम का अर्थ बोधक है। जैसे ही हम वाडा की बात करते हैं हमें नाग युगीन प्रशासनिक व्यवस्था का अवलोकन करना आवश्यक हो जाता है जहाँ उनकी सम्पूर्ण शासित भूमि राष्ट्र अथवा देश कोट (राज्य) कहलाती थी। कोट के प्रशासनिक विभाजन थे नाडु (संभाग) तथा नाडु के वाडि (जिला)। वाडि के अंतर्गत नागरिक बसाहट के आधार पर महानगर, पुर तथा ग्राम हुआ करते थे। यदि हम केवल ग्रामीण व्यवस्था को ही बारीकी से समझने की कोशिश करें तो उसके भी दो प्रमुख प्रकार थे वाड़ा तथा नाड़ुया (नार)। समझने की दृष्टि से वाडा तथा नार का प्रमुख अंतर बसाहट के तरीकों में अंतर्निहित था। एसे सुनियोजित गाँव जहाँ घर पंक्तिबद्ध रूप में अवस्थित हों उन्हें वाडाकहा जाता था जबकि अव्यवस्थित बसाहट वाले गाँव नाग युग में नारकहलाते थे। बस्तर के नगरों गाँवों में कई गमावाडा अथवा नकुलनार जैसे नाम आज भी नागयुगीन प्रशासनिक व्यवस्था की स्मृतियाँ हैं। इसी प्रकाश में पुन: बात रिसेवाडा की।

रिसेवाडा निश्चित ही एक समय में सुनियोजित रूप से बसा ग्रामीण क्षेत्र रहा होगा जिसके बहुत ही निकट सिद्धेश्वर मंदिर की अपनी ख्याति रही होगी। सिद्धेश्वर मंदिर के पास से हमें एक बडा सा थानप्राप्त हुआ है जिसका आकार ही बताता है कि इससे बडी मात्रा में औषधि का निर्माण होता रहा होगा। यह पूरा क्षेत्र कई प्रकार की औषधि पादपों से पटा पडा है। पूरे रास्ते हमारे मार्गदर्शक ग्रामीण नें कई तरह के औषधि पादपों से हमारा परिचय भी कराया। मैं इन कडियों को जोड़ता हूँ तो लगता है कि इस प्राचीन सिद्ध क्षेत्र का महत्व ही पीडितों की व्याधि हरने के कारण रहा होगा तथा यहाँ न केवल धार्मिक कर्मकाण्ड, तांत्रिक विधियाँ ही पूरी जी जाती रही हैं जैसा कि सिद्धेश्वर मंदिर के सम्मुख माँ काली की प्रतिमा, भरवी की युद्ध मुद्रा में प्रतिमा आदि से ज्ञात होता है साथ ही यहाँ एक प्राचीन औषधालय भी रहा निश्चित रूप से रहा होगा। रिसेवाडा अब एक उपेक्षित गाँव है। सारे रास्ते ग्रामीण भीतरी स्थलों के लिये सड़क की आवश्यकता पर चर्चा करते रहे। दूर दूर तक जंगल और मध्यवर्ती क्षेत्रों में खेतिहर भूमि की लम्बी कतारें इसके साथ ही चारो ओर खिले मुस्कुराते भांति भांति के जंगली फूल यहाँ तक उबड-खाबड रास्ते से पहुँचने की सारी थकान को रह रह कर हवा कर देते थे।

एक प्राकृतिक गुफा के निकट पहुँच कर ग्रामीण नें बताया कि यह रिसेदेवी का स्थान है। यह तो समझ में आ गया कि रिसेवाडा और रिसेदेवी का आपस में क्या संबंध है तथापि जिज्ञासा बढ गयी थी। एक पहाडी नुमा स्थान जिसमे एक विशाल पत्थर को प्रकृति नें इस तरह लिटा दिया है कि उसके नीचे गुफानुमा संरचना बन गयी है। ग्रामीण नें बताया कि भीतर रिसेदेवी का निवास है। वस्तुत: रिसे देवी दंतेवाड़ा में अवस्थित माँ दंतेश्वरी की छोटी बहन हैं। दोनो बहनों में किसी बात पर झगडा हो गया और छोती बहन रूठ कर यहाँ चली आयी हैं। इसी लिये देवी का नाम रिसेदेवी हो गया। मुझे जनजातीय समाज के एसे देवी देवता भावुक कर देते हैं जो बिलकुल हमारे जैसे हैं। हमारी तरह झगडते हैं, रूठते हैं, मनाते हैं। ये देवी देवता आसमान पर नहीं उडते बल्कि जमीन के हैं....जमीन से जुडे। रिसेदेवी की गुफा में प्रवेश करने के पश्चात मुझे वहाँ एक छोटी की पाषाण प्रतिमा....नहीं प्रतिमा नहीं कहूँगा क्योंकि किसी तरह का मानुषिक आकार मैं तलाश नहीं सका तथापि बहुत सारे तिलक भभूत से लिप्त इस प्रस्तराकृति को ही रिसेदेवी का प्रतीक माना गया होगा यही समझ सका। आसपास मिट्टी के घोडे, दीपक तथा अनेको कुम्हार निर्मित आकृतियाँ। किसी तरह का कोई ताम-झाम नहीं कोई पाखण्ड नहीं। एक अत्यंत मनोरम स्थल जहाँ पहुँच कर स्वत: आपके भीतर की प्रवित्रतम भावनायें उभर आयेंगी और स्वत: आपको अपूर्व शांति का अनुभव होगा। यहाँ चमक दमक नहीं है, यहाँ पुजारी पंडे नहीं हैं, यहाँ कोई भव्य इमारत या चमचमाती प्रतिमा नहीं है। यहाँ महसूस होता है इतिहास; यहाँ महसूस होता है अपना पिछडा जा रहा वर्तमान और यहाँ मुझमे एक कोमल अनुभूति भी प्रार्थना कर उठती है कि रिसेदेवी अब भी रूठी हुई हैं मना लो माँ दंतेश्वरी।

Wednesday, April 03, 2013

अन्नमदेव की बस्तर विजय।



व्यवस्था परिवर्तन कभी भी अ-कारण नहीं होता। शासक और शासित के बीच दूरियाँ जितनी बढती जाती हैं असंतोष का लावा मार्ग बनाने लगता है। एसे में कभी जनता ही आक्रामक हो उठती है तो कभी आक्रांता बेधड़क चला आता है और उसका कोई प्रतिवाद नहीं होता। छिंदक नाग शासकों नें प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर लगभग 564 वर्ष (760 – 1324 ई. तक) तक शासन किया और उनकी अनेक उपलब्धियाँ रहीं जिससे इनकार नहीं किया जा सकता; तथापि धीरे धीरे केन्द्रीय शक्ति के अभाव में यह पूरा क्षेत्र अनेक नाग-शासकों/सरदारो व शक्तिशाली सामंतो नें हथिया लिया। प्रभाव क्षेत्र पाँच या दस कोस लेकिन उपाधि राजा। कुछ मजबूत गढ अवश्य थे किंतु आपसी लडाईयों के कारण उन्हें अब सुरक्षित नहीं कहा जा सकता था। अन्नमदेव का बस्तर प्रवेश परिस्थितिजन्य था न कि योजनाबद्ध। मुट्ठी भर सामंतो और गिनती के सैनिकों के साथ वारंगल से पलायन करने वाला एक सरदार एक वृहत जानजातीय आबादी वाले एसे भूभाग को बडी ही सहजता से अधिकृत कर लेता है जहाँ की प्रजा ही विद्रोही प्रवृत्ति की मानी जाती हो तो विषद विवेचना आवश्यक है। चक्रकोटय (प्राचीन बस्तर) में अनुकूल परिस्थितियाँ थीं; यह क्षेत्र नाग राजाओं और उनके सामंतो की आपसी लड़ाईयों से टूट चुका था। इतिहासकार नर्मदाप्रसाद श्रीवास्तव अपने एक आलेख में विवेचना करते हुए लिखते हैं कि नाग - एक एक गाँव, बगीचा या तालाब के लिये लड़ मरने वाले पंच कोसीराजा रह गये थे। प्रजा इनके आपसी विवादों से त्रस्त थी। वस्तुत: एसे में आम जन की साँप छुछुन्दर वाली गति हो जाती थी....किस सामंत का साथ दें और किसका न दें। यही हालात अन्नदेव के लिये लाभकारी हुए। स्थानीय ही उनके सहायक और मुखबिर बनते गये।

बस्तर पर कार्य करने वाले आरंभिक सभी इतिहासकारों नें अन्नमदेव तथा उसके वंशजों को काकतीयवर्गीकृत किया है जिनमे जेकिंसन (1827), इलियट (1856), टेम्पल (1862), ग्लसफर्ड (1862), रसेल (1908), दि ब्रेट (1909), ग्रिग्सन (1938) तथा एल्विन (1947) आदि प्रमुख हैं। यहाँ तक कि राजवंश के अंतिम शासक प्रवीर चन्द्र भंजदेव (1936-1947 ई.) भी राजवंशावली को काकतीयही निरूपित करते हैं जबकि डॉ. हीरालाल शुक्ल सहित अनेक इतिहासकारों नें नयी व्याख्या प्रस्तुत की है जिसके आधार पर बस्तर पर 1324 ई. से शासन करने वाले राजपरिवार को चालुक्यमाना गया है। चालुक्य मानने के पीछे के तथ्य वारंगल से प्राप्त होते हैं। वारंगल के काकतीय राजा गणपति (1199-1261 ई.) की दो पुत्रियाँ थीं रुद्राम्बा और गणपाम्बा। उनके देहावसान के बाद उनकी बड़ी पुत्री रुद्राम्बा ने सत्ता संभाली। चालुक्य राजा वीरभद्रेश्वर से महारानी रुद्राम्बा का विवाह हुआ था। इस दम्पत्ति को कोई पुत्र नहीं था। उनकी एक मात्र संतति थी - पुत्री मम्मड़म्बा। राजकुमारी मम्मड़म्बा को विवाह के पश्चात दो पुत्र हुए - प्रतापरुद्र तथा अन्नमदेव। [यही विवाह सम्बन्ध इतिहासकारों को चालुक्य वंश के साथ अंतर्सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा देता है। इस विवाद में न पडते हुए प्रचलित मान्यता काकतीयको ही प्रस्तुत आलेख में लिया गया है।] तकनीकी रूप से तथा पितृसत्तात्मक समाज की व्याख्याओं के अनुरूत यह सत्य स्थापित होता है कि चालुक्य राजा से विवाह के पश्चात महारानी रुद्राम्बा का पिता की वंशावलि पर अधिकार समाप्त हो गया। तथापि भावनात्मक रूप से अथवा स्त्री अधिकारों पर विमर्श के तौर पर मुझे यह तथ्य रुचिकर प्रतीत होता है कि काकतीय वंशावली के रूप में यह राजवंश अधिक प्रमुखता से जाना गया है। यहाँ तक कि महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921 - 1936 ई.) जिनका विवाह भंज वंश से जुडे राजकुमार से किया गया था; तत्पश्चात के सभी वंशजों नें अपने नाम के साथ भंज अवश्य जोडा किंतु अंतिम महाराजा प्रवीर स्वयं को प्रवीर चंद्र भंजदेव काकतीयकहलाना ही पसंद करते थे। यह परम्परा मुझे स्तुत्य, महत्वपूर्ण तथा एक अनुकरणीय उदाहरण प्रतीत होती है। वंशावलियाँ और रक्तशुद्धतायें महज प्रतीक है तथा यह एक आवरण है जो पृथक्करण करता है। यहाँ वह कहावत उचित प्रतीत होती है कि नाम में क्या रखा है?’ साथ ही यह भी कि पिता और माता यदि सत्तायें न हो कर समान अधिकारी होते तो वंशावलियों पर पाथापच्चियों की आवश्यकता नहीं रही होती। अगर दत्तकपुत्र वंश परम्पराओं को जीवित रखते थे तो पुत्रियों के शासन से विभाजक रेखायें क्यों खींची जाये? अत: यह इतिहासकारों की बहस का विषय होगा कि प्रतापरुद्र एवं अन्नमदेव काकतीय थे अथवा चालुक्य; एक लेखक के तौर पर मुझे काकतीय ही इस राजवंश की अधिक सटीक पहचान लगती है। प्रतापरुद्र (1290 – 1324 ई.) ने दक्षिण के बड़े क्षेत्र को अपने आक्रामक सैन्य अभियान से वारंगल का हिस्सा बना लिया था। इन दिनों मुसलमान आक्रांताओं की गिद्धदृष्टि समृद्ध दक्षिण भारत पर थी। वारंगल पर लगातार हो रहे हमलों के बीच प्रतापरुद्र के छोटे भाई अन्नमदेव नें चक्रकोट्य का रुख किया जहाँ बिखरा हुआ नाग राजवंश आखिरी साँसे ले रहा था।

अन्नमदेव जब बस्तर की ओर बढ रहे होंगे तो बहुत सा मंथन उनका विमर्श बना होगा। अब तक वे दक्षिण भारत के उस राजवंश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो समृद्ध था, शक्तिशाली था और इसी कारण से तुगलकों नें उन्हें रौंद दिया। हाथियों, घोड़ों व ऊंटों पर लाद कर वारंगल का खजाना दिल्ली ले जाया गया। कहते हैं कोहिनूर हीरा इसी लूट का हिस्सा था जिसे नुमाईश के बाद सुलतान को भेट किया गया। एक धनी राज्य क्या सुरक्षित नहीं हैं? इस दौर में प्रत्येक धनाड्य व शक्तिशाली साम्राज्यों पर मुसलमान आक्रांताओं की दृष्टि थी तथा अन्नम देव के बड़े भाई प्रतापरुद्र की सत्ता का वारंगल में पतन इन्ही कारणों से हुआ था। इतिहासकार नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव नें नाग-काकतीय संघर्ष की जो बानगी अपने आलेखों के द्वारा प्रस्तुत की है उससे बेहतर विवरण इस सम्बन्ध में किसी इतिहासकार नें प्रस्तुत नहीं किया है। उनके आलेखों (बस्तर एक अध्ययन; 1992) के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि अपनी बिखरी हुई शक्ति का संचय कर अन्नमदेव नें लगभग 1330 ई. के आसपास गोदावरी एवं इन्द्रावती नदियों के संगम पर भद्रकाली के निकट अपना पड़ाव डाला।

अन्नमदेव का विजय अभियान भोपालपट्टनम से आरंभ हुआ। अन-अपेक्षित आक्रमण से घबरा कर भोपालपट्टनम का राजा बिना लडे ही पलायन कर गया। नाहरसिंह पामभोई को अन्नमदेव नें यहाँ का सामंत नियुक्त किया तथा यहाँ से वे बीजापुर की ओर बढ गये; थोडे से ही संघर्ष के बाद यह क्षेत्र भी हथिया लिया गया। ठीक इसी समय अन्नमदेव के एक अन्य वफादार सामंत सन्यासी शाह नें महाराष्ट्र के अहेरी-सूरजगढ की ओर से चक्रकोटय के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया तथा कांडला पर्ती के नाग राजा को पराजित कर उसने पासेबाड़ा, फरसेगढ, गुदमा, तोयनार आदि गढ हथिया लिये। इसी सम्बन्ध में अतीत से एक रोचक कथा का उल्लेख प्राप्त होता है। संयासी शाह नें कांडला पर्ती के स्थान पर कुटरू को अपनी राजधानी के तौर पर चुना। कहते हैं कि विजयोपरांत वह एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा था और वहाँ निरंतर किसी पक्षी का मोहक स्वर कुट-कुट-कुटरसुनाई पड़ रहा था। इस ध्वनि से संयासी शाह इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने विजित राज्य का नाम ही कुटरू रख दिया। संयासी शाह नें इन विजित क्षेत्रों को अन्नमदेव को समर्पित कर दिया। कहते हैं कि वारंगल में तुलगकों से मिली पराजय से हताश सामंत एक एक कर अन्नम देव से अपने सैनिकों-संसाधनो सहित इसी प्रकार मिलते रहे जिससे उनका विजय अभियान सफलताओं के साथ संचालित होता रहे। एसे ही कुछ सामंतो नें चेरला की ओर से बीजापुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों कोतापल्ली, पामेड़, फोतकेल तथा गंगालूरपर अधिकार कर ये इलाके नाग राजाओं से हथिया लिये और इन्हें अपने नेता अन्नमदेव को समर्पित कर दिया। कोतापल्ली और पामेड़ में गोंड जाति के सामंत तथा फोतकेल में राउत जाति का सामंत नियुक्त कर प्रशासन को जनजातिगत प्रतिनिधित्व देने और किसी भी स्थिति मे जन-असंतोष न पनपने देने की वृत्ति सम्मिलित थी। दंतेवाडा के भी नाग राजाओं नें अल्पकालिक प्रतिरोध के पश्चात अन्नमदेव को अपना राजा मान लिया। इसके साथ ही गढमिरी कटेकल्याण तथा किलेपाल पर अधिकार हो गया। वहाँ के नाग शासकों को ही सामंत घोषित कर दिया गया। अन्नमदेव नें इन क्षेत्रों से पुन: किसी युद्ध की संभावना को टालने के लिये तेलंगा और हलबा जाति के सैनिक नियुक्त किये थे। यहाँ से विजय अभियान हमीरगढ पहुँचा; इस समय तक अन्नमदेव एक बडे क्षेत्र के शासित तथा समुचित रूप से शक्तिशाली हो गये थे। मौके की नज़ाकत को समझते हुए हमीरगढ के राजा रामचन्द्र देव नें तीरथगढ, चन्द्ररगिरि, मुण्डागढ, छिंदगढ तथा सुकमा के अपने मित्र राजाओं के साथ मिल कर अन्नमदेव का स्वागत किया व उनकी आधीनता स्वीकार कर ली। एसी स्थिति में किसी तरह की नयी व्यवस्था को थोपने की आवश्यकता नहीं रह गयी थी; तथापि अपने एक सम्बन्धी को सुकमा का सामंत नियुक्त कर सभी गढ यथावत रहने दिये गये। स्थान स्थान पर प्रबंधन को कसने की दृष्टि से इन क्षेत्रों में धुरवा जाति के सैनिकों की चौकियाँ स्थापित की गयीं। केशलूर के अंतर्गत एर्राकोट, पाराकोट, मठकोट, रैकोट और मुरुमगढ आते थे जिनपर अधिकार करने के लिये किसी युद्ध की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। माडपाडगढ तथा बागराउडगढ विजय अभियान के अगले हिस्से थे जिनपर अधिकार कर उन्हें कोरामी जाति के सरदारों को सौंप दिया गया। कोटपाड़ (वर्तमान ओडिशा में सम्मिलित) इलाके के लिये सैन्य अभियान चलाया गया तथा वहाँ के राजा विक्रमदेव को ही पराजय स्वीकार करने के पश्चात कुछ शर्तों के साथ सामंत का दर्जा दे दिया गया। छुटपुट संघर्ष तो पोड़ागढ, शालमीगढ, उमरकोट रायगढा में भी हुए किंतु अन्नमदेव के विजय अभियान को रोका जाना संभव नहीं हो सका था। अन्नमदेव के राज्य की उत्तरी सीमा पैरी नदी नें निर्धारित की इधर कांकेर के राजाओं से भी संधि हो गयी थी एवं उनसे अन्नमदेव को देव-डोंगरी परगना भेंट स्वरूप प्राप्त हुआ था। कांकेर से लगा दादरगढ इलाका भी बिना युद्ध के ही अन्नमदेव के राज्य विस्तार का हिस्सा बन गया। अब अन्नमदेव के लिये अपने अभियान को एक राज्य का स्वरूप देने का समय आ गया था। बडे-डोंगर को उन्होंने अपनी पहली राजधानी बनाया। यहाँ अन्नमदेव नें अपनी आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया तथा राजधानी में 147 तालाब भी खुदवाये थे। इसी मंदिर के सम्मुख एक पत्थर पर बैठ कर अपना उन्होंने अपना विधिवत राजतिलक सम्पन्न करवाया। स्वाभाविक है कि इस समय उनके पास न राजमहल रहा होगा न ही सिंहासन। डोंगर के इसी पत्थर पर राजतिलक एक परम्परा बन गयी जिसका निर्वाह अंतिम शासक प्रवीर तक निरंतर होता रहा एवं इस प्रथा को पखनागादी कहा जाता था। अन्नमदेव के राज्य का नाम बस्तर प्रचलित हुआ।

राजतिलक के पश्चात भी अन्नमदेव का युद्धाभियान समाप्त नहीं हुआ था। उनकी शासन परिधि के भीतर अब भी अनेक नाग शासित क्षेत्र थे जिनमें से भ्रमरकोट तथा चक्रकोट शक्तिशाली सत्तायें थीं। भ्रमरकोट को हासिल करने में बड़ा युद्ध नहीं करना पडा अपितु शीघ्र ही इसके आधीन मरदापाल, मधोता, राजपुर, मांदला, मुण्डागढ, बोदरापाल, केशरपाल, कोटगढ, राजनगर, भेजरीपदर, भ्रामरकोट आदि पर अन्नमदेव का अधिकार हो गया। गढिया, धाराउर, करेकोट, गढ-चंदेला आदि चक्रकोट के आधीन क्षेत्र थे जिन पर नाग राजा हरिश्चंद देव का शासन था। भीषण युद्ध हुआ और प्रथम चरण में अन्नमदेव को पीछे हटना पड गया। बारसूर तथा किलेपाल से सैनिक सहायता मँगा कर पुन: धावा बोला गया जिसमें हरिश्चंददेव वीरगति को प्राप्त हुए एवं इसके साथ ही अन्नमदेव का सैनिक अभियान पूरा हो सका। इस तरह काकतीय/चालुक्य शासित बस्तर राज्य 1324 में अस्तित्व में आया। इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार (बस्तर के चालुक्य एवं गिरिजन, 2007) अन्नमदेव के राज्य में बारह जमींदारियाँ, अढ़तालीस गढ़, बारह मुकासा, बत्तीस चालकी और चौरासी परगने थे। जिन प्रमुख गढ़ों या किलों पर अधिकार कर बस्तर राज्य की स्थापना की गयी वो हैं - मांधोता, राजपुर, गढ़-बोदरा, करेकोट, गढ़-चन्देला, चितरकोट, धाराउर, गढ़िया, मुण्डागढ़, माड़पालगढ़, केसरपाल, राजनगर, चीतापुर, किलेपाल, केशलूर, पाराकोट, रेकोट, हमीरगढ़, तीरथगढ़, छिन्दगढ़, कटेकल्याण, गढ़मीरी, कुँआकोण्ड़ा, दंतेवाड़ा, बाल-सूर्य गढ़, भैरमगढ़, कुटरू, गंगालूर, कोटापल्ली, पामेंड, फोतकेल, भोपालपट्टनम, तारलागुड़ा, सुकमा, माकड़ी, उदयगढ़, चेरला, बंगरू, राकापल्ली, आलबाका, तारलागुड़ा, जगरगुण्ड़ा, उमरकोट, रायगड़ा, पोटगुड़ा, शालिनीगढ़, चुरचुंगागढ़, कोटपाड़.......।

सभी विवरणों को गंभीरता पूर्वक देखने पर यह महसूस होता है कि नाग युगीन बस्तर एक विभाजित सत्ताओं का केन्द्र था तथा आपसी मतभेद इतने अधिक व्यापक थे कि एक जुट हो कर आक्रांता से लडने का प्रयास ही नहीं किया गया। अन्नमदेव जिस दिशा में गये वहाँ की सत्ता जैसे झोली में आ गिरी। स्थानीय जनजातियों का भी कोई विरोध न होना यह स्पष्ट करता है कि शासक और जनता के बीच के संबंध मधुर नहीं थे। इसके साथ ही अन्नमदेव समझदारी के साथ अधिकृत क्षेत्रों पर वैसे सामंतो की ही नियुक्ति कर रहे थे जिनसे स्थानीय समर्थन बना रहे एवं युद्धकाल में नये मोर्चे न खुलें। यह वारंगल के शासकों का शासनानुभव था जिसके फलस्वरूप युद्ध और विजित क्षेत्रों में प्रशासन प्रबंधन साथ साथ किया जाता रहा। अन्नमदेव की दूरदर्शिता इस मायने में प्रसंशनीय कही जायेगी कि उन्होंने जहाँ तक संभव हुआ प्राचीन स्थापनाओं को मजबूत ही किया तथा स्थानीयता को उसी स्वरूप में मान्यता देने की कोशिश की। किसी क्रूर आक्रांता होने के स्थान पर वे सहिष्णु विजेता की छवि प्रस्तुत कर रहे थे तहाअधिकतम पुराने सामंतो अथवा जनजाति के सरदारों को ही प्रशासन में ओहदे प्रदान करते चल रहे थे। बस्तर का जो वर्तमान स्वरूप है उसे बहुत हद तक प्रशासन के नीचे आकार देने का श्रेय अन्नमदेव को ही जाता है।

प्रवीर चन्द्र भंजदेव - बस्तर का शापित नायक

दैनिक छत्तीसगढ में 26.03.2013 को प्रकाशित 



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सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में 26.03.2013 को प्रकाशित