Saturday, June 23, 2012

देवी शक्तियों का बस्तर

व्यवस्था में बदलाव वस्तुत: एक पूरी संस्कृति का पटाक्षेप भी है। बस्तर के संदर्भ में मुख्यत: दो कालखण्ड मायने रखते हैं जब इस तरह के बदलाव देखे गये। पहला समय था जब नाग राजाओं (760-1324 ई) की पराजय हुई तथा अन्नमदेव (1324-1369 ई.) सत्तासीन हुए तथा दूसरा कालखण्ड जब स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात न केवल अंगेज सत्ता द्वारा संचालित काकतीय शासन का समापन हुआ तथा इस घोर आदिवासी क्षेत्र में लोकतंत्र के चरण पडे। इन दोनो ही समयों में बदलाव को सहज स्वीकार किया गया हो एसा नहीं है; अपितु बदलने वालों नें धर्म और धार्मिक मान्यताओं की आड ले कर ही अपनी स्वीकार्यतायें सुनिश्चित की हैं। इतिहास तो राजाओं के होते हैं किंतु अपनी प्रकृति और प्रवृति में बदलाव आम जन का ही होता है तहापि उसकी कहानियाँ कभी भी दस्वावेजबद्ध नहीं की गयीं। इतिहास को धर्म मान्यताओं और आस्थाओं से समझने की कोशिश यदि नहीं की गयी तो वह तलवार बाजों की जीत हार के आँकडे भर रह जायेगा। राजा बदलता है तो प्रजा भी बदलती है।

इस बदलाव और कशमकश को समझने के लिये बस्तर अंचल की दो देवियों दंतेश्वरी तथा मणिकेश्वरी का प्रसंग लेते हैं। बस्तर में देवी महात्म्य सर्वदा से स्थापित रहा है तथापि माँ दंतेश्वरी एवं मणिकेश्वरी देवी के स्थापना समयों को ले कर विद्वानों में मतभिन्नता रही है। बस्तर राज वंशावलि (1853) में एक श्लोक विशेषरूप से ध्यान खींचता है – नवलत्क्षनुर्धराधिनाथे पृथेवीं शासति काकतीयरूद्रे। अभवत्परमाग्रहारपीडाकुचकुम्भेषु कुरंगलोचनानाम। प्रतापदुर्ददेवस्य पुरकांचनवत्षणम। यामात्धमहरत्कालम पुरा वै यज्ञ हेतवे। प्रतापरुद्रनृपतिस्साक्षाद रुद्रांशसम्भव:। शिवार्चनपरो भक्तो माणिकीशक्ति सेवित:। यह श्लोक वस्तुत: वारंगल के राजा प्रतापरुद्र की स्तुति की तरह ही है जो बताता है कि काकतीयों के पास प्रबल सैन्यशक्ति थी जिसमे नौ लाख धनुर्धर थे। वे धनी थे। धर्माचरणी थे। इस श्लोक की अंतिम पंक्ति कहती है कि काकतीय मणिकेश्वरी देवी के अनन्य भक्त थे तथा शिव की उपासना/अर्चना भी करते थे।

वस्तुत: प्रतापरुद्र (राजा अन्नम देव जिन्होंने बस्तर में काकतीय वंश की स्थापना की) के बडे भाई थे तथा वारंगल पर मुस्लिम आक्रांताओं की विजय से पहले वे सर्वाधिक प्रतापी तथा धनाड्य राजाओं में गिने जाते थे। अत: यदि इस श्लोक के आधार पर माता मणिकेश्वरी देवी को काकतीय राजाओं के साथ वारंगल से बस्तर लाया जाना माना जाये तो फिर माता दंतेश्वरी का बस्तर में स्थान अधिक प्राचीन होगा। इस सम्बन्ध में लाला जगदलपुरी अपनी किताब “बस्तर – लोक कला संस्कृति प्रसंग” में लिखते हैं कि “बारसूर की प्राचीन दंतेश्वरी गुडी को नागों के समय में पेदम्मा गुडी कहा जाता था। तेलुगू में बडी माँ को पेदम्मा कहा जाता है। तेलिगु भाषा नागवंशी नरेशों की मातृ भाषा थी। वे दक्षिण भारतीय थे। बारसूर की पेदम्मा गुडी से अन्नमदेव नें पेदम्मा जी को दंतेवाडा ले जा कर मंदिर में स्थापित कर दिया। तारलागुडा में जब देवी दंतावला अपने मंदिर में स्थापित हो गयी तब तारलागुडा ग्राम का नाम बदल कर दंतावाडा हो गया, उसे लोग दंतेवाडा भी कहने लगे।“


छत्तीसगढ परिचय में प्रकाशित डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र का एक आलेख आलेख इस सम्बन्ध में बिलकुल अलग तथ्य सामने लाता है। वे लिखते हैं “काकतीय तथा दंतेश्वरी के नामो के पीछे कुछ रहस्य हैं कि इस घराने के आदि पुरुष महाभारतकालीन पाण्डव थे। दिल्ली की दुर्दशा के बाद उन्होंने दक्षिण की शरण ली। गुरु द्रोणाचार्य की शिष्य परम्परा के कारण उन्होंने अपने वंश का नाम काकतीय रखा। संस्कृत में काक को द्रोण भी कहते हैं। संस्कृत में हस्ती को दंती भी कहते हैं इस तरह हस्तिनापुर की अधिष्ठात्री देवी हस्तेश्वरे कहलाने के बदले दंतेश्वरी कही गयीं। इस कथन के समर्थन में ईतिहासकार हीरालाल (1916:289) लिखते हैं कि बस्तर के नागवंशी राजाओं की कुलदेवी मणिक्येश्वरी थीं। बस्तर के अनेको अभिलेखों में नागफण मणि की चर्चा की गयी है अत: यह आधार भी नाग राजाओं के मणिकेश्वरी देवी के उपासक होने की कडी की तरह जुडता है। इस कडी को जोडने का कुछ प्रयास डॉ. हीरालाल शुक्ल नें भी लिया है जहाँ अपनी किताब चक्रकोट के छिन्दक नाग (760 ई. से 1324 ई) में वे लिखते हैं कि “मणिकेश्वरी एक तांत्रिक देवी हैं। भैरवयामलमंत्र के अनुसार मणि एक चक्र है, तेज या ज्ञानसन्दोह का उपलक्षक है तथा मणिमण्डप पर विन्ध्यवासिनी देवी बैठती हैं।“ वे आगे लिखते हैं कि मणिकेश्वरी विन्ध्यवासिनी देवी का पर्याय हैं। इस सम्बन्ध में ध्यातव्य है कि सोमेश्वर प्रथम जैसा नाग शासक चक्रकोट पर पुन: साम्राज्य स्थापित करने में विन्ध्यवासिनी देवी का प्रसाद (ईपी. इंडिका 10:37) मानता है – विन्ध्यवासिनीदेविवर प्रसाद (तदेव 10:25) के अभिलेखीय सन्दर्भ मिलते हैं।

उपरोक्त सभी संदर्भ भ्रमित करते हैं क्योंकि कोई भी विद्वान एक स्पष्ट दिशा नहीं देते। यहाँ तक कि हर शिलालेख से अपने-अपने मायने निकल रहे हैं। यदि विन्ध्यवासिनी ही मणिकेश्वरी हैं तो यह नामपरिवर्तन किस लिये? यदि मणिकेश्वरी काकतीयों की आराध्य हैं तो नाग सत्ता की आराध्य देवी विन्ध्यवासिनी एक तीसरी देवी सत्ता होनी चाहिये? यदि अन्नमदेव के साथ मणिकेश्वरी देवी के पावन चरण बस्तर पर पडे तो दंतेश्वरी माता का अस्तित्व यहाँ और प्राचीन सिद्ध होता है जैसा कि लाला जगदलपुरी आदि विद्वान मानते हैं। क्या ये सभी देवी शक्तियाँ पर्याय मात्र हैं? क्या इन नामों के पर्याय होने के पीछे कोई दंतकथा उपलब्ध है? इस विषय पर विद्वानों ने कोई संदर्भ उपलब्ध नहीं कराये हैं। एक महत्वपूर्ण कथन जो इस विषय में सभी प्रसंगों का सामान्यीकरण करता है वह इलियट का है। ईलियट (1856:3) बताते हैं कि “वर्तमान राजाओं के पूर्वज बस्तर आने से पूर्व मणिकेश्वरी देवी के उपासक थे जब वे बस्तर आये तो मणिकेश्वरी देवी नें दंतेश्वरी देवी का रूप ले लिया।


तथ्य अभी और शोध की माँग करते हैं, तथापि वह चाहे नाग युग हो, काकतीय हो अथवा वर्तमान काल देवीपूजा के अनेकों विधान तथा शक्तिशाली देवियों के यहाँ अवस्थित होने के अनेकानेक प्रमाण उपलब्ध मिलते हैं। नारायणपुर से कुछ ही दूरी पर छींदपाल गाँव में महिषासुरमर्दिनी का नागयुगीन मंदिर आज भी उपलब्ध है तो कुरुषपाल के मंदिर में भी महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। नाग-काल से ही बस्तर में माँ दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी तथा कंकालीदेवी की पूजा की जाती रही है। इसके साथ ही सप्तमातृकाओं के पूजन की प्राचीनकालीन प्रथा (शुक्ल:1977) का भी उल्लेख यहाँ प्रासंगिक होगा। कहते हैं कि ये सप्तमातृकायें आदिम कबीलों के प्रभाव  से ही अवतरित हुई हैं – सा मातेव भविष्यत्वात तेनासौ मातृकोदिता (तंत्रलोक 4:15) ये सप्तमातृकायें - ब्राम्ही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, एन्द्रानी तथा चामुण्डा कही जाती हैं। इन सप्तमातृकाओं के स्मारक बस्तर के सातगाँव (कोण्डागाँव), भगदेवा (कोण्डागाँव) तथा मातला (नारायणपुर) मे मिलते हैं। वृक्षों, नदी, नालों, टीलों, पर्वतों या किसी भी प्राकृतिक वस्तु में इनका आवास हो सकता है। इन देवियों को प्रसन्न करने के लिये बस्तर में आज भी ककसाड (देवी यात्रा) की परम्परा चल रही है (शुक्ल, 1986)।  


जब दंतेवाडा में अवस्थित माँ दंतेश्वरी तथा माँ मणिकेश्वरी की बात चल ही रही है तो कुछ बात शंखिनी और डंकिनी नदियों की पावनता और उसके मिथकीय इतिहास पर भी। डॉ. हीरालाल शुक्ल से प्राप्त संदर्भ से ही विषय आगे ले जाना चाहूंगा (चक्रकोट के छिन्दक नाग: 140) कि बैद्धग्रंथों में जिसे वज्रयोगिनी कहा गया है तथा तंत्रशास्त्र में जो वज्र या छिन्नमस्ता कही गयी है वह वज्रयान सम्प्रदाय की देवी प्रतीत होती हैं तथा उनकी प्राण प्रतिष्ठा बस्तर में उसकी सहचरियों शंखिनी तथा डंकिनी नाम से अनुमानित की जा सकती हैं। इन नामों की दो नदियाँ दंतेवाडा होते हुए आज भी प्रवाहित होती हैं। शंखिनी को योगिनी या वर्णिनी भी कहा गया है। वह रजोगुण प्रधान व मोक्षप्रदा हैं। यह छिन्नमस्ता की दाहिनी ओर योनिमुद्रा में रहती हैं। यह बडे वेग से उठती हुई रक्त की धारा अपनी स्वामिनी को पिलाती हैं। हड्डियाँ इस योगिनी के आभूषण हैं। इसके हाँथ में चमकता हुआ भयंकर खड्ग रहता है। इसका वर्ण, केश और नेत्र रक्तिम होते हैं। यह विवस्त्र रहती हैं। डंकिनी एक दिगम्बरी तांत्रिक देवी हैं। इसके केश खुके हैं। यह कृष्णवर्णा तमोगुणयुक्त हैं। यह प्रचंड हैं तथा प्रलयकालीन घोर घटाटोप की तरह इसका काला रूप है। विकराल दाँतों के कारण इनके मुख, उदरविवर तथा कण्ठ को नहीं देखा जा सकता। जिव्हा का अग्रभाग लपलपाता रहता है। इनकी दोनों आँखें बिजली की तरह चंचल हैं। ये दोनो देवियाँ बस्तर के जनजातीय गीतों में बार बार आती हैं।


यहाँ संदर्भ को विवेचना के बिना नहीं छोडा जा सकता। बस्तर में अपना मातृसत्तात्मक दिव्य आवरण है। यह एक समृद्ध क्षेत्र के शनै: शनै: पिछडते जाने को समझने की कडी भी है। रायबहादुर डॉ. हीरालाल नें अपनी किताब मध्यप्रदेश का इतिहास के दसवे अध्याय में उल्लेख किया है कि “नागवंशी काल में बस्तर में अच्छे विद्वान रहते थे। वह निरा मुरिया-माडिया पूर्ण जंगल नहीं था जैसा कि इन दिनो है। वहाँ की प्राचीन शिल्पकारी भी प्रसंशनीय है। बस्तर राज्य एसी जगह पर था जहाँ अन्य राजा जब चाहे आक्रमण कर बैठते थे, तिस पर भी नागवंशी अपने को सदैव संभालते रहे और चार-पाँच सौ वर्षों तक किसी की दाल नहीं गलने दी।“ यह पहलू तब बदला जब नाग साम्राज्य अनेकों शाखाओं और मण्डलों में विभाजित हो गया। अन्नमदेव को यहाँ आ कर एक दो नहीं कई लडाईयाँ जीतनी पडी क्योंकि नाग पंचकोशी राजा रह गये थे। प्रजा त्रस्त थी कि किसके प्रति प्रतिबद्ध रहें और किसका साथ दें उन्होंने अन्नमदेव का साथ दिया। अन्नमदेव नें स्थानीय मान्यताओं को अक्षुण्ण रखने का आश्वासन दिया था। उनकी लोकप्रियता इसी कारण बढी तथा कालांतर में वे स्वयं कई दंतकथाओं का हिस्सा बन गये। काकतीय शासन नें वारंगल में अपनी समृद्धि का एक बडा काल देखा था और उसके दुष्परिणाम भुगते थे अत: अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद यह आवश्यक था कि राज्य के दरवाजे मुसलमान आक्रांताओं के लिये बंद कर दिये जायें। इस बंद करने की प्रवृत्ति नें बस्तर को रहस्यमयी और गोपनीय बना दिया। अन्नमदेव नें धन संचय और समृद्धि बटोरने की जगह शांतिप्रिय तथा कम चर्चा में रहने वाली सत्ता का विकल्प चुना जिसे उसके बाद वाले शासको ने भी आगे बढाया। परिणाम यह हुआ कि आम जन पीछे जाते गये। आम जन जनजातियों में परिवर्तित होते चले गये तथा कुछ सौ सालों में ही हालात इतने बदतर हो गये कि जिन क्षेत्रों मे राजधानियाँ हुआ करती थी वहाँ के नागरिको पर आदिवासी होने का चोला चढ गया। वे अनोखे, विरक्त और अबूझ होते चले गये। यहाँ सत्ता और प्रजा के बीच जुडने की सबसे बडी कडी वही देवियाँ रही हैं जिन्होंने सत्ता परिवर्तन के साथ साथ अपनी मान्यताओं के परिवर्तन का दंश भी सहा है। राजा प्रजा तथा देवी का यह अंतर्सम्बन्ध स्वतंत्रता के पश्चात भी जारी रहा। राजा प्रवीर नें देवीमहात्म्य को गहराई से समझा था। वे जानते थे कि भले ही सत्ता की कडी उनसे टूट गयी है लेकिन वे देवी के माध्यम से आम जन तक अपनी पहुँच बनाये रख सकते हैं। उन्होंने स्वयं को देवी दंतेश्वरी का अनन्यतम पुजारी कहलाना अधिक पसंद किया। एक पुजारी बनने के कारण आदिवासी जनता नें अपने बीच एसा संत पाया जो ताज छिन जाने के बाद भी उनका ही है वह उनकी आस्थाओं के साथ खडा रहता है। प्रवीर की इस पुजारी भूषा नें भी उन्हें लोकतंत्र में एक स्वीकार्य नेता भी बनाया था। इतना सशक्त नेता कि 1961 में जब वे राजनीतिक शक्तिपरीक्षण करना चाहते थे तब भी उनके द्वारा दशहरा पर्व चुना गया। इस वर्ष का दशहरा बस्तर के इतिहास में दर्ज है जब इतनी भीड जगदलपुर में हो गयी थी कि सडकों पर चलने के लिये इंच मात्र भी जगह नहीं बची थी। प्रवीर की हत्या के बाद बाबा बिहारीदास प्रकरण भी आस्था नेता और प्रजा के अंतर्सम्बन्ध की ही अगली कडी था।
 

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Saturday, June 16, 2012

बस्तर का एक एसा नायक जिसे किसी नें कभी याद नहीं किया


[प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव (1908 – 1960)]


एक किताब के बारे में जानकारी मिली जिसका शीर्षक है - Financial Position of Govt. of India (How decay has set in); लेखक थे प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव। बहुत तलाश किया किंतु दुर्भाग्यवश यह किताब अब विलुप्त हो गयी है, बिलकुल वैसे ही जैसे इसके लेखक को कोई नहीं जानता, उसके संघर्ष को शत-प्रतिशत भुला दिया गया है। यह परिचय देना आवश्यक है कि प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव बस्तर की महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921-1936) के पति थे। यह एक पंक्ति का परिचय केवल उनका बस्तर से सम्बन्ध निरूपित करता है वस्तुत: प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव का जन्म मई 1908 में मयूरभंज (उड़ीसा) में हुआ था। वे राजा दामचंद्र भंजदेव के पुत्र थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजकुमार कॉलिज, रायपुर में हुई थी। प्रफुल्ल कुमार भंजदेव की कथा एक एसे संघर्षशील व्यक्ति की कहानी है जिसने केवल अपने सिद्धांतो के लिये मिटना ही जाना किंतु वह समझौते करना और झुकना जानता ही नहीं था। 

1921 में सत्यकेतु पत्रिका (हिन्दी पाक्षिक) में प्रकाशित श्रीसत्यनाथन के एक आलेख ‘बस्तर राज पर विपत्ति’ से यह जानकारी मिलती है कि अंग्रेजों नें जबरदस्ती महारानी प्रफुल्ल कुमारी का विवाह प्रफुल्लचंद्र भंजदेव से करवाने की साजिश रची थी। ब्रिटिश एडमिनिस्ट्रेटर ‘टकर’ तथा तत्कालीन पॉलिटिकल एजेंट ‘ली’ नें जबरदस्ती यह रिश्ता महारानी प्रफुल्ला पर थोपा था किसके पीछे ब्रिटिश राजभक्ति के तहत निर्णय को मानने का अतिरिक्त दबाव भी डाला गया था। उस दौर में “प्रस्तावित बस्तर-मयूरभंज सम्बन्ध का रहस्योद्घाटन” शीर्षक से 33 पृष्ठ की एक पुस्तिका प्रकाशित हुई थी जिसमें इस विवाह का मुखर विरोध किया गया था। स्वयं महारानी प्रफुल्ल नें अपनी सगाई की सामग्री फेंक दी थी। जबरन विवाह की यह राजनीति राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनी जिसके उल्लेख तत्कालीन समाचार पत्रों - आज (वाराणसी, 15.04.1924); अमृतबाजा पत्रिका (कलकत्ता, 18.04.1924); दैनिक फॉरवर्ड (कलकत्ता, 25.04.1924), भविष्य (कानपुर, 15.05.1924); महिलासुधार (कानपुर, 28.06.1924); प्रणवीर (नागपुर, 16.06.1924); ताज (उर्दू दैनिक – दिल्ली, 3.04.1924); एशिया (उर्दू दैनिक – दिल्ली, 4.04.1924) आदि में मिलता है। अंग्रेजों का यह सारा प्रक्रम संभवत: उनकी जड खोदने के लिये ही था क्योंकि महारानी की सहमति के बिना राजनीतिक दबाव डाल कर कराया गया यह विवाह वर्ष 1927 में सम्पन्न हुआ जो कालांतर में एक चिरस्मरणीय प्रेमकहानी में परिवर्तित हो गया। यह मिलन केवल काकतीय-भंज राजवंशों का मिलन नहीं था, यह केवल बस्तर-मयूरभंज मिलन ही नहीं था अपितु यह एक आदिवासी राजनीति के साथ राष्टीय संवेदनाओं और मुख्यधारा का सम्मिलन भी था। 

बस्तर रियासत के भीतर राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात करने का श्रेय वस्तुत: प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव को जाना चाहिये। प्रफुल्ल एक प्रगतिशील रियासत से बस्तर आये थे तथा उनकी अपनी सोच महारानी के फैसलों के साथ प्रतिपादित होने लगीं। बस्तर की राजनीति को एक एसा सलाहकार मिल गया था जो शनै: शनै: ब्रिटिश आँख का काँटा बनने लगा। महारानी के दौर में निजाम शासन की दृष्टि बस्तर पर पड गयी थी तथा इसके लिये सर्वप्रथम प्रफुल्ल को सहमत कराने की कोशिश की गयी। उन्हें धन सम्पत्ति के साथ साथ एक बडी जमीन्दारी प्रदान करने का भी प्रलोभन दिया गया था। प्रफुल्ल बस्तर रियासत के पक्ष में खडे दिखे तब जा कर अंग्रेजों की समझ में आया राजनीतिक समझौते के तहत जबरन विवाह का तो पासा फेका गया था वह उलटा पड गया है; प्रफुल्ल कृतज्ञ नहीं अपितु अंतरात्मा से जागरूक व्यक्ति थे। बाध्य हो कर अंग्रेजी सरकार के दबाव में उच्च शिक्षा के लिये उन्हें इंग्लैंड भेजा गया जहाँ उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बीए ऑनर्स की पढाई के लिये दाखिला लिया। उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की तथा वकालत भी प्रारंभ की तथापि वे अपनी पी एच डी पूरी नहीं कर पाये। जब विश्वयुद्ध की परिस्थितियाँ बनीं तब प्रफुल्ल नें मानवता का फर्ज भी निभाया और अंग्रेजी एम्बुलेंस में भरती हो कर जरमनी, फ्रांस, बेल्जियम आदि राष्ट्रों के जख्मी सैनिकों की सेवा करने लगे। अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान वे श्री कृष्ण मेनन के संपर्क में आये तथा भारतीय स्वतंत्रा आन्दोलन के एक सिपाही की हैसियत से उनके साथ कदम से कदम मिला कर सक्रिय हो गये। आपके आलेखों और व्याख्यानों नें भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में तथा अंग्रेजी सत्ता प्रतिष्ठानों में खलबली मचा दी थी। एक एसा समय जब अंग्रेजी सरकार रियासतों को पंगु बनाने की कोशिश में एडी चोटी एक किये रहती थी उसी दौर में सितम्बर 1934 में प्रफुल्ल हन्द्र भंजदेव ने वीकर्ड़ रिव्यु पत्रिका, लंदन में “द न्यु स्टेस्ट्समैन एण्ड़ नेशन” नाम से आलेख लिखा था जिसमें खुलासा किया था कि “ब्रिटिश शासन के चलते भारतीय राजकुमार और राजा किस प्रकार नपुंसक हो गये हैं। उनकी इस प्रकार की नपुंसकता के पीछे वह मूर्खतापूर्ण शिक्षा भी थी जो उन्हें दी जा रही है।” प्रफुल्ल को इस लेख की बहुत बडी कीमत चुकानी पडी और अंग्रेजों की सीधी नाराजगी झेलनी पड़ी थी। इस आलेख के प्रकाशित किये जाने के तुरंत बाद ही प्रफुल्ल का चरित्र हनन करने की साजिश रची गयी। उन्हें ड़रपोक, व्यसनी तथा सिफिलिस से संक्रमित तक घोषित किया गया। प्रफुल्ल को बस्तर राज्य की ओर से दो हजार रुपये महीना खर्च दिया जाता था। स्वतंत्रता आन्दोलन में उनकी सक्रियता तथा निजाम राज के साथ बस्तर विलय की कोशिशों में सहयोग न दिये जाने के उनके निर्णय से नाराज अंग्रेजों नें यह राशि भी घटा कर आधी कर दी। महारानी की मृत्यु के बाद उन्हें यह राशि मिलना भी बंद कर दिया गया।

बैलाडिला क्षेत्र का बस्तर अथवा छत्तीसगढ में बना रहना वस्तुत: प्रफुल्ल की भी देन माना जाना चाहिये अन्यथा हो सकता था कि यह क्षेत्र निजामशाही के आधीन हो कर आज आन्ध्र का हिस्सा होता। महारानी प्रफुल्ला के समक्ष जब इस तरह का प्रस्ताव वायसराय लॉर्ड लिनथिनगो नें रखा था तब उन्होंने बहुत ही शालीनता और विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था। अंग्रेज मानते थे कि महारानी का यह कदम वस्तुत: उनके पति प्रफुल्ल की सोच की परिणति है। कुछ दस्तावेज और प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि महारानी प्रफुल्ला की एपेंडिक्स के ऑपरेशन के नाम पर हत्या की गयी थी जिसके पीछे बैलाडिला के लौह खदानों के कारण पैदा हुए नये राजनीतिक समीकरण ही जिम्मेदार थे। प्रफुल्ल की मुखरता देखिये कि यह जानते हुए भी कि अंग्रेजी सता उन्हें गुमनामी की सौगात देगी, वे चुप नहीं बैठे। अपने पुत्र प्रवीरचन्द्र भंजदेव के राज्याभिषेक के तुरंत बाद ही उन्होंने महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की अंग्रेजों द्वारा किये हत्या के षडयंत्र का रियासत की जनता के सामने पर्दाफाश कर दिया। भयानक परिणाम हुए उनके इस कृत्य के। उनसे अपने ही बच्चों के अभिभावक होने का नैसर्गिक अधिकार छीन लिया गया तथा बस्तर रियासत से निकाला दे दिया गया। बस्तर में प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव की वापसी तब हुई जब देश में अपना पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया। दो लाख से अधिक उपस्थित भीड नें प्रफुल्ल का हृदय खोल कर स्वागत किया था। प्रफुल्ल कुछ समय तक बस्तर में रहे फिर राष्ट्रीय ध्वज को लेकर किसी प्रसंग में उनका अपने पुत्र तथा महाराजा प्रवीर से मनमुटाव हो गया और फिर वे बस्तर छोड कर हमेशा के लिये चले गये। 

निराला व्यक्तित्व था प्रफुल्ल का। उन्हें जानने वाले बताते हैं कि प्रफुल्ल को सिगरेट और शराब जैसे व्यसन भी नहीं थे। वे सोच से भरे और मृदु मुस्कान लिये जीवंत व्यक्ति थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वे ओडिशा में आ कर रहने लगे तथा कुछ समय तक राज्य सरकार में रह कर कार्य भी लिया। ओडिशा सरकार की आदिवासियों को ले कर नीति से वे असहमत थे तथा इसी कारण उन्होंने राज्य की राजनीति से अपने हाथ भी खींच लिये थे। इसके पश्चात प्रफुल्ल लगभग गुमनामी का ही जीवन जीते रहे। वे मयूरभंज, कलकत्ता तथा दिल्ली में भी कुछ समयों के लिये रहे तथा इस गुमनाम संघर्शशील व्यक्ति में कब आखिरी स्वांस ली इसकी समुचित जानकारी उपलब्ध नहीं होती है, संभवत: 1960 के आसपास। 

उपसंहार में यही कहना चाहूंगा कि कई गुमनाम नायक हैं जिनके योगदानों को विस्मृत कर के हम बस्तर की विरासत की सही तस्वीर सामने नहीं ला सकते, प्रफुल्ल चंद भंजदेव भी उनमें से एक हैं।

Friday, June 15, 2012

विरोध व्यवस्था का अथवा बस्तर का?

जनपक्षधरता हमेशा व्यवस्था में सुधार अथवा बदलाव की दिशा में इंगित होती है। आप संवेदनशील व्यक्ति हैं तो निश्चित रूप से आपको अपने परिवेश के इर्द-गिर्द की घटनायें कुरेदेंगी, झकझोरेंगी तथा उद्वेलित भी करेंगी। बुनियादी सवाल कश्मीर से कन्याकुमारी तक बिलकुल एक जैसे हैं और कहीं न कहीं हमारे लोकतंत्र को कोई बडा सरिया आरपार कर गया है, अवस्था गंभीर है। हर तरह की राजनीति और प्रत्येक राजनीतिक दल आकंठ आरोपों में डूबा, भ्रष्टाचारी तथा जनविरोधी होता जा रहा है। सत्ता और माया नें लोकतंत्र की मर्यादा और उसके हर खम्बे को खोखला कर दिया है। किसपर विश्वास की निगाह से देखा जाये? व्यव्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया सभी नें अपनी विश्वस्वनीयता खो दी है। इस प्रश्न पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि आमूलचूक परिवर्तन होने चाहिये और हो कर रहेंगे। आम आदमी अपनी जब शक्ति की अभिव्यक्ति करता है तो कोई भी बदलाव असंभव नहीं रह जाते। यहाँ जनपक्षधरता शब्द का कृपया वामपंथीकरण न किया जाये, बुनियादी तौर पर मेरा मानना है कि विचार महत्वपूर्ण होते हैं वे आपको उडनें, सोचने, समझने का मुक्ताकाश देते हैं जबकि विचारधारायें बेडियाँ हैं जो आपके दायरे निश्चित कर देती हैं, इलाके तय कर देती हैं।.....। 

विरोध लोकतंत्र का स्वाभाविक स्वर है। दमन और प्रतिकार की हजारों हजार कोशिशों के बाद भी विरोध की धार जिन्दा है। अभी नाउम्मीदी के आगे नतमस्तक नहीं हुआ गया तथा कई दीपक टिमटिमाते हुए भी जल रहे हैं। दुर्भाग्यवश जिस तरह राजनीतीति की प्रकृति विश्लेषण से परे हो गयी है ठीक उसी तरह आन्दोलनों की विश्वस्वनीयता भी कलंकित हुई है। बहुतायत आन्दोलन छद्म है तथा उनके पीछे या तो कोई दूसरा राजनीतिक समीकरण काम कर रहा होता है या एसी कुछ गैर सरकारी संस्थायें जिनके चन्दे का हिसाब ठीक उसी तरह प्राप्त नहीं हो सकता जैसे कि हमारे नेताओं के स्विसबैक के खातों की जानकारियाँ। बस्तर के परिप्रेक्ष्य में विरोध के तेवरों को समझने की आवश्यकता महसूस होती है। कुछ पत्रकार मित्रों को जानता हूँ जो इमानदार हैं तथा सच के साथ खडे हो कर काम कर रहे हैं। उन्होंने सच की कीमत भी चुकाई है और यह कहने में हिचक नहीं कि आगे भी चुकानी पडेगी। यह राह ही एसी है बंधु और आग पर हर कोई नहीं चल सकता। इमानदार कोशिशे अपना असर भी दिखाती हैं और अनेकों बार जब आपकी व्यवस्था से सीधे सीधे ठन जाती है तब भी, अपना दमन झेल कर भी, अपनी पराजय के बिलकुल किनारे पर आप पाते हैं कि नहीं उम्मीद अभी है। जो दीपक आपने जलाया था उसने कई और रोशन कर दिये तथा धीरे धीरे आप फैल रहे हैं। सच्चाई और वास्तविक मुद्दे ही जनसरोकार बनते हैं, जनमत बनते हैं तथा बदलाव लाते हैं। तथापि बहुत गंभीरता से सोचता हूँ कि आज एसा क्या हुआ कि पूरा देश केवल बस्तर देखता है? मैं याद करता हूँ जब स्नात्कोत्तर के लिये मैने भोपाल में एडमिशन लिया था, वहाँ मोतीलाल विज्ञान महाविद्यालय के गोखले छात्रावास में रैगिंग के दौरान जब मैने बताया कि बस्तर से हूँ तो सभी की निगाह मेरे चेहरे पर गड गयी थी। बस्तर नाम बहुतायत के लिये अनसुना था, एक जो जानता था उसने मुझे उपर से नीचे तक देखा फिर बोला अच्छा!! बस्तर से? लेकिन तुम तो कपडे पहने हो? इस बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 

यह शोषित मिट्टी इन 10-15 वर्षों से ही उपेक्षित नहीं रही जबसे नक्सलवाद के दैत्याकार स्वरूप का साक्षात्कार होने लगा है अपितु काल दर काल यहाँ की उर्वरता, वनोपज, आदिम शालीनता तथा इनने पर्यावास का अतिक्रमण हुआ है। इस अंचल के किसी आन्दोलन में देश भर से आवाज़ नहीं उठी। यहाँ का शोषण जब तक बिकने वाली खबर नहीं बन गया तब तक यहाँ की मांसलता पर ही लिखा जाता रहा। जब बांग्लादेशी रिफ्यूजी बस्तर में बसाये जा रहे थे उस दौर में बोधघाट बंद करो विस्थापन होगा का शोर मचाने वाले समाजसेवी या मानवाधिकारवादी क्या भांग का गोला निगले रहते थे? उस दौर में किसी को दण्डकारण्य परियोजना और उसके तहत बहुत बडी मात्रा में बांग्लादेशी विस्थापितों को बसाना यहाँ की अबूझता, यहाँ की संस्कृति, यहाँ की जनजातियों, यहाँ की लोककला, यहाँ की परम्पराओं पर आघात क्यों नहीं लगा? बस्तर ही क्यों? क्या कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक के भूभाग को छोड कर बस्तर का इस बसाहट के लिये चयन तब एक सांस्कृतिक हमला नहीं था? बस्तर के भीतर से तब आवाजें उठी थीं किंतु वह इस देश का स्वर क्यों नहीं बन सकीं? 

दण्डकारण्य परियोजना के नाम पर उस दौर में लूट-खसोट का एक लम्बा सिलसिला चला। श्री गोरेलाल झा के 1968 में प्रकाशित एक आलेख से उद्धरण है कि “करीब चालीस हजार एकड भूमि जो कि सुरक्षित वन में स्थित थी इस योजना के लिये दी गयी। आदिवासियों को भूमि देने का उतना दुख नहीं है जितनी कि इस नीति से कि भूमिहीन आदिवासियों को तो कोई इस सुरक्षित वन में एक एकड भूमि देने के लिये भी तैयार नहीं है”। एक उदाहरण महाराजा प्रवीर की डायरी में मिलता है कि दण्डकारण्य परियोजना पर युक्ति व बुद्धि बंगाल की ब्युरोक्रेसी लगा रही थी। एक राय आयी कि वहाँ बंगाल में होने वाली बाँस की प्रजाति का रोपण किया जाये क्योंकि उससे रिफ्यूजियों का कुटीर उद्योग संचालित हो सकता था। प्रवीर नें विरोध किया कि बस्तर में अपनी ही तरह के बाँस होते हैं तथा उसी से यहाँ की जनजातियाँ टोकनी सूपा या अन्य कलात्मक वस्तुओं का निर्माण करती हैं। लाखो रुपये फूंके गये और नतीजा सिफर निकला। यहाँ पाईन रोपण परियोजना के परिणाम भी बांस रोपण जैसे ही भयानक थे। बस्तर में जब मालिक मकबूजा की लूट चल रही थी तब राष्ट्रीय मीडिया का मौन और यहाँ पर दिल्ली के आन्दोलनकारियों का अकाल क्यों था? आज जिनकी यहाँ के शोषण से आह!! निकल आती है; अमेरिका तक से यहाँ के दर्द को गीत बना बना कर गाते है तब इन बीनों को फूंक मारने की फुरसत क्यों नहीं रही थी? लेव्ही को ले कर तथा धान के मूल्य निर्धारण को ले कर प्रवीर नें व्यापक आन्दोलन चलाया था तब उनके समर्थन में मौन क्यों था वह भी एसा मौन कि उनकी नृशंस हत्या के लगभग पचास साल बाद उनके लिये पहली श्रद्धांजली सभा कुछ वर्षों पूर्व ही जगदलपुर में सम्पन्न हो सकी। 1961 का लौहण्डीगुडा गोली काण्ड, 1966 का राजमहल गोली काण्ड अंचल की भीषणतम घटनायें हैं जिनके विषय में आज तक केवल मौन ही पसरा हुआ है। जब बीबीसी के कैमरे बस्तर के घोटुलों में पूरी बेशर्मी के साथ घुसे थे और अधकचरी जानकारियाँ एकत्रित कर उसे यौन फिल्म की तरह विश्वभर में परोस दिया था तब भी केवल और केवल स्थानीय साहित्यकारों और लेखकों नें ही आवाज उठाई थी। मई 1981 में दण्डकारण्य समाचार में प्रकाशित श्री राम सिंह ठाकुर के आलेख का अंतिम पैरा “आज जब कि बस्तर के मूल निवासियों के संस्कृति पर विदेशी अपनी मनमानी कर के फिल्म बना सके वहाँ उस देश के अन्य मूल निवासियों का क्या होगा? उचित तो यही होगा कि बीबीसी द्वारा बनाये गये फिल्मप्रदर्शन पर विश्वस्तरीय रोक लगा दिया जाये और फिल्म को भारत ला कर पूरी तरह नष्ट कर दिया जाये”। प्रश्न यह है कि इन आवाजों को सुनने वाला कोई क्यों नहीं था? क्या तब देश भर में एक्टिविस्टों का अकाल था? आज भी नक्सली बीबीसी प्रसारणों का ही अनुसरण जानकारी बटोरने के लिये करते हैं जिसका उल्लेख कई बार नक्सल समर्थक लेखकों नें अपने आलेखों में किया है। आज भी बीबीसी के संवाददाताओं के पास ही नक्सली अपने मध्यस्तों के नाम तय करने के लिये एसएमएस भेजते हैं, यह तो सर्वविदित है चूंकि ताजा घटना है। बडी बडी राष्ट्रीय खबरों से बडी घटना थी किरंदुल गोली कांड चूंकि यह 20,000 असंगठित मजदूरों का मसला था। यह उस दौर की घटना है जब नक्सलियों की आमद भी बस्तर में हो चुकी थी। इन मजदूरों से एसी क्या खता हुई थी कि यह घटना केवल स्थानीय अखबारों की सुर्खियाँ बन कर रह गयी तथा वाम आन्दोलन के नाम पर दादा बन कर घुसे नक्सलियों नें भी घटना पर मौन ही साधे रखा था। दिल्ली का एक्टिविज्म तो हमेशा ही पहले की तरह चुप रहा - नक्सलियों की आमद पर मौन उनकी नृशंसताओं पर मौन.....। 

अचानक बस्तर में क्या हुआ कि सारे एक्टिविस्ट दिल्ली में “ले अंगडाई हिल उठी धरा..” एक साथ जाग गये; वस्तुत: जिन मुद्धों पर बस्तर का दुष्प्रचार करने वाले लोग दिल्ली में सक्रिय हैं उनकी मानसिकताओं और राजनीति को समझना आवश्यक है। उनका निशाना व्यवस्था नहीं है वह तो केवल चदरिया झीनी झीनी है अन्यथा तो खेल विचारधारा के बस्तर में जारी युद्ध के लिये समर्थन बनाने और बचाने का है। जायज आवाजें हाशिये पर हैं तथा वे स्वर राष्ट्रीय भोंपू बनते जा रहे हैं जिनमें यहाँ के भूगोल और अतीत तो छोडिये वर्तमान तक की समुचित समझ नहीं है। बस्तर के मुद्दों का राष्ट्रीयकरण नक्सलियों के प्रभावी होने के साथ साथ हुआ है किंतु क्या वास्तविक सरोकार विषयवस्तु बन रहे हैं? देश-विदेश में सलवाजुडुम का विरोध किया और अब बस्तर में इस आन्दोलन से जुडे आदिवासी एक एक कर नक्सलियों द्वारा मारे भी जा रहे हैं। किस सामाजिक तथा मानवाधिकार कार्यकर्ता नें इस विषय को खुल कर उठाया है और अब भी जारी इस अनावश्यक हत्या श्रंखला का विरोध किया है? इन घटनाओं का विरोध असल में उस माहौल को बनाये जाने की कोशिश का हिस्सा नहीं है जिसे विश्व भर में दिखा कर इस क्षेत्र को निरंतर उपनिवेश बना रही विचारधारा की बंदूखों को जायज ठहराया जाना है। उसने पेड काट दिया, उसने बलात्कार कर दिया, उसने प्रताडित कर दिया, वह नंगा है, वह भूखा है, उसके घर में बिजली नहीं है, वहाँ अभी भी स्कूल नहीं है, पुलिसिया दमन हो रहा है आदि आदि केवल बस्तर का चेहरा नहीं है यह पूरे भारत का एक जैसा सच है और एक जैसा ही कडुवा। पत्रकार भाईयों को इन तथ्यों-सत्यों को उजागर करने में कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिये। मेरा इशारा उन समाचारों की खदानों की,ओर है जो समाचार चुनते है और चुने हुए समाचारों के साथ बौद्धिक विलास करते हैं। मेरे पास इसी तरह के प्रचार का हिस्सा एक ईमेल निरंतर आता है जिसमें कई प्रकाशित आलेखों के लिंक होते हैं [बहुतायत कहानियाँ छत्तीसगढ के नाम पर कभी झारखण्ड की होती हैं कभी महाराष्ट्र की तो कभी आन्ध्र की। इसके अलावा देश भर में कुछ चुने हुए लोगों की गतिविधियों का ब्यौरा कि कहाँ-कहाँ दिल्ली में बस्तर के नाम पर हाय तौबा की]। इन चुनी हुई कहानियों पर अगाध श्रम किया जाता है। ये कहानियाँ वह मील का पत्थर बनायी जाती हैं जिन्हें लहरा लहरा कर बस्तर को दुनिया की सबसे डरावनी जगह बनाये जाने की कोशिश लगातार की जा रही है। ये समाचार बस्तर के वास्तविक सरोकार भी नहीं अपितु सरोकार के करीब की घटनायें मात्र हैं। उदाहरण के तौर पर एक सप्ताह में नक्सलियों नें चार सडकें फोडी, दो स्कूल विध्वंस कर दिये एक बाजार में हमला किया आदि आदि तो यह सामान्य घटना लेकिन इसकी प्रतिक्रिया राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समाचार। ये समाचार पोर्टल, समाजसेवी और विचारक बस्तर की समस्याओं का कोई समाधान ले कर आज तक क्यों उपस्थ्ति नहीं हुए? 

यहाँ समस्या है कृषि का आधुनिकीकरण किये जाने की, यहाँ आवश्यकता है सिंचाई के साधन विकसित किये जाने की, यहाँ आवश्यकता है शिक्षा के बेहतर माहौल की, यहाँ आवश्यकता है उच्च शिक्षा के मौजूदा संस्थानों को दुरुस्त करने तथा उनमे आदिवासी छात्रों को विशेष वरीयता तथा आर्थिक मदद दिये जाने की, यहाँ आवश्यकता है रोजगार मूलक उपायों की, यहाँ आवश्यकता है साफ पानी की, बिजली की, सडक की। पिछले बीस-सालों में इन विषयों पर न तो विमर्श हो रहा है न ही आन्दोलन। वस्तुत: अगर इनके समाधानों की बात और कोशिश की पहल होगी तो नक्सलवाद की प्रासंगिकता क्या बचेगी; इस बात को पूरी तरह जान कर और समझ कर जनसरोकारों की नये किस्म की परिभाषा गढी गयी है जिसमें दो ही किरदार हैं नक्सली जो क्रांतिकारी हैं और पुलिस जो विलेन है। इस पृष्ठभूमि के लेखो में ड्रामा है, फिक्शन है.....समाधान नहीं हैं। जिन्हे बस्तर का ‘ब’ पता नहीं उनसे हम समाधान की उम्मीद रखें यह तो हमारी ही सोच में कमी हुई न? 

समाधान ‘केवल और केवल’ पढी लिखी आदिवासी पीढी के पास ही है। आप ही उर्वरा बीज हो और आप ही अपना स्वर। दिल्ली में बहुत से लोग भगतसिंह का मुखौटा लगाकर आपकी क्रांति करने की जुगत में हैं; उनके भरम में आये बिना अपने चेहरे के साथ अपनी मुट्ठी बाँधिये। अपने अधिकार के लिये लडाई आपकी अपनी है। फिर वह वयवस्था के खिलाफ हो अथवा आपकी आड में वयवस्था बदलने वाली बदूखों के खिलाफ.....आपको अपनी बुद्धिजीविता के साथ अपना स्वर बनना ही होगा। आपकी अपनी कोई आवाज नहीं है इस लिये दिल्ली के पास भोंपू है। आदिवासी मित्रों, शिक्षा सोच देती है तथा अपनी समस्याओं को स्वयं अनुभव कर निराकरण की समझ भी स्वयं में विकसित कर देती है। गहराई से उन समस्याओं की विवेचना कीजिये जो आपके सरोकारों को स्पर्श करते हों। यह समय आपकी सक्रियता का है क्योंकि ‘चलता है’ कि प्रवृत्ति ही आपको हाशिये पर धकेल रही है। अपनी अभिव्यक्ति के अवसर तलाशिये और अपनी बात सकारात्मकता से कहिये क्योंकि व्यवस्था के खिलाफ खडे होना आपका अधिकार है तथा बस्तर के खिलाफ चल रहे दुष्प्रचार के विरुद्ध लामबंद होना आपका कर्तव्य। जड ही महत्वपूर्ण होती है तथा आपकी जडें हजारों सालों का गौरवशाली अतीत आपके साथ जोडती हैं। आप गेन्दसिंह, झाडा सिरहा, आयतु माहरा, यादव राव, व्यंकट राव, डेबरी धुर और गुण्डाधुर की संततियाँ हो। आपका नेतृत्व सुबरन कुँवर जैसी वीरांगना और प्रवीर जैसे विचारक नें किया है फिर एसा क्यों कि आप बस्तर के दुष्प्रचार तंत्र के प्रति नाराज नहीं होते। मित्रों यह जाहिर करना ही होगा कि हम किसी ओर की बंदूख के साथ नहीं है और किसी दुष्प्रचार का हिस्सा भी नहीं है। बस्तर हमारा है और अब बहुत हो चुका इसका नवनिर्माण भी हम बस्तरिया ही करेंगे।