Monday, June 25, 2007

कुछ टूट गया है...



सागर न समाओगे कि कुछ टूट गया है
जीता ही जलाओगे कि कुछ टूट गया है..

हँस हँस के किसी कोर के अश्कों को रौंद कर
क्या क्या न बताओगे कि कुछ टूट गया है..

अपनी तलाश में कि जो तुम चाँद तक गये
क्या लौट भी पाओगे कि कुछ टूट गया है..

चेहरे पे नया चेहरा लिये मिल जो गया वो
क्या हाँथ मिलाओगे कि कुछ टूट गया है..

हर ओर पीठ पीठ है "राजीव" भीड में
क्या साथ निभाओगे कि कुछ टूट गया है..

*** राजीव रंजन प्रसाद
११.०२.२००७

Friday, June 22, 2007

उजालों नें डसा



हर किरन चाहती है
कि हाथ थाम ले मेरा
और मैं अपने ही गिर्द
अपने ही बुने जालों में छटपटाता
चीखता/निढाल होता
और होता पुनः यत्नशील
अपनी ही कैद से बाहर आना चाहता हूं

काश कि अंधेरे ओढे न होते
तुम्हारी तरह मज़ाक समझा होता
अपना साथ, प्यार, भावना
संबंधों की तरलता
लोहित सा उद्वेग
तमाम चक्रवात, तूफान, ज्वार और भाटे

काश कि मेरा नज़रिया मिट्टी का खिलौना होता
किसी मासूम की बाहों या कलेजे से लगा नहीं
किसी खूबसूरत से मेजपोश पर
आत्मलिप्त..खामोश
जिसकी उपस्थिति का आभास भी हो
जिसकी खूबसूरती का भान भी हो
जिसके टूट जाने का गम भी न हो
जो ज़िन्दगी में हो भी
और नहीं भी..

काश कि मेरा मन इतना गहरा न होता
काश कि होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश कि मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने
तुम्हारे चेहरे को आइना समझ लिया
आज भान हुआ
कितनी उथली थी तुम्हारी आँखें
कि मेरा चेहरा तो दीखता था
लेकिन मेरा मन और मेरी आत्मा आत्मसात न हो सकी तुममें

काश कि तुम्हे भूल पाने का संबल
दे जाती तुम ही
काश कि मेरे कलेजे को एक पत्थर आखिरी निशानी देती
चाक चाक कलेजे का सारा दर्द सह लेता
आसमां सिर पे ढह लेता तो ढह लेता..
गाज सीने पे गिरी
आँधियां तक थम गयी
खामोशियों की सैंकडों परतें जमीं मुझ पर तभी
आखों में एक स्याही फैली..फैली
और फैली
समा गया सम्पूर्ण शून्य मेरे भीतर
और "मैं" हो गया
मुझे पल पल याद है
अपने खंडहर हो जाने का

काश कि हवायें बहना छोड दें
सूरज ढलना छोड दे
चाँद निकलना छोड दे
नदियाँ इठला कर न बहें
तितलियाँ अठखेलियाँ न करें
चिडिया गीत न गाये
बादल छायें ही नहीं आसमान पर
काश कि मौसम गुपचुप सा गुज़र जाये
काश कि फूल अपनी मीठी मुस्कान न बिखेरें
काश्...
काश कि एसा कुछ न हो कि तुम्हारी याद
मेरे कलेज़े का नासूर हो जाये
कि अब सहन नहीं होती
अपना ही दर्द आप सहने की मज़बूरी....

और वो तमाम जाले
जो मैंने ही बुने हैं
तुम्हारे साथ गुज़ारे एक एक पल की यादें
तुम्हारी हँसी
तुम्हारी आँखें
तुम तुम सिर्फ तुम
और तुम
और तुम
रग रग में तुम
पोर पोर में तुम
टीस टीस में तुम

धडकनें चीखती रही तुम्हारा नाम ले ले कर
और अपने कानों पर हथेलियाँ रख कर भी
तुम होती रही प्रतिध्वनित भीतर
तुमनें मुर्दों को भी जीनें न दिया
अंधेरे ओढ लिये मैनें
सचमुच उजालों से डर लगता है मुझे
जबसे उजालों नें डसा है
कि तुमनें न जीनें दिया न मारा ही

*** राजीव रंजन प्रसाद
१६.०४.१९९५

Thursday, June 21, 2007

मैं मोम नहीं हूँ..




पूरी रात पिघलता रहा हूँ
समूचा दिन जम कर थमा रहा
एक हलकी सी चिन्गारी
एक ठंडी बर्फ सा अहसास
दोनों ही की कशमकश जीनें नहीं देती..

बोलो कि अपना पागल कलेजा
किस पिंजरे में कैद करूंगा
बोलो कि आवारा अंधेरा
जो मुझे छेड जाता है
किससे करूंगा शिकायत
एक तमन्ना ही नें मुझे
जाने कितने सांचों में ढाला निकाला
मेरे प्यार मैं मोम नहीं हूं
लेकिन हो जाता हूँ...

*** राजीव रंजन प्रसाद
१९.०४.१९९७

Monday, June 18, 2007

मछली और क्षणिकायें..


मछली -१

मुझे पानीं से निकाल कर
यूं हथेली पर न रखो
जानम तुममें डूबा हुआ ही ज़िन्दा हूं मैं..


मछली -२

मेरी सोन मछली मेरी जल परी
यूं डुबक पानी में उतर
अनगिनत भँवरें गिनता मुझे छोड
हर पल डूबती उतराती हुई तुम
बार बार करीब आ कर जाती हुई तुम
क्यों चाहती हो कि
जाल फेंक तुम्हें उलझा लाऊं

मछली -३

हर बार सोचता हूँ
उस एक मछली को
जिसनें सारा तालाब उथल पुथल कर रखा है
काँच के मर्तबान में कैद कर दूं
और अपनी आँखों में
पार्थ का चिंतन..

मछली -४

उस चटुल मछरिया नें
मेरी आँखों में डूब कर कहा
तुम बहुत गहरे हो..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२०.०४.१९९७

Friday, June 15, 2007

ज़ुल्फ और क्षणिकायें

ज़ुल्फ -१


उसनें कहा था
हवाओं में खुश्बू भरी होगी मुझसे दूर
मेरे ज़ुल्फों के खत पुरबा सुनायेगी तुम्हे
ये क्या कि ज़हर घुला है हवाओं में
एक तो जुदाई का मौसम
उसपर तुम्हारी तनहाई का दर्द
हवाए कहती हैं मुझसे..



ज़ुल्फ -२



तुमने ज़ुल्फें नहीं सवारी हैं
घटायें कहती हैं मुझसे
बेतरतीब चाँद भला सा नहीं लगता
बादलों में उलझा उलझा सा
हल्की सी बारिश से नहा कर निकला
उँघता, अनमना, डूबा सा
झटक कर ज़ुल्फें
खुद से खींच निकालो खुद को
सम्भालो खुद को..



ज़ुल्फ -३



ज़ुल्फों के मौसम फिर कब आयेंगे?
बिलकुल भीगी ज़ुल्फें
एकदम से मेरे चेहरे पर झटक कर
चाँद छुपा लेती थी अपना ही
मैं चेहरे पर की फुहारों को मन की आँखों से छू कर
दिल के कानों से सूंघ कर
और रूह की गुदगुदी से सम्भालता खुद को
फिर तुम्हे ज़ुल्फों से खीच कर
हथेलियों में भर लिया करता था…



तुमने ज़ुल्फें मेरी आँखों में ठूंस दी हैं
अब तो पल महसूस भी न होंगे, गुजर जायेंगे
ज़ुल्फों के मौसम फिर कब आयेंगे..



ज़ुल्फ -४



ज़ुल्फों के तार तार खींचो
उलझन उलझन को सुलझाओ
तुम खीझ उठो तो ज़ुल्फों को
मेरी बाहों में भर जाओ
मेरी उंगली से बज सितार
बुझ जायेंगे मन के अंगार
मैं उलझ उलझ सा जाउंगा
खो जाउंगा भीतर भीतर
हो जाउंगा गहरा सागर..



ज़ुल्फ -५



बांध कर न रखा करो ज़ुल्फें अपनी
नदी पर का बाँध ढहता है
तबाही मचा देता है
एसा ही होता है
जब तुम एकाएक झटकती हो
खोल कर ज़ुल्फें..



ज़ुल्फ -६



टूट गया
बिखर गया
सपनों की तरह मैं
कुचल गया
पिघल गया
मोम हो गया जैसे
फैल गया
अंतहीन समंदर की तरह मैं
खो गया
खामोश था
रात हो गया जैसे
और तार तार था
उलझी सी गुत्थी बन
ज़ुल्फ हो गया तेरी..



ज़ुल्फ -७



मुर्दा चाँदनी का कफन
जला देता है
कफन तो कफन है
ज़ुल्फ ढांप दो..



*** राजीव रंजन प्रसाद
७.०१.१९९६

Wednesday, June 13, 2007

मासूम जख्म..


जैसे गिलहरी कुतरती है दाने
मासूमियत से, बहुत हौले
तुमने सिर्फ छिलकों सा कर दिया है मन..
कितनी भोली तुम्हारी आँखों का
मुझको जो चीर गया था सावन
मैनें फिर डूब कर के तुममें ही
बूँद प्यारी सी तेरी पलकों से
अपनी उंगली पे थाम ही ली थी
जैसे सीने का अपने ही पत्थर
मैनें कंधे पे रख लिया अपनें
जैसे कि झुक गयी कमर मेरी
जैसे कि उम्र बीत जाती हो..
फिर वो मोती निगाह से छू कर
पी गया चूम कर वही सागर
तुमने सूनी सी आँख से देखा
जैसे कुछ भी न शेष हो तुम पर
फिर हवा बोलती रही केवल
और मछली की आँख आखों में
ले के बुत ही हो गया था मै
फिर न तुम्हे याद रहा कैसी घटा
फिर न मुझे याद रही वो टीसें
एक हल्का सा जो गुलाब खिला
तेरे भीगे हुए कपोलों पर
मेरे मन में उडे कबूतर फिर
फिर भी मैं क्यों बिखर गया हूं फिर
फिर भी मेरा वज़ूद क्यों खोया
ए मेरे प्यार, मेरी नज़्म, मेरे दिल
तेरी आँखों के अश्क खंजर हैं
मुझको क्यू कर सहे नहीं जाते
दोनो हाथों में ले के हौले से
जैसे कुतरा किये गिलहरी हो
तेरे मासूम ज़ख्म तो हैं पर
मेरे अहसास सह नहीं पाते..
*** राजीव रंजन प्रसाद
१४.११.१९९५

Monday, June 11, 2007

अगर आदमी नहीं होता


तुमने मुझको गलत तराशा है
मैं गुलाब की पंखुडी होता
या कि ताज के संगमरमर का टुकडा कोई
या कि बादल..
मोर का पंख हो गया होता
या कि उसकी पलकों में ठहरता मोती
या कि मेरी रूह किनारा होती
किसी दूर दीख पडते अंतहीन मझधार का..

तुमने पानी को आग से बांधा
तुमने पीडा को राग से बांधा
तुमने सागर भरा है सीने में
तुमने दिल मोम का बनाया है
तुमने मन से पतंग बांधी है
तुमने दरिया को दरख्त कर दिया है
तुमने सोचा ये किस किये
सागर सूख जाता तो बस हवा होता
मैं अगर आदमी नहीं होता
खुदा होता..

*** राजीव रंजन प्रसाद
९.०१.१९९६

Sunday, June 10, 2007

नाउम्मीदी..

पेड के बिलकुल उपर की
फुनगी पर बैठी खमोशी
मेरी निगह से अनबोली सी
देखती रही एकटक
ओह कि ये अनबोला
खलबला देता है मुझे
कि तुम्हारी बडी बडी आखें
एकदम से याद आती हैं
और मुस्कुराता चेहरा भी
कि देखें कबतक न बोलोगे
और तुम्ही बोलोगे पहले
उफ कि वो खमोशी
उफ कि वो आतुरता
पिघल पिघल कर मोम की दीवार हो गयी
और हमारे बीच की खामोशी
सिमटती सिमटती ठहरी मेरी आँखों में
बैठ गयी फुनगी पर
उफ कि ये अनबोला
क्या फुनगी पर बैठ गयी चिडिया सा
फुर्र से उडेगा
और दूर क्षितिज तक देखता रहूंगा मैं
नाउम्मीदी फुनगी सी सिर हिलायेगी..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१६.११.१९९५

Friday, June 08, 2007

नींद और क्षणिकायें


नींद -१

ख्वाब टूटेंगे कांच की तरह
और नंगे पाँव जो चलना होगा
ज़िन्दगी फिर लहू लहू होगी
मुझको ख्वाबों में और जीनें दो
नींद तुम ओढ लो मुझे आ कर
और जानम के देश हो आयें...

नींद -२

नींद नदी हो गयी
और मैनें तुम्हे देखा चाँद
बिलकुल क्षितिज पर जहाँ नदी मुडती है
मैं कागज़ की कश्ती को हाथों से खेता था
आह कि साहिल पर रेत ही रेत रही
तुम डूब गये
भोर का ख्वाब था

नींद -३

रात रहे नींद रहे और आफताब रहे
मुझसे सच को परे हटा के रखो
मुझको सोने दो और जीने दो
रात होती तो दिन निकलता है
गम का सूरज भी तभी ढलता है
दिन निकलता है रात होती है
और ख्वाबों के टूटते मोती
फिर बटोरो कि रात हो जाये
मेरे ख्वाबों का फिर सवेरा हो
हमनें माना कि खाब का क्या है
खाब तो फिर भी एक खाब रहे
फिर भी जीनें की हमें हसरत है
रात रहे, नींद रहे और आफताब रहे..

नींद -४

रात और चांद का एक रिश्ता है
नींद और चांद का एक रिश्ता है
मेरा और चांद का एक रिश्ता है
मै, नींद, रात और चांद
जब इकट्ठे होते हैं
महफिलें सजती हैं
और ज़िन्दगी जाग जाती है..

नींद -५
तुम न आओ न सही
नींद तो आये मुझको
रात आँखों में कट गयी तो सनम
फिर मुलाकात कब कहाँ होगी?

नींद -६

आप तो जाते रहे
फिर नींद भी जाती रही
आसमां की चांदनी
हमको जलाती भी रही
वो एक ख्वाब जो आँखें खुले
देखा किये हम रात भर
जलती रही अपनी चिता
जैसे जला करते अभी
जब बुझ गये बस राख थे
आ कर कहीं से तुम तभी
ले चुटकियों में राख
माथे पर सजा ली
फिर जी गये हम
पलक झपकी
रात काली...

*** राजीव रंजन प्रसाद
६.११.२०००

Thursday, June 07, 2007

वे स्मृतियाँ..


वे स्मृतियाँ
बिलकुल एसी ही हैं
जैसे बोझिलता के बाद चाय की पहली घूंट
जैसे गहरी घुटन के बाद एक गहरी स्वांस
जैसे आकाश ताकती ज़मीन पर हलकी सी फुहार
जैसे मरूस्थल की दुपहरी में ठंडी बयार
जैसे महीनों की कश्मकश के बाद लिखी गयी नज़्म
जैसे वीरान आसमान पर बादलों से लड झगड
निकल ही आया कोई सितारा
जैसे गहरी खामोशी में बजता हुआ जलतरंग
जैसे भटके हुए जहाजी को दूर दीख पडती हुई ज़मीन
जैसे प्यासे को नज़र आयी मरीचिका
वे स्मृतियाँ
बिलकुल एसी ही हैं
जैसे बहुत कडी धूप के बाद
टुकडा भर छाँव..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२३.११.१९९५

मुस्कुरा दूँ बस..


खामोश रहने की बात
कुछ ऐसे हो
कि तुम्हारे होठों पर
अपनी उंगली रख कर
अपनी आखों को,
तुम्हारी पलकों पर
ठहर जाने दूं..


और खामोशी यूं टूटे
कि मेरी उंगली
कस कर दांतों में दाब लो तुम
आँखें जुगनू कर लो
मैं उफ भी न करूं
मुस्कुरा दूं बस
बहुत हौले..


*** राजीव रंजन प्रसाद
९.११.१९९५