Monday, August 14, 2017

बस्तर के नाग और उनकी जड़ें (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 57)


नागों की तीन मुख्य शाखाओं ने कर्नाटक को अपनी कर्मस्थली बनाया। ये तीन शाखाये हैं - सेन्द्रक शाखा; सेनावार शाखा तथा सिन्द शाखा।  नागों की सेन्द्रक शाखा दक्षिण का शक्तिशाली राजवंश बन कर उभरी और उसका प्रभुत्व कर्नाटक में पाँचवी से सातवी शताब्दी तक रहा है। प्राप्त अभिलेख बताते हैं कि नाग राजा भानुशक्ति ने सेन्द्रक नागों के साम्राज्य की स्थापना की थी। उसके बाद की पीढ़ियों के ज्ञात शासकों में आदित्यशक्ति  और पृथ्वीवल्लभ निकुम्भलशक्ति प्रमुख नाग शासक थे। अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है कि कर्नाटक में शासन करने वाले इन सेन्द्रक नागों ने एक समय में गुजरात के एक भाग तक अपनी सीमा का विस्तार कर लिया था। नागों की अगली कड़ी अर्थात सेनावार शाखा कर्नाटक के कडूर और सिमोगा के के आसपास अत्यधिक प्रभावशाली थी। इनका शासन समय उतार चढ़ावों भरा रहा है। फणिध्वज सेनावार शाखा के नागों का राजकीय प्रतीक था। सेनावार नागों की सत्ता के संस्थापक नाग राजा जीविताकार माने जाते हैं जिनके पश्चात की ज्ञात पीढ़ियाँ हैं जीमूतवाहन तथा मारसिंह। अंतिम सेनावार नाग शासक के सम्बन्ध में जानकारी वर्ष- 1058 के आसपास प्राप्त होती हैं; संभवत: इसके पश्चात इस नाग शाखा का पतन हो गया। 

तीसरी, सिन्द शाखा की छ: उपशाखायें हुई और उन्होंने दक्षिण भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर अपनी सत्ता कायम की। इन छ: शाखाओं में चार अर्थात बगलकोट के सिन्द, येलबुर्गा के सिन्द, बेलगविट्ट के सिन्द तथा बेल्लारी के सिन्द नागों ने कर्नाटक में तथा दो अर्थात चक्रकोट के सिन्द तथा भ्रमरकोट के सिन्द ने बस्तर में शासन स्थापित किया। छिन्द शब्द सिन्द से ही उत्पन्न हुआ है। (चक्रकोट के छिन्दक नाग; डॉ. हीरालाल शुक्ल)। बस्तर में नागवंश एक वैभवशाली सत्ता रही है जिसने 760 ई से 1324 ई. तक शासन किया। आज बस्तर में प्राप्त पुरातात्विक महत्व की अधिकतम ज्ञात विरासतें नाग शासकों की निर्मितियाँ हैं। 

- राजीव रंजन प्रसाद

==========

Sunday, August 13, 2017

भोई से पामभोई (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 56)


वर्ष 1324, वारंगल से 200 घुडसवारों के साथ चालुक्य राजकुमार अन्नमदेव ने गोदावरी पार कर भोपालपट्टनम में प्रवेश किया। भद्रकाली संगम की ओर से नदी पार करने के पश्चात अन्नमदेव ने साथियों के साथ भोपालपट्टनम किले पर धावा बोल दिया। यह अप्रत्याशित था चूंकि दो ओर से पर्वत श्रंखलाओं से एवं दो ओर से इंद्रावती और गोदावरी जैसी विशाल नदियों के मध्य सुरक्षित यह किला लगभग अजेय माना जाता था। अन्नमदेव जब किले के भीतर दाखिल हुए तो उन्होंने पाया कि महल खाली था, नाग राजा अपने बन्धु-बांधवों के साथ दुर्ग से पलायन कर गया था। बिना रक्तपात के यह पहली विजय अन्नमदेव के हाथ लगी। विजित महल क्या था, कच्ची मिट्टी की दीवारें और खपरैल की छत। वे जान गये थे कि इस विजय में किसी खजाने को पाने की आस तो छोड़ ही देनी चाहिये। 

सभी सैनिक तथा उपस्थित प्रजाजन भी तब आश्चर्य से भर गये जब राजा ने अपने पालकी उठाने वाले साथी नाहरसिंह भोई को भोपालपट्टनम का जागीरदार नियुक्त कर दिया। नाहरसिंह की इस नियुक्ति के पीछे अन्नमदेव के कई हित थे। पहला कि नाहर भी भोपालपट्टनम की प्रजा की तरह ही एक गोंड थे, दूसरा यह कि इसी तरह वे अपने शुभचिंतकों और विश्वासपात्रों को पुरस्कृत कर सकते थे। नाहरसिंह की स्वीकार्यता के पीछे एक किम्वदंती ने बडी भूमिका अदा की है। भोपालपट्टनम के जमीदार ‘भोई’ कैसे ‘पामभोई’ कहलाये इसके पीछे एक रोचक कहानी है। कहा जाता है कि अन्नमदेव जब अपने दल-बल के साथ गोदावरी नदी को पार कर रहे थे तब अचानक बहुत तेज हवा चलने लगी। पल भर में लगा कि सभी नावें डूब जायेंगी। हम सबने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा सा पाम (अजगर) प्रकट हुआ था। नाहरसिंह ने भाले से आगे आ कर उस पाम का सामना किया और मार गिराया। उनकी इसी वीरता के कारण नाहरसिंह तथा उनके वंशजो को पामभोई नाम से जाना गया। 

- राजीव रंजन प्रसाद

==========



Saturday, August 12, 2017

रानी से महारानी बनायी गयीं प्रफुल्ल कुमारी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 55)


बस्तर के राजाओं को कठपुतली बनाये रखने के लिये अंग्रेजों को जो भी यत्न करना पड़ा उन्होंने निरंतर किया है। बस्तर राज्य की शासिका प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921 – 1936 ई.) का सम्बोधन 1 अप्रैल 1933 में “रानी” से बदल कर “महारानी” कर दिया गया। यह ब्रिटिश फैसला आश्चर्यजनक था चूंकि जिस राज्य को दोनों हाँथों से चूसा जा रहा हो उसे चर्चा का विषय बनाना अथवा महत्ता देना भी अंग्रेज क्यों चाहेंगे? राजा रुद्र प्रताप देव (1891 – 1921 ई.) के रहस्यमय देहावसान के बाद तथा राजकुमारी प्रफुल्ल के राज्यारोहण के बाद भी अंग्रेजों ने राज्याधिकार देने सम्बन्धी निर्णय को वैधानिक मान्यता देने में लम्बा समय लगाया। प्रफुल्ल कुमारी देवी को शासक स्वीकार करने से पूर्व असंतोष तथा पारिवारिक विवादों को हवा दी गयी। राजा की विधवा कुसुमलता, भाईयों के बेटों तथा ब्रिटिश अधिकारियों के बीच आपसी खींचतान लम्बे समय तक बनाये रखी गयी। प्रफुल्ल कुमारी देवी को राजा की एकमेव संतान होने के कारण वैध उत्तराधिकारी घोषित किया गया, किंतु यही उन्हें राज्याधिकार देने का एकमेव कारण नहीं था। अंग्रेज अब बस्तर पर अपनी सम्पूर्ण पकड चाहते थे, जिसके लिये उनकी मान्यता थी कि अल्पायु रानी को वे दबाव में रख सकेंगे। राजा के निधन के एक वर्ष बाद अर्थात 22.11.1922 को प्रफुल्ला को शासिका और रानी होने की मान्यता प्राप्त हुई थी।

अंग्रेजों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में तीव्र होते स्वतंत्रता आंदोलनों के कारण अनेक तरह के दबावों का सामना करना पड रहा था। ऐसे में सैंकडों राजतंत्रों में बटे हुए भारत देश के राजा-रजवाडों को  अंग्रेज कभी दबाव डाल कर तो कभी सांकेतिक लाभ प्रदान कर अपनी जकडन में बनाये रखना चाहते थे। अंग्रेजों ने महारानी प्रफुल्ल के हाँथों में ऐसा शासन सौंपा जिसकी तकदीर या तो रायपुर में बैठ कर लिखी जाती या फिर शिमला, या देहली में। उनकी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी शिक्षक-शिक्षिकाओं द्वारा इस तरह की गयी थी जिससे यह समझने में भूल न हो कि सम्राट जॉर्ज पंचम के शासन में देसी महाराजे-महारानियाँ केवल दिखावे का सामान हैं; कठपुतलियाँ हैं। ऐसे में महारानी सम्बोधन के अपने राजनीतिक मायने जो भी हों किंतु इससे उस दौर में बस्तर रियासत, अंग्रेजकालीन भारत के प्रमुख सामंती राज्यों में शुमार हो गया था। ‘महारानी’   सम्बोधन प्रदान किये जाने का एक कारण यह भी था कि बस्तर भौगोलिक दृष्टि से बडे भूभाग में विस्तृत था। इतनी भूमि मुख्यधारा में प्रभावशाली तथा तोपों की सलामी लेने वाले राजे-रजवाडों के पास भी नहीं थी।   

-  राजीव रंजन प्रसाद
===========

Friday, August 11, 2017

रामलीला से आरम्भ हुआ बस्तर में रंगकर्म (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 54)


बस्तर में ज्ञात रंग कर्म का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। सन 1913 में बनारस से एक रामलीला मंडली राजधानी जगदलपुर पहुँची। मंड़ली ने कई दिनों तक राजमहल में रामलीला का मंचन किया। इससे प्रभावित हो कर सन 1914 में राजा रुद्रप्रताप देव ने एक रामलीला मंडली की स्थापना की। यह एक तरह से जगदलपुर में रंगमच का आरंभ था। भव्य रामलीला हुआ करती थी। पात्रों का चयन करते हुए उनकी आयु, कद काठी और स्वभाव तक का ध्यान रखा जाता। स्त्री पात्रों का किरदार भी पुरुष करते थे। राम, लक्ष्मण और सीता पात्रों को मंच पर आने के लिये उपवास करना पड़ता था। राज्य की ओर से पात्रों की नियुक्तियाँ होती तथा उन्हें जीवन यापन की अनेकों सुविधायें प्रदान की जाती। रामलीला का मंचन सीरासार में तथा राजमहल में गणेशोत्सव, दशहरा, जन्माष्टमी और रामनवमी के अवसरों पर भव्य स्वरूप में राज्य के खर्च पर किया जाता था। इस आयोजन में आरती से प्राप्त राशि पर भी रामलीला मण्डली तथा रंगकर्मियों का ही अधिकार होता था। लीला में ‘राम की बारात’ जैसे प्रसंगों की शोभायात्रा में राज्य पुलिस के घुड़सवार तथा पैदल सिपाही सम्मिलित होते थे। 

राजतंत्र ने अपनी समयावधि में रंगकर्म को प्रोत्साहित किया और इस कारण अनेक संगठन खडे हुए,  रंगकर्मियों की तादाद बढी और कई बेहतरीन नाटक मंचित किये गये। राजा रुद्रप्रताप देव की स्थापित परम्परा को डॉ. अविनाश बोस तथा कुँअर अर्जुन सिंह ने एमेच्योर थियेट्रिकल सर्विस के नाम से आगे बढ़ाने का यत्न किया। वर्ष 1927 में अंचल में छदामीलाल पहलवान ने नौटंकी का सूत्रपात किया। 1929 में छोटे लाल जैन ने प्रेम मण्डली नाट्य संस्था की स्थापना की जिसका प्रदर्शित नाटक ‘हरिश्चंद’ महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी के द्वारा बहुत सराहा गया था। 1929 में जगदलपुर के महार-कोष्टा समाज ने सीताराम नाटक मंडली का गठन किया जिनका नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ सर्वाधिक चर्चा में रहा। 1939 में बाल समाज जी स्थापना हुई जिसका सर्वाधिक चर्चित नाटक था ‘सीता वनवास’। पैट्रोमैक्स और चिमनियों की रोशनी में काम करने वाली इस संस्था ने 1940 में अपना नाम बदल कर सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख लिया। व्याकुल भारत, असीरेहिंद, दानवीर कर्ण आदि इस संस्था द्वारा प्रदर्शित चर्चित नाटक थे। इस संस्था ने 1946 में लाला जगदलपुरी लिखित नाटक "पागल" का मंचन किया था जो बहुत चर्चा में रहा था। आज मीडिया के दखल, सिनेमा की चकाचौंध तथा वैकल्पिक मनोरंजन के साधनों ने रंगकर्म को पर्याप्त क्षति पहुँचायी है, तब भी साँसे ले रहा है बस्तर में रंग कर्म। अब भी सक्रिय हैं अनेक पुराने नये रंगकर्मी। महत्वपूर्ण बात यह कि बस्तर में रंगकर्म का अपना गौरवशाली अतीत है।

 - राजीव रंजन प्रसाद
==========

Wednesday, August 09, 2017

आस्था और मनोकामना (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 53)


बस्तर में चालुक्य वंश के संस्थापक अन्नमदेव से ले कर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव तक सभी की देवी दंतेश्वरी पर प्रगाढ आस्था थी। इस आशय के अनेक दृष्टांत, विवरण अथवा किम्वदंतियाँ पढ़ने सुनने को मिलती रहती हैं। बस्तर में राजा राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) का शासन समय नितांत उथलपुथल का दौर भी था। राजमहल के भीतर किये जाने वाले षडयंत्रों की बहुधा खबरें बाहर नहीं आ पातीं, लेकिन वहीं से किसी राज्य की भविष्य की राजनीतियाँ तय हुआ करती थीं।  ऐसी की एक कहानी राजा राजपालदेव की भी है जिनकी दो रानियाँ थी – रुद्रकुँवरि बघेलिन तथा रामकुँवरि चंदेलिन। रानी रुद्रकुँवरि से दलपत देव तथा प्रताप सिंह राजकुमारों का जन्म हुआ तथा रानी रामकुँवरि के पुत्र दखिन सिंह थे। 

प्रिय रानियों ने शासक पतियों से सर्वदा अपना मनचाहा करवा लिया है। रानी रामकुँवरि अपने पुत्र दखिन सिंह को अगला राजा बनाना चाहती थी। इस प्रयास में आवश्यक था कि राजधानी पर प्रिय बेटे की पकड़ मजबूत की जाये। रामकुँवरि की साजिश के अनुसार ही चलते हुए राजा राजपाल देव ने अपनी दूसरी रानी रुद्रकुँअरि के पुत्रों, राजकुमार दलपत देव को कोटपाड़ परगने तथा प्रतापसिंह को अंतागढ़ मुकासा का अधिपति बना कर राजधानी से बाहर भेज दिया गया। यह पूरी कवायद इस लिये थी जिससे कि वयोवृद्ध राजा के स्वर्गवास के बाद राजकुमार दखिन सिंह को निष्कंटक रूप से बस्तर के राजसिंहासन पर बैठाने में आसानी होती। कहते हैं कि बुरी नीयत से देखे गये सपने सच नहीं होते। राजकुमार दखिन सिंह किसी अज्ञात बीमारी के कारण बीमार पड़ गये। वैद्यों और ओझाओं ने सारे प्रयास करने के पश्चात नाउम्मीदी में सिर हिला दिया। राजकुमार के बचने की सारी उम्मीद जाती रही थी। अब आखिरी कोशिश के रूप में राजा ने दंतेश्वरी माँ के दरबार में अपने बेटे को उपस्थित कर दिया। मृत्यु से बचाने के लिये राजकुमार दखिन सिंह के शरीर को दंतेश्वरी माँ की मूर्ति के साथ बाँध दिया। देवी ने संभवत: राजकीय षडयंत्रों में पूर्णविराम लगाने का सुनिश्चित कर लिया था। रात्रि ही राजकुमार दखिन सिंह स्वर्ग सिधार गये। लाश के बोझ से रस्सियाँ टूट गयी और सुबह परिजनों ने देखा कि माँ दंतेश्वरी के चरणों में राजकुमार का मस्तक पड़ा हुआ था। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

========== 

Tuesday, August 08, 2017

कच्चा महल-पक्का महल (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 52 )


राजा दलपत देव ने जगदलपुर राजधानी के स्थानांतरण के पश्चात जिस राजमहल का निर्माण करवाया वह काष्ठ निर्मित थी एवं उसकी छत पर खपरैल लगायी गयी थी। वर्ष 1910 के महान भूमकाल आंदोलन के पश्चात ब्रिटिश शासन को यह महसूस होने लगा कि राजमहल तथा प्रशासकीय कार्यालय  मजबूत हों एवं इसके लिये पक्का निर्माण कराया जाये। इसके लिये महल के साथ लगे लम्बे-चौडे प्रांगण को घिरवा कर ईँटों की ऊँची दीवार से किलेबदी की गयी। दक्षिण दिशा की ओर इस किले का मुख्यद्वार बनवाया गया। दोनों ओर विशाल सिंह की आकृतियाँ निर्मित की गयी जिसके कारण मुख्यद्वार का नाम सिंहद्वार पड़ गया। चार दीवारी की अन्य दिशाओं में भी प्रवेश द्वार बनवाये गये। सिंह द्वार से लग कर पूर्व की ओर रियासत की कचहरी के लिये कक्ष निर्मित थे। दरबार-हॉल को अस्त्र शस्त्रों और चित्रों से सुसज्जित किया गया। महल के सामने, बागीचे में अनेकों जलकुण्डों का निर्माण किया गया जिसमें सुनहरी और लाल मछलिया डाली गयीं। उद्यान को आधुनिकता देने के लिये सुन्दर युवती की मूर्ति स्थापित की गयी जिसके घडे से निरंतर जल गिरता रहता था। महल की पूर्व दिशा में हिरण और सांभरों को रखने के लिये लोहे के बाडे से घेर कर जगह बनायी गयी। स्थान-स्थान पर सीमेंट से बनाये गये जलकुण्ड थे जिनमें जानवरों के पीने के लिये पानी का निरंतर प्रवाह रखा जाता था। हाथीसाल, घुडसाल, बग्घियों को रखने के स्थल आदि का निर्माण महल परिधि में ही किया गया। अहाते के भीतर ही महल प्रबंधक तथा महल सुप्रिंटेंडेट के आवास बनवाये गये। महल की दीवारों से लग कर कई आउट हाउस थे, जिसमें राजकीय कर्मचारी रहा करते थे। राजा ने अपनी प्रतिष्ठा तथा शौर्य प्रदर्शन के लिये बाघ पाला, जिसे महल के सम्मुख ही पिंजरे में रखा जाता था। इसी दौर में मोटरगाडियाँ भी चलने लगी। परम्परागत हाँथी की जगह राजा के पास भी रोल्स रॉयस कार आ गयी थी। महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी  ने भी अपने शासन समय में राजमहल में कई बदलाव किये। पिता के बनवाये महल से जोड़ कर अपने रहने के लिये आधुनिक सुविधाओं से युक्त नया महल बनवाया। इस महल के भूतल में ‘बिलियर्ड्स हॉल’  बनवाया गया। महल के उत्तरी दरवाज़े से लगा कक्ष ‘डॉल हाउस’ था, जिसमें राजकुमार-राजकुमारियों के खिलौने रखे हुए थे (दो महल, डॉ. के के झा)। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

==========

गोलकुण्डा की शह पर भेजी विद्रोह (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 51)


इतिहास को जनश्रुतियों और लोकगीतों से भी खुरच कर निकाला जा सकता है। विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा के दौरान पोटानार (जगदलपुर) के ग्रामीण रथ के आगे नाचते गाते चलते हैं तथा अनेक ऐसे गीत गाते हैं जिनमे ऐतिहासिकता के पुट हैं। महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव अपनी कृति लौहण्डीगुडा तरंगिणी में इस अवसर पर गाये जाने वाले चूडामन गीत का उल्लेख करते है। यह गीत एक कथा पर आधारित है जो बस्तर में राजा वीरसिंह देव (1654-1680 ई.) के शासन समय को प्रस्तुत करता है। अपने दरबार में राजा वीरसिंह, दीवान चूडामन से प्रश्न करते हैं कि क्या राज्य के अंदर की सभी जमीदारियाँ मेरे शासन के प्रति वफादार हैं?  दीवान उत्तर देते हैं कि भेजी जमीदारी को छोड कर अन्य सभी जमीदार राज्य शासन के लिये प्रतिबद्ध हैं। राजा को यह बात नागवार गुजरती है और वे भेजी के जमीदार का दमन करने के लिये दीवान को सेना ले कर जाने का आदेश देते हैं। इस कहानी में मोड़ तब आता है जब भेजी के निवासी जगराज और मतराज नाम के दो भाई चतुराई से सेना में प्रवेश कर जाते हैं तथा चूडामन का विश्वास अर्जित कर लेते हैं। वे बाध्य करते हैं कि वन्य मार्ग में उनके मनचाहे तथा पूर्वनियोजित स्थान पर शिविर लगाया जाये। शिविर लगाया जाता है जिसपर रात में भेजी के सैनिक हमला कर देते हैं। अफरातफरी का वातावरण निर्मित हो जाता है तथा राजा की सेना को बाध्य हो कर पीछे हटना पडता है। 

इस गीत में अंतर्निहित कहानी को तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों के सामने रख कर देखना चाहिये। भेजी का विद्रोह वस्तुत: गोलकुण्डा के कुतुबशाही सल्तनत की शह पर था। गोलकुण्डा, जो भेजी से लगा हुआ बड़ा और शक्तिशाली राज्य था उसे भौगोलिक रूप से सुरक्षित बस्तर में अपनी पैठ स्थापित करने के लिये भेजी के जमीदार को प्रभाव में ले कर उकसाना उचित लगा। यद्यपि इस विद्रोह का दमन कर दिया गया। इसके पश्चात से भेजी जमीदारी हमेशा बस्तर राज्य का हिस्सा बनी रही।  

- राजीव रंजन प्रसाद

==========

विजय-पराजय (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 50)


एक बड़ी विजय कैसे निर्णायक पराजय में बदल जाती है इसका उदाहरण भूमकाल आंदोलन का आखिरी चरण है। आंदोलन के दमन के लिये 24 फरवरी 1910 की सुबह मद्रास और पंजाब बटालियन जगदलपुर पहुँच गयी। जबलपुर, विजगापट्टनम, जैपोर और नागपुर से भी 25 फरवरी तक सशस्त्र सेनायें जगदलपुर आ पहुँची थी। राजधानी की सड़कों पर फ्लैग मार्च किया गया। यह एक अपराजेय ताकत थी। विद्रोही राजधानी और आसपास से पीछे हटने को बाध्य किये गये। ब्रिटिश कमांडर गेयर तक खबर पहुँच गयी कि विद्रोही अब उलनार गाँव के पास एकत्रित हो रहे हैं। आधी रात को आदिवासियों पर कायराना-अंग्रेज आक्रमण किया गया। भोर की पहली किरण के साथ ही युद्ध समाप्त हो सका। अलनार गाँव से विद्रोही पलायन कर गये। विद्रोहियों के तितर बितर होते ही दि ब्रेट ने छब्बीस-फरवरी को ताडोकी पर हमले का आदेश दे दिया। आधे घंटे की गोलाबारी के बाद ही लाल कालेन्द्रसिंह गिरफ्तार किये जा सके। उनके मकान में आग लगा दी गयी। पाँच-मार्च को तैयारी के साथ राजमाता सुबरन कुँअर के आवास पर छापा मारा गया। राजमाता को गिरफ्तार कर राजमहल लाया गया; उन्हें नजरबंद कर दिया गया। 

25 मार्च, 1910 को उलनार भाठा के निकट सरकारी सेना का पड़ाव था। गुण्डाधुर को जानकारी दी गयी कि गेयर भी उलनार के इस कैम्प में ठहरा हुआ है। डेबरीधुर, सोनू माझी, मुस्मी हड़मा, मुण्डी कलार, धानू धाकड़, बुधरू, बुटलू जैसे राज्य के कोने कोने से आये गुण्डाधुर के विश्वस्त क्रांतिकारी साथियों ने अचानक हमला करने की योजना बनायी। एक घंटे भी सरकारी सेना विद्रोहियों के सामने नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई। लेकिन उसी रात यह विजय अंतिम पराजय में बदल गयी। किसी लालच के वशीभूत गुण्डाधुर का ही एक विश्वासपात्र साथी सोनू माझी, गेयर से मिल गया तथा उसकी सूचना के आधार पर विद्रोही सेना का दमन कर दिया गया। सुबह इक्क्सीस लाशें माटी में शहीद होने के गर्व के साथ पड़ी हुई थी। गुण्डाधुर को पकड़ा नहीं जा सका लेकिन डेबरीधूर और अनेक प्रमुख क्रांतिकारी पकड़ लिये गये। गेयर बाजार में नगर के बीचो-बीच इमली के पेड़ में डेबरीधूर और माड़िया माझी को लटका कर फाँसी दी गयी। इसके साथ ही महान भूमकाल कभी न भुलायी जाने वाली दास्तान बन कर इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

==========

Sunday, August 06, 2017

ताड़-झोंकनी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 49)


राजा दलपतदेव (1731-1774 ई.) ने अपनी पटरानी के बेटे राजकुमार अजमेरसिंह को डोंगर का अधिकारी बनाया था। उस समय डोंगर क्षेत्र भयानक अकाल से जूझ रहा था तथा जनश्रुतियाँ कहती हैं कि आजमेरसिंह के कुशल प्रबन्धन के कारण ही यहाँ निवासरत हलबा जनजाति की प्रजा उनकी अभिन्न सहयोगी हो गयी थी। राजा के देहावसान के समय अजमेरसिंह ड़ोंगर में ही थे। उनके भाई दरियाव देव ने सिंहासन पर अधिकार करने के लिये डोंगर पर हमला बोल दिया, लेकिन वे भीषण और अप्रत्याशित हलबा प्रतिरोध के आगे टिक न सके। उनके राजधानी जगदलपुर भाग आने के बाद अगले आक्रमण की तैय्यारी होने लगी। आजमेर सिंह ने अपने मामा और कांकेर के राजा से सैन्य सहायता प्राप्त कर जगदलपुर पर धावा बोल दिया जहाँ पुन: पराजित होने के बाद दरियावदेव जैपोर की ओर भाग गये। आजमेर सिंह (1774-1777 ई.) का इसके पश्चात ही विधिवत राज्याभिषेक हो सका। हलबा विद्रोही इस बात से निश्चिंत हो कर कि अब आजमेरसिंह बस्तर के राजा हो गये हैं, डोंगर लौट गये। 

दरियावदेव ने जैपोर के राजा से युद्ध खर्च के अलावा कोटपाड़, चुरुचुंड़ा, पोड़ागढ़, ओमरकोट और रायगड़ा परगने, देने के नाम पर समझौता कर लिया। अपनी विजय को और निश्चित बनाने के लिये दरियावदेव ने मराठों से भी बस्तर के स्वाधीनता की संधि कर ली। इन संधियों की बिसात पर दरियावदेव की एक विशाल सेना तैयार हो गयी। हलबा योद्धाओं ने इस युद्ध में भी राजा आजमेर सिंह के लिये अभूतपूर्व बलिदान दिये। अंतत: दरियाव देव ने जगदलपुर पर अधिकार कर लिया। आजमेरसिंह मार डाले गये। हलबा लड़ाके अपने नायक को खो देने के बाद भी विद्रोह करने पर उतारू थे। कई मोर्चों पर छापामार हमले हुए। विद्रोह का निर्दयता से दमन भी किया गया। पकड़े गये विद्रोहियों की आँखें निकाल ली गयीं तो कुछ हलबा विद्रोही चित्रकोट जलप्रपात से नीचे धकेल दिये गये। दरियावदेव हलबा विद्रोह को इस तरह दबाना चाहते थे कि एक उदाहरण बन जाये। दरियावदेव ने विद्रोहियों की सजा-ए-मौत को खेल बना दिया था; एक जनश्रुति के अनुसार शर्त रखी गयी कि ताड़ का पेड़ काटा जायेगा। जो विद्रोही अपने हाँथों में पेड़ को थाम लेगा और गिरने नहीं देगा उसे छोड़ दिया जायेगा। मौत हर हाल में थी लेकिन हलबा वीरों ने शान से मरना स्वीकार किया। पेड़ काटे जाते रहे और एक एक विद्रोही चिरनिंद्रा में सुलाया जाता रहा। इस कथा को ‘ताड़-झोंकनी’ के नाम से स्थानीय आज भी याद करते हैं। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
==========

Saturday, August 05, 2017

वीर गेंद सिंह की शहादत (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 48)


परलकोट नैसर्गिक स्थल है। उसकी सीमा को एक ओर से कोतरी नदी निर्धारित करती है। तीन नदियों का संगम परलकोट की सुन्दरता को चार चाँद लगा देता है। यहाँ के जमीन्दार को भूमिया राजा की उपाधि प्राप्त थी। ऐसी मान्यता है कि उनके पूर्व-पुरुष चट्टान से निकले थे। बस्तर के राजा भी इस किंवदंति को मान्यता देते थे इस लिये परलकोट के जमीन्दार को राज्य में विशेष दर्जा और सम्मान हासिल था, जो मराठा-आंग्ल शासन ने अमान्य कर दिया। गेन्दसिंह इस बात से आहत थे। उनके नेतृत्व में परलकोट विद्रोह (1825 ई.) ने आकार लिया। धावड़ा वृक्ष की टहनियों को विद्रोह के संकेत के रूप में एक गाँव से दूसरे गाँव भेजा गया। पत्तियों के सूखने से पहले ही टहनी पाने वाले ग्रामीण, विद्रोही सेना के साथ मिल जाते थे। लोगों को संगठित करने तथा योजना बनाने में घोटुलों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। धनुष-वाण, कुल्हाड़ी और भाला ले कर हजारों की संख्या में वीर अबूझमाड़िये निकल पड़ते, फिर कभी मराठा संपत्ति जला दी जाती तो कही उनके व्यापारिक या सैनिक काफिले लूट लिये गये। गेन्द सिंह ने चमत्कार कर दिखाया। अब तक राजा या सामंत के लिये मर-मिटने वाले अबूझमाड़िये अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे। स्वयं पर अपनी मर्जी के शासन का हक पाने के लिये बहुत कम संघर्ष इतिहास में दर्ज हैं। इसके साथ ही इस विद्रोह में नये टैक्सों की खिलाफत भी थी। छतीसगढ़ सूबे के ब्रिटिश अधीक्षक मेजर एगन्यू को सीधा हस्तक्षेप करना पड़ा। चाँदा से सेना बुला ली गयी, पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेव को निर्देश दिये गये कि परलकोट विद्रोह को निर्ममता से कुचल दिया जाये। बंदूखों के आगे परम्परागत हथियारों से नहीं लड़ा जा सकता था। 20 जनवरी 1825, को विद्रोह का पूरी तरह से दमन करने के पश्चात परलकोट परगने की प्रजा और दूर-सुदूर से हजारो अबूझमाड़ियाओं के सामने निर्दयता से एक पेड़ की टहनी पर उपर खींच कर गेन्द सिंह फाँसी पर लटका दिये गये। बस्तर भूमि वीर गेंदसिंह की इस शहादत का आज भी पूरी श्रद्धा से स्मरण करती है। 

- राजीव रंजन प्रसाद
========== 

Thursday, August 03, 2017

स्त्रीराज्य बस्तर और महारानी प्रमिला (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 47)


महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात युधिष्ठिर ने जब अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा था, तब उस घोड़े की रक्षा में स्वयं अर्जुन सेना के साथ चले थे। दक्षिण की ओर चलते चलते युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा “स्त्री राज्य” में पहुँच गया। - “उवाच ताम महावीरान वयं स्त्रीमण्डले स्थिता:” (जैमिनी पुराण)। स्त्री राज्य (कांतार) की शासिका का नाम प्रमिला था। उल्लेखों से ज्ञात होता है वह बड़ी वीरांगना थी। प्रमिला देवी के आदेश से अश्वमेध यज्ञ के उस घोड़े को बाँध कर रख लिया गया। घोड़े को छुड़ाने के लिये अर्जुन ने रानी प्रमिला तथा उनकी सेना से घनघोर युद्ध किया; किन्तु आश्चर्य कि अर्जुन की सेना लगातार हारती चली गयी। स्त्रियाँ युद्ध कर रही थीं इसका अर्थ यह नहीं कि वे साधन सम्पन्न नहीं थी जैमिनी पुराण से ही यह उल्लेख देखिये कि किस तरह स्त्रियाँ रथों और हाँथियों पर सवार हो कर युद्धरत थीं – “रथमारुद्य नारीणाम लक्षम च पारित: स्थितम। गजकुम्भस्थितानाम हि लक्षेणापि वृता बभौ॥” इसके बाद युद्ध का जो वर्णन है वह प्रमिला का रणकौशल बयान करता है। प्रमिला ने अपने वाणों से अर्जुन को घायल कर दिया। अब अर्जुन ने छ: वाण छोड़े जिन्हें प्रमिला ने नष्ट कर दिया। विवश हो कर अर्जुन को ‘मोहनास्त्र’ का प्रयोग करना पड़ा जिसे प्रमिला ने अपने तीन सधे हुए वाणों से काट दिया। अब प्रमिला अर्जुन को ललकारते हुए बोली – “मूर्ख! तुझे इस छोटी सी लड़ाई में भी दिव्यास्त्रों का अपव्यय करना पड़ गया” –प्रमीला मोहनास्त्रं तत सगुणम सायकैस्त्रिभि:। छित्वा प्राहार्जुनं मूढ़! मोहनास्त्रम न भाति ते॥  इस उलाहने ने अर्जुन के भीतर ग्लानि भर दी। अब अर्जुन ने रानी प्रमिला के समक्ष विनम्रता का परिचय दिया एवं संधि कर ली। इसके बाद ही यज्ञ के घोड़े को मुक्त किया गया। 

- राजीव रंजन प्रसाद

=========== 

नमक के बोरे में आक्रांता (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 46)


राजा दलपतदेव (1731-1774 ई.) के समय तक मराठा राज्य की सीमा बस्तर से लग गयी थी। मराठा शासकों ने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत पहले रतनपुर पर विजय हासिल की तथा इसके पश्चात नीलू पंडित के नेतृत्व में वर्ष 1756 को बस्तर पर आक्रमण कर दिया। मराठा सरदार नीलू पंडित को नीलकंठ पंडित के नाम से भी जाना जाता है जबकि लौहण्डीगुडा तरंगिणी के लेखक महाराजा प्रवीर उसे नीलू पंथ सम्बिधित करते हैं। आक्रमण होते ही राजा दलपत देव ने योजना के अनुसार अपनी सेना को जंगल की ओर हटने का निर्देश दिया। मराठा सेना बिना रक्तपात के मिली जीत से उत्साहित हो गयी। इसी बीच, दलपतदेव के सैनिकों ने मराठा सेना को बाहर से मिलने वाली मदद के सारे रास्ते बंद कर दिये। पूरी तैयारी के बाद भयानक आक्रमण किया गया। मराठे बुरी तरह ध्वस्त हुए। नीलू पंड़ित एक बंजारे की सहायता से नमक के बोरे में छिप कर भाग गया।

दि ब्रेट (1909) विवरण देते हैं कि नीलू पंडित ने एक बार पुन: बस्तर पर शक्तिशाली आक्रमण लिया था। निस्संदेह मराठा सेना बस्तर की तुल्ना में अधिक ताकतवर और प्रशिक्षित थी किंतु वे इस अंचल के भूगोल के आगे विवश थे। युद्ध जीता गया। दलपत देव के प्रत्याक्रमण का अंदेशा पाते ही इस बार सतर्क नीलू पंडित लूट खसोट से ही संतुष्ट हो कर भाग निकला। यद्यपि उसने महारानी को कैद कर लिया, उन्हें जैपोर मार्ग से पुरी ले जाया गया जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी। सभी विवरणों को विवेचनात्मक दृष्टि से देखें तो यह ज्ञात होता है कि अनेक कोशिशों के बाद भी मराठा शासक राजा दलपत देव को अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिये बाध्य नहीं कर सके थे। लगातार होने वाले मराठा आक्रमणों ने ही राजा दलपतदेव को अपनी राजधानी बस्तर से बदल कर जगदलपुर ले जाने एवं उसकी मजबूत किलेबंदी करने के लिये बाध्य कर दिया था।      

- राजीव रंजन प्रसाद 
=========== 

Tuesday, August 01, 2017

बल, छल, वीरगति और विजय (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 45)


सत्ता को ले कर पारिवारिक खींचातानी, षडयंत्र, छल आदि एक दौर की सामान्य घटना हुआ करती थी। ऐसे में स्थिति तब अधिक जटिल हो जाती थी जब आंतरिक कलह का लाभ उठा कर निकटवर्ती राज्य आक्रमण कर दे। बस्तर में ऐसा ही एक समय तब आया जब भीषण अकाल पड़ा। यह दौर राजा वीरनारायण देव (1639-1654 ई.) के शासन का था। राज्य विपरीत परिस्थितियों से जूझ ही रहा था कि आक्रमण हो गया। चांदा के गोंड शासक बल्लारशाह के पास यह सुअवसर था कि वे बस्तर पर अपना अधिकार कर लें। पूरी ताकत से उन्होंने आक्रमण किया और भयावह युद्ध में बस्तर के राजा वीरनारायण देव वीरगति को प्राप्त हुए। इसके पश्चात भी युद्ध नहीं रुका और हार कर चांदा की सेना को पलायन करना पड़ा।    

युद्धभूमि में पिता की मौत के बाद उत्तराधिकार का संघर्ष उसके दो पुत्रों के बीच हुआ जिसके बाद वीरसिंह देव (1654-1680 ई.) ने सत्ता की बागडोर अपने हाँथ में ली। उन्होंने अपने समय में राजपुर दुर्ग का निर्माण करवाया था। वीरसिंह का समय भीजी जमीन्दारी के विद्रोह को शह दे कर बस्तर में अपना हस्तक्षेप कायम रखने वाली कुतुबशाही से निर्णायक छुटकारा पाने के लिये भी जाना जाता है। अपनी पुस्तक लौहण्डीगुडा तरंगिणी (1963) में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव विवरण देते हैं कि राजा वीरसिंह ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिये चाँदा के राजा बल्लारशाह के विरुद्ध युद्ध किया तथा उसे अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिये बाध्य कर दिया था। यह इति नहीं थी। अब बारी बल्लारशाह की थी जिन्होंने संगठित हो कर पुन: बस्तर राज्य पर आक्रमण किया। इस बार उसने छल से राजा के एक आदमी परसराम को अपने साथ मिला लिया था। परसराम ने राजा को कुसुम (भांग तथा दूध से बना तरल) पिला दिया। बेहोशी की हालत में युद्ध कर रहे राजा को कैद कर लिया गया और बल्लारशाह के सामने प्रस्तुत किया गया। राजा वीरसिंह को भांति भांति के कष्ट दिये गये। रोचक किम्वदंति है बस्तर के राजा के प्राण उसके सिर में थे इसी लिये अनेक प्रहार करने के बाद भी उन्हें मारा नहीं जा सका। प्रताडना से आहत राजा ने स्वयं अपनी मृत्यु का गुप्त रहस्य बल्लारशाह को बता दिया, जिसके बाद उनके सिर पर प्रहार किया गया, वहाँ से एक सोने की चिडिया उड कर निकल गयी तथा राजा की मृत्यु हो गयी (भंजदेव, 1963)। कथनाशय यह है कि अशक्त व बेहोश वीरसिंह की युद्ध भूमि में हत्या कर दी गयी थी। राजा की हत्या हो जाने के बाद भी इस युद्ध में बस्तर की सेना ही विजयी रहीं थी। 

- राजीव रंजन प्रसाद
============

मधुरांतक देव और नरबलि बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 44)


बस्तर अंचल में नाग राजाओं का शासन विभिन्न मण्डलों में विभाजित करता था, इन्ही में से एक था मधुर मण्डल जिसमें छिन्दक नागराजाओं की ही एक कनिष्ठ शाखा के मधुरांतक देव का आधिपत्य था। चक्रकोट के राजा धारवर्ष जगदेक भूषण (1050 – 1062 ई.) के निधन के पश्चात चक्रकोटय में उत्तराधिकार को ले कर संघर्ष हुआ और राजनीतिक अस्थिरता हो गयी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर ‘मधुर-मण्डल’ के माण्डलिक मधुरांतक देव ने चक्रकोटय पर अपनी “एरावत के पृष्ठ भाग पर कमल-कदली अंकित” राज-पताका फहरा दी। कहते हैं कि मधुरांतक देव नितांत बरबर और निर्दयी था। उसे कुचल देना ही आता था। ड़र के साम्राज्य ने शासक और शासित के बीच स्वाभाविक दूरी उत्पन्न कर दी। उस पर अति यह कि अपनी कुल-अधिष्ठात्री माणिकेश्वरी देवी के सम्मुख नरबलि की प्रथा को नीयमित रखने के लिये उसने राजपुर गाँव को ही अर्पित कर दिया था। यह गाँव वर्तमान जगदलपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। वहाँ से जिसे चाहे उठा लो और देवी के सम्मुख धड़ से सिर को अलग कर दो। 

जिन खम्बों पर साम्राज्यों की छतें खड़ी  होती है वे शनै: शनै:  कुचले हुए लोगों की आँहों भर से खोखले हो उठते हैं। आतंक के साम्राज्य के विरुद्ध जन-एकजुटता हुई, इस क्रांति का नेतृत्व किया था सोमेश्वरदेव ने। वे दिवंगत नाग राजा धारवर्ष जगदेक भूषण के पुत्र थे। मधुरांतक द्वारा पराजित और निर्वासित किये जाने के बाद वे चक्रकोटय के निकट ही किसी गुप्त स्थान पर रहते हुए जन-शक्ति संचय में लगे थे। उनका कार्य कठिन नहीं था। हाहाकार करती प्रजा को एक योग्य नेता ही चाहिये था। राज्य में विद्रोह अवश्यंभावी था। सोमेश्वर देव ने जनभावना का लाभ उठाते हुए उनके क्रोध को युद्ध में झोंक दिया। आक्रमण हुआ तो किले के भीतर रह रहे नागरिकों में हर्ष का संचार हो गया। मधुरांतक ऐसी सेना को साथ लिये कितनी देर लड़ सकता था जिनकी सहानुभूति और भरोसा उसने खो दिया था? युद्ध समाप्त हुआ। सोमेश्वर प्रथम (1069-1111 ई.) ने युद्ध में मधुरांतक का वध कर दिया तथा वे चक्रकोटक के निष्कंटक शासक बन गये।

- राजीव रंजन प्रसाद 
 ===========

Monday, July 31, 2017

बस्तर में सागर (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 43)


हमने उन विरासतों को भी नहीं सम्भाला जो हमारी ही सुरक्षा के निमित्त निर्मित किये गये थे। छत्तीसगढ राज्य के ऐतिहासिक दृष्टि के महत्वपूर्ण सबसे बडे मानव निर्मित जलाशयों में से एक दलपतसागर, आज अपने अस्तित्व को बचाने की लडाई लड़ रहा है। कभी समाचार आता है कि भू-माफिया आसपास की जमीन को धीरे धीरे निगलते जा रहे हैं तो कभी यह कि जलकुम्भियों की जकडन में दलपत सागर दम तोड रहा है। कभी कभी वैज्ञानिकों के इस सागर को बचाने की कोशिशों की सफल-असफल खबरें आती हैं। जापान से किसी मछली को ला कर तालाब में डाला गया था कि वह जलकुम्भियों से लड सके लेकिन असफलता हाथ लगी। ब्राजील से किसी ऐसे कीडे के द्वारा जो जलकुम्भी में ही पनपता है उसे ही भोजन बनाता है के माधयम से इससे निपटने का प्रयोग किया गया। समग्र प्रयासों के बाद भी समस्या अभी विकराल है, इस हेतु जन-भागीदारी सहित अधिकाधिक कोशिशों की आवश्यकता है। यह इसलिये भी कि इस झील का अपना समाजशास्त्र है, अर्थशास्त्र है साथ ही गर्व करने योग्य इतिहास भी है।         

इतिहास की बात करें, राजा दलपत देव के लिये जगदलपुर को राजधानी के लिये चयन करने के पश्चात उसे बाह्याक्रमणों से सुरक्षित रखना बड़ी चुनौती थी। यह निश्चित किया गया कि चयनित राजमहल परिक्षेत्र के पश्चिम दिशा में एक विशाल झील का निर्माण किया जाये। इस स्थान पर तीन तालाब यथा – सिवना तरई, बोड़ना तरई तथा झार तरई पहले से ही अवस्थित थे। इन तीनों ही तालाबों को आपस में मिला कर झील निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ। स्वयं राजा दलपत देव नित्य कार्य की प्रगति  देखने पहुँचते। एक दिन कार्य के दौरान एक हाथी की मृत्यु हो गयी। इस विशालकाय जीव को कहीं अन्यत्र ले जाना संभव नहीं हुआ तब मृत्यु स्थल पर ही उसे दफन कर दिया गया। हाथी की इस समाधि ने एक टीले का स्वरूप ले लिया था इस स्थान को मेंड्रा ढिपका के नाम से पहचान मिली है। झील की खुदाई से जो मिट्टी निकाली जाती उसका प्रयोग राजधानी के चारो ओर की जाने वाली किलेबंदी के लिये किया गया। लगभग 352 एकड विस्तार वाली विशाल झील जब निर्मित हुई तब उसका नाम दलपत सागर रखा गया। 

- राजीव रंजन प्रसाद
==========

Saturday, July 29, 2017

गोपनीयता और क्रांति (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 42)


योजना और अनुशासन का ऐसा उदाहरण विश्व में घटित सफलतम क्रांतियों में भी कम देखा गया है जहाँ एक विशाल भूभाग आंदोलित हो लेकिन उसकी तैयारियों की भनक  व्यवस्था को न लग सके। वर्ष 1910 के भूमकाल की अनेक विवेचनायें हैं किंतु सबसे सराहनीय इसकी असाधारण गोपनीयता थी। छुटपुट खबरें थीं कि गाँव-गाँवों में आम की डाल और मिर्च भेजी जा रही है, यह ग्रामीणों के संगठित होने और विप्लव के लिये स्वीकारोक्ति प्रदान करने का संकेतचिन्ह था। ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट दिब्रेट ने वर्ष 1910 के जनवरी माह में बस्तर का दौरा किया। वे केशकाल, कोण्डागाँव, केशलूर आदि के माझियों से मिले तथा प्रशासन से सम्बंधित चर्चायें की। सभी ने उन्हें आश्वस्त किया कि बस्तर में हालात ठीक हैं, किसी गडबडी की कोई संभावना नहीं है। दौरे पर दि ब्रेट के साथ दीवान पंडा बैजनाथ, राजगुरु मित्रनाथ ठाकुर तथा पुलिस इंसपेक्टर थे, सभी ने बताया कि अंग्रेज बहादुर का प्रशासन शांति और खुशहाली लाने वाला है। तुमनार गाँव के पास शिविर लगाया गया जिसमे बडी संख्या में आदिवासी एकत्रित हुए तथा बहुत ही सामान्य रूप से उन्होंने अपनी समस्यायें सामने रखीं। जनजातीय नृत्यों को देख कर तो ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट अभिभूत हो गया था। पूरी विवेचना में और विस्तृत दौरे में उसे बस्तर में किसी तरह की अराजकता अथवा अशांति के पनपने की भनक नहीं लगी। अपनी टूर रिपोर्ट में दि ब्रेट ने लिखा - “बस्तर शांत राज्य है तथा दीवान रायबहादुर पण्डा बैजनाथ का कार्य प्रसंशनीय है। मैं लोगों से मिला और उनकी शिकायतें सुनीं। राज्य में कोई गंभीर समस्या प्रतीत नहीं होती। बीजापुर में मुझे जानकारी मिली कि कुछ लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर मिर्च भेज रहे हैं। दीवान ने तात्कालिक जांच के बाद इसे स्वाभाविक घटना बताया है।” रिपोर्ट पर दि ब्रेट के हस्ताक्षर के नीचे 31/जनवरी/1910 तारीख डली हुई थी।  यह पूर्वनियोजित था कि जब तक पॉलिटिकल एजेंट –‘दि ब्रेट’ रियासत के दौरे पर हैं, कोई हलचल न की जाये। उसके जाते ही प्रशासन को समझने या संभलने का मौका दिये बिना एकाएक चौतरफा हमला हो। 31 जनवरी को दि ब्रेट बस्तर से लौट जाते हैं और उसके ठीक अगले ही दिन 1 फरवरी, 1910 को सम्पूर्ण बस्तर रियासत में एक साथ महान क्रांति भूमकाल की आग सुलग उठी थी।

- राजीव रंजन प्रसाद 
============

राजा-प्रजा दोनो के नाम से राजधानी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 41)


राजाओं-महाराजाओं के नाम पर कितने ही नगर और शहर बसे हैं लेकिन ऐसे उदाहरण इतिहास में कम है जब प्रजा के नाम पर उन्होंने ऐसा किया हो। इसके ही अपवाद स्वरूप जगदलपुर शहर के बसने और उसके नामकरण की रुचिकर कहानी है। कहते हैं कि जगतुगुड़ा कभी केवल ग्यारह झोपड़ियों का छोटा सा गाँव, जिसके मुखिया का नाम जगतु माहरा था। वह राजा दलपतदेव (1731-1774 ई.) के शासन का समय था। उस दौर में निरंतर हो रहे मराठा आक्रमणों के दृष्टिगत एक सुरक्षित राजधानी स्थल की तलाश की जा रही थी। राजा दलपतदेव शिकार करते हुए इंद्रावती नदी के किनारे बसे गाँव जगतुगुड़ा पहुँचे जो घने जंगलों से घिरा हुआ था। एकाएक उनकी निगाह के आगे से आश्चर्य कर देने वाला दृष्य गुजरा। खरगोश एक शिकारी कुत्ते को निर्भीक हो कर दौड़ा रहा था। राजा सोच में पड़ गये, उन्हें लगा कि इस स्थान और यहाँ की मिट्टी में अवश्य कुछ विशेष है। कमजोर प्राणी यदि वीरता दिखा सकता है तो संभव है मराठा शासन के आक्रमणों से बचने के लिये यही स्थान सर्वश्रेष्ठ राजधानी सिद्ध हो। 

राजा ने वैकल्पिक भूमि प्रदान कर जगतुगुडा हासिल कर लिया। राजधानी को अपने विस्तार के लिये भू-भाग की आवश्यकता होती है। इसी क्रम में जगतु माहरा के छोटे भाई धरमू से भी उसके गाँव की भूमि प्राप्त की, जो जगतुगुडा से कुछ ही दूरी पर स्थित थी।  धरमू के गाँव वाले स्थान को उसके ही नाम पर धरमपुरा के नाम से आज भी जाना जाता है। नयी राजधानी का नाम इसके संस्थापक शासक दलपतदेव के नाम पर दलपतपुर नहीं अपितु वास्तविक भूस्वामि को समुचित सम्मान दे कर जगदलपुर रखा गया। जगदलपुर नाम में ‘जग’ जगतु का एवं ‘दल’ राजा दलपतदेव का परिचायक है।  प्रजा के नाम का राजा के नाम से पहले उपयोग किया जाना भी सुखद आश्चर्य उत्पन्न करता है। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
==============

Friday, July 28, 2017

अंग्रेजों वाला विकास (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 40)


रायबहादुर पंडा बैजनाथ (1903 – 1910 ई.) बस्तर राज्य में अधीक्षक की हैसियत से नियुक्त हुए थे। वे अंग्रेजों द्वारा प्रसारित विकास की परिभाषा से अक्षरक्ष: सहमत थे और अपनी सोच के प्रतिपादन को ले कर कट्टर भी। यह उनका अतिउत्साह था कि जगदलपुर से चांदा जाने वाली सड़क सन 1904 में पूरी कर ली गयी। सन 1907 ई. तक अतिदुर्गम मार्ग कोंडागाँव-नारायणपुर-अंतागढ़, तक सड़क बना ली गयी थी जिसे बाद में डोंडीलोहारा होते हुए राजनांदगाँव तक बढ़ा दिया गया। पण्डा बैजनाथ के कार्यकाल में धमतरी से जगदलपुर तक टेलीग्राफ लाईन बिछाने का काम जोरों से चल रहा था। बाहर-बाहर बदलाव महसूस हो रहा था; भीतर-भीतर राज्य में गहरी शांति थी। व्यवस्था और जनता के बीच कुछ टूट गया। व्यवस्था, आवरण और चेहरा बदलने में लगी रही और आवाम चौंधियाई आँखों से देख रहा था कि इस सबमें उसका अस्तित्व कहाँ है? सड़क पर उसे डामर की तरह पिघलाया जा रहा है जबकि उसके पसीने की कोई कीमत नहीं? बिना दाम में उत्तम काम पराधीन देश में भी केवल बस्तर राज्य में संभव था। पंडा बैजनाथ का प्रशासन निरंकुशता का द्योतक था जबकि उनके कार्य प्रगतिशील प्रतीत होते थे। उदाहरण के लिये शिक्षा के प्रसार के लिये उन्होंने उर्जा झोंक दी किंतु इसके लिये आदिवासियों को विश्वास में लेने के स्थान पर शिक्षकों को निरंकुश बना दिया। पुलिस को बच्चों को जबरदस्ती विद्यालय में पहुँचाने के निर्देश दिये गये। बालक के विद्यालय न जाने की स्थिति में उसके पालक को सजा दी जा रही थी। इधर उनके द्वारा अंग्रेजों की निर्मित वन नीति के सख्ती से प्रतिपादन के बाद आदिवासियों के पास ऐसी कोई वस्तु शेष नहीं रही थी जिसे बेच कर वे व्यापारियों से नमक, कपड़ा, तेल या इसी तरह की दूसरी आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करें। यह सबकुछ सुलग कर वर्ष 1910 के महान भूमकाल का कारण बना। भूमकाल के दौरान विद्रोही लगातार पंडा बैजनाथ की तलाश कर रहे थे लेकिन वे किसी तरह राज्य मे बाहर निकल पाने में सफल हो गये। 

- राजीव रंजन प्रसाद  

========== 

Wednesday, July 26, 2017

जन-संघर्ष और स्कंदवर्मन (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 39)


अर्थपति भट्टारक (460-475 ई.) राजसिंहासन पर बैठे तब महाकांतार से कोशल तक तथा कोरापुट से बरार तक के क्षेत्र पर नल-त्रिपताका लहराने का दौर था। अर्थपति विलासी शासक प्रतीत होते हैं, कदाचित व्यसनी। वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण (460-480ई.) ने नलों की राजधानी नन्दिवर्धन पर तीन दिशा से हमला कर दिया। अर्थपति नल साम्राज्य की प्राचीन राजधानी पुष्करी की ओर भागे लेकिन वहाँ तक भी उनका पीछा किया गया। एक-एक प्रासाद और मकान तोड़ दिया गया। इसके बाद पृथ्वीषेण ने अर्थपति भट्टारक को उसके हाल पर छोड़ दिया और वह नव-विजित राजधानी नन्दिवर्धन लौट आया। अर्थपति के निधन के बाद उनके छोटे भाई स्कंदवर्मन (475-500 ई.) का अत्यधिक साधारण समारोह में राजतिलक किया गया। यह राजतिलक केवल परम्परा के निर्वाह के लिये ही था क्योंकि उनके पास न तो भूमि थी न ही कोई अधिकार। 

स्कंदवर्मन ने अपने विश्वासपात्र साथियों के साथ खुले वातावरण में बैठक की तथा अपने दिवास्वप्न से मित्रो को अवगत कराया। वे महाकांतार से वाकाटकों को खदेड़ कर नल-राज पताका पुन: प्रशस्त करना चाहते थे। स्कंदवर्मन एक कुशल योजनाकार थे; अद्भुत संगठन क्षमता थी उनमें। राजधानी से दूर महाकांतार की सीमाओं में रह रही प्रजा को सैन्य-प्रशिक्षण दिया जाने लगा। वाकाटक राजाओं को कमजोर करने का कार्य उनकी जन-विरोधी नीतियों ने भी स्वत: कर दिया था। वाकाटकों से असंतुष्ट धनाड्यों ने चुप-चाप स्कंदवर्मन तक आर्थिक मदद भी पहुँचायी। पहले छापामार शैली में छुट-पुट आक्रमण किये गये। छोटी छोटी जीत, शस्त्रों और सामंतों के पास संग्रहित करों की लूट से प्रारंभ हुआ अभियान अब स्वरूप लेने लगा। वाकाटकों के आधीन अनेकों सामंतो ने अवसर को भांपते हुए अपनी प्रतिबद्धता बदल ली। इधर राजा पृथ्वीषेण की मृत्यु के पश्चात वाकाटक और भी कमजोर हुए थे; ज्येष्ठ पुत्र देवसेन ने महाकांतार की सत्ता संभाल ली थी। स्कंदवर्मन ने नन्दिवर्धन किले पर विजय हासिल कर देवसेन को उसी शैली में निर्वासित कर दिया गया जैसा हश्र कभी अर्थपति भट्टारक का हुआ था।

- राजीव रंजन प्रसाद 

===========

कॉग्रेस का काकीनाड़ा अधिवेशन और बस्तर (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 38)


यह बार बार उठने वाला प्रश्न है कि जिस दौरान राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन मुखर था, उन दिनों बस्तर के भीतर कैसी गतिविधियाँ चल रही थीं? बस्तर रियासत ने एकजुटता के साथ अंग्रेजों का विरोध किया, इसका बड़ा उदाहरण तो वर्ष 1910 का महान भूमकाल है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक-सूत्रता वाली राष्ट्रीय चेतना का अहसास भी उस दौर में धीरे धीरे बस्तर पहुँचने लगा था। जगदलपुर के ग्रिग्सन हाई स्कूल में यूनियन जैक का जलाया जाना इस दिशा की एक महत्वपूर्ण घटना है। भारतीय राष्ट्रीय कॉग्रेस की पहुँच कांकेर रियासत तक सहज हो गयी थी किंतु इसके आगे का बस्तर क्षेत्र उनकी गतिविधियों से अनजान था। ऐसे में भारतीय राष्ट्रीय कॉग्रेस का काकीनाड़ा अधिवेशन महत्व का है। ऐसा नहीं कि इस अधिवेशन में बस्तर को ले कर कोई प्रस्ताव आया अथवा उसपर कोई चर्चा भी हुई। कुछ जुझारू कॉग्रेस सदस्यों व स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्रयासों से इसकी कडी बस्तर से जोड़ दी। 

यह विदित है कि भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस का वर्ष 1923 में आयोजित अधिवेशन मौलाना मुहम्मद अली की अध्यक्षता में आंध्रप्रदेश के काकीनाड़ा शहर में हुआ था। देश भर से इस अधिवेशन में भाग लेने के लिये कार्यकर्ता अपने अपने साधनों-संसाधनों से पहुँच रहे थे। इसी  अधिवेशन में प्रतिभागिता के लिये धमतरी से पच्चीस कार्यकर्ताओं का एक जत्था भी जाने वाला था। इस जत्थे में सम्मिलित कार्यकर्ताओं ने काकीनाडा तक पदयात्रा करने का सुनिश्चित किया। इस यात्रा के लिये बस्तर से हो कर आंध्र जाने वाले मार्ग का चयन किया गया। कॉग्रेस कार्यकर्ताओं के इस जत्थे ने बस्तर में महात्मा गाँधी के विचारों और स्वतंत्रता की आवश्यकता के संदेशों को पूरे रास्ते प्रचारित किया। उल्लेख मिलता है कि यह जत्था प्रतिदिन पंद्रह से बीस मील की यात्रा पूरी करता। बस्तर के जनजातीय क्षेत्रों में भाषा की बाध्यता को देखते हुए सत्याग्रहियों द्वारा महात्मा गाँधी तथा नेताओं की तस्वीरों का सहारा लिया गया था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की ऐसी घटनायें छोटी प्रतीत होती हैं किन्तु ऐसे ही प्रयासों ने एकजुटता में अपनी भूमिका निभाई थी। बस्तर में जगदलपुर तथा कांकेर जैसे रियासत के नगरीय क्षेत्रों में स्वतंत्रता पूर्व कॉग्रेस ने धीरे धीरे ऐसे ही सतत प्रयासों से अपनी पैठ बना ली थी।

- राजीव रंजन प्रसाद 
===========

वायसराय से मुलाकात (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 37)


ब्रिटिश-भारत के गवर्नर जनरल ‘द मार्कस ऑफ लिनलिथगो’, महारानी प्रफुल्ला से मुलाकात करना चाहते थे। यह भी पहला ही अवसर था जब इस आदिवासी राज्य के किसी शासक को ऐसी अहमियत दी गयी। सम्पूर्ण भारत के समतुल्य देखें तो अन्य राजाओं की तडक-भडक और वैभव प्रदर्शन जैसा बस्तर में कभी रहा ही नहीं। राजाओं-महाराजाओं में भी कोई फ़र्जन्द-ए-दिलबंद था तो कोई रासिखुल एतकाद; कोई दौलत-ए-ईंगलीशिया था तो कोई राजा-ए-राजगान; कोई मुज़फ्फर-ए-मुल्क था तो कोई आलीजाह। ब्रिटिश हुकूमत ने तत्कालीन राजे-रजवाडों को प्रसन्न रखने के लिये ऐसी ऐसी उपाधियाँ बाटी थीं जिन्हें अपने नाम के आगे लगाने की होड़ मची रहती थी जैसे – जी.सी.एस.आई (ग्रैंड़ क्रास ऑफ दि स्टार ऑफ इंड़िया ), जी.सी.आई.ई (ग्रैंड़ क्रास ऑफ दि इंडियन एम्पायर), के.सी.वी.ओ (नाईट कमांड़र ऑफ दि विक्टोरियन ऑर्डर) आदि आदि। राजाओं-महाराजाओं को नौ से ले कर इक्कीस तोपों तक की सलामी दी जाती थी। मैसूर, बडौदा, ट्रावनकोर, काशमीर, ग्वालियर के महाराजा तथा हैदराबाद के निजाम 21 तोपों की सलामी पाते थे तो ऐसे अनेकों थे जिन्हें 17, 13, 11 और 9 तोपों की सलामी मिला करती थी। लगभग 200 रियासतों के शासक ऐसे भी थे जिन्हें तोपों की सलामी नहीं मिला करती थी। बस्तर भी इन्ही में से एक श्रेणी की रियासत थी। 

अपने जीवनकाल में अनेको रियासतों के शासकों की कभी भी किसी वायसराय से मुलाकात संभव नहीं हो सकी थी। इसीलिये महारानी प्रफुल्ला कुमारी देवी जब वायसराय लिनलिथगो से मुलाकात करने पहुँची तो वे बातचीत के महत्व को समझ रही थीं। उनमें तड़क भड़क से अधिक सादगी ही प्रतिबिम्बित हो रही थी। परम्पराओं से अलग हट कर वायसराय ने आगे बढ़ कर महारानी का स्वागत किया। बातचीत राज्य की समस्याओं से अधिक बैलाड़िला के पहाड़ों पर केन्द्रित हो गयी। वायसराय का विचार था कि बस्तर राज्य के बैलाड़िला पर्वत का क्षेत्र हैदराबाद के निजाम को दे दिया जाना चाहिये। महारानी प्रफुल्ला ने अपनी इस संक्षिप्त मुलाकात में अनेकों बार वायसराय से हो रही चर्चा को बैलाड़िला  से हटा कर राज्य की मूल समस्याओं की ओर खींचने की कोशिश की। अंतत: यह मुलाकात मुलाकात भर रही – महत्वपूर्ण, लेकिन दोनो पक्षों के लिये बे-नतीजा। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
==========

Monday, July 24, 2017

राजा की रिजर्व सेना (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 36)



मराठा राज्यों के लिये राजस्व के प्रमुख स्त्रोत आकस्मिक हमले हुआ करते थे; 1809 ई. में रावघाट की पहाड़ियों से हो कर नारायणपुर के भीतर प्रवेश करने वाली मराठा सेना रामचंद्र वाघ के नेतृत्व में पहुँची थी (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। बस्तर और कांकेर राज्य इन दिनों मराठों के खिलाफ संधि की अवस्था में थे; यह रणनीतिक भूल थी कि दोनों रियासतों ने सहयोग की सहमति होते हुए भी हमले का जवाब देने की तैयारी नहीं की। कांकेर के परास्त होने की जानकारी मिलते ही महिपाल देव (1800-1842 ई.) ने रणनीति के तहत आक्रांता सेना का मुकाबला करने के लिये हलबा योद्धाओं की एक टुकड़ी को आगे कर दिया। राजमहल रिक्त कर दिया गया। मामूली प्रतिरोध को कुचलते हुए जगदलपुर में बाघ की सेना प्रविष्ठ हो गयी। राजमहल खाली, शहर के प्रतिष्ठित नागरिक, व्यापारी और अधिकारी नगर से पलायन कर गये थे। बिना बड़े युद्ध के मिली इस विजय से रामचन्द्र बाघ ने भी निश्चिंत हो जाने की वही राजनीतिक भूल की, जो नीलू पंड़ित से हुई थी। अगली सुबह हालात बदल गये। लम्बी लम्बी बंदूखें धरी रह गयीं, तोप निश्शब्द खड़े रह गये। बस्तर की सेना ने पीछे से आक्रमण कर मराठा अभियान कुचल दिया था। इससे पहले कि रामचंद्र बाघ पकड़ लिया जाता, वह जंगलों की ओर भाग गया। जगदलपुर से भागते हुए उसने देखा था, पहाड़ों से हजारों की संख्या में आदिवासी तीर धनुष लिये इस तरह चले आ रहे थे, जैसे चींटियों की अंतहीन कतार। वस्तुत: बस्तर के राजाओं के लिये उनकी प्रजा ही सशस्त्र रिजर्व सेना थी। प्राय: राज्य की इस छिपी हुई ताकत का आंकलन करने में विरोधी सेनाओं से चूक हो जाया करती थी, जो उनकी पराजय निश्चित कर देती थी।

- राजीव रंजन प्रसाद 
==========


Sunday, July 23, 2017

भोंगापाल, बोधघाट और पुराने रास्ते (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 35)


उत्तरापथ और दक्षिणापथ को जोडते वे कौन से प्राचीन मार्ग थे? क्या ये रास्ते बस्तर हो कर भी गुजरते थे? क्या बौद्ध और जैन धर्म के प्रचार प्रसार को आने, जाने और ठहरने वालों के लिये बस्तर में कहीं ठौर था। नारायण के निकट स्थित है भोंगापाल जहाँ केवल बस्तर अथवा छत्तीसगढ राज्य ही नहीं अपितु मध्य-भरत का एकमात्र ईंटों से बना विशाल चैत्य प्राप्त हुआ है। अध्येताओं का अनुमान है कि यहाँ ध्वंस ईंट निर्मित स्थल मौर्य युगीन है। यहाँ प्राप्त हुई सप्तमातृका की प्रतिमा मध्य कुषाण कालीन तथा गौतम बुद्ध की प्रतिमा गुप्तकालीन है। दुर्भाग्यपूर्ण कि इस स्थान की महत्ता पर अधिक कार्य नहीं हुआ है। अनेक संदर्भ इशारा करते हैं कि मौर्य सम्राट अशोक सर्वास्तिवादी शाखा के आचार्य उपगुप्त के उपदेशों से प्रभावित थे। यह सम्प्रदाय महासंधिकों की एक उपशाखा के रूप में प्रसिद्ध हुआ। भोंगापाल का बौद्धचैत्य भी इन्हीं चैत्य शिलावादी आचार्यों के धर्म प्रचार प्रसार एवं निवास का प्रमुख केंद्र रहा है। भोंगापाल के निकट स्थित जैतगिरि निश्चित ही चैत्यगिरि का बदला हुआ नाम है। इसी मार्ग के आगे की कडी जोडी जाये तो बारसूर के निकट बोधघाट है जो बौद्ध घाट से बिगड कर बना जान पडता है। 

उत्तरापथ से दक्षिणापथ को जोडने के प्राचीन मार्ग में निश्चित ही भोंगापाल की अपनी जगह और महत्ता लम्बे समय तक रही होगी। एक ओर दक्षिण कोसल तथा दूसरी ओर दक्षिण के अनेक राज्य होने के कारण की कतिपय खोजी कडियाँ जोडते हुए मानते हैं कि प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य महादेव आंध्र व ओडिशा से जुडे बस्तर अंचल के भोंगापाल केंद्र से जुडे हो सकते हैं। भोंगापाल प्रतिमा के गुप्त कालीन होने से यह संभावना भी प्रबल होती है कि यहाँ से वही मार्ग गुजरता हो जहाँ से हो कर चौथी सदी में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने विजय अभियान का रुख दक्षिणापथ राज्यों की ओर किया था। 

- राजीव रंजन प्रसाद
==========

Saturday, July 22, 2017

विश्व-आश्चर्यों में शामिल होना चाहिये कैलाश मंदिर - एलोरा





नवरंगपुर विजय और धनुकाण्डैया (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 34)


बहुत ही कहानियाँ अनकही रह गयीं और बहुत सी परम्परायें मिटने के कगार पर पहुँच गयी हैं। नवरंगपुर विजय रियासतकालीन बस्तर की बहुत बड़ी घटना थी। बस्तर के राजा वीरसिंह देव (1654-1680 ई.) की अपनी कोई संतान न होने के कारण उनकी मृत्यु के उपरांत छोटे भाई रणधीर सिंह के बेटे दिक्पालदेव (1680-1709) को बस्तर राज्य की कमान दी गयी थी। इन समयों में मुगल शासक शक्तिशाली हो गये थे। बस्तर इस कठिन समय में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने में सफल रहा। दिक्पालदेव ने महत्वाकांक्षा तथा कुशल रणनीति से राज्य को उस उँचाई तक पहुँचाया जिसमें उसके पूर्ववर्ती शासक असफल रहे थे। गजपतियों की गिरती हुई ताकत से उत्साहित हो कर उन्होंने ओड़िशा का नवरंगपुर दुर्ग जीत लिया। दंतेवाड़ा शिलालेख में इस विजय का स्पष्ट उल्लेख मिलता है – हेलया गृहीतनवरंगपुर दुर्गम। 

नवरंगपुर विजय असाधारण थी अत: उसका विजयोत्सव भी लम्बा चला। नवरंगपुर विजय को यादगार बनाने के लिये राजा नेदशहरा पर्व में धनुकाण्डैया को सम्मिलित किया था। रथयात्रा के समय में भतरा जाति के नौजवान धनुकाण्डैया बना करते थे। लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक ‘बस्तर – इतिहास एवं संस्कृति’ में धनुकाण्डैया की वेश-भूषा का स-विस्तार वर्णन किया है। धनुकाण्डैया का जूड़ा फूलों से सजा हुआ तथा बाँहें और कलाईयों पर भी फूल सजे होते थे। धनुकाण्डैया बनने वाला युवक कंधे पर धनुष धारण करता था। उसका धनुष भी फूलों से सजा हुआ होता था। धनुकाण्डैया बनने की यह प्रथा वर्ष 1947 तक चलती रही। अब यह प्रथा पूरी तरह बंद हो गयी है। अब नवरंगपुर भी बस्तर का हिस्सा नहीं है लेकिन  उसका इतिहास तो है। धनुकाण्डैया का अब दशहरा के अवसर पर रथ के पीछे न चलना व्यावहारिक रूप से उत्सव मनाये जाने के स्वरूप में कोई बड़ा बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता लेकिन ठहर कर सोचें तो इस पर्व से एक अप्रतिम हिस्सा अलग हो गया है।  

- राजीव रंजन प्रसाद 

========== 

Friday, July 21, 2017

स्त्री प्रशासक नाग राजकुमारी मासकदेवी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 33)


बस्तर को समझने के विमर्श में आम तौर पर लोग मासकदेवी को लांघ कर निकल जाते हैं; संभवत: इसी लिये इस महत्वपूर्ण स्त्रीविमर्श के अर्थ से अबूझ रहते हैं। दंतेवाड़ा में छिंदक  नाग वंशीय शासकों से सम्बंधित एक शिलालेख मिलता है जो कि तत्कालीन राजा की बहन मासक देवी के नाम से जारी किया गया है। शिलालेख का समय अज्ञात है किंतु उसमें सर्व-साधारण को यह सूचित किया गया है कि – “राज्य अधिकारी कर उगाहने में कृषक जनता को कष्ट पहुँचाते हैं। अनीयमित रूप से कर वसूलते हैं। अतएव प्रजा के हितचिंतन की दृष्टि से पाँच महासभाओं और किसानों के प्रतिनिधियों ने मिल कर यह नियम बना दिया है कि राज्याभिषेक के अवसर पर जिन गाँवों से कर वसूल किया जाता है, उनमें ही एसे नागरिकों से वसूली की जाये, जो गाँव में अधिक समय से रहते आये हों”। इस अभिलेख के कुछ शब्दों पर ठहरना होगा वे हैं – महासभा, किसानों के प्रतिनिधि तथा कर। संभवत: यह महासभा पंचायतों का समूह रही होंगी जिनके बीच बैठ कर मासकदेवी ने समस्याओं को सुना, किसानों ने गाँव गाँव से वहाँ पहुँच कर अपना दुखदर्द बाँटा होगा। इस सभा को शासन द्वारा नितिगत निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गयी होगी जिस आधार पर मासकदेवी ने अपनी अध्यक्षता में ग्रामीणों और किसानों की बातों को सुन कर न केवल समुचित निर्णय लिया अपितु शिलालेख बद्ध भी कर दिया। शिलालेख का अंतिम वाक्य मासकदेवीको मिले अधिकारों की व्याख्या करता है जिसमे लिखा है - ‘जो इस नियम का पालन नहीं करेंगे वे चक्रकोट के शासक और मासकदेवी के विद्रोही समझे जायेंगे’।

मासकदेवी एक उदाहरण है जिनको केन्द्र में रख कर प्राचीन बस्तर के स्त्री-विमर्श और शासकों व शासितों के अंतर्सम्बन्धों पर विवेचना संभव है। यह जानकारी तो मिलती ही है कि लगान वसूल करने में बहुत सी अनीयमिततायें थी। साथ ही सुखद अहसास होता है कि तत्कालीन प्रजा के पास एसी ग्रामीण संस्थायें थी जो शासन द्वारा निर्मित समीतियों से भी सीधे जुड़ी थी। प्रतिपादन की निरंकुशता पर लगाम लगाने का कार्य महासभाओं में होता था तथा नाग युग यह उदाहरण भी प्रस्तुत करता है कि अवसर दिये जाने पर स्त्री हर युग में एक बेहतर प्रशासक सिद्ध हुई है।

- राजीव रंजन प्रसाद

============ 

Thursday, July 20, 2017

गुरु घासीदास, दंतेश्वरी मंदिर और नरबलि (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 32)


छत्तीसगढ रज्य गुरु घासीदास का कृतज्ञ है जिन्होंने यहाँ की मिट्टी को अपनी उपस्थिति तथा ज्ञान से पवित्र किया था। गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसम्बर 1756 को रायपुर जिले के गिरौदपुरी ग्राम में एक साधारण परिवार में हुआ था। संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त असमानताओं, पशुबलि जैसी कुप्रथाओं का विरोध किया। हर व्यक्ति एक समान है की भावना को विस्तारित करने के लिये उन्होंने 'मनखे-मनखे एक समान' का संदेश दिया। सतनाम पंथ के ये सप्त सिद्धांत  प्रतिष्ठित हैं  - सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद की अमान्यता, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना। 

यह मेरी सहज जिज्ञासा थी कि गुरु घासीदास का बस्तर पर क्या और कितना प्रभाव था। डॉ. सुभाष दत्त झा का एक आलेख पुस्तक - बस्तर: एक अध्ययन में प्रकाशित हुआ है। संदर्भ दिया गया है कि – छत्तीसगढ के प्रसिद्ध संत गुरुघासीदास के बारे में एक विवरण प्राप्त होता है जिसमें उन्हें बलि हेतु पकड़ लिया गया था परंतु रास्ते में उनकी उंगली कट गयी थी अत: अंग भंग वाली बलि न चढाने के रिवाज के कारण उन्हें छोड दिया गया (पृ 77)। जानकार मानते हैं कि गुरु घासीदास ने रियासतकाल में परम्परा की तरह दंतेश्वरी मंदिर में होने वाली नर-बलि को रोकने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। दंतेश्वरी मंदिर तथा यहाँ होने वाली कथित नरबलि की सैंकडों कहानियाँ जनश्रुतियों में तथा तत्समय के सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं।  यद्यपि अंग्रेज जांच कमीटियों के कई दौर के बाद भी यह सिद्ध नहीं कर सके थे कि दंतेश्वरी मंदिर में नरबलि दी जाती है। गुरु घासीदास के सम्बन्ध में यह संदर्भ इसलिये रुचिकर तथा प्रमाणपूर्ण लगता है क्योंकि अपनी शिक्षाओं में भी वे बलि प्रथा और अन्य नृशंसताओं के विरोध में खडे दिखते हैं।   

- राजीव रंजन प्रसाद

============

Tuesday, July 18, 2017

राजा पर मुकदमा (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 31)


डलहौजी ने वर्ष 1854 में नागपुर राज्य को दत्तक निषेध नीति के तहत हड़प लिया, इसके साथ ही बस्तर शासन अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में आ गया। ब्रिटिश सरकार के दिखाने के दाँत का उल्लेख राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के 1893 के रिकॉर्ड्स में मिलता है कि प्रत्येक चीफ को स्वतंत्र विदेशी शासक माना जाता था किंतु सत्यता थी कि सम्पूर्ण भारत में कोई भी चीफ (राज्यों के शासक/राजा) प्रभुता सम्पन्न नहीं रह गये थे। बस्तर रियासत उन दिनों मध्यप्रांत के पंद्रह फ्यूडेटरी चीफ क्षेत्रों (रियासतों) में सबसे बड़ी थी जिसके अंतर्गत 13072 वर्ग मील का क्षेत्रफल आता था। फ्यूडेटरी चीफ का स्तर पाये बस्तर के राजा को रेजीडेण्ट, दीवान, एडमिनिस्ट्रेटर, सुप्रिंटेंडेंट पॉलिटिकल एजेंट तथा वायसराय की सहायता से शासन चलाना होता था। 

बस्तर के प्रशासन पर अंग्रेजों के शिकंजे का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि राजा को अपने राज्य की सीमा के भीतर खनन की अनुमति देने, दो वर्ष से अधिक की सजा देने अथवा पचास रुपयों से अधिक का जुर्माना लगाने के लिये भी ब्रिटिश अधिकारियों से अनुमति लेनी होती थी। इतना ही नहीं राजा को उसकी प्रजा के समक्ष अधिकार विहीन दिखाने अथवा अशक्त सिद्ध करने का कोई अवसर अंग्रेज नीतिकारों ने नहीं छोड़ा था। न्याय व्यवस्था में सुधारवाद अथवा लचीलापन लाने की आड़ में यह व्यवस्था भी बनाई गयी कि अब प्रजा भी राजा पर मुकदमें करने लगी, और इसके लिये किसी तरह की अनुमति प्राप्त करने का प्रावधान नहीं रखा गया था। यद्यपि यही कानून और तरीका अंग्रेज प्रशासकों के लिये लागू नहीं होता था। ब्रिटिश न्यायालय में आये ऐसे ही एक रोचक मुकदमें का उल्लेख मिलता है जब शेख रसूल नाम के एक व्यापारी ने बस्तर के राजा भैरम देव पर उसके दो हजार रुपये और चौदह आने का भुग्तान न करने का आरोप लगाया। यह मुकदमा राजा के पक्ष में निर्णित हुआ था।       

============

Monday, July 17, 2017

सेंट जॉर्ज ऑफ जेरुसलम (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 30)


राजा रुद्रप्रताप देव (1891 – 1921 ई.) का शासन समय अंग्रेजों के सीधे प्रभाव में था। केवल छ: वर्ष की आयु में रुद्रप्रताप देव राजा बने तथा वर्ष 1908 तक पूरी तरह उनके नाम पर चलने वाला शासन अंग्रेजों द्वारा संचालित था। उनके शासन समय में ही दो अंग्रेज अधिकारी कैप्टन एल जे फैगन (1896 – 1899 ई.) तथा कैप्टन जी डब्लू गेयर (1899 – 1903 ई.) ने बस्तर प्रशासक के रूप में कार्य किया था जिसका गहरा प्रभाव राजा पर था। शासनाधिकार प्राप्त होने के पश्चात एक प्रशासक के रूप में जगदलपुर शहर के लिये की गयी ‘स्वच्छ जल की सप्लाई व्यवस्था’ तथा ‘दलपत सागर को गहरा किये जाना’ राजा रुद्रप्रताप देव द्वारा किये गये प्रमुख कार्यों में गिना जायेगा। राज्य का पहला पुस्तकालय भी रुद्रप्रताप देव की पहल से ही अस्तित्व में आया। राजा ने बस्तर प्रिंटिंग प्रेस तो सन 1905 में ही आरंभ करवाया था। कोरबा में बिजली उत्पादन आरंभ होने के बाद सन 1916 में राज्य की राजधानी प्रकाशित हो उठी। रुद्रप्रताप रंगमंच के शौकीन थे तथा 1914 में उन्होंने एक रामलीला मंडली की भी स्थापना की थी।

1914 में विश्वयुद्ध छिड़ गया। राजा रुद्रप्रताप (1891 – 1921 ई.) ने इस समय ब्रिटिश हुकूमत में अपना समर्थन जताया। अपनी ओर से सहायता के लिये बस्तर में काष्ठ से निर्मित बोट एम्बुलेंस ब्रिटिश सेना की सहायता के लिये भेजी गयी थी।  मोटर चालित इस तरह की बोट एम्बुलेंस का नाम “दि बस्तर” रखा गया था। 1918 में विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने राजा को उनके द्वारा की गयी सहायता तथा उनकी स्वभावगत सादगी और सज्जनता के लिये ‘सेंट जॉर्ज ऑफ जेरुसलम’ की उपाधि प्रदान की (लौहण्डीगुडा तरंगिणी, प्रवीर चंद्र भंजदेव, 1963)। 

==========

Sunday, July 16, 2017

राखी का वह नेग (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 29)


रक्षाबन्धन पर बहुत सी कहानियाँ हमारे सम्मुख हैं। अधिकतम कहानियाँ पौराणिक आख्यान हैं तो कुछ भारत के गौरवशाली इतिहास में सद्भावना वाले पन्नों से भी जुड़ी हुई हैं। रक्षाबन्धन के पर्व की महत्ता जितनी अधिक है यदि इतिहास टटोला जाये तो उससे जुडे अनेक ऐसे प्रसंग और भी हैं, जिन्हें यदि दस्तावेजबद्ध किया जाये तो आने वाली पीढी को अपनी संस्कृति व अतीत को सही तरह से समझने में सहायता मिल सकती है। इसी तरह की एक कहानी सत्रहवीं सदी के बस्तर राज्य से जुडी हुई है। 

बस्तर के राजा राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) की दो रानियाँ थी – रुद्रकुँवरि बघेलिन तथा रामकुँवरि चंदेलिन। रानी रुद्रकुँवरि से दलपत देव तथा प्रताप सिंह राजकुमारों का जन्म हुआ तथा रानी रामकुँवरि के पुत्र दखिन सिंह थे। रानी रामकुँवरि अपने पुत्र दखिन सिंह को अगला राजा बनाना चाहती थी किंतु बीमारी के कारण वे स्वर्ग सिधार गये। इसके एक वर्ष पश्चात ही (वर्ष 1721 ई.) राजा राजपालदेव का भी निधन हो गया। राजा के दोनों बेटे उनकी मौत के समय राजधानी से बाहर थे। रानी रामकुँवरि अभी भी षडयंत्र कर रही थीं। मौका पा कर बस्तर का सिंहासन रानी रामकुँवरि के भाई चंदेल कुमार (1721-1731 ई.) ने हथिया लिया। असली वारिस खदेड़ दिये गये। राजकुमार प्रतापसिंह रीवा चले गये और दलपतदेव ने जैपोर राज्य में शरण ली। जैपोर के राजा की सहायता से दलपतदेव ने कोटपाड़ परगना पर अधिकार कर लिया। अब वे बस्तर राज्य के दरबारियों से गुपचुप संबंध स्थापित करने लगे। एक वृहद योजना को आकार दिया जाने लगा और इसके प्रतिपादन का दिन निश्चित किया गया – रक्षाबन्धन। दलपतदेव ने मामा को संदेश भिजवाया कि उन्हें आधीनता स्वीकार्य है तथा वे राखी के दिन मिल कर गिले-शिकवे दूर करना चाहते हैं। संधि का प्रस्ताव पा कर मामा की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। इस संधि से उसका शासन निष्कंटक हो जाने वाला था। वर्ष 1731 को रक्षाबन्धन के दिन दलपतदेव नेग ले कर दरबार में उपस्थित हुए। मामा-भाँजे का मिलन नाटकीय था। भाँजे ने सोचने का अवसर भी नहीं दिया। निकट आते ही अपनी तलवार खींच ली और सिंहासन पर बैठे मामा का वध कर दिया (दि ब्रेत, 1909)। इस तरह दस साल भटकने के बाद दलपत देव (1731-1774 ई.) ने अपना वास्तविक अधिकार रक्षाबन्धन के दिन ही प्राप्त किया था।

- राजीव रंजन प्रसाद

===========

शरणागत राजा और राजगुरु (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 28)


जीवन के अंतिम दिनों में राजा दिक्पालदेव, अपने पुत्र राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) को राजसिंहासन पर बिठा कर सार्वजनिक जीवन से अलग हो गये थे। राजा राजपाल देव के समय के बस्तर को शक्तिशाली कहा जा सकता है। महंत घासी दास स्मारक, रायपुर रखे गये एक ताम्रपत्र में उल्लेख है कि “स्वस्ति श्री वसतरमहानगरे शुभस्थाने महाराजप्रौढ प्रताप चक्रवर्ती श्री राजपाल देव महाराज गोसाईं श्री मानकेश्वरी”। इस ताम्रपत्र से तीन मुख्य अर्थ निकाले जा सकते हैं पहला कि बस्तर की राजधानी में नगरीय व्यवस्था ने स्वरूप लेना आरम्भ कर दिया था, दूसरा कि राजपाल देव स्वयं चक्रवर्ती की उपाधि धारण करते थे तथा तीसरा यह कि राजा मणीकेश्वरी देवी के अनन्य उपासक एवं पुजारी थे। ये स्थितियाँ राज्य की सम्पन्नता का परिचायक हैं सम्भवत: इसी लिये उस दौर में दक्षिण राज्यों में से एक महाशक्ति गोलकुण्डा की दृष्टि बस्तर पर पड़ गयी। 

यह राजा राजपाल देव का ही शासन समय था गोलकुण्डा राज्य के कुतुबशाही वंश के सुलतान ने बस्तर पर हमला बोल दिया था। पुस्तक - लौहण्डीगुडा तरंगिणी (1963) जिसके लेखक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव हैं, में बस्तर के इतिहास की व्यापक झलकियाँ मिलती हैं। इसी कृति में उल्लेख है कि जब कुतुबशाही सेनाओं ने हमले किया उस समय राजा राजपाल देव, राजधानी में नहीं थे। खतरे को भाँप कर रानी रुद्रकुँवरि ने महल से भाग कर एक ब्राह्मण के घर शरण ली। इस समय वे गर्भवती थीं। शरण प्रदान करने वाले ब्राह्मण की कुटिया में ही उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसे दलपत देव के नाम से जाना गया। लूट-खसोट के बाद आक्रमण करने वाले लौट गये। राजा राजपाल देव जब लौटे तो राजधानी की दशा देख कर स्तब्ध रह गये। यद्यपि उन्हें यह जान कर प्रसन्नता हुई कि रानी और राजकुमार सकुशल हैं। वह ब्राह्मण जिसने दोनों की रक्षा की थी, उसे राज्य का राजगुरु नियुक्त किया गया था। इस संदर्भ से एक और बात स्पष्ट है कि गोलकुण्डा से आयी सेनाओं ने आगे बढते हुए बस्तर अंचक की भौगोलिक परिस्थितियों को समझ लिया था तथा वे जान गये थे यदि देर तक इस क्षेत्र में वे रुके तो घेर लिये जायेंगे। उन्होंने केवल लूट-पाट कर वापस लौट जाना श्रेयस्कर समझा।  

==========

Saturday, July 15, 2017

पत्थर की गद्दी और जंगल की सत्ता (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 27)


छिन्दक नाग वंशीय शासकों को निर्णायक रूप से पराजित करने के पश्चात अन्नमदेव (1324 – 1369 ई.) के लिये अपने विजय अभियान को समाप्त कर स्थिरता प्राप्त करने का समय आ गया था। उन्होंने विजित भूभाग को को मिला कर उसे बस्तर राज्य का स्वरूप दिया। अन्नमदेव की मन:स्थिति की विवेचना करना आवश्यक है चूंकि वे वरंगल जैसे धनाड्य राज्य के राजकुमार थे जो तुगलकों के हाथो पतन के पश्चात इस क्षेत्र में पहुँचे थे। जिस वारंगल राज्य का खजाना हजारों ऊँटों मे लदवा कर दिल्ली भेजा गया हो वहाँ से घनघोर वनप्रांतर में पहुँचने के पश्चात अन्नमदेव की धन और भूमि एकत्रित करने की लालसा समाप्त हो गयी थी। उन्होने नागों को पराजित किया किंतु वे पैरी नदी के आगे नहीं बढे चूंकि शक्तिशाली शासकों को अपनी ओर  आकर्षित नहीं करना चाहते थे। उनका विजित राज्य चारो ओर से भौगोलिक रूप से सुरक्षित सीमा के भीतर अवस्थित था जिसमें बारह जमींदारियाँ, अढ़तालीस गढ़, बारह मुकासा, बत्तीस चालकी और चौरासी परगने थे। जिन प्रमुख गढ़ों या किलों पर अधिकार कर बस्तर राज्य की स्थापना की गयी वो हैं - मांधोता, राजपुर, गढ़-बोदरा, करेकोट, गढ़-चन्देला, चितरकोट, धाराउर, गढ़िया, मुण्डागढ़, माड़पालगढ़, केसरपाल, राजनगर, चीतापुर, किलेपाल, केशलूर, पाराकोट, रेकोट, हमीरगढ़, तीरथगढ़, छिन्दगढ़, कटेकल्याण, गढ़मीरी, कुँआकोण्ड़ा, दंतेवाड़ा, बाल-सूर्य गढ़, भैरमगढ़, कुटरू, गंगालूर, कोटापल्ली, पामेंड़, फोतकेल, भोपालपट्टनम, तारलागुड़ा, सुकमा, माकड़ी, उदयगढ़, चेरला, बंगरू, राकापल्ली, आलबाका, तारलागुड़ा, जगरगुण्ड़ा, उमरकोट, रायगड़ा, पोटगुड़ा, शालिनीगढ़, चुरचुंगागढ़, कोटपाड़.......। 

कांकेर से, साथ ही पराजित नाग राजाओं के पुन: संगठित होने के पश्चात उत्तरी क्षेत्रों की ओर से मिल रही चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए अन्नमदेव ने बड़े-डोंगर को नवगठित बस्तर राज्य की पहली राजधानी बनाया। यहाँ अन्नमदेव ने अपनी आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया तथा राजधानी में 147 तालाब भी खुदवाये थे। इसी मंदिर के सम्मुख एक पत्थर पर बैठ कर अपना उन्होंने अपना विधिवत राजतिलक सम्पन्न करवाया। स्वाभाविक है कि इस समय उनके पास न राजमहल रहा होगा न ही सिंहासन। डोंगर के इसी पत्थर पर राजतिलक एक परम्परा बन गयी जिसका निर्वाह अंतिम शासक प्रवीर तक निरंतर होता रहा। इस प्रथा को पखनागादी कहा जाता था। 

- राजीव रंजन प्रसाद

=========== 

Friday, July 14, 2017

सामाजिक दरारें और जान्तुरदास (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 26)


नलकालीन बस्तर (760 ई. से 1324 ई.) में कई ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जहाँ कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था से सामना होता है। नल शासक भवदत्त वर्मा का ऋद्धिपुर ताम्रपत्र जिसके खनक थे पद्दोपाध्याय ब्राह्मण के बेटे बोपदेव  (पद्दोपाध्यायपुत्रस्य पुत्रेण बोप्पदेवेन क्षतिमिदं, ई.आई - XIX)। यह स्पष्ट है कि कर्म आधारित समाज की जो चर्चा होती है यह उसका अप्रतिम उदाहरण है। उस दौर की विवेचना करने पर यह असामन्य लगता है कि बोप्पदेव जो कि ब्राह्मण वर्ण के थे, उन्होंने खनक का कार्य किया होगा। इसी कड़ी में पोड़ागढ़ अभिलेख जुड़ता है जहाँ एक दास वर्ण के व्यक्ति कवितायें करते, राजा के लिये शिलालेखों की पद्य रचना करते नजर आते हैं। नल शासन समय के सर्वाधिक गौरवशाली शासक रहे स्कन्दवर्मा के पोड़ागढ़ प्रस्तराभिलेख के रचयिता हैं – जान्तुर दास। स्पष्ट है कि जान्तुर माँ काली के लिये प्रयुक्त होने वाला शब्द है जबकि दास वर्ण का परिचायक है। यह दास दमित-शोषित नहीं अपितु राज्याश्रय प्राप्त एक कवि है। जान्तुर दास की रची पंक्तियों पर दृष्टि डालें तो वह रस, छंद-अलंकार युक्त अद्भुत काव्य रचना प्रतीत होती है। रचना की भाषा संस्कृत है। पोड़ागढ़ अभिलेख के रचयिता जांतुर दास ने प्रशस्ति की रचना तेरह पद्यों में की है। रचनाकार की विद्वत्ता का उदाहरण उसके शब्द प्रयोगों से ही मिल जाता है। जान्तुर दास लिखते हैं - आजेन विश्वरूपेण निगुणिन गुणौषिणा (निर्गुण होते हुए भी गुण की आकांक्षा करने वाला), यह पद्य विरोधाभास अलंकार का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह छंद देखें तथा इसमें अनुप्रास अलंकार की छटा को महसूस करें – कृत्वा धर्म्मार्थ निम्याशमिदमात्म हितैषिणा। पादमूलं कृतं विष्णो: राज्ञा श्रीस्कन्दवर्म्मणा।। इसी तरह उनके काव्य में प्रयुक्त शांत रस का यह उद्धरण देखें – हरिणा जितं जयति जेध्यत्येषा गुणस्तुतिन्नर्हगुणस्तुतिन्नर्हि सा। ननु भगवानेव जयो जेतव्यं चाधिजेता च।। पोड़ागढ़ अभिलेख के बारहवें पद्य में इस शिलालेख के लेखक जान्तुरदास का नाम भी अंकित किया गया है। यह दर्शाता है कि मानुषिक विभेद जैसी स्थिति नाग कालीन बस्तर में समुपस्थित नहीं थी। पाँचवी सदी का यह प्रस्तराभिलेख सामाजिक दरारों में मिट्टी डालता हुआ प्रतीत होता है। यह अभिलेख मांग करता है कि लगातार जातिगत विद्वेषों में बाटे जाने के लिये दिये जा रहे उदाहरणों पर ठिठक कर पुनर्विवेचनायें की जायें। जान्तुर दास एक अल्पज्ञात कवि ही सही लेकिन यदि उन्हें समझा जाये तो वे आज व्याप्त अनेकों मिथकों को तोड़ने में सक्षम हैं। 

- राजीव रंजन प्रसाद

===========

Wednesday, July 12, 2017

चालुक्य अथवा काकतीय? (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 25)



बस्तर के मध्यकाल का इतिहास यहाँ नागों को पराजित कर अपनी सत्ता स्थापित करने वाले राजवंश के प्रति काकतीय अथवा चालुक्य की चर्चा में उलझा हुआ प्रतीत होता है। इसे समझने के लिये मध्ययुग के समृद्ध और शक्तिशाली रहे वारंगल राज्य की कहानी जाननी आवश्यक है। वारंगल के काकतीय राजा गणपति (1199-1260 ई.) की दो पुत्रियाँ थीं रुद्राम्बा अथवा रुद्रम देवी तथा गणपाम्बा अथवा गणपम देवी। उनके देहावसान के बाद उनकी बड़ी पुत्री रुद्राम्बा ने सत्ता संभाली। चालुक्य राजा वीरभद्रेश्वर से महारानी रुद्राम्बा का विवाह हुआ था। वर्ष 1260 ई. अथवा इससे कुछ पूर्व राजा गणपति ने अपनी पुत्री रुद्राम्बा को सह-शासिका बनाया तत्पश्चात अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। चालुक्य राजा वीरभद्र तथा रानी रुद्राम्बा को कोई पुत्र नहीं था। उनकी दो कन्या संततियाँ रुयम्मा एवं मम्मड़म्बा थी। पुत्री मम्मड़म्बा के दो पुत्र हुए प्रतापरुद्र देव एवं अन्नमदेव। रानी रुद्राम्बा ने अपने दौहित्र प्रतापरुद्र देव को गोद ले कर अपने राज्य का वारिस नियुक्त कर दिया। इस तरह प्रतापरुद्र देव ने काकतीय वंश की ध्वजा को मुसलिम आक्रांताओं द्वारा किये गये पतन तक थामे रखा। राजा प्रतापरुद्र चालुक्य पिता की संतति होने के बाद काकतीय कहलाये। अन्नमदेव चूंकि गोद नहीं लिये गये थे और वारंगल का पतन होने के पश्चात वे उत्तर की और पलायन कर गये एवं नागों को परास्त कर अपनी सत्ता कायम की अंत: उन्हें चालुक्य निरूपित किया जाना उचित व्याख्या है।  

तकनीकी रूप से तथा पितृसत्तात्मक समाज की व्याख्याओं के अनुरूत यह सत्य स्थापित होता है कि चालुक्य राजा से विवाह के पश्चात महारानी रुद्राम्बा का पिता की वंशावलि पर अधिकार समाप्त हो गया। तथापि भावनात्मक रूप से अथवा स्त्री अधिकारों पर विमर्श के तौर पर मुझे यह तथ्य रुचिकर प्रतीत होता है कि काकतीय वंशावली के रूप में यह राजवंश अधिक प्रमुखता से जाना गया है। यहाँ तक कि महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921 - 1936 ई.) जिनका विवाह भंज वंश से जुड़े राजकुमार से किया गया था; तत्पश्चात के सभी वंशजों ने अपने नाम के साथ भंज अवश्य जोड़ा किंतु अंतिम महाराजा प्रवीर स्वयं को प्रवीर चंद्र भंजदेव ‘काकतीय’ कहलाना ही पसंद करते थे। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

===========

मामा भांजा और उनका मंदिर (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 24)



गंग राजवंश (498 – 702 ई. के मध्य) का शासन क्षेत्र “बाल सूर्य” (वर्तमान बारसूर) नगर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित था। इस राजवंश की शासन-प्रणाली तथा राजा-जन संबंधों पर बात करने के लिये समुचित प्रमाण, ताम्रपत्र अथवा शिलालेख उपलब्ध नहीं हैं तथापि गंग राजाओं का स्थान बस्तर की स्थापत्य कला की दृष्टि से अमर हो गया है। बालसूर्य नगर की स्थापना के पश्चात गंग राजाओं ने अनेकों विद्वानों तथा कारीगरों को आमंत्रित किया जिन्होंने राजधानी में एक सौ सैंतालीस मंदिर तथा अनेकों मंदिर, तालाबों का निर्माण किया। गंगमालूर गाँव से जुड़ा “गंग” शब्द तथा यहाँ बिखरी तद्युगीन पुरातत्व के महत्व की संपदाये गंग-राजवंश के समय की भवन निर्माण कला एवं मूर्तिकला की बानगी प्रस्तुत करती हैं। बारसूर में अवस्थित प्रसिद्ध मामा भांजा मंदिर गंग राजाओं द्वारा ही निर्मित है। कहते हैं कि राजा का भांजा उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर इस मंदिर को बनवा रहा था। मंदिर की सुन्दरता ने राजा के मन में जलन की भावना भर दी। इस मंदिर के स्वामित्व को ले कर मामा-भांजा में युद्ध हुआ। मामा को जान से हाँथ धोना पड़ा। भाँजे ने पत्थर से मामा का सिर बनवा कर मंदिर में रखवा दिया फिर भीतर अपनी मूर्ति भी लगवा दी थी। आज भी यह मंदिर अपेक्षाकृत अच्छी हालत में संरक्षित है। आज का बारसूर ग्राम अपने खंड़हरों को सजोए अतीत की ओर झांकता प्रतीत होता है। 

- राजीव रंजन प्रसाद
==========


Tuesday, July 11, 2017

महाभारत और बस्तर (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 23)


वर्तमान बस्तर के कई गाँवों के नाम महाभारत में वर्णित पात्रों पर आधारित हैं उदाहरण के लिये गीदम के समीप नकुलनार, नलनार; भोपालपट्टनम के समीप अर्जुन नली, पुजारी; कांकेर के पास धर्मराज गुड़ी; दंतेवाड़ा में पाण्डव गुड़ी नामक स्थलों प्रमुख हैं। बस्तर की परजा (घुरवा) जनजाति अपनी उत्पत्ति का सम्बन्ध पाण्डवों से जोड़ती है। बस्तर भूषण (1908) में पं केदारनाथ ठाकुर ने उसूर के पास किसी पहाड़ का उल्लेख किया है जिसमें एक सुरंग पायी गयी है। माना जाता है कि वनवास काल में पाण्डवों का यहाँ कुछ समय तक निवास रहा है। इस पहाड़ के उपर पाण्डवों के मंदिर हैं तथा धनुष-वाण आदि हथियार रखे हुई हैं जिनका पूजन किया जाता है। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख है कि बकासुर नाम का नरभक्षी राक्षस एकचक्रा नगरी से दो कोस की दूरी पर मंदाकिनी के किनारे वेत्रवन नामक घने जंगल की सँकरी गुफा में रहता था। वेत्रवन अर्थात बकावण्ड नाम बकासुर से साम्यता दर्शाता भी प्रतीत होता है; अत: यही प्राचीन एकचक्रा नगरी अनुमानित की जा सकती है। बकासुर भीम युद्ध की कथा अत्यधिक चर्चित है जिसके अनुसार एकचक्रा नगर के लोगों ने बकासुर के प्रकोप से बचेने के लिये नगर से प्रतिदिन एक व्यक्ति तथा भोजन देना निश्चित किया। जिस दिन उस गृहस्वामी की बारी आई जिनके घर पाण्डव वेश बदल कर माता कुंती के साथ छिपे हुए थे तब भीम ने स्वयं बकासुर का भोजन बनना स्वीकार किया। भीम-बकासुर का संग्राम हुआ अंतत: भीम ने उसे मार डाला। महाभारत में वर्णित सहदेव की दक्षिण यात्रा भी प्राचीन बस्तर से जुड़ती है। विष्णु पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि कांतार राज्यों की सेनायें कौरवों की ओर से महाभारत महा-समर में सम्मिलित हुई थी।

- राजीव रंजन प्रसाद

============

Monday, July 10, 2017

राजधानी पर मुगल (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 22)



मुगल शासकों ने बस्तर क्षेत्र पर अपनी मजबूत पकड़ क्यों हासिल नहीं की इसका कोई स्पष्ट कारण समझ नहीं आता। यद्यपि बस्तर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में मुसलमान आक्रांता काला पहाड के आक्रमण एवं लूटपाट के साक्ष्य प्राप्त होते हैं तथापि मुगल इस सघन वनांचल के प्रति उदासीन ही बने रहे। मुगलों के कमजोर पडने तथा मराठा शासकों के उत्थान के साथ बस्तर राज्य पर नागपुर की ओर से कई हमले किये गये किंतु अंग्रेजों के आगमन तथा कूटनीति प्रतिपादन के पूर्व तक यहाँ वे भी अपनी राजनैतिक हैसियत स्थापित नहीं कर सके थे। राजा दलपतदेव (1731-1774 ई.) के शासन समय में राज्य पर हो रहे लगातार हमलों से बचने के लिये राजधानी को ‘बस्तर’ से हटा कर ‘जगदलपुर’ ले जाया गया। आनन-फानन में मिट्टी के महल का निर्माण हुआ। तीन द्वार वाले नये नगर की दीवारे पत्थर और ईंट की थी। राजधानी के एक ओर विशाल सरोवर का निर्माण कराया गया जो नगर को सुन्दरता और सुरक्षा दोनों ही प्रदान करता था। 

संभवत: यह राजा दलपतदेव की दूरदर्शिता थी जिन्होंने कठिन पर्वतीय क्षेत्रों, इंद्रावती नदी के विस्तार से तीन ओर से सुरक्षित राजधानी को विशाल झील बना कर सीधे आक्रमणों से सुरक्षित बना लिया था। वर्ष 1770 ई. में जगदलपुर दुर्ग बन कर तैयार हुआ। उल्लेख मिलता है कि लगभग इसी समय मुगल सेनाओं ने राजधानी जगदलपुर को चारों ओर से घेर लिया। एक उँचे से टीले पर दुर्ग को ध्वस्त करने के लिये तोप-खाना लगाया गया। मुगल सेनाओं से युद्ध करने जितनी क्षमता बस्तर के राजा में नहीं थी। देवी दंतेश्वरी की आरधना की जाने लगी तथा मुगलों के अगले कदम की प्रतीक्षा थी। कहा जाता है कि इसी बीच मुगल सैनिकों में कोई भयावह बीमारी फैल गयी; कठिन मार्ग तय कर बस्तर तक आने व लम्बी घेराबंदी किये रखने के कारण उनका रसद भी समाप्त हो गया था। मुगल सेनाओं ने बिना लड़े ही अपना घेरा हटा दिया (ग्लस्फर्ड - 1862; ग्रिग्सन- 1938)।

============ 

Sunday, July 09, 2017

कुट कुट से कुटरू (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 21)



वर्ष 1324 में वारंगल राज्य का पतन होने के पश्चात राजकुमार अन्नमदेव बस्तर के नाग शासकों को पराजित कर यहाँ अपनी सत्ता स्थापित करने के लिये जूझ रहे थे। अन्नमदेव ने गोदावरी-इंद्रावती संगम की ओर से बस्तर राज्य में प्रवेश किया तथा अपने अभियान को भोपालपट्टनम-बीजापुर की दिशा में आगे बढाया। निर्णायक पराजय के पश्चात वारंगल से अपनी अपनी टुकडियों के साथ पलायन कर गये। अनेक सेनानायक निकटवर्ती कमजोर क्षेत्रों की ओर कूच कर गये थे। इन सरदारों के पास कोई केंद्रीय नेतृत्व नहीं था केवल अपने अस्तित्व के लिये वे सुरक्षित स्थानों की तलाश में थे। अफरातफरी के इसी समय में काकतीय सत्ता के एक वफादार सामंत सन्यासी शाह ने महाराष्ट्र के अहेरी-सूरजगढ़ की ओर से चक्रकोटय (वर्तमान बस्तर) के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया तथा कांडलापर्ती के नाग राजा को पराजित कर उसने पासेबाड़ा, फरसेगढ़, गुदमा, तोयनार आदि गढ़ हथिया लिये। संयासी शाह ने कांडलापर्ती के स्थान पर कुटरू को अपनी राजधानी के तौर पर चुना। अपने विजय अभियान को वे आगे बढाते  इससे पूर्व ही उन्हें सूचना मिली कि अन्नमदेव भी बस्तर क्षेत्र में ही प्रविष्ट हुए हैं एवं उन्होंने अनेक नाग शासकों को पराजित कर बड़े भूभाग कर अधिकार कर लिया है। सन्यासी शाह ने तुरंत ही अपने साथियों-सैनिकों सहित अन्नमदेव के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त की। सन्यासी शाह व उनकी पीढियाँ के आधिपत्य में ही स्वतंत्रता प्राप्ति तक कुटरू जमीदारी रही है। कुटरू नामकरण की रोचक कथा है। कहते हैं कि विजयोपरांत सन्यासी शाह एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा थे और वहाँ निरंतर किसी पक्षी का मोहक स्वर “कुट-कुट-कुटर” सुनाई पड़ रहा था। इस ध्वनि से संयासी शाह इतने प्रभावित हुए कि उसने अपने विजित राज्य का नाम ही कुटरू रख दिया।

- राजीव रंजन प्रसाद
==========


Saturday, July 08, 2017

कृष्ण, स्यामन्तक, जाम्बवती और कालिया नाग (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 20)


कांकेर (व धमतरी) के निकट सिहावा के सुदूर दक्षिण में मेचका (गंधमर्दन) पर्वत को मुचकुन्द ऋषि की तपस्या भूमि माना गया है। मुचकुन्द एक प्रतापी राजा माने गये हैं व उल्लेख मिलता है कि देव-असुर संग्राम में उन्होंने देवताओं की सहायता की। उन्हें समाधि निद्रा का वरदान प्राप्त हो गया अर्थात जो भी समाधि में बाधा पहुँचायेगा वह उनके नेत्रों की अग्नि से भस्म हो जायेगा। मुचकुन्द मेचका पर्वत पर एक गुफा में समाधि निन्द्रा में थे इसी दौरान का काल यवन और कृष्ण का युद्ध चर्चित है। कृष्ण कालयवन को पीठ दिखा कर भाग खड़े होते हैं जो कि उनकी योजना थी। कालयवन से बचने का स्वांग करते हुए वे उसी गुफा में प्रविष्ठ होते हैं तथा मुचकुन्द के उपर अपना पीताम्बर डाल कर छुप जाते हैं। कालयवन पीताम्बर से भ्रमित हो कर तथा कृष्ण समझ कर मुचकुन्द ऋषि के साथ धृष्टता कर बैठता है जिससे उनकी निद्राभंग हो जाती है। कालयवन भस्म हो जाता है। यही नहीं, कृष्ण के साथ बस्तर अंचल से जुड़ी एक अन्य प्रमुख कथा है जिसमें वे स्यमंतक मणि की तलाश में यहाँ आते हैं। ऋक्षराज से युद्ध कर वे न केवल मणि प्राप्त करते हैं अपितु उनकी पुत्री जाम्बवती से विवाह भी करते हैं।

कृष्ण से जुड़ी हुई कहानियों के दृष्टिगत सकलनारायण की गुफायें बहुत महत्व की हो जाती है। प्रकृति की निर्मित यह संरचना अब भगवान कृष्ण का मंदिर सदृश्य है। भोपालपट्टनम से लगभग 12 किलोमीटर दूर पोषणपल्ली की पहाड़ियों में सकलनारायण की गुफा स्थित है। गुफा के अंदर कुछ प्रतिमायें रखी हैं जिनमे विष्णु प्रतिमा के खण्डित अंग तथा उपासक प्रतिमा फलक मौजूद है। मुख्यद्वार से बीस फुट ऊँचाई में लगभग 82 सीढ़ियाँ चढ़ कर उस स्थल तक पहुँचा जा सकता है जहाँ वह प्रतिमा है जिसमें अपनी तर्जनी पर गोवर्धन गिरि उठाये हुए कृष्ण उकेरे गये हैं। इसके सामने ही स्थित चार फुट आयताकार खोह में झुक कर खड़े होना पड़ता है। खोह में गोप गोपियों की अनेक सुन्दर प्रतिमायें हैं। थोड़ा आगे बढ़ने पर सुरंगनुमा खोह का द्वार मिलता है जिसके भीतर कृष्ण रासलीला की अनेक प्रतिमायें हैं। गुफा के अन्दर पानी के प्राकृतिक स्त्रोत हैं। स्थान स्थान पर पानी रिस कर इकठ्ठा होता रहता है। अनेक किंवदंतियाँ हैं जिनमे से एक के अनुसार भगवान कृष्ण के द्वारा यमुना के जिस कालिया नाग को पराजित किया गया था वह पलायन करने के बाद इस गुफा में अवस्थित एक कुण्ड में आ कर रहने लगा। 

 -  राजीव रंजन प्रसाद