Saturday, July 22, 2017

नवरंगपुर विजय और धनुकाण्डैया (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 34)


बहुत ही कहानियाँ अनकही रह गयीं और बहुत सी परम्परायें मिटने के कगार पर पहुँच गयी हैं। नवरंगपुर विजय रियासतकालीन बस्तर की बहुत बड़ी घटना थी। बस्तर के राजा वीरसिंह देव (1654-1680 ई.) की अपनी कोई संतान न होने के कारण उनकी मृत्यु के उपरांत छोटे भाई रणधीर सिंह के बेटे दिक्पालदेव (1680-1709) को बस्तर राज्य की कमान दी गयी थी। इन समयों में मुगल शासक शक्तिशाली हो गये थे। बस्तर इस कठिन समय में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने में सफल रहा। दिक्पालदेव ने महत्वाकांक्षा तथा कुशल रणनीति से राज्य को उस उँचाई तक पहुँचाया जिसमें उसके पूर्ववर्ती शासक असफल रहे थे। गजपतियों की गिरती हुई ताकत से उत्साहित हो कर उन्होंने ओड़िशा का नवरंगपुर दुर्ग जीत लिया। दंतेवाड़ा शिलालेख में इस विजय का स्पष्ट उल्लेख मिलता है – हेलया गृहीतनवरंगपुर दुर्गम। 

नवरंगपुर विजय असाधारण थी अत: उसका विजयोत्सव भी लम्बा चला। नवरंगपुर विजय को यादगार बनाने के लिये राजा नेदशहरा पर्व में धनुकाण्डैया को सम्मिलित किया था। रथयात्रा के समय में भतरा जाति के नौजवान धनुकाण्डैया बना करते थे। लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक ‘बस्तर – इतिहास एवं संस्कृति’ में धनुकाण्डैया की वेश-भूषा का स-विस्तार वर्णन किया है। धनुकाण्डैया का जूड़ा फूलों से सजा हुआ तथा बाँहें और कलाईयों पर भी फूल सजे होते थे। धनुकाण्डैया बनने वाला युवक कंधे पर धनुष धारण करता था। उसका धनुष भी फूलों से सजा हुआ होता था। धनुकाण्डैया बनने की यह प्रथा वर्ष 1947 तक चलती रही। अब यह प्रथा पूरी तरह बंद हो गयी है। अब नवरंगपुर भी बस्तर का हिस्सा नहीं है लेकिन  उसका इतिहास तो है। धनुकाण्डैया का अब दशहरा के अवसर पर रथ के पीछे न चलना व्यावहारिक रूप से उत्सव मनाये जाने के स्वरूप में कोई बड़ा बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता लेकिन ठहर कर सोचें तो इस पर्व से एक अप्रतिम हिस्सा अलग हो गया है।  

- राजीव रंजन प्रसाद 

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