Sunday, July 09, 2017

कुट कुट से कुटरू (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 21)



वर्ष 1324 में वारंगल राज्य का पतन होने के पश्चात राजकुमार अन्नमदेव बस्तर के नाग शासकों को पराजित कर यहाँ अपनी सत्ता स्थापित करने के लिये जूझ रहे थे। अन्नमदेव ने गोदावरी-इंद्रावती संगम की ओर से बस्तर राज्य में प्रवेश किया तथा अपने अभियान को भोपालपट्टनम-बीजापुर की दिशा में आगे बढाया। निर्णायक पराजय के पश्चात वारंगल से अपनी अपनी टुकडियों के साथ पलायन कर गये। अनेक सेनानायक निकटवर्ती कमजोर क्षेत्रों की ओर कूच कर गये थे। इन सरदारों के पास कोई केंद्रीय नेतृत्व नहीं था केवल अपने अस्तित्व के लिये वे सुरक्षित स्थानों की तलाश में थे। अफरातफरी के इसी समय में काकतीय सत्ता के एक वफादार सामंत सन्यासी शाह ने महाराष्ट्र के अहेरी-सूरजगढ़ की ओर से चक्रकोटय (वर्तमान बस्तर) के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया तथा कांडलापर्ती के नाग राजा को पराजित कर उसने पासेबाड़ा, फरसेगढ़, गुदमा, तोयनार आदि गढ़ हथिया लिये। संयासी शाह ने कांडलापर्ती के स्थान पर कुटरू को अपनी राजधानी के तौर पर चुना। अपने विजय अभियान को वे आगे बढाते  इससे पूर्व ही उन्हें सूचना मिली कि अन्नमदेव भी बस्तर क्षेत्र में ही प्रविष्ट हुए हैं एवं उन्होंने अनेक नाग शासकों को पराजित कर बड़े भूभाग कर अधिकार कर लिया है। सन्यासी शाह ने तुरंत ही अपने साथियों-सैनिकों सहित अन्नमदेव के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त की। सन्यासी शाह व उनकी पीढियाँ के आधिपत्य में ही स्वतंत्रता प्राप्ति तक कुटरू जमीदारी रही है। कुटरू नामकरण की रोचक कथा है। कहते हैं कि विजयोपरांत सन्यासी शाह एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा थे और वहाँ निरंतर किसी पक्षी का मोहक स्वर “कुट-कुट-कुटर” सुनाई पड़ रहा था। इस ध्वनि से संयासी शाह इतने प्रभावित हुए कि उसने अपने विजित राज्य का नाम ही कुटरू रख दिया।

- राजीव रंजन प्रसाद
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