Thursday, September 18, 2008

कुछ तो बोलो...


अधकाच्ची अधपक्की
भाषा कैसी भी हो
कुछ तो बोलो..


खामोशी की भाषा में
कुछ बातें ठहरी रह जाती हैं
आँखों के भीतर गुमसुम हो
गहरी गहरी रह जाती हैं
मैं कब कहता हूँ मेरे जीवन में
उपवन बन जाओ
मैं कब कहता हूँ तुम मेरे
सपनों का सच बन ही जाओ?

लेकिन अपने मन के भीतर
की दीवारों की कैद तोड कर
शिकवे कर लो, लड लो
या रुसवा हो लो
कुछ तो बोलो..

मैनें अपने सपनों में तुमको
अपनों से अपना माना है
तुम भूल कहो
मैने बस अंधों की तरह
मन की हर तसवीर
बताओ सही मान ली
देखो मन अंधों का हाथी
हँस लो मुझ पर..
मैने केवल देखा है
ताजे गुलाब से गूंथ गूथ कर
बना हुआ एक नन्हा सा घर
तुम उसे तोड दो

लेकिन प्रिय
यह खामोशी खा जायेगी
मेरी बला से, मरो जियो
यह ही बोलो
कुछ तो बोलो..

ठहरी ठहरी बातों में चाहे
कोई बेबूझ पहेली हो
या मेरे सपनों का सच हो
या मेरे दिल पर नश्तर हो
जो कुछ भी हो बातें होंगी
तो पल पल तिल तिल मरनें का
मेरा टूटेगा चक्रव्यूह
या मन को आँख मिलेगी प्रिय
या आँखों को एक आसमान

तुम मत सोचो मेरे मन पर
बिजली गिर कर
क्या खो जायेगा
तुम बोलो प्रिय
कुछ तो बोलो
अधकच्ची अधपक्की
भाषा कैसी भी हो..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२८.०५.१९९७

Tuesday, September 02, 2008

मुट्ठी में एक तमंचा है अंकल...


नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?
मुट्ठी में एक तमंचा है अंकल
मैंने इससे ही कत्ल किया है!!

सुनता हूँ, गाना नये दौर का है
सागर से दरिया पहाड़ों की ओर
बहता चला है, कहता चला है
पश्चिम से सूरज निकलना तय है
बिल्ली ने अपने गले ही में घंटी
बाँधी है और नाचती है छमा-छम
चूहा नशे में वहीं झूमता है।
जंगल का भी एक कानून है
शेर जियेगा, मारेगा सांभर
फिर वो दहाड़ेगा, राजा है आखिर?
लेकिन नहीं लाज आती है आदम
जो तुम जानवर बन के कॉलर उछालो
बनाते हो जो भेड़िया अपनी पीढ़ी
अभी भी समय है, संभल लो संभालो।

बच्चे नहीं बीज पैदा करो तुम
सही खाद पानी उन्हें चाहिये फिर
पानी में जलकुम्भियाँ ही उगेंगी
नहीं तो नीम की शाख ही पर
करेला चढ़ेगा, कडुवा बकेगा
ये वो दौर है जिसमें है सोच सूखी
पैसा बहुत, आत्मा किंतु भूखी
हम बन के इक डायनासोर सारे
तरक्की के बम पर बैठे हुए हैं
जडें कट गयीं, फिर भी एठे हुए हैं
मगर फूल गुलदान में एक दिन के।
तूफान ही में उखड़ते हैं बरगद
जो बचते हैं हम उनको कहते हैं तिनके।

तो आओ मेरे देश बच्चे बचाओ
उन्हें चाहिये प्यार और वो किताबें
जिनपर कि मैकाले का शाप ना हो
ये सच है कि ईस्कूल हैं अब दुकानें
“गुरूर-ब्रम्हा” के बीते जमाने
शिक्षा बराबर हो अधिकार हो
किस लिये बाल-बच्चों में दीवार हो
बंद कमरे न दो, दो खुला आंगन
झकझोर दो, गर न चेते है शासन
बादल न होंगे न बरसेगा सावन
तो एक आग सागर जला कर सवेरा
लायेगी, पूरा यकीं गर बढ़ोगे
वरना जो कीचड़ से खुश हो, कमल है
पानी घटेगा तो केवल सड़ोगे
मोबाइलों को, एसी बसों को
किनारे करो, ऐसा माहौल दो
घर से बुनियाद पाये जो बच्चा बढ़े
विद्या के मंदिर में दीपक जलें

*** राजीव रंजन प्रसाद
16.12.2007

Monday, September 01, 2008

सादापन तुम्हारा है तो मेरी भी कहानी है..

सिर्फ सादगी और तुम..
महज इस लिये रंगीन है दुनिया
कि बादल हर रंगों को आँखों में पिरोते हैं
कि बादल तेरे दामन से मेरी आँखों में खोते हैं
कि सादापन तुम्हारा है तो मौसम में रवानी है
कि सादापन तुम्हारा है तो मेरी भी कहानी है
कि सादापन लहर बन कर मुझको डुबोता है कभी
कि सादापन जहर बन कर मुझे ज़िन्दा जलाता भी
कि सादेपन में एक बेहोश सी हसरत पनपती है
कि सादेपन में एक खामोश सी चाहत पनपती है
कि सादापन मुझे मैकश बनाता है कभी या फिर
कि सादपन मुझे मुझ ही में रह जानें नहीं देता
कि सादापन अगर चाहे तो दुनिया ही बदल डाले
कयामत आ के रह जाये
कि आ जाये कोइ विप्लव
कि सारे पल ठहर जायें..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१.०४.१९९७

Sunday, August 31, 2008

मौत जब सनसनीखेज हो जाये


मेरे क्षेत्र में
भूख से कोई मर नहीं सकता
मीडिया के आरोपों से सांसद महोदय तैश में थे
मानो घर के आगे उन्होंने लंगर खोल रखा हो।
आंकडे "नेताईयत " की आत्मा हैं
मगर कम्बखत परमात्मा तो वही नंगा है
जो मर कर जी का जंजाल हो गया है...

नेता जी गुरगुराये, माईकों के बीच मुस्कुराये
पिछले साल सौ में से सैंतालीस मौतें मलेरिया से
तिरालिस डाईरिया से, चार कैंसर से, छ: निमोनिया से..
सरकारी आँकडों की गवाही है
कीटाणुओं तक के पेट भरे हैं
आदमी की क्या दुहाई है?
सरकारी योजनाओं में हर हाँथ कमाई है,
निकम्मे हैं, इसी लिये नंगाई है..
फसले झुलसती हैं, मुआवजा मिलता है
दुर्घटना, बीमारी या बेरोजगारी सबके हैं भत्ते
थुलथुल गालों के बीच मूँछें मुस्कुरायीं

सवाल मौन हो गये, गौण हो गये...

और दूर उस गाँव में जो मौत बबाल हो गयी थी
उसके तन की दुर्गंध फैलने लगी थी
उसके भैंस की खाल सी
काली, मोटी, सिकुडी चमडी
जैसे पानी की बूँद देखे, बीती हों सदियाँ..
जाँच करने वाले डाक्टर
नाक में रूमाल रख कर, विश्लेषण में मग्न थे
पुलिसिये लट्ठ लिये खाली बर्तन ठोक रहे थे
मौत जब सनसनीखेज हो जाये
कितनों की परेशानी बन जाती है..

अचानक कुछ आँखों में चमक सा
घर के एक कोने में, पत्ते के दोने में
आधा खाया हुआ प्याज, थोडा नमक था....।

मौत भूख से नहीं हुई है
पेट की बीमारी है
जाँच पूरी है, रिपोर्ट सरकारी है...

*** राजीव रंजन प्रसाद
30.04.2007

Wednesday, August 27, 2008

पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ...


मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

एक कूँवे में दुनियाँ थी, दुनियाँ में मैं
गोल है, कितना गहरा पता था मुझे
हाय री बाल्टी, मैने डुबकी जो ली
फिर धरातल में उझला गया था मुझे
मेरी दुनिया लुटी, ये कहाँ आ गया
छुपता फिरता हूँ कैसी सजा पा गया
मेघ देखा तो राहत मिली है मुझे
जी मचलता है मैं अब बहूँ तब बहूँ..
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

मेढकी मेरी जाँ, तू वहाँ, मैं यहाँ
तेरे चारों तरफ ईंट का वो समाँ
मैं मरा जा रहा, ये खुला आसमाँ
तैरने का मज़ा इस फुदक में कहाँ
राह दरिया मिली, जो बहा ले गयी
और सागर पटक कर परे हो गया
टरटराकर के मुख में भरे गालियाँ
सोचता हूँ, पिटूंगा नहीं तो बकूं ?
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

एक ज्ञानी था जब पानी पानी था मैं
हर मछरिया के डर की कहानी था मैं
आज सोचा कि खुल के ज़रा साँस लूँ
बाज देखा तो की याद नानी था मैं
कींचडों में पडा मन से कितना लडा
हाय कूँवे में खुद अपना सानी था मैं
संग तेरे दिवारों की काई सनम
जी मचलता है मैं अब चखूँ तब चखूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

थम गयी है हवा जम के बरसात हो
औ छिपें चील कोटर में जा जानेमन
शोर जब कुछ थमें साँप बिल में जमें
तुमको आवाज़ दूंगा मैं गा जानेमन
मेरे अंबर जो सर पर हो तब देखना
सोने दूंगा न जंगल को सब देखना
हाय मुश्किल में आवाज खुलती नहीं
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..

*** राजीव रंजन प्रसाद
12.04.2008

Tuesday, August 26, 2008

इतना सख्त भी नहीं पहाड


पहाडों के आगे

बैठा हुआ मैं सोचता हूँ

अगर तुम्हारा गम न रहा होता

तो आज

कितना बौना पाता मैं अपनें आप को


और अब देखता हूँ

इतना सख्त भी नहीं पहाड

जितना मेरा दिल हो गया है..


*** राजीव रंजन प्रसाद

Wednesday, August 20, 2008

गुनगुनाते हुए कुछ ही पल..



धूप भरी ज़िन्दगी में
निर्झर में पैर डाले
गुनगुनाते हुए कुछ ही पल
एसे नहीं हैं क्या
जैसे भूले हुए लम्हों में
बीती हुई बातों की चीरफाड
और छोटी छोटी बातों पर घंटों की उलझन
जैसे आपस में गुथे हुए हम...

फिर फिर याद आओगे आप हमें
स्मृतियों में महकेंगे ये पल
और डूब डूब जायेंगे हम
हल्के से मुस्कायेंगे
जैसे कि डूबी शाम में
दूर कहीं बज उठी "जगजीत" की गज़ल..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२७.११.१९९५

Tuesday, August 19, 2008

युगों तक खमोश दो बुत..



नारज़गी हद से बढी
और हो गयी पर्बत
आँखों से पिघल गया ग्लेशियर
जैसे मोम नदी हो जाता है
पत्थर की तरह पिघल पिघल कर..

पीठ से पीठ किये
युगों तक खमोश दो बुत
इस तरह बैठै रहे
तोड तोड कर चबाते हुए घास के तिनके
जैसे गरमी की दोपहर ढलती नहीं..

और जब नदी न रही
पिघल चुका पत्थर
बुत "मै" और "तुम" हो गये
बहुत सोच कर भी
याद न रहा, न रहा
कि मुह फुलाये ठहर गये कितने ही पल
...कारण क्या था?

*** राजीव रंजन प्रसाद
२३.११.१९९५

Sunday, August 17, 2008

जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..


जैसे इकलौता गुल खिल कर, काँटों को बेमोल बना दे
सीपी क्या है एक खोल है, मोती हो अनमोल बना दे..

तुम होते हो खो जाता हूं, फिर अपनी पहचान साथ है
जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..

मन के भीतर की आवाज़ें, आँखों से सुन लेता हूँ,
साथ हमारा एसा जो, खामोशी को भी बोल बना दे..

तुम को खो कर हालत मेरी, उस बच्चे के इम्तिहान सी
टीचर उसकी काँपी में, कुछ अंक नहीं दे गोल बना दे..

चार दीवारें, आँखों में छत, तनहाई "राजीव" रही
जैसे गम दुनिया निचोड कर इतना ही भूगोल बना दे..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१२.११.२०००

Friday, August 15, 2008

सठिया गया है देश चलो जश्न मनायें।



गाँधी की नये फ्रेम में तस्वीर सजायें,
सठिया गया है देश चलो जश्न मनायें।।

हमने भी गिरेबाँ के बटन खोल दिये हैं
थी शर्म, कबाड़ी ने रद्दी में खरीदी है
बीड़ी जला रहे हैं अपने जिगर से यारों
ये पूँछ खुदा ने जो सीधी ही नहीं दी है
हम अपनी जवानी में वो आग लगाते हैं
कुत्तों को, सियारों को जो राह दिखाते हैं

मौसम है उत्सव का, लेकर मशाल आओ
हम पर जो उठ रहे हैं, वो प्रश्न जलायें।
सठिया गया है देश, चलो जश्न मनायें।।

आज़ाद का मतलब, सड़कों पे पिघल जाओ
आज़ाद का मतलब है, बस - रेल जलाओ
आज़ाद का मतलब है, एक चक्रवात हो लो
आज़ाद का मतलब है पश्चिम की बात बोलो
सब रॉक-रोल हो कर चरसो-अफीम में गुम
हो कर कलर आये, फिर से सलीम में गुम

आज़ाद ख्याली हैं, दिल फेंक मवाली हैं
सपने न हमसे देखो, उम्मीद भाड़ जाये।
सठिया गया है देश, चलो जश्न मनायें।।

पूछा था जवानी ने, हमसे सवाल क्यों है
बुड्ढे जो तख्तो-ताज पे उनको तो घेरिये
बच्चे कल की आशा, उनकी बदलो भाषा
"मुट्ठी में क्या है पूछें", सर हाँथ फेरिये
टैटू भी गुदाना है, बालों को रंगाना है
कानों में नयी बाली, हम नहीं हैं खाली

मत बजाओ थाली, बच्चों बजाओ ताली
सुननी नहीं हो गाली तो राय न लायें।
सठिया गया है देश, चलो जश्न मनायें॥

ले कर कलम खड़ा था, मैं भूमि में गड़ा था
हँसने लगा वो पागल, जो पास ही खड़ा था
बोला कि अपने घर को, घर का चराग फूँके
वो आईने के अक्स पर, हर शख्स आज थूके
भटके हुए जहाज को आजाद नहीं कहते
लश्कर के ठिकानों को आबाद नहीं कहते

तुम अपनी कलम घिस्सो, दीपक ही जलाओ
वो गीत लिखो जिसको, बहरों को सुनायें
सठिया गया है देश चलो, जश्न मनायें॥

*** राजीव रंजन प्रसाद
9.08.2007

Wednesday, August 13, 2008

मेरे साये..


जैसे ही आईना देखा, चौंक गया,
मेरा चेहरा कहीं नहीं था, कहीं नहीं..
सिर धुनता दीवारों पर मैं चीख उठा
खंडहर पर बैठे चमगादड़ उड़ कर भागे
डर कर मकड़ी धागे पर कुछ और चढ़ी
आँखें मिच-मिच करते उल्लू अलसाये
खिल-खिल कर के हँसी गहनतम खामोशी
कितने फैल गये देखो मेरे साये..


*** राजीव रंजन प्रसाद

९.११.१९९५

Tuesday, August 12, 2008

धर्म और राजनीति..

अशांत थे भीष्म
मन के हिमखंडों से
पिघल-पिघल पड़े, गंगा से विचार..
कि कृष्ण! यदि आज तुम प्रहार कर देते
तो क्या इतिहास फिर भी तुम्हें ईश्वर कहता?
रथ का वह पहिया उठा कर, बेबस मानव से तुम
धर्म-अधर्म की व्याख्याओं से परे
यह क्या करने को आतुर थे?
स्तंभ नोचती बिल्ली के सदृश्य?

तुम जानते थे कि अर्जुन का वध मैं नहीं करूंगा
तुम्हारा गीताज्ञान आत्मसात करने के बावजूद..
तुम यह भी जानते थे कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
ऐसी किसी भी प्रतिज्ञा से बाध्य नहीं था
तब मेरे अनन्यतम आराध्य
तुम्हारी अपनी ही व्याख्याओं पर प्रश्नचिन्ह क्यों?

मैं विजेता था उस क्षण
मेरे किसी वाण के उत्तर अर्जुन के तरकश में नहीं थे
तुम्हारा रथ और ध्वज भी मैनें क्षत-विक्षत किया था
और मेरा कोई भी वार धर्मसम्मत युद्ध की परिभाषाओं से परे नहीं था।
फिर किस लिए केशव तुमने मुझे महानता का वह क्षण दिया
जहाँ मैं तुमसे उँचा, तुम्हारे ही सम्मुख “करबद्ध” था?
मैंने तुम्हें बचाया है कृष्ण और व्यथित हूँ
धर्म अब मेरी समझ के परे है
अब सोचता हूँ कि दुर्योधन ने तुम्हें माँगा होता, न कि तुम्हारी सेना
तो क्या द्वेष के इस महायुद्ध का खलनायक युधिष्ठिर होता?

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:..
तब तुम ही आते हो न धर्म की पुनर्स्थापना के लिये?
तो क्या किसी भी कीमत पर विजय, धर्म है?
तुम क्या स्थापित करने चले हो यशोदा-नंदन
सोचो कि तुमने मुझे वह चक्र दे मारा होता
और मैने हर्षित हो वरण किया होता मृत्यु का
स्वेच्छा से..
तो भगवन, सिर्फ एक राजा कहलाते तुम
और इतिहास अर्जुन को दिये तुम्हारे उपदेशों पर से
रक्त से धब्बे नहीं धोता।
तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निमाण को हमेशा भगवान चाहिये
और इसके लिये इनसान बलिदान चाहिये

अब तुमने जीवन की इच्छा हर ली है
शिखंडी का रहस्य फिर तुम्हारे मित्र को सर्वश्रेष्ठ कर देगा
मुझे मुक्ति, लम्बा सफर देगा
मन का यह बोझ सालता रहेगा फिर भी
कि धर्म और राजनीति क्या चेहरे हैं दो
चरित्र एक ही?

*** राजीव रंजन प्रसाद
22.04.2007

Sunday, August 10, 2008

सचमुच तरक्की भी क्या चीज है..


सभ्यता व्यंग्य से मुस्कुराती है
जंगल के आदिम जब "मांदर" की थाप पर
लय में थिरकते हैं
जूड़े में जंगल की बेला महकती है
हँसते हैं, गुच्छे में चिडिया चहकती है
देवी है, देवा है
पंडा है, ओझा है
रोग है, शोक है, मौत है..
भूख है, अकाल है, मौत है..
फिर भी यह उपवन है
हँसमुख है, जीवन है

करवट बदलता हूँ अपनी तलाशों में
होटल में, डिस्को में, बाजों में, ताशों में
बिजली के झटके से जल जाती लाशों में
भागा ही भागा हूँ
पीछा हूँ, आगा हूँ
जगमग चमकती जो
दुनिया महकती जो
उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाथों ने मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाथों ने मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं

देखो तो आईना हँसता है मुझपर
सभ्यता के लेबल पर, मेरी तरक्की पर
हम्माम में ही आदमी का सच नज़र आता है
दंगा ऐसा ही गुसलखाना है मेरे दोस्त
अपनी कमीज पर पडे खून के छींटे संभाल कर रखना
कि दंगा तो होली है,
हर बार नयी कमीज क्यों कर खराब करनी?

तरक्की का दौर है, आदमी बढा है
देखो तो कैसा ये चेहरा गढा है
ऊपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखड़ा हटा तो कोई रक्तबीज है
नया दौर है, सचमुच तरक्की भी क्या चीज है

*** राजीव रंजन प्रसाद

२८.०१.२००७

Friday, August 08, 2008

बडा स्कूल.


स्कूल बहुत बडा है
डिजाईनर दीवारें हैं
हर कमरे में ए.सी है
एयरकंडीश्नर बसें आपके बच्चों को घर से उठायेंगी
यंग मिस्ट्रेस नयी टेकनीक से उन्हे पढायेंगी
सूरज की तेज गर्मी से दूर
नश्तर सी ठंडी हवाओं से दूर
मिट्टी की सोंधी खुश्बू से दूर
जमीन से उपर उठ चुके माहौल में बच्चे आपके
केवल आकाश का सपना बुनेंगे
नाम स्कूल का एसा है साहब
मोटी तनख्वाहें देने वाले
स्वतः ही आपके बच्चों को चुनेंगे
बच्चे गीली मिट्टी होते हैं
हम उन्हें कुन्दन बनाते हैं
आदमी नहीं रहने देते..

मोटी जेबें हों तो आईये एडमिशन जारी है
पैसे न भी हों तो आईये, अगर प्यारा है बच्चा आपको
और अपनी आधी कमाई फीस में होम कर
आधे पेट सोने का माद्दा है आपमें
जमाने की होड में चलने का सपना है
और बिक सकते हैं आप,तो आईये
बेच सकते हैं किडनी अपनी, मोस्ट वेलकम
जमीर बेच सकते हैं...सुस्वागतम|

कालाबाजारियों से ले कर मोटे व्यापारियों तक
नेताओं से ले कर बडे अधिकारियों तक
सबके बच्चे पढते हैं इस स्कूल में
और उनके बच्चे भी जो अपने खून निचोड कर
अपने बच्चों की कलम में स्याही भरते हैं..

हम कोई मिडिलक्लास पब्लिक स्कूल की तरह नहीं
कि बच्चों को बेंच पर खडा रखें
मुर्गा बनानें जैसे आऊट ऑफ फैशन पनिशमेंट
हमारे यहाँ नहीं होते..
हम बच्चों में एसे जज्बे, एसे बीज नहीं बोते
कि वो "देश्" "समाज" "इंसानियत" जैसे आऊट ऑफ सिलेबस थॉट्स रखे..

यह बडा स्कूल है साहब..
और आप पूछते हैं कि
ए से "एप्पल", "अ" से "अनार" से अलग
एसा क्या पढायेंगे कि मेरे बच्चे अगर कहीं बनेंगे,
तो यहीं बन पायेंगे?
सो सुनिये..हर बिजनेस की अपनी गारंटी है
हम सांचा तैयार रखते हैं
बच्चों को ढालते हैं
फ्यूचर के लिये तैयार निकालते हैं
हमारे प्राडक्ट एम.बी.ए करते हैं
डाक्टर ईन्जीनियर सब बन सकते हैं
कुछ न बने तो एम.एम.एस बनाते हैं..

हम बुनियाद रख रहे हैं
नस्ल बदल देंगे
जितनी मोटी फीस
वैसी ही अकल देंगे
कि आपके बच्चे राह न भटक पायें
पैसे से खेलें, पैसे को ओढें, पैसे बिछायें
आपका इंवेस्टमेंट वेस्ट न जानें दें
पैसा पहचानें, पैसा उगायें
सीट लिमिटेड है, डोनेशन लाईये
बच्चे का भविष्य बनाईये
होम कर दीजिये वर्तमान अपना
कि शक्ल से ही मिडिल क्लास लगते हैं आप..

और कल आप देखेंगे आपका लाडला
पहचाने न पहचाने आपको,
मिट्टी को, सूरज को, पंछी को, खुश्बू को
पहचाने न पहचाने देश, परिवेश
इतना तो जानेगा
कौन सा रिश्ता मुनाफे का है
हो सकता है आपसे पीठ कर ले
कि बरगद के पेड में फल कहाँ लगते हैं
घाटे की शिक्षा वह यहाँ नहीं पायेगा
यह बडा स्कूल है...

*** राजीव रंजन प्रसाद

१५.०१.२००७

Thursday, August 07, 2008

टुकडॆ अस्तित्व के..


मन का अपक्षय
आहिस्ता आहिस्ता
मुझको अनगिनत करता जाता है
नदी मेरे अस्तित्व से नाखुश है
और मुझे महज इतना ही अचरज है
इतना तप्त मैं
टूटता हूं पुनः पुनः
मोम नहीं होता लेकिन..

निर्निमेष आत्मविष्लेषण
एकाकी पन
एकाकी मन
और तम गहन..गहनतम
अपने ही आत्म में हाथ पाँव मारती आत्मा
दूरूह करती जाती है प्रश्न पर प्रश्न
और उत्तर तलाशता मन
क्या निचोड कर रख दे खुद को
फिर भी महज व्योम ही हासिल हो तब..

मन मुझे गीता सुनाता है
सांत्वना देता है कम्बख्त.."नैनम छिंदन्ति शस्त्राणि"
और जाने कौन अट्टहास करता है भीतर
और मन में हो चुके सैंकडो-सैंकडो छेद
पीडा से बिफर पडते हैं
दर्द और दर्द और वही सस्वर "नैनम दहति पावकः"
क्या जला है
क्या जल पायेगा?
और टुकडे टुकडे मेरे अस्तित्व के
अनुत्तरित बिखरते जाते हैं,बिखरते जाते हैं ,बिखरते जाते हैं..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.०६.१९९५

Wednesday, August 06, 2008

ज़ुल्फें..


बांध कर न रखा करो ज़ुल्फें अपनी

नदी पर का बाँध ढहता है

तबाही मचा देता है

एसा ही होता है

जब तुम

एकाएक झटकती हो खोल कर ज़ुल्फें..


*** राजीव रंजन प्रसाद

Tuesday, August 05, 2008

आ कर कहीं से तुम तभी...


आप तो जाते रहे

फिर नींद भी जाती रही

आसमां की चांदनी

हमको जलाती भी रही


वो एक ख्वाब जो आँखें खुले

देखा किये हम रात भर

जलती रही अपनी चिता

जैसे जला करते अभी

जब बुझ गये बस राख थे

आ कर कहीं से तुम तभी

ले चुटकियों में राख

माथे पर सजा ली

फिर जी गये हम


पलक झपकी

रात काली...


*** राजीव रंजन प्रसाद

६.११.२०००

Sunday, August 03, 2008

अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।


अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

तुमने मेरी गुडिया तोडी, मैनें बालू का घर तोडा
तुमने मेरा दामन छोडा, मैंने अपना दामन छोडा
तुम मुझसे क्यों रूठे जानम, मैं ही टूटा, मैनें तोडा
मुझको मुझसे ही शिकवा है, तुमसे मेरा क्या नाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

पत्ता खडके, कोयल बोले, निर्झर झरता या सावन हो
मोती टूटे, यह मन बिखरे, जैसे काँच काँच कंगन हो
विप्लव ही पर बादल बरसे, जैसे यह मेरा जीवन हो
यादों का सम्मोहन फिर फिर सोंधी मिट्टी महकाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

फर्क नहीं पडता इससे कि आँखें हैं या दिल रोता है
सागर कितना खारा देखो, ज़ार ज़ार साहिल रोता है
मैनें अपना कत्ल किया फिर देखा आखिर क्या होता है
सात आसमानों के उपर भी क्या दिलबर तडपाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

***राजीव रंजन प्रसाद
30.10.2000

Tuesday, July 29, 2008

कितनी कठोरता जानम..

पहाड से टकरा कर

लौट आता है तुम्हारा नाम

तुम से टकरा कर

लौट लौट आती है मेरी धडकन

कितनी कठोरता जानम

कि पर्बत हो गयी हो..


*** राजीव रंजन प्रसाद

Thursday, July 17, 2008

कैसे मेरा दिल धडकने लगा है...

मेरे बगीचे के गुलाब
मुस्कुराते नहीं थे
हवा मुझे छू कर गुनगुनाती नहीं थी
परिंदों नें मुझको चिढाया नहीं था
मेरे साथ मेरा ही साया नहीं था

तुम्हे पा लिया, ज़िन्दगी मिल गयी है
चरागों को भी रोशनी मिल गयी है
नदी मुझसे मिलती है इठला के एसे
कि जैसे शरारत का उसको पता हो
कि कैसे मेरे पल महकने लगे हैं
कि कैसे मेरा दिल धडकने लगा है..

*** राजीव रंजन प्रसाद

Monday, July 14, 2008

नक्सलवाद और महाराज प्रबीर चंद भंजदेव की हत्या: थोडा आज, कुछ इतिहास (“बस्तर का हूँ इस लिये चुप रहूँ” आलेख श्रंखला)



आई प्रबीर-द आदिवासी गॉड देर रात तक इस पुस्तक पर आँखें गडाये रहा, कब नींद आ गयी पता ही नहीं लगा। सीने पर पडी किताब से एक सपना आँखों के भीतर चू गया। मेरे सम्मुख देवताओं की तरह दिखने वाला व्यक्तित्व खडा था - चौडा ललाट, बोलती हुई आँखें और कंधे तक बिखरे हुए बाल। एक दिव्य मुस्कुराहट उनके व्यक्तित्व की शोभा थी और ललाट पर तिलक उनके आकर्षण को विस्तार दे रहा था। मुझे पहचानते देर न लगी कि मैं बस्तर अंचल के अंतिम शासक और माँ दंतेशवरी के अनन्यतम पुजारी के सम्मुख खडा हूँ। स्वपन में भी यह चेतना रही कि स्वप्न देख रहा हूँ। सपने में भी निश्चित ही मुस्कुराहट खिल उठी होगी कि मुन्नाभाई की गाँधीगिरि का सिनेमा, हाल ही में देखा था और स्मृतियों में ताजा था। लेकिन अवचेतन में यह खयाल कहाँ था?


महाराज के स्वाभाविक सम्मान में मेरा मस्तक स्वयं नत हो गया। चालीस साल से भी अधिक हो गये महाराज प्रबीरचंद भंजदेव काकतीय की नृशंस हत्या को।...। विशुद्ध सरकारी और पूर्णत: राजनीतिक हत्या? अब क्या है जिसकी तलाश में यह महान आत्मा मेरे स्वप्न को कुरेदती है? सवाल बहुत थे और उत्तर पाना भी चाहता था, कि एक आत्मीय सा साँथ मेरे कंधे पर रख कर उन्होने कहा - कहाँ जा सकता हूँ, कि इस मिट्टी के कण कण में मैं ही तो हूँ। मिट्टी में मिल कर भी कहाँ मिटा मैं?

मैं इस सच से वाकिफ था। बात आज-कल की ही है, मैं बिलकुल वटवृक्ष हो चुके उस आदिम से मिला और पूछ बैठा महाराज साहब के बारे में,....,फिर मेरी आँखे फटी रह गयीं। बाबा नें मुझे खा जाने वाली नजरों से देखा, जैसे महाराज प्रबीर का नाम ले कर मने कोई गुनाह कर दिया हो और अनन्य श्रद्धा से वह भूमि पर इतनी बार नतमस्तक हुआ कि मुझे मेरा उत्तर मिल गया। आज के दौर का है कोई राजनीतिज्ञ एसा, जो जनमानस की आत्मा में बसता हो? जो अपनी मौत के बाद भी सहित-आत्मा जीवित हो कोटि-कोटि हृदय में?....? बचपन की मेरी धुंधली सी स्मृति में आज भी है कि एक साधुवेशी पाखंडी नें स्वयं को महाराज का पुनर्जन्म घोषित कर दिया था और आदिम जनता जैसे भावावेश में अंधी हो गयी थी। उस पाखंडी के मुर्गा न खाने के तुगलकी फरमान पर अंचल में मुर्गे बाजारों से उठ गये थे...यह मुझे आज के दौर की राजनीति में असाधारण घटना जान पडती है। (राजतंत्र और लोकतंत्र पर बहस मेरे आलेख का मकसद नहीं है अपितु सता के सम्मान की विवेचना भर प्रस्तुत करना चाहता हूँ)।


स्वप्न गहरा था और महाराज मुझसे मित्रवत गहरी गहरी बातें करने लगे। बात रात की तरह लम्बी हुई और हम इतिहास की परत उधेडने लगे।


आप भारत में बस्तर राज्य का विलय नहीं चाहते थे, अपितु इसे स्वाधीन राष्ट्र बनाना चाहते थे क्या यह सच नहीं? मैने बडा प्रश्नवाचक लगा कर पूछा।


इस पर महाराज मुस्कुरा दिये और मुझ पर ही प्रश्नशूचक दृष्टि डाल कर उन्होने पूछा क्या बस्तर आज भारत का हिस्सा है? मैं इस प्रश्न के लिये प्रस्तुत नहीं था इस लिये सकपका गया।


समुचित सडक व्यवस्था का आज भी अभाव, रेल केवल लोहा ढोने भर के लिये, पानी के लिये त्राहि, बिजली तो आधा अंचल जानता ही नहीं कि क्या बला है, इस पर दिल्ली की जगमग में शेष देश मौन, कौन जानता है कि बस्तर है कहाँ और आदिवासी कैसे है, और हैं कौन? महाराज की ये बाते तार्किक थीं और व्यवस्था पर गंभीर प्रहार करती थीं। फिर वे स्वत: ही गंभीर हो गये और बोले यह भारत कि आजदी का ही वर्ष था यानी कि 1947, मेरा राज्याभिषेक अनुबंधों और प्रतिबंधों की कडी में हुआ और फिर समाप्त...सर्वेसर्वा का एकदम से अधिकारविहीन हो जाना एक प्रकार की मन: स्थिति है और राजनीतिक फैसले अपने समय का सच होते हैं जिन्हे आज के समय से जोड कर सही और गलत की कसौटी में नहीं कसा जा सकता। फिर भी यह प्रश्न मैं अवश्य करना चाहूँगा कि जिस लोकशाही की परिकल्पना हमारा संविधान करता है क्या आज इस अंचल में कहीं भी दृष्टिगोचर होती है? दारू पिलाओ वोट लो, कपडा बाँटो और वोट लो, क्या इसी सच पर आज इस अंचल का जनप्रतिनिधित्व नहीं टिका? मैं मौन ही रहा, चूँकि इस आक्षेप का उत्तर संभव है किसी के पास न हो"


बस्तर में नक्सलवादिता की भविष्यवाणी मैने अपनी पुस्तक में भी की है। मेरी पुस्तक आई प्रबीर द आदिवासी गॉड में मैने स्वयं को अपने ही लोगों से काटे जाने की सरकारी साजिश का विरोध करत हुए लिखा था कॉंग्रेस नें कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि वे प्रचीन संवैधानिक शिक्षा की पाठशालायें, साम्यवाद के कुप्रभाव के लिये एक कारगर रोक बन सकती थीं। बस्तर भारत के अन्य प्रांतो की तरह न तो सुगम है न ही सहज। गहरी समझ चाहिये किसी प्रशासक को। मैने सहमति में सिर हिलाया। क्या आज जैसी तबाही और इस शांत अंचल में आतंकवाद के इस स्वरूप की किसी नें परिकल्पना की थी? क्यों एसी समस्याओं का निदान नहीं हो पाता जिसे कर पाना सरकारी इच्छाशक्ति पर ही निर्भर है? सच यह है कि इस अंचल की तबाही की कहानी लिखने वाली कलमें तो बहुत रही हैं इसके निर्माण को किसी नें दृष्टि कोण प्रदान नहीं किया।


तो क्या नक्सलवादी समस्या के बस्तर में पनपने का कारण सरकारी नीतियों की विफलता है और यह एक क्रांति है व्यवस्था के खिलाफ? मैने प्रश्न किया।


महाराज प्रबीर ठहाका लगा कर हँस पडे फिर गंभीर हो गये। क्रांति वह होती है जो भीतर से पनपती है, क्रांति प्रायोजित नहीं अपितु स्वत:स्फूर्त होती है। क्रांति विदेशी नहीं होती या कि विचारधारा का इश्तेहार ले कर नहीं जनमती। क्रांति एक घटना है जिसकी चिंगारी भीतर ही सुलगती है और फिर एसा दावानल हो जाती है जो बदल देती है एक पूरी की पूरी व्यवस्था। क्रांति नारों से नहीं आती, बल्कि क्रांति के दौरान नारे पैदा होते हैं। क्रांति किसी लाल-पीले झंडे की छाया में नहीं होती,..., क्रांति गुजरती है तब उसपर गीत बनते है, रंग भरे जाते हैं और पहचान दी जाती है।


आप सत्य कह रहे हैं राजा साहब किंतु यह आदिम समाज एसे ही तो नक्सलियों के प्रभाव में नहीं आया होगा? मैंने चर्चा को विस्तार दिया।


निश्चित ही प्रशासनिक विफलताये भी कारण है एक कारण यह भी है कि इतने बडे भौगोलोक क्षेत्र को बिलकुल नजरंदाज किया गया। फिर भी आतंकवाद को कैसे क्रांति का मुलम्मा चढा कर महिमामंडित किया जा सकता है? आज क्या हालात है?जो पिस रहा है वह यह गरीब अंचल और यहाँ के निरीह मुरिया-माडिया ही तो हैं? महाराज नें गंभीर स्वर में अपनी बात समाप्त की।


आप क्या यह नहीं मानते कि इन आदिमों को अपनी आवाज उठानी नहीं आती और एक तरह से नक्सली इनकी सहायता ही कर रहे हैं, शोषण के खिलाफ उनके संघर्ष में? मैंने जिज्ञासावश पूछा। मैं जानता था कि बस्तर की आत्मा से इस गंभीर प्रश्न का उत्तर मिलने वाला है। एक पल रुक कर उन्होंने दीर्घ नि:श्वास ली और फिर बोल पडे -

इन आदिवासियों को किसी आयातित सिद्धांतों या कि संघर्षकर्ताओं की आवश्यकता नहीं है, इनके ही भीतर एसी आग है जो प्रलयंकारी है किंतु ये आदिम एसे ही हैं जैसे इन्हे हनूमान वाला शाप मिला हुआ हो, इन्हें इनकी ताकत का इन्हे अहसास कराया जाये तो बस कयामत ही है। बहुत से उदाहरण इस अंचल का स्वर्णिम इतिहास हैं जो यह बताते हैं कि यदि नक्सलवाद स्वाभाविक होता तो तो किसी बंगाली, किसी तेलुगु लाल-आतंकी के कंधे पर चढ कर नहीं बल्कि किसी गुण्डाधुर के वाणों की नोंक से आरंभ होता।


यह गुँडाधुर कौन? मैने सहज जिज्ञासावश पूछा। महाराज अतीत में डूब गये फिर एक कहानी उन्होने आरंभ की जिस पर बहुत धूल जम गयी है।


यह घटना लगभग 1910 की है तब राजा रुद्र प्रताप देव का शासन था।....। आदिवासी अपनी परंपरओं को सहेज कर जीते हैं, और बस्तर अंचल पर अंगेजो के शासन के साथ ही एसे बदलाव का यह क्षेत्र गवाह होने लगा जिससे उनकी परंपरायें आहत हुईं। एक या दो नहीं लगभग दस बार संगठित या गैर संगठित विद्रोह अंग्रेजों, उनके नियुक्त दीवानों या कि राजा के विरुद्ध हुए। दरअसल इन विद्रोहों को ही क्रांति का नाम दिया जाना चाहिये। ये विद्रोह बताते हैं कि क्रांति परिस्थितिजन्य होती है तथा उन कारकों से पनपती है जो आंतरिक हैं।.....। भूमि पुत्र यदि अपने ही जंगलों, वनोत्पादों और भूमि पर कर-बोझ से लदे होंगे तो विद्रोह की चिनगी पैदा होगी ही। ततकालीन दीवान, पंडा बैजनाथ का बस्तर के प्रशासक होने के नाते भूमि से जुडा होना एवं उसकी सांस्कृतिक आवश्यकताओं को समझना आवश्यक था। तुगलकी फरमान जिनमें अनिवार्य शिक्षा और शराब बंदी जैसे आदेश भी सम्मिलित है दर-असल जबरन थोपे जाने के कारण गलत संदर्भ में देखे गये तथा आदिवासियों नें इसे अपनी परंपराओ के साथ खिलवाड माना और फिर संपूर्ण अंचल में उसी तरह की प्रतिक्रिया होने लगी जैसे कि गाय-सूअर की चरबी वाले कारतूस नें 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था।...। अंग्रेजो का अप्रत्यक्ष शासन होने के कारण बाहर से आने वाले लोगों की तादाद और उनके बढते प्रभाव नें भी आग में घी डालने का काम किया।...। यह भी सच है कि कुछ सुलगती हुई आग में घी डालने का काम राजपरिवार की आंतरिक राजनीति ने भी किया था। यह आंदोलन उग्र हो गया। एसी क्रांति घट गयी जिसकी कल्पना न राजा नें की थी, न ही राय बहादुर पंडा बैजनाथ नें और न ही इन कठपुतलियों के पीछे बैठी अंग्रेज हुकूमत नें। गुंडाधुर इस क्रांति का अगुआ था और उसके क्रांति का प्रतीक डारा मिरि (आम की डाल पर लाल मिर्च बाँध कर इस प्रतीक को बनाया गया था) का गाँव-गाँव में स्वागत हुआ, ज्योत से ज्योत जलने लगी। एकाएक बस्तर जाग गया। राजा, दीवान और अंग्रेजी हुकूमत की नींद हराम हो गयी कि एसे असाधारण आंदोलन परिवर्तन की ताकत रखते हैं।...। फिर वह सबकुछ हुआ जिसके लिये अंग्रेज जाने जाते हैं। राजा नें तार से अंग्रेज आकाओं को सूचित किया और आनन फानन में मदद पहुँची भी। क्रांतिकारी, दीवान पंडा बैजनाथ की तलाश में आकाश पाताल एक किये हुए थे और साथ ही साथ उनके निशाने पर थे सरकारी संस्थान, संचार के साधन, मुनाफाखोर व्यापारी और अंग्रेजी सरकार के प्रतिनिधि। गोलियाँ चलती रहीं, लाशें बिछती रहीं और यह आंदोलन उग्र से उग्रतर होता रहा। और तब तक सफलता पूर्वक इस आन्दोलन नें अंग्रेजों को यह पाठ पढाया कि आदिम होना नासमझ होना नहीं है या कि वे शोषित रहने के लिये कत्तई तैयार नहीं हैं जब तक अपनी प्रचलित फूट डालो और शासन करो की नीति के तहत अंग्रेजो नें इस अंचल में जयचंद नहीं तलाश लिया। आन्दोलनकारियों में से एक सोनू माँझी को अंग्रेजो नें अपनी ओर मिला लिया जिसकी मुखबिरी पर एक बडा नर-संहार हुआ। कुचल दिया गया आन्दोलन, क्रांति की निर्मम हत्या कर दी गयी।


मैं इस कहानी में खो गया था। यह स्पष्ट था कि अदिवासी मोम के पुतले नहीं हैं अपितु स्वाभिमानी और जीवट हैं। मैं सोच में पड गया कि फिर नक्सलवादिता यहाँ के जंगलों का आज अभिशाप कैसे बन गयी। कैसे इन आदिमों का स्वाभिमान कुचल कर आतंकवादी समानांतर सरकार चला पाने में सफल हुए? माओवादी खाओवादी बन कर दीमक से चट कर रहे हैं बस्तर का सब कुछ सुख भी, शाँति भी और संपदा भी। मेरी निगाहों से यह प्रश्न स्वत: महाराज प्रबीर के पास पहुँच गया था। वे अब और भी गंभीर हो गये थे। महाराज नें इतिहास को कुरेदना जारी रखा।


व्यवस्था कोई भी हो उसका जनता से सीधा संवाद होना चाहिये। लोकतंत्र वहाँ तक तो ठीक है जहाँ जनता इतनी जागरुक है कि अपने अधिकार जानती हो। अधिकार समझ सकने और उपभोग करने वाली जनता ही कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक रहेगी। अन्यथा तो हम किसी क्षेत्र की बदहाली के दोषारोपण के लिये चेहरों और कारणों की तलाश करते रहेंगे, हासिल होगा शून्य। मैं आश्चर्य करता हूँ कि जो रिआया इतनी जागरुक थी कि उसमें अपने राजा का घेराव करने या उसकी लोक हित में अव्हेलना तक करने का साहस था वह भेड कैसे हो गयी या बना दी गयी? मैं 1876 में राजा भैरमदेव के शासनकाल की ओर ले कर चलता हूँ। घटना रोचक है। राजा भैरमदेव प्रिंस ऑफ वेल्स से मुलाकात करने मुम्बई जा रहे थे। रियासत को मंत्रियों के हाँथों छोड देने के विरोध में जनता का उग्र हो जाना क्या यह प्रमाणित नहीं करता कि आदिम जनता की तत्कालीन राजनीति पर कितनी गहरी पकड थी?......लेकिन अधिकार का नशा दीवानों से अधिक उनके चमचों और नौकरों को हुआ करता था। फैल रहे असंतोष की आपाधापी में दीवान के नौकरों/चमचों के हाँथों कुछ मुरिया आदिवासियों की हत्या हो गयी।....। जागरूक समाज उखड गया और प्रशासन कंदरायें तलाशने लगा। राजा के दीवान गोपीनाथ कपडदार, मुंशी अदित प्रसाद तथा राज्य के अन्य कुछ कर्मचारियों के अत्याचारों के विरुद्ध इस संग्राम में लगभग दस हजार से अधिक मुरिया और भतरा आदिवासियों की भीड नें बिना किसी हिंसा या रक्तपात के राजा भैरमदेव को जगदलपुर में हफ्तों घेरे रखा। सच कहूँ तो यह होता है आन्दोलन, जिसकी पृष्ठभूमि होती है, जो समाज पर गुजर रही पीडा की स्वाभाविक परिणति होते हैं। आन्दोलन, हत्या-कत्लेआम और बलात्कार के लिये नहीं होते, जैसा कि वर्तमान नक्सलवाद का स्वरूप है। आंदोलन का मक्सद बलपूर्वक अपनी बात मनवा कर अपनी मर्जी की व्यवस्था पाना नहीं होता। व्यवस्था में क्या और कैसे परिवर्तन होनें चाहिये, वस्तुत: एक स्वत: स्फूर्त आँदोलन इसकी दिशा निर्धारित करता है।...।आदिमों का यह आन्दोलन वार्ताओं और हस्तक्षेपों के कई दौर से गुजरा। पहले बिजगापट्टनम से साढे पाँच सौ सैनिकों की एक टुकडी आयी, उनसे वार्ता-विफलता के पश्चात बस्तर जिले के अंग्रेज सरकार नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट तथा डिप्टी कमिश्नर को वार्ताकार होना पडा। आदिमों की राजनीतिक समझ की बानगी यह थी कि डिप्टी कमिश्नर को बिना किसी जाँच के उन मंत्रियों को बर्खास्त करने का हुक्म जारी करना पडा जो रिआया की राय में प्रशासन-निहित भ्रष्टाचार के जिम्मेदार थे। इसके पश्चात ही इस विद्रोह अथवा क्रांति की शांति संभव हो सकी।


मैं आवाक था। बस्तर का यह दूसरा ही चेहरा था। क्या बस्तर उस दौर के बाद तो नहीं पिछडा जब हम अपने लोकतांत्रिक गणतंत्र होने का दंभ दिल्ली में भर रहे थे? जिस बस्तर की रिआया इतनी जागरुक थी कि अपने राजा और दीवान का दंभ भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी, अंग्रेजी हुक्मरानों को भी मनमानी करने से रोक पाने की जिस जनता में ताकत थी, आज उसकी आवाज कहाँ है? आज तो जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा शासन है? सारा भारत वर्ष तो यही जानता है कि बस्तर में पिछडे, नंगे, भूखे लोग रहते हैं और सारी सम्यता का ठेका इस प्रांत की परिधि के बाहर ही है। शायद सच यह है कि इस क्षेत्र की आवाज अब शासन तंत्र तक रही ही नहीं, ये जीते हैं तो इनकी किसमत मरते हैं तो माँ दंतेश्वरी की माया....कौन है इनका सुध लेवा?


महाराज प्रबीर जैसे मेरी सारी मन:स्थिति समझ रहे थे। उन्होने अपनी बात जारी रखी मेरी मौत जागरुक बस्तर की मौत थी। मुझे गोलियों से भून दिया गया और यह सब केवल इस लिये कि मैं अपने राज्य के भारत गणराज्य में विलय के बाद भी मान्य जनप्रतिनिधि था। मुझे तत्कालीन सरकार नें पागल करार दिया, गिरफ्तार किया, मेरे अधिकार सीमित किये और फिर वह सबकुछ हुआ जिसके लिये यह अंचल जाना जाता है एक जागरूक जनता द्वारा क्रांति का स्वर बुलंद किया जाना। मेरी मौत क्यों हुई यह दास्ता फिर कभी, आज तुमसे चर्चा इस संदर्भ तक ही कि क्या बस्तर को अपनी आवाज उठाने के लिये नस्कली आतंकवादियों की आवश्यकता है?.....क्षेत्र की जनता आदिम है किंतु निरीह नहीं। बुस्शर्ट और पैंट नहीं पहनती लेकिन सभ्य समाज को आईना दिखा पाने की क्षमता इनमें है। लौहंडीगुडा का गोलीकांड जलियावाला बाग कांड की तरह ही नृशंस था क्या शेष भारत यह तथ्य जानता है? बात भी तब की जब भारत को आजाद हुए चौदह वर्ष होने को थे यानी कि वर्ष 1961। मेरी गिरफ्तारी का विरोध कर रही आम जनता उग्र नहीं थी, हत्यारी नहीं थी, आतंकवादी नहीं थी। उसे फिक्र केवल अपने उस जनप्रतिनिधि की थी जो नयी सरकार द्वारा इस अंचल की की जा रही उपेक्षा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद किया करता था और उसे अकारण गिरफ्तार कर लिया गया था। क्या अभिव्यति की सचमुच स्वतंत्रता इस राष्ट्र में है? मैं राजा नहीं था, अपितु पूर्व विधायक होने के साथ साथ जनता का एसा प्रतिनिधि था जिसे पूरा बस्तर अपना मानता था, स्नेह देता था और जिसके लिये कुरबान हो जाने को तत्पर था।....। हाँ यही मेरा दोष था। नक्सलसमर्थक ध्यान पूर्वक अपनी स्मृति पैनी करें जिन्हें ये लगता है कि वे मानसिक कोढी कोई बडी लडाई लड रहे हैं, यह बस्तर उनके मुख पर थूकना ही चाहता है।....। जब जब लडना चाहता था बस्तर, एक साथ उठ खडा हुआ और जब लडना चाहेगा बस्तर तो बन्दूक नहीं अपने तीखे वाण ले कर ही उतरेगा।......।


महाराज कुछ पल रुके अब जब वे बोले तो उनके स्वर से वेदना गहरी प्रतीत होती थी यह दास्तान 1965 की है, बस्तर अकाल की चपेट में था और सरकारी तंत्र चरमरा गया था। बस्तर भी कालाहाण्डी हो जाता अगर मैं मंहगाई और अकाल की दोहरी मार झेल रही जनता के बीच नहीं जाता। आपसी सामंजस्य और एकता प्रदर्शित कर इन आदिमों नें चमत्कार कर दिया। जमाखोरों से अवमुक्त हो कर ये आदिम साप्ताहिक बाजार की परिकल्पना के साथ और दुर्भिक्ष से बिना सरकारी मदद लिये लडने के संकल्प के साथ उतरे और सरकारी मूल्य से आधे दाम में अपने सामान, उपज और उत्पाद बाजार को उपलब्ध कराने लगे। यह एक सरकार की हार और उस जनता की जीत थी जिसका विकास कराये जाने का दावा यह विकाशशील, आर्थिक प्रगतिशील राष्ट्र करता है।.....। मेरे नेतृत्व में हजारो आदिम महिलायें नीली साडी में और युवक नीली पगडी में बस्तर की अस्मिता के लिये और उस सरकार के खिलाफ एकत्रित हुए जिसे बस्तर नक्शे पर देखते ही मोतियाबिन्द हो जाता था। आदिमों का एकत्र होना एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी क्यों नहीं माना गया और इनकी माँगे और उद्देश्य जानने के बाद भी ये बागी क्यों करार दिये गये इसका जबाब इस कृतघ्न राष्ट्र नें कभी नहीं दिया। इसका जवाब उन कम्बख्तों के पास भी नहीं है जो नक्सलियों के महिमामंडन में मानवाधिकार की मनगढंत कहानियाँ गढते हैं। कहाँ गया था उन आदिमों का मानवाधिकार जो सरकार से सवाली थे। उनके सिर, सीने और आँखों को निशाना बना बना कर उस दिन गोलियाँ चलायी गयी जब इन्होने समझौते की पेशकश की थी। ये आदिम किसी उद्देश्य के लिये अथवा व्यक्ति के समर्थन में एकत्रित भी हो जाते और अपना विरोध बुलंद भी कर लेते तो क्या भारत की सत्ता पर काबिज हो जाते या व्यवस्था बदल देते? यह केवल क्षेत्र विशेष का संघर्ष था क्षेत्रीय प्रशासन के ही विरुद्ध अपनी अस्मिता और उन अधिकारों के लिये जिससे वे वंछित होने या किये जाने लगे थे।....। 25 मार्च 1966 को सुरक्षा बलो नें आदिमों पर निर्मम होना प्रारंभ किया जो राजमहल परिसर में एकत्रित थे। लाठीचार्ज, अश्रुगैस और गोलीबारी...यह आजाद भारत की घटना है। जिन आदिमों नें आत्मसमर्पण भी किया उन्हे भी इस कदर पीटा गया जैसे ये आदम जानवर ही हों जैसा कि तथाकथित सभ्य समाज समझता है। मैने स्वयं कई आदिम साथियों को महल से बाहर निकलने में मदद की जिनमें महिलायें और बच्चे भी थे। मैं निहत्थों पर होने वाले लाठीचार्ज से विचलित हो गया था और आक्रोशित भी। अपने कक्ष की ओर बढते हुए पोर्च की सीढियों पर मैने कदम रखा ही था कि मुझे निशाना कर दागी गयी एक गोली.....आह!! मैं गोली लगने की पीडा से छटपता हुआ किसी तरह अपने कक्ष तक पहुँचा और बिस्तर पर लेट गया। अपने अर्दली को मैने चाय लाने का इशारा किया...कमरे में अश्रुगैस भरने लगी थी। गोली का दर्द और अश्रुगैस की जलन..मेरी चेतना मेरा साथ छोड रही थी को मैं अपने आसपास होने वाली हलचल से सावधान हुआ। मुझे चारो ओर से सशस्त्र सिपाहियों नें घेर रखा था...मैं निहत्था था, अकेला भी उस वक्त, लेकिन मैं उन आदिमों के साथ था जो आदमी नहीं कहाते तो मेरे पास ही मानवाधिकार क्या होते...एक या दो नहीं....मुझे गोलियों से छलनी कर दिया गया था।....। अलविदा मेरे बस्तर मैं आखिरी साँस तक तेरा ही था, तेरे लिये लडा, तेरे लिये मरा...अलविदा बस्तर कि अब तेरी भी आखिरी साँसे ही हैं महाराज की आँखे नम हो थी और मुँदने लगी थी और मेरी आँखे खुल गयीं। यह केवल स्वप्न नहीं था।


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मैंने उठ कर अपनी मातृभूमि बस्तर की माटी का नमन किया जहाँ के शासक महाराज प्रबीर जैसे क्रांतिकारी रहे हैं। प्रबीर हमेशा जिन्दा रहेंगे, पूजे जाते रहेंगे...मन बोझिल हो गया था कि तभी अखबार वाले नें खिडकी को निशाना लगा कर जो अखबार फेंका था वह बिलकुल मेरे सामने आ गिरा। एक समाचार पर निगाह ठहर गयी सलवा जुडुम एक विफल प्रयोग। मैने बहुत गहरी स्वांस ली और एक सवाल खुद से ही पूछा नक्सलवाद से आधा भारत प्रभावित है लेकिन क्या बस्तर के आदिमों को छोड कर किसी और प्रांत के लोग इन आतंकवादियों के खिलाफ कहीं भी और किसी भी तरह लामबंद हुए? उत्तर था - नहीं। यह साहस केवल बस्तर में ही संभव है, मेरे बस्तर के जाँबाज आदिम अपनी लडाई खुद लड सकते हैं। नक्सलवादियों तुम्हें ये आदिम निरीह लगते होंगे कि अभी कोई गुंडाधुर उठ खडा नहीं हुआ वरना बिल में दुबके चूहे भगाने के लिये धनुष की टंकार की काफी है। सावधान!! अब बहुत हो चुका, माओ...जाओ...


***राजीव रंजन प्रसाद

14.07.08