Wednesday, August 21, 2013

अश्रुपूरित है बस्तर – विदा लाला जगदलपुरी


अभी दो माह पहले ही मैं लाला जगदलपुरी से उनके निवास पर मिला था। उनका जीवन पूरी तरह एक बिस्तर पर सिमट गया था। बहुत कोशिश के बाद उन्होंने मुझे पहचाना और मैने उनका कपकपाता हुआ हाथ पकड़ लिया। यह उनसे मेरी आखिरी मुलाकात थी। लाला जी का आखिरी साक्षात्कार भी मैने ही लगभग एक वर्ष पूर्व लिया था और तब सु:ख़द आश्चर्य यह था कि उन्होंने लिख कर सभी प्रश्नों के उत्तर दिये। विश्वास ही नहीं होता कि लाला जगदलपुरी अब हमारे बीच नहीं रहे। उनका देहावसान 14.08.2013 की सायं 5:00 बजे तिरानबे वर्ष की आयु में हुआ। दण्डकवन के इस ऋषि को बस्तर क्षेत्र के पर्यायवाची के रूप में जाना जाता था। रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे, वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17 दिसम्‍बर 1920 को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये।

लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि थे। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश (1983); पड़ाव (1992); हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी नें बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्य वश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय नें यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये; आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते।

लाला जगदलपुरी जी के कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य, युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग, ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी नें क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त अक्षर आदित्य सम्मानतथा छत्तीसगढ शासन प्रदत्त पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मानप्रमुख है। लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं नें भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा जब गुलशेर अहमद खाँ शानी को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती।

केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी थे। 1939 में जगदलपुरे में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940 में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस ससंथा द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे पागल तथा अपनी लाज। लाला जी नें इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया था। 1949 में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक अपनी लाजविशेष चर्चित रहा था। लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 – 1950 तल लाला जी नें दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी साप्ताहित ज़िन्दगीके लिये बस्तर संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का प्रकाशन 1950 में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972 में आया था। अंगारा में कभी ख्यातिनाम साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं; उल्लेखनीय है कि शानी भी लालाजी का एक गुरु की तरह सम्मान करते थे। लाला जगदलपुरी 1951 में अर्धसाप्ताहिक पत्र राष्ट्रबंधुके बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित लीडर”; कलकत्ता से प्रकाशित दैनिक विश्वमित्ररायपुर से प्रकाशित युगधर्मके बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी 1984 में देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका बस्तरियाका सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। एसा अभिनव प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के बीच संवाद की एक कडी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी।

लाला जगदलपुरी से जुडे हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह नें शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन नें 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी नें न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति थे।

कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे थे। जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बडे पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे थे। इसी कक्ष में उन्होंने अंतिम स्वांस ली। लाला जगदलपुरी का न होना एक अपूर्णीय क्षति है; उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।


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Friday, August 16, 2013

आंत्रशोध, अबूझमाड़ और दो व्यवस्थायें

दैनिक छत्तीसगढ में 14.08.2013 को प्रकाशित 

आंत्रशोध, अबूझमाड़ और दो व्यवस्थायें
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अबूझमाड़ में आंत्रशोध से हो रही मौतों पर किससे प्रश्न किया जाये? क्या इस व्यवस्था से जिसने तीन दशक पहले ही अबूझ जमीन का लाल सलाम कर दिया अथवा उस व्यवस्था से जो क्रांति का झुन्झुना बजाते अपना सिर छुपाने के लिये तम्बू मे घुसी थी और अंतत: तम्बू का मालिक ही बेदखल कर दिया गया? लगातार बस्तर के इस दुर्गम क्षेत्र में आंत्रशोध से होने वाली मौतों की खबरें आ रही हैं। यह आंकडा जितना सामने आया है उससे कई गुना अधिक हो सकता है लेकिन दुर्भाग्य यह कि हर ओर केवल मूक दर्शक ही प्रतीत हो रहे हैं। जिन क्षेत्रों में यह बीमारी घर कर गयी है वे विशुद्ध माओवादी आधार इलाके अथवा लाल-आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र हैं। समस्या यह है कि आदिवासियों को बन्दूखों के रहमोकरम पर नहीं छोडा जा सकता और किसी भी कीमत पर प्रशासन का भीतर पहुँचना एक दायित्व है जो आसान नहीं है। कौन जाये भीतर और कैसे जाया जाये? सत्तर के दशक में तत्कालीन कलेक्टर ब्रम्हदेव शर्मा का अबूझमाड़ को मानव संग्रहालय बना कर शेष बस्तर से अलग-थलग कर देने का फैसला तथा उनके ही द्वारा इन क्षेत्रों में सड्क निर्माण की योजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल देना, आज अपने दुष्परिणाम दिखा रहा है। यह प्राथमिक कारण है कि कैसे बस्तर में माओवाद के अपनी जडें गहरी कीं। बस्तर के संदर्भ में बहुत समय तक इन विषयों पर बहस हुई है कि सड़क क्यों नहीं बनने दी जा रही, स्कूल किस लिये तोड़ दिये गये, पंचायत भवन क्यों उडा दिये गये, अस्पतालों में डॉक्टर क्यों नहीं पहुँचते आदि आदि। बहुत से तर्क-वितर्क भी सामने आये हैं जिनमे सुरक्षाबलों और नक्सलियों के द्वन्द्व को बहाना बना कर इन कारकों को सही ठहराने की कोशिश की जाती रही है। इधर इन्द्रावती तथा गोदावरी में बाढ के हालात हैं, शबरी खतरे के निशान पर है साथ ही साथ इन सरिताओं के सहायक नदियाँ-नाले भी उफान पर हैं। जो क्षेत्र मुख्य अथवा सहायक सड़कों के किनारे हैं उनतक तो प्रशासन अथवा चिकित्सा दल किसी तरह पहुँच सकता है किंतु उन स्थलों का क्या जहाँ सडकों को बनने ही नहीं दिया गया, जहाँ अस्पतालों को साँस लेने ही नहीं दिया गया और जहाँ के जनजीवन को घेर कर अलग थलग कर दिया गया है चूंकि एसा तथाकथित क्रांति को जीवित रखने के लिये आवश्यक था?

आज हालात यह हैं कि भैरमगढ ब्लॉक के माड़ इलाके में उनत्तीस मौते उलटी और दस्त के कारण हो चुकी हैं जबकि अनेक आदिवासी जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे हैं। ये तो बहुत छन कर सामने आयी जानकारियाँ हैं चूंकि इन्द्रावती नदी में आयी बाढ के कारण स्वास्थ्य अमला उन क्षेत्रों में नहीं पहुँच पाया है जहाँ आंत्रशोध की विभीषिका सर्वाधिक है यद्यपि यहाँ से निकटतम क्षेत्र कालेर के प्राथमिक स्कूल में स्वास्थ्य कैम्प अवश्य लगाया जा सका है। अबूझमाड़ के दूसरे प्रवेशद्वार नारायणपुर के निकट ओरछा के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में ही बेहतर इलाज संभव हो पा रहा है अन्यथा तो आवागमन की बुनियादी सुविधा भी उपलब्ध न होने के कारण मौतों का आंकडा बढता जा रहा है। स्वास्थ्य टीमों को भीतर जाने के निर्देश दे दिये गये हैं लेकिन प्रश्न यह है कि किस पहुँच मार्ग से?

अब बात दो व्यवस्थाओं के बीच पिसते आदिवासियों की कर लेते हैं। नक्सलियों के पास बन्दूखें चाहे कितनी भी आधुनिक हों लेकिन चिकित्सक न के बराबर हैं। जो चिकित्सा व्यवस्था उनके पास उपलब्ध भी है वह किसी महामारी से लडने में कदाचित सहायक नहीं हो सकती। समस्या दूसरी ओर भी है कि चिकित्सा अधिकारी खुद को संगीनों के सामने खडा कर के तो अपनी सेवायें प्रदान नहीं कर सकते। सामान्य परिस्थितियों में तो इन बाढ प्रभावित इलाकों में किसी न किसी तरह सेवायें पहुँचाई भी जा सकती थी लेकिन आप आपने चिकित्सकों को उस युद्ध भूमि में कैसे भेज सकते हैं जहाँ कोई कदम लैंडमाईन पर पड सकता है या कार्य करने पर वे बंधक भी बनाये जा सकते हैं, मुखबिर बता कर मार डाले जा सकते हैं? एसा कह कर मैं प्रशासन के लिये सेफ पैसेज नहीं बनाना चाहता, प्रशासन को किसी भी तरह इन अबूझ आदिवासी क्षेत्रों में पहुँचना ही होगा। यद्यपि मेरा प्रश्न बस्तर में कार्य करने का तमगा लगा कर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले स्वनामधन्य डॉक्टरों से भी है कि एसे समय में आप किन सेमीनारों, जुलूस-जलसों में व्यस्त हैं भाई? वे माओवादियों के मध्यस्त लोग कहाँ हैं जिनकी आवश्यकता है अभी, वे ही बीमार और दवा के बीच की मध्यस्तता भी कर लें? महामारी से लडने के पश्चात फिर से लाल-पीला सलाम होता रहेगा?  

हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि अबूझमाड़ भारत का विशिष्ठ क्षेत्र है जहाँ आज भी वे आदिवासी जनजातियाँ विद्यमान हैं जिनकी जीवन शैली तक में प्रागैतिहासिक अतीत के चिन्ह देखे जा सकते हैं। ये वास्तविक मूल निवासी हमेशा ही संघर्ष करने वाली जीवित कौम रही है तथा अपनी नैसर्गिकता और विरासत को समेटे हुए भी इन्होंने लगभग सत्तर के दशक तक मुख्यधारा से स्वयं को जोडे रखा था। यह तो हमारे नीति-निर्धारकों की अदूरदर्शिता का नतीजा है जो आदिवासी संस्कृति संरक्षण के नाम पर यहाँ जीवित मानव-संग्रहालयों का निर्माण कर गये। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि अबूझमाडिया नारायणपुर, दंतेवाडा या कि जगदलपुर से भी कट गया। माओवादियों के लिये अबूझमाडिया एक ढाल थे और पिछले तीन दशकों से वे ढाल ही बने हुए हैं। सामूहिक जीवन जीने वाले, सामूहिक खेती करने वाले, सामूहिक शिकार करने वाले तथा एक समान जीवन स्तर वालों के बीच किस साम्यवाद की स्थापना हो रही है, क्या कोई बता सकता है? यहाँ केवल बंदूख बोई जा रही है और उसी की फसल काटी जा रही है। इस गलतफहमी में भी रहने की आवश्यकता नहीं कि माओवादी दखल के बाद तीन दशकों ने आदिवासी जीवन मे ही कोई क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है अपितु वे लगभग सौ साल और पीछे खदेड़ दिये गये हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण आंत्रशोध फैलने के बाद उत्पन्न हुई परिस्थितियाँ हैं।

पीपली लाईव एक कालजयी फिल्म है जिसने मीडिया की कार्यशैली को उसकी नग्नता के साथ दिखाया है। नक्सली हत्याओं पर रात दिन डेरा जमा कर लाईव-कैमरा लिये घूमने वाले पत्रकारों की इन विकट परिस्थितियों के क्या बिजली सप्लाई रुक जाती है अथवा फोकस बिगड़ जाता है? अगर माओवादी परचे और गुडसा उसेंडी की प्रेसवार्ताओं को ही सम्पादकीय पन्नों पर छापने के लिये अखबार हैं तो स्वाभाविक ही है कि अबूझमाड़ की इस पीडा पर खामोशी बनी रहेगी। कुछ सौ-पचास जाने और चली जायेंगी और इससे भला किसको फर्क पड़ जाने वाला है? अबूझमाड़ तक यथासंभव चिकित्सा सहायता तथा प्रभावित परिवारों तक मदद पहुँचाये जाने की आवश्यकता है। माओवादियों को भी इस समय मानवता दिखानी चाहिये तथा कोशिश होनी चाहिये कि प्रभावित ग्रामीणों को निकटतम चिकित्सा केन्द्रों में लाया जा सके। सडकों के अभाव में 108 एम्बुक्लेंस आदि यहाँ किसी काम की सिद्ध नहीं हो सकती, उसपर प्राकृतिक अवरोध तथा जल-प्लावन की स्थितियाँ भी बाधक बनी हुई हैं। यदि संचार माध्यम अबूझमाड़ की इन परिस्थितियों को बडी खबर मानेंगे तभी एक दबाव दोनो ही व्यवस्थाओं पर निर्मित हो सकता है तथा इस महामारी से अबूझमाडिया साथियों की जान बचाई जा सकती है।
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