Friday, November 23, 2012

समुद्रगुप्त की महाकांतार (प्राचीन बस्तर) पर विजय


दक्षिण भारत को प्रमुखता के साथ इतिहास की पुस्तकों में जगह नहीं मिली है। वस्तुत: जब उत्तर भारत में साम्राज्यों के उत्थान पतन के दौर रहे तब भी सम्पूर्ण दक्षिणापथ के पास अपना गौरवशाली इतिहास व राजनीति रही है। प्राचीन बस्तर जिसे मौर्य काल में स्वतंत्र आटविक जनपद क्षेत्र कहा गया इसे समकालीन कतिपय ग्रंथों में महावन भी उल्लेखित किया गया है। साम्राज्यवादी शासक समुद्रगुप्त को दक्षिण विजय के लिये प्रमुखता से जाना है तथा वे गुप्त वंश के सर्वाधिक ख्यातिनाम विजेता रहे। उनके साम्राज्य विस्तार के लिये दक्षिण क्षेत्र की ओर बढने के कारणों को समझने के लिये मौर्य सत्ता की बिखरती हुई कडियों से बात आरंभ करनी होगी। अशोक वह आखिरी मौर्य सम्राट थे जिन्होंने विशाल भारतीय क्षेत्र में सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक एकता का सूत्रपात किया था। तथापि उनकी दान शीलता एवं युद्ध को वर्जित कर देने की नीति के सकारात्मक परिणाम तो हुए किंतु इसके कारण सत्ता कमजोर भी होती गयी। अशोक के बाद उसके उत्तराधिकारी इतने महत्वहीन शासक रहे कि इतिहासकारों को इस काल के शासकों के नाम व उनका कालक्रम निर्धारण करने में माथापच्ची करनी पडती है।

पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र नें मौर्य शासक बृहदर्थ को मार कर शुंगवंश (185 ई.पू से 73 ई.पू तक) की स्थापना की थी। कहा जाता है कि जब बृहदर्थ अपनी सेना का निरीक्षण कर रहे थे उसी समय उनके ही सेनापति पुष्यमित्र नें उनकी हत्या कर दी। पुष्यमित्र शुंग नें जिस क्रांति का नेतृत्व किया, उसे ब्राम्हण पुनर्स्थापन काल के रूप में भी जाना जाता है। धार्मिक असहिष्णुता का यह युग नहीं कहा जा सकता चूंकि इसी काल में विदिशा के निकट विभिन्न बौद्ध स्तूपों का निर्माण शासन द्वारा होने दिया था। पुष्यमित्र नें यवनों को परास्त किया तथा अपनी विजय के फलस्वरूप अश्वमेध यज्ञ भी किया था। महत्वपूर्ण है कि शुंग के समय में बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों को मिलने वाले राज्याश्रय तथा अनुदानों को बंद करवा दिया गया था। संस्कृत को पुन: प्रोत्साहन मिला तथा इसी समय में पतंजलि नें महाभाष्य एवं मनु नें मनुस्मृति की रचना की। महाभारत के नये रूप की रचना भी इसी काल में हुई थी। उल्लेखनीय है आटविक जनपद अथवा दण्डकारण्य पर इनके द्वारा अधिकार करने की कोई चेष्टा कभी नहीं की गयी। यह पुष्यमित्र का ही समय तथा जब मौर्य शासन के पतन से उत्पन्न अस्थिरताओं का लाभ उठा कर कलिंग राज महामेघवाहन नें अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उनकी ही पीढी के तीसरे शासक कलिंगराज खारवेल द्वारा उडीसा के उदयगिरि में हाथीगुंफा अभिलेख प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण करवाया गया है जिसके अनुसार उनके वंशज 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। राजा ख़ारवेल ने भारत के सुदूर प्रदेशों को जीतकर अपने अधीन भी कर लिया था जिसमें प्राचीन बस्तर का क्षेत्र भी आता है। उन्होंने मगध सत्ता को भी विजित किया तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि ख़ारवेल अपने जीते हुए लम्बे समय तक अधिकार नहीं रख पाये तथा एक स्थायी साम्राज्य स्थापित करने में विफल रहे। खारवेल की प्रसंशा एसे शासक के रूप में करनी होगी जिसने कर-मुक्त व्यवस्था अपने शासित क्षेत्रों में लागू कर दी थी। मगध की राजनीति नें अगली करवट ली जब शुंग वंश अंतिम शासक देवभूति का वध कर के उसके प्रधानमंत्री वासुदेव कण्व में मगध की सत्ता संभाली व कण्व राज्य (72 ई.पू से 27 ई.पू तक) की स्थापना की। कण्व राजा सुशर्मा का वध कर के दक्षिण भारत से मगध की ओर बढे आन्ध्र सातवाहन साम्राज्य (27 ई.पू से 225 ई. तक) नें मगध की सत्ता पर अपना नियंत्रण हासिल किया। 22 ई. पूर्व में राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान 106 ई. के बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, सौराष्ट्र आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया।

180 ई. के आरम्भ से, मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश भी स्थापित हुए। उत्तर भारत के बडे क्षेत्र में चीन से सम्बद्ध युइशि जाति के राजवंश ‘कुषाण’ (60-240 ई.) की सत्ता स्थापित हो गयी थी। कुषाण राजवंश के अत्यधिक प्रभावशाली शासक कनिष्क हुए हैं; प्राचीन बस्तर से सम्बद्ध बौद्ध धर्म की महायान शाखा के महान दार्शनिक नागार्जुन इस युग के समकालीन महानतम विचारकों में थे तथा प्राचीन बस्तर में इन दिनों सातवाहनों का अधिकार था। कनिष्क पर बौद्ध धर्म की महायान शाखा का गहरा प्रभाव था। कनिष्क नें अपने समय में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति का आयोजन कश्मीर के 'कुण्डल वन' में किया था। इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो भागों - हीनयान और महायान में विभाजित हो गया। इस संगीति में दार्शनिक नागार्जुन भी शामिल हुए थे।

मौर्य सत्ता के पश्चात का बस्तर पूरी तरह स्वाधीन नहीं कहा जा सकता। महामेघवाहन वंश के राजा खारवेल नें जब इस क्षेत्र को जीता तो यहाँ जैन धर्म का बढ चढ कर प्रचार-प्रसार हुआ; यद्यपि यह अल्पावधि के लिये ही था। सातवाहनों की बस्तर पर सत्ता के समयों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को देखा गया। महावन क्षेत्रों में जनजातियों की धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला किये जाने अथवा बलात उन्हें शासित राजाओं के धर्म का अनुयाई बनाने के उल्लेख प्राप्त नहीं होते। अपितु सातवाहनों के पश्चात जैन व बौद्ध दोनो ही धर्मों के अस्तित्व के चिन्ह प्राचीन बस्तर से विलुप्त होने लगे थे। उत्तर और दक्षिण की इस खींचतान भरी राजनीति का निश्चित ही बस्तर पर असर पड रहा था। दक्षिण से उत्तर की ओर हुए दो बडे आक्रमण जिसमें महामेघवाहन वंश के खारवेल तथा उसके पश्चात सातवाहन शासक यद्यपि उत्तर भारत की राजनीति पर अपनी पकड बनाने में असफल रहे तथापि अपनी पहचान निश्चित रूप से इस शासनों नें छोडी है और चूंकि प्राचीन बस्तर क्षेत्र इन दोनों ही सत्ताओं के अधिकार में रहा अत: विवेचनात्मक दृष्टि से तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को देखना आवश्यक हो जाता है। बस्तर के वन क्षेत्र आवागमन के मार्ग भी थे जिसकी तस्दीक सातवाहन काल में ही प्राचीन बस्तर में आये चीनी यात्री ह्वेनसांग भी करते हैं तथा कोशल-कलिंग-आन्ध्र की अपनी यात्राओं के दौरान वे प्राचीन बस्तर के घने जंगलों को अपने वर्णन में कई बार सम्मिलित भी करते हैं। मौर्य युग तक आटविक जन उनकी सेना का हिस्सा थे तथा चन्द्रगुप्त नें तो एक अटवि टुकडी ही बना कर उसे अपनी सेना में सम्मिलित किया था (अर्थशास्त्र; कौटिल्य)। आशोक के पश्चात एसी किसी सैन्य टुकडी की जानकारी नहीं मिलती अपितु बस्तर क्षेत्र में मौर्य सत्ता के हस्तक्षेप के प्रति असंतोष भी झलकता है। नागार्जुन एक धुरी हैं जो नालंदा से जुडते हैं कनिष्क की सत्ता में सम्मानित हैं तथा दक्षिण भारत में महायान शाखा के प्रमुख प्रचारक भी हैं। नागार्जुन प्रमाण हैं कि तत्कालीन बुद्धिजीविता सत्ता की सीमाओं से आगे की बात थी तथा विद्वानों का सम्मान सत्तायें किया करती थीं। मध्य भारत और प्राचीन बस्तर की सत्ता में भी उतार चढाव और अस्थिरता की स्थिति निरंतर बनी रही। लगभग 350 ई. तक प्राचीन बस्तर में सातवाहनों की समाप्ति हो गयी थी। इस समय इक्ष्वाकुओं ने दण्ड़कारण्य के पूर्वीभाग पर अपनी संप्रभुता स्थापित की तो उत्तरी भाग में वाकाटकों का प्रभुत्व हुआ। वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के उस राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। तीसरी शताब्दि के मध्य तक वाकाटक संप्रभुता सम्पन्न हो गये थे। राजा प्रवरसेन-प्रथम ने दण्ड़कारण्य के कुछ क्षेत्रों को अज्ञात राजाओं से इसे अपने आधीन किया था।

वाकाटकों के दक्षिण में उदय के साथ ही उत्तर-पूर्वी भारत में गुप्त वंश का उदय हुआ जिसका प्रारंभिक राज्य वर्तमान उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कुछ हिस्से थे। मध्य भारत से नाग शासक कुषाणों को गहरी चुनौती प्रस्तुत कर रहे थे। गुप्त साम्राज्य के प्रथम ज्ञात राजा हैं श्रीगुप्त जिनसे प्रारंभ हो कर गुप्त साम्राज्य नें विशाल भारत के एकीकरण का अद्भुत कार्य सम्पन्न कर दिखाया जिसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका समुद्रगुप्त नें निभाई थी।  समुद्रगुप्त का शासनकाल (325-380 ई.) राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। समुद्रगुप्त एक असाधारण विजेता थे जिनकी महान विजयों कारण विन्सेट स्मिथ ने उन्हें नेपोलियन कहा था। दक्षिणापथ विजय उनका समसे महत्वपूर्ण अभियान था जिसमें उन्होंने बारह महत्वपूर्ण विजय प्राप्त की हैं। उनकी सम्पूर्ण दक्षिणापथ का संक्षेपीकरण किया जाये तो उन्होंने 1) महाकोसल (सम्बलपुर, रायपुर, बिलासपुर आदि छत्तीसगढ के क्षेत्र) के राजा महेन्द्र; 2) महाकांतार (प्राचीन बस्तर) के राजा व्याघ्रराज; 3) कोसल (महानदी के किनारे का क्षेत्र तथा ओडिशा का सोनपुर) के राजा मंतराज; 4) पिष्टपुर (आन्ध्र राज्य के गोदावरी तट से समुद्र तट तक) के राजा महेन्द्रगिरि; 5) कोट्टूर (ओडिशा का गंजाम क्षेत्र) के राजा स्वामीदत्त; 6) विजिगापट्टनम (वर्तमान विशाखापट्टनम); 7) काँची (तमिलनाडु का वर्तमान काँजीवरम) के राजा विष्णुगोप; 8) अवमुक्त (गोदावरी के आसपास का क्षेत्र) के राजा नीलराज; 9) वेंगी (पल्लोर और निकटवर्ती क्षेत्र) के राजा हस्तिवर्मन; 10) पालक्क (आन्ध्र का किल्लुर क्षेत्र) के राजा उग्रसेन; 11) देवराष्ट्र (आन्ध्र के विशाखापट्टनम का निकटवर्ती क्षेत्र) के राजा कुबेर तथा कुशलस्थलपुर (तमिलनाडु का उत्तरी अर्काट जिला) के राजा धनंजय को पराजित किया था। इस तरह दक्षिण भारत के इतने विशाल क्षेत्र पर पहली बार किसी एक सत्ता का ध्वज लहराने लगा था।

रायबहादुर डॉ. हीरालाल नें छत्तीसगढ के इतिहास पर समुद्रगुप्त के आक्रमण का उल्लेख करते हुए लिखा है “समुद्रगुप्त ने महाकौशल अर्थात वर्तमान छत्तीसगढ के राजा महेन्द्र से लडाई की और उसे हरा दिया। इसी प्रकार महाकांतार के राजा व्याघ्रराज को भी हराया था। यहा महाकांतार बस्तर का भाग रहा होगा जहाँ वर्तमान में भी घना जंगल है”। उल्लेखनीय है कि महाकांतारम कांतार, महावन जैसे नामों से बस्तर क्षेत्र को महाभारत समेत अनेक प्राचीन ग्रंथों में सम्बोधित किया गया है। महाकांतार पर समुद्रगुप्त की विजय वर्ष 350 ई. में हुई थी तथा यहाँ के वाकाटक वंश के राजा व्याघ्रराज नें सम्राट की आधीनता स्वीकार कर ली थी। यद्यपि व्याघ्रराज के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं कई इतिहासकार उन्हें नल वंश से सम्बन्धित मानते हैं तो कुछ वाकाटक नरेश। नल-वाकाटक दोनो ही राजवंश लम्बे समय तक एक दूसरे को पराजित करते हुए लगभग बारी बारी से प्राचीन बस्तर क्षेत्र में शासक रहे हैं अत: इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है। व्याघ्रराज अगर वाकाटक नरेश रहे होंगे तो भी उनके पश्चात नल सत्ता का प्राचीन बस्तर क्षेत्र में प्रादुर्भाव हो जाता है। मूल विवेचना का विषय राजवंशों की पहचान अथवा व्याघ्रराज द्वसरा समुद्रगुप्त की आधीनता स्वीकार करना नहीं है अपितु इसके बाद समुद्र गुप्त द्वारा वाकाटक नरेश को स्वायत्त शासन करने का अधिकार देना है। समुद्रगुप्त से बस्तर का सम्बन्ध केवल विजय तक ही सीमित रहा चूंकि उसकी सेनाओं के यहाँ से हटते ही इस वन प्रदेश पर उनके सत्ताचिन्ह नहीं मिलते। समुद्रगुप्त के बाद भी किसी गुप्त शासक नें महाकांतार पर पुन: अधिकार प्राप्त करने की कभी चेष्टा नहीं की। बस्तर गुप्त-वाकाटक सांस्कृतिक सम्बन्धों का अवश्य दर्शनीय स्थल हैं जहाँ गुप्त कालीन अनेक मूर्तियाँ व अवशेष यत्र-तत्र से प्राप्त हो जाते हैं। विवेचनायोग्य तथ्य है कि समुद्रगुप्त महाकांतार जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र को स्वायत्त रखने के लिये क्यों सहमत हुए? मौर्य यहाँ अपने सत्ता के चिन्ह क्यों नहीं छोड सके? सम्भवत: इस गहन वन क्षेत्र को किसी राजा-सम्राट द्वारा जीता जाना केवल एक प्रतीक की तरह ही रहा होगा और यहाँ कि आदिवासी जनता अपने स्वाभिमान को किसी विजेता की सत्ता के आगे गिरवी रखने को तत्पर कभी नहीं दिखी। यहाँ तो वही सफल शासक रहे जो उनके अपने हो सके।

इतिहासकार अगर कवि भी हो तो घटनाओं के विवरण अत्यधिक रोचक रूप में प्रस्तुत होते हैं। बस्तर के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. के. के. झा नें समुद्रगुप्त पर पूरा खण्डकाव्य लिखा है। यह खण्डकाव्य समुद्रगुप्त के विजय ही नहीं उसके पश्चात उसे जीवन की निस्सारता पर हुए बिध को बेहद रुचिकर तरीके से प्रस्तुत करता है। डॉ. झा व्याग्रराज को नल शासक निरूपित करते हैं तथा यह मानते हैं कि समुद्रगुप्त नें युद्ध लड कर नहीं अपितु विवाह सम्बन्ध द्वारा प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर अधिकार किया था। प्रस्तुत है डॉ. के के झा रचित खण्डकाव्य से संबंधित पंक्तियाँ -

विशाल वन प्रांतर आवेष्ठित, दण्डकारण्य में था यह राज्य
गुरु शुक्राचार्य श्राप से कभी हुआ था निश्चित त्याज्य।

समय फिरा फिर इस अरण्य का, रघुपति का जब हुआ आगमन,
उनके अद्भुत वीर कृत्य से, राक्षस रहित हुआ था यह वन।

सुख समृद्धि पुन: लौटी थी, नल-कुल शासित अंचल था
सद्य: व्याघ्र राज राजा थे, उनका राज्य अचंचल था।

युद्ध नहीं उनको अभीष्ठ था, स्वतंत्रता उनको प्रिय थी,
उनकी शक्ति संधि चर्चा को गति देने को ही सक्रिय थी।

परम-पवित्र परिणय पश्चात संधि सफल सम्पन्न हुई,
सम्बन्धी सह मित्र भावना सहज रूप प्रतिपन्न हुई।

व्याघ्रराज नें निज कन्या का दान किया गुप्त नृपवर को,
नल-कुल में प्रसन्नता छाई, पाकर सर्वश्रेष्ठ वर को।

व्याघ्रराज से मैत्री कर के अतिप्रसन्न थे मागध भूप,
गरुड स्तम्भ स्थापित करवाया, इस मैत्री के प्रतीक स्वरूप।

Friday, November 02, 2012

बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं



यह असाधारण सत्य है कि छत्तीसगढ राज्य का बस्तर क्षेत्र अगर किसी एक व्यक्ति को अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान के रूप में जानता है तो वह लाला जगदलपुरी हैं। तिरानबे वर्ष की आयु, अत्यधिक क्षीण काया तथा लगभग झुक चुकी कमर के बाद भी लाला जी अपनी मद्धम हो चुकी आँख को किसी किताब में गडाये आज भी देखे जाते हैं। अब एक छोटे से कमरे में सीमित दण्डकारण्य के इस ऋषि का जीवन असाधारण एवं अनुकरणीय रहा है। लाला जगदलपुरी दो व्यवस्थाओं के प्रतिनिधि हैं; उन्होंने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलते देखा तथा वे बस्तर में हुई हर उथलपुथल को अपनी पैनी निगाह से जाँचते-परखते तथा शब्दबद्ध करते रहे। वह आदिम भाषा हो या कि उनका लोक जीवन लाला जी से बेहतर और निर्पेक्ष कार्य अब तक किसी नें नहीं किया है। डोकरीघाट पारा का कवि निवास लाला जगदलपुरी के कारण एक पर्यटन स्थल बना हुआ है तथा एसा कोई बुद्धिजीवी नहीं जो बस्तर पर अपनी समझ विकसित करना चाहता हो वह लाला जी के चरण-स्पर्श करने न पहुँचे। लाला जी की व्याख्या उनका ही एक शेर बखूबी करता है  - 

एक गुमसुम शाल वन सा समय कट जाता,
विगति का हर संस्करण अब तक सुरक्षित है। 
मिट गया संघर्ष में सबकुछ यहाँ लेकिन, 
गीतधर्मी आचरण अब तक सुरक्षित है।  
(मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश – 1983)

रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17 दिसम्बंर 1920 को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये।   

लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं – मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश (1983); पड़ाव (1992); हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें  तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं – हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं – हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी नें बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं – बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्य वश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय नें यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये; आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते। 

लाला जगदलपुरी जी के कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य, युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग, ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी नें क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त “अक्षर आदित्य सम्मान” तथा छत्तीसगढ शासन प्रदत्त “पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान’ प्रमुख है। लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं नें भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा हब शानी को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती।   

केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी हैं। 1939 में जगदलपुरे में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940 में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस ससंथा द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे – पागल तथा अपनी लाज। लाला जी नें इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया है। 1949 में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक “अपनी लाज” विशेष चर्चित रहा था। लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 – 1950 तल लाला जी नें दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी साप्ताहित “ज़िन्दगी” के लिये बस्तर संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का प्रकाशन 1950 में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972 में आया था। अंगारा में कभी ख्यातिनाम साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं; उल्लेखनीय है कि शानी भी लालाजी का एक गुरु की तरह सम्मान करते थे। लाला जगदलपुरी 1951 में अर्धसाप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” के बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित “लीडर”; कलकत्ता से प्रकाशित “दैनिक विश्वमित्र” रायपुर से प्रकाशित “युगधर्म” के बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी 1984 में देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका “बस्तरिया” का सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। एसा अभिनव प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के बीच संवाद की एक कडी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी।      

लाला जगदलपुरी से जुडे हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह नें शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन नें 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी नें न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। आज उम्र के चौरानबे वसंत वे देख चुके हैं। कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे। जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बडे पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे हैं। लाला जी अब ठीक से सुन नहीं पाते, नज़रें भी कमजोर हो गयी हैं। भावुकता अब भी उतनी ही है; हाल ही में जब मैं उनसे मिला था तो वे अपने जीवन के एकाकीपन से क्षुब्ध थे तथा उनकी आँखें बात करते हुए कई बार नम हो गयीं। लाला जगदलपुरी के कार्यों, उपलब्धियों व जीवन मूल्यों को देखते हुए उन्हें अब तक पद्म पुरस्कारों का न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। लाला जगदलपुरी को पद्मश्री प्रदान करने माँग अब कई स्तरों पर उठने लगी है; यदि सरकार इस दिशा में प्रयास करती है तो यह बस्तर क्षेत्र को गंभीरता से संज्ञान में लेने जैसा कार्य कहा जायेगा चूंकि बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं।

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लाला जगदलपुरी को पद्मश्री की माँग को ले कर एक हस्ताक्शर अभियाच चलाया गया था जिसमें देश विदेश से अनेकों हस्ताक्षर प्राप्त हुए हैं- http://signon.org/sign/padmshree-for-lala-jagdalpur.fb21?source=c.fb&r_by=5402702
     
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