Friday, August 28, 2015

रक्षाबन्धन और बस्तर का दफ़्न इतिहास


रक्षाबन्धन पर बहुत सी कहानियाँ हमारे सम्मुख हैं। अधिकतम कहानियाँ पौराणिक आख्यान हैं तो कुछ भारत के गौरवशाली इतिहास में सद्भावना वाले पन्नों से भी जुड़ी हुई हैं। भविष्य पुराण में इन्द्राणी द्वारा देव-असुर संग्राम के दौरान रक्षा की कामना से इन्द्र को रक्षासूत्र बाँधने का उल्लेख मिलता है। स्कंधपुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में देवी लक्ष्मी द्वारा राजा बलि को रक्षा सूत्र बाँधने का उल्लेख मिलता है। महाभारत का वह प्रसंग जहाँ भरी सभा में दु:शासन द्वारा साड़ी खींचे जाने से द्रौपदी की रक्षा श्री कृष्ण करते हैं उसके परोक्ष में भी एक कथा है जहाँ कृष्ण के जख्मी हाथों में द्रौपदी द्वारा कपडे का टुकडा बाँधे जाने का उल्लेख मिलता है। यह सिलसिला प्राचीन कृतियों और महाकाव्यों से बाहर निकल कर इतिहास की दहलीज पर पहुँचता है। कहा जाता है कि सिकन्दर की पत्नी ने राजा पुरु को राखी बाँध कर अपने पति की रक्षा का वचन लिया था। एक अन्य आख्यान जहाँ यह उल्लेख मिलता है कि मेवाड़ की महारानी कर्मावती ने रक्षासूत्र भेज कर मुगल बादशाह हुमायूं से सहायता माँगी, आक्रांता बहादुरशाह के विरुद्ध मेवाड़ की रक्षा के लिये यह सहायता की गयी थी।
रक्षाबन्धन के पर्व की महत्ता जितनी अधिक है यदि इतिहास टटोला जाये तो उससे जुडे अनेक ऐसे प्रसंग और भी हैं जिन्हें यदि दस्तावेजबद्ध किया जाये तो आने वाली पीढी को अपनी संस्कृति व अतीत को सही तरह से समझने में सहायता मिल सकती है। इसी तरह की एक कहानी सत्रहवीं सदी के बस्तर राज्य से जुडी हुई है। राजशाही का सबसे क्रूरतम पहलू यह हुआ करता था कि शासक बाहरी शत्रुओं से अधिक अपने परिजनों से ही भयभीत रहा करता था। सिंहासन के लिये पिता की हत्या पुत्रों ने, भाई की हत्या भाई ने यहाँ तक कि माताओं ने पुत्रों की भी हत्या करवायी है। वह बस्तर शासन के लिये ऐसा ही कठिन समय था।

बस्तर के राजा राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) की दो रानियाँ थी – रुद्रकुँवरि बघेलिन तथा रामकुँवरि चंदेलिन। रानी रुद्रकुँवरि से दलपत देव तथा प्रताप सिंह राजकुमारों का जन्म हुआ तथा रानी रामकुँवरि के पुत्र दखिन सिंह थे। रानी रामकुँवरि अपने पुत्र दखिन सिंह को अगला राजा बनाना चाहती थी। रामकुँवरि की साजिश के अनुसार राजकुमार दलपत देव को कोटपाड़ परगने तथा प्रतापसिंह को अंतागढ़ मुकासा का अधिपति बना कर राजधानी से बाहर भेज दिया गया। इससे वयोवृद्ध राजा के स्वर्गवास के बाद दखिन सिंह को सिंहासन पर बैठाने में आसानी होती। कहते हैं कि बुरी नीयत से देखे गये सपने सच नहीं होते। दखिन सिंह भयंकर रूप से बीमार पड़ गये। उनके बचने की सारी उम्मीद जाती रही। आखिरी कोशिश दंतेश्वरी माँ के दरबार में की गयी। मृत्यु से बचाने के लिये राजा ने अपने बीमार बेटे को दंतेश्वरी माँ की मूर्ति के साथ बाँध दिया। दखिन सिंह स्वर्ग सिधार गये। लाश के बोझ से रस्सियाँ टूट गयी। माँ दंतेश्वरी के चरणों में राजकुमार का मस्तक पड़ा था। राजा यह सदमा सह नहीं कर सके। एक वर्ष के भीतर ही सन 1721 ई. में स्वर्ग सिधार गये।

राजा के दोनों बेटे उनकी मौत के समय राजधानी से बाहर थे। रानी रामकुँवरि अभी भी षडयंत्र कर रही थीं। मौका पा कर बस्तर का सिंहासन रानी रामकुँवरि के भाई (1721-1731 ई.) ने हथिया लिया। असली वारिस खदेड़ दिये गये। राजकुमार प्रतापसिंह रीवा चले गये और दलपतदेव ने जैपोर राज्य में शरण ली। जैपोर के राजा की सहायता से दलपतदेव ने कोटपाड़ परगना पर अधिकार कर लिया। अब वे बस्तर राज्य के दरबारियों से गुपचुप संबंध स्थापित करने लगे। एक वृहद योजना को आकार दिया जाने लगा और इसके प्रतिपादन का दिन निश्चित किया गया – रक्षाबन्धन। दलपतदेव ने मामा को संदेश भिजवाया कि उन्हें आधीनता स्वीकार्य है तथा वे राखी के दिन मिल कर गिले-शिकवे दूर करना चाहते हैं। संधि का प्रस्ताव पा कर मामा की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। इस संधि से उसका शासन निष्कंटक हो जाने वाला था। वर्ष 1731 को रक्षाबन्धन के दिन दलपतदेव नेग ले कर दरबार में उपस्थित हुए। मामा-भाँजे का मिलन नाटकीय था। भाँजे ने सोचने का अवसर भी नहीं दिया। निकट आते ही अपनी तलवार खींच ली और सिंहासन पर बैठे मामा का वध कर दिया (दि ब्रेत, 1909)। इस तरह दस साल भटकने के बाद दलपत देव (1731-1774 ई.) ने अपना वास्तविक अधिकार रक्षाबन्धन के दिन ही प्राप्त किया था।

रक्षाबन्धन के दिन अपना राज्याधिकार योग्यता, युक्ति, साहस तथा रणनीति के बल पर हासिल करने वाले राजा दलपत देव के नाम पर की जगदलपुर राजमहल की पृष्ठभूमि में अवस्थित दलपतसागर ताल है जिसे बाहरी आक्रांताओं से राजधानी को सुरक्षित रखने के लिये उन्होंने ही खुदवाया था। राज-पाट की कहानियाँ एक तरफ लेकिन रक्षाबन्धन से जुडी इस कहानी से पर्व की महत्ता और बढ जाती है। रक्षाबन्धन का यह प्रसंग बस्तर के इतिहास का गर्व से भरा पन्ना भी है।
 -दैनिक छ्त्तीसगढ में प्रकाशित 

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Sunday, August 02, 2015

मीनाकुमारी, सारथी - पासवान और बुद्ध का रास्ता

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“मीना कुमारी हमको बहुत पसंद है सर इसलिये अपनी घोड़ी का नाम भी यही रख दिये हैं”। सुरेन्द्र पासवान, जो राजगीर में मेरे सारथी थे, कुछ मुस्कुराकर और थोड़ी उँची आवाज में बोले।

मौसम मनोनुकूल था, बादल छाये हुए थे और हवा की सामान्य से कुछ तेज गति होने के कारण ‘टमटम’ से परिभ्रमण आनंददायी हो गया। यथानाम तथा गुण, मीनाकुमारी की सधी हुई चाल थी उसपर गले में लगे पट्टे पर से एक ही धुन में बजते घुंघरु…..। मसीही कैलेंडर में जहाँ से शून्य शुरु होता है उससे भी कई हजार साल पीछे जाने पर ही राजगीर (राजगृह) के वैभव की कल्पना संभव है। उस महाराज जरासंध की राजधानी थी यह मगध भूमि जिन्हें परास्त करने के लिये कौटिल्य के आगमन से बहुत पहले ही कृष्ण को कुटिलता की दीक्षा भीम को प्रदान करनी पडी थी जिसके फलस्वरूप विलक्षण वरदान से सुरक्षित उस महाप्रतापी नरेश की मलयुद्ध में हत्या हो गयी। नन्दों के उत्थान और पतन, अनेकों राजवंशों की गौरवपूर्ण राजधानी रहने, समकालीन दो महानतम दिव्यात्माओं – भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के द्वारा पवित्र की हुई यह भूमि पाँच पहाडों से घिरी और हरी भरी है।

एसा क्यों है कि हम भारतवासियों को अपने वास्तविक इतिहास को उकेरने, खोजने तथा उसके वैज्ञानिक प्रामाणिकरण में बहुत रुचि नहीं है। दु:ख है कि हमारा इतिहास भी जातिवादी-वर्गवादी तथा विचारधारावादी है। एक ही स्थान पर अलग अलग सोच वाले लेखक उपलब्ध जानकारियों को अपनी सोच के अनुरूप मोड़ते और घुमाते रहते है। नालंदा अंग्रेजों ने खोज दिया, जमीन से आपके लिये निकाल दिया वरना तो हम भूल ही बैठे थे। अभी 10% भी खुदाई पूरी नहीं हुई है लेकिन लगता है हमे ही कोई जल्दीबाजी नहीं है एक मुहावरा कहता भी है अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम…..लेकिन मेरे टमटम में लगी घोड़ी मीनाकुमारी न तो अजगर थी और न ही पंछी इस लिये पर्वतीय चढ़ाईयों में उसकी गति बदल जाया करती थी।

वेणुवन अर्थात भगवान बुद्ध का वर्षा प्रवास स्थल जो सौभाग्य से अभी भी हरा भरा है, वहाँ से गुजरते हुए मैने पासवान जी से पूछा कि कितनी कमाई हो जाती है दिन भर मे? उन्होंने अपनी व्यथाकथा की शुरुआत मीनाकुमारी के चारे से की। बोले – “सर कमाई हो या नहीं हो दो सौ रुपिया का चारा तो आपको चाहिये ही। ऑफ सीजन में तो चारा ही निकलता रहे, थोड़ी बहुत खेती बाड़ी से घर चल जाता है। सीजन में कमाई हो जाती है। अभी आप अकेला आदमी टमटम रिजर्व करा कर जितना में घूम रहे हैं उतना तब दो सवारी से ही निकल जाता है”।

“अच्छा है चार महीना जम कर काम कीजिये और बाकी दिन आराम भी मिल जाता है”। मैंने कहा।

“आराम करना कौन चाहता है सर!! सवारी से ही रोजी रोटी है। लेकिन अब बहुत मुश्किल आ गया है”। पासवान जी की आवाज दबी हुई थी।

“क्या हुआ?” मेरी जिज्ञासा बढी।

“सर अब टैक्सी आ गया है, कार आ गया है एसे में टमटम को लोग भूलते जा रहे हैं। आदमी पटना से आता है तो वहीं से कार करके चला आता है। लोकल में भी खूब टैक्सी वाला सब हो गया है। आगे ये टमटम चलेगा नहीं, खतम हो जायेगा।“

बात तो सही है। पर्यटन केवल मौजमस्ती नहीं है। आप जब घूमने निकलते हैं तो महसूस कीजिये कि उससे बहुत से रोजगार आपकी ओर इस उम्मीद से देख रहे हैं कि अगर हमारी उपयोगिता आपने ही नहीं समझी तो मिट ही जायेंगे हम।

“कौन चीज हमेसा रही है सर!! इसी जगह बड़े बड़े राजा थे आज कोई भी नहीं बचा, उनकी पीढी भी खतम हो गयी।“ अपनी रौ में पासवान जी बोल रहे थे और मै महसूस कर रहा था कि सचमुच क्या टमटम के आनंद का टैक्सी कभी विकल्प बन सकती है? आखिर क्यों विलुप्त हो जायें ये सवारियाँ? केवल इस लिये कि हमारी सोच को आधुनिक होने का अहंकार हो गया है? विचार का क्रम टूटा बगल से एक ट्रैक्टर गुजर रहा था जिसमे कोई गीत बहुत तेज बज रहा था। गानें में मैं केवल दो ही शब्द समझ सका ‘भौजाई’ और ‘देवरवा’।

“पहले हमारे टमटम में भी म्यूझिक सिस्टम था सर, प्रसासन नें हटवा दिया” पासवान जी नें बुझे स्वर में कहा।

“ट्रैफिक में डिस्टर्ब होता होगा।“ मैं उनके चेहरे के मनोभाव देख मुस्कुरा दिया।

“ट्रैक्टर में काहे लगा है? कार में और टैक्सी में भी लगा है, बस वाला भी लगा के रखा है। बहुत सा सवारी आता है और डिमांड करता है”। अबकि पासवान जी बिदक गये और स्वर भी तेज हो उठा था।

मैं मौन हो गया, या कहूँ कि निरुत्तर। अजीब बाजारवाद है जिसमे मरती हुई चीज ही मारी जाती है? हम भी जाने दो, चलता है और यस बॉस के युग में जी रहे है शायद इन बातों से फर्क ही नहीं पड़ता हमें। सुरेन्द्र पासवान के सरोकार हमारे अपने सरोकार क्यों नहीं बन पाते? मैं अभी भी नाउम्मीद नहीं हुआ था पूछ ही बैठा “आप लोगों की यूनियन वगैरह नहीं है क्या?”

“है सर। सीटू से जुड़े हैं हम लोग। यहाँ कुछ भी बात होती है तो दिल्ली तक जाती है और वहीं फैसला होता है।“ पासवान ने बताया।

“मन के अनुसार परिणाम मिल जाते हैं आपको? काम हो जाता है?” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी।

“हम लोगों का बात दिल्ली में कौन सुनता है सर? जब जरूरत पड़ता है और बंद कराना है या हड़ताल कराना है तब तो टमटम वाला सबका याद पड़ जाता है लेकिन उसके बाद कौन जानता है कि घोड़ा को दाना मिलता है कि नहीं?” पासवान जी की वेदना उनकी ज़ुबान पर थी।

टमटम वालों की समस्याओं जैसे नितांत स्थानीय सरोकार भी अगर समाधान के लिये दिल्ली का मुँह ताकते हैं तो मुझे यह कहने में गुरेज नहीं कि कभी कोई समाधान नहीं निकलेगा। अगर मजदूर और किसान नेता जमीनी लड़ाईयाँ छोड़ कर यह महसूस करते हैं कि दिल्ली से जुड़ कर उनकी शान बढ़ती है तो मान लीजिये कि आप केवल इस्तेमाल की वस्तु हैं। शायद आम आदमी के वास्तविक सरोकारों का किसी कोल्हू में घुमा घुमा कर तेल निकाल दिया गया है इसीलिये न तो अब सही मायने लिये मजदूर किसान आन्दोलन ही जीवित बचे न ही वैसे जीवट नेता जिनकी मुट्ठिया तन जायें तो हजारों हाँथ एक साथ इंकलाब उद्घोष करते उपर उठें। सरोकार बस्तर से ले कर राजगीर तक रूप बदल बदल कर भी एक जैसे हैं लेकिन उन्हें सुनने वाले कानों की जगह दिल्ली नें खरीद ली है कुछ मोमबत्तियाँ।…..और मैं केवल कुछ पंक्तियाँ लिख कर अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता। यह वायदा है मीनाकुमारी और उसके सारथी से कि अब किसी भी स्थान पर घूमने जाउंगा तो सबसे पहले तलाश करूंगा वहाँ की स्थानीय सवारी की, वह घोड़ा हो, उँट हो या रिक्शा ही क्यों न हो। आभार! आज से पहले मैने इस तरह कभी सोचा न था।
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(पुरस्कृत कृति "मौन मगध में" से एक अंश)

Wednesday, July 15, 2015

किशोर कुमार का पैतृक आवास और उपेक्षायें





जब कलाकार आसमान को अपनी बाँहों में भर लेता है तो ज़मीन से उसका रिश्ता टूटने लगता है। किशोर अलग ही मिट्टी के थे, जीवन भर जन्मभूमि के बने रहे। किशोर कुमार के साथ “खण्डवा वाले” उनके हर सार्वजनिक कार्यक्रमों में उपनाम की तरह उद्घोषित होता रहा। एक पुराना शहर किशोर की आवाज का इस तरह पर्याय बन गया कि आज भी खण्डवा की हवा में गुनगुनाहट है, मीठापन है। यहाँ के लोग इस कलाकार से जिस तरह गुथे हुए हैं इसके कई उदाहरण मेरे सामने आये। मैं एक चाट वाले के ठेले के पास रुका जो तनमयता से किशोर दा के गाने गुनगुना कर अपने काम में लगा हुआ था। मैने उसकी आवाज़ की तारीफ क्या की उसने किशोर के गानों से शुरुआत की फिर उनसे जुडे संस्मरणों पर उतर आया। उसने कब किशोर को देखा, आज उनके परिवार में कब कौन खण्डवा आता है, जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर किस तरह के कार्यक्रम होते हैं आदि।

“साहब आपने किशोर दा का मकान देखा है?” अनायास उस चाट वाले ने मुझसे पूछा।

“नहीं, लेकिन देखना है मुझे” 

“मत देखना साहब दु:ख होगा आपको” उसने भारी आवाज़ में कहा।

“क्यों, क्या किराये पर लगा है मकान?” 

“नहीं वीरान है, उनके परिवार वाले ही बेचना चाहते हैं।”

“बेचना चाहते हैं, क्यों?” 

“मकान है तो उनके परिवारवालों की प्रापर्टी। करोडों की सम्पत्ति है आज नहीं तो कल बिक ही जायेगी” 

“किशोर के नाम पर स्मारक या संग्रहालय क्यों नहीं बना देते इस मकान को?” 

“खण्डवा वाले तो यही चाहते हैं”

मैने किशोर दा के मकान को इसी क्षण देखने का निर्णय लिया और बताई गयी दिशा में रेल्वेस्टेशन की और बढ चला। वहीं मोड़ पर मुझे बताया गया था कि बाम्बे बाजार में स्टेट बैंक के एटीएम के बगल में उनका पुश्तैनी मकान है। मैने आसपास के दूकानदारों से पूछा और वे जिस ओर इशारा कर रहे थे वहाँ मुझे कोई मकान नजर ही नहीं आया। आखिरकार एक इलेक्ट्रिकल समान की दूकान से सरदार जी बाहर आये और साथ ले चल कर किशोर दा के मकान के सामने मुझे खड़ा कर दिया। मुख्य सड़क पर होने के बाद भी दूकानों की भीड़, अतिक्रमण और प्लास्टिक के लम्बे लम्बे खिंचे तिरपालों के कारण मकान का मुख्य द्वार आसानी से दिखाई नहीं पड़ता। पुरानी फिल्मों में खण्डहर हवेलियों के चौकीदारों की तरह ही एक वृद्ध केयर टेकर सीताराम से मेरी इस मकान में मुलाकात हुई। आरम्भ में तो उसके चेहरे पर उपेक्षा का ही भाव था और वह मुख्यद्वार के भीतर सामने एक टूटी फूटी खटिया डाल कर उस पर बैठा हुआ था। उसने बताया कि कमरों में ताले लगा दिये गये हैं और अंदर से मकान देखने-दिखाने की इजाजत नहीं है।

मैं स्वयं ही आगे बढा और मकान का चारो और से मुआयना करने लगा। मकान के हर कोने से आती कराह सुनी जा सकती थी कि “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन”। ब्रिटिशकालीन इमारतों का यह सजीव उदाहरण है जो यद्यपि खण्डहर में बदलता जा रहा है किंतु बडे बडे गोलाकार स्तम्भों और काष्ठ से बनी छत की संरचनाओं के आज भी पूर्ववत होने के कारण विशेष दर्शनीय है। यह मकान लगभग 7600 वर्गफीट में फैला हुआ है जिसके आगे की और कई दूकाने भी निर्मित हैं जिनका किराया प्राप्त जानकारी के अनुसार किशोर दा के परिजनों के पास जाता है; साथ ही एक दूकान के किराये से मकान के केयरटेकर सीताराम को सेलरी दी जाती है। मुझे बताया गया कि किशोर दा का पैतृक निवास अब अनूप कुमार के बेटे अर्जुन कुमार के नाम पर है। पारिवारिक सम्पत्ति के बंटवारे में यह सम्पत्ति किशोर कुमार के छोटे भाई अनूपकुमार को मिली, जिसमें लीना चंदावरकर और अमित कुमार भी हिस्सेदार थे, लेकिन किशोर दा की इच्छा को देख कर लीना चंदावरकर और अमित कुमार ने अपना हिस्सा अनूप कुमार के नाम कर दिया था।

मुझे किशोर समाधि के पास “प्रिंस मेलोडी मेकर्स ऑरकेस्ट्रा, खण्डवा” की ओर से लगाये गये कुछ पोस्टर दिखाई दिये थे जिनमें किशोर दा के पैतृक निवास को संग्रहालय में बदले जाने की अपील की गयी थी। जन-भावना जो भी हो यह सम्पत्ति किसी भी तौर पर वर्तमान बाजार दर के अनुरूप पंद्रह से बीस करोड की है इसलिये परिजनों द्वारा इसको बेचे जाने की कोशिश किये जाने सम्बन्धी खबरें निरंतर अखबारों में आती रहती हैं। निजी सम्पत्ति होने के कारण निश्चित ही इस सम्बन्ध में निर्णय लेने का सर्वाधिकार किशोर दा के पोते अर्जुन के पास है। किसी समय इस भवन के सम्बन्ध में कोई न कोई निर्णय लिया ही जायेगा और फिर धीरे धीरे तेजी से बढता शहर भूल जायेगा कि इस गली में एक इमारत थी जिसके मुख्य द्वार पर गौरी कुंज अंकित था और सगर्व सामने के गेट पर गांगुली हाउस लिखा हुआ था। किंवदंतिकयाँ रह जायेंगी कि बाँबे बाजार कहे जाने वाले खण्डवा के एक क्षेत्र में 4 अगस्त 1929 को गांगुली हाउस में एक वकील कुंजीलाल के घर किसी आभास कुमार गांगुली का जन्म हुआ था जिसे सारी दुनिया ने किशोर कुमार के नाम से जाना और धीरे धीरे एक शहर ही दुनिया भर में उसकी मखमली, दर्द से भीगी हुई, मस्ती भरी आवाज के कारण पहचाना गया।

किशोर दा को उनका काम, उनके गीत ही अमर रखेंगे; इसके बाद भी क्या यह सही नहीं कि ऐसी स्मृतियाँ आने वाली पीढी के लिये सहेजी जानी चाहिये? आवास के केयरटेकर सीताराम ने संभवत: मेरी अभिरुचि को देख कर अपना बक्सा खोला और उसमें से किशोर दा के कुछ पुराने और दुर्लभ चित्र मुझे दिखाये। वैसे तो मकान में सामने ही एक फोटोफ्रेम में कुछ ब्लैक एण्ड व्हाईट तस्वीरें बेतरतीब सी इस तरह डिस्प्ले पर लगायी गयी हैं जैसे रस्म अदायगी होती है। शाम हो चुकी थी और जब मैं मकान के पिछले हिस्से की ओर गया तो देखा छत के पीछे ही सूरज डूब रहा था। मेरी संवेदनायें तब और सिहर उठीं जब मैंने देखा कि मकान में उपर की ओर पीपल के पेड़ ने अच्छा खासा आकार ले लिया है और उसकी जड़े किसी पैने नाखून की तरह दरारों को खरोंच रहीं हैं, चौड़ा कर रही हैं। शायद यह जान बूझ कर किया जा रहा है कि फिर समय को ही दोष दिया जा सकेगा कि किशोर दा की खण्डवा शहर में स्थित वह आखिरी निशानी खुद ब खुद ढह गयी। यह भवन वाकिफ है कि किशोर ने ही गाया था वह अमरगीत – आने वाला पल जाने वाला है।
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Tuesday, July 07, 2015

बस्तरनामा की समीक्षा उम्मीद में

मेरी कृति बस्तरनामा की पत्रिका उम्मीद में प्रकाशित समीक्षा -





Wednesday, June 10, 2015

बस्तर के वन, वन-उत्पाद और वन-औषधियाँ




जंगल बस्तर की राजनीति का केन्द्र रहा है चाहे वह "कोई आन्दोलन" हो जो कि एक पेड़ के बदले एक सिर की अवधारणा पर आधारित था, अथवा कुख्यात मालिक मकबूजा काण्ड। बस्तर की आत्मा यहाँ की हरीतिमा है। सदियों तक यहाँ सभ्यतायें आबाद रहीं और उन्हें संरक्षण वनों ने दिया है। नल और नाग शासक तो प्रकृति पूजक थे ही काकतीय/चालुक्य शासक अन्नमदेव ने जिस बस्तर राज्य की नीव रखी उसे यहाँ पाये जाने वाले बाँस से ही नाम मिला है। बस्तर संभाग वन संपदा से भरपूर है, यहाँ अनेक दुर्लभतम वृक्ष हैं तो कहीं न पायी जाने वाली वन-औषधियाँ भी। यहाँ विलुप्त हो चुके जंगली भैंसे की कहानियाँ आज भी गूंजती हैं तो आदमी की आवाज़ की हू-बहू नकल कर सकने वाली जंगली मैना एक अजूबा है। इसी तरह दुर्लभ पक्षी भीमराज, अबूझमाड़ पर्वतों की शोभा है जिसका आकार प्रकार नीलकंठ की तरह होता है साथ ही वह अपने रंग-बिरंगे पंखों की वजह से जाना जाता है। साल वनों की अधिकता के कारण यह अंचल सालवनों का द्वीप भी कहा जाता है। इसी नाम की अपनी कृति से बस्तर अंचल के प्रसिद्ध साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी ने बस्तर को देश-विदेश तक चर्चित किया था। 

रियासत काल में वनों का प्रबन्धन जमींदारों तथा राजाओं के द्वारा होता था। वनों से ही उन्हें अधिकतम राजस्व प्राप्त होता था। उस दौर में खरीददार को वन क्षेत्र में कहीं से भी परिपक्व गोलाई के वृक्ष काटने की छूट थी। इस काटी गयी लकड़ी पर रायल्टी ली जाती थी। रियासत काल में वन प्रबन्धन को ले कर कोई ठोस नीति अंग्रेजों के इस क्षेत्र में आगमन तक नहीं बन सकी। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अंग्रेज बस्तर में यहाँ के वनोत्पादों का अपने अनुसार दोहन करने के लिये ही आये थे अत: उनकी वन नीति भी साम्राज्यवादिता का एक पैना नाखून सिद्ध हुई, जिसने यहाँ की हरीतिमा का शोषण भी किया और आदिवासियों को उनके नैसर्गिक आवासों से दूर भी कर दिया। रियासतकालीन बस्तर में ग्यारह आन्दोलन हुए और सभी किसी न किसी तरह वन और आदिवासियों के अधिकारों से जुड़ते हैं। इसके दृष्टिगत ब्रिटिशकालीन वन-संरक्षण के कानून जंगलों के संरक्षण के लिये नहीं अपितु सुनियोजित दोहन के लिये बनाये गये थे।

आज़ादी के बाद भी स्थितियों में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। मालिक मकबूजा प्रकरण बहुचर्चित रहा जिसने वनों के दोहन और आदिवासी शोषण की जो कहानियाँ लिखीं वे कलंक निरूपित की जायेंगी। मालिक मकबूजा काण्ड को समझने के लिये हमें पुन: रियासती काल में लौटना होगा; सन 1940 में एक कानून लागू हुआ था कि आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी नहीं खरीद सकता। इस कानून में कई अगर और मगर लगा दिये गये। अगर किसी आदिवासी को शादी व्याह जैसे जरूरी काम के लिये पैसा चाहिये तो वह अपनी जमीन गैर आदिवासी को बेच सकता है मगर उसे राज्य के सक्षम अधिकारी से लिखित अनुमति प्राप्त करनी होगी। आजादी के बाद नयी सरकार ने नया कानून बनाया जिसे ‘सेंट्रल प्रॉविंसेज स्टेट्स लैंड़ एण्ड ट्रेनर ऑर्डर -1949’ कहा गया जिसमें काश्तकारों को उनकी अधिग्रहीत भूमि पर अधिकार हस्तांतरित कर दिये गये। इस आदेश ने भी किसानों को उनकी भूमि पर लगे वृक्षो का स्वामित्व नहीं दिया था अत: कमोबेश यथास्थिति बनी रही, चूंकि पुराने कानून में भी पेड़ शासन की सम्पत्ति माने गये थे। ‘सी.पी एवं बरार’ से पृथक हो कर मध्यप्रदेश राज्य बनने के बाद नयी सरकार ने पुन: नयी सक्रियता दिखाई और ‘भूराजस्व संहिता कानून-1955’ के तहत भू-स्वामियों को उनकी भूमि पर खड़े वृक्षों पर भी स्वामित्व अर्थात मालिक-मकबूजा हक हासिल हो गया। उपरी तौर पर देखने से यही लगता है कि सरकार ने आदिवासियों का हित किया है लेकिन यह अदूरदर्शी कानून सिद्ध होने लगा। सागवान के लुटेरे भारत के कोने कोने से बस्तर की ओर दौड़ पड़े। कौड़ियों के मोल सागवान के जंगल साफ होने लगे। कभी शराब की एक बोतल के दाम तो कभी पाँच से पंद्रह रुपये के बीच पेड़ और जमीनों के पट्टे बेचे जाते रहे। 

सर्वदा हुए निर्मम दोहन के पश्चात भी आज बस्तर संभाग का सत्तर प्रतिशत से अधिक क्षेत्र वन है। इन उपलब्ध वनों का पुन: वर्गीकरण किया जाये तो इन्हे प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से दो वन वृत्तों – उत्तर बस्तर वन वृत्त तथा दक्षिण बस्तर वन वृत्त में बाँटा गया है। पुन: इन दो वन वृत्तों को सात वन मण्डलों एवं 43 परिक्षेत्रों में विभक्त किया गया है। भूगोल को आधार बनाया जाये तो इस अंचल का मध्यपूर्वी अथवा पठारी क्षेत्र मुख्य रूप से साल वनों से घिरा हुआ है जबकि उत्तर पश्चिम एवं दक्षिणी क्षेत्रों में मिश्रित वन हैं। चैम्पियन तथा सेठ (1968) ने बस्तर के वनों को पाँच प्रकारों में विभाजित किया है 

अ) आर्द्र प्रायद्वीपीय साल के वन (केशकाल तथा कोण्डागाँव का उत्तर-पूर्वी भाग)
ब) दक्षिणी आर्द्र मिश्रित पतझड़ वाले वन (संभाग के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में नदियों, घाटियों, ढ़लानों, आर्द्र तथा उपार्द्र क्षेत्रों में विस्तारित जंगल) 
स) आर्द्र सागौन के वन (कोण्टा से दक्षिण पश्चिम की पहाड़ियाँ व भोपालपट्टनम के क्षेत्र) 
द) शुष्क सागौन के वन (इन क्षेत्रों में बाँस नहीं पाये जाते) 
ई) दक्षिणी शुष्क मिश्रित पतझर वन (संभाग के उत्तरी भाग में इस प्रकार के वनों का विस्तार मिलता है)। 

बस्तर के जंगलों में मुख्य रूप से साज, हल्दू, सेमल, बीजा, हर्रा आदि कीमती प्रजातियाँ पायी जाती हैं। पठार को छोड़ कर शेष हिस्सों में बाँस प्रमुखता से पाया जाता है। प्रमुख प्रजातियों को सूचीबद्ध किया जाये तो बीजा, शीशम, साजा, अमलतास, घनबहार, तेन्दू, चार, महुआ, जर्रा, कुसुम, धावड़ा, खैर, कालामोखा, धामन, जामुन, हर्रा, सल्फी, ताड़, छींदकराट, सूरासिंहाड़ी, इमली, आम, अंजन, केकड़, कारम, कोचिला, नीम, बेर, डूमर, बड़, कैंठ, पीपल, पलाश, सेन्दुरी, ककई, घोंट, बेहड़ा, भैलवा, केला, नीबू, चकोत्तरा, नारियल, पपीता, कटहल, गूलर, कदम्ब, भिर्रा, बबूल, काजू, वन मोंगरा, सियाड़ी, भूलन, अगिया, आदि वृक्ष-वनस्पतियाँ बस्तर में प्रचुरता से पाये जाते हैं। बस्तर संभाग में प्रमुख वनोपज के रूप में तिखुर, सालबीज, हर्रा, आँवला, तेन्दुपत्ता, गोंद, फूलबाहरी, शहद, टोरा, कुसुमबीज, बगईघास, महुआफूल, अमचूर, कोसाफल, बेंत, धूप व काजू सहित अनेक प्रकार की जलाऊ लकड़ी उपलब्ध है। पशु पक्षियों में तेन्दुआ, जंगली कुत्ता, कोटरी, लमहा, चीतल, साम्भर, जंगली भैंसा, नीलगाय, जंगली सूअर, भालू, गौर, जंगली मैना, मोर, तीतर, वनमुर्गी, लावा, मंजूर, भृंगराज, सुरिया, तोता, कोयल आदि यहाँ की जैव विविधता के आधार स्तम्भ हैं। बाघ और जंगली भैसे को बस्तर से विपुप्त मान लिया गया था किंतु इन्हीं दिनों अखबारों के माध्यम से कुछ उत्साहवर्धक जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं। इंद्रावती टाइगर रिजर्व के चिल्लामरका इलाके में एक बाघ को उसके दो शावकों के साथ कैमरे में कैद किया गया है। इसी तरह छह वन भैंसों का एक झुंड भी सेंड्रा इलाके में देखा गया है।

बस्तर अपनी जड़ी बूटियों के लिये भी जाना जाता है। यहाँ मुख्य रूप से पाये जाने वाली वन-औषधियाँ हैं - डिस्कोरिया, कालीमूसली, सफेद मूसली, वन तुलसी, आँवला, अरंड, रसना, घीववार, पीली कटेरी, चिरायता, अकरकरा, नीम, नीलगिरि, भटाकटेरी, धतूरा, सर्पगंधा, रानीजाड़ा, नीबूघास, कुनाईन, तुलसी, बेलाडोना, हड़जोड़, बच, सेमल, अर्जुन, कचनार, पुत्रजीवा, हर्रा, वैसिका, लाजवंती आदि। आदिवासी इन औषधियों की गहन जानकारी रखते हैं। उदाहरण के लिये चिरायता को आदिवासी गठ्ठों में भर कर बाजार में बेचते हैं। यह औषधि बुखार तथा रक्त शुद्धि के लिये बहुत उपयोगी मानी गयी है। इसी तरह आदिवासी परिवार नियोजन के लिये काली जीरी (वर्नोनिया एंथेरिंटिका) बीज का उपयोग करते हैं। गरुड़ की लकड़ी दिखा कर साँप को निस्तेज किया जाता है तथा इसकी फली व लकड़ी का प्रयोग साँप का जहर उतारने के लिये किया जाता है। इसी तरह विचित्र लता (एनटाडा स्केंडेंस) भी बस्तर में पायी जाती है जिसके फूल को फल बनने में लगभग दो वर्ष लग जाते हैं। इसकी फली भी लगभग एक से डेढ़ मीटर की लम्बाई लिये हुए होती है और बीज भी बड़े आकार के होते हैं; साँप का जहर उतारने में ये बीज काम मे आते हैं। यहाँ प्राप्त होने वाली ज्योतिष्मती बूटी के तैल का आयुर्वेद में अनेक असाध्य रोगों में प्रयोग बताया गया है। बैचांदी और तेखुर तो बस्तर से देश भर में जाता ही है। 

यदि कृषि परिदृश्य पर एक दृष्टि डाली जाये तो इसे बहुत उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता। बस्तर में सिंचित क्षेत्र नहीं के बराबर है अत: मनसूस पर ही यहाँ की खेती पूरी तरह से निर्भर है। यही कारण है कि बस्तर से प्राप्त होने वाली पन्चानबे प्रतिशत से अधिक फसलें खरीफ की हैं। धान यहाँ की प्रमुख फसल है जिसके आतिरिक्त कोदो कुटकी की फसल भी ली जाती है। खरीफ की फसल संभाग के केवल 3.8 प्रतिशत फसली क्षेत्र से ही ली जा रही है जिसमें कि चना, तुअर, गेंहूँ, अलसी, सरसों, उड़द, मूंग आदि की फसलें प्रमुख हैं।

Friday, March 13, 2015

बस्तर के घोटुल - राजीव रंजन प्रसाद



घोटुल को ले कर अनेक धारणायें हैं, अनेक तरह के विवाद भी हैं। अस्सी के दशक में बीबीसी ने घोटुल पर एक अश्लील वीडियो बना कर इन्हें जिस तरह से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया वह विभत्स था। हाल के दिनो में हंस पत्रिका में एक वामपंथी लेखक ने घोटुलों को यौनाचार स्थल के रूप में निरूपित किया था तब यह समझने में सहूलियत हुई कि आज के लेखको का अध्ययन कम होता जा रहा है लेकिन जनजातीय विषयों पर वे बड़बोले भी उतने ही प्रतीत होते हैं। विषय में उतरने से पहले बस्तर के तुलसीदास कहे जाने वाले लेखक-पत्रकार श्री रामसिंह ठाकुर के दण्डकारण्य समाचार (3.05.1985) में प्रकाशित आलेख "बस्तर के घोटुल और विदेशी कैमरों की आँख" के कुछ अंश प्रस्तुत है – "यह सर्वविदित है कि इस दल (बीबीसी) का नेतृत्व एक महिला कर रही थी जो इस क्षेत्र में भाषा व जीवन शैली पर थीसिस लिखने के बहाने वर्षों रही। इस भारतीय महिला ने एक विदेशी से व्याह रचाया और फिर धनोपार्जन के उद्देश्य से बस्तर के मूल निवासियों की मूल संस्कृति से खिलवाड़ करने के लिये विदेशियों को ले आयी।" इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रामसिंह ठाकुर जी आगे लिखते हैं - "विदेशियों ने भारत को गुलाम बना कर तब जो लिया सो लिया। क्या अब भारत में योग्य फिल्म युनिट या कैमरामैन नहीं हैं? या अब भी हम अपनी संस्कृति के प्रति अनभिज्ञ रहेंगे?......जैसा कि बताया गया है घोटुल कुटीर के हर क्षेत्र में विद्युत लाईन बिछा कर, मदिरा पिला कर इस फिल्मों को बनाया गया है....यह सब भारतीय होने के नाते हम कैसे बरदाश्त करें; क्या यही शेष रह गया है?"

यह सही है कि घोटुलों का तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले समाज ने अपनी तरह से विश्लेषण किया तथा दुरुपयोग भी। लेकिन इसके बाद भी आदिवासी समाज को कमतर समझने अथवा उन्हे जागरूक न मानने वाले हम कौन होते कौन हैं? आदिवासी समाज ने स्वयं अपनी प्रथाओं को कभी जटिल तो कभी लचीला बनाया है। घोटुल पर बाहरी दबावों से बचने के लिये इसके परम्परागत स्वरूपों को भी बदला गया तथा नीयमों को भी दिशा देने का काम किया गया। रामसिह ठाकुर इस सम्बन्ध में उजागर करते हैं कि "लगभग ढ़ाई सौ वर्ष पूर्व घोटुल व्यवस्था के दूषित (आंग्ल-मराठा/ मुसलमान/अंग्रेज दखल के बाद) हो जाने पर गोत्रकुल (घोटुल) की व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी थी तब देवी देवता की शरण मान कर पुन: नये विधान से इसे प्रारंभ किया गया। आदिवासी दण्डविधान का सहारा ले कर भविष्य को तथा अपने अस्तित्व को एक सूत्र में बाँध रखने में सफल हुए हैं"। रामसिंह जी ने इस आलेख में कुछ सम्बन्धित परम्पराओं का भी उल्लेख किया है। वे लिखते हैं "आज भी इस समाज में "गाता पखना" गाड़ने का आयोजन होता है। गाता पखना, एक कुल का एक ही गाँव में निर्धारित स्थल पर ही गाडा जाता है; जो कि एक पीढ़ी में एक बार ही सम्पन्न किया जाता है। अर्थात मनुष्य मृत्योपरांत अपने गोत्र कुल का अधिकार बनाये हुए है। गाता पखना गाड़ते समय घोटुल-पाटा गाया जाता है, जिसमे गाने वाले सम्बन्धित वंशावली पाते हैं।...अभी तो विदेशियों ने जो हास्यास्पद रूप तैयार किया है उस स्वरूप प्रदर्शन से वे हमारी हँसी उडायेंगे, तालियाँ बजायेंगे और हम भारतवासी प्रसाशनिक अधिकारियों की चहलकदमी के धोखे में रह कर आने वाली पीढ़ी के लिये शर्मनाक इतिहास छोड़ सकेंगे.....?" रामसिंह जी ने अपने आलेख के अंत में लिखा था कि "उचित तो यही होगा कि बीबीसी द्वारा बनाये गये फिल्म प्रदर्शन पर विश्वस्तरीय रोक लगा दी जाये और फिल्म को भारत ला कर पूर्णत: नष्ट कर दिया जाये।" रामसिंह ठाकुर जी के आलेख के ये अंश मैने घोटुल पर चर्चा के उन हिस्सों पर बात को आगे बढ़ाने के लिये किया है जो कभी चर्चा का हिस्सा नहीं बनते।

यह समझने वाली बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी दो दशक तक घोटुल अपने स्वरूप को बचाये हुए थे। यद्यपि घोटुल की प्रासंगिकता पर अस्सी के दशक से ही विस्तार से चर्चा होने लगी थी। वर्ष 1983 के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित एक विवरण के अनुसार उसी वर्ष नारायणपुर से लगभग नौ किलो मीटर दूर, बिजली गाँव में बाईस आदिवासी गाँवों के मुखियाओं की एक बैठक में प्रस्ताव लाया गया गया गया था कि घोटुल समाप्त कर दिए जायें। इस प्रस्ताव पर कुल पाँच गाँवों की सहमति प्राप्त हुयी शेष सत्रह गाँवों की ओर से इसका विरोध किया गया। इस प्रस्ताव पर इतनी तीखी प्रतिक्रया हुयी कि इसे पेश करने वाले मांझी रूप सिंह को अपना पद- त्याग करना पड़ा था। यह तो हाल के दिनो में माओवादियों की सख्ती के बाद बहुत बेमन से आदिवासियों द्वारा घोटुलों को बंद किया गया है। प्रश्न यह कि घोटुल को बंद करवाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या घोटुल जैसे सामाजिक संगठनों के रहते माओवादियों को अपने अस्तित्व में खतरा महसूस हो रहा था? घोटुल के स्वरूप में जनजातीय समाज स्वयं परिवर्तन करता रहा है तथा करता रहता किंतु मुखर हो कर और योजना बना कर इस सामाजिक संस्था का ध्वंस किया गया। शायद इसलिये कि अगर ये सामाजिक संगठन जीवित रहते तो आदिवासी समाज के आपस में एकात्रित होने, संगठित रहने, विमर्श करने, विरोध करने जैसे परम्परागत स्थल भी बने रहते। ऐसे में कोई विचारधारा इन्हें बरगला नहीं सकती थी। घोटुल का दुष्प्रचार और उसे यौनाचार स्थल मात्र घोषित करने की प्रवृत्ति के पीछे जिनकी बौद्धिक विलासिता काम कर रही है उसे करीब से समझना आवश्यक है। आज घोटुल नहीं बचे हैं। नक्सलवादियों द्वारा पत्रकारों की हत्या के विरोध में अबूझमाड़ की पदयात्रा पर गये कुछ पत्रकारों के अनुसार माड़ में कुछ घुटुलनुमा संरचनायें बची है जिसे माओवादियों ने अपने दिशानिर्देशों के अनुरूप परिवर्तित किया हुआ है। संक्षेप में जानने की कोशिश करते हैं कि वस्तुत: घोटुल क्या थे?

घोटुल आम तौर पर गाँव के एक छोर पर कभी कभी मध्य में निर्मित हुआ करता है। घोटुल की संरचना में तीन मुख्य भाग होते हैं। पहला आँगन का भाग जिसके बीचोबीच लकड़ी का खंबा गड़ा होता है और समूची जगह नाचने गाने के लिये खुली हुई। दूसरा ‘परछी’ वाला हिस्सा जहाँ अलाव जलाया जाता है, आम तौर पर यहीं समूहों में बैठ कर ‘प्रेमी युवक – चेलक’ और ‘युवती प्रेमिकायें – मोटियारियाँ’ आपस में परिचित होते हैं; किस्से कहानियाँ गढ़ते, कहते और सुनते हैं; या सुख दुख बाटते हैं। घोटुल की ‘परछी’ और ‘कमरों’ की दीवारें - लकड़ी, बाँस के खूँटे और बाड़ी नुमा ढ़ाँचे को बना कर, फिर उनमें मिट्टी छाप कर तैयार की जाती हैं। इस तरह बनी दीवारों को चूने या ‘छुई-मिट्टी’ से लीप दिया जाता है। छत लकड़ी की मजबूत बीम पर टिका हुआ और खपरेल, घास फूस या सागवान के पत्तों से ढ़का होता है। इसी छत पर घोटुल के सदस्य अपने हथियार, फरसा, टंगिया, हँसिया, खंता, कुल्हाड़ी, सब्बल, टोकनी, सूपा, टुकना....और भी चीजें रखते हैं। घोटुल गाँव की सम्पत्ति होता है - गाँव की परिधि से बाहर बना सामाजिक-सांस्कृतिक केन्द्र।

घोटुल में आपसी संवाद, किस्से कहानियों, विमर्श, नृत्य-गीत आदि का सिलसिला चलता है जब तक कि चाँद और "सात तारे या कि ग्वालझुमका" सिर पर नहीं आ जाते। जब यह सभा विसर्जित होती है तो कम आयु के चेलिक और मोटियारियाँ अलग अलग हो कर परछी में ही, अथवा बड़े से हॉल नुमा कमरे में, जो कि घोटुल का ही तीसरा हिस्सा होता है, वहाँ जा कर सो जाते हैं।....और फिर यह भी होता है कि एक दूसरे के हो चुके चेलक और मोटियारियाँ आधी रात के बाद अपनी अपनी गीकी में बँध जाते हैं। गीकी वह चटाई होती है, जो खजूर या ताड़ी के पत्ते से गूंथ कर घोटुल की मुटियारी, बड़े ही जतन से अपने चेलक के लिये बनाती है। बड़े कमरे के एक हिस्से में केवल वे चेलिक और मोटियारियाँ ही साथ साथ सोते हैं जिनका प्रेम, बंधनों की परिभाषा से आजाद हो गया हो। यहाँ उन्हें एक होने की स्वाधीनता है।

इस एक होने की स्वतंत्रता को किसी समझदार आदमी ने अराजकता कहा तो किसी ने यौन विकृति। क्लबों और सोनागाछियों को ढ़ोने वाले कथित सभ्य समाज से इससे बेहतर टिप्पणी की उम्मीद किसे है? घोटुल एक सामाजिक संस्था है, जिसमें समुचित कार्य विभाजन है। झरिया, घोटुल की सफाई करता है, लकड़ियाँ इकठ्ठी करता है, रात होने पर आग जलाता है। मुसवान घोटुल की साज-सज्जा का कार्य सम्पन्न करते हैं जिसमें दीवालों की लिपाई-पुताई, भित्तिचित्र आदि रचना सम्मिलित है। उनके कार्य में रानियाँ हाथ बटाती हैं। रानी वस्तुत: घोटुल में लड़कियों को दिया जाने वाला एक पद है और इसके साथ निर्वहित किये जाने वाला दायित्व है घोटुल के भित्तिचित्र बनाना, दोने तैयार करना आदि। चालकी घोटुल सदस्यों को तम्बाकू बाँटता है तो बैद उपचार करने, प्रेत बाधा आदि दूर करने के लिये नियत होता है। घोटुल एक व्यवस्था के तहत कार्य करता है अत: कई पद भी निर्धारित किये गये हैं और उन्हें संचालन से ले कर दण्डित करने तक की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी है। पदनाम भी राज-वयवस्था से बहुत हद तक प्रभावित हैं जैसे दीवान, जिसका कार्य सदस्यों की निगरानी करना और उन्हें दण्डित करना है; कोटवार, जिसका कार्य घोटुल में सदस्यों की उपस्थिति और अनुपस्थिति को जाँचना है। लगभग आठ वर्ष की आयु के पश्चात विवाह होने तक सभी लड़के-लड़कियों को घोटुल आना अनिवार्य होता है, अनुपस्थित रहने पर वे दण्ड के भागी होते हैं। अस्वस्थ सदस्य अथवा मासिक धर्म के समय ही युवतियों को घोटुल न आने की छूट होती है; सिपाही, जिनका कार्य गश्त लगाना, सुरक्षा प्रदान करना आदि है। घोटुल तो सारगुतियों की चुहल से ही आबाद होता है। सारगुतियाँ वस्तुत: सहेलीयों के लिये प्रयुक्त होने वाला शब्द है जो सम्बोधन घोटुल मे आने वाली हर लड़की के लिये नियत किया गया है। अंत में बात चेलक और मोटियारियों की जो क्रमश: प्रेमी-प्रेमिका के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले शब्द हैं, ये घोटुल संस्था की आत्मा हैं।
घोटुल क्यों नष्ट हुए यह तो चर्चा के केन्द्र में है ही लेकिन इसे समझने के लिये यह जानना भी आवश्यक है कि घोटुल आखिर क्यों और कैसे बने। एक मान्यता कहती है कि घोटुलों के निर्माण का कारण राजनैतिक भी है और यह ग्रामीण सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। किसी संभावित खतरे से निबटने के लिये गाँव की युवा शक्ति एक ही स्थान पर एकत्रित रहा करती थी। गेन्द सिंह से ले कर गुण्डाधुर तक सभी आदिवासी नेताओं ने युवा शक्ति को घोटुलों में संपर्क कर ही संग्रहीत किया था और क्रांति संभव हुई थी। इसके सामाजिक कारणों में यह कि माता-पिता का अपने बच्चों के साथ शयन करना उचित नहीं माना जाता और इसीलिये सयाने होते ही उन्हें जीवन की स्वाभाविक दीक्षा के लिये घोटुल अनिवार्य रूप से भेज दिया जाता है। घोटुल निर्माण का धार्मिक कारण आदिवासियों के सर्वमान्य देवता लिंगो पेन से जुडा हुआ है। लिंगो की कहानी पर इस पुस्तक में चर्चा की गयी है। चूंकि घोटुल लिंगो से जुड़े हुए स्थान हैं अत: माना जाता है कि यहाँ आने वाले सदस्यों पर काला जादू असर नहीं करता, प्रेत बाधा उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती। घोटुल में पूजे जाने वाले अन्य देवी देवता हैं करेदंगल, नारायनदेव, वनदेव, बूढ़ादेव, ईराडदेव, मर्कादेव, दंतेश्वरी देवी, कोरी देवी आदि। बस्तर राज्य में काकतीय/चालुक्य वंश के संस्थापक अन्नमदेव की भी पूजा कतिपय घोटुलों में की जाती है। 

घोटुल प्रत्येक सदस्य का आजीवन साथ रहने वाला अनुभव होता है। यहाँ आने वाले प्रत्येक सदस्य को नया नाम दिया जाता है। सदस्य इस नाम का प्रयोग घोटुल मे एक दूसरे को सम्बोधित करने के लिये करते हैं किंतु इसकी गोपनीयता को वे बनाये भी रखते हैं। यदि किसी युवक-युवती को उसका सदस्य नाम नहीं दिया गया है तो यह समझा जाना चाहिये कि वह पूर्णकालिक सदस्य नहीं है। घोटुल में लड़कों के लिये नाम लाहर सिंह, मलयार सिंह, कलिंगसाय, सुलुक साय आदि तथा लड़कियों के लिये बोलोसा, दुलोसा, लाहरी, सुलयारो, मलयारो, सायको आदि रखे जाते थे।

यह गलतफहमी है या घोटुलों को बदनाम करने की नियोजित साजिश कहा नहीं जा सकता कि इसे अपने कामसूत्र पर देश-विदेश में इठलाने वाले देश ने यौन संस्था भर कह कर उसकी पहचान पर यही ठप्पा लगा दिया है। इस बात से आँख मूंद ली गयी है कि यह एक दौर में व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था भी हुआ करती थी। स्वच्छता, शिकार, पूर्वजों का सम्मान, परम्पराओं की जानकारियाँ, अनुशासन, मनोरंजन सभी कुछ यहाँ प्रसारित होता था। घोटुल सदस्य कितने सामाजिक दायित्वों से बंधे होते है यह जानने के लिये किसी बुजुर्ग आदिवासी के साथ बैठ कर चर्चा कीजिये तब वह बतायेगा कि किस तरह गाँव में होने वाली छठी, शादी व्याह, मृत्यु अथवा मेले-मड़ई आदि में कार्यों, आयोजनो, सफाई, भोजन व्यवस्था, नृत्य आदि का दायित्व घोटुल सदस्यों को ही उठाना पड़ता था। इतना ही नहीं सदस्य किसानों को निंदाई-गुड़ाई में भी सहयोग देते थे जिसके एवज में उन्हें भाता दिया जाता था। भाता ले कर घोटुल सदस्य मिल कर किसी भी किसान के यहाँ वर्ष में एक दिन सहयोग-श्रमदान किया करते थे। यदि कोई गरीब किसान है तो सदस्य बिना भाता लिये श्रमदान किया करते थे। घोटुल के साज संवार के लिये लगने वाले धन को भी सदस्य मजदूरी कर के अर्जित करते थे। सदस्यों द्वारा अर्जित मजदूरी को गाँव के ही किसी सम्मानित व्यक्ति के पास सुरक्षित रखा जाता था और आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग भी किया जाता था।

यह भी सोचने वाली बात है कि आज आदिवासी कला और नृत्य संगीत जिस तेजी से नष्ट हो रहा है वह कदाचित नहीं होता अगर घोटुल साँस ले रहे होते। कितने ही अद्भुत गीत हैं जो घोटुलों के समाप्त होते ही मायना हीन हो गये, कितने ही अद्भुत रिवाज हैं जो अब कभी नहीं निभाये जायेंगे। सींग माड़िया नृत्य (गौर सींग लगा कर मांदर की थाप और तिरहुड्डियों की छनक के साथ किया जाने वाला नृत्य), गौर नृत्य (गौर सींग बंधे नर्तक गोलाकार नृत्य करते हैं), हुलकी नृत्य (लड़के और लड़कियाँ अलग अलग दल बना कर नृत्य करते हैं। जब लड़कियाँ आगे की ओर झुकती हैं तो लड़के पीछे की ओर इस तरह कमल की पंखुड़िया खोलने जैसा दृश्य बनता है), गेड़ी नृत्य (लकड़ी या बाँस के दो डंडों पर चढ़ कर किया जाने वाला नृत्य), करमा नृत्य (करमा कहानी की याद में करमा वृक्ष की टहनी शरीर पर बाँध कर उस पेड़ के आसपास गोलाकार में नृत्य), रेवा नृत्य (यह उछल-कूद भरा आकर्षक नृत्य होता है), सेला नृत्य (छोटे छोटे डंडो की ताल पर यह नृत्य होता है जिसमें लड़के छेर छेरा और लड़कियाँ कोयल की आवाज निकालती हैं), रीना नृत्य (यह एक धीमा नृत्य है जो सेला की तरह ही होता है), गिरदा नृत्य (जब घोटुल के चेलक किसी अन्य गाँव में नृत्य करते हैं), सुआ नृत्य (घोटुल की मोटियारियाँ आस पास के गाँवों में जा कर नृत्य करती हैं) आदि सब अब विलुप्त होने लगे हैं। भित्ति चित्र कला को अब किसी तरह कलाकार बचाये हुए हैं अन्यथा किसी समय घोटुल की दीवारों पर बिछू, टोकनी, आदमी, औरत, हाथ के छापे, टोकनी, तूम्बा, देवता, पक्षी, घोड़ा, हाथी आदि सुन्दरता से अंकित किये जाते थे। घोटुल में सुनाई जाने वाली कहानियों को कोई सुने तो स्वयं महसूस करेगा कि कितने सजीव माध्यम से समाज अपने युवको को शिक्षा प्रदान किया करता था।

किसी सदस्य का विवाह होते ही घोटुल से उसकी सदस्यता स्वत: समाप्त हो जाया करती थी। विवाह में सभी घोटुल सदस्य बढ़ चढ़ कर हिस्सा तो लेते ही थे, यह उनके लिये बहुत भावुक क्षण भी होता था। विवाह के पश्चात नव दम्पत्ति को घोटुल स्वयं समारोह पूर्वक विदायी देता था। उनसे गेवड़े अर्थात गाँव की सीमा की पूजा करवायी जाती थी। आँटे की लकीर खींच कर चौंक बनाया जाता था जिस पर लोहे के छल्ले रख दिये जाते थे। नवदम्पत्ति को एक दूसरे की कमर में हाँथ ड़ाल कर बिना पीछे देखे छल्ले को पार करने के लिये कहा जाता था। इसके साथ ही सारी रस्मे सम्पन्न हो जाया करती थीं। बिदाई के बाद गम से भरे घोटुल में कोई और कार्यक्रम नहीं होता था। घोटुल का बंद होना नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है। जिस तरह कथित सभ्य समाज ने इस महान परम्परा को मटियामेट होते न केवल देखा बल्कि उसमे सहयोग भी किया, इसके लिये आने वाला समय उन्हें अपराधी ही निरूपित करेगा। 
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(मेरी पुस्तक - बस्तरनामा से अंश)