Saturday, September 28, 2013

कैद में देवता और सकते में प्रगतिशीलता?


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कैद में देवता और सकते में प्रगतिशीलता?
[केशकाल (उ. बस्तर) से एक वृतांत]
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दो तरह के देवताओं का फैशन है - आस्तिकों के देवता और नास्तिकों के देवता। दो तरह के कट्टरपंथी भी पाये जाते हैं – आस्तिक और नास्तिक। बडा विचित्र दौर है यह जहाँ भांति भांति के आस्तिक तलवार खींचे खड़े हैं और नस्तिकों ने भी अपने खंजर हथेलियाँ मोड़ कर पीठ की ओर छिपा रखे हैं। अब यह आप की ख्वाहिश है कि किस ओर खड़े हो कर मरना पसंद करेंगे? कोई आपके मुंह पर श्लोक या आयते दे मारेगा तो कोई मार्क्स की थ्योरी को परम सत्य बता कर आपकी छाती पर चढ जायेगा। विचारधाराओं के थोथेपन के इस दौर में मुझे बस्तर सुकून का ठंडा पानी उपलब्ध कराता रहा है। कथनाशय यह है कि धर्म, मान्यताओं और नास्तिकता के बीच भी सेतु बनाया जा सकता है; इस बात की प्रतीति पहली बार मुझे तब हुई थी जब मैं कांकेर (उत्तर बस्तर) में रिसेवाड़ा के पास कुछ प्रतिमाओं के अध्ययन के लिये गया था। एक स्थल पर ठिठक गया चूंकि वहाँ निकट ही गोबर की थप्पी पडी थी; पास ही इसे पूजे जाने के चिन्ह भी थे। मैने जब ग्रामीणों से इस सम्बन्ध में पूछा तो ज्ञात हुआ कि यह भीमादेव का स्थान है (भीमादेव पानी के देवता कहे जाते हैं)। देवता गोबर के भीतर पड़ा हुआ था। मुझे बताया गया कि बारिश नहीं हो रही थी बुआई नजदीक थी अत: ग्रामीण ने भीमादेव से प्रार्थना की। अब देवता है तो उसे सुख-दुख का साथी बनना ही पडेगा। अगर ग्रामीण की क्षमता के भीतर देवता की कोई माँग है तो पूरी भी की जाती है लेकिन जब देवता से कहा गया है कि बारिश कराओ तो बारिश होनी चाहिये। किस बात का देवता अगर माँग पूरी न करे? किस बात का देवता अगर इस तरह से नाराज हो जाये कि भक्त तकलीफ में आ जाये? नहीं इतना अधिकार बस्तर में देवता को नहीं दिया गया है कि वह अपनी अकड दिखा सके या हेकडी में रहे। यहाँ देवता से झगडा भी किया जाता है उसे गालियाँ भी दी जाती हैं इतना ही नहीं, बात न मानने पर हश्र और भी बुरा हो सकता है जो उदाहरण मेरे सामने था। भीमादेव ने बार बार याचना करने पर भी बात नहीं मानी तो अब देवता महोदय भुगतो। ग्रामीण ने अपना गुस्सा इजहार करते हुए देवता के उपर गोबर पटक दिया कि पडे रहो भीतर। बात मानोगे तो निकालूंगा बाहर नहीं तो होगे देवता मुझे क्या? क्या इस उदाहरण के सामने हमारे मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों और कार्ल-मार्क्स की थ्योरियों के तोते नहीं उड जाते? आस्था क्या है, तर्क क्या है और मान्यताओं की क्या सीमा हो इसे प्रस्तुत उदाहरण से बेहतर कहाँ समझा जा सकता है?

इसी बात को बारीकी से समझने के लिये केशकाल (बस्तर) की रमणीक वादियों से होते हुए माता भंगाराम के मंदिर पहुँचा जा सकता है। उस दिन पोला त्यौहार मनाया जा रहा था; मैं सुबह सुबह ही पत्रकार मित्र कमल शुक्ला और कृष्ण दत्त उपाध्याय जी के साथ भंगाराम मंदिर आ पहुँचा। केशकाल नगर से लगभग चार किलोमीटर भीतर एक पर्वतीय टीले पर इस मंदिर की अवस्थिति है जिसके पीछे की ओर से घना वन और ढलान प्रारंभ होती है। इस स्थल के सम्बन्ध में बुनियादी जानकारी स्थानीय पत्रकार तथा शोधार्थी कृष्णदत्त उपाध्याय मुझे उपलब्ध कराते चल रहे थे। मंदिर परिसर में सन्नाटा पसरा हुआ था। केवल दो पुजारी वहाँ उपस्थित थे जो कि पोला उत्सव होने के कारण माता भंगाराम को चढाने के लिये भोग बना रहे थे। खपरैल का यह मंदिर पुराने समय की संरचनाओं का स्मरण कराता है। बस्तर के देवी देवताओं का प्रकृति प्रेम भी जाहिर है और आम तौर पर जहाँ पेडों के झुरमुट हों, एकांत पर्वतीय टीले के निकट सघन वनों से घिरा कोई स्थल हो तो वहाँ आप किसी देवगुडी अथवा माता गुडी होने की संभावना से इनकार नहीं कर सकते। माता भंगाराम का मंदिर बस्तर भर की आस्था का केन्द्र है। रियासतकालीन बस्तर के अंतिम महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने यहाँ एक चाँदी का छत्र भी चढाया था जिसे विशिष्ठ अवसरों पर तथा भादो जात्रा के दौरान निकाला जाता है। एक समय था जब यहाँ पशुबलि भी प्रथा थी जिसे सत्तर के दशक में आदिवासी समाज ने आपसी सलाह से बंद कर दिया। भादो जात्रा न केवल प्रसिद्ध है अपितु बस्तर के दूर दराज गाँवों से इसमें सम्मिलित होने अनेक गायता, सिरहा, माझी और पटेल पहुँचते है। भादो के छ: शनिवार सेवा पूजा होती है जबकि सातवे शनिवार जात्रा निकाली जाती है। 

मंदिर परिसर के पीछे एक पर्वतीय ढलान आरंभ होती है; ठीक वहीं पर कई आंगा देव जमीन पर पडे हुए थे। उनका सामान यहाँ तक कि उनके चाँदी से किये गये श्रंगार, उनके चढावे आदि आदि इस ढलाने में यत्र तत्र बिखरे पडे थे। आंगादेव को मूलत: वंश का देवता कहा जाता हैं। तीन साजा, बेल या इरा लकड़ी की डंडियाँ जमीन में समानांतर गाड़ी जाती हैं। बीच की लकड़ी देवता का प्रतीक होती है जिसमें किसी साँप या चिडिया जैसी आकृति बनी होती है। दो सिर वाली आकृति यदि बनी हो तो आंगा पति और पत्नी दोनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मोरपंख, चाँदी के गहनों आदि से इसे सजाया जाता है।“ देवता तो देवता है और उसका मान करने की परम्परा भी है। देवता को प्रसन्न रखने के हर जतन किये जाते हैं तथा सिरहाओं के माध्यम से देवताओं द्वारा रखी गयी हर मांग को पूरा करने की कोशिश की जाती है। देवता है तो कुछ भी मांग ले एसा भी नहीं। बहुत सख्त मोल-भाव देवताओं और भक्त के बीच में होता है। बकरे की मांग से शुरु हुई बहस भक्त के इनकार और चीख चिल्लाहट भरी तकरार से घटते घटते मुर्गे तक भी पहुँच सकती है। यहाँ चूंकि देवता और उसपर आस्था रखने वालों के बीच सांकेतिक ही सही एक संवाद स्थापित है अत: बात चढावे लेने देने तक ही नहीं ठहरती अपितु भक्त की मांग भी पूरा करना देवता का ही दायित्व है। भक्त को परेशानी है, वह कर्जे में डूब गया है, घर में बीमारियों ने घर बना लिया है, पति-पत्नी के बीच झगडे होते रहते हैं और एसे में देवता मूकदर्शक नहीं रह सकता। उसे हर व्यक्तिगत समस्या बताई जाती है तथा उससे समाधान भी मांगे जाते हैं। यह सब कुछ भक्त की बर्दाश्त की पराकाष्ठा तक ही होता है। जिस दिन भक्त को लगा कि वह देवता किसी काम का नहीं, जिसके रहते हुए भी उसका जीवन उलझनों भरा है, उसके तनावों का निदान नहीं मिल रहा है, खेतों को बरसात नहीं मिल पा रही है तो समझ लीजिये कि अब इस आंगा की शामत आ गयी। देवता को अस्वीकार करना बस्तर के आदिवासी समाज की आस्था का सबसे सबल और अनुकरणीय पक्ष है।

कुछ अविश्वसनीय किंतु सत्य जान लें। भंगाराम ही वह स्थल है जहाँ किसी देवता को मान्यता मिलती है तो किसी देवता की मान्यता समाप्त भी की जाती है। एक ही नाम के दो देवता होने पर वास्तविक कौन के विवाद का निबटारा भी यहीं होता है। सबसे बडी बात कि पीडित भक्त अपने देवता के बरताव के प्रति यहाँ अपनी नाखुशी व्यक्त करता है तथा उसके लिये सजा की मांग भी कर सकता है। वह अपने देवता का तिरस्कार भी कर सकता है अथवा उसे सजा दिलाने की पात्रता भी रखता है। एसा भी नहीं कि देवता को अपनी सफाई देने का मौका नहीं मिलता। देवता भी यहाँ अपने तर्क रखता है; वह भक्त की उन भूलों को उजागर कर सकता है जिसके कारण उसने समस्याओं का समाधान नहीं किया। भंगाराम की यह अदालत नीर-क्षीर विवेक करती है; वह कभी समझाईश से भक्त और देवता के बीच विवाद को समाप्त करती है तो कभी किसी देवता को कैद करने अथवा नष्ट करने का भी निर्देश दे सकती है। यही कारण भी है कि भादो जात्रा में महिलाओं का प्रवेश यहाँ तक कि प्रसाद ग्रहण करना वर्जित रखा गया है। इसका कारण उनके कोमल मन को माना गया है चूंकि देवताओं को कैद किया जाना अथवा नष्ट किया जाना एक भावुक क्षण होता है। पुजारी ने इस जानकारी में आगे जोडा कि कभी कभी कुछ साल बीत जाने के पश्चात भक्त को अपने कैद देवता की याद आती है अथवा उसे लगता है कि सजा पर्याप्त हो चुकी। अब देवता को छुडा कर लाने और सम्मान देने से उसकी बात सुनी जायेगी और समाधान भी उसे मिलने लगेंगे तो वह इसकी अपील भी भंगाराम में आ कर कर सकता है। यह प्रक्रिया वर्तमान न्याय प्रणाली में मिलने वाली जमानत की तरह होती है। वह निर्धारित शुल्क अदा कर अपने देवता को पुन: घर ले जा सकता है। 

क्या यह प्रक्रिया एक विमर्श नहीं मांगती? क्या देवताओं को मिलने वाली सजायें मुख्यधारा के उस समाज को आईना नहीं दिखाती जिन्होंने अपनी कट्टर आस्थाओं के लिये पाखण्ड की चादर ओढ रखी है? क्या यह समाजशास्त्र के लिये एक अनूठा विषय नहीं है जो तमाम नास्तिकता की दलीलों को जीभ चिढा कर उन्हें आस्थावान होने की अपनी ही परिभाषा सौंप देता है? यहाँ देवता असल में व्यक्ति के मनोविज्ञान से ही जन्म लेते हैं और उसके अपने तर्क द्वारा कभी भी नष्ट किये जा सकते हैं। भंगाराम मंदिर के पीछे की ओर जहाँ अनेको देवता कैद हैं अथवा उनके सामान, श्रंगार, चढावे आदि बिखरे हुए हैं; उन्हें देख कर मैं भी स्तब्ध रह गया हूँ और अपने तर्क को कुरेद रहा हूँ कि आदिवासी समाज की इस प्रगतिशीलता को हमारी मुख्यधारा की दकियानूसियत कभी हासिल भी कर पायेगी? 

- राजीव रंजन प्रसाद
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हजारो चेहरे ऐसे [पुस्तक चर्चा]


अनूठी है बस्तर की लौह शिल्प कला


उन्होंने अपनी घुटने तक लपेटी हुई लुंगी के भीतर खोंस कर रखा पासपोर्ट निकाला जिसे पॉलीथीन और उसके उपर कपडे से लपेट कर सुरक्षा प्रदान की गयी थी। दो पासपोर्ट आपस में जुडे हुए थे और पन्ने पलटने पर ज्ञात हुआ कि अनेक देशों का उसमे वीज़ा लगा हुआ है। यह विद्याधर कश्यप थे जो नगरनार में अवस्थित हैं और बस्तर के लौह शिल्प का जाना पहचाना नाम हैं। कलाकार की प्रेरणा उसे मिलने वाला सम्मान और प्रोत्साहन ही होते हैं; यह बात मैं कश्यप जी की आँखों से झांकते गर्व को देख कर महसूस कर रहा था। यह गर्व उस दक्षता और कल्पनाशीलता से उत्पन्न होता है जो बस्तर के कलाकारों में आप देख-महसूस सकते हैं। लौह शिल्प से तात्पर्य आप विशुद्ध लोहार कर्म से नहीं लगा सकते। यह सही है कि परम्परागत रूप से बस्तर में लोहार निवास करते आये हैं तथा रियासत काल से ले कर आज तक वे भांति भांति के लौह औजार बना कर बाजार तक पहुँचाते रहे हैं। इन औजारों में दैनिक उपयोग की वस्तुएं जैसे कुल्हाडी, छुरा, दीपक, सांकल, बड़गी, सिकरा, काटा, आदि रही हैं तो खेती के उपकरण जैसे हल के फाल आदि भी हैं। तीर के आगे का हिस्सा निर्मित किया गया है तो बर्तन और दरवाजे भी बनाये जाते रहे हैं। किसी समय तलवारे, त्रिशूल, भाला, बरछी भी इनकी धौंकनियों से तप कर निकली हैं और बंदूखों की नाल भी इनकी निर्मिति हुआ करती थी।

बस्तर का लौह कर्म जितना पुराना है उतनी ही पुरानी लौह शिल्प कला भी है। धातुयुगीन मानव सभ्यता का काल 1800 ई.पू से 1000 ई.पू माना गया है। इस कालखण्ड तक मध्यभारत, गोदावरी के तटीय क्षेत्रों जिसमे कि वर्तमान बस्तर भी सम्मिलित है निश्चित ही लोहे को गलाने और इस्पात बनाने की विधि सीख ली गयी थी। बैलाडिला क्षेत्र में जहाँ आज विश्व की सर्वाधिक लौह प्रचुरता वाले अयस्क का भंडार है और आधुनिकतम खदाने हैं वहाँ 1065 ई में चोलवंश के राजा कुलुतुन्द ने लोहे को गला कर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना लगाया था। यहाँ बने हथियारों को तंजाउर भेजा जाता था। कथनाशय यह है कि आदिवासी परम्परागत रूप से लोहा गलाने और उससे विभिन्न उत्पाद बनाने की विधि को पीढी दर पीढी आगे बढाते रहे और इस तरह लौह कर्म वर्तमान की दहलीज तक पहुँच सका। एक निर्माता वस्तुत अपने भीतर की कल्पनाशीलता को छोड ही नहीं सकता और गाहे-बगाहे उसके भीतर से निकलने वाली सृजन की हूक किसी एसी आकृति के साथ बाहर आती है जिसे देख कर सभी चमत्कृत रह जायें। किसी भी कला की यही आरंभिक अवस्था है और संभवत: लौह शिल्प की भी।

लौह शिल्प का जो कला पक्ष है वह अत्यधिक श्रम से निकल कर बाहर आता है जहाँ धौकनी का ताप, लोहे को गलाने-तपाने का समय और हथौडे की उसपर सही समय और सही मात्रा में की गयी चोट ही आकार देने में सहायक होती है। आज भी लौह शिल्प के कलाकार किसी तरह की ढलाई विधि का प्रयोग नहीं करते अपितु परम्परागत रूप से पीट पीट कर आकार देने की प्रक्रिया का ही निर्वहन किया जाता रहा है। लौह कर्म एक कुटीर उद्योग तो बना ही कला के रूप में आरंभ में लोहारों ने अनेको स्थानीय देवी देवताओं की आकृति को स्वरूप प्रदान किया। गुजरी देवी को देवगुडी में रखा जाता है; इसी तरह देवताओं के वाहन निर्मित किये गये जिनमे रावदेव का घोडा इस तरह बनाया जाता था जिसमे कि कान नहीं होते थे। विभिन्न अनुष्ठानो में देवी-देवता अथवा पशु मूर्तिया चढाना एक विधान की तरह है। मानव आकृतियाँ भी बनाई जाती हैं जिसमे गौर सिंह लगाये हुए दंडामि माडियाओं की अनुकृति प्रमुख है। इसी तरह लौह कर्म से निर्मित सिकरा तीन प्रकार के होते हैं – कपाट सिकरा, बिलाई सिकरा और काटा सिकरा। काटा सिकरा आजब भी देवस्थल पर रखे जाते हैं। चिटकुली को बजाने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। लौह कलाकृतियों में अनेक प्रकार के पशु पक्षी जिनमे कि बैल, हिरण, घोडा, भांति भांति के आकार की चिडिया आदि बनाये जाते हैं। लौह कलाकृतियों में घुडसवार गणेश विशेष रूप से दर्शनीय होते हैं। दीपंकर हो अथवा दीवार में सजाने वाली विभिन्न मूर्तियाँ; इन सभी में बस्तर के लौह-शिल्पियों की अद्भुत कलात्मक क्षमता के दर्शन होते हैं।

बस्तर के आदिवासी समाज में प्रचलित एक प्रथा की जानकारी मिलती है जिसमे विवाह में कन्या को लौह दीपक प्रदान किया जाता है। इस प्रथा को दाईज दिया जाना कहते हैं। वस्तुत: यह कला ही है जो लोकजीवन में अपना आलोक विस्तारित करती है, देवताओं के सम्मुख प्रस्तुत की जाती है और समान पूजनीय होती है साथ ही साथ हर आम और खास घरों की सहर्ष शोभा भी बनती है। बस्तर के भीतर लोककला के रूप से एसी एसी विरासतें मौजूद हैं कि यदि इनका सही प्रकार से संरक्षण, संवर्धन तथा प्रसार किया जाये तो रोजगार के उन अवसरों को पुन: हासिल किया जा सकेगा जो धीरे धीरे लुप्त होते जा रहे हैं।
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Wednesday, September 25, 2013

बस्तर की घड़वा कला में सांस लेता है मोहनजोदाडो


कलाकारों के साथ समय गुजारना एक अनोखा अनुभव होता है। बस्तर की घडवा कला अथवा ढोकरा कला विश्व प्रसिद्ध है और हमेशा ही मुझे इन धातु-निर्मित कलाकृतियों ने अत्यधिक प्रभावित किया है। जगदलपुर स्थित मानवसंग्रहालय में मेरी मुकालात घडवा कला के साधक फगनुराम से हुई। वे बहुत देर तक इस बात से अनजान थे कि मैं उनके पीछे खड़ा मंत्रमुग्ध सा उनकी साधना को निहार रहा हूँ। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है यह यह कला साधना जिसमे आकृति तो धातु की बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है और मिट्टी जीवन फूंकें जाने तक उसे अपने सांचे में धारण करती है। मैं कलाकार के बगल में ही बैठ गया और जानने की कोशिश करने लगा कि आखिर यह कला है क्या तथा इसकी निर्माण प्रक्रिया कैसी है। यह बात तो तय है कि घडवा अथवा ढोकरा कला केवल सांचे में धातु डाल कर उसे जमाने भर को नहीं कहते। मेरे सामने अनेक मोम से आकार दी गयी देव प्रतिमायें, स्त्री-पुरुष आकृतियाँ, हाथी हिरण आदि आदि के स्वरूप बना कर रखे हुए थे। मोम से ही इन्हें इतना बारीक तराशा और सजाया जा चुका था कि इतने भर को ही मैं श्रेष्ठतम कला कहने को बाध्य था किंतु यह तो शुरुआत मात्र है। 

अगर प्रारंभ की बात की जाये तो बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घडवा कला को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में उनके कार्य को ले कर हुई चूंकि ये लोग उन दिनो घोडों के लिये घास काटने का कार्य किया करते थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि घडवा कला को किसी काल विशेष से जोड कर नहीं देखा जा सकता चूंकि मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य करती लडकी की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घडवा शिल्प आज कार्य कर रहा है। अपने एक आलेख में प्रसिद्ध घडवा शिल्प के कलाकार श्री जयदेव बघेल ने लिखा है कि बस्तर में इस कला के प्रारंभ के लिये जो मिथक कथा है उसका सम्बन्ध आदिमानव और उसकी जिज्ञासाओं से है। यदि उनके विवरणों को अपने शब्दों में प्रस्तुत करूं तो यह बात तब की है जब आदिमानव जंगल में विचरण करता था और शिकार पर आश्रित अपना जीवन निर्वहन किया करता था। इन्ही में से एक आदिमानव की यह कहानी है जो अपने माता-पिता से बिछड कर किसी गुफा में रह रहा था। एक दिन उसने पहाड पर आग लगी देखी। आग से निकलने वाले रंग तथा चिंगारिया उसे भिन्न प्रतीत हुईं और वह जिज्ञासा वश उस दावानल के निकट चला गया। अब तक आग स्थिर होने लगी थी। वहीं निकट ही उसे एक ठोस आकृति दिखाई पडी जो किसी धातु के पिघल कर प्रकृति प्रदत्त किसी गह्वर अथवा सांचे में प्रवेश कर जम जाने के पश्चात निर्मित हुई होगी। यह आकृति उसे अलग सी और आकर्षित करने वाली लगी और उसे उठा कर आदिमानव अपने घर ले आया। उसने इस प्रतिमा के लिये घर का एक हिस्सा साफ किया और इसे सजा कर रखा। इस प्रतिमा के लिये उसका आकर्षण इतना अधिक था कि नित्य ही वह इसे साफ करता और धीरे धीरे इससे प्रतिमा में चमक आने लगी। कहते हैं इसी चमक से प्रभावित हो कर वह स्वयं को भी चमकाने लगा अर्थात नित्य स्नानादि कर श्रंगार पूर्वक रहने लगा। यह धातु और वह मानव जैसे एक दूसरे के पूरक हो गये थे और समय के साथ दोनो में ही वैशिष्ठता की दमक उभरने लगी थी जिसे ग्रामीणों ने महसूस किया। जब कारण पूछा गया तो इस आदिमानव ने ग्रामीणों को वह जगह दिखाई जहाँ से उसे धातु का यह प्रकृति द्वारा गढा गया टुकडा प्राप्त हुआ था। इस स्थान पर सभी ने पाया कि एक दीमक का टीला है जिसमे कि धातु-द्रव्य प्रवेश कर गया था और उसने वही आकार ले लिया था। उसी स्थल पर मधुमक्खी का छत्ता भी पाया गया जिससे मोम, सांचा और धातु को कलात्मकता देने का आरंभिक ज्ञान उन ग्रामीणों को हुआ होगा। उस आदि-कलाकार ने तब ग्रामीणों से कहा कि मैने इस धातु के टुकडे को अपनी माँ माना है और इसी तरह इससे प्रेम किया है। तुम भी इस कला और अपने निर्माण को माँ की तरह ही मानो। कहते हैं कि उस आदिकलाकार ने सबसे पहले अपनी माँ की आकृति बनाने का यत्न किया और धीरे धीरे वह अपने निकटस्थ परिवेश की वस्तुओं और पशु-पक्षियों को भी इस कला के माध्यम से मूर्त रूप देने लगा। जयदेव बघेल के अनुसार उस आदिनामव ने इस तरह पहले बाघ, भालू, हिरण, कुत्ता, खरगोश, नाग कछुवा, मछली, पक्षी, गाय, बकरा, बंदर आदि बनाये। धीरे धीरे उसने अपनी माँ के रूप में डोकरी माँ की कलाक़ृति बनाई और कालांतर में डोकरा बाबा के रूप में वह पिता के स्वरूप को गढने लगा। इसी तरह विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ घडवा कला के रूप में परिवर्तित होती रहीं। कर्मकोलातादो, मूलकोलातादो, भैरमदेव, भीमादेव, राजारावदेव, दंतेश्वरीदेवी, माता देवी, परदेसीन माता, हिंग्लाजिन देवी, कंकालिन माता आदि की मूर्तियाँ इस कला के विकास के विभिन्न चरणों में निर्मित की जाने लगी। लाला जगदलपुरी भी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में उल्लेखित करते हैं कि “बस्तर के घड़वा कला कर्मी पहले कुँडरी, कसाँडी, समई, चिमनी और पैंदिया तैयार करते थे। अब ये लोग देवी देवता, स्त्री पुरुष, हरिण, हाथी, अकुम आदि बनाते आ रहे हैं”। 

यह कला असाधारण इसलिये है चूंकि इसे सम्पूर्णता से समझने पर किसी न किसी रूप में इतिहास सामने आने लगता है। सिन्धु घाटी की सभ्यता अगर धातु की एसी प्रतिमाओं की निर्माती थी तो निश्चित ही इस सभ्यता के नष्ट होने के साथ जो पलायन हुए उनके साथ ही यह कला भी स्थानांतरित हुई होगी। बस्तर में नाग शासकों ने लगभग सात सौ वर्ष तक शासन किया है और इतिहास उनके आगमन का स्थल मध्य एशिया के पश्चात सिंधुघाटी का क्षेत्र ही मानता रहा है तो क्या यह कला उनके साथ ही बस्तर की जनजातियों के पास पहुँची? इन प्रतिमाओं का महापाषाणकालीन सभ्यता से भी सम्बन्ध जोड कर देखा गया है तो क्या यह माना जा सकता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में ही समानांतर बसे मानव समूहो को भी धातु को गला कर आकृतियाँ देने की यह कला ज्ञात थी जिसमे गोदावरी के तट पस बसे आदिम समूह भी सम्मिलित थे? यह अभी शोध का विषय है तथा इसपर गहराई से कार्य किये जाने की आवश्यकता है। 

घडवा कलाकार फगनुराम ने मुझे इसकी निर्मिति की जो विधि बताई उसके अनुसार इस प्रकृया में कई प्रकार की मिट्टी लगती है जिसमे दीमक की बाबी की मिट्टी की प्रमुख भूमिका होती है। इस बात की कडी उपरिउल्लेखित आदिवासी की मिथक कथा से जुडती हुई प्रतीत होती है जिसका उल्लेख कलाकार जयदेव बघेल अपने आलेखों में करते रहे हैं। मिट्टी के कई प्रकार इस आकृति निर्माण प्रकृया में लगते हैं जिसमे दीमक (डेंगुर) की बाबी की मिट्टी के अलावा काली मिट्टी, नदीतट की मिट्टी, रुई-मिट्टी आदि का उपयोग विभिन्न प्रक्रियाओं में किया जाता है। साथ ही साथ सहायक तत्व के रूप में धान का भूसा तथा रेतीली मिट्टी का भी प्रयोग होता है। मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया के पहले चरण में धान के भूसे को काली मिट्टी के साथ मिला कर अच्छी तरह गूथ लिया जाता है और फिर इससे ही सांचा तैयार किया जाता है। अब सांचे की आकृति को धूप में अथवा आग में तपा कर ठोस कर लिया जाता है। इस सांचे पर गीली मिट्टी की दूसरी परत चढाई जाती है। इस बार मिट्टी के सूखते ही इस सांचे के स्वरूप की घिसाई खपरे अथवा हंडी (मटके) के टुकडे से की जाती है और इसे चिकना बनाया जाता है। अगली प्रक्रिया है उन पौधों की पत्तियों से इस आकृति को घिसना जिनको पीसने पर हरा रंग अधिक मात्रा में निकलता हो। सेम वृक्ष की पत्तियों का विशेषरूप से इस हेतु प्रयोग किया जाता है। इस प्रकृया के पश्चात तैयार ढांचे को पहले सुखा लिया जाता है जिसके पश्चात इस आकृति के उपर कलाकार की कल्पना अपना कार्य आरंभ करती है। मोम की सहायता से इस आकृति के उपर विभिन्न प्रकार की कलात्मक बारीकियों को उभारा जाता है। वस्तुत: इस पूरी प्रकृया के प्राण इसी समय भरे जाते हैं जब मोम के माध्यम से बहुत बारीक बारीक आकृतियाँ और स्वरूप उकेरे जाते हैं, विभिन्न प्रकार की पच्चीकारी की जाती है। इस मिट्टी के स्वरूप का मोम से श्रंगार पूर्ण होते ही छानी हुई खडिया मिट्टी में कोयले के महीन छाने हुए पावडर या गोबर को मिला कर आकृति के उपर हलके हाथो से एक लेप चढाया जाता है। इस लेपन की परत के सूख जाने पर पुन: दीमक की बावी की मिट्टी तथा धान के भूसे को मिला कर एक और लेप कर दिया जाता है। इसी लेपन के दौरान आकृति के सिरे पर धातु (पीतल अथवा कासा) से ढलाई करने के लिये एक छेद छोडा जाता है। अब इस पूरी आकृति को आग में पुन: पकाया जाता है। गर्मी पाते ही सांचे पर लगाया गया मोम उतने ही क्षेत्र में एक रिक्ति अथवा खोखलापन बनाता हुआ वाष्पित हो जाता है। अब पहले से ही छोडे गये छिद्र के माध्यम से पिघली हुई धातु का प्रवेश कराया जाता है। यह धातु उन सभी रिक्त स्थानो में जा कर बैठ जाती है जो कि मोम के पिघल जाने से निर्मित हुई हैं। अर्थात जिस कलात्मकता का निर्माण मोम के माध्यम से कलाकार ने किया वही अब धातु की बन कर तैयार हो जाती है। अब इसे ठोस होने के लिये छोड दिया जाता है। बाद में धीरे धीरे मिट्टी को तोड कर अलग कर लिया जाता है और धातु की कलात्मक प्रतिमा अपना आकार ले लेती है। अद्भुत है यह कला...और अद्भुत अनुभव था अपनी आँखों के आगे उस कास्य युग को निहारना, इतिहास को पक कर आकार लेते देखना। 

इसमे दो राय नहीं कि बस्तर की घडवा कला विश्व की प्राचीनतम कलाओं में से एक है जो आज भी सराही जा रही है तथा इसका अपना वैश्विक बाजार भी है। मुझे यह जान कर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि इस कला के कलाकार देश-विदेश की यात्रायें कर रहे हैं और न केवल अपनी कला का वहाँ प्रदर्शन कर रहे हैं अपितु विदेशों में हुई कार्यशालाओं से सीख कर कई तरह की आधुनिकताओं को भी अपनी आकृतियों में स्थान दे रहे हैं। वर्ष 1961-62 में सरोजिनी नायडु द्वारा घडवा कला के लिये श्री सिमरन बघेल को सम्मानित किया गया था इसके पश्चात कलाकारों का एक कारवा निरंतर बनता चला गया है। वर्ष 1970 में सोनाबाल गाँव के श्री सुखचंद को तथा वर्ष 1977 में कोण्डागाँव के श्री जयदेव बघेल को इस कला की साधना के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। बदलते दौर में यह कला केवल सजावट नहीं अपितु दैनिक उपयोग की वस्तुओं की भी निर्मिति कर रही है जिससे कि उसके खरीददार बढें और कलाकारों की आजीविका चलती रहे। रायपुर एयरपोर्ट से ले कर दिल्ली के हर कला-शिल्प मेले में बस्तर की शान घडवा कला दिखाई पड ही जाती है। आज न केवल मोम अपितु धातु भी कीमती हो गयी है एसे में यह कहना उचित नहीं कि कलाकारों को उनकी निर्मिति के वास्तविक दाम मिल पा रहे हैं। हर हाल में इस कला को प्रोत्साहन, संरक्षण, विस्तार तथा बाजार की आवश्यकता है। 

Tuesday, September 24, 2013

एनबीटी की बस्तर में हलबी अनुवाद कार्यशाला के बहाने एक विमर्श


“एनबीटी की बस्तर में हलबी अनुवाद कार्यशाला के बहाने एक विमर्श” 
[कार्यशाला दिनांक 24-26 सितम्बर को जगदलपुर में] 
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बस्तर में दो वृहद रूप से पहचानी जाने वाली संस्कृतियाँ हैं – गोंड़ी तथा हलबी-भतरी परिवेशों में। भूतपूर्व बस्तर रियासत ने इन दोनों संस्कृतियों को भाषाई एकता के सूत्र में बाँधा था। एक लम्बे समय तक ‘हलबी’ बस्तर रियासत की राज भाषा रही किंतु इसका कारण किसी संस्कृति विशेष को महत्व दिया जाना अथवा जिसी जनजाति विशेष का वर्चस्व दिखाना नहीं था अपितु यह इस लिये किया गया था चूंकि रियासत में अवस्थित सभी जनजातियों की संपर्क भाषा तब हलबी ही थी। लाला जगदलपुरी की पुस्तक “बस्तर- लोक कला, संस्कृति प्रसंग” के पृष्ठ-17 मे उल्लेख है कि – “बस्तर संभाग की कोंडागाँव, नारायनपुर, बीजापुर, जगदलपुर और कोंटा तहसीलों में तथा दंतेवाडा में दण्डामिमाडिया, अबूझमाडिया, घोटुल मुरिया, परजा-धुरवा और दोरला जनजातियाँ आबाद मिलती हैं और इन गोंड जनजातियों के बीच द्रविड मूल की गोंडी बोलियाँ प्रचलित है। गोंडी बोलियों में परस्पर भाषिक विभिन्नतायें विद्यमान हैं। इसी लिये गोंड जनजाति के लोग अपनी गोंडी बोली के माध्यम से परस्पर संपर्क साध नहीं पाते यदि उनके बीच हलबी बोली न होती। भाषिक विभिन्नता के रहते हुए भी उनके बीच परस्पर आंतरिक सद्भावनाएं स्थापित मिलती है और इसका मूल कारण है – हलबी। अपनी इसी उदात्त प्रवृत्ति के कारण ही हलबी, भूतपूर्व बस्तर रियासत काल में बस्तर राज्य की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही थी।….और इसी कारण आज भी बस्तर संभाग में हल्बी एक संपर्क बोली के रूप में लोकप्रिय बनी हुई है।” 

डॉ. हीरा लाल शुक्ल की पुस्तक “बस्तर का मुक्तिसंग्राम” के पृष्ठ -6 में उल्लेख मिलता है कि – ‘वर्तमान में निम्नांकित मुख्य जातियाँ बस्तर के भूभागों में रहती हैं – 1. सुआर ब्रामन, 2. धाकड, 3. हलबा, 4. पनारा, 5. कलार, 6. राउत, 7. केवँटा, 8. ढींवर, 9. कुड़्क, 10. कुंभार, 11. धोबी, 12. मुण्डा, 13. जोगी, 14. सौंरा, 15. खाती, 16. लोहोरा, 17. मुरिया, 18. पाड़, 19. गदबा, 20. घसेया, 21. माहरा, 22. मिरगान, 23. परजा, 24. धुरवा, 25. भतरा, 26. सुण्डी, 27. माडिया, 28. झेडिया, 29. दोरला तथा 30. गोंड। उपर्युक्त मुख्य जातियों में 1 से 22 तक की जातियों की “हलबी” मातृबोली है और शेष जातियों की हलबी मध्यवर्ती बोली है। कुछ जातियों की अपनी निजी बोलियाँ भी हैं जैसे क्रम 23 और 24 में दी गयी जातियों की बोली है परजी जबकि 25 और 26 की बोली है भतरी। क्रम 27 से 30 तक की बोलियाँ हैं माडी तथा गोंडी।” 

उपरोक्त उद्धरणों से यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि आज भी हलबी बोली बस्तर की एक मान्य और कोंटा से ले कर कांकेर तक बोली-समझी जानेवाली भाषा है। हलबी बस्तर के साहित्य की भी भाषा है और सौभाग्य से इसका अपना व्याकरण और शब्दकोश भी है। यह प्रसन्नता का विषय है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) द्वारा बस्तर की आदिवासी भाषा-बोलियों में मुख्यधारा की पुस्तकों के अनुवाद किये जाने की दूसरी कार्यशाला जिसका आयोजन दिनांक 24-26 सितम्बर को जगदलपुर में किया जा रहा है; इसमे हलबी भाषा में अनेक पुस्तकों का अनुवाद, तत्पश्चात प्रकाशन किया जायेगा। हलबी में हो रहे इस कार्य की महत्ता इस बात से भी है कि एक बडा पाठक वर्ग होने के बाद भी पुस्तकों की उपलब्धता का अभाव होने के कारण भाषा का ह्रास हो रहा था तथा साहित्यकारों की भी हलबी में रचनाकर्म करने की अभिरुचि टूट रही थी। मैं एनबीटी तथा श्री पंकज चतुर्वेदी जी का हृदय से आभार करता हूँ जिनकी संकल्पना से यह आयोजन संभव हो पा रहा है। 

इस आयोजन के साथ मुझे महाराजा प्रवीर याद आ रहे हैं। वर्ष-1950 में 21 से 23 अक्टूबर तक चलने वाले मध्य-प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन जगदलपुर के राजमहल परिसर में हुआ था। तत्कालीन गृह मंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र इस सम्मेलन के अध्यक्ष थे। अधिवेशन में पं सुन्दर लाल त्रिपाठी, सुनीत कुमार चटर्जी, आचार्य क्षिति मोहन सेन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, भदंत आनंद कौशल्यान, बाबूराम सक्सेना, दादा धर्माधिकारी, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद तिवारी, प्रो. अंचल आदि मनीषी उपस्थित थे। प्रवीर ने तब शिक्षा और भाषा-बोली के समन्यवय को ले कर एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि - “हिन्दी में पढ़ाने के लिये हमारी प्रारंभिक पाठ्य पुस्तकें बेकार हैं, इनमें हमें चित्रों की भी आवश्यकता है। प्रत्येक अक्षर को एक जानवर की तस्वीर लगा कर समझाया जाये और उस जानवर का नाम हिन्दी, हल्बी और गोंडी में लिखा जाये।” अर्थात यह कि हिन्दी और स्थानीय भाषाओं के बीच एक सेतु बनाने की आवश्यकता है चाहे हम आदिवासी भाईयों को मुख्यधारा से जोडने का स्वप्न देखें अथवा उनकी नयी पीढी के लिये शिक्षा का। 

एनबीटी जैसे प्रकाशन संस्थान यदि इसी तरह अपना दायित्व निर्वहन करेंगे तो निश्चित ही बडे बदलाव बस्तर के सामाजिक परिदृश्य में देखने को मिलेंगे। मेरा यह अनुरोध भी होगा कि इस तरह की कार्यशालायें लगातार आयोजित की जानी चाहिये। अगली कार्यशाला गोंडी में होनी चाहिये जिससे कि दक्षिण बस्तर और अबूझमाड क्षेत्र के लिये भी एसी ही पुस्तके द्विभाषा में प्रकाशित की जा सकें शिक्षक सीधे ही इन पुस्तकों को पढ कर बच्चों तथा ग्रामीणों को सुना सकेंगे तथा उनमें सोच और दृष्टिकोण के बीच बोने में सहायक हो सकेंगे। 

इस आयोजन के लिये पुन: शुभकामनायें। 

Friday, September 20, 2013

बदल रहा है बस्तर के मिट्टी शिल्प का दृष्टिकोण


गीली मिट्टी से खेलने वाला हर बच्चा अपनी कल्पनाओं को कोई न कोई आकार देने की कोशिश अवश्य करता है। बुनियादी रूप से यह कल्पनाशीलता ही मिट्टी शिल्प की कलात्मकता का आधार है। बस्तर में मिट्टी शिल्प देश के किसी भी अन्य भाग के टेर्राकोटा कार्यों से भिन्न है चूंकि इसमे कलाकार की मौलिकता मौजूद है न कि सांचों से इसकी निर्मिति हो रही है। साथ ही साथ जो कुछ बस्तर के कलाकार आज भी गुथी हुई मिट्टी को स्वरूप दे कर बना रहे हैं उसमे क्षेत्र के प्रागैतिहास से ले कर इतिहास के हर बदलते हुए दौर की किसी न किसी रूप में झांकी मिलती है। 

मिट्टी शिल्प की बुनियादी जानकारी मुझे धरमपुरा जगदलपुर स्थित मानव संग्रहालय में चल रही एक कार्यशाला के दौरान प्रदान की गयी जहाँ नगरनार से आये मिट्टी शिल्प के कलाकार अपनी कृतियों का न केवल प्रदर्शन अपितु वहीं निर्माण भी कर रहे थे। कलाकारों ने बताया कि यह कला परम्परागत रूप से चाक, उनके हाथों की कारीगरी तथा कल्पनाशीलता का संगम है। मिट्टी मूलरूप से किसी खेत से, नदी-नाले के किनारे नर्म हुई सतह से, तालाब आदि के किनारे से प्राप्त की जाती है जिसे श्रमपूर्वक तथा पैरों से गूंथ कर निर्माण के लिये तैयार कर लिया जाता है। आवश्यकतानुसार थोडी सी रेत मिला कर और पुन: गूंथ कर इस मिट्टी को किसी भी कलात्मक निर्माण के लिये तैयार कर लिया जाता है। 

भव्य हाथी बस्तर के मिट्टी शिल्प की सबसे महत्वपूर्ण पहचान है। मिट्टी शिल्प का कलाकार मुझे वह प्रक्रिया समझाने लगा जिस तरह वह हाथी का निर्माण कर रहा था। हाथी के पैरो और सूंड को छोड कर पूरा कार्य हाँथों से ही किया जाता है; इसे सजाने के लिये कल्पना और परम्परागत ज्ञान ही उनके सहयोगी होते हैं। यह भी प्रतीत होता है कि हाथी अथवा बैल पर किये गये अलंकरण संभवत: बस्तर को दक्षिण की देन हैं। बस्तर के कलाकारों द्वारा हाथी के अलावा घोडे, बैल नंदी, बेन्दरी आदि प्रमुखता से बनाये जाते हैं। अपने देवी देवताओं को भी मिट्टी के यही कलाकार अपनी कल्पनाशीलता से आकार देते हैं, मुख्य रूप से दंतेश्वरी, जलनी, भण्डारिनी, माडिन माता, बूढी माई, हिंगलाजिन, बंजारिन, मावली, गोंडिन, डोकरा, राहुर, भीमादेव, लिंगोपेन आदि की मृत्तिका-प्रतिमायें बनायी जाती हैं। केवल यही नहीं मृदभांड आज भी आदिवासी परम्परा का हिस्सा है और मटका, घगरी, कुंडरा, कनजी, रूखी, परई, भांजना सुराही आदि भी बनाये जाते हैं। खिलौने बनाना भी कुम्हारों द्वारा किया जाता है और मुख्य रूप से चकिया, चूल्हा, कोंडी, ढक्कन, चाटू, सिल, गुडिया, घोडा, हाथी आदि बनाये जाते हैं। 

कई मिथक कथायें भी उपलब्ध हैं। बस्तर मे यह जनमान्यता है कि तब चारो ओर केवल जल ही जल था और ईश्वर को निर्माण के लिये मिट्टी की आवश्यकता थी। ईश्वर ने केंकडे से कहा कि जाओ पाताललोक में केंचुवे के पास मिट्टी है, उसे ले कर आओ; मुझे उस मिट्टी से दुनिया का निर्माण करना है। केंकडा पाताल लोक पहुँचा और उसके केंचुवे से सृजन के लिये मिट्टी मांगी। इनकार करने पर केंकडे नें अपनी दाढ में केंचुवे को दबा लिया। घबरा कर केंचुवे ने मिट्टी छोड दी, जिसे ले कर केंकडा ईश्वर के पास पहुँचा। ईश्वर नें यह मिट्टी अपने एक गण को दे कर कहा कि जाओ रोशनी के लिये मिट्टी के दीप बनाओ, मिट्टी के पात्र और घट बनाओ। यह गण तथा इसके वंशज कुम्हार बने। इस कहानी से एक और मिथक कथा पूरक की तरह आ जुटती है। कुम्हार ने भगवान से कहा कि मिट्टी के बर्तनों और प्रतिमाओं के निर्माण के लिये मुझे साधन चाहिये। विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र जिससे चाक बना, शिव ने पिण्डी दी जिससे चाक की धुरी बनी तथा ब्रम्ह ने अपनी जनेऊ प्रदान की जिससे मिट्टी काटने की रस्सी बनी। प्रगतिशील समाज इस कहानी को नकार दे इससे पहले मेरा अनुरोध होगा कि इस मिथक कथा को किसी कविता की तरह पढा जाये। सृजन करने वाला हर व्यक्ति वस्तुत: इश्वर का गण ही तो है? इतिहास को भी देखे तो दुनिया के सारे आविष्कार अकस्मात हुए हैं चाहे वह चक्के की खोज हो अथवा आग की; कालांतर में उन्हें किसी न किसी तरह ईश्वरीय सत्ता के साथ उस काल के मानव ने जोड कर अपनी जिज्ञासाओं के सामाधान प्राप्त किये हैं। बस्तर में मिट्टी की किसी कृति के निर्माण के पश्चात उसे आग/भट्टी में पका कर पक्का कर लिया जाता है। बसंत निर्गुणे की पुस्तक “मिट्टी शिल्प” के अनुसार उन्हें कोण्डागाँव के एक कुम्हार बनऊ राम नाग ने यह मिथक कथा बताई थी कि एक बार किसी हाथी के सिर पर मिट्टी चिपक गयी। यह मिट्टी सूख कर किसी पपडी की तरह जमीन पर गिर गयी। बस्तर का पुरा-मानव इस मिट्टी की पपडी को अपनी झोपडी में ले आया। किसी कारण वश झोपडी में आग लग गयी। मिट्टी की यह अर्धचन्द्राकार पपडी जो आकार में किसी पात्र की तरह थी इस आग में पक गयी और ठोस हो गयी। बरसात में पुरा-मानव ने पाया कि इस मात्र में तो वह जल को संचित कर रख सकता है। यही नहीं इस प्रक्रिया से वह अपने उपयोग के योग्य पात्र भी बना सकता है। कहते हैं इसी घटना के फलस्वरूप मिट्टी शिल्प का जन्म हुआ। यह कारण भी है कि हाथी बस्तर में कुम्हारों की निर्मिति में प्राथमिकता से आते हैं और उनकी पूजा भी होती है। यह कथा मनुष्य सभ्यता के विकास की भी परते खोलती हुई भी प्रतीत होती है।

आज भी बस्तर में नगरनार, कोण्डागाँव, कुम्हारपारा (जगदलपुर) तथा एडका (नारायणपुर) में बस्तर की मिट्टी शिल्प कला स्वांस ले रही है। अद्भुत कलात्मकता और कल्पनाशीलता के साथ अब इसमे आधुनिकता का भी समावेश होने लगा है। समय के साथ साथ कलाकार गमले, पेनस्टेंड, दीवार पर लगाये जाने वाली सजावटी कलाकृतियाँ आदि भी बना रहे है। इन सबके बाद जिस बात ने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया वह था “पुरातन और आधुनिकता का फ्यूजन”। कलाकारों से बुनियादी जानकारी ले कर मैं आगे बढा ही था कि मेरी दृष्टि बडे कॉफी कप तथा पेन स्टेंड जैसी कुछ मिट्टी की आकृतियों पर पड़ी। इससे भी बडा और सु:खद आश्चर्य मुझे तब हुआ जब एक नौजवान मेरे सामने आ खडा हुआ और उसने सगर्व बताया कि यह उसका बनाया हुआ है। यह आदिवासी लडका बारहवी पास कर चुका है और अपने पेशे के प्रति भी समर्पित है। उसकी शिक्षा ने ही उसे परम्परा और आधुनिकता को जोड कर नयी कलात्मकताओं को प्रदर्शित करने की प्रेरणा दी है। यह बदलते बस्तर की एक बानगी भर है। हममे से बहुत से लोग जो यह मानते हैं कि रोजगार निर्माण के परम्परागत स्त्रोतों की ओर भी लौटना चाहिये, उन्हें यह प्रयास करने की आवश्यकता है कि एसी कलाकृतियों को बाजार भी उपलब्ध हो। यदि इन कलाकारों को उनके श्रम का वास्वविक मूल्य तथा जीवन यापन योग्य समुचित आय प्राप्त होने लगेगी तो यकीन मानिये बस्तर की यह पारम्परिक कला विश्वमानचित्र पर अपना महत्वपूर्ण दखल रख सकती है। बस्तर में बदलाव के बीज यहीं मौजूद हैं केवल उन्हें सही खाद-पानी और रोशनी प्रदान करना है हमें। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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Thursday, September 19, 2013

एक था चेन्द्रू



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चेन्द्रू नहीं रहा। चेन्द्रू जब था तब भी उसके होने से किसी को बहुत फर्क नहीं था। बहुत से गुमनाम नायकों की कतार में एक वह भी था जिसने कभी जीवन में हॉलीवुड की चमक दमक देखी; लाईट. कैमरा और साउंड जैसे सम्मोहित करने वाले शब्दों के आगे वह कभी शेर से खेला तो कभी जंगल के उस स्वाभाविक जीवन को रुपहले पर्दे पर उतारने में सहायक बना जिसमे वह स्वयं जीता रहा था। वर्ष 1988-89 की बात है जब मैने पहली बार चेन्द्रू का नाम सुना था। पत्रकार मित्र केवलकृष्ण को कहीं से यह जानकारी प्राप्त हुई थी कि बस्तर में किसी आदिवासी बालक ने हॉलीवुड की फिल्म में काम किया था। इस सूत्र को पकड कर उसने बस्तर के प्रख्यात रिसर्चर इकबाल से मुलाकात की और वहाँ से पहली बार उसे चेन्द्रू का पता मिला।   

चेन्द्रू होने के क्या मायने हैं? क्या केवलकृष्ण को जब इकबाल भाई ने पहली बार चेन्द्रू का पता बताया और वो उनसे अबूझमाड़ के प्रवेशद्वार पर अवस्थित गाँव ‘गढ-बंगाल’ में मिले तब क्या यह जानते थे कि जिस व्यक्ति पर अखबार के लिये न्यूज फीचर करने जा रहे हैं वह पूरे बस्तर के लिये विरासत है? चेन्द्रू निश्चित ही अमिताभ बच्चन नहीं है और इसलिये उसकी गुमनामी तय है लेकिन यह बताना आवश्यक है कि मोगली और टारजन जैसे काल्पनिक किरदारों की भीड में वह एक जीता जागता नायक था। यह ठीक है कि बात छप्पन साल पुरानी है और वर्ष 1957 में स्वीडिश फिल्मकार अर्न सक्सिडॉर्फ की फिल्म 'एन डीजंगलसागा' ('ए जंगल सागा' या 'ए जंगल टेल' अथवा अंगरेजी शीर्षक 'दि फ्लूट एंड दि एरो') का नायक था चेन्द्रू। फिल्म में वास्तविक शेर से किसी खिलौने सा खेलता हुआ चेन्द्रू अपने नायकत्व से अनेक जंगल आधारित सिनेकारों पर मुस्कुरा कर यह कहता अवश्य प्रतीत होता है कि “नक्कालों से सावधान!!”। 

सिनेकार के लिये चेन्द्रू महज एक किरदार ही तो था जिसकी इतिश्री फिल्म के बनते ही हो गयी। इसके बाद फिल्म की एक डिस्क-प्रति, सिनेकार की हस्ताक्षरित एक किताब जो चेन्द्रू के कार्यों और उसकी अद्भुत तस्वीरों का प्रस्तुतिकरण भर थी, को थमा कर उसने कभी जानने की कोशिश भी नहीं की कि उसका ‘बस्तरिया माडिया नायक’ आगे किस हाल में रहा और कैसा जीवन जीता रहा। यद्यपि यह जानकारी मिलती है कि दस वर्ष के चेन्द्रू को तब फिल्मकार अर्न सक्स डॉर्फ गोद भी लेना चाहते थे किंतु उनका अपनी पत्नी से तलाक होने के पश्चात यह संभव न हो सका। हर नायक ताउम्र चमक-दमक मे नहीं रहता; बहुत से सुपरस्टार राजेशखन्ना बन जाते हैं और उम्र के आखिरी पडाव में दोयम दर्जे की छत्तीसगढी फिल्म में अभिनय करते दिखाई पडते हैं...कितने हैं जो फिर हल उठा लेते हैं; फिर अपनी लंगोट में आ जाते हैं; फिर अपनी झोपडी को घर मानने लगते हैं और फिर अपने गाँव में अपने साथियों के साथ ताड़ी-लांदा से अलमस्त यह भूल पाते हैं कि जीवन में उन्होंने लाईट-कैमरा-एक्शन की चमत्कारी दुनिया भी देखी हुई है? 

केवल कृष्ण ने बताया था कि जब पहली बार चेन्द्रू से मिलने गढबंगाल पहुँचा तो वह किसी बीमार की झाड़-फूंक करने गया था। उसे चेन्द्रू को देख कर यकीन ही नहीं हुआ कि यही व्यक्ति एक हॉलीवुड फिल्म का नायक भी रह चुका है और इसी ने बस्तर के प्रतिनिधित्व को वैश्विक बनाया है। नायक भी कैसा, जो यह जानता ही नहीं कि उसके काम की अहमियत क्या थी? एक फटी-चिटी किताब जिसमे सिनेकार ने अपना हस्ताक्षर कर चेन्द्रू को हस्तगत किया था वस्तुत: वही प्रमाण के रूप में चेन्द्रू के पास उपलब्ध था। इस फटी-मुडी किताब में प्रकाशित चेन्द्रू की तस्वीरें देख कर किसी की भी आँखें फटी रह सकती थी। प्रश्न केवल अभिनय की स्वाभाविकता का नहीं है चूंकि चेन्द्रू पर तो वही फिल्माया जा रहा था जो उसका जीवन है, यहाँ से कई मुद्दे उभर कर आते हैं। स्वीडिश फिल्मकार ने चेन्द्रू का जीवन तो प्रस्तुत किया किंतु उसे पहचान नहीं दी। भारत में उन दिनो भी फिल्म का जुनून था और तब भी यह आवश्यकता नहीं समझी गयी कि स्वीडिश फिल्म ‘जंगल सागा’ या कि अंग्रेजी रूपांतरण 'दि फ्लूट एंड दि एरो' हिन्दी में ‘जंगल गाथा’ बन कर सामने आ पाती। हिन्दी में जंगल पर बनने वाले बदन-दिखाऊ और अश्लील टार्जनों के सामने एक आईना तो होता? जाने दीजिये हम न तब जागरूक थे और न अब हैं। न हमने चेन्द्रू की अहमियत तथा उसके कार्य की महत्ता तब समझी थी न आज ही उसे जानना चाहते हैं। 

बात उस केवल कृष्ण के न्यूज फीचर से ही करना चाहता हूँ जिसने चेन्द्रू से मेरा पहला परिचय करवाया था। उसने बताया था कि चेन्द्रू से बहुत स्वाभाविक रूप से अपनी विरासत अर्थात उसकी फिल्म पर प्रकाशित पुस्तक सौंप दी थी। जब वह पुस्तक लौटाने पुन: गढ-बंगाल पहुँचा तब चेन्द्रू घर पर नहीं था। घर के बाहर ही चन्द्रू की माँ मिल गयी जो अहाते को गोबर से लीपने में लगी हुई थी। बहुत देर तक चेन्द्रू की प्रतीक्षा करने के पश्चात भी जब वह नहीं लौटा तो केवल ने चेन्द्रू की माँ को ही अपने आने का प्रायोजन बताया। बहुत ही स्वाभाविक लेकिन कडुवा प्रश्न उस ग्रामीण महिला ने केवल के सामने रख दिया कि “तुम लोग तो ये खबर छाप के पैसा कमा लोगे? कुछ हमको भी दोगे?” आज भी यह सवाल कायम है। चेन्द्रू ने बस्तर को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी है, केवल कृष्ण तथा आलोक पुतुल को एक दुर्लभ कहानी दी है, पत्रकार हेमंत पाणिग्राही को राज्यस्तरीय पुरस्कार दिलाया है...और मैने भी अपनी पुस्तक “बस्तर के जननायक” में उसकी कहानी को प्रस्तुत किया है। हम सभी बगले झांक सकते हैं क्योंकि यह सवाल कायम है कि चेन्द्रू को क्या मिला? 

पिछले एक माह से चेन्द्रू जिन्दगी और मौत की लडाई लड रहा था। उसका आधा शरीर पक्षाघात का शिकार हो गया था तथा वह कुछ भी बोल पाने अथवा किसी को भी पहचान पाने में असमर्थ था। मैं इस बार जगदलपुर केवल चेन्द्रू से मिलने के लिये गया था चूंकि मैं हर बार इस अपराधबोध के सामने खुद को खडा पाता हूँ कि आखिर चेन्द्रू को क्या मिला? मुझे अस्पताल में यह देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई थी कि बस्तर के ख्यातिनाम साहित्यकारों में गिने जाने वाले मित्र रुद्रनारायण पाणिग्राही चेन्द्रू की स्वयं आगे बढ कर खोज खबर रख रहे थे और चिकित्सकों और चेन्द्रू के परिजनो के बीच होने वाली भाषा-संवाद की समस्या को भी रह रह कर दूर कर रहे थे। मेरे लिये एक अद्भुत नायक की छवि को मरणासन्न देखना हृदयविदारक सा था। मैं जान गया था कि व्यवहारिक रूप से हमने अब चेन्द्रू को खो दिया है लेकिन जब तक सांसे हैं उसका हक बनता है कि वह सम्मान के साथ चिर निद्रा मे लीन हो। उसका हक बनता था कि उसके स्वास्थ्य की चिंता प्रशासन करे। उसका हक बनता था कि उस पर लिखा जाये और न केवल बस्तर अपितु पूरे छत्तीसगढ का ध्यान चेन्द्रू की ओर जाये; उसका हक बनता था कि जिस बस्तर को उसने सात समन्दर पार भी पहचान दी उसे उसकी अपनी मिट्टी भी सगर्व पहचाने। अपने आग्रह पर नारायणपुर में मुझे मित्र संजय महापात्रा के माध्यम से यह सूचना प्राप्त हुई कि आदिमजाति कल्याण मंत्री केदार कश्यप ने चेन्द्रू से मुलाकात की तथा उसका मुफ्त इलाज करने के निर्देश अस्पताल को दिये। 

आज चेन्द्रू हमारे बीच नहीं है। चेन्द्रू की उपलब्धियों पर गर्व करने का हक हम बस्तरियों को तभी होगा जब हम उसकी अहमियत को भी पहचान और सम्मान देंगे। चेन्द्रू को मिलने वाला सम्मान अनेक अबूझमाडियों के लिये वह प्रेरणा बन सकता है कि बारूद की गंध के बीच भी कोई फिर जंगल सागा की गुनगुनाहट बनना चाहे। अलविदा चेन्द्रू....।  
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वो सुबह हमीं से आयेगी


साहिर लुधियानवी ने गीत लिखा था “वह सुबह हमीं से आयेगी” और इस गीत की कुछ पंक्तियाँ बहुत खूबसूरत सपने को सार्थक करने का रास्ता दिखाती हैं – 

संसार के सारे मेहनतकश, खेतो से, मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इन्सां, तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और खुशहाली के, फूलों से सजाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी।

संभवत: फिल्म की मांग के अनुरूप साहिर ने गीत के मुखडे को बदल दिया – “वो सुबह कभी तो आयेगी”। यह गीत आज भी एक नया समाज बनाने और व्यवस्था में सुधार अथवा बदलाव देखने वालों की जुबां जुबां पर है। साहिर साहब ने अपने बदले हुए गीत में सपना तो दिया लेकिन समाधान हटा दिया कि “वो सुबह हमीं से आयेगी”। यही कारण है कि अपने अपने झंडों और नारों के साथ लोग आसमान ताकते दिखाई देते हैं कि काले मेघा आयेंगे, पानी बरसा जायेंगे कितु कोई भी अब खेत जोतने को तैयार नहीं। बस्तर एक एसी जगह है जहाँ साहिर का गीत “वो सुबह कभी तो आयेगी” नुक्कडों-नुक्कडों गाया गया है लेकिन इसे मुमकिन बनाने वाले लोग कौन हैं? 

नारायणपुर अबूझमाड के प्रवेशद्वार पर बसा नगर है। वस्तुत: अबूझमाड की जीवनधारा के साथ यह शहर कई मायनो में गुथा हुआ है। यही पर रामकृष्ण आश्रम भी मौजूद है जिसके प्रयासो से हर वर्ष अबूझमाड से अनेक शिक्षित और रोजगार में प्रशिक्षित युवक/युवतियाँ बाहर आ रहे हैं। वस्तुत: हर संस्था अपने बुनियादी रूप में एक इकाई होती है और आज मैं एक इकाई की ही चर्चा करना चाहता हूँ। बात पचास के दशक की है। रियासतकालीन बस्तर में राजकीय कर्मचारी श्री पूरनसिंह ठाकुर के पुत्र श्री राम सिंह ठाकुर आज बस्तर के सम्मानित साहित्यकारों, पत्रकारों, फोटोग्राफर आदि आदि में गिने जाते हैं। रामसिंह जी पचास के दशक में जब नारायणपुर में बसे तब इस नगर में बुनियादी सुविधा नगण्य थी। बस्तर, विशेषकर अबूझमाड उन दिनो भी विदेशियों की अभिरुचि का महत्वपूर्ण केन्द्र था। यहाँ कोई फोटोग्राफर नहीं था। संभव भी नहीं था चूंकि तब फोटोग्राफी कोई सस्ती अथवा साधारण तकनीक की विधा नहीं थी। कैमरा भी ले लिया और तस्वीर भी खींच ली लेकिन अब आप रोल को डेवलप कहाँ करेंगे? तब नारायणपुर से रायपुर पहुँच पाना ही एक बडा काम हुआ करता था। रामसिंह जी ने जगदलपुर के सिनेमाघरों मे फिल्म दिखाने का कार्य करते हुए प्रोजेक्टर के साथ कुछ समय बिताया था। केवल अनुभव ही से प्रकाश, फिल्म तथा उसके दृश्य बनने के सिद्धांत को उन्होंने समझ लिया था। कहते हैं कि किसी निश्चयी व्यक्ति को रास्ते के कांटे तो क्या खाई और पर्वत भी नहीं रोक पाते। श्री रामसिंह ठाकुर ने प्रयोग के तौर पर अपने खपरैल और मिट्टी के घर में ही एक डार्क रूम का निर्माण किया। छत की सूर्य से निर्धारित कोण और अवस्थिति माप कर खपरैल हटायी गयी और निश्चित मात्रा में ही रोशनी को कमरे के भीतर आने देने का मार्ग बनाया गया। इसके बाद फिल्म डेवलप करने के लिये लगने वाले फिक्शर्स और कलर्स के लिये भी कई एसे प्रयोग किये गये जिसे हम कभी कभी जुगाड टेक्नोलॉजी कह कर आज उपहास कर लेते हैं। फाईनल आउटपुट या कि फोटो जिस प्रिंटिंग पेपर में निकलनी है इसके बडे बडे रोल रामसिंह जी ने नारायणपुर में ला कर बाकायदा फोटोग्राफी के लिये स्टूडियो खोल लिया था। कहते हैं कि एक अमरेकी महिला फोटोग्राफर जिसे उसकी खीची हुई तस्वीरें कुछ बडे आकार में चाहिये थी उसे नारायणपुर में ही उस दौर में उपलब्ध हो गयीं तो बडे ही अविश्वास के साथ वह रामसिंह जी का डार्करूम देखने पहुँची। उस अमेरिकी महिला और उसके विदेशी साथियों की आँखें आश्चर्य और अविश्वास से खुली रह गयी थी कि बस्तर के नारायणपुर जैसे कस्बे में एसा स्टूडियो भी हो सकता था जहाँ जिस आकार की चाहो उस आकार की तस्वीर डेवलप कर प्रदान की जा सकती थी वह भी बिना बिजली और आधुनिक तकनीक की उपलब्धता के।

पिछले तीन दशकों से लाल-आतंकवाद और वर्तमान व्यवस्था के बीच आहिस्ता आहिस्ता पिसता हुआ अबूझमाड अपनी पहचान, जिजीविषा, संघर्ष करने की ताकत और मुस्कुराहट से महरूम होता जा रहा है। रामसिंह ठाकुर जैसे जुझारू व्यक्तित्व ने अपने परिवेश को जो देना था वह दे दिया है लेकिन क्या इससे बात आगे बढ सकी? इतना तो तय है कि नारायणपुर का समय बदला है और यहाँ अब बिजली भी है, मोबाईल भी आ पहुँचे हैं, इंटरनेट भी है और कदाचित डिशटीवी के कारण जगमगाती सपनीली दुनिया की झांकी भी है। नारायनपुर अवश्य बदल गया किंतु अबूझमाड वहीं का वहीं ठहरा हुआ है। रामसिंह ठाकुर जी से मुलाकात करने मैं नारायणपुर (4.09.2013) पहुँचा था और मेरे साथ हरिहर वैष्णव तथा कमल शुक्ला भी थे। वापस लौटने के क्षणों में उनके छोटे पुत्र राकेश सिंह ने आग्रह किया कि हम उनके स्टूडियो भी देखते चलें। राकेश ने अपने पिता की विरासत संभाल ली है और नारायणपुर में वे फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी को न केवल व्यवसाय अपितु कला के रूप मे भी आत्मसात किये हुए हैं। हाल ही में उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त स्टूडियो बनवाया है जिसका उद्घाटन अभी होना है। इसे देखने के पश्चात हम राकेश के कार्यस्थल पहुँचे। भीतर प्रवेश करते ही मैं ठिठक गया। एक लडकी एसएलआर कैमरा ले कर फोटो खीच रही थी और दो अन्य सर्वश्रंगार युक्त आदिवासी लडकियाँ सामने खडी हो कर अपनी तस्वीर खिंचवा रही थी। प्रथमदृष्टया यह सामान्य दृश्य ही प्रतीत हो रहा था जब तक कि राकेश ने नहीं बताया कि न केवल तस्वीर खिचवाने वाली अपितु खींचने वाली लडकी भी अबूझमाड की आदिवासी बाला है। एक क्षण के लिये मेरा रोम रोम रोमांचित हो उठा चूंकि मेरी कल्पना में रामसिंह ठाकुर जी का वही डार्करूम कौंध उठा जिसके भीतर सूरज की रोशनी एक निश्चित कोण से प्रवेश कर रही थी। यह उसी रोशनी से जगमगाता हुआ दृश्य है जिसमे बिना किसी नारे-झंडे के बदलाव लाने की ताकत है। यह अबूझमाड को मिली एक और दिशा है और इसका वर्तमान आपको चाहे जितना साधारण प्रतीत हो रहा हो, भविष्य की कल्पना कर तो देखिये। सोचिये एक दिन बदलेगा अबूझमाड, कल्पना कीजिये कि कैमरा थामे इस लडकी के पास क्रांति का वह बीज है जो उनके पास भी नहीं जिन्हें थमा दी गयी है बंदूख। यह एसा उत्तर है जिसे प्रश्न स्वयं हमारी अपनी व्यवस्था ने ही बनाया है। चलिये साहिर के ही सपनीले गीत पर लौटते हैं इस अभिप्राय के साथ कि अपने बस्तर में वो सुबह हमीं से आयेगी - 

फ़ाको की चिताओं पर जिस दिन, इन्सां न जलाये जायेंगे
सीनों के दहकते दोज़ख में, अरमां न जलाये जायेंगे
ये नरक से भी गन्दी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

-राजीव रंजन प्रसाद
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Thursday, September 12, 2013

“डॉक्टर खान देवा - स्वीकार करो अंड़े”

सांध्य दैनिक "छत्तीसगढ" में दिनांक 12.09.2013 को प्रकाशित


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बहुत सी राजनीतियाँ हैं जो समाज पर छुरियाँ चलाती हैं और इसके हिस्से-हिस्से एक दूसरे के मुँह पर मल कर जश्न करती प्रतीत होती हैं। हम कैसे बुने गये यह आज महत्व का नहीं रहा जबकि हमें कैसे उधेडा जा सकता है यही सभी के चिंतन का विषय बना हुआ है। आस्तिकताओं के पंथ हैं तो नास्तिकता का अपना ही घमंड कि वही समाज में बदलाव के नये पन्ने लिखने के काबिल है। मुजफ्फरनगर में बह रहा खून और बस्तर में बह रहा लहू यह साम्यता तो दिखाता ही है कि रक्त केवल धार्मिक प्रतिद्वन्दिवता के कारण ही नहीं बहाया जाता अपितु नाहक और अकारण नास्तिकताओं ने भी झंडा थाम कर निर्दोषों पर ट्रिगर दबा दबा कर बहाया है। एसे में कभी कभी बुद्ध याद आते हैं। बुद्धत्व प्राप्ति के लिये सिद्धार्थ मगध जनपद के सैनिक सन्निवेश उरूबेला पहुँचे और निरंजना नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे कटोर तपस्या में लीन हो गये। छ: साल तक कठोर तपस्या लेकिन हाथ रीते? शरीर सूख कर काँटा हो चुका था और प्राण साथ छोडना चाहते थे। तभी जंगल में स्त्रियों का एक समूह गीत गाता हुआ गुजरा जिसके निहितार्थ थे कि वीणा के तार को इतना भी नहीं कसना चाहिये कि वह टूट जाये और इतना ढीला भी नहीं छोडना चाहिये कि उससे कोई आवाज़ ही न निकल सके। बस इसी क्षण बुद्ध को मध्यममार्ग का बोध हुआ। बुद्ध ने एक महिला सुजाता के हाथ खीर ग्रहण कर अपना उपवास तोड दिया और शरीर को तपाने की जगह सत्यबोध में जुट गये। यही मर्म हर नाविक जानता है कि समंदर तक नौका को खेना है तो धार के साथ चलना होगा यदि उद्गम तक पहुँचना है तो धार के विपरीत चलना होगा किंतु किसी भी स्थिति में किनारों की छीना झपटी का कोई निहितार्थ नहीं। 

यह भूमिका लम्बी प्रतीत हो सकती है लेकिन असहिष्णु हो चुके वर्तमान परिवेश को आईना अवश्य दिखाती है। मैं बस्तर से संबंधित एक घटना पर चर्चा को ले जाना चाहता हूँ जो घुलने मिलने वाले समाज, सहिष्णु परिवेश और अनुकरणीय परिस्थिति का अनूठा उदाहरण है। बात बस्तर के प्रवेशद्वार कांकेर से कुछ दूर घाटियों में अवस्थित केशकाल कस्बे की है। मैं पत्रकार मित्र कमल शुक्ला के साथ केशकाल पहुँचा और यहाँ कृष्ण दत्त उपाध्याय जी से मेरी मुलाकात हुई। केशकाल में मेरी रुचि आंगाओ (आदिवासी देव स्वरूपों) को ले कर थी। केशकाल निवासी श्री कृष्ण दत्त उपाध्याय ने स्थानीय देवी-देवताओं एवं आदिवासी परम्पराओं पर महत्वपूर्ण कार्य किया है वे मेरे गाईड बने और हम नगर परिसर से दूर वन परिधि के प्रारंभ होने की अवस्थिति में उस स्थान पर पहुँचे जहाँ भंगाराम देवी का मंदिर बना हुआ है। असाधारण शक्तिशाली देवी हैं भंगाराम और यदि उनकी प्रतिमा को ध्यान से देखा जाये तो इसकी निर्मिति में दक्षिण का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। खपरैल की कुटिया सदृश्य मंदिर जिसके सामने एक प्राचीन काष्ठ स्तम्भ गडा हुआ था जिसके आगे साल-दर-साल होने वाली भादो जात्रा में गाडे जाने वाले सैंकडो लौह त्रिशूल गडे हुए थे। हम पोला त्यौहार के दिन यहाँ पहुँचे थे। मंदिर प्रांगण में केवल दो आदिवासी पुजारी ही मौजूद थे और पूरी तन्यमता से भंगाराम देवी के लिये भोग बना रहे थे। भोग के लिये चावल को पीस लिया गया था जिसमें मीठा और तैलीय पदार्थ मिला कर अब उसे गूंथा जा रहा था। इसे छोटे छोटे गोलाकार में बदला जाना था जिसे तलने के पश्चात भोग स्वरूप देवी के आगे प्रस्तुत किया जाना था। इन पुजारियों की आस्था भी कितनी गैर दिखावटी है, वे जानते हैं कि आज किसी को मंदिर नहीं आना है लेकिन परम्परा कहती है कि आज देवी को विशिष्ठ भोग लगाया जाना है तो दोनो बियाबान में निर्मिप्त भाव से लगे हुए हैं। 

इस मंदिर और यहाँ से जुडी मान्यताओं पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन तभी मुझे एक पुजारी ने आवाज़ दे कर एक ओर बुलाया। वह मंदिर परिसर के दाहिनी ओर बने उन खुले कक्षों में अवस्थित देवी देवताओं के विषय में बताना चाहता था। कृष्ण दत्त उपाध्याय जी ने केशकाल का वासी होने के गर्व के साथ कहा कि यह स्थान साम्प्रदायिक सौहार्द का उदाहरण है तो मैं चौंक गया। बस्तर में आस्तिकों और नास्तिकों की खूनी साम्प्रदायिकता तो जाहिर है और उसपर पूरी दुनिया की निगाह गडी हुई है लेकिन इससे इतर क्या? अब पुजारी ने मेरा ध्यान खींचा और एक पाषाण प्रतिमा की ओर इशारा कर बताया कि “ये डॉक्टर खान देव हैं। मुसलमान देवता है।” 

पुजारी के दिये विवरण के हर शब्द ध्यान खींच रहे थे। मैने अपने मोबाईल का ऑडियो रिकॉर्डर ऑन किया और पुजारी के पास चला आया। मैने पूछा कि क्या यह प्रतिमा किसी डॉक्टर की है? क्या वे मुसलमान थे? वे देवता कैसे बन गये? उत्तर भी आश्चर्यचकित कर देने वाला था। जो मैं समझ सका उसके अनुसार अतीत में कभी बस्तर क्षेत्र में हैजा महामारी की तरह फैल गया था। तब इन क्षेत्रों में बचाव के लिये राजा और ब्रिटिश सरकार द्वारा चिकित्सकों की नियुक्ति की गयी थी। इन्ही में से एक चिकित्सक रहे होंगे जिनका पूरा नाम तो ग्रामीणों को याद नहीं किंतु घटना को कई पीढिया गुजर जाने के बाद आज भी इतनी जानकारी शेष है कि वे डॉक्टर कोई खान थे और मुसलमान थे। कहते हैं कि डॉक्टर खान ने अपनी मेधा और ज्ञान को इन आदिवासियों का जीवन बचाने के लिये समर्पित कर दिया। पुजारी के विवरण के अनुसार डॉ. खान के छडी घुमाने से महामारी गाँव छोड कर भाग रही थी। बारीकी से समझने की कोशिश करता हूँ तो लगता है कि डॉ. खान ने तब स्वयं को महाज्ञानी मान कर अपकी चिकित्सकीय पेटी खोलने के स्थान पर प्रचलित धार्मिक मान्यताओं, सिरहाओं और ओझाओं के माध्यम से लोगों को अपनी दवाईयों के साथ जोडा होगा। देवी का आदेश ग्रामीणों को चिकित्सक तक खीच लाया होगा और डॉ. खान ने ज्ञान और परम्परा को साथ जोड कर उपचार का सर्वमान्य रास्ता निकाल लिया होगा और इससे उन्हे महामारी से लडने में सहायता मिली होगी। उपलब्ध जनश्रुति कहती है कि महामारी से लडते हुए स्वयं इस बीमारी का डॉ. खान शिकार हो गये और अपना दम तोड दिया। 

यहाँ तक तो एक संघर्षशील इंसान की कहानी है लेकिन इसके पश्चात एक प्रेरक और अनुकरणीय उदाहरण देखने को मिलता है। जन-मान्यता है कि देवी भंगाराम इस मुसलमान चिकित्सक से बेहद प्रसन्न थी जो उसकी आज्ञा से उसके ही भक्तों को महामारी से बचा रहा था। इस मुसलमान चिकित्सक की मौत होते ही देवी ने आज्ञा दी कि डॉ. खान हमेशा ही उनके सहयोगी रहेंगे और ‘डाक्टर खान देवा’ बन कर उनसे साथ काम करते रहेंगे। आज इस घटना को सैंकडो साल बीत गये लेकिन डॉ. खान आज भी जन मान्यताओं में जीवित हैं। देवी भंगाराम की आज्ञा से उनका एक पाषाण बुत स्थापित किया गया है। आज भी केशकाल और इसके आसपास अवस्थित क्षेत्रों में किसी भी तरह की बीमारी फैलने पर उसकी चिकित्सा का दायित्व डॉक्टर खान देवा पर ही है। डॉ. खान देवा को विधिवत अंडे तथा नीबू चढाया जाता है और देवी के सहयोगी के रूप में आज भी भरपूर सम्मान प्रदान किया जाता है। पुजारी सगर्व बताता है कि ये मुसलमान देवा हैं जो हमें व्याधि-बीमारियों से बचा कर रखते हैं। 

साम्प्रदायिकता क्यों है इसपर बहस बेमानी है, आस्था क्या है इस पर भी कई बैद्धिजीविक थ्योरी बाजार से खरीदी जा सकती है; लेकिन डॉक्टर खान देवा हर सवाल का खामोश उत्तर हैं। बुतपरस्ती के खिलाफ खडे धर्म के मानने वाले डॉ. खान आज आदिवासी समाज द्वारा स्वयं एक बुत बना दिये गये हैं। यही नहीं पूरी आस्था और सम्मान के साथ वे सिन्दूर से भी पोते जाते हैं, अगरबत्तियाँ उनके गिर्द खोंची जाती हैं, वे अंडा भोग के रूप में स्वीकार करते हैं। वे आज भी अपनी इस बेमिसाल उपस्थिति से आदिवासी समाज को एक मनोवैज्ञानिक ढाढस दिये रखते हैं कि कोई महामारी उनके रहते इस क्षेत्र को छू भी नहीं सकती। तो मुझसे मार्क्स लाख कहे कि धर्म अफीम है लेकिन मैं हजार बार डॉ. खान के इस बुत के आगे नत-मस्तक होने के लिये तैयार हूँ जिनकी मौन उपस्थिति आज भी सार्थक है। आदिवासी समाज अपनी धार्मिक मान्यताओं को तर्क के साथ स्वीकार करता है। इसी भंगाराम मंदिर के पीछे वह स्थल भी है जहाँ देवी देवताओं के खिलाफ उसके भक्त शिकायत प्रस्तुत करते हैं। यहाँ देवी देवताओं को दंडित करने, उन्हें कैद करने, यहाँ तक कि उन्हें नष्ट करने तक का विधान है और यह सब कुछ इसलिये कि एसे देवताओं का क्या लाभ जो उसे मानने वालों के अनुरूप नहीं, जिसमे उसे मानने वालों को व्याधियों से मुक्त कराने का सम्बल नहीं और जिसके पास उसपर भरोसा रखने वालों के प्रश्नो के उत्तर नहीं। यह एक लम्बा विषय है अत: पुन: डॉ. खान देवा पर लौटते हैं। साम्प्रदायिकता के खिलाफ सोच तभी पैदा हो सकती है जब डॉ. खान देवा जैसे सच मुख्यधारा कहे जाने वाले विचारकेन्द्रों तक पहुँचें और चर्चा का कारण बनें। ये कहानियाँ केवल अचरज से सुने जाने के लिये न हों अपितु पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनें जिससे कि हर छात्र यह जान सके कि किसी भंगाराम देवी के मुसलमान सहायक देवता भी हो सकते हैं अर्थात देवता होना किसी चमत्कार पर नहीं, किसी धर्म विशेष की मिल्कियत नहीं अपितु परोपकार पर निर्भर करता है। हर वह व्यक्ति जो अपने समाज के लिये समर्पण के साथ जुटता है और जूझता है वह देवता बना दिया जाता है और कृतज्ञतायें उसे हर काल में जीवित रखती हैं। 

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