Wednesday, June 10, 2015

बस्तर के वन, वन-उत्पाद और वन-औषधियाँ




जंगल बस्तर की राजनीति का केन्द्र रहा है चाहे वह "कोई आन्दोलन" हो जो कि एक पेड़ के बदले एक सिर की अवधारणा पर आधारित था, अथवा कुख्यात मालिक मकबूजा काण्ड। बस्तर की आत्मा यहाँ की हरीतिमा है। सदियों तक यहाँ सभ्यतायें आबाद रहीं और उन्हें संरक्षण वनों ने दिया है। नल और नाग शासक तो प्रकृति पूजक थे ही काकतीय/चालुक्य शासक अन्नमदेव ने जिस बस्तर राज्य की नीव रखी उसे यहाँ पाये जाने वाले बाँस से ही नाम मिला है। बस्तर संभाग वन संपदा से भरपूर है, यहाँ अनेक दुर्लभतम वृक्ष हैं तो कहीं न पायी जाने वाली वन-औषधियाँ भी। यहाँ विलुप्त हो चुके जंगली भैंसे की कहानियाँ आज भी गूंजती हैं तो आदमी की आवाज़ की हू-बहू नकल कर सकने वाली जंगली मैना एक अजूबा है। इसी तरह दुर्लभ पक्षी भीमराज, अबूझमाड़ पर्वतों की शोभा है जिसका आकार प्रकार नीलकंठ की तरह होता है साथ ही वह अपने रंग-बिरंगे पंखों की वजह से जाना जाता है। साल वनों की अधिकता के कारण यह अंचल सालवनों का द्वीप भी कहा जाता है। इसी नाम की अपनी कृति से बस्तर अंचल के प्रसिद्ध साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी ने बस्तर को देश-विदेश तक चर्चित किया था। 

रियासत काल में वनों का प्रबन्धन जमींदारों तथा राजाओं के द्वारा होता था। वनों से ही उन्हें अधिकतम राजस्व प्राप्त होता था। उस दौर में खरीददार को वन क्षेत्र में कहीं से भी परिपक्व गोलाई के वृक्ष काटने की छूट थी। इस काटी गयी लकड़ी पर रायल्टी ली जाती थी। रियासत काल में वन प्रबन्धन को ले कर कोई ठोस नीति अंग्रेजों के इस क्षेत्र में आगमन तक नहीं बन सकी। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अंग्रेज बस्तर में यहाँ के वनोत्पादों का अपने अनुसार दोहन करने के लिये ही आये थे अत: उनकी वन नीति भी साम्राज्यवादिता का एक पैना नाखून सिद्ध हुई, जिसने यहाँ की हरीतिमा का शोषण भी किया और आदिवासियों को उनके नैसर्गिक आवासों से दूर भी कर दिया। रियासतकालीन बस्तर में ग्यारह आन्दोलन हुए और सभी किसी न किसी तरह वन और आदिवासियों के अधिकारों से जुड़ते हैं। इसके दृष्टिगत ब्रिटिशकालीन वन-संरक्षण के कानून जंगलों के संरक्षण के लिये नहीं अपितु सुनियोजित दोहन के लिये बनाये गये थे।

आज़ादी के बाद भी स्थितियों में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। मालिक मकबूजा प्रकरण बहुचर्चित रहा जिसने वनों के दोहन और आदिवासी शोषण की जो कहानियाँ लिखीं वे कलंक निरूपित की जायेंगी। मालिक मकबूजा काण्ड को समझने के लिये हमें पुन: रियासती काल में लौटना होगा; सन 1940 में एक कानून लागू हुआ था कि आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी नहीं खरीद सकता। इस कानून में कई अगर और मगर लगा दिये गये। अगर किसी आदिवासी को शादी व्याह जैसे जरूरी काम के लिये पैसा चाहिये तो वह अपनी जमीन गैर आदिवासी को बेच सकता है मगर उसे राज्य के सक्षम अधिकारी से लिखित अनुमति प्राप्त करनी होगी। आजादी के बाद नयी सरकार ने नया कानून बनाया जिसे ‘सेंट्रल प्रॉविंसेज स्टेट्स लैंड़ एण्ड ट्रेनर ऑर्डर -1949’ कहा गया जिसमें काश्तकारों को उनकी अधिग्रहीत भूमि पर अधिकार हस्तांतरित कर दिये गये। इस आदेश ने भी किसानों को उनकी भूमि पर लगे वृक्षो का स्वामित्व नहीं दिया था अत: कमोबेश यथास्थिति बनी रही, चूंकि पुराने कानून में भी पेड़ शासन की सम्पत्ति माने गये थे। ‘सी.पी एवं बरार’ से पृथक हो कर मध्यप्रदेश राज्य बनने के बाद नयी सरकार ने पुन: नयी सक्रियता दिखाई और ‘भूराजस्व संहिता कानून-1955’ के तहत भू-स्वामियों को उनकी भूमि पर खड़े वृक्षों पर भी स्वामित्व अर्थात मालिक-मकबूजा हक हासिल हो गया। उपरी तौर पर देखने से यही लगता है कि सरकार ने आदिवासियों का हित किया है लेकिन यह अदूरदर्शी कानून सिद्ध होने लगा। सागवान के लुटेरे भारत के कोने कोने से बस्तर की ओर दौड़ पड़े। कौड़ियों के मोल सागवान के जंगल साफ होने लगे। कभी शराब की एक बोतल के दाम तो कभी पाँच से पंद्रह रुपये के बीच पेड़ और जमीनों के पट्टे बेचे जाते रहे। 

सर्वदा हुए निर्मम दोहन के पश्चात भी आज बस्तर संभाग का सत्तर प्रतिशत से अधिक क्षेत्र वन है। इन उपलब्ध वनों का पुन: वर्गीकरण किया जाये तो इन्हे प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से दो वन वृत्तों – उत्तर बस्तर वन वृत्त तथा दक्षिण बस्तर वन वृत्त में बाँटा गया है। पुन: इन दो वन वृत्तों को सात वन मण्डलों एवं 43 परिक्षेत्रों में विभक्त किया गया है। भूगोल को आधार बनाया जाये तो इस अंचल का मध्यपूर्वी अथवा पठारी क्षेत्र मुख्य रूप से साल वनों से घिरा हुआ है जबकि उत्तर पश्चिम एवं दक्षिणी क्षेत्रों में मिश्रित वन हैं। चैम्पियन तथा सेठ (1968) ने बस्तर के वनों को पाँच प्रकारों में विभाजित किया है 

अ) आर्द्र प्रायद्वीपीय साल के वन (केशकाल तथा कोण्डागाँव का उत्तर-पूर्वी भाग)
ब) दक्षिणी आर्द्र मिश्रित पतझड़ वाले वन (संभाग के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में नदियों, घाटियों, ढ़लानों, आर्द्र तथा उपार्द्र क्षेत्रों में विस्तारित जंगल) 
स) आर्द्र सागौन के वन (कोण्टा से दक्षिण पश्चिम की पहाड़ियाँ व भोपालपट्टनम के क्षेत्र) 
द) शुष्क सागौन के वन (इन क्षेत्रों में बाँस नहीं पाये जाते) 
ई) दक्षिणी शुष्क मिश्रित पतझर वन (संभाग के उत्तरी भाग में इस प्रकार के वनों का विस्तार मिलता है)। 

बस्तर के जंगलों में मुख्य रूप से साज, हल्दू, सेमल, बीजा, हर्रा आदि कीमती प्रजातियाँ पायी जाती हैं। पठार को छोड़ कर शेष हिस्सों में बाँस प्रमुखता से पाया जाता है। प्रमुख प्रजातियों को सूचीबद्ध किया जाये तो बीजा, शीशम, साजा, अमलतास, घनबहार, तेन्दू, चार, महुआ, जर्रा, कुसुम, धावड़ा, खैर, कालामोखा, धामन, जामुन, हर्रा, सल्फी, ताड़, छींदकराट, सूरासिंहाड़ी, इमली, आम, अंजन, केकड़, कारम, कोचिला, नीम, बेर, डूमर, बड़, कैंठ, पीपल, पलाश, सेन्दुरी, ककई, घोंट, बेहड़ा, भैलवा, केला, नीबू, चकोत्तरा, नारियल, पपीता, कटहल, गूलर, कदम्ब, भिर्रा, बबूल, काजू, वन मोंगरा, सियाड़ी, भूलन, अगिया, आदि वृक्ष-वनस्पतियाँ बस्तर में प्रचुरता से पाये जाते हैं। बस्तर संभाग में प्रमुख वनोपज के रूप में तिखुर, सालबीज, हर्रा, आँवला, तेन्दुपत्ता, गोंद, फूलबाहरी, शहद, टोरा, कुसुमबीज, बगईघास, महुआफूल, अमचूर, कोसाफल, बेंत, धूप व काजू सहित अनेक प्रकार की जलाऊ लकड़ी उपलब्ध है। पशु पक्षियों में तेन्दुआ, जंगली कुत्ता, कोटरी, लमहा, चीतल, साम्भर, जंगली भैंसा, नीलगाय, जंगली सूअर, भालू, गौर, जंगली मैना, मोर, तीतर, वनमुर्गी, लावा, मंजूर, भृंगराज, सुरिया, तोता, कोयल आदि यहाँ की जैव विविधता के आधार स्तम्भ हैं। बाघ और जंगली भैसे को बस्तर से विपुप्त मान लिया गया था किंतु इन्हीं दिनों अखबारों के माध्यम से कुछ उत्साहवर्धक जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं। इंद्रावती टाइगर रिजर्व के चिल्लामरका इलाके में एक बाघ को उसके दो शावकों के साथ कैमरे में कैद किया गया है। इसी तरह छह वन भैंसों का एक झुंड भी सेंड्रा इलाके में देखा गया है।

बस्तर अपनी जड़ी बूटियों के लिये भी जाना जाता है। यहाँ मुख्य रूप से पाये जाने वाली वन-औषधियाँ हैं - डिस्कोरिया, कालीमूसली, सफेद मूसली, वन तुलसी, आँवला, अरंड, रसना, घीववार, पीली कटेरी, चिरायता, अकरकरा, नीम, नीलगिरि, भटाकटेरी, धतूरा, सर्पगंधा, रानीजाड़ा, नीबूघास, कुनाईन, तुलसी, बेलाडोना, हड़जोड़, बच, सेमल, अर्जुन, कचनार, पुत्रजीवा, हर्रा, वैसिका, लाजवंती आदि। आदिवासी इन औषधियों की गहन जानकारी रखते हैं। उदाहरण के लिये चिरायता को आदिवासी गठ्ठों में भर कर बाजार में बेचते हैं। यह औषधि बुखार तथा रक्त शुद्धि के लिये बहुत उपयोगी मानी गयी है। इसी तरह आदिवासी परिवार नियोजन के लिये काली जीरी (वर्नोनिया एंथेरिंटिका) बीज का उपयोग करते हैं। गरुड़ की लकड़ी दिखा कर साँप को निस्तेज किया जाता है तथा इसकी फली व लकड़ी का प्रयोग साँप का जहर उतारने के लिये किया जाता है। इसी तरह विचित्र लता (एनटाडा स्केंडेंस) भी बस्तर में पायी जाती है जिसके फूल को फल बनने में लगभग दो वर्ष लग जाते हैं। इसकी फली भी लगभग एक से डेढ़ मीटर की लम्बाई लिये हुए होती है और बीज भी बड़े आकार के होते हैं; साँप का जहर उतारने में ये बीज काम मे आते हैं। यहाँ प्राप्त होने वाली ज्योतिष्मती बूटी के तैल का आयुर्वेद में अनेक असाध्य रोगों में प्रयोग बताया गया है। बैचांदी और तेखुर तो बस्तर से देश भर में जाता ही है। 

यदि कृषि परिदृश्य पर एक दृष्टि डाली जाये तो इसे बहुत उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता। बस्तर में सिंचित क्षेत्र नहीं के बराबर है अत: मनसूस पर ही यहाँ की खेती पूरी तरह से निर्भर है। यही कारण है कि बस्तर से प्राप्त होने वाली पन्चानबे प्रतिशत से अधिक फसलें खरीफ की हैं। धान यहाँ की प्रमुख फसल है जिसके आतिरिक्त कोदो कुटकी की फसल भी ली जाती है। खरीफ की फसल संभाग के केवल 3.8 प्रतिशत फसली क्षेत्र से ही ली जा रही है जिसमें कि चना, तुअर, गेंहूँ, अलसी, सरसों, उड़द, मूंग आदि की फसलें प्रमुख हैं।