Monday, July 15, 2013

गलत पहचान - यह विष्णु प्रतिमा नहीं है

सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित

नैनो दर्शन पत्रिका में प्रकाशित
[बारसूर (दंतेवाड़ा) के सिंगराज तालाब में अवस्थित प्रतिमा पर एक विश्लेषण] 
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आप बारसूर पहुँचते हैं तो अनेक दर्शनीय स्थलों की भीड़ में आपको जानकारी प्राप्त होती है सिंगराज तालाब में कंठ अवस्था तक जलमग्न एक विष्णु प्रतिमा की। लगभग पाँच फीट आकार वाली यह प्रतिमा भव्य है, दर्शनीय है तथा दुर्लभ है। सौभाग्य से इस बार जब मैं इस प्रतिमा के निकट पहुँचा तो भगवान विष्णु की प्रतिमा वाली ही अवधारणा मेरे मन में भी थी। तालाब के दूसरी ओर खड़े हो कर अपने कैमरे में जूम करते हुए इस प्रतिमा की तस्वीर कैद करने के पश्चात वहाँ अधिक रुकने का कोई कारण नहीं बनता था। लगभग सभी किताबों में, सरकारी बुकलेट तथा बारसूर महोत्सव की प्रचार सामग्रियाँ सभी इस प्रतिमा को विष्णु की घोषित कर चुकी हैं अत: मेरा यह अनुमान था कि निश्चित ही यह शेष शायी विष्णु की ही प्रतिमा होगी। मेरे साथ मित्र चन्द्रा मण्डा तथा संतोश बढई भी थे। मैं किनारे पर ही खडा रहा और चन्द्रा भाई से निवेदन किया कि वे निकट जा कर इस प्रतिमा की एक तस्वीर खीच लें। एकाएक न्यूटन वाला सेव जैसे मेरे सामने ही आ गिरा और मुझे खडी अवस्था में देख कर इसके विष्णु प्रतिमा होने में संदेह हुआ। गर्मी भयानक पड़ी थी इस वर्ष अत: एक गड्ढे में सिमट कर रह गया था। मैं प्रतिमा के सम्मुख आ पहुँचा और कोशिश करने लगा कि समझ सकूं कि यदि यह विष्णु प्रतिमा है तो क्यों है? और यदि मेरी छठी इन्द्री इस तथ्य को नकार रही है तो किस लिये?

कई मोटे मोटे संदेह मेरे सामने थे प्रतिमा के सिर पर पंचमुखी नाग अथवा शेष नाग होने तक तो ठीक है लेकिन उसके बगल में छठा नाग शीष आखिर क्यों है? विष्णु तो नाग धारण नहीं करते? इस छठे नाग की पूँछ पीछे से हो कर प्रतिमा के दूसरे हाथ तक पहुँच रही है। प्रतिमा के दो ही हाथ नज़र आ रहे हैं तथा शंख, हक्र, गदा, पद्म जैसे अन्य पहचान चिन्ह भी नदारद हैं जो किसी विष्णु प्रतिमा की पहचान होते हैं। मैं चूंकि पुरातत्व का जानकार नहीं हूँ अत: इन बहुत सारे सवालों के साथ मैने प्रतिमा की विभिन्न कोणों से फोटोग्राफी की और उन्हें प्रभात सिंह जी के पास भेज दिया। प्रभात सिंह जी पुरातत्वविद हैं तथा सिरपुर के उत्खनन में उनका महति योगदान है। उनसे मेरी मुलाकात भी सिरपुर में हुई थी जहाँ उनकी मेधा तथा उनके द्वारा प्रतिमाओं के बारीक विश्लेषण सुन कर मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ था। प्रभात जी से मुझे दो अलग अलग ई-मेल प्राप्त हुए। पहले ई-मेल में उन्होंने मेरी शंकाओं का बहुत हद तक समाधान किया था और यह समझने में सहायता की कि प्रतिमा विष्णु की क्यों नही है। 

प्रभात जी ने बताया कि “सर्पफणों के पीछे प्रभावली की विद्यमानता प्रथम दृष्टया इसे देव प्रतिमा के रूप में रेखांकित करती है। यदि इसकी सिरोभूशा का अवलोकन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह विष्णु प्रतिमा नहीं हो सकती है क्योंकि वे किरीट मुकुट धारण करते हैं जबकि इस उदाहरण में जटामुकुट का प्रदर्शन है जो कि शिव प्रतिमा का एक अनिवार्य अभिलक्षण है। प्रतिमा द्विभुजी है और संभवतः (क्योंकि प्रतिमा का अधोभाग चित्र में उपलब्ध नहीं है) दोनो हाथ खण्डित हैं। दाहिने हाथ के अवशिष्ट भाग को देखकर अनुमान होता है कि इसकी हथेली अभय मुद्रा में रही होगी। वहीं बांया हाथ देह के समानान्तर लटकता हुआ दिखाई दे रहा है। नीचे का हिस्सा उपलब्ध न होने के कारण हस्तमुद्रा अथवा उसमें धारित आयुध के विषय में निष्चित रूप से कह पाना अभी संभव नहीं है। सिरोभाग के ऊपर पाँच फणयुक्त सर्प का छत्र है। शिव प्रतिमा के साथ सर्प का संयोजन सर्वविदित है किन्तु आम तौर पर शिव प्रतिमा में इस प्रकार सर्पफण के छत्र का अंकन नही मिलता है। वहीं इस प्रतिमा में पृथक से एक सर्प एकदम दाहिनी ओर अंकित किया गया है जिसका पष्चभाग अर्थात पूंछ एकदम बांयी ओर देवता के कंधे से हाथ तक समानान्तर लटकती हुई देखी जा सकती है। इस प्रकार यहाँ दो सर्प उपस्थित हैं। देवता के कर्णाभूषण, वक्षाभूषण और वस्त्र का भी शिव प्रतिमा से सामंजस्य स्थापित नहीं होता। यह भी उल्लेखनीय है कि सर्प का प्रदर्शन जल के देवता वरूण के साथ भी होता है किन्तु जटामुकुट नहीं होना चाहिए। वहीं इस प्रतिमा की योगस्थानक मुद्रा नागपुरूष की प्रतिमा का अभिलक्षण स्वीकार नहीं किया जा सकता है”। 

मैने प्रभात जी को प्रतिमा के पृष्ठ भाग सहित आस पास की कई अन्य तस्वीरें भी भेजीं। अब यह स्पष्ट होने के पश्चात कि यह विष्णु प्रतिमा नहीं है जिस नाम से बहुत लम्बे समय से इसे जाना जा रहा है तब इसको नयी पहचान भी प्रदान किया जाना आवश्यक है। प्रभात जी ने विस्तृत अध्ययन के पश्चात मिझे बता कि “आपके द्वारा प्रेषित छायाचित्रों से उक्त प्रतिमा के अभिज्ञान के सम्बन्ध में कुछ लाभ अवष्य प्राप्त हुआ है तथापि अतिम निष्कर्श देना जल्दबाजी हो सकती है। आपके द्वारा भेजे गये छायाचित्र में प्रतिमा के बांये हाथ में धारित वस्तु स्पष्ट दिखलाई पड़ रही है। यह वस्तु वृत्ताकार है और मध्य में गहरा है जो प्याले जैसा पात्र प्रतीत हो रहा है। दाहिना हाथ जैसा की मैने पूर्व में उल्लेख किया है अभय मुद्रा में होना चाहिए। जे. वोगेल ने अपनी कृति (Indian Serpent Lore or the Nagas in Hindu legend and art) में कुकरगम से प्राप्त ऐसी ही एक प्रतिमा का जिक्र किया है जिसका दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और बांये हथेली में प्याला पकडे़ हुए है तथा पृश्ठभाग में सर्पफणों का छत्र है। उसे उन्होनें नागदेवता का मानुषी रूपाभिव्यक्ति माना है। इस प्रतिमा के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए जे. एन. बनर्जी (The Development of Hindu Iconography, 2002, p. 349) आगे लिखते हैं कि “The type in a modified form was similar to Baldeva, one of whose aspect is based on a trait of this primitive folk cult” ज्ञात रहे कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण में निर्दिश्ट अनंतनाग का प्रतिमालक्षण, बलराम के प्रतिमालक्षण से भी मेल खाता है। अंततः यही कहा जा सकता है कि यह बलराम अथवा नागदेवता की प्रतिमा हो सकती है। किंतु छठे सर्प की तार्किक व्याख्या का आधार अभी भी उपलब्ध नहीं हो सका है। एक छायाचित्र में प्रस्तर स्तंभ भी दिखलाई दे रहा है। प्रतिमा के इर्द-गिर्द बिखरे प्रस्तर खण्डों में जो छिद्र बने हैं वो गिट्टक (Iron Dowel) के प्रयोग की सूचना दे रहे हैं। इन स्थापत्य खण्डों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ पर लगभग 10वीं-11वीं सदी ईस्वी में छिंदक नागवंशीयों के समय का मंदिर रहा होगा और उक्त प्रतिमा संभवतः गर्भगृह में स्थापित रही होगी।“ 

बस्तर की प्रतिमाओं के बहुत बारीक विष्लेशण की आवश्यकता है अन्यथा हम उनके निहितार्थ नहीं पकड़ सकेंगे। छठे नाग की तार्किक व्याख्या उपलब्ध न होने के बाद भी यह स्पष्ट है कि यह किसी नागदेवता की प्रतिमा हो सकती है, यह प्रतिमा बलराम की भी हो सकती है जिन्हें स्वयं शेषावतार कहा गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात जो सामने आती है कि यह प्रतिमा मंदिर के गर्भगृह में रही होगी। इस दृष्टिकोण से इसका महत्व अधिक बढ जाता है। इस प्रतिमा के आस-पास प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं जो इतिहास की विरासत हैं। बारसूर केवल बत्तीसा, चन्द्रादित्य मंदिर या कि गणेश प्रतिमा ही नहीं है यहाँ छिपा हुआ है कई हजार सालका इतिहास। हमारी हर गलत व्याख्या हमे सच्चाई से परे करती है और बस्तर उतना ही अबूझ होता जाता है। वर्तमान में यदि इंस क्षेत्रों में उत्खनन संभव न भी हों तो भी विषय-विशेषज्ञों को यहाँ आ कर एसी अनेक प्रतिमाओं की समुचित तथा तार्किक व्याख्या कर देनी चाहिये। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह असाधारण प्रतिमा है तथा इसका प्राथमिकता के साथ संरक्षण किये जाने की आवश्यकता है। स्थानीय प्रशासन से मेरी विनम्र अपील है कि इस प्रतिमा को तालाब के किनारे ही संरक्षित करने की व्यवस्था की जाये जिससे कि पर्यटकों के लिये इस प्रतिमा का आकर्षण बना रहे। यदि एसा करना संभव न हो तो इस प्रतिमा को यथाशीघ्र संग्रहालय में स्थानांतरित किया जाना चाहिये। पानी से इस प्रतिमा का तेजी से क्षरण हो रहा है और हमारी यह अमूल्य विरासत मिटती जा रही है। 

Wednesday, July 10, 2013

लालबुझक्कड बूझगे और न बूझे कोय!!


[बस्तर की दरभा घाटी की लाल-आतंकवादी घटना पर एक और दृष्टिकोण] 
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 28 मई 2013 की सुबह; सड़क एकदम सूनसान थी। बचेली से बारसूर की तरफ बढ़ते हुए बार बार ध्यान सड़क के दोनो ओर गिराये गये पेड़ों की तरफ जा रहा था। 25 मई को बस्तर की दरभा घाटी में हुई लाल-आतंकवादी घटना समय ही सुकमा से बचेली और गीदम पहुचने वाले दोनो ओर के मार्गों पर बड़े बड़े पेड़ काट कर गिराये गये थे। सरसरी निगाह से देखने पर ही यह समझा जा सकता है कि दरभा घाटी में हुआ मौत का भयानक ताण्डव अगर वहाँ नहीं होता तो भी टलता नहीं। कॉग्रेस की परिवर्तन यात्रा के जाने के प्रत्येक मार्ग अवरुद्ध किये गये थे और पेडों को महेन्द्र कर्मा के गृहनगर ‘फरसपाल पहुँच मार्ग’ से कहीं आगे तक काट काट कर गिराया गया था जिससे कि वारदात के समय गाडियों के चक्के जाम रहें। जैसे ही हम कुछ और आगे बढे एक पेड पर चिपाकाया गया पोस्टर नज़र आया। पोस्टर में महेन्द्र कर्मा की नृशंस हत्या के बाद अब सलवा जुडुम के नेताओं को जान से मारने की धमकी दी गयी थी साथ ही ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिये मुर्दाबाद था। ऑपरेशन लाल हंट वालों को हर तरफ से अपने ही हंट की चिंता है यह बात इस पोस्टर की विवेचना से स्पष्ट है। सलवा जुडुम भले ही अब समाप्त हो गया हो लेकिन उसके नेताओं से बदला लिया जाना है जिससे कि आदिवासी कभी भी माओवादियों के खिलाफ सिर न उठा सकें और दूसरी बात कि उनके खिलाफ चलाया जा रहा तथाकथित अभियान बंद हो जिससे कि वे निष्कंटक अपना आधार इलाका बढा सकें और समूचे बस्तर को सुरसा मुख में निमग्न कर उसका लाल-सलाम कर दें। हमारे यहाँ दिल्ली से नौटंकीबाज समाजसेवियों की खूब सुनी जाती है तो चलिये उनकी ही जनपक्षधरता के नारों का ग्राउंड जीरो में खोखलापन देखें। दंतेवाड़ा को बचेली से जोड़ने वाला शंखिनी नदी पर अवस्थित एक पुल दोनो ओर से चार स्थानों से लगभग काट दिया गया था जिससे कि आवागमन पूरी तरह बाधित हो जाये। वाम डिक्शनरी से अर्थ निकाल कर इस बात को सामान्य करार देते हैं चूंकि सड़क तो केवल पूंजीपति और मध्यमवर्तीय लोगों की थाती है आम आदिवासी तो सड़क का उपयोग ही नहीं करता होगा? हो सकता है दिल्ली से एसा ही दिखता हो तो परे कीजिये इस बात को और यहाँ से कुछ सौ मीटर और आगे बढते हैं जहाँ माओवादियों के घटना के एन दिन एक वनोपज जांच नाका गिरा दिया था। दिल्ली सही चीखती है कि वन अधिकारी शोषक हैं इस लिये माओवादियों ने न्याय किया होगा। लेकिन सड़क के दूसरी ओर जहाँ बरसात-धूप से बचने के लिये यात्री शेड बना हुआ था उसे क्यों ध्वस्त किया गया? कोई नवीन जिन्दल उसके नीचे नहीं रुकता, कोई मध्यमवर्गीय व्यापारी, सेठ या किसी शरीर में आत्मा घुसा कर कोई जमींदार भी पुनर्जीवित हो यहाँ नहीं ठहरता। यह तो बस्तर की दो अलग अलग घाटियों को जोडने वाला स्थान था और यहाँ आगे जाने वाले यात्री वाहन की प्रतीक्षा करने के लिये आदिवासी ही विपरीत मौसमों में ठहरते थे। इस क्षेत्र में जो भी इमारते थी, संकेत चिन्ह थे, तथा होल्डिंग्स लगे थे सभी को जैसे चूर चूर कर दिया गया है। किसी बात की खीझ निकाली जा रही हो या गुस्सा प्रदर्शित किया जा रहा हो संभवत: एसा ही कुछ वहाँ देखा जा सकता था। 

 इस दृश्य पर ठहर कर दरभा घाटी की घटना की विवेचना करते हैं। कुछ दिनों पहले एक खबर नारायणपुर से आयी थी जिसमे बताया गया था कि माओवादियों ने ग्रामीणों पर पेड काटने के लिये जुर्माना लगाया है। यह बात कही गयी थी कि इस तरह जंगल बचेंगे। वस्तुत: हम एक घटना का दूसरी घटना से तार कभी जोडते ही नहीं। मेरी बात को सुकमा, बीजापुर और नारायणपुर तीनो ही मार्गों पर जाने वाले लोग आसानी से समझ सकते हैं। सड़क को अवरोधित करने के लिये माओवादियों द्वारा पेड़ काट कर गिराया जाना एक आम घटना है। उल्लेखित सड़कों के किनारे किनारे आपको सैंकडो काटे गये पेडों के ढूंठ नज़र आ सकते हैं। मुझे आशंका है कि मार्ग अवरुद्ध करने के लिये पेड़ काटा जाना कोई क्रांतिकारी गतिविधि नहीं अपितु आदिवासियों के संसाधनों की लूट का एक नये तरह का जरिया है। दरभा घाटी की घटना के दिन अकेले ही सौ से अधिक बडे बडे पेड काट कर मार्ग में बिछा दिये गये थे। मुझे अधिकतम पेड सागवान के लग रहे थे। अंचल के एक वरिष्ठ पत्रकार से जब मैने इसकी तस्दीक की तो ज्ञात हुआ कि चुन चुन कर सागवान के ही पेडों को काटा गया था। इतना ही नहीं दूसरे दिन किसी चमत्कार की तरह काटे गये पेडों के मुख्य हिस्से सड़क से गायब भी हो गये। मुझे किसी की आई क्यू पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना है आप चाहें तो इस सच्चाई के पीछे के खेल को नजरंदाज कर जनपक्षधरता की तकरीरे जारी रख सकते हैं। 

‘पर्यावरण और माओवादी’ बडा ही मजेदार विषय है जिसे बस्तर में होने वाली “मौतों पर जाम टकराने वाले एक विश्वविद्यालय” के विशेषज्ञों द्वारा बार बार दुहाई की तरह उठाया जाता है। मैने कई बार आदिवासियों से इस बात को जानने की कोशिश की है और अपुष्ट सूत्रों से यह बता सकता हूँ कि बस्तर के कई दुर्लभ पक्षी बाशिंदे निरंतर भूने खाये जा रहे हैं। आपको आदिवासियों के शिकार पर आपत्ति है और भीतर कई निरीह प्राणी इस महान सो-काल्ड साईंटिफिक सोच वाली लाल-सेना के कैम्प फायर की शोभा होते हैं। एक कश्मीरी पंडित लेखक ने फौरी बस्तर भ्रमण (माओवादियों से मिल कर उनसे सोने-जागने-धोने-नहाने पर किताबें लिखने वाला परिभ्रमण) के बाद लिखा कि किस तरह माओवादी कैम्प के बाहर एक सांप दिखा और उसे तुरंत मार दिया गया। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया था कि बस्तर की कई महत्वपूर्ण खदाने जो कि कोरंडम, टिन जैसे बहुमूल्य संसाधनों की है उनपर अब लाल-आतंकवादियों का कब्जा है और मैं उन पर स्मग्लिंग का आरोप लगाउं- तौबा तौबा, आप तो यूं कहिये कि आदिवासियों के लाल-हंट के लिये बस्तर के ये संसाधन अब साधन जुटाने का काम कर रहे हैं। ये सभी वे कहानियाँ हैं जिन पर आपको कोई युनिवर्सिटी बात करती नजर नहीं आयेगी, कोई लेखक अपनी किताब में छाप कर चर्चा नहीं करेगा, कोई जनपक्षधर लाल-सलामी लेखक इन तथ्यों पर निगाह भी नहीं डालेगा। बस्तर मरता है तो मरे इससे किसको सरोकार? 

सच्चाई तो यही है कि जब 75 जवान मरे थे तब भी दिल्ली में खिलखिलाहट थी और जब 31 जनप्रतिनिधि मारे गये तब भी दिल्ली के कई बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग इसे तरह तरह से जस्टीफाई करने में लगे हैं। एक कविता कहती है कि जब नाजी कम्युनिष्टों के पीछे आये तब कोई नहीं बोला; तो बाद में सारे कम्युनिष्ट ही बंदूखें पकड कर बस्तर के जंगलों में नाजी बन गये; और खबरदार अब कोई मत बोलना? लाल-आतंकवादियों को साम्राज्यवादी कहने के पीछे मेरा तर्क वृथा भी नहीं है। यह बात तो सर्व-विदित है कि दरभा घाटी की घटना के पीछे आन्ध्र-ओडिशा-महाराष्ट्र-झारखण्ड के आतंकवादियों का हाथ था। एयरपोर्ट में मिलने वाला मंहगा पानी गटकने वाले आतंकवादी बस्तर को कैसा रखना चाहते हैं यदि इस बात को कोई प्रमाण के साथ समझना चाहता है तो आपको केवल इतना करना है कि सुकमा-कोण्टा मार्ग से हैदराबाद जाने वाली बस में बैठ जाईये। जबतक बस्तर है तब तक आपकी बस हिचकोले खाती हुई जायेगी। माओवादियों ने इस सड़क को इतनी जगह से काटा है कि अब गिनती करना मुमकिन नहीं है। लेकिन जैसे ही कोण्टा की सीमा समाप्त होती है और आन्ध्र लगता है तो चमत्कार नजर आता है। भाई यह भी तो माओवादी इलाका ही है लेकिन यहाँ की सड़क इतनी बढिया और फोर लेन? मैं जानता हूँ कि मेरी बात को कोई नहीं बूझ सकता - “लालबुझक्कड बूझगे और न बूझे कोय!!”

Saturday, July 06, 2013

दैनिक 'छत्तीसगढ' में राजेन्द्र यादव के हंस में प्रकाशित सम्पादकीय पर बहस

दैनिक 'छत्तीसगढ' में राजेन्द्र यादव के हंस में प्रकाशित सम्पादकीय पर बहस
[प्रतिवाद में मेरा आलेख भी पढें – “नक्सली हिंसा हिंसा न भवति”
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मित्रों, आज सांध्य दैनिक छत्तीसगढ में दो आलेख आमने – सामने की तर्ज पर प्रकाशित हुए हैं। एक आलेख है सम्पादक तथा वरिष्ठ साहित्यकार राजेन्द्र यादव का जिन्होंने हंस पत्रिका के जुलाई अंक में “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” शीर्षक से साक्षात्कार शैली में सम्पादकीय प्रकाशित किया है। इस आलेख की मूल भावना मुझे छत्तीसगढ में हाल ही में हुए दुर्दांत और दु:खद नक्सली वारदात को सही ठहराती हुई प्रतीत हुई। राजेन्द्र यादव के आलेख के प्रतिवाद में मेरा आलेख प्रकाशित भी हुआ है - “नक्सली हिंसा हिंसा न भवति”। मेरे इस आलेख को प्रवक्ता तथा भडास4मीडिया ने भी प्रकाशित कर विरोध के स्वर को वेबमंच प्रदान किया था। आप छत्तीसगढ में प्रकाशित इस आलेख को छत्तीसगढ अखबार के ई-संस्करण से भी पढ सकते हैं।

यदि इस आलेख को प्रस्तुत पेपर कटिंग से न पढा जा सके तो निम्न लिखित लिंक में से किसी एक पर जा कर आप पढ सकते हैं -

दैनिक छत्तीसगढ (6 जुलाई का अंक पृष्ठ 8 पर मूल आलेख शेष भाग पृष्ठ 6 व 7 पर) -http://www.dailychhattisgarh.com/

प्रवक्ता वेब मंच - http://www.pravakta.com/rajendra-yadav-and-maoist-violence

भड़ास4मीडिया वेब मंच - http://www.bhadas4media.com/vividh/12772-2013-07-04-07-35-21.html

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राजीव रंजन प्रसाद का आलेख -

राजीव रंजन प्रसाद के आलेख का शेष भाग -


राजेन्द्र यादव का आलेख -

राजेन्द्र यादव के आलेख का शेष भाग -



“नक्सली हिंसा हिंसा न भवति” इति वदति “राजेन्द्र यादव” महोदय: – सही है सलमा नाचेगी। 
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हंस का जुलाई अंक पढा। संपादकीय पढने के बाद लगा कि रिटायरमेंट की एक उम्र तय होनी चाहिये। छोडिये, सचिन ही कब रिटायर होना चाहते हैं तो राजेन्द्र यादव की पारी भी जारी रहे। चर्चा पर उतरने से पहले राजेन्द्र यादव के बस्तर विषयक ज्ञान की गहरायी को उनके ही शब्दों में बयान करते हैं – “विडम्बना यह है कि हम यहाँ दिल्ली में एक एयरकंडीशनर कमरे में बैठ कर उनके बारे में बात कर रहे हैं जिनसे हमारा सीधा सम्बन्ध नहीं रहा। आज वहाँ के हालात की जमीनी जानकारी हमें नहीं है इसलिये हमारे लिये यह बैद्धिक और वैचारिक विमर्श है”। जी महोदय तो हाथी का कौन सा अंग दिखा सींग पकड़ में आयी या खुर देखे? यह ठीक है कि राजेन्द्र यादव माओवाद के समर्थक हैं और इस लिये वे बस्तर के दरभा में हुए हत्याकाण्ड को जस्टीफाई करना चाहते हैं लेकिन घडियाली ही सही दो आँसू अपने सम्पादकीय में उनके लिये भी बहा लेते जो निर्दोष मारे गये। राजेन्द्र यादव लिखते हैं तो सर्वज्ञ की तरह जबकि वे स्वीकारते हैं कि जमीनी हकीकत में टांय टांय फिश हैं लेकिन दावा देखिये निर्णायक स्टेटमेंट – “सलमा जुडुम को कभी आदिवासियों का समर्थन नहीं मिला, कर्मा और विश्वरंजन इसके मेन इंजीनियर थे”। कर्मा और विश्वरंजन की बात बाद में करते हैं पहले यह तो बतायें राजेंद्र जी आपके जुडुम में यह “सलमा” कौन है? हमने बस्तर में सलमा जुडुम जैसा कुछ सुना नहीं अलबत्ता सलवा जुडुम अवश्य सक्रिय रहा था। पहले “सलमा” पर ही बात हो जाये क्योंकि वास्तविक तथ्य सामने रखे नहीं कि आप कहेंगे अरे यह मामला था, हमने समझा कि वहाँ का कोई लोकल जलसा होगा और नचनिया सलमा को यूपी से बुलवाये रहे होंगे। 

राजेन्द्र यादव बस्तर में हुई दरभा घाटी की घटना पर इंटरव्यू शैली में आँखों देखा हाल धकेल मारते हैं और साफ करते हुए लिखते हैं कि “कर्मा इस हमले का टारगेट था क्योंकि उसने सलमा जुडुम चलाया था। एक और बात दिखाई देती है कि छत्तीसगढ सरकार नें इस दल का रूट बदलवाया था; बदले हुए रूट की जानकारी कहाँ से निकली है?......मारे गये लोगों में तीस लोग बताये जाते हैं जिसमे पाँच-छ: कांग्रेस के बडे नेता हैं। इनमे कुछ सुरक्षा गार्ड भी जरूर हताहत हुए होंगे”। पहली बात कि “मारे गये होंगे” का क्या मतलब है? देश भर में पढी जाने वाली पत्रिका के सम्पादक हैं आप, तो जिम्मेदारी से कोई तथ्य प्रस्तुत करते दिक्कत क्यों है? इस लिये कि सुरक्षा कर्मियों को गाली देते-देते तो प्रगतिशील राजनीति बीत गयी अब वो मारे भी गये तो क्या? किसी छोटे से छोटे अखबार को भी उठा कर एयरकंडीशनर ऑन करने के बाद पढने की जहमत उठाते तो विस्तार से जानकारी मिल जाती। मेरा प्रश्न इससे बड़ा है। क्या राजेन्द्र यादव जानते हैं कि परिवर्तन यात्रा अगर दूसरे मार्ग से निकली होती तब भी उस पर हमला हुआ होता और शायद और भी भयावह तरीके से? लगभग सौ सागवान के पेड़ राजेन्द्र यादव जी के पर्यावरण प्रिय क्रांतिकारियों ने काट कर इस दूसरे रास्ते में एन घटना के समय गिरा दिये गये थे। इस रास्ते में भी एम्बुश लगाया गया था और दंतेवाडा तथा जगदलपुर को जोडने वाले मार्ग पर एक महत्वपूर्ण पुल को दोनो ओर से आधा आधा काट कर रखा गया था जिससे यदि यात्रा इस मार्ग से भी गुजरे तो उसका वही हश्र हो जो दरभा घाटी में हुआ था। ये सभी जानकारियाँ तो सार्वजनिक हैं लेकिन राजेन्द्र जी के घर अखबार कौन सा आता है पता नहीं; हो सकता है कोई “जनचेतना का प्रगतिशील समाचार दैनिक” हो कि जो हमको हो पसंद वही न्यूज छपेगी। 

अब आते हैं उन तथ्यों पर जिसे राजेन्द्र यादव विमर्श कह रहे हैं। वे लिखते हैं कि “जहाँ अन्याय होगा और कहीं सुनवाई नहीं होगी तो लोग बंदूख उठायेंगे ही” इस ब्लाईंड स्टेटमेंट के जस्टीफिकेशन में वे लिखते हैं “इसे अराजक कहना ठीक नहीं। उनकी हिंसा में एक अनुशासन है। आज अगर अनुशासन नहीं होता तो वो इतना बढ नहीं सकते थे। अरुन्धति राय, गौतम नवलखा बहुत अंदर तक उनके साथ गये हैं और कई दिन तक उनके बीच रहे हैं; उन्होंने उनके बीच देखे जिस अनुशासन की प्रसंशा की है उसके बिना शायद इतने बडे कदम उठाये ही नहीं जा सकते थे”। सही है राजेन्द्र जी आपकी बात का मायना मैं निकालता हूँ कि हंस के सम्पादक के अनुसार अनुशासित नक्सलियों ने विद्याचरण शुक्ल, महेन्द्र कर्मा, (नंद कुमार पटेल और उनके बेटे) आदि आदि कांग्रेसी नेताओं की हत्या का प्रसंशनीय बडा कदम उठाया। आपके छोडे ‘फिल इन द ब्लैंक’ का तो यही मायना निकलता है। कई प्रगतिशील, मुख्यधारा में बहने वाले लेखकों ने भी सोशल मीडिया से ले कर अखबारों तक लगातार हत्या का कारण महेन्द्र कर्मा के लिये सलवाजुडुम को और विद्याचरण शुक्ल को इमरजेंसी का अपराधी बता कर जस्टीफाई करते रहे (पटेल और उनके बेटे की हत्या को गोल कर गये।)। राजेन्द्र जी बस्तर बढिया पिकनिक स्पॉट भी है, घूम आते एक-आध बार। क्या बार बार अरुन्धति राय और गौतम नवलखा के लिखे की धौंस जमाते रहते हैं। क्या आपने वेरीफाई किया है उनकी जानकारियों को? अच्छा लिखा हैं उन्होंने खास कर अरुन्धति का वाकिंग विद द कॉमरेड्स। बारीक जानकारी है कि नक्सली क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कहाँ सोते हैं, कहाँ धोते हैं आदि आदि। सम्पादक महोदय जरा इन किताबों को फिर से पलटिये और तलाशिये तो कि बस्तर के आदिवासी कैसे जी रहे हैं, किस तरह घुट घुट कर मर रहे हैं अगर कहीं दिख ही जाये आपको। आप भी तो जानें कि नक्सली और आदिवासी दो अलग अलग बाते हैं और इन्हें आप जैसे लोगों की फंतासियाँ ही एक इकाई प्रचारित करने में लगी हुई हैं। 

आपको व्यवस्था से शिकायत है तो हमे भी है लेकिन हमें नक्सलियों से भी शिकायत है और आप उनके सिद्ध हिमायती हैं इसलिये मुझे आपके लिखे को इतिहास ज्ञान के साथ टटोलना ही होगा। राजेन्द्र जी लिखते हैं कि आदिवासी-इलाकों से निकाले जाने वाले खनिजों के लिये करोडो अरबों का को लेन देन होता है, उसमे आदिवसियों का किसी तरह से भी कोई लेना देना नहीं होता। एक सौ प्रतिशत सत्य (राजेन्द्र जी सही कहें तो सहमत होना फर्ज है मेरा)। आपका संपादकीय दरभा घाटी की घटना पर केन्द्रित है अत: मैं बस्तर से इतर बात नहीं करूंगा। वहाँ बैलाडिला आईरन ओर परियोजना है जिसकी नींव तो अंग्रेजों के समय ही रखी गयी थी लेकिन प्रारंभ हुई 1968 से। इस परियोजना का मुख्यालय हैदराबाद बनाया गया अर्थात तत्कालीन नक्सलगढ आन्ध्रप्रदेश के हृदय क्षेत्र में; हमने तो इसके खिलाफ उनकी कोई हूक तब नहीं सुनी? 1966 में बस्तर के मान्य जनप्रतिनिधि प्रवीर चन्द्र भंजदेव की हत्या हुई, हमे कोई जानकारी नहीं कि तब वारंगल को अपना गढ बना चुके नक्सलियों ने प्रतिरोध का स्वर भी बुलंद किया था। सत्तर के दशक में बस्तर मे किरंदुल गोलीकांड हुआ और बैलाडिला में कार्यरत सैंकडो मजदूरों पर गोली चालन किया गया; कोई जानकारी हो नक्सलियों की ओर से प्रतिरोध की तो साझा कीजिये? अस्सी का दशक आने से पहले अबूझमाड़ को ले कर बस्तर के तत्कालीन कलेक्टर ब्रम्हदेव शर्मा नें निर्णय लिया कि इसे जिन्दा मानव संग्रहालय में बदल दिया जाये। न कोई भीतर जायेगा न बाहर आयेगा। उन्हें जीने दो उनकी जिन्दगी। ठीक है बहुत से प्रगतिशीलों को उनका निर्णय सही लगता होगा लेकिन फिर आन्ध्र प्रदेश में जब नक्सलियों के खिलाफ दमनात्मक कार्यवाईयाँ आरंभ हुई और वहाँ से कैडर अबूझमाड मे छिपने-भरने लगे तब आपके विरोध के स्वर कहाँ थे? क्यों यह आवाज़ नहीं आई कि मानव संग्रहालय है क्रांतिकारी महोदयो इसे छोड कर भी बहुत सी जगह खाली है बस्तर में? बस्तरिया हूँ इस लिये मेरी मत पढिये अरुन्धति की ही पढिये, नन्दिनी सुन्दर की ही पढिये और तभी भी यही आप जानेंगे कि कोंडापल्ली सीतारमैया नें पीपुल्स वार ग्रुप के गुरिल्लों को बस्तर इस लिये नहीं भेजा था कि “वीर गुरिल्लाओं वहाँ बहुत शोषण और अत्याचार है चलो उनके लिये लडते हैं”। यहाँ नक्सली इसलिये घुसे क्योंकि वे सुरक्षित पनाह चाहते थे जिसकी आधारशिला अबूझमाड में उनके स्वागत के लिये ही रखी गयी थी। 

छोडिये इतिहास में क्या रखा है? राजेन्द्र यादव जी कह रहे हैं तो बस्तर में चार-पाँच सौ खदाने तो जरूर होंगी? नहीं!! तो सौ पचास तो पक्का? इतनी भी नहीं? तो फिर? बैलाडिला तो दुनिया जानती है, रावघाट रिजर्व ओर है लेकिन अभी उत्पादन नहीं हुआ इसलिये अगले संपादकीय तक इसे भी छोडिये। अब मुझे केरल राज्य से भी बडे क्षेत्र बस्तर संभाग की खदाने गिनवाईये। ग्रेनाईट और लाईमस्टोन की कुछ गिनती की क्वेरिया अवश्य हैं लेकिन हमने तो यहाँ से नहीं सुना कि डिन, बॉक्साईत, हीरा, जस्ता अथवा यूरेनियम निकाला जा रहा हो। यह सब कुछ है बस्तर की धरती में। बोधघाट परियोजना अर्थात इन्द्रावती पर बांध बनने वाला था वह भी कुछ गैर सरकारी संगठनो और पर्यावरणवादियों के विरोध के कारण बंद हुआ और इसमे भी नक्सलियों की कोई भूमिका नहीं थी (आज जरूर वे नहीं बनने देंगे जैसे नारे लगाते पाये जाते हैं)। एक महोदय ने लिखा कि टाटा के साथ एमओयू हुआ इस कारण नक्सलवाद प्रबल हुआ। महाज्ञानी आन्ध्रप्रदेश में उसी समय चन्द्रबाबू नायडू के चलाये जा रहे अभियान को भूल जाते हैं जिसके दबाव में बहुत बडी संख्या में वहाँ के कैडर लाल-आतंकवाद की बनाई सुरक्षित पनाहगाह अबूझमाड में प्रविष्ठ हुए। राजेन्द्र जी बस्तर के भीतर भी उसकी अपनी आवाज़ जिन्दा है और वहाँ से भी शोषण, दमन और कॉरपोरेट दखल के खिलाफ आवाज़े उठती रही हैं लेकिन शस्त्र उठाने की नौबत क्यों? अगर टाटा बस्तर में काम नहीं कर पा रहा तो इसके लिये स्थानीय दबाव को धत्ता बता कर पूरा श्रेय आप नक्सलियों को दे देंगे; हद है? 

क्या आप जानते हैं कि सलवा जुडुम को ले कर बस्तर के भीतर भी कई स्वर पनप रहे थे। यह भी सच है कि सलवा जुडुम शुरु पहले हुआ और उसका नेतृत्व महेन्द्र कर्मा ने लपक लिया और बाद में प्रदेश की सरकार का भी समर्थन इसे प्राप्त हुआ। इस समय एक धडा अगर महेन्द्र कर्मा के साथ था तो दूसरा खिलाफ भी। इनकार नहीं कि सलवा जुडुम की परिकल्पना आदिवासियों की नक्सलियों के खिलाफ लामबंदी थी लेकिन विभीषिका यह कि दोनो ओर से आदिवासी ही एक दूसरे को मार काट रहे थे जिसका तमाशा नक्सलियों ने और व्यवस्था ने खूब देखा (राजेन्द्र जी इन समयों में आपके संपादकीयों की कमी बडी खली कहाँ गायब रहे?)। सलवा जुडुम और नक्सलवाद दोनो ओर से हुई हत्याओं का विस्तार से वर्णन करने के लिये तो यह आलेख छोटा है लेकिन यह भी आप जाने कि सलवा जुडुम के खिलाफ जो लडाई मुखर हुई है वह उन स्थानीय पत्रकारों के द्वारा लाये निकाले गये समाचारों के कारण ही हुई जिसने इस आन्दोलन कहे जाने वाली आदिवासी लामबंदी के राजनीतिक और अराजक पक्षों से सभी को परिचित कराया। एसी घटनायें हाथो हाथ अखबारों की सुर्खियाँ बनी और कई प्रगतिशील मासिकों ने इन्हें खूब प्रसारित किया। राजेन्द्र जी उन्हीं पत्रकारों ने नक्सलियों की करतूतो को भी अनेको बार सामने लाने का कार्य किया। कैसे हर घर से बच्चों को शामिल किया गया, महिलाओं की क्या स्थिति है, आदिवासियों के कैसे उन्होंने घर जलाये, किस तरह जन अदालतों में सजा देने के नाम पर जन-भय व्याप्त करने के लिये नृशंसता से गले काटे गये। ये वो खबरे थी जो दिल्ली में एयरकंडीशनर में विमर्श करने वालों के लिये मायने नहीं रखती थीं और उसपर प्रगतिशील फतबाधारी कि जागते रहो सब ठीक चल रहा है। राजेन्द्र यादव किस आधार पर लिखते हैं यह तो पता नहीं लेकिन उनके अनुसार “नक्सली जिन क्षेत्रों पर कब्जा करते हैं वहाँ विकास, शिक्षा, संगठन उनकी प्राथमिकता होती है”। जी सर जी समझ गये हम; आपने सुदूर संवेदन तकनीक से यह जान लिया होगा या हमे जानकारी नहीं मिली होगी और कभी आप “टेरर टूरिज्म” पर हो ही आये होंगे बस्तर। आपकी मासूमियत का तो मैं कायल हो गया, कितनी सफेदपोशी से आप नक्सली हिंसा को जस्टीफाई करते हुए लिखते हैं – “नक्सलियों के लिये यह अधिकारों और सिद्धांतो की लडाई है। लडाई कैसी भी हो इसमे मारे तो मासूम और निरीह भी जाते हैं”। राजेन्द्र जी कमाल की आईडियोलॉजी है न मौतो को जस्तीफाई करने वाली? पुलिसिया कार्यवाई में भी निरीह और मासूम मारे जा रहे हैं और उसकी हम पुरजोर भर्तसना करते हैं और हम एसा कर पाते हैं क्योंकि हम नक्सली हत्याओं की भी भर्त्सना करते हैं। वैसे आप ही सही हैं, कहते हैं पुराना चावल स्वादिष्ट होता है, रसीला भी होता ही होगा। आप अपने संपादकीय में मानते हैं कि इसी देश का एक वर्ग दूसरे हिस्से में चल रही जमीनी लडाईयों के बारे में कुछ भी नहीं जानता” और फिर आप ही सार्टिफिकेट भी बाँटते हैं कि “नक्सलियों की लडाई जल, जंगल और जमीन की सामूहिक लडाई है”। राजेन्द्र जी यह वाक्यांश सुनने में बडा ही ओजस्वी लगता है (काश एसा ही होता)। आपने कुछ और लडाईयाँ नहीं सुनी जैसे माओवादियों का ओडिसा कैडर, आन्ध्र कैडर से असंतुष्ट है या एमसीसी और पीडब्ल्युजी जैसे खांचे अभी भी मजबूत हैं। छोडिये आप साहित्यकार हैं इसलिये किताब ही पढिये। इसी कोलकाता पुस्तक मेले में शोभा मांडी नाम की एक पूर्व नक्सली महिला की पुस्तक “एक नक्सली की डायरी” सामने आयी थी; पढिये इसे भी, बलात्कार और शोषण की परिभाषा फिर चाहे नयी गढ लीजियेगा। फस्ट हैंड इंफॉर्मेशन है।.....और अगला संपादकीय भी बस्तर पर ही लिखिये; चाहें तो तरुण भटनागर जैसे किसी युवा कहानीकार की रचनात्मकता का गला दबाईये अगर वह जंगल के भीतर का कोई सच लिख लाये (पिछले साल का सपादकीय आपका ही)। कोई “जुडुम” महफिल सजाईये राजेन्द्र जी और जरा जोर से बजवाईये - सज रही देखो “सलमा” चुनर गोटे में पर ध्यान से, ढोल फट न जाये, पोल खुल न पाये। सही ही मानते हैं आप कि “नक्सली हिंसा हिंसा न भवति”। 


Wednesday, July 03, 2013

यहाँ कहाँ आ गये पागल [आकाश नगर से लौट कर]


जब मैं स्कूल में था उन दिनो बचेली नगर के लिये आकाशनगर एसा ही था जैसे कि देहरादून के लिये मसूरी। मैदानी नगर से लग कर अचानक उँचाई लेती हुई दो समानांतर पहाडियाँ जिनके बीचोबीच विभाजनकारी रेखा की तरह बहता है गली नाला। यह बैलाडिला पर्वत श्रंखला है जो स्वयं में समाहित विश्व के सर्वश्रेष्ठ स्तर के लौह अयस्क के लिये जानी जाती है। यही वह पर्वत श्रंखला है जिसके लिये एक समय में जमशेद जी टाटा ने रुचि दिखाई थी तथा सर्वप्रथम उनके भूवैज्ञानिक पी एन बोस ने प्राथमिक सर्वे पूरा किया था। जैसे ही इस लौह-अयस्क की जानकारी तत्कालीन अग्रेजी शासकों को मिली तुरंत ही भूवैज्ञानिक क्रूकशैंक के नेतृत्व में इस क्षेत्र का भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग ने विस्तृत सर्वे किया और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट के अनुसार लौह के चौदह भण्डारों को चिन्हित किया गया। बस्तर अचानक एक अत्यंत गरीब से बेहद अमीर रियासत हो गयी तथा यहाँ के शासकों पर दबाव बनाया जाने लगा कि बैलाडिला पर्वत श्रंखलाओं वाले क्षेत्र को हैदराबाद के निजाम को सौंप दिया जाये। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनथिनगो ने तब बस्तर की शासिका रही महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी से इस सम्बन्ध में मुलाकात भी की थी। कहते हैं महारानी अपने पति प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव से प्रभावित थी जो कि राष्ट्रीयता की भावना से भरे हुए थे, उनकी ही सलाह पर महारानी ने बैलाडिला पर अपनी असहमति जाहिर कर दी थी। एक प्रचलित मान्यता के अनुसार महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की मौत स्वाभाविक नहीं थी अपितु उनकी हत्या अंग्रेजों के द्वारा बैलाड़िला को हथियाने की दृष्टि से की गयी थी। बाद में यही दबाव प्रवीर पर भी बनाया जाने लगा और स्वतंत्रता प्राप्ति के एन पहले प्रवीर को सभी राज्याधिकार केवल इसी लिये प्रदान किये गये थे जिससे कि वे निजाम के हाथों इन खदानो वाले क्षेत्रों को सौंप सकें। यह प्रवीर की समझ थी कि उन्होंने एसा नहीं किया यद्यपि खदानों के कुछ हिस्सों को वे सशर्त लीज पर निजाम को देने के लिये तैयार हो गये थे। यह सारी रस्साकशी केवल इसलिये हो रही थी चूंकि हैदराबाद का निजाम स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय संघ में नहीं रहना चाहता था और एक स्वतंत्र देश की संकल्पना कर रहा था। बैलाडिला की इन खदानों पर भारत सरकार द्वारा वर्ष 1968 से कार्यारंभ किया गया। वैसे इतिहास मे रुचि रखने वालों के लिये यह जानकारी महत्व की हो सकती है कि यहाँ से लौह उत्खनन पहली बार नहीं किया गया अपितु 1065 ई में चोलवंश के राजा कुलुतुन्द ने यहाँ लोहे को गला कर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना लगाया था। यहाँ बने हथियारों को तंजाउर भेजा जाता था।

बस्तर क्षेत्र में आज यही एक मात्र ऑरगेनाईज्ड माईनिंग है इसके अलावा किसी भी खदान में कोई काम नहीं हो रहा। असंगठित खदानों के रूप में ग्रेनाईट और लाईमस्टोन क्रशिंग और माईनिंग कई स्थानों पर सक्रिय है। संभावित खदानों में रावघाट परियोजना हो सकती है जिसका भविष्य अधर में ही लटका हुआ है। केरल राज्य से भी बडे इस संभाग में इससे अधिक कोई माईनिग कहीं भी नहीं हो रही है यद्यपि यहाँ खनिजों के अपार भण्डार उपस्थित हैं। तोकापाल के पास ही एक बडे किम्बरलाईट पाईप को खोजा गया था जहाँ से हीरे उत्खनित करने की अभी कोई योजना नहीं है। हालाकि सारी बहसें जो दिल्ली में बैठ कर बस्तर के नाम पर हो रही हैं वे खदानों को ही केन्द्र में रख कर हो रही हैं। कभी कभी मैं दिल्ली के अखबार पढ कर हँसता हूँ कि क्या समाचार बिना जमीनी जानकारी के लिखे अथवा तैयार किये जाते हैं? बैलाडिला खदानो के अपने फायदे और नुकसान हैं साथ ही अन्य खदाने अगर अस्तित्व में आयीं निश्चित ही उनके अपने फायदे-नुकसान सन्निहित होंगे। तथापि दक्षिण बस्तर में एसा कोई परियोजना मेरी जानकारी में नहीं है जिसके हाल में अस्तित्व में आने की संभावना भी दूर दूर तक है। रावघाट पहाडियों से भी उत्खनन इतनी आसानी से संभव हो सकेगा मुझे नहीं लगता। 

आज इस लेख में मेरा उद्देश्य बस्तर के खनिजों को ले कर कोई बहस खडी करने का नहीं है। इस पर तथ्यों के साथ विस्तृत परिचर्चा फिर कभी। आज बात उजडे आकाश नगर की। यह पूरा नगर अब बचेली ला कर बसा दिया गया है। कभी घुमावदार सड़कों से हो कर आकाश नगर पहुँचने का आनंद और उसकी नैसर्गिकता ही अब समाप्त नहीं हो गयी अपितु लाल-आतंक के साये में यह पूरा इलाका गहरी गहरी सांस लेता प्रतीत होता है। आकाश नगर में मुट्ठी भर सिपाही सुरक्षा के नाम पर तैनात हैं लेकिन उन्हें सारा जोर स्वयं को ही सुरक्षित रखने पर लगाना होता है। वह आकाश नगर जो मानसून आते ही बादलों के स्पर्श से मुस्कुराता था आज खामोशी और दहशत यहाँ की पीड़ा है। जिन रास्तों से हो कर कभी हम एतिहासिक राजा बंगला जाते थे वहाँ कदम रखने की भी अघोषित मनाही है, किस कदम पर क्या हो जाये कहा नहीं जा सकता। ऊँचाई पर खडा हो कर मैं देख रहा था एक ओर घना जंगल जिसके भीतर भीतर आ घुसा नक्सलगढ। दूर दूर तक दिखने वाला एक व्यक्ति भी नहीं। कहीं कोई जिन्दादिली नहीं। हवा भी सहम कर कहती है कि यहाँ कहाँ आ गये पागल!! जल्दी निकलो यहाँ से।   
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नक्सलवाद से आदिवासियों का कोई सम्बन्ध नहीं है [महेन्द्र कर्मा से बातचीत]

यह साक्षात्कार 25.05.2013 को दैनिक छत्तीसगढ में प्रकाशित हुआ था -

साक्षात्कार का शेष भाग -