Monday, December 01, 2014

असहमतियों के बीच साहित्य


कला अस्त नहीं होती, कभी मर नहीं सकते जयदेव बघेल!!





राजतंत्र के पहिये दरक गये थे। लोकतंत्र को यह दीख नहीं पड़ता था कि बस्तर की पहचान उसके आदिवासी हैं। उन दिनों पूर्वी-पाकिस्तान से भारत की ओर विस्थापन और पलायन के लम्बे दौर जारी थे। किसी ने किसी से भी नहीं पूछा कि हजारो-लाखो की संख्या मे आ रहे विस्थापितों को कहाँ बसाया जाना है। यह मान लिया गया कि आदिवासी तो अस्तितिवहीन आबादी होते हैं, उनकी भूमि में जगह जगह तम्बू तान दिये गये। तय कर लिया गया कि यहाँ एक नयी बसाहट, नयी सभ्यता, नयी कश्मकश और नये बदलाव की आधारशिला रखी जानी है। दिल्ली और कोलकाता मे बैठे कुछ लोग अचानक बस्तर भाग्यविधाता हो गये। एक परियोजना गढ़ी गयी जिसे दण्डकारण्य प्रोजेक्ट नाम दिया गया। इस परियोजना का मूल काम बंगाली विस्थापितों को बस्तर मे बसाना और उनके लिये जीवनयापन के तौर तरीके विकसित करना था। दण्डकारण्य परियोजना मे बस्तर और उसका आदिवासी कहीं भी नहीं था। हर घटना का प्रतिफल और परिणाम जो भी हों इतिहास उसे कालांतर मे मूल्यांकित करता है, किंतु उसके द्वितीयक परिणाम भी होते है। दण्डकारण्य परियोजना संभवत: बस्तर की घडवा कला और उसके वर्तमान स्वरूप तक पहुँचने के दौर में अनायास ही एक कड़ी सिद्ध हुई। 

उत्तर बस्तर के कोण्डागाँव मे दण्डकारण्य परियोजना का कार्यालय खुला था। परियोजना के अंतर्गत बस्तर की उपलब्ध लोककलाओं के द्वारा आजीविका के अवसर निर्मित करने के प्रयासों की शुरुआत हुई। इस क्रम मे स्थानीय कलाकार सिमरन बघेल को घडवा शिल्पकार और कला प्रशिक्षक के रूप मे चुना गया। श्रीमति सरोजनी नायडू वर्ष 1962 में दण्डकारण्य परियोजना के तहत एक कार्यक्रम का उद्घाटन करने बस्तर आयी थीं तो उन्होंने सिमरन बघेल का सम्मान भी किया था। घडवा कला को पहचान दिलाने का सूत्रपात करने वाले सिमरन बघेल वस्तुत: उस वृक्ष के बीज अर्थात पिता हैं जो बाद में इस कला का सबसे बडा नाम बना और जिसे आज हम जयदेव बघेल के रूप मे जानते हैं।

पिता ही जिस बालक का गुरु हो उसके भीतर की कलात्मकता को आकार विस्तार लेना ही था। तथापि सिमरन बघेल की समानांतर पीढी से सुखचंद बघेल भी उन दिनों घडवा कला मे इतिहास रच रहे थे, वे जयदेव बघेल के रिश्तेदार अर्थात उनके मामा थे। सुखचंद बघेल को वर्ष 1970 में जब राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया उन दिनो जयदेव बघेल की उम्र केवल सत्रह-अठारह वर्ष रही होगी। जयदेव तब दण्डकारण्य परियोजना के अंतर्गत कोण्डागाँव कार्यालय मे ही चौकीदार के पद पर कार्य कर रहे थे। मामा के साथ दिल्ली पहुँचने पर जयदेव की अनेक महत्वपूर्ण लोगों से मुलाकात हुई जो कला की कद्र करते थे अथवा कलकारों के कार्यों की प्रदर्शनियों के प्रायोजक थे। सबसे प्रमुख नाम तो जसलीन धमीजा का ही था जिनके बंगले में ये मामा-भांजा ठहरे हुए थे। इसके अतिरिक्त वहाँ सुमन बेनेगल से उनकी मुलाकात हुई जो हैंडीक्राफ्ट हैंडलूम एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन की जनरल मेनेजर थी। इन दोनो ही महिलाओं ने जिस तरह घडवा कलाकृतियों की बारीकियों को परखा उसे जयदेव ध्यान से देख-समझ रहे थे। महिलाओं ने इन कलाकृतियों को खरीदा और उस दौर में तीन सौ रुपये का लाभ कलाकारों को प्राप्त हुआ। जयदेव बघेल की आँखें खुल गयीं। चौकीदार की नौकरी में महीने भर की पगार मिलती थी कुल पचहत्तर रुपये; इन कलाकृतियों से कई गुना अधिक राशि मिलती साथ ही समाज में सम्मान भी हासिल हो सकता था। घडवा कला उनका परम्परागत  कार्य था अत: जयदेव बघेल भी अपने पिता और मामा की राह पर निकल गये, उन्होंने अपनी नौकरी छोड दी। 

कहना होगा कि जयदेव बघेल की कला यात्रा असाधारण रही है। इसे समझने के लिये पहले घडवा अथवा ढोकरा अथवा बेलमेटल कला को जानना भी आवश्यक है। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है यह कला साधना, जिसमे आकृति तो धातु की बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है और मिट्टी जीवन फूंकें जाने तक उसे अपने सांचे में धारण करती है। बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घडवा कला को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में उनके कार्य को ले कर हुई चूंकि ये लोग उन दिनो घोडों के लिये घास काटने का कार्य किया करते थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि घडवा कला को किसी काल विशेष से जोड कर नहीं देखा जा सकता चूंकि मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य करती लडकी की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घडवा शिल्प आज कार्य कर रहा है। 

अपने एक आलेख में जयदेव बघेल ने लिखा है कि बस्तर में इस कला के प्रारंभ के लिये जो मिथक कथा है उसका सम्बन्ध आदिमानव और उसकी जिज्ञासाओं से है। यदि उनके द्वारा प्रदत्त विवरणों को अपने शब्दों में प्रस्तुत करूं तो यह बात तब की है जब आदिमानव जंगल में विचरण करता था और शिकार पर आश्रित अपना जीवन निर्वहन किया करता था। इन्ही में से एक आदिमानव की यह कहानी है जो अपने माता-पिता से बिछड कर किसी गुफा में रह रहा था। एक दिन उसने पहाड पर आग लगी देखी। आग से निकलने वाले रंग तथा चिंगारिया उसे भिन्न प्रतीत हुईं और वह जिज्ञासा वश उस दावानल के निकट चला गया। अब तक आग स्थिर होने लगी थी। वहीं निकट ही उसे एक ठोस आकृति दिखाई पडी जो किसी धातु के पिघल कर प्रकृति प्रदत्त किसी गह्वर अथवा सांचे में प्रवेश कर जम जाने के पश्चात निर्मित हुई होगी। यह आकृति उसे अलग सी और आकर्षित करने वाली लगी और उसे उठा कर आदिमानव अपने घर ले आया। उसने इस प्रतिमा के लिये घर का एक हिस्सा साफ किया और इसे सजा कर रखा। इस प्रतिमा के लिये उसका आकर्षण इतना अधिक था कि नित्य ही वह इसे साफ करता और धीरे धीरे इससे प्रतिमा में चमक आने लगी। कहते हैं इसी चमक से प्रभावित हो कर वह स्वयं को भी चमकाने लगा अर्थात नित्य स्नानादि कर श्रंगार पूर्वक रहने लगा। यह धातु और वह मानव जैसे एक दूसरे के पूरक हो गये थे और समय के साथ दोनो में ही वैशिष्ठता की दमक उभरने लगी थी जिसे ग्रामीणों ने महसूस किया। जब कारण पूछा गया तो इस आदिमानव ने ग्रामीणों को वह जगह दिखाई जहाँ से उसे धातु का यह प्रकृति द्वारा गढा गया टुकडा प्राप्त हुआ था। इस स्थान पर सभी ने पाया कि एक दीमक का टीला है जिसमे कि धातु-द्रव्य प्रवेश कर गया था और उसने वही आकार ले लिया था। उसी स्थल पर मधुमक्खी का छत्ता भी पाया गया जिससे मोम, सांचा और धातु को कलात्मकता देने का आरंभिक ज्ञान उन ग्रामीणों को हुआ होगा। उस आदि-कलाकार ने तब ग्रामीणों से कहा कि मैने इस धातु के टुकडे को अपनी माँ माना है और इसी तरह इससे प्रेम किया है। तुम भी इस कला और अपने निर्माण को माँ की तरह ही मानो। कहते हैं कि उस आदिकलाकार ने सबसे पहले अपनी माँ की आकृति बनाने का यत्न किया और धीरे धीरे वह अपने निकटस्थ परिवेश की वस्तुओं और पशु-पक्षियों को भी इस कला के माध्यम से मूर्त रूप देने लगा। 

जयदेव बघेल के अनुसार उस आदिनामव ने इस तरह पहले बाघ, भालू, हिरण, कुत्ता, खरगोश, नाग कछुवा, मछली, पक्षी, गाय, बकरा, बंदर आदि बनाये। धीरे धीरे उसने अपनी माँ के रूप में डोकरी माँ की कलाक़ृति बनाई और कालांतर में डोकरा बाबा के रूप में वह पिता के स्वरूप को गढने लगा। इसी तरह विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ घडवा कला के रूप में परिवर्तित होती रहीं। कर्मकोलातादो, मूलकोलातादो, भैरमदेव, भीमादेव, राजारावदेव, दंतेश्वरीदेवी, माता देवी, परदेसीन माता, हिंग्लाजिन देवी, कंकालिन माता आदि की मूर्तियाँ इस कला के विकास के विभिन्न चरणों में निर्मित की जाने लगी। लाला जगदलपुरी भी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में उल्लेखित करते हैं कि बस्तर के घड़वा कला कर्मी पहले कुँडरी, कसाँडी, समई, चिमनी और पैंदिया तैयार करते थे। अब ये लोग देवी देवता, स्त्री पुरुष, हरिण, हाथी, अकुम आदि बनाते आ रहे हैं। 

घडवा कला निर्माण प्रकृया में कई प्रकार की मिट्टी लगती है जिसमे दीमक की बाबी की मिट्टी की प्रमुख भूमिका होती है। जयदेव बघेल अपने आलेखों में इस बात को स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि मिट्टी के कई प्रकार इस आकृति निर्माण प्रकृया में लगते हैं जिसमे दीमक (डेंगुर) की बाबी की मिट्टी के अलावा काली मिट्टी, नदीतट की मिट्टी, रुई-मिट्टी आदि का उपयोग विभिन्न प्रक्रियाओं में किया जाता है। साथ ही साथ सहायक तत्व के रूप में धान का भूसा तथा रेतीली मिट्टी का भी प्रयोग होता है। मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया के पहले चरण में धान के भूसे को काली मिट्टी के साथ मिला कर अच्छी तरह गूथ लिया जाता है और फिर इससे ही सांचा तैयार किया जाता है। अब सांचे की आकृति को धूप में अथवा आग में तपा कर ठोस कर लिया जाता है। इस सांचे पर गीली मिट्टी की दूसरी परत चढाई जाती है। इस बार मिट्टी के सूखते ही इस सांचे के स्वरूप की घिसाई खपरे अथवा हंडी (मटके) के टुकडे से की जाती है और इसे चिकना बनाया जाता है। अगली प्रक्रिया है उन पौधों की पत्तियों से इस आकृति को घिसना जिनको पीसने पर हरा रंग अधिक मात्रा में निकलता हो। सेम वृक्ष की पत्तियों का विशेषरूप से इस हेतु प्रयोग किया जाता है। इस प्रकृया के पश्चात तैयार ढांचे को पहले सुखा लिया जाता है जिसके पश्चात इस आकृति के उपर कलाकार की कल्पना अपना कार्य आरंभ करती है। मोम की सहायता से इस आकृति के उपर विभिन्न प्रकार की कलात्मक बारीकियों को उभारा जाता है। वस्तुत: इस पूरी प्रकृया के प्राण इसी समय भरे जाते हैं जब मोम के माध्यम से बहुत बारीक बारीक आकृतियाँ और स्वरूप उकेरे जाते हैं, विभिन्न प्रकार की पच्चीकारी की जाती है। इस मिट्टी के स्वरूप का मोम से श्रंगार पूर्ण होते ही छानी हुई खडिया मिट्टी में कोयले के महीन छाने हुए पावडर या गोबर को मिला कर आकृति के उपर हलके हाथो से एक लेप चढाया जाता है। इस लेपन की परत के सूख जाने पर पुन: दीमक की बावी की मिट्टी तथा धान के भूसे को मिला कर एक और लेप कर दिया जाता है। इसी लेपन के दौरान आकृति के सिरे पर धातु (पीतल अथवा कासा) से ढलाई करने के लिये एक छेद छोडा जाता है। अब इस पूरी आकृति को आग में पुन: पकाया जाता है। गर्मी पाते ही सांचे पर लगाया गया मोम उतने ही क्षेत्र में एक रिक्ति अथवा खोखलापन बनाता हुआ वाष्पित हो जाता है। अब पहले से ही छोडे गये छिद्र के माध्यम से पिघली हुई धातु का प्रवेश कराया जाता है। यह धातु उन सभी रिक्त स्थानो में जा कर बैठ जाती है जो कि मोम के पिघल जाने से निर्मित हुई हैं। अर्थात जिस कलात्मकता का निर्माण मोम के माध्यम से कलाकार ने किया वही अब धातु की बन कर तैयार हो जाती है। अब इसे ठोस होने के लिये छोड दिया जाता है। बाद में धीरे धीरे मिट्टी को तोड कर अलग कर लिया जाता है और धातु की कलात्मक प्रतिमा अपना आकार ले लेती है। अद्भुत है यह कला...और अद्भुत है कास्य युग को निहारना, इतिहास को पक कर आकार लेते देखना। 

जयदेव बघेल ने इस साधना को जब अपना व्यवसाय बनाना चाहा तब उन्होंने अपने पिता की एक शिष्या मीरा मुखर्जी से मिलना सुनिश्चित किया। मीरा मुखर्जी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कलाकार थी तथा उन्होंने घडवा कला में कोण्डागाँव मे रह कर प्रशिक्षण प्राप्त किया था। मीरा मुखर्जी के सहयोग से जयदेव बघेल ने पहलेपहल कोलकाता के एक डिजाईन सेंटर मे अपनी कला की प्रदर्शनी लगायी गयी। यह तो बस आरम्भ था जिसके पश्चात से उन्हें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान भी मिलने लगी। वर्ष 1976 में उन्हें मध्यप्रदेश राज्य से सम्मान प्राप्त हुआ, इसके अगले वर्ष अर्थात वर्ष 1977 में उन्हें इस कला की साधना के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। वर्ष 1978 मे जयदेव बघेल के अपनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी मास्को मे आयोजित की जहाँ उनकी भूरी भूरी प्रसंशा की गयी तथा व्यवसाय की दृष्टि से भी अंतर्राष्ट्रीय मंच प्राप्त हुआ। इसके पश्चात तो जयदेव बघेल ग्लोबल हो गये एवं उन्होंने स्कॉटलैण्ड, इटली, जापान, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, हॉगकॉग, सिंगापुर, बैंकाक आदि में घडवा शिल्प की अनेक सफल प्रदर्शनियाँ लगायीं। इन कार्यों का ही प्रतिफल था कि वर्ष 1982 में उन्हें प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के हाथो शिखर सम्मान प्राप्त हुआ। इसी वर्ष लंदन में आयोजित हुए भारत उत्सव में उन्हे सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। जयदेव बघेल बहुधा याद करते थे कि उस समय आयोजित प्रदर्शनी मे प्रसिद्ध मूर्तिकार हेनरी मर भी आये हुए थे। उन्होंने न केवल जयदेव बघेल को लंच पर आमंत्रित किया अपितु उनके कार्यो की सराहना भी की। मूर्तिकार हेनरी मर विशालकाय धातु प्रतिमायें बनाते थे। उनकी एक राजा-रानी की प्रतिमा जयदेव बघेल को प्रदर्शनी मे देखने को मिली जो बिलकुल बस्तर शैली की थी। 

हर कलाकार की यह हार्दिक इच्छा होती है कि वह मुम्बई के जहाँगीर आर्ट गैलरी मे अपंजे कार्यों की एकल प्रदर्शनी लगा सके। 22-28 जुलाई 1996 तक उन्होंने अपने इस सपने को सच किया और बस्तर को गौरव प्रदान किया। जयदेव बघेल लगातार काम करते रहे और लगभग पाँच दशक तक वे बस्तर की ढोकरा कला का एकमेव चेहरा बने रहे। वे निरंतर प्रदर्शनियाँ आयोजित करते रहे, नयी पीढी के लिये प्रशिक्षण शिविर लगाते रहे और देश विदेश के नियमित अंतराल पर दौरे भी करते रहे। उन्हें देश विदेश से अनेक पुरस्कार तथा सम्मान प्राप्त हुए साथ ही साथ पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से उन्हें मानद डी.लिट की उपाधि प्राप्त हुई थी। कला का यह सिपाही धीरे धीरे व्याधियों और समय के हाथों बाध्य हो गया। मधुमेह की बीमारी के कारन उनका एक पैर भी काटना पडा था। इन दिनो भी वे लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे तथा डायलिसिस पर थे। 9 नवम्बर 2014 की सुबह 4.00 बजे घड़वा शिल्प के इस महान कलाकार ने रायपुर के रामकृष्ण केयर अस्पताल में अन्तिम साँसें लीं।

कुछ लोग कभी भुलाये नहीं जा सकते, कुछ कार्य कभी नहीं मिटते। पिछले दिनों मुम्बई के ताज होटल में हुए आतंकवादी हमले के बावजूद वहाँ जो बचा रहा उसमे से एक जयदेव बघेल की निर्मित कलाकृति भी थी। आज आतंकवाद से त्रस्त बस्तर में अस्त व्यस्त होते समाज को जब अपनी  पहचान की पुन: आवश्यकता होगी तो यकीनन उसे जयदेव बघेल की मूर्तियाँ मौजूद मिलेंगी। कला कभी कोई युग अस्त नहीं होने देती, और कलाकार कभी मरते नहीं। जयदेव बघेल को विनम्र श्रद्धांजलि। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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Friday, November 21, 2014

दुर्गा-महिषासुर प्रसंग, फॉर्वर्ड प्रेस में गिरफ्तारियाँ और बौद्धिक लफ्फाजियाँ







अभिव्यक्ति की नियती जहर की तरह है, यह संयम और सोचपूर्णता से प्रयुक्त हो तो औषधि है और यूं ही गटकनी पडे तो प्राणघाती। ताजा चर्चा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में आयोजित महिषासुर दिवस तथा फॉर्वर्ड प्रेस के अक्टूबर अंक में प्रकाशित कतिपय सामग्री की है जिसपर स्वाभाविक विवाद हुआ और कुछ गिरफ्तारियाँ भी हुईं। दुर्गा-महिषासुर प्रसंग पर पत्रिका में प्रस्तुत सामग्री चित्रकथा शैली की है, कुछ पेंटिंग्स हैं जिन्हें डॉ. लाल रत्नाकर ने बनाया है जिसका विवरण हिन्दी और अंग्रेजी में फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका द्वारा दिया गया है। 

इस बहस को साहित्यकार उदयप्रकाश ने आगे बढाते हुए फेसबुक पर लिखा है – “दरअसल दुर्गा, महिषासुर (भैंस पालक चरवाहा समुदाय), वृत्रासुर (बांधों को तोडने वाला पूर्व कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर वनवासी समुदाय) आदि वगैरह ही नहीं रामायण में वर्णित हनुमान, जामवंत, अतिबल, दधिबल, सुग्रीव, बालि, अंगद, गुह, निषाद, कौस्तुभ, मारीच, आदि सब के सब विभिन्न समुदाय के मिथकीय, अस्मितामूलक प्रतीक चिन्ह (आयकन) हैं” स्वाभाविक है कि उदयप्रकाश मिथक को इतिहास मान लेने की वकालत कर रहे हैं। उनका इतिहास उनकी मान्यताओं व विधारधारा के अनुरूप किस तरह लिखा जाना चाहिये इसके लिये वे लिखते हैं कि ‘”सुर कौन था या है और असुर कौन था या है, इसे समझने का दौर अब आ चुका है। किसी के भी मौलिक अधिकारों को इतने दीर्घ काल तक स्थगित नहीं रखा जा सकता”। उदयप्रकाश जैसा साहित्यकार यह बात कह रहा है तो हर्ज क्या है हमें सारी प्राचीन काव्यकृतियों को इतिहास मान लेना चाहिये यहाँ तक कि पंचतंत्र और जातक कथाओं के सभी पशु-पक्षी बिम्बों में भी अपने अपने पक्ष के आदिवासी-गैरआदिवासी, सुर-असुर, चिन्ह-टोटेम आदि अलग अलग कर लेने चाहिये? नया दौर है इसलिये समाज को लडने-लडाने के अतिबौद्धिक और प्रगतिशील तरीके अपनाने ही चाहिये, क्या रखा है जातिवाद, साम्प्रदायवाद जैसे झगडे-झंझट, खून-खराबे फैलाने के आउट ऑफ डेटेड कारणों में?                

दुर्गा-महिषासुर कथा का जो सर्वज्ञात पक्ष है एवं उपलब्ध प्राचीन पुस्तकें हैं उन्हें सामने रख कर तो बात होनी ही चाहिये। कल्पनाशीलता एक हद तक ही सही है। निहितार्थ निकालने वालों को नीबू दिखा कर कद्दू की कल्पना करने की छूट तो दी जा सकती है लेकिन चींटी देख कर डायनासोर पर व्याख्यान होने लगें तो कदाचित बौद्धिक लफ्फाजी पर सवाल खडे करना आवश्यक हो जाता है। भैस प्रतीक देख कर यदि महिषासुर किसी को भैंसपालक कृषक समुदाय लगा तो उनके द्वारा की जाने वाली खेती आदि के कुछ तो विवरण किन्हीं पुरानी पंक्तियों अथवा जनश्रुतियों में छिपे मिले होंगे? जवाहरलाल नेहरू के लाल-विचारक जिस महिषासुर की चर्चा करते रहे हैं उसे बंगाल का राजा बताया जाता है। कोई इन विद्वानों से पूछे कि उनके लिये  मैसूर शहर के दावों को क्यों खारिज कर दिया जाये? यह मान्यता है कि महिषासुर एक समय मैसूर (महिसुर) का राजा था और दुर्गा द्वारा भीषण युद्ध में उसका वध जिस स्थल पर हुआ उसे चामुण्डा पर्वत कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश का शक्तिपीठ नैनादेवी भी दावा करता है कि महिषासुर का वध वहाँ हुआ। झारखण्ड का भी दावा है कि चतरा जिले में तमासीन जलप्रपात के निकट महिषासुर का वध हुआ। छत्तीसगढ का भी महिषासुर पर दावा है जहाँ बस्तर के डोंगर क्षेत्र में अनेक महिष पदचिन्हों को महिषासुर की कथा से जोड कर देखा जाता है और मान्यता है कि यहीं उसका वध हुआ। जहाँ इतनी मान्यतायें उपलब्ध हैं वहाँ फोर्वर्ड प्रेस के सर्वे सर्वा डॉ. सिल्विया फर्नान्डीज या कि इस पत्रिका के मुख्य सम्पादक श्री आयवन कोस्का बिना संदर्भ के भी कोई बात रखते हैं तो सवाल खडे किये जाने चाहिये। असुर जनजाति के वंशज होने का दावा इन दिनों झारखण्ड से हुआ है, ऐसा ही एक दावा बिलकुल पृथक समाज ने रायगढ से भी किया गया है अत: दोनो दावों पर अध्ययन होने चाहिये। वाल्मीकी रामायण के अनेक संदर्भ राक्षसों के तीन मुख विभेद करते हैं – विराध (असुर), दनु (दानव) तथा रक्ष (राक्षस)। वाल्मीकी रामायण मे उल्लेख है कि रावण दानवों की भी हत्या करता है “हंतारं दानवेन्द्रानाम”। यही नहीं उल्लेख है कि जब रावण वध हो जाता है तो विराध (असुर) शाखा प्रसन्नता व्यक्त करती है (वाल्मीकी रामायण 6.59.115-6)। अर्थात असुर, दानव और राक्षस भी आपस में प्रतिस्पर्थी थे और एक दूसरे की पराभव के जिम्मेदार भी थे। 

लौटते हैं फॉर्वर्ड प्रेस की गढी हुई विवादित कहानी पर और उसके दावों की उपलब्ध ग्रंथ दुर्गा सप्तसती के प्रकाश में विवेचना करते हैं। सप्तसती मे दुर्गा-महिषासुर कथा का प्रारभ होता है जब महिषासुर ने इन्द्र को पराजित कर दिया है और देवता विष्णु से मदद मांगने जाते हैं। बात कविता में कही गयी है अत: दुर्गा की उत्पत्ति और शक्ति की जो विवेचना इस में कृति में है वह शब्दश: देखे जाने पर बहुत ही अतिरंजित अथवा अविश्वसनीय लग सकती है। तथापि मैं दुर्गा सप्तशती के द्वितीय अध्याय को स्त्रीविमर्श का उद्धरण मानना चाहूंगा जहाँ एक वीरांगना स्त्री दुर्गा भीषण युद्ध में अपने शत्रु महिषासुर की बहुतायत सेना का संहार कर देती हैं। कविता कहती है कि देवता प्रतिवाद की तैयारी कर रहे हैं, देवी शस्त्रों से सज्जित हैं कदाचित इतनी बलशाली हैं मानों दस हाँथ हों, अनेक तरह के अस्त्र शस्त्र संचालन में दक्ष। महिषासुर देवताओं का दुस्साहस देख कर क्रोधित है और उसे फर्क नहीं पडता कि सामने से लडने वाली स्त्री है। उसका सेनापति चिक्षुर दुर्गा पर पहले आक्रमण करता है (श्रीदुर्गासप्तशत्याम, द्वितियोअध्याय: श्लोक 40-41)। 

यह आक्रमण साधारण नहीं था साठ हजार हाथियों के साथ उदग्र नाम का महादैत्य, एक करोड रथियों के साथ महाहनु नाम का दैत्य, पाँच करोड रथी सैनिकों के साथ असिलोमा नाम का महादैत्य, हाथी व घोडों के दल बल के साथ परिवारित नाम का राक्षस, पाँच अरब रथियों के साथ बिडाल नाम का दैत्य तथा इस सबके साथ स्वयं महिषासुर भी कोटि कोटि सहस्त्र रथ, हाथी और घोडों की सेना से घिरा हुआ था और इन्होंने प्रथमाक्रमण करते हुए दुर्गा पर तोमर, भिन्दिपाल, शक्ति, मूसल, खडग, परशु और पट्टिश आदि शस्त्र फेंके  - युयुधु: संयुगे देव्या खड्गै: परशुपट्टिशै:। केचिच्च चिशिपु: शक्ति: केचित्पाशांस्तथापरे (श्रीदुर्गासप्तशत्याम, द्वितियोअध्याय: श्लोक 48)। यह तथ्य समझने वाला है कि दुर्गा पर न केवल पहला आक्रमण महिषासुर की सेना ने किया अपितु पूरी शक्ति के साथ किया। महिषासुर की सेना, उसकी ताकत व संख्या  का विवरण निश्चित ही अतिश्योक्तिपूर्ण है किंतु कविता में अलंकार का प्रयोग कदाचित वर्जित नहीं है। द्वितीय अध्याय इस युद्ध मे महिषासुर की पराजय का लोमहर्षक वृतांत प्रस्तुत करता है जिसमें कहीं भी दूसरा पक्ष छल करता नजर नहीं आता, किसी तरह के प्रेम अथवा प्रणय निवेदन का जिक्र नहीं है अपितु प्रत्येक पंक्तियाँ यह बताने के लिये लिखी गयी हैं कि एक स्त्री हो कर भी दुर्गा ने कुशल रणनेतृत्व किया और शत्रुपक्ष को पराजित किया। यह समझ से परे है कि इस संदर्भों के बाद भी फॉर्वर्ड प्रेस ने गंदी नीयत से बनाये गये चित्र और घटिया वृतांत क्यों प्रकाशित किये?  

दुर्गासप्तशती का तीसरा अध्याय महिषासुर के अनेक सेनापतियों तथा अंत में उसके ही वध का रुचिकर चित्रण है। इस अध्याय में दो प्रतीकों का युद्ध में बार बार उल्लेख आता है पहला है महिष (भैंस) तथा दूसरा है सिंह। महिष के प्रतिपल रूप बदलने का उल्लेख है किंतु सिंह के नहीं। सप्तशती के श्लोक कहते हैं कि अपनी सेना के नाश को देख कर महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण कर लिया तथा किसी को धूथन से मार कर, किसी के उपर खुरों का प्रयोग कर के कुछ गणों को वेग से, कुछ को सिंहनाद से, कुछ को नि:श्वांस वायु के झोंके से धराशायी कर दिया। कविता में लिखे गये दुर्गा-महिषासुर युद्ध के आखिरी कुछ हिस्से बहुत ही आश्चर्य में डालने वाले हैं। यह श्लोक देखें कि – सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम। तत्याज माहिषं रूपं सोअपि बद्धो महामृधे। तत: सिंहोअभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिर:। छिनत्ति तावत्पुरुष: खड्गपाणिरदृश्यत (श्रीदुर्गासप्तशत्याम, तृतीयोअध्याय: श्लोक 29-30) अर्थात - युद्ध में स्वयं को लगभग पराजित देख कर महिषासुर ने भैंस का स्वरूप छोड कर सिंह का रूप धारण कर लिया। कुछ देर इसी तरह संघर्ष करने के पश्चात जब दुर्गा उसके गर्दन पर प्रहार करने को उद्यत हुई तो वह सिंह रूप छोड कर अपने पुरुष स्वरूप में आ गया जिसके हाथ में एक खड्ग था। यही नहीं बाद के श्लोकों में महिषासुर के हाथी और फिर पुन: भैसे के रूप में आ जाने का वर्णन भी मिलता है। भैसे और मनुष्य के बीच के स्वरूप अथवा अवस्था में होने के दौरान दुर्गा द्वारा महिषासुर का वध किये जाने का विवरण दुर्गासप्तशती के माध्यम से मिलता है। 

एक काल्पनिक चित्र का विवरण देते हुए फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका लिखती है कि “सुरों ने सुन्दरी दुर्गा को असुरों के राजा महिषासुर की हत्या करने के लिये भेजा था इस छल से अनभिज्ञ महिषासुर ने संभावित आगमन की सूचना परिवारजनों को अग्रिम रूप से दे दी थी (फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका, अक्टूबर 2014 अंक पृ-6)। आखिर इस संदर्भ का विवरण कहाँ से लिया गया है? सच यह है कि मूल उपलब्ध कथा के साथ कल्पनानुसार भयावह छेडछाड पत्रिका ने तथा चित्रकार ने नितांत बदनियती के साथ की है। आगे यह पत्रिका लिखती है कि दुर्गा द्वारा महिषासुर की छाती में खंजर उतारने के बाद उन्होंने उसके आवास में प्रवेश कर बडे पैमाने पर असुरों का संहार किया (फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका, अक्टूबर 2014 अंक पृ-6)। दुर्गासप्तशती जिसे आधार मान कर सारी कथा लिखी, गढी और पुन: पुन: गढी जा रही हैं वह फॉर्वर्ड पत्रिका के कथन को झूठा बताती है। वास्तविक श्लोक है कि - “अर्धनिष्क्रांत एवासौ युद्य्हमानो महासुर:। तया महासिना देव्या शिरशिचत्त्वा निपातित:” अर्थात आधा निकला होने पर भी वह महादैत्य देवी से युद्ध करने लगा तब देवी ने बहुत बडी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया (श्रीदुर्गासप्तशत्याम, तृतीयोअध्याय: श्लोक 29-30)। अब बहुत बडी तलवार को फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका तथा उसके महान चित्रकार ने छोटा वाला छुरा यानि कि खंजर बना दिया और जहाँ सिर काटे जाने का विवरण है उसकी जगह छाती में खंजर उतारने की बात शातिराना तरीके से लिख तथा चित्रित कर दी गयी है। 

दुर्गा-महिषासुर मिथक कथा का पाठ प्रेम आधारित छल पर नहीं कहा गया अपितु यह विशुद्ध युद्ध कथा है। यहाँ दो पक्ष लडे जिसमें एक स्त्री थी दूसरा असुर। स्त्री की विजय हुई व असुर मारा गया। किसी तरह का छल नहीं अपितु दोनो ही पक्ष पूरी सेना व क्षमता के साथ लडे और अंतत: एक पक्ष की विजय हुई। चित्रकार ने महिषासुर से प्रणय निवेदन करती दुर्गा का जो चित्र बनाया है (फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका, अक्टूबर 2014 अंक पृ-7) वह यदि किसी भी समाज अथवा पक्ष को भद्दा और आपत्तिजनक लगता है तो इसमे कोई आश्चर्य नहीं। पूर्वाग्रह से भरे लोग जो लिखते व रचते हैं उसमें अध्ययन अथवा तथ्य कम अपितु कल्पना का झोल तथा अनापशनाप बोल और चटख रंगों में छिपी अश्लीलता अधिक होती है। 

पत्रिका इस बात को बहुत ही घटिया तरीके से लिखती है कि महिषासुर की हत्या के पूर्व दुर्गा ने छक कर शराब पी (फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका, अक्टूबर 2014 अंक पृ-7)। फॉर्वर्ड नाम से प्रकाशित पत्रिका की प्रगतिशीलता से मेरा सबसे बडा सवाल कि आप स्त्री को कमतर आंकने की और बंधन में बांधने की वकालत क्यों करना चाहते हैं? क्या आपका मानना है कि स्त्री का शस्त्र पर, सुरा पर और स्वतंत्र जीवन पर कोई अधिकार नहीं? खैर स्त्री को क्या नहीं करना चाहिये की मंशा जताने के लिये जो चित्र प्रकाशित किया गया है वह निश्चित ही आपत्तिजनक है। दुर्गासप्तशती के तीसरे अध्याय का श्लोक 38 है कि – गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम। मया त्वयि हतेअत्रैव गर्जिष्यंताशु देवता:। अर्थात “तब क्रोध में भरी हुई दुर्गा उत्तम मधु का पान करने और लाल आँखें कर के हँसने लगी”। इस मधु की और अधिक पडताल करने पर ज्ञात होता है कि मधु का एक पानपात्र कुबेर ने दुर्गा को भेंट स्वरूप दिया था। मधु शब्द का अर्थ यदि सुरा भी निकाला जा रहा है तो क्या यह बात सही नहीं कि युद्ध क्षेत्र में यह घटना हो रही है न कि शयनकक्ष में। फॉर्वर्ड प्रेस की कथा में मूल उपलब्ध कहानी की हत्या ही नहीं है अपितु शरारपूर्ण नीयत से उसे बदला और तोडा मरोडा गया है। ऐसी प्रगतिशीलता की कठोरतम निन्दा होनी चाहिये। फार्वर्ड प्रेस पत्रिका द्वारा दुर्गा-महिषासुर चित्रकथा किसी आदिवासी विमर्श की नीयत से नहीं अपितु ये   बौद्धिक लफ्फाजियाँ सामाजिक विद्वेष फैलाने के विचारधाराजन्य स्पष्ट उद्देश्य से प्रकाशित की गयी है। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Tuesday, October 21, 2014

लालबुझक्कड ही लिखेंगे बस्तर का इतिहास





हम इसी योग्य हैं कि हमें पूर्वाग्रही और विचारधारापरक इतिहास मिले। हम इसी योग्य हैं कि अतीत बांचने वाले हमारे क्रांतिकारियों को डाकू और लुटेरा लिख जायें। हम इसी योग्य हैं कि अंधेरे में जियें; रूस का गेंहूँ, चीन के खिलौने और अमेरिका की किताबें चाटते रहें। मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं हूँ लेकिन बस्तर को जितना टटोलने की कोशिश कर रहा हूँ उससे इस दावे में कोई त्रुटि नहीं कि हमारी इतिहास पुस्तकें केवल सतही हैं और आधिकतम तो मुंगेरीलाल के सपनों का दस्तावेजीकरण। मैं इस बात की शिकायत प्रस्तुत नहीं कर रहा कि बारसूर या गढधनौरा की अधिकांश जमीन के भीतर छिपी विरासतें कब बाहर लायी जायेगी? मुझे इस बात का रंज भी नहीं कि बस्तर के “नल” कौन थे और बस्तर के नागों की शासन प्रणालियाँ कैसी रही हैं, इसपर हमारे पास कोई संतोषजनक उत्तर क्यों नहीं हैं। किंतु जो विरासतें आज भी समय, पानी और उपेक्षा की मार झेलती हुई खडी हैं क्या हम उनकी मौत के पश्चात फिर उनपर काल्पनिक कहानियाँ गढ कर अपनी पीढियों के लिये छोड जायेंगे? ये सवाल भोपालपट्टनम में मेरे सामने साक्षात हो गये थे। 

भोपालपट्टनम में संदीपराज पामभोई जी से मुलाकात हुई। वे उस परिवार से सम्बन्ध रखते हैं जिनके पूर्वज बस्तर में काकतीय/चालुक्य शासनकाल के दौरान भोपालपट्टनम जमींदारी के प्रमुख रहे हैं। यह दुर्भाग्य है कि इस जमींदारी द्वारा चलाये जा रहे शासन प्रबन्धों, कर विधानों अथवा संचालित कार्यों का कोई दस्तावेज़ अब तलाशे नहीं मिलता। भोपालपट्टनम की सबसे भव्य इमारत जिसे स्थानीय राजमहल के नाम से पहचानते हैं, संरक्षण के अभाव में सिर्फ एक खण्डहर है। जानकारियाँ प्रदान करने की प्रक्रिया में संदीपराज जी ने बताया कि उनके पूर्वजों के कुछ स्मारक आज भी एक तालाब के निकट सुरक्षित हैं। भोपालपट्टनम में यह स्थान है जहाँ केवल पामभोई परिवार के ही सदस्यों का अंतिम संस्कार किया जाता है। 

पामभोई शासकों के स्मृति स्मारकों की ओर बाईक से आगे बढते हुए रास्ते में बिखरी हुई अनेक प्राचीन प्रस्तर प्रतिमायें दिखाई पड़ीं। एक पेड के नीचे अपने अस्तित्व की रक्षा में प्रयासरत नागयुगीन शिवप्रतिमा ध्यानमग्न थी। मैने दया भरी दृष्टि भोलेशंकर की इस प्रतिमा पर डाली जो कई सौ साल जिन्दा रही लेकिन हम अब अपनी अगली पीढी तक भी इसे सलामत नहीं पहुँचा सकेंगे। फिर भी प्रतिमा है तो उसके साथ कहानी भी होगी। मुझे बताया गया कि प्रात:काल हाट-बाजार जाता कोई भी ग्रामीण यहाँ अपनी मन्नत प्रकट करता हुआ चला जाता है कि आज उसकी सब्जी बिक जाये, उसकी इमली खरीद ली जाये। अगर उनकी सुनी नहीं गयी तो भगवान शंकर की इस प्रतिमा की खैर नहीं। लौटते हुए वही ग्रामीण बची हुई इमली या कि टमाटर या जो कुछ भी उसके पास होता है यही प्रतिमा के सर पर पटक जाता है। इस कहानी से मुझे उत्तर बस्तर के भंगाराम की याद ताजा हो आई जहाँ भक्त की मन्नतें पूरी नहीं करने वाले देवताओं को अदालत लगा कर सजा दी जाती है। ईश्वर और उसके आस्थावानों का ऐसा सम्बन्ध केवल बस्तर में ही देखने को मिल सकता है, जीवित धर्म वास करता है यहाँ। 
घास में दबे एक पत्थर कर उकेरी हुई नक्काशियों ने बहुत प्रभावित किया तो हम वहाँ रुक कर उसका अपने अनुमानों के आधार पर विवेचन करने लगे। यह शिलाखण्ड किसी मंदिर के द्वार स्तम्भ का हिस्सा रहा होगा, आज अनजाना सा घांस-लताओं में दुबका-छिपा अपर्दित हो रहा है। हमने पिछले हिस्से को देखने की जिज्ञासा में जैसे ही इस शिलाखण्ड को हिलाया सिहर गये। भीतर एक वृहदाकार बिच्छू था जो हलचल के पश्चात अपना डंक उपर उठाये हमलावर मुद्रा में इधर उधर भागने लगा। चलिये, जिन विरासतों को हमने नहीं अपनाया उन्हें इन साँप-बिछुओं ने अपना बना लिया। 

आगे बढने के पश्चात दो वृहदाकार स्मृति स्मारकें दृष्टिगत हुई। एक वर्गाकार चबूतरा जिसके हर ओर से सीढियाँ उपर की ओर जाती हैं। चबूतरों के चारो ओर चार स्तम्भ तथा शीर्ष पर एक गुम्बद। दूर से इसकी ओर निहारते हुए यह पीड़ा हो रही थी कि धीरे धीरे समय अपने आगोश में इन स्मृतियों को लेता जा रहा है। इन स्मारकों तक बिना झाडियों और घास-लताओं को हटाये पहुँचना संभव नहीं था। देखते ही यह अहसास होता है मानों सैंकडों वर्षों से स्मारकों को प्रतीक्षा हो कि कोई आयेगा और पूछेगा इनसे वे कहानियाँ, जिन्हें जिन्दा रखने के लिये यह निर्माण किया गया था। इन स्मारकों की दीवारें काई से पटी पडी थी इसलिये प्रतीत होता था जैसे किसी ने इन्हें हरा रंग दिया हो, मनुष्यों की निर्मितियों की सुध वे ही नहीं लेंगे तो प्रकृति यथासंभव संवारेगी-सुधारेगी ही। झाडियों को परे कर हम जैसे ही एक स्मारक के निकट पहुचे उसे संपूर्णता से निहार कर बीते हुए युग की भव्यता का अनुभव हुआ। 

मकडी के जालों ने मुश्किल से स्मारक के भीतर जाने की जगह प्रदान की। आम तौर पर स्मारक के मुख्य चबूतरों के मध्य में एक छोटा चबूतरा भी होता है जिसे प्रतीक माना जाता है। दुर्भाग्यवश मध्य का हिस्सा बुरी तरह खोद दिया गया था। मेरी निगाह प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ संदीप जी के चेहरे की ओर टिक गयी। उन्होंने बताया कि खजाने की तलाश में लोगों ने यहाँ स्थित पुराने मठों के मध्य से अथवा किनारों से खुदाई कर दी है। इससे संरचना का जो नुकसान होना था वह तो हुआ ही चोरो को जो कुछ मिला होगा उससे अधिक और बेशकीमती बस्तर ने खो दिया है। आसपास अवस्थित दोनो भव्य मठ निश्चित ही बेहद प्राचीन हैं लेकिन अब परिजन भी नहीं बता सकते कि किसके हैं और किस युग के हैं। आखिर कौन है इन परिस्थितियों का जिम्मेदार? नाहरसिंह पामभोई अन्नमदेव की बस्तर राज्यस्थापना के पश्चात प्रथम नामित जमींदार थे। आज भी पामभोई पीढियाँ भोपालपट्टनम में निवासरत हैं लेकिन समय ने उनके पास वे क्षमतायें नहीं रखीं कि राजमहल तथा अपने पूर्वजों के भव्य स्मारकों की देखरेख कर सकें। क्या इसका अर्थ यह है कि बस्तर के ये इतिहास साक्ष्य संरक्षित रहने का हक नहीं रखते?

आसपास अनेक स्मारक हैं, कुछ नये भी। इस पूरे क्षेत्र में अनेक प्राचीन प्रतिमायें बिखरी हुई हैं जिनमें से अधिकांश नंदी की हैं। मुझे बताया गया कि निकट ही अठारहवी सदी का एक स्मारक भी है जो किसी अंग्रेज का है। बहुत रुचि के साथ मैं इस मृतक स्मारक को देखने के लिये पहुँचा। स्मारक क्या केवल ढाँचा भर रह गया था जिसकी आकृति ही उसे निकटवर्ती अन्य स्मारकों से पृथक करती थी। संदीप लगातार इस स्मारक पर निगाहें गडाये कुछ तलाश कर रहे थे। अंतत: उन्होंने बताया कि सब नष्ट हो गया। पहले इस पर उस अंग्रेज का नाम तथा मृत्यु तिथि अंकित थी। 

मेरे सामने यह प्रश्न था कि क्या बस्तर के वे सभी प्राचीन मृतक स्मृति स्मारक इसी अवस्था में हैं जिनका सम्बन्ध प्राचीन शासकों अथवा जमींदारियों से रहा है? मुझे बताया गया कि कुटरू में भी यही स्थिति है और वहाँ भी लोगों से खजाने की आस में स्मारक को खोदा हुआ है। सवाल और बडा हो गया था इस लिये मैने सीधे जगदलपुर चलने का फैसला किया। मैं यह सुकून पाना चाहता था कि बस्तर के प्राचीन शासकों के स्मृति स्मारक तो कम से कम अच्छी हालत में हैं। जैसे ही जगदलपुर में अवस्थित उस स्थल पर पहुँचा जहाँ बस्तर के काकतीय/चालुक्य शासकों की अंतिम स्मृतियाँ अवस्थित हैं, बस नि:शब्द रह गया। 

चारदीवारी अवश्य थी किंतु उसके कोई मायने नहीं थे। मुख्यद्वार कभी बंद किया जाता हो ऐसा लगता नहीं। भीतर पेड़-पौधे, जंगली घास और लतायें उग आयी थीं। कुछ भव्य संरचनायें दिखाई पड रही थीं जिन तक पहुँचना साहस का कार्य था। मैने हिम्मत की और आगे बढा तभी एक बच्चे ने मुझे यह कह कर रोक दिया कि आगे मत जाओ लोग वहाँ मैदान में लोग शौच करते हैं। दिमाग सुन्न हो गया था लेकिन निकट से यह जानना आवश्यक था कि आखिर स्मारकों की वास्तविक स्थिति क्या है। आखिरकार दो स्थानीय मुझे दिखाई पडे जिसमे से एक लम्बे समय से वहीं रहता था और दूसरा राजमहल मे कर्मचारी था। मुझे दु:ख इस बात का हुआ कि उनमे से कोई स्पष्ट रूप से बताने में सक्षम नहीं था कि कौन से स्मारक किस शासक के हैं। 

जो प्राचीनतम स्मारक थे, मैं झाडियों-लताओं से लडता हुआ उनतक पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि इन्हें भी दूसरी ओर से खोदा गया है। स्थानीय पड़ताल से पता चला कि कुछ वर्ष पूर्व खजाना तलाशने की इच्छा से आये कुछ लोगों ने जब यहाँ के स्मृति स्मारकों की रात्रि में खुदाई आरम्भ की तब उन्हें पकड कर पुलिस के हवाले भी किया गया था। जो अहाता है उसके लगभग मध्य में जो स्मारक है उसका चबूतरा द्विस्तरीय है एवं संगमरमर का बना हुआ है। स्मारक के स्तम्भ उपरी हिस्से तथा गुम्बद नक्काशीदार है। वहाँ समुपस्थित सभी स्मारकों में यह सर्वाधिक सुन्दर प्रतीत होता है। यद्यपि खजाना खोजने की आकांक्षा वालों ने इस स्मारक का उपरी हिस्सा भी नष्ट करने का यत्न किया है। यह स्मारक मुझे महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी का बताया गया।      
    
दुर्भाग्यवश ग्रामीण इस बात में एक मत नहीं हैं कि कौन से स्मारक किस शासक के हैं। किसी भी स्मारक पर कोई परिचय चिन्ह अथवा नाम आदि लिख कर उन्हें पहचान देने की कोशिश नहीं की गयी है। मैं बहुत दावे के साथ स्मारकों को उनकी वास्तविक पहचान से नहीं जान सका यद्यपि आज भी इतिहासकारों और राज-परिजनों के लिये यह कोई कठिन कार्य नहीं है। मैने जब महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की समाधि के विषय में पूछा तो स्थानीय लोगों ने जिस समाधि की ओर इशारा किया उसकी अवस्थिति तो अत्यधिक दयनीय थी। समाधि को एक ओर तेजी से बढ रहे पेड की टहनी ने धकेलना आरंभ कर दिया था तो वह भीतर से झाड़ झंकाड से इस तरह घिरा अस्तित्व बचाने के लिये जूझ रहा था मानो अब शिकायत भी नहीं कि क्यों इतनी उपेक्षा से इसे छोड दिया गया है। यह किसी राज-परिवार का मसला नहीं है अपितु महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव तक के सभी स्मारक वस्तुत: बस्तर इतिहास की थाती हैं। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव का बस्तर के इतिहास और वर्तमान को गढने में भी जो योगदान है क्या उसके दृष्टिगत उनकी स्मृतियों को इस तरह उपेक्षित रखना उचित है? 

अतीत को ले कर हमारा दृष्टिकोण बहुत ही कामचलाऊ है। हम किताबों को पढ कर ही इतिहास का बोध रखने में रुचि रखते है न कि जिन्दा स्मृति शेषों से अपने कल को जानना बूझना चाहते हैं। हमारे पास दायित्वबोध ही नहीं है कि अतीत का संरक्षण वस्तुत: मिथक कथाओं की तरह लिखे जाने वाले इतिहास का प्रतिवाद बन सकता है। आज बस्तर को एक दूसरा चेहरा देने की जो कोशिशे हो रही हैं उसका कारण हमारी अपनी उपेक्षायें ही हैं। यह सावधान होने का वक्त है अन्यथा कोई बडी बात नहीं कि कल बस्तर का इतिहास केवल लाल-आतंकवाद की परिधि तक सिमटा रह जाये। दिल्ली के बडे बडे प्रकाशन संस्थाओं के सम्पादक जिस तरह चुनिंदा कहानियों और विचारधारापरक घटनाओं को ही दस्तावेजीकृत करने पर जोर देते हैं, कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाली पीढी बस्तर को अंधे का हाँथी समझ बैठे। परिस्थितियाँ यही रहीं तो कदाचित केवल लालबुझक्कड ही लिखेंगे बस्तर का इतिहास। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Friday, October 10, 2014

बस्तरिया आदिवासी कविता – विरासत को अस्तित्व का संकट





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बस्तर के जनजातीय परिवेश में कविता सदियों से लहलहाती फसल रही है। आदिवासी कविता ने कभी जनजीवन के हर्ष और विषाद को धुन-लय दी है तो कभी वह अंतर्निहित संघर्ष और शोषण को उजागर करने का स्वर बनी है। कविता राजा और देवी-देवता का स्तुति गीत बनी तो भूमकाल और विद्रोहों का स्वर भी बन कर बाहर निकली है। बस्तर की आदिवासी कविता में बिम्ब वही हैं जो उनके रोज के अनुभव हैं जिनमे आदिवासी समाज नित्य उठता बैठता, जिनको जीता आया है। इसीलिये कविता में चिड़िया भी आती है तो तूम्बा भी आता है, मछली भी आती है तो कांटा भी आता है, सौकार (साहूकार अथवा ब्याज पर रुपये देने वाला) भी आता है तो राजा भी आता है, दर्द भी आता है और ओझा-गुनिया भी आता है। बस्तरिया काव्य आज भी मौखिक साहित्य के रूप में ही विद्यमान है। इसे संग्रहित करने के गिने चुने प्रयास ही हुए है और उसपर बहुत अधिक कहा-लिखा नहीं गया है। मुख्यधारा कही जाने वाली कविता को यदि किसी तरह का दर्प हो कि उसकी कविता में रहस्य है, प्रयोग है, गहराई है, दर्शन है तो जरा रुक कर यह गीत गंभीरता से सुनना चाहिये  -  

सोरा धारू धरती नउ खण्डु पिरथी हो/ धरती मालिक बोरू लरियो मालिक बोरू हो/ धरती मालिक लिंगो लरियो पिरथी मालिक राजाल हो/ लिंगोना बेहले पाटा लरियो, लिंगोन बेहले डाकान हो/ पहिलि पाटा लिंगो लरियो, पहिलि डाकान लिंगो हो/ माड़िया पाटा लयोर लरियो माड़िया डाकान लयोर हो/ नाडुं नर्का दिया लरियो निके पोरोय पोयतोम हो/ होंगु दापु आयमा लरियो निके होहार लागि हो। 

कई कई कोण से इस गीत को समझने की कोशिश करता हूँ और हर बार नये नये अर्थ मिलते हैं। यह .काव्य प्रार्थना भी है तो आदिवासी दर्शन का उद्धरण भी। धरती को ले कर जिज्ञासाओं का एक सिरा है तो लिंगो के माध्यम से उत्तर भी सामने रखा गया है। कविता सवाल पूछती है कि आखिर सोलह खण्ड वाली पृथ्वी और नौ खण्डों वाले आकाश का स्वामी कौन है? उत्तर स्पष्ट है और बिम्ब के साथ दिया गया है कि जिस तरह राजा पृथ्वी का स्वामी होता है उसी तरह इस जगत का स्वामी है लिंगो। वही लिंगो जिसने पहला गीत लिखा फिर बहुत से गीत बनाये। वही लिंगो जिसके पहले कदम से जीवन का प्रादुर्भाव हुआ और आज माडियाओं की हर पदचाप का सर्जन उससे ही तो संभव हुआ है। मध्यरात्रि में दीपक जला कर हम तुम्हारा स्मरण कर रहे हैं लिंगो जिससे कि तुम हम से नाराज न हो जाओ, हमारा जोहार स्वीकार करो। यह कविता जितनी सहज है उतनी ही विशेषताओं भरी है। 

बस्तरिया कविता में अधिकांश प्रश्नोत्तर शैली की हैं अत: सीधे श्रोता से बात करती हैं और उससे जुडती हैं। अनेक बार कविता में समुपस्थित तीसरा पक्ष भी अपनी बात किसी न किसी माध्यम से कहने लगता है। यह तीसरा पक्ष कोई देवी-देवता अथवा मृतक पूर्वज हो सकता है। एक मृत्यु गीत से इसी तरह का उदाहरण देखिये -   

झुलना झूले मायू रा/ निकुन सेवा कियकौम रा/ निकुन पूजा हियाकौम रा/ काला मेंडा हियाकौम रा/ ताने भोजन केविन रा/ पुजारी लामे लेंगरा हिमु रा/ ताने भोजन किया का रा/ पुजारी अहर टुपु हिमु रा/ गिरदा वानाह किमु रा...।  

मृतक स्तम्भ बना कर अपने पूर्वजों को सर्वदा स्मरण में रखने वाले आदिवासी किस तरह उनसे जुडे होते हैं यही इस गीत की मधुरता है। मृतक पूर्वज से उसके परिवार की मनुहार चल रही है जहाँ उसे प्रसन्न रखने के लिये कहा जा रहा है कि आप झूले में बैठ कर झूलो और हम आपकी सेवा करेंगे, हम आपको काला मेंढा भेंट में देंगे। अब मृतक पूर्वज बिना उत्तर दिये कैसे रह सकता है? उसकी बात कहने का माध्यम कोई भी बन सकता है चाहे वह घर का ही कोई बालक-बालिका हो अथवा कोई ओझा-गुनिया। मृतक स्पष्ट कर रहा है कि उसे काला मेंढा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं है उसे तो लम्बी पूंछ वाला बैल चाहिये। वह परिजनों के समक्ष मांग रखता है कि सुगंधित धूप जलाया जाये और अच्छी तरह उसकी सेवा की जाये। कविता के इस पक्ष में यह समझने की आवश्यकता नहीं कि मांग रखी गयी है तो मान भी ली जायेगी। परिजन मृतक से मान मनुव्वल करेंगे, माँग को घटाने की कोशिश करेंगे और अनेकों बार बैल से आरंभ हुई मांग मुर्गी के अंडे पर जा कर भी खतम हो सकती है। कई बार लडाई-झगडे और रूठना-मनाना जैसे दृश्य भी सामने आते हैं। आदिवासी कविताओं में इसी सादगी का सोंधापन है।   

इन कविताओं की सबसे बडी बात है स्पष्टता। इस बात का ध्यान है कि सुनने वाला सहजता से अर्थ ग्रहण करे और आनंदित हो। कविता नयी पीढी को सिखाती है, युवाओं के लिये प्रेम संप्रेषण का माध्यम है तो बुजुर्गों के लिये अपने अनुभव बाँटने का भी। मैथिली शरण गुप्त की प्रसिद्ध कविता “माँ कह एक कहानी/ बेटा समझ लिया क्या तूने/ मुझको अपनी नानी” की पूरी बुनावट ही प्रश्न और उसका उत्तर है। अधिकतम बस्तरिया कविता का यही स्वाद है। गुलेल से शिकार करना सिखाने के लिये बना यह गीत और इसकी सहजता देखिये -   
कायनाके गुलेल दर्द कायनाके डोरी वो दई कायनाके गुलेल/ बाँस के तो गुलेल बाबू सन सुनरी डोरिगा बाबू/ कायनाके घोडा दर्द कायनाके फाटा वो दई/ बाँस के तो घोडा बाबू सुत के तो फाटा बाबू/ कायनाके धुनी दई कायनाके के गुल्ला/ बाँस के तो धुती बाबू माटी की गुल्ला/ कोनी हाथ में गुलेल दई कोनी हाथ में गुल्ला/ देरी हाथ में गुलेल बाबू जिउनी हाथ में गुल्ला।

बेटे का प्रश्न है कि माँ बताओ गुलेल कैसी होती है, वह कैसे बनायी जाती है? प्रत्युत्तर में माँ कहती है कि बेटे बांस की लकडी और सन की रस्सी से गुलेल बनती है। बेटा पुन: पूछता है कि गुलेल का घोडा किसका और उसकी लगाम किसकी बनेगी? माँ बताती है कि बाँस से घोडा बनाया जायेगा और सुतली से उसकी लगाम बनेगी, इस तरह गुलेल तैयार होगी। बात यहीं पूरी नहीं हुई चूंकि केवल गुलेल के घोडे और उसकी लगाम से ही बात नहीं बन सकती थी। बेटे ने अगला प्रश्न किया कि माँ टोकरी किससे बनती है और छोटी गोलियाँ किससे बनती हैं? माँ ने बताया कि टोकरी बाँस से बनेगी और मिट्टी से छोटी छोटी गोलियाँ बनायी जायेंगी जिनका प्रयोग गुलेल से शिकार करने के लिये किया जायेगा। बेटे ने पुन: पूछा कि किस हाँथ में गुलेल पकड़नी है और गोलियाँ किस हाँथ में रख कर चलानी है? माँ बताती है कि बेटे गुलेल को बायें हाँथ में पकड़ना है तथा दायें हाँथ से गोलियाँ चलानी है।      

कविता वह जो अपने परिवेश का दृश्य उपस्थित कर दे, परिस्थितियों का इस तरह प्रस्तुतिकरण हो कि उसे सुनने वाला भाव-विभोर हो उठे। अकाल पर इस आदिवासी कविता को देखिये जिसमें अनेक मर्म को छू लेने वाले बिम्ब हैं और एसे प्रभावी कि आश्चर्य से भर देते हैं। कविता है – 

निमारे वेके दांतोना रावानी/ डोरी भूमि दांतोंना दादा ले/ भूमि दुकार दुकार रौए दादा ले/ भूमि ते दुकार अरित रौए दादा ले/ हिकात हुरो भैंसो रौए दादा ले/ सरपाने भैसो अरित रौए दादा ले/ पुहले दहेलात रौनाल रौए दादा ले/ वेटले माराते कौशल रौए दादा ले/ कावर वोकार इंता रौए दादा ले  रायका रेयौन कौराल रौए दादा ले।  

एक भूखे का प्रश्न कि कहाँ उड़े बाज? और दूसरे भूखे का उत्तर कि बाज पश्चिम की ओर उड चला है क्योंकि भूख का दिन चढ़ा आया है और सारी दुनियाँ में अकाल फैला हुआ है। मेरे दोस्त वे भैंसे जो काली काली होती हैं सारी की सारी मर गई हैं। रूई के फूल सी सफेद होती हैं गायें, वे गर्मी में लडखडा कर गिर पडी हैं। टूटी हुई मिट्टी पर बाज और सूखे हुए पेड पर कौवा बोल रहा है और अब यह उड कर नीचे आने वाला है। 

अकाल पर मैने अनेकों कवितायें पढी हैं किंतु स्मरण नहीं आता कि इतनी स्वाभाविक और सजीव कोई अन्य रचना निगाह से गुजरी हो। समस्या अथवा परिस्थिति ही क्यों आदिवासी कविता अपने भूगोल और इतिहास की व्याख्या के साथ भी जुडती है। बस्तर में अन्नमदेव और उसके वंशज काकतीय नहीं चालुक्य थे इस बात को इतिहासकार बहुधा एक कविता में प्राप्त पंक्ति “चालकी बंस राजा” से जोड कर देखने की कोशिश करते हैं। इसी तरह कला संस्कृति किस तरह राज्यों-रियासतों के दायरे लांघती रही है यह जानने के लिये शरीर पर चित्रित कराये जाने वाले गोदना पर ये पंक्तियाँ देखें -      
                                                                       
अगो बागाईडाग टुमकी दाई/ राईगढ दा डंकिंग दाई/ अगो बागा वाताक़ंग दाई/ सिंगार काती वातांग दाई/ सिंगार काती पुरौंग दाई/ डंडा नीला किंतांग दाई/ हुई तासी पुरौंग दाई/ मात मोली हीवौन दाई/ मात कोटी हेवाक दाई/ मात सिंगार कोटेरोम दाई। 

प्रश्नोत्तर शैली की ही यह कविता बताती है कि गोदना गोदने वाले रायगढ से आये हुए हैं। रायगढ से बस्तर का जुडना और परस्पर कला के आदान प्रदान का इससे बेहतर साक्ष्य क्या हो सकता है। कविता में मानवीय भावों का चित्रण देखिये कि गोदना कराने वाली युवती सूई से डर रही है और होने वाले दर्द की कल्पना मात्र से विचलित है। वह गोदना न कराने के लिये तरह तरह के बहाने बना रही है जैसे कि ये गोदना करना नहीं जानते, इन्हें सूईयाँ चलाना नहीं आता इसलिये हम उनके दाम नहीं चुकायेंगे। इसके साथ ही साथ गोदना करा कर सुन्दर दिखने की इच्छा भी युवती में है अत: वह ऐसा रास्ता निकालना चाहती है जिससे दर्द भी न हो और काम भी बने अत: सखी से पूछती है कि अगर गुदनारियों (गोदना करने वालों) को आपत्ति न हो तो मैं स्वयं अपना गुदना कर लूं।  
     
जीवंतता आदिवासी समाज का परिचय है। आज घोटुल समाप्त हो गये हैं तथापि उससे जुडे गीत युवा मन के भीतर रचे बसे हैं। घोटुल वे सांस्कृतिक सभागार थे जिन्होंने लम्बे समय तक बस्तरिया आदिवासी कला, संगीत, साहित्य तथा समाज की बनावटक़ को दिशा देने में महत्व की भूमिका निभाई थी। घोटुल इतने शक्तिशाली संस्थान थे कि अनेक आदिवासी क्रांतियों के समय में वहीं युवा एकत्रित होते, वहीं उनके हथियार तैयार होते और वहीं से योजनायें बना करती थीं। घोटुल युवाओं नित्य रात्रि सम्मिलन स्थल तो था ही प्रेम और परिणय की स्थली भी था। चेलक और मोटियारी की अनेक मनोरम कहानियाँ और मनभावन दृश्य बस्तर में अब दिखाई-सुनाई नहीं पडते। घोटुल संस्था के इतिहास बनने की तकलीफ को उससे जुडी कवितायें कम अवश्य करती हैं। यह गीत देखिये जहाँ युवती विवाहित होने जा रही है अत: उसे घोटुल छोड़ना पड़ रहा है। यह उसके लिये गाया जा रहा बिदाई गीत है -  

घोटु दे गाजुर हिन्दु रौय हेलो/ किलो रे कोरू राचा रौय हेलो/ नियरा जोर तोर लायोर रौय हेलो  जोदिरे औनदौय किनी रोय हेलो/ संगी रे तासी डाकी रौय हेलो/ दिन्दा रे राजते मंडी रौय हेलो/  अंदेरे राजो पुतो रौय हेलो/ बुतो रे कबार पुनविन रौय हेलो/ सगारे सिदुर पुनविन रौय हेलो/ हतों ने वातों ने पुनवित रौय हेलो/ कोसूरे कोयतुने पुनविन रौय हेलो/ इडेके सूडी वायार रौय हेलो/ इडेके बारा पुंडाजी रौय हेलो। 

गीत में लड़की के लिये उलाहना है कि घोटुल जैसी सुन्दर जगह को छोड कर विवाहित होने जा रही हो अब आनंद के स्थान पर कठिन व्यावहारिक जीवन से तुम्हारा सामना होने वाला है। कविता युवती को छेडते हुए कहती है कि शोर और आनंद वाली स्थली, अविवाहितों का राज्य और अपने चेलक (प्रेमी) को तुम छोड कर जा तो रही हो, अब लौट कर इस आनंद और उत्सव भरी दुनिया में नहीं आ पाओगी। कविता युवती को सचेत करती है कि विवाह के बाद तुम नहीं जानती कि कैसे कैसे समयों से गुजरना होगा, कैसे कैसे मेहमान आयेंगे, कैसे कैसे अधिकारी आयेंगे, कितना श्रम है विवाहितों की दुनिया में यह सब तुम जल्दी ही जान जाओगी।  

आदिवासी जीवन में युवक और युवती विषम इकाईयाँ नहीं हैं। वे एक साथ हैं तभी उत्सव हैं अत: गीतों पर भी दोनो का समान हक है। घोटुल छोडने वाले लडके पर यह रचना देखिये - 

डिंडोराजि जोराजो निना/ इडे राजो पुटी नोनो/ निया वायना घोटुल नोना/ पारमाकोरो घोटुल नोना/ दावा कायदे गिकी नोना/ टिना कायदे हर्गा नोना। 

भावार्थ है कि युवक अब तुम स्वतंत्र लोगों के राज्य को छोड कर परतंत्रता की दुनिया में जा रहे हो। मैं इस बिम्ब से बहुत प्रभावित हूँ जहाँ युवक की सुन्दरता की तुलना सांड के सींगों से की गयी है। तुलना अद्भुत है कि ओ सांड के सींगो से सुन्दर युवक घोटुल में तुम्हारी स्मृतिया सर्वदा रहेंगी कि किस तरह तुम बायें हाथ में गीकी (चटाई) और दायें हाथ में डंडा लिये रोज यहाँ आया करते थे। 

संवेदनायें केवल मनुष्यों से जुडी नहीं अपितु सम्पूर्ण जीव और वनस्पति जगत भी तो आदिवासियों का सहचर है। युवक विवाह करने जा रहा है और ताड का पेड जो चार दीवारी के पास लगा हुआ है वह उदास है। कविता देखिये – 

बारी काटा छिन्द बूटा राती राती कंडे/ ना कांड रे छिन्द बूटा बाबू मौड़ पिंडे/ बाँदो ते बाँदो पुजारी चुटुक मौड बाँदो।  

युवक के नये जीवन में उस ताड के पेड की भी तो सहभाविता होगी जो घर की चारदीवारी में खडा है। जिसने युवक को निरंतर बडा होते देखा है। वह जिसके पत्ते युवक के छत पर का छप्पर हैं और जिसका रस युवक को सर्वदा आनंदानुभूति देता रहा है। आदिवासी पिता ताड की मनोदशा को समझ रहा है इसलिये उसे सांत्वना देता है, ओ ताड के पेड मैं जानता हूँ कि तुम सारी रात रोते रहे हो। अब मत रोना क्योंकि अपने विवाह के अवसर पर मेरा बेटा तुम्हें मौड के रूप में अपने सिर पर अवश्य पहनेगा।  

नख-शिख वर्णन में हिन्दी के मध्यकालीन कवियों ने दर्जनों ग्रंथ रच दिये हैं और सभी के केन्द्र में नायिकायें ही रही हैं। यह रचना देखिये जहाँ आदिवासी युवक के अंग प्रत्यंग का मनोहारी वर्णन किया जा रहा है। कोई युवक लडकियों के समक्ष अपने मित्र का रूप चित्र रख रहा है  - 

कुडौर कोलांग डाकांग मावौर/ नेका डाकांग वातमा मावौर/ केरी गाबो मेंडुल; मेंडुल गाला निनदोये/ अली आकी मोहा; मोहा गाला निनदोये/ बरेल आपकी छाती छाती गाला निनदोये/ कारेका काया तेला; ताला गाला निन्दोये/ किरवूल माटी डंडा; डंडा गाला निनदोये/ नेका झाले केना डंडा डोले मायार। 

युवक छैला-छबीला-गठीला है। लडके का एक डग कुदाल की मूठ जितना लम्बा है। वर्णन करने के साथ ही गीत के माध्यम से वर्णित युवक को अपनी विशेषताओं का प्रदर्शन करने के लिये भी उकसाया जा रहा है कि जल्दी जल्दी डग मत भरो लडके। गीत आगे कहता है कि लडके का तन केले के फल की तरह है; वह अभी पका हुआ नहीं है। लडके का चेहरा पीपल के पत्ते जैसा है; वह अभी पका नहीं है। लडके की छाती बरगद के पेड की तरह है, वह अभी पकी नहीं है। लडके का सिर कादान के फल की तरह है, वह अभी पका नहीं है। लडके का हाथ टुंडरी की जड के समान है, वह अभी पका नहीं है। ओ लडके अपना हाथ अधिक मत हिलाओ, वर्ना यह टूट जायेगा। 

सभी उदाहरण यह तर्क सिद्ध करते हैं कि बस्तरिया आदिवासी कविता में प्राण तत्व हैं। इन्हें सुननना भी अनूठा अंभव होता है चाहे आप पंक्तियों के अर्थ न समझ रहे हों। “ते रेला, रे रेला रे रेलो” अथवा “ते नामुर ना मुर रे ना ना” जैसी अनेक स्थाई धुनों में गीत पिरोये हुए हैं जो नितांत कर्णप्रिय प्रतीत होते हैं। ध्वनियाँ भी गीतों में जगह बनाती दिखाई पडती हैं जैसे  - “टिमकी टिमकी टिम टिम/ टिम टिम टिम टिम/ ते ते रेलो रेलो रे हो ओ ओ”। मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग का सुन्दर उदाहरण भी काव्यांशों अथवा आम बोलचाल की भाषा में देखा सुना जा सकता है। यह कहावत देखें कि “काकडी चोर, कुम्हड़ा चोर, धीरे धीरे घर फोड़” अर्थात कहड़ी और कुम्हड़ा जैसी छोटी छोटी चीजें चुराने वाला एक दिन अपना घर अवश्य फोड लेगा।

बस्तर में लोक काव्य के गायन की परम्परा है तथा चईत परब, लेजा, डाँडामाली आदि गीत बहु प्रचलित है। अनेक गीत ऐसे भी हैं जिन्हें महाकाव्यों की श्रेणी प्रदान करनी चाहिये। कई तरह के जगार गाये जाते हैं जिन्हें जागृति पर्याय से समझना अधिक उचित होगा। जगार वस्तुत: उत्सवधर्मी आयोजन ही हैं जिसमें कभी देवता को जगाने का प्रायोजन होता है तो कभी अच्छी फसल के आभार स्वरूप। लछ्मी जगार, तिजा जगारम अस्य़मी जगार, बाली अगार आदि मौखिक परम्परा के महाकाव्य बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों में अपने अस्तित्व की लडाई लडते हुए आज भी चलन में हैं।
बस्तरिया आदिवासी कविता के वर्तमान स्वरूप की तलाश में पिछले दिनों दक्षिण बस्तर क्षेत्र में मुझे पत्रकार साथियों के माध्यम से कुछ गीत सुनने को मिले जिन्हें जनगीत कहा गया था। बताया गया कि माओवादी इस माध्यम से कथित जागृति करते हैं तथा अपने संदेशों का ग्रामीणों के मध्य प्रसारण करते हैं। इस बात ने मुझे गीतों के भीतर अंतर्निहित ‘जागो’, ‘लडो’ और ‘होंगे कामयाब’ जैसे कठपुतली शब्दों की भावभंगिमाओं को बूझने पर बाध्य किया। यह बात समझ से परे नहीं कि आज हिन्दी कविता की हत्या के जिम्मेदार वे लोग हैं जिन्होंने सहज अभिव्यक्ति के इस माध्यम पर प्रयोगों और विचारधाराओं से कुठाराघात किया है। छापने और पुरस्कारों का चुग्गा दे दे कर जैसी कविता पिछले कुछ दशकों से मुख्यधारा में चलाई-खपाई जा रही है वह एक फारमेट है, एक ढाला हुआ सांचा जिसमें सहज अभिव्यक्ति का कोई स्थान नहीं। एसी कवितायें जिन्हें पाठकों तक पहुँचना ही नहीं है, ये वो कवितायें हैं जिनका जन्म किसी सोच, अनुभूति अथवा पीडा से नहीं हुआ है अपितु ये गिरगिट हैं जिन्हें संपादक की उंगली के इशारे पर पत्रिका के कलेवर वाला रंग धारण कर लेना है। 

आयातित जनगीतों के नाम पर बस्तर के भीतरी क्षेत्रों में अवस्थित मौलिक आदिवासी कविता के साथ न केवल गैरजरूरी हस्तक्षेप हो रहा है अपितु इसकी आड़ में मांदर की ताल-धुन बदलने की जो कोशिश हो रही है वह स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रास्ते में खडा किया जा रहा बांध है। “जुगचो बोहता आँसू/ आमी हुनके पीवते रोहू” कह कर सदियों की अपनी पीडा को सशक्तता से आदिवासी कविता सामने लाती है तो यही कविता अपने देवता को भी पत्थर कहने की क्षमता रखती है और कह उठती है कि “देव तुचो जानू पखना होलीसे”। इतना ही नहीं कविता व्यवस्था के खिलाफ भी व्यंग्य करती है कि “पढुन लिखुन कुरची बसा/राज के चलावा/जोहार बाबू बल्ले कोनी/ मूड के हलावा” अर्थात पढ लिख कर मिली कुर्सी की उपादेयता क्या है और शासन क्या केवल इसी तरह चलाना है कि किसी ने नमस्कार-जोहार किया तो गर्दन भर हिलाते रहो। वाह!! ये कवितायें बस्तर की थाती हैं और आह!! कि इस विरासत को नष्ट होने से बचाने का कहीं कोई प्रयास भी नहीं।      

-राजीव रंजन प्रसाद 
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Saturday, September 13, 2014

एक अनकही कहानी है एर्राबोर

सुकमा से कोण्टा की ओर आगे बढते हुए यह अहसास रह ही नहीं गया था कि कभी यहाँ से हो कर सड़क भी गुजरती रही होगी। बड़े बड़े गड्ढों में सडक तलाशते हुए कोण्टा तक पहुँचने के एक मात्र रास्ते से हो कर गुजरना किसी प्रकृति प्रेमी के लिये सु:खद है, किसी जीव वैज्ञानिक के लिये रोमांचकारी, किसी इतिहासकार के लिये खोजपूर्ण तो किसी लेखक, पत्रकार के लिये अविस्मरणीय अनुभव। इस रास्ते से गुजरने की बचपन की कुछ यादे आज भी हैं मेरे पास लेकिन वर्तमान से उसकी कोई तुलना नहीं। देखते ही देखते कितना बदल गया बस्तर? जैसे सांस लेना भूल गया हो, जैसे रंग उड़ गये हों या कि कोई मधुर गीत गीत अब किसी बेसुरे साज पर बजने लगा हो। 

एक दौर था जब पहाडियाँ और गाँव अपने सौन्दर्य, देवी-देवता अथवा लोक-जीवन के लिये पहचाने जाते थे लेकिन आज वे दहशत का पर्याय हैं..........आप नाम ले कर देखिये चिंतलनार, श्यामगिरि, ताडमेटला, दरभाघाटी या कि एर्राबोर। इन स्थलों से अतीत के अनेक गौरवशाली जनसंघर्ष भी जुडे हुए हैं लेकिन उन्हें कौन याद रखना चाहता है आज? जहाँ से गुजर जाईये बस मौत ही मौत की आहट कि यहाँ ग्यारह मारे गये थे, यहाँ तैतीस बारूदी सुरंग में उडा दिये गये तो यहाँ एम्बूश लगा कर चार उडा दिये गये, यहाँ गाँव जला दिये गये थे, यहाँ गला रेत दिया गया था....उफ!!!

एर्राबोर क्या महज एक गाँव है? क्या एर्राबोर एक प्रतीक नहीं बन गया है लाल-आतंकवाद और सलवाजुडुम के खूनी धमाकों और आपसी रक्तपिपासाओं का? एर्राबोर पहुँच कर मैं ठिठक गया हूँ, स्तब्ध रह गया हूँ। वीरानी से स्वागत और कुछ देर बाद अविश्वास भरी अनेक निगाहों से सामना। ताड़ के पेडों की लम्बी लम्बी कतारें क्यों खूबसूरत नहीं लग रही हैं मुझे? यह केवल टूटी फूटी सडकों से गुजर कर यहाँ तक पहुँचने की थकान भर नहीं है, यह मेरे भीतर की संवेदनशीलता है शायद, जिसे इन जंगलों के भीतर हुई घटनायें इस समय दर्द भरी चिकोटियाँ काट रही हैं। सुकमा से एर्राबोर तक रास्ते भर हर किलोमीटर पर सीआरपीएफ के जवान सर्च करते हुए मिले। सडकें सुरक्षित नहीं हैं, जंगल की हर सरसराहट अब किसी हिरण या भालू होने की संभावना नहीं बताती बल्कि निश्चित करती है कि नक्सली होंगे या सेना के जवान। आम आदिवासी की स्थिति युद्धरत बस्तर में कहाँ है और कैसी है, यह सवाल अब अधिक महत्व का हो चला है। 

एर्राबोर पहली बार तब सुर्खियों में आया जब सत्रह जुलाई वर्ष-2006 की रात, एक बडा नक्सली हमला यहाँ अवस्थित सलवा जुडुम कैम्प में किया गया था। सलवा जुडुम के प्रारम्भ होने के पश्चात से यह नक्सलियों द्वारा प्रतिवाद किये जाने की प्रारम्भिक लेकिन दुर्दांत घटना थी। लगभग पाँच सौ झोपडियों को आग लगा दी गयी, सैंतीस आदिवासी मारे गये और कई तो जीवित ही स्वाहा हो गये थे जिसमें छ: साल की बच्ची से ले कर बुजुर्ग भी थे। इंटरनेट पर उपलब्ध नक्सलियों की त्रैमासिक पत्रिका “प्रभात” के जनवरी-मार्च 2007 के अंक में एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें लिखा है - “2006 जुलाई 19-17 की रात पीएलजीआई की अगुवाई में एक हजार ग्रामीण जनता ने एर्राबोर स्थित तथाकथित राहत शिविर पर हमला बोल दिया”। 

मैं आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में जनता शब्द के इस्तेमाल को सही नहीं मानता। आखिर जो मरे वे कौन थे? जो मार रहे थे वे कौन थे? और मारने के लिये उकसाने वाले कौन थे? जनता के इस तंत्र में अपनी बात सामने रखने का माध्यम जनता की हत्या हो तो क्या हम कहें कि लोकतंत्र की विफलता का यह दौर है? वस्तुत: विचारधारायें हत्यारी हो गयी हैं और वे अपने चेहरे पर जनता का मुखौटा लगा लेती हैं। प्रभात पत्रिका के इसी लेख में आगे लिखा गया है कि “एर्राबोर घटना में गलती से दो बच्चों और दो निर्दोष महिलाओं की हत्या होने पर हम पर कीचड उछालने वाले पुलिस प्रशासन क्या इस सवाल का जवाब देंगे कि किसके कहने पर मूक्कावेल्ली में डेढ साल के बच्चे के सिर पर नगा पुलिस ने गोली मारी थी।” सिहरन हो जाती है यह सब पढ कर कि किस संवेदनहीनता से बच्चों और महिलाओं की हत्या को जायज ठहराया जाता है फिर चाहे बंदूख किसी भी पक्ष की हो......।  
एर्राबोर ने पहली बार नक्सलवाद पर स्पष्ट रूप से आतंकवाद होने का लेबल बस्तर में चस्पा किया था। यह वह आरंभिक घटना थी जिसने बताया कि वह चाहे सलवा जुडुम की हो या कि माओवादी बंदूखें वस्तुत: आदिवासी के खिलाफ ही उठेंगी और एसी कोई सुबह नहीं आने वाली जो लाल सूरज ढकेल कर कभी भी ला सके। हमले लगातर जारी हैं और कभी सेना के जवान तो कभी नक्सली और बहुधा दोनो ओर की गोलीबारी में आम ग्रामीण मिटते जा रहे हैं। सलवा जुडुम जब तक जारी रहा तब तक विश्व मीडिया का ध्यान बस्तर के इस सुदूरतम कोने में बना हुआ था किंतु सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के पश्चात से स्थितियों में आमूलचूक परिवर्तन आ गया। एसपीओ/ कोया कमाण्डो अब पुलिस सेवा का हिस्सा हो गये हैं, राहत शिविर अब लगभग बंद हो गये हैं तथा जिन्हें यहाँ रहने की मजबूरियाँ हैं वे राशन-पानी के लिये महरूम डर के साये में जीवन बिताने के लिये बाध्य दिखाई पड़ते हैं। 

शक्ति-साम्य वाली स्थितियाँ हटते ही सलवाजुडुम से जुडे कार्यकर्ता चुन चुन कर नक्सलियों द्वारा मारे जाने लगे। एसा ही भयावह हश्र कुछ ही समय पूर्व सलवा जुडुम के सक्रिय कार्यकर्ता और एर्राबोर के उपसरपंच सोयम मुका का हुआ जिसे कोण्टा से एराबोर लौटने के दौरान असीरगुडा के निकट पहले गोली मारी गयी फिर पीट पीट कर नक्सलियों ने मार डाला। इस घटना के कुछ दिनों बाद मैने कथित गाँधीवादी एक्टिविस्ट हिमांशु कुमार का जनज्वार वेबसाईट पर लेख पढा जिसमें उन्होंने लिखा था -  “.....नक्सलियों ने सोयम मुका को मार डाला। हांलाकि तो हम चाहते थे सोयम मुका को इस देश की अदालत दंड दे ताकि आदिवासियों की आस्था इस देश के कानून और व्यवस्था में और अधिक मज़बूत हो लेकिन अदालत और सरकार ने कानून को हरा दिया और नक्सलियों को जीता दिया। इससे अब आदिवासियों के मन में यह बात और मजबूती से बैठ गई होगी कि इस देश में उन्हें सिर्फ नक्सली ही न्याय दिला सकते हैं“। आतंकवाद के खुले समर्थन की ऐसी गाँधीवादी व्याख्या पढ कर मुझे एक्टिविज्म शब्द लिजलिजा प्रतीत होता है किंतु यही तो खूबसूरती है लोकतंत्र की जहाँ अपनी बात किसी भी तरह से कहने की सभी को स्वतंत्रता है। हाँ, यह एक कडुवी सच्चाई है कि जिस विदेशी मीडिया और कथित समाजसेवियों ने सलवा जुडुम और सरकार प्रायोजित आतंकवाद पर लम्बी लम्बी तकरीरें की, मानवाधिकार के बडे बडे संकेत चिन्ह गढे वही इनदिनों नक्सलियों द्वारा लगातार मारे जाने वाले सलवा जुडुम से जुडे आदिवासियों पर मुँह में लॉलीपॉप ठूस कर उनींदा पडा हुआ है। 

एर्राबोर का सुलगना अब बंद है। उसकी साँसें सीआरपीएफ के कैम्प ने रोक रखी हैं और पहचान बन बन गये हैं लाशों के स्मृति स्तम्भ। सड़क के दोनो ओर कतारबद्ध कोया कमांडो के स्मृति स्मारक। भले ही कोया कमाण्डो अतीत की बात हो गये लेकिन बस्तर की संस्कृति कुछ भी भूलने नहीं देती। पूरे बस्तर में पुरा पाषाण काल से आज तक के मृतक स्मृति अवशेष तलाशने पर आसानी से मिल जाते हैं जिन्हें स्थानीय मठ कह कर पुकारते हैं। कांकेर से कोण्टा तक मृतक स्मारकों के तरीकों में अनेक तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं लेकिन वे बनाये जाते हैं और इस तरह पीढियाँ अपने पूर्वजों से परिचित रहा करती हैं। लेकिन एर्राबोर में कैसी पीढियाँ और कौन सी स्मृतियाँ? जिनके हाथों में नक्सली बंदूखे हैं उनकी मौत पर अगर लाल स्मृति चिन्ह बनाया जाता है तो सेना के जवान उसे तहस नहस कर आते हैं और कोया कमाण्डो या कि कथित रूप से सलवा जुडुम से जुडे आदिवासियों के मृतक स्मारकों को नक्सली नहीं छोडते। हिसाब बराबर करने कराने के दौर में सडक के किनारे कतार बद्ध बंदूख थामें खडे रह गये कोया कमाण्डो और एसपीएफ आदि के मृतक स्मारक वस्तुत: बंदूख के साये में ही ज़िन्दा हैं।

तो प्रश्न यह है कि आदिवासी कौन है? जब कोई सुकारू, बुदरू या सोयम नक्सली हो जाता है तब आदिवासी रहता है और जब सलवा जुडुम की भीड में खडा दिखता है तो सत्ता का दला बन जाता है? सवाल यह है कि गुमराह कौन है वह जिसका हाट बाजार लुट गया, जिसके जीवन यापन का यही आसंरा बचा कि वह किसी न किसी ओर की बंदूख थाम ले या कि वे जिन्हें देश विदेश के बडे बडे अखबारों की स्याहियाँ नसीब हैं लेकिन दूर की नजर कमजोर है? सवाल यह भी है कि एराबोर का बचना किसके लिये जरूरी है जब यहाँ की बहुतायत आबादी का पता ठिकाना नामालूम हो चला है? एराबोर से थोडी ही आगे बढने पर बस्तर संभाग का आखिरी छोर कोण्टा पहुचा जा सकता है। कोण्टा से लग कर ही एक छोटा सा गाँव है मोटू जहाँ तीन नक्सलप्रभावित प्रदेशों की सीमायें मिलती है तेलांगाना, ओडिशा और छत्तीसगढ। यह भूगोल भी एराबोर का दुर्भाग्य ही तो है। न जाने खामोशी का कितना पानी शबरी में बहता जायेगा और अनकहा ही रह जायेगा एर्राबोर? 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Wednesday, June 25, 2014

दिल्ली युनिवर्सिटी, जेएनयू और हू-तूतू


दिल्ली युनिवर्सिटी, जेएनयू और हू-तूतू
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एक नया समय सामने है। कोई आँटो चलाने वाले की लडकी चार्टर्ड एकाउंटेंसी की परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ हो कर निकलती है तो किसी बस ड्राईवर का बच्चा भारतीय प्रशासनिक सेवा का देदीप्यमान सितारा बन जाता है। ये वे विद्यार्थी होते हैं जिन्होंने अपने माँ बाप के पेट की बोटियाँ काट कर और रोटियाँ छीन कर उन्हें अपनी पुस्तक बनाया है। उन्होंने दिल्ली युनिवर्सिटी के एडमिशन का कट ऑफ़ लिस्ट नहीं जाना है न ही वे जेएनयू की उच्च-फंतासीय बहसों में उलझते देखे गये हैं। ये एक अरब से अधिक की जनसंख्या वाले देश के लाख सवालाख क्रीमी लेयर वाले विद्यार्थियों का हिस्सा नहीं होते अपितु उन स्कूलों की लाजवाब प्रदर्शनियाँ हैं जिनकी दीवारों पर गोबर के उपले चिपके होते हैं और उन कॉलेजों के प्रतिफल हैं जिन्हे अपनी दीवारों तक को बचाने के लिये संघर्ष करते रहना होता है। 

ऐसे समय में दिल्ली युनिवर्सिटी में स्नातक के कोर्स को ले कर बडी मजेदार बहस जारी है। होनी भी चाहिये क्योंकि यह देश की राजधानी में खडी इमारत में चलने वाला संस्थान है और इसलिये यहाँ से पास होने की अहमियत बढ जाती है। यहाँ के विद्यार्थियों को किसी साक्षात्कार में धीमी आवाज में नहीं बोलना पडता कि श्रीमान मैं बस्तर युनिवर्सिटी का पास आउट हूँ या कि मणिपुर के किसी कॉलेज से पढ कर निकला हूँ। पढना तो छोडिये यहाँ नेतागिरी का भी अपना स्तर है। छात्रसंघ का चुनाव जीतने वाले, बडी बडी पार्टी के अध्यक्षों के साथ खडे हो कर अपने चौखटे पर फ्लैश चमकवाते हैं और फिर सीधे ही नेशनल पॉलिटिक्स का हिस्सा बन जाते हैं। इसीलिये अगर किसी छात्र ने अपने राज्य के स्कूल से पढ लिख कर अथवा येन-केन-प्रकारेण भी नब्बे प्रतिशत से अधिक अंक पा लिये हैं तो फिर उसका आगे पढने का ठिकाना दिल्ली ही होना चाहिये? अगर यही सही है तो फिर यह भी ठीक ही होगा कि डीयू-यूजीसी के बीच जारी अहं के टकराव का कोई सम्मानजनक रास्ता निकलते ही देश के शिक्षा बदहालता और नीतिगत अंधत्व से मुक्ति मिल जायेगी? 

मैं इस बात से कत्तई प्रभावित नहीं हूँ कि चार साल के कोर्स से चमत्कारिक परिणाम होने वाले हैं जैसा कि दावा है और इस बात से भी अनभिग्य नहीं हूँ कि तीन साल पढ कर हुए ज्यादातर स्नातक सफेद हाथियों की कतार में इजाफा ही करते हैं। ग्लोबल कंपिटेबिलटी का जहाँ तक प्रश्न है तो क्या इस परमसत्य का केवल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रतिपादन भारत को चीन, जापान और अमेरिका के बराबर खडा कर देगा और टिम्बकटू का विद्यार्थी होनालुलु के छात्र से आँख मिला कर कहेगा “इंडिया हेज चेंज्ड”। हद दर्जे की दकियानूसियत यह है कि ऑटोनॉमी का मतलब कुछ कुतुबमीनार खडे करना मान लिया गया हैं जिसके लिये मैदानों में गड्ढे खोद कर वहाँ के मिट्टी-पत्थर तक उखाड दिये जायेंगे। 

अगर कन्याकुमारी का छात्र वही सब कुछ, उसी श्रेष्ठता के साथ अपने पाठ्यक्रम के माध्यम से नहीं पढता अथवा उन सुविधाओं का हकदार नही हैं जो दिल्ली युनिवर्सिटी को राजधानी होंने के विशेषाधिकार के कारण उपलब्ध है तो शिक्षा बजट की अधिकांश राशि के वास्तविक हकदार छोटे छोटे विश्वविद्यालय ही हैं जहाँ मन मार कर विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं और बेमन से पढाने वाले प्राध्यापकों के हवाले कर दिये जाते हैं, प्राथमिकता से ये स्थितियाँ बदलनी चाहिये। वस्तुत: जो विश्वविद्यालय मठ बन चुके हैं उन्होंने संस्थानों के भीतर चमचम चांदनी तो बहुत बटोर ली है लेकिन चराग तले अंधेरा ही है। रही पढाई की बात तो पास होने की शर्त पर डिग्री देने वाले विश्वविद्यालय अपने छात्रों की अध्ययन प्रणाली की विवेचना कर के देख लें। साल भर छात्र का डब्बा गोल रहता है और परीक्षा का टाईमटेबल आने के बाद रात दिन एक कर दिया जाता है। सेम्पल-पेपर, गैसपेपर छापने वालों यहाँ तक कि पेपर सेट करने वाले अध्यापकों के भी अच्छे दिन आ जाते हैं; परीक्षा खत्म तो फिर गया छात्र सात-आठ महीने की प्रसुप्तावस्था में। यही तीन साल की पढाई है और यही चार साल की भी। यही वार्षिक परीक्षाओं का भी हासिल था और यही सेमेस्टर सिस्टम का भी। यही रविशंकर विश्वविद्यालय का हाल है, यही सिक्किम मनिपाल का तो यही दिल्ली युनिवर्सिटी का भी, आप मानो या न मानो। 

मेरा स्पष्ट मानना है कि यदि शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूक परिवर्तन करने हैं तो सबसे पहले विशेषाधिकार प्राप्त संस्थानों को उनके ही हाल पर छोड देना होगा। नीति निर्धारकों तथा शिक्षाविदों को अपना ध्यान क्षेत्रीय संस्थानों को समुचित पंख प्रदान करने पर लगाना होगा। कोर्स के तीन और चार साल जैसी बहसों के खोखलेपन को राष्ट्रीय मीडिया के लिये छोड दिया जाना चाहिये लेकिन जमीन पर काम तो तभी माना जायेगा जब झारखण्ड का छात्र रांची को और ओडिसा का छात्र भुवनेशवर को भी दिल्ली जैसा मान दे और अपनी युनिवर्सिटी में भी नवीनतम मापदंड तथा श्रेष्ठतम सुविधायें हासिल करे। पटना से भाग कर दिल्ली जायेंगे और वहाँ के विश्वविद्यालय की हर शर्त पर जी हाँ कर के प्रवेश हासिल कर लेंगे तो आपका योगदान अपनी आंचलिकता के लिये क्या रहा? एक देश के मापदंड पर आंचलिकता की बात बौनी लग सकती है लेकिन यह एसा ही है जैसे सभी अपना-अपना घर साफ कर लें तो पूरा देश दमकने लगे। 

यह गलतफहमी भी दूर होनी चाहिये कि बडे शिक्षा संस्थान वास्तव में राष्ट्र निर्माण के आधारस्तंभ है। क्या देश भूल गया कि जब बस्तर में छियत्तर जवान नक्सलियों ने मार दिये थे तब नयी दिल्ली के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हर्ष प्रकट करने के लिये जाम से जाम  टकराये गये थे और इस कृत्य को बौद्धिकता और प्रगतिशीलता की चाशनी से पोता भी गया था। इन दिनो दिल्ली युनिवर्सिटी के कतिपय छात्र और अध्यापक एक दूसरे की नाक और माथा जिस तरह तोडने फोडने मे लगे हैं वह भी निंदनीय और शर्मनाक है। ये सभी कृत्य कथित रूप से देश की श्रेष्ठतम मानी जाने वाली शिक्षा संस्थाओं की एक अन्य हकीकत भी है जिस तथ्य को बहस के साथ ही रखना पडेगा। दिल्ली बहुत दूर है और यह बात इस देश को अब समझ आनी चाहिये। पहली बात तो शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूक परिवर्तन चाहिये और उसके लिये देश के शिक्षाविद एकजुट हो कर काम करें न कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी हिट एण्ड ट्रायल पॉलिसी का प्रयोग किया जाये। दूसरा यह कि वह चाहे 10+2+3 हो या 10+2+4 या कोई और फॉर्म्यूला लेकिन देश भर में एक ही तरह का मानकीकरण अवश्य होना चाहिये। फिलहाल तो एकरूपिता ही बहाल रखिये, वह दिन भी जल्दी ही आयेगा जब बस्तर का सोमारू दिल्ली के दिलबाग के साथ कंधा मिला कर खडा मिलेगा। सपना तो यही होना चाहिये बाकी सारी शिक्षा विषयक बहसें केवल हू-तूतू है। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Wednesday, June 18, 2014

बस्तर, बंदूख और इन्द्रू केवट का रास्ता


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यह मुख्यधारा किस चिडिया का नाम है और कहाँ पायी जाती है? महानगरों को भी बहुत निकटता से देखा है जहाँ हमेशा रहने वाली बिजली, जगमग सडकें, मैट्रो और बसों के कॉरीडोर उस लुभावनी दुनिया का उदाहरण बने हुए हैं जिसको कथित तरक्की का प्रतिमान माना जाता है। ऐसे में आज भी ढिबरी युग में जी रहे हमारे गाँवों को, जिन्हें नक्शों तक में जगह नहीं मिलती उनके महत्व, उनके गौरव और योगदानों को भुला दिया जाना स्वाभाविक है। ठीक है कि सिविल सर्विसेज में सफलता पाने के लिये आपका यह जानना आवश्यक है कि महात्मा गाँधी कौन थे और इन्द्रू केवट का परिचय रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसीलिये यह भी कडुवा सत्य है कि गाँधीवाद का शाब्दिक अर्थ पकड कर बैठ जाने वाली हमारी पीढी उसके मर्म तक नहीं पहुँच सकी चूंकि उसने राजनेताओं को महात्मा गाँधी की समाधी पर फूल चढाते देखा है किंतु इन्द्रू केवट के मृतक स्मारक की उपेक्षा उसे ज्ञात ही नहीं है।

कौन है इन्द्रू केवट? इस प्रश्न का उत्तर जानने की इच्छा रखने वालों से यह अपेक्षा भी अवश्य है कि क्या और कहाँ है बस्तर? लाल-आतंकवाद के साये में पिसते बस्तरिया आदिवासी, शहरी विश्वविद्यालयों में पढने-पढाने वाले कथित बुद्धिजीवियों को बंदूख से क्रांति करते प्रतीत होते हैं। उनकी फंतासियाँ इस अंचल की पीडा को शब्दों की चिपचिपी चाशनी बना देती है जिसमे रेल्वे स्टेशन पर बैठ कर अंग्रेजी उपन्यास पढने वाला युवा चिपकता जरूर है। हमारी बुद्धिजीविता वस्तुत: क्रूर राजनीतिज्ञ है और उनसे किसी भी परिस्थिति की सही विवेचना पाने की अपेक्षा रखना वृथा है। अगर ऐसा न होता तो गणपति और रमन्ना की कहानियाँ क्रांति की परिचायक नहीं बना दी गयी होतीं। फिर तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कथित बहसों में इन्द्रू केवट के उस योगदान पर भी चर्चा हो गयी होती जो एक समय बंदूख से इतर क्रांति की मशाल जलाये आदिवासी समाज को जगाने पैदल पैदल भटकता रहा करता था।

इन्द्रू केवट की कहानी वर्तमान बस्तर संभाग के उत्तरी क्षेत्र से जुडी है जो कभी कांकेर रियासत का हिस्सा हुआ करता था। अविश्वसनीय किंतु सत्य है कि दुर्गू कोंदल जैसे छोटे से गाँव के निवासी इन्द्रू केवट ने महात्मा गाँधी के सत्याग्रही मार्ग को जीवन में उतार लिया तथा वे इस आदिवासी अंचल में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के सूत्रधार बने। साधारण सी धोती और हाँथ में डण्डा यही उनका वेश और सामान था जिसके सहारे वे गाँव गाँव घूमते तथा गाँधी के आदर्शों व स्वतंत्रता की आवश्यकता जैसी बातों से ग्रामीणों को परिचित कराया करते थे। बात वर्ष-1933 की है जब महात्मा गाँधी दुर्ग आये हुए थे। उस समय यह निर्धन, आदिवासी सत्याग्रही अपनी लाठी टेकता हुआ पैदल ही निकल पडा दुर्गू कोंदल से दुर्ग तक; वह भी नंगे पाँव। आदिवासी अंचल के सत्याग्रही इन्द्रू केवट की मुलाकात जब महात्मा गाँधी से हुई और वे उनके समर्पण भाव तथा ओजस्विता को देख कर अत्यधिक प्रभावित हुए थे। गाँधी जी से हुई इस मुलाकात के बाद इन्द्रू केवट बस्तर के गाँव-गाँव घूम कर आदिवासी समाज को स्वतंत्रता के मायने समझाने लगे। 

इन्द्रू केवट के कारण ही कांकेर रियासत ने राष्ट्रीय राजनीति का अर्थ जाना और तिरंगे से परिचित हुए। वर्ष 1944-45 की बात है जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों को धन, लकडी, अनाज आदि की आवश्यकता पडी। ऐसे में बस्तर और कांकेर रियासतें मुख्य रूप से उनके द्वारा शोषित हुईं। केवल कांकेर रियासत से ही अंग्रेज उस दौरान 41242 वर्गफुट उत्तम किस्म का सागवान कटवा कर ले गये थे। इसके अलावा आदिवासी किसानों से कम दाम में खरीद करवा कर लगभग अट्ठारह हजार मन धान और पच्चीस हजार रुपये राजस्व के रूप में वसूला गया था। वर्ष 1945 में नयी भू-राजस्व वयवस्था के तहत अनेक गाँवों को जोडा गया और हंटर के बल पर किसानों से उनकी फसल छीनी जाने लगी। इन्द्रू केवट ने तब लगान मत पटाओ का नारा दिया और राजा तथा अंग्रेजों के विरोध में जुट गये। खण्डी नदी के पास पातर बगीचा में सत्याग्रहियों की पहली बैठक हुई जिसमें पहली बार चरखा युक्त झंडा प्रतीक बना। इस बैठक में लगभग डेढ हजार आदिवासी प्रतिनिधि एकत्रित हुए थे। अहिंसक आन्दोलन जोर पकडने लगा और इसमे गुलाब हल्बा, पातर हल्बा, कंगलू कुम्हार जैसे अनेक आदिवासी उनके साथ जुडने लगे। 

इस आदिवासी सत्याग्रही के गतिविधियों की जानकारी जैसे ही मिली तब अंग्रेजों का दबाव राजा पर पडा और इन्द्रू केवट की गिरफ्तारी का वारंट निकाला गया। जेल से बचने के लिये इस उन्होंने बडी ही युक्ति से काम लिया। धोती ही तो एकमात्र आवरण था उनका और बाकी शरीर पर उन्होंने ‘टोरा का तेल’ मल लिया। सिपाहियों ने उन्हे पकडा जरूर लेकिन वे फिसल कर उनकी पकड से छूट निकले और भाग गये। आन्दोलन बढा तो लगभग तीन सौ गाँवों के किसान सत्याग्रही हो गये और अब पूरी ताकत राजा को लगानी पडी जिसके पश्चात इन्द्रू केवट और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें पैदल ही रियासत की राजधानी कांकेर तक लाया गया। इन्द्रूकेवट और उनके 429 किसान साथियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। अब समय सत्याग्रह की ताकत से परिचित होने का था। गाँव गाँव से लगभग दो सौ बैलगाडियों में भर कर किसान इन्द्रू केवट और उनके साथियों को छुडाने कांकेर पहुँच गये। आन्दोलन को इस तरह फैलते देख अंग्रेज सकते में आ गये और उन्होंने आन्दोलनकारियों से समझौता कर लिया। राजद्रोह के मुकदमे वापस ले लिये गये तथा इन्द्रू केवट अपने साथियों के साथ रिहा कर दिये गये। 

इन्द्रू केवट जब तक जीवित रहे बस्तर के गाँधी बन कर स्वतंत्रता आन्दोलन को अपना बहुमूल्य योगदान देते रहे। इन्द्रू केवट के गाँव में आज भी पोते मौजूद हैं। मैं उनके घर पहुँचा तो इस बात को जान कर बहुत दु:ख हुआ कि परिजनों के पास इन्द्रू केवट का एक पेंसिल स्केच छोड कर कोई भी तस्वीर, दस्तावेज अथवा जानकारी मौजूद नहीं है। परिजनों को सरकार से मदद की अनेक अपेक्षायें हैं। गाँव की पहचान ही इन्द्रू केवट से है और इसी कारण गौरव ग्राम मानते हुए प्रवेश द्वार बनवाया जा रहा है। गाँव के बाहर नदी के किनारे इन्द्रू केवट का आदिवासी परम्परा के अनुरूप बनाया गया मृतक स्मृति स्मारक अभी ठीक ठाक हालत में नदी के किनारे अवस्थित है। 

काश कि इस मृतक स्मारक की महत्ता का अंदाजा हमारी पीढी को होता तो वे अंतर कर पाते कि क्रांति और सत्याग्रह के वास्तविक मायने क्या हैं? व्यवस्था परिवर्तन का सही रास्ता क्या है? मुद्दों और जनपक्षधरता की लडाई कैसे लडी जा सकती है तथा नक्सलवादी बंदूखें किसलिये अनुचित है। बस्तर की आत्मा और उसकी जिजीविषा को समझने के लिये इन्द्रू केवट के रास्ते से हो कर गुजरना ही होगा। 

-राजीव रंजन प्रसाद 

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Sunday, June 15, 2014

भोपालपट्टनम के विरासतों की नियति है नष्ट होना


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भोपालपट्टनम के विरासतों की नियति है नष्ट होना।
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भोपालपट्टनम का यह चहलपहल वाला क्षेत्र है। राजमहल बतायी गयी इमारत के सामने खडा हो कर लगा कि दुनिया को उलट-पुलट हो जाना चाहिये। जब हमें अपनी पहचान से, अपने अतीत और विरासत से ही लगाव नहीं तो एक बार को ही सबकुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाये, न बांसतरी में बांस रहे न बांसुरी ही बजे....। इतिहास को इस निर्ममता से ध्वस्त होते देख कर यही मेरे आरम्भिक मनोभाव थे। माना कि मैं लालकिले के सामने नहीं खड़ा था और यह किसी राजा-महाराजा का दुर्ग या भवन भी नहीं। यह भी माना कि कभी एक वन्य राज्य रहे बस्तर के गोंड जमींदार का भवन महत्व के मानक पर कभी परखा भी नहीं जायेगा किंतु यह कैसे मान सकता हूँ कि आने वाली पीढी भी अपने अतीत को हमारी तरह महत्वहीन ही मान कर चलेगी? मुख्यद्वार से भीतर प्रवेश करते हुए यह अहसास हो चला था कि भोपालपट्टनम में रियासत काल की यह निशानी निश्चित ही अत्यधिक भव्य रही होगी। इस विरासत के कर्णधारों ने क्यों इसका संरक्षण करना उचित नहीं समझा यह कहना कठिन है लेकिन इसकी महत्ता पर चर्चा की ही जा सकती है। 

भोपालपट्टनम में समृद्ध नाग कालीन विरासतें सर्वत्र बिखरी हुई हैं किंतु यहाँ का विधिवत राजनैतिक इतिहास वर्ष 1324 से प्रारंभ होता है जब वारंगल (वर्तमान तेलंगाना का हिस्सा) से चालुक्य राजकुमार अन्नमदेव तुगलकों के आक्रमण से परास्त शरणागत की तरह गोदावरी और इन्द्रावती नदी के संगम स्थल की ओर से नाग शासकों की भूमि में प्रविष्ठ हुए। एक समय समृद्ध रहा चक्रकोट अब एक सशक्त केन्द्रीय शक्ति के अभाव में इतना कमजोर हो गया था कि केवल दो सौ सैनिकों के साथ इस वन्यप्रांतर में प्रवेश करने वाले अन्नमदेव ने नागों को निर्णायक रूप से परास्त कर बस्तर राज्य की स्थापना की। कथनाशय यह है कि आज जिस भोपालपट्टनम का परिचय केवल और केवल लाल-आतंकवाद से निरूपित हो रहा है वस्तुत: यही भूमि उस राजैतिक व्यवस्था परिवर्तन की सूत्रधार रही है जिसके बाद स्थापित चालुक्य सत्ता का सम्पूर्ण बस्तर राज्य में वर्ष 1324 से वर्ष 1947 तक शासन रहा है। 

अन्नमदेव ने जब भोपालपट्टनम प्रवेश किया होगा तब यहाँ के भयावह जंगल तथा नागों से जुडे अनेक मिथकों को सुन कर उनकी क्या अवस्था हुई होगी इसे इस बात से समझा जा सकता है कि नाग शासकों के विरुद्ध अपना युद्धाभियान प्रारम्भ करने से पूर्व उन्होंने संगम स्थल पर शिवलिंग स्थापित कर विधिवत पूजा-अर्चना की और उसके बाद ही आगे का विजय अभियान आरम्भ हुआ। भोपालपट्टनम का नाग राजा कभी यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कोई गोदावरी की ओर से प्रवेश कर उसकी छोटी सी शासित परिधि में आक्रमण कर सकता है। अप्रत्याशित हमले से घबरा कर उसने भोपालपट्टनम रिक्त कर दिया और बिना लडे ही भाग खडा हुआ। यह अन्नमदेव के बस्तर विजय अभियान की पहली विजय थी जिसके लिये उन्हें रक्त की एक बूंद भी नहीं बहानी पडी। नागों की सत्ता का अंत होते ही बस्तर में सामंतवादी व्यवस्था की जडें भी गहरी हुईं तथा अन्नमदेव ने अपने विजित क्षेत्रों पर अनेक जमींदार नियुक्त किये। 

भोपालपट्टनम के पहले जमींदार थे नाहर सिंह पामभोई। यह कहा जाता है कि भोई वस्तुत: अन्नमदेव के पालकीचालक हुआ करते थे। वारंगल से भोपालपट्टनम तक के प्रयाण में भोई समुदाय ने अपने नायक अन्नमदेव की जी-जान से सहायता की। इनाम स्वरूप अपनी पहली ही जीत को अन्नमदेव ने भोई नायक नाहर सिंह पामभोई के नाम कर दिया और उन्हें जमींदार नियुक्त किया गया। भोई के पामभोई कहे जाने के पीछे भी एक रोचक कहानी है। यह जनश्रुति है कि जब अन्नमदेव गोदावरी नदी पार कर रहे थे तब अचानक हवा के तेज बबण्डर के साथ एक बडा सा अजगर प्रकट हुआ। भोई ने बडी ही बहादुरी से इस अजगर को मार दिया। यह मिथककथा भोपालपट्तनम के जमींदार के लिये गाये जाने वाले विरुद का एक अंश “गालिवीर पामभोई” से भी स्पष्ट होती है जहाँ गालि का अर्थ है हवा, वीर अर्थात साहसी, पाम का अर्थ है अजगर तथा भोई का मतलब है पालकीचालक। इस विरुद को कालांतर में बदल कर “कृष्णपामभोई” कर दिया गया था। ब्लण्ट तथा दि ब्रेट जैसे अंग्रेज विवेचनाकर्ताओं ने यहाँ के जमींदार को गोंड जाति का माना है। बस्तर के पहले इतिहासकार कहे जाने वाले केदारनाथ ठाकुर (1908) ने इन्हें भोई जाति का माना है। यह कहा जा सकता है कि गोंडों की ही उपशाखा भोई है। भोई चालुक्य शासन में कितने शक्तिशाली थे इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वर्ष 1901 तक जगदलपुर के निकट तक के अनेक गाँवों के अधिपति भोई ही थे। 

भोपालपट्टनम के राजनैतिक इतिहास और उसकी महत्ता को समझने की कोशिश किये जाने की आवश्यकता है। यदि भोपालपट्टनम का संधिविच्छेद किया जाये तो भूपाल अर्थात राजा तथा पत्तनम अर्थात बंदरगाह। इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि भूपाल (राजा) के चरण सबसे पहले इसी क्षेत्र में पडे इसीलिये भोपालपट्टनम नाम पड गया। सत्यता जो भी हो किंतु रियासतकालीन बस्तर और वर्तमान बस्तर संभाग का हिस्सा भोपालपट्टनम अभी रहस्य की चादर ओढे हुए है। 

उपलब्ध शासकीय दस्तावेजों की दृष्टि से भोपालपट्तनम को समझने की कोशिश की जाये तो जो जानकारियाँ सामने आती हैं उनके अनुसार “भोपालपट्टनम जमींदारी का कुल क्षेत्रफल 722 वर्गमील था जिसके अंतर्गत 139 गाँव थे जिसमे 14 जनशून्य थे। यहाँ की कुल जनसंख्या 9055 थी (दि ब्रेट, 1909)।” वर्ष 1918-19 में इस जमींदारी का अस्तित्व कोर्ट ऑफ वार्ड्स के आधीन था। वर्ष 1887 में हुए विद्रोह का तत्कालीन अंग्रेज शासकों के पक्ष में दमन करने में सहायता करने के कारण भोपालपट्टनम के जमींदार को मल्लमपल्ली परगना 1859 ई. मे उपहार स्वरूप दिया गया था। यद्यपि वर्ष 1908 में अंग्रेजों द्वारा प्रतिपादित नये नियम के तहत मल्लमपल्ली परगना पुन: अहीरी जमींदारी में मिला दिया गया किंतु भोपालपट्टम के जमींदार का वहाँ से भूमिकर (मालकानी) वसूलने का अधिकार बना रहा (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। जमींदारी का मुख्यालय भोपालपट्टनम नगर था जहाँ वर्ष 1908 से पूर्व ही राजमहल, अस्पताल, स्कूल, पोस्टऑफिस, पुलिस कार्यालय, इन्जीनियर कार्यालय एवं तहसील कार्यालय बनाये गये थे। भोपालपट्टनम को सडक मार्ग से जगदलपुर से जोड दिया गया था (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। वर्ष 1910 के विद्रोह (भूमकाल) के समय भोपालपट्तनम का जमींदार श्रीकृष्णा पामभोई था। अंग्रेजों का साथ देने के कारण उन्हें 1912 में जगदलपुर दशहरा दरबार में सम्मानित भी किया गया था। रिकॉर्ड बताते हैं कि जमींदार श्रीकृष्ण पामभोई के कारण जमींदारी मेनेजमेंट के तहत थी। उस दौरान 147 एकड बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया गया और 4300 रुपये तकाबी ऋण के रूप में किसानों मे वितरित किया गया (एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट 1954, अप्रकाशित)। वस्तुत: ब्रिटिश शासनकाल में भोपालपट्टनम जमींदारी नौ परगनों में विभक्त थी। इनमे से आठ माझी परगने थे और एक चालकी परगना था। भोपालपट्टनम जमींदारी का तीन चौथाई भाग जंगली और पहाड़ी था। यहाँ के जमींदार की आय का मुख्य स्त्रोत सागवान जैसी कीमती इमारती लकडिया एवं वनोपज ही थे। गोदावरी तथा इन्द्रावती नदी मार्ग से निर्यात किया जाता था। तीन नदियों (गोदावरी, इंद्रावती तथा चिंतावागु) एवं राज्यों की सीमा का संगम होने के कारण यह महत्वपूर्ण व्यापारिक एवं सामरिक महत्व का स्थल भी हुआ करता था। 

इतिहास बताता है कि अन्नमदेव ने अपने शासनकाल में बस्तर को एक रहस्यमय राज्य बना दिया था और इस तरह उसने लम्बे समय तक बाहरी राजनैतिक दखल से सुरक्षा बनाये रखी। अंग्रेज जासूस कैप्टन जे डी ब्लण्ट वर्ष 1795 में बस्तर सियासत के भीतर भोपालपट्टनम की ओर से घुसने की कोशिश मे था किंतु यहाँ के गोंड आदिवासियों ने अपने तीरों से उसके अनेक साथियो को घायल कर दिया और उसे गोदावरी के दूसरी ओर खदेड दिया था। भोपालपट्टनम में अंग्रेजों के विरुद्ध शौर्यगाथा लिखने में अनेक वीर आदिवासियों का योगदान रहा है जिसमें धुर्वाराव, यादोराव, वेंकुटराव तथा बाबूराव प्रमुख थे। यह सबकुछ अब भुला दिया गया है। 

भोपालपट्टनम नगर को यह सुध ही नहीं कि उनकी महानतम विरासत की निशानियाँ मटियामेट हो रही हैं। लम्बे समय तक रियासतकालीन राजनीति के केन्द्र मे रहा राजमहल भवन अभी पूरी तरह क्षतिग्रस्त नहीं हुआ है और यदि कोशिश की जाये तो इसे बचाया जा सकता है। भवन के भीतर के भवनों में कब्जा कर लिया गया है तथा पीछे अवस्थित मैदानों में भी लोग झोपडियाँ बना कर रहने लगे हैं। सामने की संरचना, भीतर का अहाता और उससे लग कर अनेक भवन अभी ठीक-ठाक अवस्था में हैं जबकि पिछली दीवारों पर बरगद का कब्जा है। अनेक बडे कमरे अब ईंटों का ढेर रह गये हैं। संभवत: समय की प्रतीक्षा की जा रही है जब अतीत का यह साक्ष्य धराशायी हो जाये। शायद इतिहास तो लालकिलों के ही होते हैं भोपालपट्टनम की इन विरासतों की नियति नष्ट होना ही है। 

-राजीव रंजन प्रसाद 

Wednesday, June 11, 2014

हाँ भई!! राष्ट्रीय समस्या है दिल्ली की बिजली



हाँ भई!! राष्ट्रीय समस्या है दिल्ली की बिजली 
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अभी बहुत दिन नहीं हुए, नक्सलियों ने विद्युत व्यवस्था ठप्प कर दी थी और लगभग पंद्रह दिनों तक केरल राज्य से भी बड़े बस्तर संभाग के बहुतायत क्षेत्रों में घुप्प अंधेरा हो गया था। सभी त्रस्त थे, लालटेन युग लौट आया था, लोग गर्मी की रातों में सडकों पर नींद लेने के लिये विवश थे, अस्पतालों में ऑपरेशन तक नहीं हो सके थे। ठीक इसी समय राष्ट्रीय मीडिया दिल्ली में गली मोहल्ले की लडाई को राष्ट्रीय समाचार बनाये हुए था। हम यह सोचने के लिये बाध्य थे कि क्या बस्तर भारत का ही हिस्सा है? और अगर हाँ तो यहाँ की दिक्कतें, समस्यायें और हालात राष्ट्रीय खबर क्यों नहीं बनते? दिल्ली से कैमरे तब ही बस्तर आते हैं जब उन्हें कोई सनसनीखेज खबर करनी हो। वे तब जंगल के भीतर जाते हैं, किसी नक्सली का इंटरव्यू ले आते हैं और फिर खबर बनती है कि फलाना चैनल ग्राउंड जीरो पहुँचा। क्षेत्रीय संवेदनाओं, समस्याओं और वास्तविकतओं को यह राष्ट्रीय मीडिया की श्रद्धांजलि होती है। 

आज दिल्ली में अस्थाई बिजली संकट है और कुछ इलाकों के हाल उत्तरप्रदेश के नगरों में सर्वदा रहने वाले हालात जैसे हो गये है। दिल्ली वालों को आठ से दस घंटे बिजली नहीं मिल रही यह खबर इतनी बडी है कि इसे कन्याकुमारी वाला भी झेले, कश्मीर वाला भी और बिहार के लोग भी। हाँ य़ह ठीक है कि देश की राजधानी होने का सुख दिल्ली को हमेशा मिलता रहता है और वहाँ के गली मुहल्लों की घटना भी राष्ट्रीय खबर हो जाती है। मीडिया के प्रोपागेंडा की वजह से एक बडे शहर में जिसे राज्य का दर्जा मिला है, वहाँ गाँवों जितनी बडी परिधियों वाले विधान सभाओं में बहुमत से कम सीटें हासिल करने के बाद बेमेल जोड से बनी एक सरकार की नौटंकियाँ दिन रात का राष्ट्रीय समाचार बनी रही। केजरीवाल ने क्या खाया, क्या बोला, कहाँ खांसे आदि आदि सुन कर अरुणाचल भी पकता रहा और कोच्चि भी। इस दौरान अनेक बडे बडे राज्यों मे भी नयी सरकारें आयीं, किसी ने नहीं जाना। 

यह दिल्ली का विशेषाधिकार है कि वह खुद को ही दिखाये, खुद की परेशानियों पर ही छाती पीटे, अपनी सडकों के गड्ढों को तालाब बताये, अपने बिजली संकट को अंतर्राष्ट्रीय समस्या निरूपित कर दे। यह दिल्ली के मीडिया पर है कि उसके लिये देश सिमटता सिमटता स्टूडियो के भीतर घुस आया है। उसे क्यों फिक्र हो कि आज भी देश की बहुतायत आबादी लालटेन युग में ही है। उसे क्यों फिक्र हो कि आज भी देश के बहुतायत गाँव सडकों से नहीं जुडे और बरसात आते ही देश-दुनिया से पूरी तरह कट जाते हैं। उसे क्यों फिक्र हो कि इस देश में असम, अरुणाचल, सिक्किम मणिपुर जैसे राज्य भी हैं जिनकी भौगोलिक परिधि भी दिल्ली से अधिक बडी है और समस्यायें भी अनसुनी हैं। दिल्ली ही राष्ट्र है इसलिये हम बाध्य हैं कि अरविन्दर सिंह लवली, अरविन्द केजरीवाल और हर्षवर्धन के विद्युत प्रवचनों को इनवर्टर से हासिल बिजली में भी झेलें और इसपर बहसियायें। हम भारत के लोग दिल्ली के विकास से रोमांचित हैं और दिल्ली की परेशानी से बेचैन। हमारी मजबूरी है।

-राजीव रंजन प्रसाद 

Tuesday, June 10, 2014

बस्तर - प्राचीन स्त्री राज्य की विरासत है।


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स्त्री नें हमेशा बराबरी और सम्मान की लडाई लडी है। भारत भर में एसे उदाहरण कम ही देखने को मिले हैं जहाँ उसने यह अधिकार पाया है। इस आधी आबादी के पास अगर कोई उदाहरण है तो वह पाषाणकालीन अतीत की ओर इशारा करता है जब मातृसत्तात्मक जीवन शैलियों का चलन था। प्राचीन बस्तर क्षेत्र जिसे रामायण काल में “दण्डकारण्य”, महाभारत काल में “कांतार” तथा गुप्त काल में “महाकांतार” कहा गया एक एसे इतिहास की ओर इशारा करता है जहाँ लगभग तेरहवी शताब्दी के पूर्वार्ध (1335 ई.) तक स्त्रीसत्ता का ही प्रमुखता से उल्लेख प्राप्त होता है। महाभारतकालीन वीरांगना प्रमिला से आरंभ हो कर यही विशिष्ठता नागकालीन राजकुमारी मासक देवी तक पहुँचती है; यद्यपि कालांतर में भी “रानी चो रिस (1878-1882 ई.)” जिसमें कि तत्कालीन रानी जुगराज कुँअर नें अपने ही पति राजा भैरमदेव के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन का संचालन किया था; राजमाता सुबरन कुँअर जो कि 1910 के महान भूमकाल के सूत्रधारों में थीं तथा महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी (1921-1936 ई.) जिन्होंने बैलाडिला की खदानों को निजाम के हाँथो जाने से बचाने के लिये प्राणों की आहूति दे दी जैसे उदाहरण मिलते हैं। क्या एक लम्बे समय तक युद्ध में उलझ जाने और उसके पश्चात शांतिकाल में प्राचीन दण्डकारण्य एक स्त्री-शासित प्रदेश बन गया था? इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन बस्तर में रामायणकाल को दो संस्कृतियों के संघर्ष, मैत्री तथा सम्मिश्रण का समय माना जायेगा। इसके बाद का समय अपेक्षाकृत स्थायित्व दर्शाता है; बडी सभ्यताओं नें अपनी अपनी सुविधा के क्षेत्रों पर अब तक कब्जा हासिल कर लिया है तथा प्राचीन बस्तर अंचल पुन: अपने आप में सिमटता जाता प्रतीत होता है। 

इस काल खण्ड तथा इसकी विशेषताओं पर चर्चा करने से पूर्व उन तथ्यों पर बात करते हैं जो मूल महाभारत कथा के साथ “कांतार” अर्थात प्राचीन बस्तर का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उत्तरापथ में आर्यों का समुचित विस्तार हो गया था अत: महाभारत की मूल कथा वहीं से अपना अधिक सम्बन्ध रखती है तथापि पाण्डवों के वनवास के कुछ प्रसंग कांतार की भूमि में घटित हुए प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि वर्तमान बस्तर के कई गाँवों के नाम महाभारत में वर्णित पात्रों पर आधारित हैं, उदाहरण के लिये गीदम के समीप नकुलनार, नलनार; भोपालपट्टनम के समीप अर्जुन नली, पुजारी; कांकेर के पास धर्मराज गुडी; दंतेवाड़ा में पाण्डव गुडी नामक स्थलों प्रमुख हैं। कई आदिवासी देवता भी इस कालखण्ड का पुरातत्व अपने नामों में छुपाये हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं - भीमुलदेव, पाण्डुरों, पाण्डुराजा आदि। बस्तर की परजा (घुरवा) जनजाति अपनी उत्पत्ति का सम्बन्ध पाण्डवों से जोड़ती है। बस्तर भूषण (1908) में पं केदारनाथ ठाकुर नें उसूर के पास किसी पहाड़ का उल्लेख किया है जिसमें एक सुरंग पायी गयी है। माना जाता है कि वनवास काल में पाण्डवों का यहाँ कुछ समय तक निवास रहा है। इस पहाड के उपर पाण्डवों के मंदिर हैं तथा धनुष-वाण आदि हथियार रखे हुए हैं जिनका पूजन किया जाता है। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख है कि बकासुर नाम का नरभक्षी राक्षस एकचक्रा नगरी से दो कोस की दूरी पर मंदाकिनी के किनारे वेत्रवन नामक घने जंगल की सँकरी गुफा में रहता था। वेत्रवन आज भी बकावण्ड क्षेत्र में मिलते हैं तथा यह नाम बकासुर से साम्यता दर्शाता भी प्रतीत होता है; अत: यही प्राचीन एकचक्रा नगरी अनुमानित की जा सकती है। बकासुर भीम युद्ध की कथा अत्यधिक चर्चित है जिसके अनुसार एकचक्रा नगर के लोगों नें बकासुर के प्रकोप से बचने के लिये नगर से प्रतिदिन एक व्यक्ति तथा भोजन देना निश्चित किया। जिस दिन उस गृहस्वामी की बारी आई जिनके घर पर पाण्डव वेश बदल कर माता कुंती के साथ छिपे हुए थे तब भीम नें स्वयं बकासुर का भोजन बनना स्वीकार किया। भीम-बकासुर का संग्राम हुआ अंतत: भीम नें उसे मार डाला। महाभारत में वर्णित सहदेव की दक्षिण यात्रा भी प्राचीन बस्तर से जुडती है। दो तथ्य रुचिकर लग सकते हैं पहला कि भीम शब्द का सम्बन्ध बस्तर क्षेत्र के अनेक देवताओं से जुडना सिद्ध होने के बाद भी विष्णु पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि कांतार निवासी, कौरवों की ओर से महाभारत महा-समर में सम्मिलित हुए थे। द्रौपदी के लिये सम्मान का भी जनजातियों में अभाव दिखता है विशेषरूप से दण्डामि माडिया ‘बोली’ में ‘पांचाली’ एक अपशब्द है।

कृष्ण का आगमन भी कांतार भूमि मे हुआ है। कांकेर (व धमतरी) के निकट सिहावा के सुदूर दक्षिण में मेचका (गंधमर्दन) पर्वत को मुचकुन्द ऋषि की तपस्या भूमि माना गया है। मुचकुन्द एक प्रतापी राजा माने गये हैं व उल्लेख मिलता है कि देव-असुर संग्राम में उन्होंने देवताओं की सहायता की। उन्हें समाधि निद्रा का वरदान प्राप्त हो गया अर्थात जो भी समाधि में बाधा पहुँचायेगा वह उनके नेत्रों की अग्नि से भस्म हो जायेगा। मुचकुन्द मेचका पर्वत पर एक गुफा में समाधि निन्द्रा में थे। इसी दौरान का कालयवन और कृष्ण का युद्ध चर्चित है। कृष्ण कालयवन को पीठ दिखा कर भाग खडे होते हैं जो कि उनकी योजना थी। कालयवन से बचने का स्वांग करते हुए वे उसी गुफा में प्रविष्ठ होते हैं तथा मुचकुन्द के उपर अपना पीताम्बर डाल कर छुप जाते हैं। कालयवन पीताम्बर से भ्रमित हो कर तथा कृष्ण समझ कर मुचकुन्द ऋषि के साथ धृष्टता कर बैठता है जिससे उनकी निद्राभंग हो जाती है। कालयवन भस्म हो जाता है। यही नहीं, कृष्ण के साथ बस्तर अंचल से जुडी एक अन्य प्रमुख कथा है जिसमें वे स्यमंतक मणि की तलाश में यहाँ आते हैं। ऋक्षराज से युद्ध कर वे न केवल मणि प्राप्त करते हैं अपितु उनकी पुत्री जाम्बवती से विवाह भी करते हैं। 

महाभारत में दक्षिण क्षेत्र के माल जनपद का उल्लेख मिलता है। कालिदास नें भी मेघदूत में माल क्षेत्र के भूगोल की विस्तृत व्याख्या की है जो इसे रामगिरि (ओडिशा) से उत्तर पश्चिम का क्षेत्र (कांतार) घोषित करते हैं। महाभारत में माल क्षेत्र को शाल वन से घिरा हुआ बताया गया है। इस आधार पर माल जनपद की मालदा अथवा मालवा के पठार से की जाने वाली तुलना तर्कपूर्ण नहीं प्रतीत होती व इसे कोरापुट तक विस्तृत प्राचीन बस्तर का क्षेत्र ही माना जाना चाहिये। बस्तर का वर्तमान में बहुचर्चित क्षेत्र माड़ वस्तुत: माल जनपद के अपभ्रंश के रूप में आज भी जाना जाता है एवं यहाँ के निवासी माडिया कहे जाते है। 

एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है। युधिष्ठिर नें जब अश्वमेध यज्ञ का घोडा छोडा था, तब उस घोडे की रक्षा में स्वयं अर्जुन सेना के साथ चला था। दक्षिण की ओर चलते चलते युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोडा “स्त्री राज्य” में पहुँच गया। - “उवाच ताम महावीरान वयं स्त्रीमण्डले स्थिता:” (जैमिनी पुराण)। स्त्री राज्य (कांतार) की शासिका का नाम प्रमिला था। उल्लेखों से ज्ञात होता है वह बड़ी वीरांगना थी। प्रमिला देवी के आदेश से अश्वमेध यज्ञ के घोडे को बाँध कर रख लिया गया। घोडे को छुडाने के लिये अर्जुन नें रानी प्रमिला तथा उनकी सेना से घनघोर युद्ध किया; किन्तु आश्चर्य कि अर्जुन की सेना लगातार हारती चली गयी। स्त्रियाँ युद्ध कर रही थीं इसका अर्थ यह नहीं कि वे साधन सम्पन्न नहीं थी जैमिनी पुराण से ही यह उल्लेख देखिये कि किस तरह स्त्रियाँ रथों और हाँथियों पर सवार हो कर युद्धरत थीं – “रथमारुद्य नारीणाम लक्षम च पारित: स्थितम। गजकुम्भस्थितानाम हि लक्षेणापि वृता बभौ॥“; इसके बाद युद्ध का जो वर्णन है वह प्रमिला का रणकौशल बयान करता है। प्रमिला नें अपने वाणों से अर्जुन को घायल कर दिया। अब अर्जुन नें छ: वाण छोडे जिन्हें प्रमिला नें नष्ट कर दिया। विवश हो कर अर्जुन को ‘मोहनास्त्र’ का प्रयोग करना पड़ा जिसे प्रमिला नें अपने तीन सधे हुए वाणों से काट दिया। अब प्रमिला अर्जुन को ललकारते हुए बोली – “मूर्ख! तुझे इस छोटी सी लडाई में भी दिव्यास्त्रों का अपव्यय करना पड़ गया?” – [प्रमीला मोहनास्त्रं तत सगुणम सायकैस्त्रिभि:। छित्वा प्राहार्जुनं मूढ! मोहनास्त्रम न भाति ते॥] इस उलाहने नें अर्जुन के भीतर ग्लानि भर दी। अर्जुन नें रानी प्रमिला के समक्ष विनम्रता का परिचय दिया एवं संधि कर ली। इसके बाद ही यज्ञ के घोडे को मुक्त किया गया। 

अपने आलेख का प्रारंभ मैने स्त्री अस्मिता तथा उसके प्रतिमानों के उदाहरणों के तौर पर प्राचीन बस्तर को सामने रख कर किया था। इस कथन की पुष्टि मार्कण्डेयपुराण, वात्स्यायन के कामसूत्र, वाराहमिहिर की वृहत्संहिता तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों में वर्णित उल्लेखों से भी होती है। वस्तुत: कांतार के स्त्रीराज्य होने का विवरण सर्वप्रथम महाभारत में ही मिलता है जहाँ शांति पर्व में उल्लेख है कि कलिंग के राजा की पुत्री चित्रांगदा के स्वयंवर के अवसर पर स्त्री राज्य के अधिपति सुग्गल भी आये थे - सुग्गलश्च महाराज: स्त्री राज्याधिपतिश्च य:। यह स्त्री राज्य एक बडे विमर्श की पृष्ठभूमि बनता है। कौटिल्य नें जिस तरह से कांतार में स्त्री राज्य का उल्लेख किया है उसके अनुसार यह प्रतीत होता है कि दक्षिण से उत्तर की ओर लाये जाने वाले माणिक्यों को इस राज्य से हो कर गुजरना पडता था। साथ ही इस क्षेत्र के खनिजों की जानकारी व महत्ता का विवरण भी चाणक्य उपस्थित करते हैं। महाभारत काल से आगे बढ कर नाग युग के आगमन तथा उसके बहुत बाद भी स्त्री ही सामाजिक व्यवस्था की धुरी बनी रही है। वात्स्यायन का कामसूत्र स्त्री राज्य के अंत:पुर में पुरुषों के होने की व्यवस्था का वर्णन करता हैं – ग्रामनारीविषये स्त्रीराज्ये च युवानांअंतपुरसधर्माणा एकैकस्या: परिग्रहभूता:। वस्तुत: रामायणकाल तथा महाभारत काल के उल्लेख कालांतर में घटित हुई परिस्थितियों की भूमिका बने हैं। वर्तमान समय के स्त्री विमर्श को भी पुरा अतीत की पृष्ठभूमि में ही समझना होगा तभी हम आधुनिक सामाजिक संगठनों को समझ सकते हैं।

-राजीव रंजन प्रसाद