Tuesday, September 11, 2012

ईसा-पूर्व के साम्राज्य और गौरवशाली बस्तर


सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 11.09.12 को प्रकाशित 
बौद्ध और जैन मतों का प्रादुर्भाव भारतीय समाजशास्त्र, राजनीति तथा इतिहास की दृष्टि से क्रांतिकारक रहा है। भगवान बुद्ध और महावीर दोनो ही समकालीन थे तथा इस दौर में उत्तरापथ के मगध क्षेत्र पर विशाल साम्राज्यों के निर्माण की रूप रेखा भी चल रही थी। महाकाव्यों के युग से यदि ज्ञात इतिहास का कोई अंतर्सम्बन्ध जुडता है तो उसके लिये हमें प्राचीन मगध (वर्तमान बिहार में अवस्थित) की राजधानी राजगृह तक पहुँचना होगा। 

प्राचीन भारतीय इतिहास से प्राप्त उद्धरणों के अनुसार मगध के एक साम्राज्य बनने की कथा का प्रारम्भ होता है जब कुरुवंशी राजा वसु नें इस क्षेत्र को विजित किया था। उनके निधन के पश्चात बार्हद्रथ सत्तासीन हुए जिनके नाम पर ही बार्हद्रथ वंश पडा तथा मगध की वास्तविक सत्ता और गौरव का प्रारंभिक इतिहास यही से ज्ञात होता है। जरासंध इसी वंश में उत्पन्न प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक थे एवं महाभारत कालीन इतिहास इसकी पुष्टि करता है। अंधक-वृष्णि-संघ के राजा श्रीकृष्ण नें पाण्डवों की सहायता से जरासंध का अपनी कूटनीति से वध करवा दिया था। इस राजनीतिक हत्या के बाद बार्हद्रथ वंश का विनाश होने लगा। इस वंश के अंतिम शासक थे - रिपुंजय जिनका उसके ही मंत्री पुलिक नें वध कर दिया था। पुलिक की सत्ता नें अभी पहला कदम भी नहीं रखा था कि भट्टिय नाम के महत्वाकांक्षी सामंत नें विद्रोह कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप उनके पंद्रह वर्षीय पुत्र बिम्बिसार को 543 ईसा पूर्व में सत्ता हासिल हुई। बिम्बिसार नें हर्यंक वंश की नींव रखी; वे भगवान बुद्ध के जीवन काल में मगध के शासक थे। कहते हैं उन्होंने तत्कालीन प्रचलित परिपाटी के उलट एक स्थायी सेना रखी हुई थी जिसनें उनकी शक्ति को अपराजेय बना दिया था। बिम्बिसार की आस्था भगवान बुद्ध पर थी जो उनके समकालीन भी थे तथापि उनका शासन सही मायनों में धर्मनिर्पेक्ष माना जायेगा चूंकि जैन मत के अनुसार भी उन्हें सम्मान प्राप्त है और यह भी उल्लेख मिलता है कि वे ब्राम्हणों को भूमिदान आदि भी करते रहते थे। बिम्बिसार की हत्या उनके ही पुत्र अजातशत्रु नें की तत्पश्चात राजगृह से मगध की सत्ता संभाली। अजातशत्रु भी बौद्ध और जैन धर्म का समान आदर करते थे। उन्होंने एक बौद्ध स्तूप का भी निर्माण करवाया था। उनके ही शासनकाल में प्रथम बौद्ध संगिति राजगृह के निकट सप्तपर्णी गुफा में हुई थी। अजातशत्रु की हत्या उनके पुत्र उदायिन (460 – 444 ईसा पूर्व) नें की तथा सत्ता संभाली। उदायिन नें ही राजधानी को राजगृह से गंगा तथा सोन नदी के संगमस्थल पर पाटलीपुत्र के निकट स्थानांतरित कर दिया था। 

यही वह समय भी था जब भारत की राजनीति जनपदो में बँटी हुई थी। इस काल में बाईस महाजनपदों (बौद्ध साहित्य में 16 जनपदों का उल्लेख करता है तथा जैन साहित्यों में भी 16 ही महाजनपदों का उल्लेख है। जैन ग्रंथों के उल्लेख बौद्ध ग्रंथों से बाद के हैं जिसमें दक्षिणभारत के कुछ जनपद अतिरिक्त सम्मिलित हैं। पाणिनी के अष्टाध्यायी में 22 महाजनपद बताये गये हैं।) का उल्लेख मिलता है। यदि शासन प्रणाली की बात की जाये तो बहुतायत महाजनपदों पर किसी न किसी राजा का एकतंत्रात्मक शासन था। ‘गण’ और ‘संघ’ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था। कुछ राज्यों में भूमि सहित अर्थिक स्रोतों पर ‘राजा’ और ‘गण’ सामूहिक नियंत्रण रखते थे। हर महाजनपद की राजधानी को क़िले से घेर कर सुरक्षित किया जाता था। दण्ड़कारण्य का क्षेत्र उन दिनों विंध्य पर्वत के दक्षिण में स्थित अश्मक महाजनपद (600 – 321 ईसा पूर्व) का हिस्सा था, जिसकी राजधानी पोतलि थी। बौद्ध साहित्य में इस प्रदेश का, जो गोदावरी तट पर स्थित था, कई स्थानों पर उल्लेख मिलता है। 'महागोविन्दसूत्तन्त' में  अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त का उल्लेख है। सुत्तनिपात में अस्सक को गोदावरी-तट पर बताया गया है। इसकी राजधानी पोतन, पौदन्य या पैठान (प्रतिष्ठानपुर) में थी। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में भी अश्मकों का उल्लेख किया है। बुद्ध को अपने धर्म का प्रचार करने के लिये अश्मक जनपद से सहायता मिलती रही।

मगध क्षेत्र में अगला शासन शैशुनाग वंश का था, जिसके संस्थापक शिशुनाग माने जाते हैं; इसका काल लगभग पाँचवीं से चौथी शताब्दी ई. पू. के मध्य तक का रहा है। अवंति जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, की शक्ति को तोड देना उनकी सबसे बडी उपलब्धि थी जिसके बाद बहुतायत मध्य क्षेत्र मगध का हिस्सा बने। शिशुनाग के उत्तराधिकारी कालाशोक के द्वारा कलिंग विजय का उल्लेख मिलता है तथापि दण्डक क्षेत्र के उनके आधीन होने की जानकारी नहीं मिलती। बौद्ध धर्म की दृष्टि से यह समय इस लिये भी उल्लेखनीय है क्योंकि द्वितीय बौद्ध संगति इसी काल में बुलाई गयी थी जिसमें कि वैशाली के भिक्षुओं को संघ से बहिष्कृत कर दिया गया था। शैशुनाग वंश की समाप्ति महापद्मनंद के उदित होने के साथ साथ हुई। महापद्मनंद के द्वारा अपने समकालीन जिन राज्यों पर अधिकार कर विशाल साम्राज्य का निर्माण करने का उल्लेख मिलता है उनमें इक्ष्वाकु, पांचाल, काशी, हैहय, कलिंग, अश्मक, कुरु, मैथिलि, शूरसेन तथा वीतिहोत्र राज्य प्रमुख हैं। अर्थात महापद्मनंद के आधीन वह अश्मक जनपद भी हो गया था जिसका हिस्सा प्राचीन बस्तर रहा है। आधीनस्त क्षेत्र होने के बाद भी नंदयुगीन मगध की राजनीति नें सीधे तौर पर दण्डकारण्य को प्रभावित किया हो यह उल्लेख तो नहीं मिलता तथापि बौद्ध तथा जैन दोनों ही मतो के प्रचारकों का प्रादुर्भाव दक्षिणापथ की ओर समय-समय पर होता रहा। जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण भारत तथा पश्चिम भारत में प्रसारित हुआ जहाँ ब्राम्हणवादिता की जडे तब तक मजबूत नहीं हुई थीं। जैन धर्म के दक्षिण में पुष्पित पल्लवित होने का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण समझ में आता है कि महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष पश्चात मगध में भारी सूखे की स्थिति आ गयी थी। यह अकाल लगभग बारह वर्षों तक रहा तथा इस समय बाहुभद्र के नेतृत्व में जैन सम्प्रदाय का एक धड़ा दक्षिणापथ की ओर पलायन कर गया। इसके साथ ही जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार दक्षिणी भारत के क्षेत्रों में हुआ जिसका हिस्सा दण्डकारण्य (प्राचीन बस्तर) क्षेत्र भी था। दक्षिण की ओर पलायन कर गये इसी जैन संप्रदाय को बाद में दिगम्बर भी कहा गया है जब कि अकाल के समय स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में ही रह गये जन मतावलम्बी कालांतर में श्वेताम्बर के रूप में वर्गीकृत हुए। 

महापद्मनंद के स्थापित साम्राज्य का अंतिम राजा था धनानंद जिसे चाणक्य की सहायता से पराजित कर चन्द्रगुप्त (322 - 298 ईसा पूर्व) नें मौर्य वंश की नींव रखी थी। आश्चर्य किंतु सत्य यह था कि जिस मौर्य के एकतंत्र-साम्राज्य का हिमालय से ले कर मैसूर तक विस्तार हो गया था, वह आटविक जनपद शासित दण्ड़क और कलिंग क्षेत्र नहीं हथिया सका। मौर्य कालीन प्राचीन बस्तर उस ‘आटविक जनपद’ का हिस्सा था जो स्वतंत्र शासित प्रदेश बन गया था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र “अटवि” सेना के महत्व को प्रतिपादित करता है जिससे यह पुष्टि होती है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने बस्तर क्षेत्र की जनजातियों के सम्मिलन्न से एक टुकडी का गठन कर उसे अपनी सेना का हिस्सा बनाया था। कालांतर में मौर्य शासक अशोक ने कलिंग़ (261 ईसा पूर्व) को जीतने के लिये भयानक युद्ध किया। एक लाख सैनिक मारे गये, डेढ़ लाख सैनिक कैद किये गये। कलिंग ने अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली। अशोक नें जब आक्रमण किया तो उसके प्रतिरोध में दण्डक के योद्धा भी कलिंग के समर्थन में आ गये। यद्यपि कलिंग नें तो अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली किंतु आटविक जनपद के दण्ड़क क्षेत्र पर ‘मौर्य-ध्वज’ स्वप्न ही रहा। अपनी इस विफलता को सम्राट अशोक ने स्वीकार करते हुए पत्थर पर खुदवाया – ‘अंतानं अविजितानं; आटविक जन अविजित पड़ोसी है’। इसके साथ ही अशोक नें आटविक जनता को उसकी ओर से चिंतिन न होने एवं स्वयं को स्वतंत्र समझने के निर्देश स्वयं दिये थे – “एतका वा मे इच्छा अंतेषु पापुनेयु; लाजा हर्बं इच्छति अनिविगिन हेयू; ममियाये अखसेयु च में सुखमेव च; हेयू ममते तो दु:ख”। तथापि गंभारतापूर्वक अशोक के शिलालेखों का अध्ययन करने पर मुझे यह प्रतीत होता है कि आटविक क्षेत्र की स्वतंत्रता अशोक को प्रिय नहीं रही थी साथ ही यहाँ की जनजातियों की ओर से अशोक के साम्राज्य को यदा-कदा चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा होगा। इस सम्बन्ध में अशोक का तेरहवा शिलालेख उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने स्पष्ट चेतावनी जारी की है कि अविजित आटविक जन किसी प्रकार की अराजकता करते हैं तो वह उनका समुचित उत्तर देने के लिये भी तैयार है। यह कथन इस लिये भी महत्व का है क्योंकि इससे उस सम्राट की बौखलाहट झलकती है जो विशाल साम्राज्यों को रौंद कर उनपर मौर्य ध्वज लहरा चुका था लेकिन आटविक क्षेत्र के आदिवासी जन उसकी सत्ता और आदेश की परिधि से बाहर थे। इसी शिलालेख में अशोक नें आदिम समाज को दी हुई अपनी धमकी पर धार्मिक कम्बल भी ओढाया है और वे आगे लिखवाते हैं कि “देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी वनवासी लोगों पर दयादृष्टि रखते हैं तथा उन्हें धर्म में लाने का यत्न करते हैं।“ यहाँ उल्लेख करना होगा कि मौर्ययुगीन बस्तर क्षेत्र को तब सम्यता से दूर मानना सही व्याख्या नहीं होगी। निश्चित ही सम्राट अशोक नें आटविक क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार की कोशिश की होगी तथा उनसे पूर्ववर्ती शासकों द्वारा भी एसा किया गया होगा। जनपदकाल से ले कर अशोक तक प्राचीन बस्तर में बौद्ध धर्म को ले कर भ्रम व अस्पष्टता की स्थिति होने का मूल कारण है कि इस समय तक यह धर्म अपने हीनयानी सिद्धांतों व नीतियों पर आधारित था जिसमें मूर्तिपूजा का कोई स्थान नहीं था। आज बस्तर क्षेत्र से बौद्ध धर्म तथा भगवान बुद्ध से सम्बन्धित जो भी शिल्प-अवशेष प्राप्त होते हैं वे बहुतायत अशोक एवं उसके बाद के ही हैं। यहाँ की तत्कालीन सभ्यता उच्च कोटि की रही होगी जिसका कि प्रमाण खुदाई में प्राप्त इस युग के पॉलिशयुक्त पात्रों के माध्यम से हो जाता है।     

अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य कमजोर पड़ गया था। इसका लाभ उठा कर कलिंग ने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया। कलिंग में महामेघवंश (186 – 72 ईसा पूर्व) का उदय हुआ। कलिंग के जैन राजा 'खारवेल' को आर्य महाराज, महामेघवाहन, कलिंगाधिपति, लेमराज, धर्मराज महाविजय राज आदि सम्बोधन प्राप्त थे। उसने मौर्य शासकों के ‘मगध’ को कलिंग साम्राज्य का एक प्रांत बना दिया। राजा खारवेल की आधीनता में आटविक राज्य के अधिकांश क्षेत्र आ गये थे। यह उल्लेख मिलता है कि खारवेल नें आटविक जनों की सहायता से ही पश्चिम में भोजक (विदर्भ) तथा रठिक (महाराष्ट्र) राज्यों को परास्त किया था। इस पश्चिम विजय की जानकारी खारवेल के प्रसिद्ध हाथीगुंफा अभिलेख से होती है तथा इसमें बस्तर क्षेत्र के लिये ‘अपराजेय विद्याधराधिवास’ का प्रयोग किया गया है। इसी अभिलेख से यह भी जानकारी मिलती है कि इसी विद्याधराधिवास क्षेत्र (प्राचीन बस्तर) से खारवेल नें अपने शासन के चौथे वर्ष में रत्न तथा बहुमूल्य सामग्रियाँ छीन ली थीं। यह उल्लेख तत्कालीन बस्तर के दीन हीन नहीं अपितु एक सम्पन्न क्षेत्र होने का आभास दिलाता है। महामेघवाहन-राज्य की स्थापना के साथ दण्ड़कारण्य में जैन-धर्म का भरपूर प्रचार-प्रसार हुआ। बस्तर तथा इसके निकटवर्ती ओडिशा क्षेत्रों से अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका निर्माणकाल खारवेल के शासन के समकक्ष पहुँचता है। जैपोर में एसी ही प्राप्त जैन मूर्तियों को रखा गया है जिनमें अधिकतम दिगम्बर प्रतिमायें हैं; सप्तमुखी सर्प की छाया में ध्यानस्त एक दिगम्बर जैन मूर्ति विशेष ध्यान खींचती है। एक उल्लेख (एच.टी.डब्ल्यु; 27.06.1976) अतिमहत्वपूर्ण है जिसके अनुसार बोरिगुम्मा खण्ड के निकट के गाँवों में जैन मंदिर होने के प्रमाण व अवशेष मिलते हैं जिनमें पकनीगुडा तथा कोठारगुडा प्रमुख हैं। स्थानीय आदिवासियों नें यहाँ प्राप्त जैन मूर्तियों को अपना देवता निरूपित कर पूजा आरंभ कर दी है तथा इन्न मूर्तियों के आगे पशु-बलि भी दी जाती है। जैन मतावलम्बियों के प्रभाव में बस्तर का क्षेत्र बहुत लम्बे समय तक रहा है जिसके साक्ष्य के लिये नागयुगीन बस्तर की धरण महादेवी का खुदवाया शिलालेख (1069 ई.) देखा जा सकता है जिसमें महापरिव्राजक पण्डित सोम, साधु सोमन तथा जिणग्राम आदि की चर्चा है। इन्हें अपने शासन के छठवे वर्ष में राजा खारवेल ने राज्य में करमुक्त व्यवस्था लागू कर दी थी। 

सातवाहन राजवंश (72 ईसा पूर्व से 202 ई.) का केन्द्रीय दक्षिण भारत पर अधिकार था। ईसा के जन्म से 22 वर्ष पूर्व, राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान ईसा के जन्म के 106 वर्ष बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र  आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया। सातवाहनों की पूर्णरूपेण समाप्ति 350 ई. तक हो गयी थी। सातवाहनों के प्राचीन बस्तर क्षेत्र के लिये किये गये कार्यों का अधिक उल्लेख दे पाने में इतिहास अभी भी मौन साधे हुए है। 

यह उल्लेख करना उचित होगा कि ईसापूर्व का बस्तर घने जंगलों नें तथा दुर्गमतम प्राकृतिक परिस्थितियों के बाद भी एक प्रगतिशील क्षेत्र था। तत्कालीन सभी बडे साम्राज्यों नें इस क्षेत्र पर अधिकार करने अथवा उससे समझौता कर अपने साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने को आवश्यक समझा। भगवान बुद्ध तथा महावीर के मतो का यहाँ भी समुचित प्रचार-प्रसार हुआ। ये उदाहरण यह भी विचार प्रस्तुत करते हैं कि ईसापूर्व में जब प्राचीन बस्तर क्षेत्र प्रगति तथा गौरव का इतिहास रच रहा था वह अचानक गुमनामी के अंधेरे में कैसे गुम हो गया? इसके लिये इतिहास के आगे के पन्ने पलटने होंगे। 

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Thursday, September 06, 2012

राजेन्द्र यादव के हंस-महल में बस्तर के युवा कहानीकार तरुण भटनागर की सेंधमारी


राजेन्द्र यादव के उस दुस्साहस की सराहना अवश्य करूंगा जहाँ उन्होंने युवा कथाकार तरुण भटनागर के साथ हुए अपने संवादों के पत्र ‘हंस के सितम्बर-2012 अंक’ का सम्पादकीय बना कर प्रस्तुत किये हैं। राजेन्द्र यादव बेनकाब हुए हैं और तरुण ने निर्भीक और गैर-समझौतावादी लेखन की अद्वितीय परिभाषा गढी है। 

पहले चर्चा हंस में ही प्रकाशित तरुण भटनागर की कहानी “चाँद चाहता था कि धरती रुक जाये” की करते हैं। यह बस्तर के परिवेश पर केन्द्रित एक गैर राजनीतिक कहानी है; आदि से अंत तक इसमें अगर कुछ है तो उस समाज की पीडा है जिससे उसकी परम्पराओं-मान्यताओं, जीने के तरीकों और मुस्कुराहटों को संगीनों की नोक पर छीन लिया गया है। तरुण अबूझमाड़ी मिथक-कथाओं से अंधेरे का समाजशास्त्र गढ़ते हुए अपनी कहानी का प्रारंभ करते हैं। वे बस्तर के अंधेरे को दिल्ली के एक प्रतिष्ठित विद्यालय के एंथ्रोपोलोजी विभाग के किसी रटंत छात्र की कॉपी तक खीँच कर लाये हैं जिसके भीतर उन्होंने घोटुल का पूरा चित्र बनाया है। जहाँ आवश्यक हुआ तरुण समाजशास्त्र से काव्यशास्त्र की ओर भी बढे हैं और अपनी बात किसी कविता की तरह कहते प्रतीत होते हैं “....मैंने एक बार उन्हें बेतरह देखा था और बाद में दुनिया घूमते हुए बहुत सी जगह उन्हें तलाशता रहा, रियो-डी-जेनिरो के समुद्री किनारों से ले कर यूरोप के मादक स्ट्रिपटीज तक। एसी फड़फडाती देहें कहीं और देखने को नहीं मिली फिर। मिट्टी और अंधेरे की देह। सूत दर सूत तराशी गयी देह, जिसका जरा सा भी माँस इधर से उधर हो कर दैवीय रेखाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता”। इसके बाद कहानी उन बाहरी आदमियों की तरफ बढ़ती है जो क्रांति करने अबूझमाड में घुस आये हैं। निश्चित ही ‘बाहरी आदमी’ एक व्यापक शब्द है तथा साफगोई से लिखा गया। नये लेखकों को छद्म प्रगतिशीलता के प्रतिमानों को तोडना आना ही चाहिये अगर वे स्पष्ट नहीं लेखेंगे तो समकालीन कही जाने वाली उसी तालाब की मछली बन कर रह जायेंगे जहाँ पानी भी सडा हुआ है और खाने के लिये भी एक मछली के पास विकल्प दूसरी मछली ही है। तरुण सीधे सीधे लिखते हैं “बाहरी आदमी पिछले बीस सालों से यही सब इन लोगों को समझा रहा है। पर लोग समझ नहीं पा रहे हैं। उसकी बात एक अजीब सी बात पर पहुँचकर खत्म होती है”। कुछ और उद्धरण देखिये “तुम....(उसने एक भद्दी सी गाली दी) शताब्दियों से एक-सा काम करते आए हो, तुम क्या समझोगे विचार। जब कुछ नया करने का जतन जी नहीं, सलीका ही नहीं तो तुम...(उसने फिर एक भद्दी सी गाली दी) खाक समझोगे इसे”। कहानी पढ़ते हुए जिस अंश पर बाध्य हो कर मुझे रुकना पडा वह उस पीडा का प्रस्तुतिकरण थी जहाँ थमायी गयी बंदूख को ले कर आम आदिवासी की मन: स्थिति सामने आती है। कहानी का अंश देखें - “’किसको मारना है?’ उसको इस तरह से पूछना बड़ा अजीब लगा। जब मारने की वजह न हो तो यह कितना तो अजीब होता है। कितना कितना तो आत्मग्लान। कितना तो पीड़ित। ‘अबे मारना नहीं है। क्रांति क्रांति’....क्रांति फिर अबूझ शब्द”। तरुण ने घोटुल को माओवादियों द्वारा बंद कराये जाने की कोशिशों का आदिवासियों द्वारा किये गये प्रतिरोध और फिर उन पर की गयी जबरदस्ती का साफगोई से वर्णन किया है “लडके चले गये। जब लौटे तो उनके हाँथ में वे चार बंदूखें थी, जो उस आदमी ने उन्हें दी थी। आदमी खडा था। वे चारो आदमी के पास आये और उनके सामने वे बंदूकें जमीन पर पटक दी। आदमी उन सभी पर लाल पीला होता वहाँ से चला गया। कह गया कि अबकी बार  आएगा उसके साथ और भी साथी होंगे और तब कोई भी हथियार नहीं पटकेगा। तब सबको मानना पडेगा कि घोटुल निरर्थक है। घोटुल को बंद करना समतामूलक समाज के लिये निहायत ही जरूरी है”। तरुण जब जब एंथ्रोपोलॉजी का जिक्र करते हैं उनकी भाषा कटाक्षपूर्ण प्रतीत होती है, वे संभवत: जान बूझकर वहाँ अंग्रेजी के संवाद गढ़ते हैं। इसके साथ ही जंगल के समाजशास्त्र की अनुपम बानगी भी प्रस्तुत करते हैं जो किसी भी वैज्ञानिक विश्लेषण से परे है, जिसे कोई रटंत-विद्या आत्मसात नहीं कर सकती। घोटुल में जीवन साथी के चयन को ले कर आदिवासी कन्या के पास अपना स्त्रीविमर्श उपलब्ध है, अपना नैसर्गिक अधिकार “उसे नाज़ है, वह लडकी है। उसे नाज है कि सिर्फ वही तय कर सकती है। उसके भीतर से हूक उठेगी और वह नाम, वह देह, वह आत्मा उसकी हो जायेगी। उसे उसकी होना पडेगा। लडकी का तय किया जंगल का उसूल”। कहानी उस भय की सत्ता का भाग बनती है जहाँ - ”बुजुर्ग ने वादा किया कि आग अब कभी नहीं जलेगी। रात को घोटुल के सामने अँधेरे, वीराने और सन्नाटे की जिम्मेदारी उसे लेनी पडी....फिर भी घोटुल एकदम से वीरान नहीं हो पाया था। वे लोग रात को वहाँ आ जाते। आग नहीं जलती थी। शराब के मिट्टी के पात्र तोड डाले गये थे। वाद्य यंत्र जला दिये गये थे। कुछ लोग बायसन के हॉर्न और कौड़ियाँ बचा लाए थे। उन्हें उन्होंने इन आदिम झोंपडियों में छिपा लिया था, जिन्हें बरसों पहले उन्होंने छोडा था।” मैने जब कहानी पहली बार पढी तो इसके अंत तक पहुँचते पहुँचते मेरी आँख नम हो गयी। शायद इसलिये कि बस्तर को जीने और देखने का सौभाग्य मिला है मुझे। अनेक जीवंत कहानियाँ मैने अपने आदिवासी साथियों से सुनी हैं व उन आदिम सांस्कृतिक-सामुदायिक स्थलों को देखा है जिसे कभी घोटुल कहते थे। मर्मस्पर्शी शब्दों में तरुण ने वह सब लिखा है कि बस्तर को देखने जानने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भीतर की सिसक जाग उठेगी “कहते हैं बस्तर के कुछ युवा आज भी जाने किस उम्मीद में रात के जंगल में किसी रिक्त स्थान पर इकट्ठा होना चाहते हैं। जाने क्यों चाँद आज भी मुँह फेरने से पहले उस अंधेरी जगह को ताकता है। जाने क्यों तो....घोटुल की जगह अब बंदूख थी। उन्माद और प्यार की जगह गुस्सा था। जंगल ने कभी किसी लडकी को रात को उस अंधेरी खाली जगह पर सिसकते सुना था। धडकनों की जगह अब एक शुष्क सी आग थी। वे कई दिनों तक जलते रहे। फिर एक दिन सबसे पहले एक युवा सामने आया। उसने बंदूख अपने हाथ में उठा ली और उस बाहरी आदमी से कहा – बताओ किसको मारना है”। दिल्ली विश्वविद्यालय के एंथ्रोपोलॉजी की कक्षा के उस विद्यार्थी से कहानी का उपसंहार गढा गया है जिसकी चर्चा से कहानी की भूमिका आरंभ हुई थी। वह बस्तर में बड़ा अधिकारी हो कर आया है तथा घोटुल बंद हो जाने की खबरों को अपनी किताबी ज्ञान से मूल्यांकित कर इन्हे बचाने की योजना बनाता है। हथियार को खदेडने के लिये हथियार की सोच के साथ उसकी योजना खत्म होती है; वह सोच जो अपनी की तरह के एंथ्रोपोलॉजिकल अध्ययन ने उसे थमाई है। तरुण कहानी के अंत में लिखते हैं “जंगल में घात लग चुकी है। जंगल की घात संसार की एकमात्र घात है, जो टूटती नहीं, जो बडे इत्मीनान से बीत जाने देती हैं शताब्दियाँ”। 

तरुण की कहानी नितांत सफल कही जायेगी चूंकि राजेन्द्र यादव जैसे पुराने मठाधीश अपने पत्र में इतने तिलमिलाये प्रतीत होते हैं कि कहानी को खारिज करने के लिये उन्हें झूठ का सहारा लेना पडता है। हंस पत्रिका के सम्पादक राजेन्द्र यादव कहानी को अस्वीकृत करने का कारण बताते हुए पहले पत्र में कहानी का सार लिखते हैं -  “कुछ मेधावी विद्यार्थी मार्क्सवाद का सहारा ले कर उन्हें लडाकू ही नहीं बनाना चाहते, इस घोटुल संस्कृति को समाप्त भी कर देना चाहते हैं। वे आदिवासी युवाओं को बंदूख थाम कर लडने के लिये उकसाते हैं”। पहली बात कि “मेधावी छात्र” राजेन्द्र जी का अपना जुमला है क्योंकि लेखक ने “बाहरी व्यक्ति” शब्द का पूरी कहानी में इस्तेमाल किया है। मेधावी छात्र का इशारा अगर कहीं इस कहानी से मिलता है वह दिल्ली विश्वविद्यालय के उस एंथ्रोपोलोजी के छात्र के लिये व्यंग्य रूप में दिखाई पडता है जो बाद में बस्तर में अधिकारी बन कर आता है तथा अपनी ही तरह से स्थिति की व्याख्या करता है एवं निर्णय लेता है। अब जब कहानी के मूल तत्व में दिक्कत नहीं तो यह खारिज क्यों की जा रही थी। इसे राजेन्द्र जी तर्कपूर्वक कहते हैं कि “यह नहीं बताया गया है कि जिनके खिलाफ वे आदिवासियों को लामबंद कर रहे हैं, वे कौन हैं? बडे कॉरपोरेट संस्थान, जो सरकारों को खरीद रहे हैं, जमीन की खुदाई कर के हजारो करोड के प्लेटिनम, सोना, चाँदी लाद कर विदेशों मे पहुँचा रहे हैं, जंगलों को काट रहे हैं, पानी पर एकाधिकार किये हुए है – वे आदिवासियों को ही खत्म कर देना चाहते हैं”। राजेन्द्र जी का यह तर्क हो सकता है कि आन्द्रप्रदेश, बंगाल या झारखण्ड के विषय में सही हो लेकिन सपाट टिप्पणियों से पहले बस्तर को उन्हें जानना-पढ़ना पडेगा। पहली बात कि बस्तर में राजेन्द्र जी के ये “मेधावी” छात्र आन्ध्रप्रदेश के मुलुगु जंगलों के आदिवासियों द्वारा अस्वीकृत हो जाने की अपनी असफलताओं के कारण 80 के दशक में प्रविष्ठ हुए और इस लिये भी कि महाराष्ट्र, ओडिशा तथा आन्ध्र से सीमायें मिलल्ने के कारण अबूझमाड की स्वर्गतुल्य धरती बेहतर पनाहगार बन सकती थी। इस दौर तथा इसके बाद भी साधारण आन्दोलनों के बाद ही बस्तर की बोधघाट तथा मावली भाटा जैसी परियोजनाओं पर ताले लग गये। वर्तमान में भी बैलाडिला को छोड कर कोई अन्य खदान बस्तर के सात जिलों की परिधि में नही है। अब कुछ घोषित स्टील निर्माण की परियोजनायें अवश्य है जिनपर विवाद और संघर्ष जारी है किंतु इन सबसे माओवाद का कोई लेनादेना नही है। साठ और सत्तर के दशक में एक बड़ा आन्दोलन कर चुकी बस्तर की आदिवासी जनता को “तथाकथित मेधावियों” द्वारा जागरूक करने की बात हास्यास्पद है। माओवादी उस बस्तर को क्या संगठित करेंगे जो अनेको बार केवल घुमाई जाने वाली आम की डाल या मिर्च से ही एकत्रित और आन्दोलित हो उठा था। इन मेधावियों ने केवल स्थापित जनजातीय संतुलन को ध्वस्त किया है और परम्पाराओं का लहू ठीक उसी तरह सोखा है जैसा कि तरुण की कहानी में कहा गया है। बस्तरिये चिर-आन्दोलनकारी हैं; अतीत के अन्य ग्यारह सशस्त्र विद्रोह और उनके कारणों वाले इतिहास के पन्नों को उलटिये; जब-जब खुद उठ खडे हुए, बदलाव आया है। पनाहगार हमेशा बाहरी व्यक्ति होता है अत: तर्क, तरुण की सोच के अधिक करीब पहुँचता है। कहानी में अबूझमाड में वैचारिक आन्दोलन के कारण वहाँ के समाजशास्त्र पर हुए बदलावों की विवेचना मात्र है जिसमें कहीं भी लेखक किसी धारा-विचारधारा की आड लेता नहीं दिखता लेकिन सम्पादक का विरोध शायद इसी बात को ले कर है? तरुण का राजेन्द्र यादव को दिया गया तर्क बस्तर-विमर्श की नयी अंतर्दृष्टि देता है – “लोग दुनिया को दो तरह की धारणाओं से ही समझते हैं या समझना चाहते हैं – पूंजीवाद और मार्क्सवाद, पर जनजातीय समाज के मामले में एक और बात है जो इन दोनो के दायरे में नहीं आती। ये दोनो विचार पूँजी से उत्पन्न विचार हैं। अगर संसार में पूँजी न होती तो मार्क्स की दरकार नहीं होती। पर उस समाज का क्या जिसमें पूँजी की दरकार ही न हो? या जिसकी उत्पत्ति होने और चरित्र में पूँजी का होना न हो?” तरुण ने आगे लिखा है “जनजातीय समाज में आज जो अन्याय, अत्याचार हमे दिखता है, वह एक पूँजीविहीन समाज को पूँजी के दो विपरीत विचारों में घसीटने की त्रासदी है”। राजेन्द्र यादव ने पहले पत्र में लिखा है कि “कहानी बहुत इकहरा और घातक संदेश देती है। आपने अरुन्धति राय, गौतम नवलखा और डॉ. विनायक सेन के लेख पढे होंगे?” यह पढ़ कर समझ नहीं आता कि सिर पीटा जाये या बस हँस कर रह जाये? ये लिये गये नाम इकहरे हैं और एक ही विचारधारा के द्योतक हैं जो स्वयं राजेन्द्र यादव की भी है। राजेन्द्र जी उस दकियानूसियत के शिकार हैं जहाँ “बौद्धिक अंधविश्वास” जमीनी हकीकत से रूबरू ही नहीं होने देता। बस्तर पर कई लेखकों के उद्धरण लिये जा सकते हैं लेकिन मैं एक निर्विवाद नाम लेता हूँ जो बस्तर की आत्मा लाला जगदलपुरी का है (पता नहीं राजेन्द्र जी नाम भी जानते हैं या नहीं?)। माओवादी गतिविधियो पर उनकी यह पंक्ति निचोड है कि “यदि नक्सली भी मनुष्य हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग अपनाना चाहिये”। इस मनुष्यता शब्द का दायरा बड़ा किया जाना चाहिये और इसमें लाल-हत्या के अंध-समर्थकों को भी शामिल किये जाने की आवश्यकता है। ‘सरकारी’, ‘सत्ता’ ‘विश्वरंजन जैसों की निगाह’ आदि लिख कर राजेन्द्र यादव ने एक साहित्यकार की नहीं एक राजनीतिक की भाषा प्रयोग की है तथा उनकी इच्छा थी कि तरुण की अभिव्यक्ति को मार डाला जाये। यह तो लेखक का दुस्साहस कहिये कि ‘हंस में छपने के सार्टिफिकेट’ का मोह त्याग कर तरुण केवल सच्चे तर्क; हिम्मत के साथ रखते रहे। हंस का यह अंक जिसके पिछले पन्ने पर पूरे एक पेज में मध्य-प्रदेश की भाजपा सरकार का विज्ञापन छपा है उसका सम्पादक अपने लेखक को सरकारी प्रवृत्ति, सरकारी दृष्टि, सरकारी मदद आदि जुमलों से डराये तो थोथा लगता है। तरुण ने राजेन्द्र यादव को जो पैना जवाब दिया है मैं उसका कायल हो गया – “शब्द हमारी सबसे क्रूर इजादों में से एक हैं शायद। गाँधी ने इस पर लिखा है। उन्होंने इसे वाक् हिंसा कहा; शब्द जो हिंसक हो कर अपराध करते हैं। शब्द जो हिंसा तक कर सकते हैं”। अपने दूसरे पत्र में राजेन्द्र यादव ने कहानी को “मान कर लिखा गया” का आरोप लगाते हुए सवाल उठाया है कि ”उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिये क्या हम उन्हें वैसा ही छोड दे, जैसा वे हजारों सालों से हैं? या क्या उन्हें शेर चीतों की तरह उनके स्वाभाविक जीवन और परिवेश में सुरक्षित और संरक्षित रख कर दूर से ही पर्यटकों को इन अभयारण्यों में उनके दर्शन का तमाशा बनाये रखना बहुत मानवीय है?“ वे आगे लिखते हैं कि “आपने जवाब नहीं दिया कि क्यों अच्छे खासे ब्रिलियेंट नौजवान अपनी जान की बाजी लगा कर उन्हें अपने आधिकारों के प्रति जागरूक कर रहे हैं?” राजेन्द्र जी ने इस पत्र में बस्तर के बारे में बोलने के लिये कुछ लोगों को ही ऑथेंटिक मान कर उन का नाम बार-बार लिया है और तरेर पर प्रश्न लपेट कर तरुण को मारा है कि इन समाजसेवियों की यात्राओं/लेखों के जिक्र पर आप क्यों चुप है? राजेन्द्र जी मुझे लगता है कि या तो आपने कहानी ठीक से नहीं पढी या बस्तर के बारे में कुछ नहीं जानते। यह ब्रम्हदेव शर्मा ही थे जो आपकी सवाल वाली सूची में भी शामिल हैं, जिन्होंने 70 के दशक में बिलकुल उसी तरह एक्ट किया जैसा तरुण की कहानी का “मेधावी प्रशासक” अपनी समझ आदिम समाज पर आरोपित करने के यत्न में करता है। आदिवासियों को संरक्षित क्यों रखा जाये, क्यों वहाँ सडकें न बने, स्कूल तोड दिये जायें, नहरें न हों आदि आदि ब्रम्हदेव शर्मा से पूछिये क्योंकि अबूझमाड को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने का विचार उनका ही था। इसका पालन इतनी कडाई से करवाया गया कि वहाँ जाने के लिये कलेक्ट्रेट से अनुमति लेनी पडती थी। आखिरकार मुख्यधारा से काट कर यह क्षेत्र राजेन्द्र जी के “मेधावियों” का स्वर्ग बना दिया गया। 

कहानी कहीं भी ‘एसा होना चाहिये’ या ‘एसा नहीं किया जाये’ आदि नहीं कहती। तरुण भटनागर की कहानी घटनाओं का भावुक प्रस्तुतिकरण है जो पाठकों को वस्तुस्थिति समझने का दृष्टिकोण प्रदान करती है। इस कहानी से आरंभ कर आप चाहे अरुन्धति को पढे या गौतम को किसने रोका है? क्यों एक लेखक कहानी को वैसे ही लिखे जैसा कि परिपाटी है या जैसा सम्पादक चाहता है। खारिज कीजिये लेकिन जायज कारणों पर; अन्यथा पत्रिकाओं को यह साफ-साफ लिखना चाहिये कि वे “वाम राजनीतिक विचारधारा की प्रचार पुस्तिकायें” हैं, इससे निर्पेक्ष लेखकों को सुविधा रहेगी कि वे अपनी रचनाओ को कहाँ भेजें। दूसरी बात राजेन्द्र जी ये सरकारी, संघी, सत्ता-वत्ता वाली गालियाँ देने की बजाय प्रस्तुत कथानकों पर अच्छी चर्चायें तो तो बेहतर रहेगा अन्यथा पत्रिकाओं की हालत आप जाते ही हैं। यह एसी ही वृत्तियों का नतीजा है कि पाठक प्रकाशित एकमत – एकसुर और एकनिश्कर्ष से उकता गया है। यह हिन्दी, सम्पादकों की ही मारी बिचारी है। अंत में इस बात के लिये राजेन्द्र यादव की सराहना करूंगा कि उन्होंने तरुण के साथ अपने पत्राचार को प्रकाशित किया और उनकी कहानी भी छाप दी। क्या तरुण से पत्रोत्तर पाने के बाद कहानी से ‘सरकारी’ होने का दाग धुल गया था अथवा हंस के सम्पादक की आँखें खुल गयी थीं; यह स्पष्ट नहीं हो पाया है। 

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