सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 11.09.12 को प्रकाशित |
बौद्ध और जैन मतों का प्रादुर्भाव भारतीय समाजशास्त्र, राजनीति तथा इतिहास की दृष्टि से क्रांतिकारक रहा है। भगवान बुद्ध और महावीर दोनो ही समकालीन थे तथा इस दौर में उत्तरापथ के मगध क्षेत्र पर विशाल साम्राज्यों के निर्माण की रूप रेखा भी चल रही थी। महाकाव्यों के युग से यदि ज्ञात इतिहास का कोई अंतर्सम्बन्ध जुडता है तो उसके लिये हमें प्राचीन मगध (वर्तमान बिहार में अवस्थित) की राजधानी राजगृह तक पहुँचना होगा।
प्राचीन भारतीय इतिहास से प्राप्त उद्धरणों के अनुसार मगध के एक साम्राज्य बनने की कथा का प्रारम्भ होता है जब कुरुवंशी राजा वसु नें इस क्षेत्र को विजित किया था। उनके निधन के पश्चात बार्हद्रथ सत्तासीन हुए जिनके नाम पर ही बार्हद्रथ वंश पडा तथा मगध की वास्तविक सत्ता और गौरव का प्रारंभिक इतिहास यही से ज्ञात होता है। जरासंध इसी वंश में उत्पन्न प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक थे एवं महाभारत कालीन इतिहास इसकी पुष्टि करता है। अंधक-वृष्णि-संघ के राजा श्रीकृष्ण नें पाण्डवों की सहायता से जरासंध का अपनी कूटनीति से वध करवा दिया था। इस राजनीतिक हत्या के बाद बार्हद्रथ वंश का विनाश होने लगा। इस वंश के अंतिम शासक थे - रिपुंजय जिनका उसके ही मंत्री पुलिक नें वध कर दिया था। पुलिक की सत्ता नें अभी पहला कदम भी नहीं रखा था कि भट्टिय नाम के महत्वाकांक्षी सामंत नें विद्रोह कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप उनके पंद्रह वर्षीय पुत्र बिम्बिसार को 543 ईसा पूर्व में सत्ता हासिल हुई। बिम्बिसार नें हर्यंक वंश की नींव रखी; वे भगवान बुद्ध के जीवन काल में मगध के शासक थे। कहते हैं उन्होंने तत्कालीन प्रचलित परिपाटी के उलट एक स्थायी सेना रखी हुई थी जिसनें उनकी शक्ति को अपराजेय बना दिया था। बिम्बिसार की आस्था भगवान बुद्ध पर थी जो उनके समकालीन भी थे तथापि उनका शासन सही मायनों में धर्मनिर्पेक्ष माना जायेगा चूंकि जैन मत के अनुसार भी उन्हें सम्मान प्राप्त है और यह भी उल्लेख मिलता है कि वे ब्राम्हणों को भूमिदान आदि भी करते रहते थे। बिम्बिसार की हत्या उनके ही पुत्र अजातशत्रु नें की तत्पश्चात राजगृह से मगध की सत्ता संभाली। अजातशत्रु भी बौद्ध और जैन धर्म का समान आदर करते थे। उन्होंने एक बौद्ध स्तूप का भी निर्माण करवाया था। उनके ही शासनकाल में प्रथम बौद्ध संगिति राजगृह के निकट सप्तपर्णी गुफा में हुई थी। अजातशत्रु की हत्या उनके पुत्र उदायिन (460 – 444 ईसा पूर्व) नें की तथा सत्ता संभाली। उदायिन नें ही राजधानी को राजगृह से गंगा तथा सोन नदी के संगमस्थल पर पाटलीपुत्र के निकट स्थानांतरित कर दिया था।
यही वह समय भी था जब भारत की राजनीति जनपदो में बँटी हुई थी। इस काल में बाईस महाजनपदों (बौद्ध साहित्य में 16 जनपदों का उल्लेख करता है तथा जैन साहित्यों में भी 16 ही महाजनपदों का उल्लेख है। जैन ग्रंथों के उल्लेख बौद्ध ग्रंथों से बाद के हैं जिसमें दक्षिणभारत के कुछ जनपद अतिरिक्त सम्मिलित हैं। पाणिनी के अष्टाध्यायी में 22 महाजनपद बताये गये हैं।) का उल्लेख मिलता है। यदि शासन प्रणाली की बात की जाये तो बहुतायत महाजनपदों पर किसी न किसी राजा का एकतंत्रात्मक शासन था। ‘गण’ और ‘संघ’ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था। कुछ राज्यों में भूमि सहित अर्थिक स्रोतों पर ‘राजा’ और ‘गण’ सामूहिक नियंत्रण रखते थे। हर महाजनपद की राजधानी को क़िले से घेर कर सुरक्षित किया जाता था। दण्ड़कारण्य का क्षेत्र उन दिनों विंध्य पर्वत के दक्षिण में स्थित अश्मक महाजनपद (600 – 321 ईसा पूर्व) का हिस्सा था, जिसकी राजधानी पोतलि थी। बौद्ध साहित्य में इस प्रदेश का, जो गोदावरी तट पर स्थित था, कई स्थानों पर उल्लेख मिलता है। 'महागोविन्दसूत्तन्त' में अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त का उल्लेख है। सुत्तनिपात में अस्सक को गोदावरी-तट पर बताया गया है। इसकी राजधानी पोतन, पौदन्य या पैठान (प्रतिष्ठानपुर) में थी। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में भी अश्मकों का उल्लेख किया है। बुद्ध को अपने धर्म का प्रचार करने के लिये अश्मक जनपद से सहायता मिलती रही।
मगध क्षेत्र में अगला शासन शैशुनाग वंश का था, जिसके संस्थापक शिशुनाग माने जाते हैं; इसका काल लगभग पाँचवीं से चौथी शताब्दी ई. पू. के मध्य तक का रहा है। अवंति जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, की शक्ति को तोड देना उनकी सबसे बडी उपलब्धि थी जिसके बाद बहुतायत मध्य क्षेत्र मगध का हिस्सा बने। शिशुनाग के उत्तराधिकारी कालाशोक के द्वारा कलिंग विजय का उल्लेख मिलता है तथापि दण्डक क्षेत्र के उनके आधीन होने की जानकारी नहीं मिलती। बौद्ध धर्म की दृष्टि से यह समय इस लिये भी उल्लेखनीय है क्योंकि द्वितीय बौद्ध संगति इसी काल में बुलाई गयी थी जिसमें कि वैशाली के भिक्षुओं को संघ से बहिष्कृत कर दिया गया था। शैशुनाग वंश की समाप्ति महापद्मनंद के उदित होने के साथ साथ हुई। महापद्मनंद के द्वारा अपने समकालीन जिन राज्यों पर अधिकार कर विशाल साम्राज्य का निर्माण करने का उल्लेख मिलता है उनमें इक्ष्वाकु, पांचाल, काशी, हैहय, कलिंग, अश्मक, कुरु, मैथिलि, शूरसेन तथा वीतिहोत्र राज्य प्रमुख हैं। अर्थात महापद्मनंद के आधीन वह अश्मक जनपद भी हो गया था जिसका हिस्सा प्राचीन बस्तर रहा है। आधीनस्त क्षेत्र होने के बाद भी नंदयुगीन मगध की राजनीति नें सीधे तौर पर दण्डकारण्य को प्रभावित किया हो यह उल्लेख तो नहीं मिलता तथापि बौद्ध तथा जैन दोनों ही मतो के प्रचारकों का प्रादुर्भाव दक्षिणापथ की ओर समय-समय पर होता रहा। जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण भारत तथा पश्चिम भारत में प्रसारित हुआ जहाँ ब्राम्हणवादिता की जडे तब तक मजबूत नहीं हुई थीं। जैन धर्म के दक्षिण में पुष्पित पल्लवित होने का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण समझ में आता है कि महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष पश्चात मगध में भारी सूखे की स्थिति आ गयी थी। यह अकाल लगभग बारह वर्षों तक रहा तथा इस समय बाहुभद्र के नेतृत्व में जैन सम्प्रदाय का एक धड़ा दक्षिणापथ की ओर पलायन कर गया। इसके साथ ही जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार दक्षिणी भारत के क्षेत्रों में हुआ जिसका हिस्सा दण्डकारण्य (प्राचीन बस्तर) क्षेत्र भी था। दक्षिण की ओर पलायन कर गये इसी जैन संप्रदाय को बाद में दिगम्बर भी कहा गया है जब कि अकाल के समय स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में ही रह गये जन मतावलम्बी कालांतर में श्वेताम्बर के रूप में वर्गीकृत हुए।
महापद्मनंद के स्थापित साम्राज्य का अंतिम राजा था धनानंद जिसे चाणक्य की सहायता से पराजित कर चन्द्रगुप्त (322 - 298 ईसा पूर्व) नें मौर्य वंश की नींव रखी थी। आश्चर्य किंतु सत्य यह था कि जिस मौर्य के एकतंत्र-साम्राज्य का हिमालय से ले कर मैसूर तक विस्तार हो गया था, वह आटविक जनपद शासित दण्ड़क और कलिंग क्षेत्र नहीं हथिया सका। मौर्य कालीन प्राचीन बस्तर उस ‘आटविक जनपद’ का हिस्सा था जो स्वतंत्र शासित प्रदेश बन गया था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र “अटवि” सेना के महत्व को प्रतिपादित करता है जिससे यह पुष्टि होती है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने बस्तर क्षेत्र की जनजातियों के सम्मिलन्न से एक टुकडी का गठन कर उसे अपनी सेना का हिस्सा बनाया था। कालांतर में मौर्य शासक अशोक ने कलिंग़ (261 ईसा पूर्व) को जीतने के लिये भयानक युद्ध किया। एक लाख सैनिक मारे गये, डेढ़ लाख सैनिक कैद किये गये। कलिंग ने अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली। अशोक नें जब आक्रमण किया तो उसके प्रतिरोध में दण्डक के योद्धा भी कलिंग के समर्थन में आ गये। यद्यपि कलिंग नें तो अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली किंतु आटविक जनपद के दण्ड़क क्षेत्र पर ‘मौर्य-ध्वज’ स्वप्न ही रहा। अपनी इस विफलता को सम्राट अशोक ने स्वीकार करते हुए पत्थर पर खुदवाया – ‘अंतानं अविजितानं; आटविक जन अविजित पड़ोसी है’। इसके साथ ही अशोक नें आटविक जनता को उसकी ओर से चिंतिन न होने एवं स्वयं को स्वतंत्र समझने के निर्देश स्वयं दिये थे – “एतका वा मे इच्छा अंतेषु पापुनेयु; लाजा हर्बं इच्छति अनिविगिन हेयू; ममियाये अखसेयु च में सुखमेव च; हेयू ममते तो दु:ख”। तथापि गंभारतापूर्वक अशोक के शिलालेखों का अध्ययन करने पर मुझे यह प्रतीत होता है कि आटविक क्षेत्र की स्वतंत्रता अशोक को प्रिय नहीं रही थी साथ ही यहाँ की जनजातियों की ओर से अशोक के साम्राज्य को यदा-कदा चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा होगा। इस सम्बन्ध में अशोक का तेरहवा शिलालेख उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने स्पष्ट चेतावनी जारी की है कि अविजित आटविक जन किसी प्रकार की अराजकता करते हैं तो वह उनका समुचित उत्तर देने के लिये भी तैयार है। यह कथन इस लिये भी महत्व का है क्योंकि इससे उस सम्राट की बौखलाहट झलकती है जो विशाल साम्राज्यों को रौंद कर उनपर मौर्य ध्वज लहरा चुका था लेकिन आटविक क्षेत्र के आदिवासी जन उसकी सत्ता और आदेश की परिधि से बाहर थे। इसी शिलालेख में अशोक नें आदिम समाज को दी हुई अपनी धमकी पर धार्मिक कम्बल भी ओढाया है और वे आगे लिखवाते हैं कि “देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी वनवासी लोगों पर दयादृष्टि रखते हैं तथा उन्हें धर्म में लाने का यत्न करते हैं।“ यहाँ उल्लेख करना होगा कि मौर्ययुगीन बस्तर क्षेत्र को तब सम्यता से दूर मानना सही व्याख्या नहीं होगी। निश्चित ही सम्राट अशोक नें आटविक क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार की कोशिश की होगी तथा उनसे पूर्ववर्ती शासकों द्वारा भी एसा किया गया होगा। जनपदकाल से ले कर अशोक तक प्राचीन बस्तर में बौद्ध धर्म को ले कर भ्रम व अस्पष्टता की स्थिति होने का मूल कारण है कि इस समय तक यह धर्म अपने हीनयानी सिद्धांतों व नीतियों पर आधारित था जिसमें मूर्तिपूजा का कोई स्थान नहीं था। आज बस्तर क्षेत्र से बौद्ध धर्म तथा भगवान बुद्ध से सम्बन्धित जो भी शिल्प-अवशेष प्राप्त होते हैं वे बहुतायत अशोक एवं उसके बाद के ही हैं। यहाँ की तत्कालीन सभ्यता उच्च कोटि की रही होगी जिसका कि प्रमाण खुदाई में प्राप्त इस युग के पॉलिशयुक्त पात्रों के माध्यम से हो जाता है।
अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य कमजोर पड़ गया था। इसका लाभ उठा कर कलिंग ने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया। कलिंग में महामेघवंश (186 – 72 ईसा पूर्व) का उदय हुआ। कलिंग के जैन राजा 'खारवेल' को आर्य महाराज, महामेघवाहन, कलिंगाधिपति, लेमराज, धर्मराज महाविजय राज आदि सम्बोधन प्राप्त थे। उसने मौर्य शासकों के ‘मगध’ को कलिंग साम्राज्य का एक प्रांत बना दिया। राजा खारवेल की आधीनता में आटविक राज्य के अधिकांश क्षेत्र आ गये थे। यह उल्लेख मिलता है कि खारवेल नें आटविक जनों की सहायता से ही पश्चिम में भोजक (विदर्भ) तथा रठिक (महाराष्ट्र) राज्यों को परास्त किया था। इस पश्चिम विजय की जानकारी खारवेल के प्रसिद्ध हाथीगुंफा अभिलेख से होती है तथा इसमें बस्तर क्षेत्र के लिये ‘अपराजेय विद्याधराधिवास’ का प्रयोग किया गया है। इसी अभिलेख से यह भी जानकारी मिलती है कि इसी विद्याधराधिवास क्षेत्र (प्राचीन बस्तर) से खारवेल नें अपने शासन के चौथे वर्ष में रत्न तथा बहुमूल्य सामग्रियाँ छीन ली थीं। यह उल्लेख तत्कालीन बस्तर के दीन हीन नहीं अपितु एक सम्पन्न क्षेत्र होने का आभास दिलाता है। महामेघवाहन-राज्य की स्थापना के साथ दण्ड़कारण्य में जैन-धर्म का भरपूर प्रचार-प्रसार हुआ। बस्तर तथा इसके निकटवर्ती ओडिशा क्षेत्रों से अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका निर्माणकाल खारवेल के शासन के समकक्ष पहुँचता है। जैपोर में एसी ही प्राप्त जैन मूर्तियों को रखा गया है जिनमें अधिकतम दिगम्बर प्रतिमायें हैं; सप्तमुखी सर्प की छाया में ध्यानस्त एक दिगम्बर जैन मूर्ति विशेष ध्यान खींचती है। एक उल्लेख (एच.टी.डब्ल्यु; 27.06.1976) अतिमहत्वपूर्ण है जिसके अनुसार बोरिगुम्मा खण्ड के निकट के गाँवों में जैन मंदिर होने के प्रमाण व अवशेष मिलते हैं जिनमें पकनीगुडा तथा कोठारगुडा प्रमुख हैं। स्थानीय आदिवासियों नें यहाँ प्राप्त जैन मूर्तियों को अपना देवता निरूपित कर पूजा आरंभ कर दी है तथा इन्न मूर्तियों के आगे पशु-बलि भी दी जाती है। जैन मतावलम्बियों के प्रभाव में बस्तर का क्षेत्र बहुत लम्बे समय तक रहा है जिसके साक्ष्य के लिये नागयुगीन बस्तर की धरण महादेवी का खुदवाया शिलालेख (1069 ई.) देखा जा सकता है जिसमें महापरिव्राजक पण्डित सोम, साधु सोमन तथा जिणग्राम आदि की चर्चा है। इन्हें अपने शासन के छठवे वर्ष में राजा खारवेल ने राज्य में करमुक्त व्यवस्था लागू कर दी थी।
सातवाहन राजवंश (72 ईसा पूर्व से 202 ई.) का केन्द्रीय दक्षिण भारत पर अधिकार था। ईसा के जन्म से 22 वर्ष पूर्व, राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान ईसा के जन्म के 106 वर्ष बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया। सातवाहनों की पूर्णरूपेण समाप्ति 350 ई. तक हो गयी थी। सातवाहनों के प्राचीन बस्तर क्षेत्र के लिये किये गये कार्यों का अधिक उल्लेख दे पाने में इतिहास अभी भी मौन साधे हुए है।
यह उल्लेख करना उचित होगा कि ईसापूर्व का बस्तर घने जंगलों नें तथा दुर्गमतम प्राकृतिक परिस्थितियों के बाद भी एक प्रगतिशील क्षेत्र था। तत्कालीन सभी बडे साम्राज्यों नें इस क्षेत्र पर अधिकार करने अथवा उससे समझौता कर अपने साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने को आवश्यक समझा। भगवान बुद्ध तथा महावीर के मतो का यहाँ भी समुचित प्रचार-प्रसार हुआ। ये उदाहरण यह भी विचार प्रस्तुत करते हैं कि ईसापूर्व में जब प्राचीन बस्तर क्षेत्र प्रगति तथा गौरव का इतिहास रच रहा था वह अचानक गुमनामी के अंधेरे में कैसे गुम हो गया? इसके लिये इतिहास के आगे के पन्ने पलटने होंगे।
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2 comments:
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