Monday, November 25, 2013

‘समाजशास्त्र के संदर्भ हैं बस्तर के आदिवासी घर’


किसी समाज में कलाप्रियता और जीवंतता का प्राथमिक साक्ष्य उनके मकान हैं, उनके ग्राम हैं तथा जीवन शैली है। बस्तर संभाग में समग्रता से यदि मकानों की अवस्थिति को देखा जाये तो दो मुख्य विभेद सामने आते हैं। वे आदिवासी समूह जो पर्वत श्रंखलाओं और उनके शिखरों को अपना आवास चुनते हैं और दूसरे वे जो मैदानी इलाकों का चयन करते हैं। केवल माडिया जनजाति के ही दो मुख्य प्रकार देखें तो उपरोक्त आधार पर अबूझमाडिय़ा पर्वतों पर बसाहट वाली जनजातियों को कहा गया जबकि दण्डामि माडिया मैदानी आदिवासी मैदानी क्षेत्रों में बसे। यह स्पष्ट कर दूं कि परिचयात्मक विभेद किताबी हैं और केवल वस्तुस्थिति को समझाने के लिये है; वे आदिवासी स्वयं को कोयतूर या कोया कहना पसंद करते हैं जिन्हें मानव विज्ञान की पुस्तकें माड़िया निरूपित करती हैं। बस्तर में जनजातिगत विविधता चाहे जितनी हो किंतु बहुत हद तक रहन-सहन तथा मकान निर्माण की शैली में साम्यता दृष्टिगोचर होगी है। संभव है कि दक्षिण बस्तर में जिस मकान की छत पर ताड के पत्ते और पुआल थे वही मध्य और उत्तर बस्तर तक आते आते खपरैल और चूना पत्थर की फर्सियों से ढके नजर आयें किंतु मकान के आकार प्रकार, उनकी साज सज्जा, अहाते और पशु-पक्षियों के लिये नियत स्थानों आदि में सर्वत्र साम्यता ही प्राप्त होगी। अधिकतम गाँव पेडों के कुंज अथवा झुरमुटों के बीच बसे होते हैं जो आदिवासी जीवन की प्रकृतिप्रियता और शांतिप्रियता का परिचायक है। मुरिया आदिवासी सामान्य तौर पर अपनी बसाहट के लिये पहाडियों की चोटियों का चयन नहीं करते जबकि पर्वतीय-माडिया की स्वाभाविक पसंद होते हैं ये स्थल। मै यह मानता हूँ कि एसी अनेकता बस्तर में केवल सैद्धांतिक रूप से विद्यमान है जबकि एकरूपिता कांकेर से कोण्टा तक सर्वत्र देखी जा सकती है केवल दृष्टि को सही कोण चाहिये।   

बस्तर के पर्वतीय स्थानों पर निवास करने वाले आदिवासी सघन बसाहटों मे रहते नहीं पाये जाते। इसका कारण इतिहास से जुडा भी हो सकता है जो यह बताता है कि राजा भैरमदेव (1853-1891) के समय तक बस्तर रियासत में स्थाई गाँवों की संख्या बहुत कम थी। तत्कालीन दीवान दलगंजन सिंह ने कुछ प्रथाओं का सख्ती से अंत कराया जिनमे से एक थी कि यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो ग्रामीण अपनी बस्ती को उजाड कर नये सिरे से नये स्थान पर बस जाते थे। आज भी बडी बडी बसाहटों को देखना मुमकिन नहीं। पर्वतीय क्षेत्रों में आदिवासी पंद्रह-बीस मकानों के झुंड में बसे दिखाई पडते हैं। कई नितांत अकेली झोपडियाँ घाटी की ओर अथवा तलहटी में दिखाई पड सकती हैं, जो उसमे निवास कर रहे आदिवासी बंधु के निर्भय स्वभाव का परिचायक है। पर्वतीय स्थानों के मकान किसी टीले को चुन कर उनपर निर्मित किये जाते हैं। मकान क्रमिकता में पाये जाते हैं अर्थात लम्बाई में क्रमश: दो से तीन मकान एक साथ। मकान की निर्मिति में और रहन सहन में स्थानीय मान्यताओं की क्षेत्रवार झलख देखने को मिलती है; उदाहरण के लिये अबूझमाड़िया अपने मकान को लीपते नहीं हैं। ये लोग आज भी एक स्थान पर दो या तीन वर्ष की अवधि से अधिक नहीं टिकते। घर के भीतर की व्यवस्था में भी देवी देवताओं की रोकटोक है तथा स्त्री-पुरुष घर में एक स्थान पर नहीं सोते; इनका विश्वास है कि एसा करने पर देवता घर से बाहर चले जायेंगे। अबूझमाड के भीतर आज परम्पराओं और मान्यताओं की क्या स्थिति है व जीवन शैली में कैसे परिवर्तन आये हैं यह अलग अध्ययन का विषय है। माओवादियों ने सामाजिक अवस्थाओं को कितनी गहरी चोट पहुँचाई है इसकी विवेचना तो अब आने वाले समय के हाथ में ही है।  

आदिवासी घर आमतौर पर बांस की लकडी से निर्मित और बांस की छत वाले होते हैं। बांसों और लकड़ियों को आपस में मिट्टी से जोडा जाता है। आवश्यकतानुसार कमरों की संख्या निर्धारित की जाती है साथ ही बरामदा निवास की आवश्यक शर्त होता है। आदिवासी मकानों में मुख्य द्वार तो एक ही होता है किंतु पूरे घर में दो से अधिक दरवाज़ों की अवस्थिति सामान्य तौर पर मिलेगी। प्राय: घर एक कतार में बनाये जाते हैं जो गली में खुलते हैं। रिश्तेदारों के घर आसपास निर्मित किये जाते हैं जो आमतौर पर तीन-चार की संख्या में होते हैं और एक चौक मे खुलते हैं। आदिवासी जीवन में परिवार का हिस्सा उनके परिजनों के साथ साथ पशु-पक्षी भी होते है। यही कारण है कि आपको मकान के भीतर ही घूमते सूअर कुता, मुर्गी आदि तो नज़र आयेंगे ही इनके योग्य आवास अथवा बाडे भी मकान का ही हिस्सा होते हैं। सूअरों के रहने के बाडे आमतौर पर देखे जा सकते हैं, कभी कभी इन्हें दोहरी छत दे कर बनाया जाता है। अंडे से रही मुर्गियों को आरामदेय घोंसले दिये जाते हैं जो जमीन से ऊँचे स्थान पर बनाये जाते हैं। घरों के कुछ भाग का उपयोग आवास के लिये तो कुछ का अनाज भण्डारण के लिये होता है। बसाहट का एक प्रकार है लाडी जो एक प्रकार की झोपडी होती है। लाडी को खेतों के पास बनाया जाता है तथा वहीं अनाज की कटाई के पश्चात मिंजाई की जाती है। अनाज को प्राय: लाडी में ही रख दिया जाता है अत: इसे बनाने के लिये एसे स्थानों का चयन होता है जो आड में हो। 

आदिवासी घर नितांत आरामदेय होते हैं। आमतौर पर हर घर में भांति भांति की टोकरियाँ, चटाईयाँ, पत्तों के बंडल तथा मिट्टी और धातु के बर्तन नज़र आयेंगे। शराब और लांदा बनाने का उपक्रम भी हर आदिवासी घर के अहाते में मौजूद होता है। घर में मछली पकडने के जाल, ढोल आदि छत से लटकते नजर आ सकते हैं। बाँसुरियाँ, धनुष और वाण घर के छत की घास में अंदर की तरफ घुसा कर रखे जाते हैं। आदिवासियों के इन घरों का रसोई वाला कोना बहुत साधारण होता है। किसी कोने में अर्धचन्द्राकार स्थान को चुन कर रसोई बना लिया जाता है। मिट्टी के बर्तनों के अलावा घडे आदि भी रसोई मे रखे दिखाई पड जायेंगे। लकडी की चम्मच साथ ही बडे गोलाकार चमचे जिनसे रसदार भोजपदार्थ निकाला और परोसा जा सके इन रसोईयों में किसी कोने में पडा मिल जायेगा। अल्यूमीनियम की देगची और दूसरे बर्तनों को भी मैने अनेक रसोईयों में देखा है।   

स्थान स्थान पर जैसे परम्परायें बदलती हैं, बोलियाँ बदलती हैं वैसे ही घरों के नीयम भी बदले पाये जा सकते हैं। अनेक आदिवासी घरों में एक गहन कक्ष में मृतक स्मृति संजोये हुए एक रहस्यमयी घडा रखा जाता है। यह प्रतीक है कि घर में परिवार के पूर्वजों का स्मरण बनाये रखा गया है एवं इस तरह उनके प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है। कुछ आदिवासी समाजो में स्त्रियों के मासिकधर्म को ले कर भी भ्रांतियाँ हैं जो सीधे ही निवास व्यवस्था में परिलक्षित होती है। कुछ परम्परागत आदिवासी गाँवों में औरतों के लिये अलग झोपड़ी बना दी जाती है जिसका प्रयोग मे मासिकधर्म के दौरान करती हैं। एसी झोपडियों को गाँव के भीतर ही किंतु निर्जन स्थान पर बनाया जाता है। यह झोपडी और इसके दरवाजे छोटे होते हैं; अंदर एक बिस्तर, खाना बनाने की जगह, कुछ घड़े, कुछ कपड़े और आग जलाने की लकडियाँ रखी होती हैं। बातचीत में मुझे जानकारी मिली कि ये अब विलुप्त होती हुई प्रथायें हैं और पुरानी पीढी भी अब इन बातों को नहीं मानती। पहले थानागुडी किसी ग्रामीण व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी जिसमे कि बाहर से आने वाले अतिथियों को ठहराया जाता था एवं उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिये किसी ग्रामीण को नियत किया जाता था जिसे अठपहरिया कहते थे। अब थानागुडियाँ भी अतीत का हिस्सा हो गयी हैं। यदि आप विभिन्न गावों के नक्शों का निर्माण करें और उसमे प्रभावशाली व्यक्तियों के आवास खोजने की कोशिश करें तो आपको निराशा हाथ लगेगी। बस्तर के आदिवासी गाँवों में स्वाभाविक रूप से साम्य अवस्था विद्यमान है तथा आवास व्यवस्था में वर्चस्व की भावना का नितांत अभाव दिखाई पड़ेगा। गायता, पटेल, पुजारी आदि के निवास भी आपको समान बसाहट में सम्मिलित मिलेंगे। यहाँ भी बदलाव के कुछ दृश्य नजर आने लगे हैं; प्रभावशाली आदिवासी परिवारों अथवा राजनैतिक परिवारों ने स्वयं को एक सीढी उपर चढा कर अपने ही बंधु-बांधवों से काट लिया है।  

हर घर के चारो ओर एक चारदीवारी निर्मित की जाती है। चारदीवारी का कि निर्माण निजी अथवा सामुदायिक बागीचे की परिधि में भी होता है। चारदीवारी अथवा परिधि निर्माण बस्तर के घरों की विशेषता है। बाडी बनाना तो आधुनिक समयों में अधिक होने लगा है किंतु मेढे पाषाणकाल से ही बस्तर के आसिवासी जीवन की विशेषता रहे हैं। मेढ़ा - लकड़ी या बांस का वह सीधा गाड़ा गया खूंटा होता है जो किसी बाडी की बुनावट को आधार देता है। जितनी लम्बी बाडी लगानी है उतने ही अधिक मेढे। समान आकार और गोलाई के तनों को सीधे और एक के बाद एक गाड कर किसी मकान की परिधि बनाई जाती है। लकडी के स्थान पर लम्बे आकार के पत्थर खास तौर पर चूना पत्थर की फर्सियाँ भी इस काम में प्रयुक्त की जाती हैं। चूना पत्थर की अलग अलग परतों को उखाड़ कर बराबर आकार प्रकार में बना लिया जाता है फिर परिधि में एक के पश्चात एक सीधा गाडा जाता है। ये मेढे न केवल किसी मकान, बागीचे अथवा खेत की सीमा निर्धारित करते हैं अपितु इनका लोक-ज्योतिष मे भी अपना ही महत्व है। मेढ़ा गन्तेया यानी कि मेढ़ा गिनने वाला ज्योतिषी; किसी घर की परिधि में लगाई गयी इनकी संख्या से ही वह विचित्र गणनायें कर लेता है और किसी ग्रामीण की समस्याओं का हल बता सकता है। मध्यबस्तर में जहाँ कि चूने पत्थर की अधिकता है वहाँ मकान के निर्माण तथा चौखटों में भी सीधी और लम्बी लम्बी फर्सियों का प्रयोग होता है। पत्थरों के छोटे छोटे टुकडों को एक के उपर एक चढा कर मिट्टी के माध्यम से जोड कर घर की दीवारें तैयार कर ली जाती हैं। 

बस्तरिया आदिवासी घर करीने से बने और साफसुथरे होते है। फर्श और दीवारों को रंग-बिरंगी मिट्टी अथवा गोबर से लीपना आम है किंतु पहली दृष्टि में बहुत अधिक कलात्मक सजावट इन मकानो में दिखाई नहीं पडेगी। मुझे उन दीवारों पर ही भित्तिचित्र नजर आये जिनमें कोई पर्व अथवा उत्सव मनाया जा रहा था। प्राय: घर की चौखट भी सामान्य ही होती है और लकडी से अथवा बाँस गूथ कर बनाये गये दरवाजों को ले कर भी एक प्रकार की उदासीनता है। आदिवासी जीवन अपने घोटुलों को जितना सजीव और कलात्मक बनाता है उनता ही साधारण और सादगी से भरा वह अपने निवास को रखता है। इसका अर्थ यह नहीं कि ये दर्शनीय नहीं हैं, बस्तर में मकान बनाये जाने के तरीके, परिधियाँ निर्माण की विशेषतायें और यहाँ के सामाजिक सहसम्बन्ध किसी भी समाजशास्त्री के लिये आदर्श विषय हो सकते हैं। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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Friday, November 22, 2013

तहलका युग के मुखौटे


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यह तहलका युग है; यहाँ धमाकों पर चर्चा अवश्यम्भावी है। इस देश ने तालियाँ बजा कर उन खुफिया कैमरों की तारीफ की जिसने पैसे लेते हुए बंगारू लक्ष्मण को कैद किया और उनका राजनैतिक जीवन हमेशा के लिये समाप्त कर दिया, जिसने क्रिकेट के चेहरे से नकाब उतारी जिसके बाद जडेजा तथा अजहरूद्दीन का खेल भविष्य हमेशा के लिये समाप्त हो गया, जिसने जेसिकालाल हत्याकाण्ड के एक चश्मदीद गवाह श्यान मुंशी के हिन्दी ज्ञान का पिटारा सार्वजनिक किया और सिनेमा में भविष्य देखने वाले इस राह भटके युवक को फिर माया मिली न राम, एक असफल कोशिश और भी थी जिसमे गुजरात दंगों में सरकारी मशीनरी की भूमिका साबित करने का प्रयास था। अब समय है कि इन कैमरों के पीछे छिपे चेहरे तरुण तेजपाल पर भी उतनी ही गंभीरता से बात हो। खुफिया कैमरों से तहलका मचाने वाले इस व्यक्ति से उसके अब तक हासिल उपलब्धियों पर कोई सवाल उठाने का मेरा इरादा नहीं हैं अपितु यहाँ बात उस व्यक्तित्व की है जो अनेकों युवाओं का आदर्श माना जाता था और खोजी पत्रकारिता के सूत्रधारों मे गिना जाता है। तरुण तेजपाल एक एसे आरोप से घिरे हैं जिसे सभ्य समाज में अक्षम्य माना जाता है। आरोप संभवत: गलत शब्द प्रयोग है क्योंकि जब तरुण स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने वह सब किया है जिसके लिये हर तरफ छि: छि:-थू थू हो रही है तो खांटी पत्रकार और शब्दों के बीच में घुस कर अर्थ निकालने की अपनी महारत से वे यह बखूबी समझते होंगे कि जो कुछ उन्होंने किया है वह अपराध है। यह उतना ही जघन्य अपराध है जितना कि बंगारू लक्ष्मण का था, जडेजा-अजहरुद्दीन का था या कि श्यान मुंशी का था और इन सभी ने जो परिणाम भुगते हैं वही तरुण तेजपाल की भी नियति होनी चाहिये।   

हाल के दिनों मे बलात्कार और यौन शोषण की घटनाओं ने पूरे देश को दहलाया है। यह भी सही है कि अधिकतम एसे मामलों में दबंग शामिल होते हैं। दबंग से मेरा अर्थ है रसूखदार लोग जो जानते हैं कि उनका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता। वे धनबल से युक्त हैं लेकिन जो जनबल से युक्त हैं वे भी भयावह बाहूबलि हैं, बस चेहरे पर सफेदपोशियत और कॉलर सफेद होने के कारण ये पहचाने नहीं जाते। ये लोग जानते हैं कि के.पी.एस गिल की चुटकी काटने की घटना को कौन याद रखता है? ये जानते हैं कि सवाल ज्योति कुमारी से ही पूछे जायेंगे लेकिन राजेन्द्र यादव के मौन पर कभी चर्चा नहीं होगी। ये जानते हैं आरोप दबावों के आगे जिन्दा नहीं रहते और उनके चेहरों पर लगे दाग तहलका और सनसनी सुनने वाले इस देश में चार दिन भी नहीं टिकेंगे; छ: महीने की मोहलत तो सोच समझ कर ही तरुण तेजपाल ने खुद को दी है। इन छ: महीनों में किसे याद रहेगा कि दुनिया बदलने का सपना दिखाने वाले चेहरे की दो आँखे वस्तुत: किसी स्त्री को किन निगाहों से देखना चाहती हैं?   

इस घटना के कई पहलू हैं। एक पक्ष है तरुण तेजपाल का वह ईमेल जो तहलका की प्रबन्ध सम्पादक शोमा चौधरी को उनके द्वारा भेजा गया। इस इमेल की प्रत्येक पंक्ति दंभ और संवेदनहीनता से भरी हुई है। तरुण लिखते हैं कि “पिछले कुछ दिन बहुत परीक्षा वाले रहे और मैं पूरी तरह इसकी जिम्मेदारी लेता हूँ। एक गलत तरह से लिए फैसले, परिस्थिति को खराब तरह से लेने के चलते एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई जो उन सभी चीजों के खिलाफ है जिनमें हम विश्वास करते हैं और जिनके लिए संघर्ष करते हैं। मैंने संबंधित पत्रकार से अपने दुर्व्यरवहार के लिए पहले ही बिना शर्त माफी मांग ली है, लेकिन मैं महसूस कर रहा हूं कि और प्रायश्चित की जरूरत है”। इस सादगी पर कौन न मर जाये ए खुदा!! किस बात की परीक्षा? कैसा संघर्ष? कैसा विश्वास? किसी महिला को अपमानित करने के बाद कैसे आरोपो से बचा जाये क्या इस मनोदशा की बात कर रहे हैं तेजपाल? यह जिम्मेदारी लेना क्या होता है? किस साफगोई से अपनी लिजलिजी हरकत को सहलाते हुए “गलत तरीके से लिये गये फैसले”, “परिस्थिति को खराब तरीके से लेने”, “दुर्भाग्यपूर्ण घटना” जैसे शब्द मरहम उन्होंने खुद पर ही पोतने की कोशिश की है। तेजपाल ने अपने पत्र में आगे लिखा है “क्योंकि इसमें तहलका का नाम जुड़ा है और एक उत्कृष्ट परंपरा की बात है, इसलिए मैं महसूस करता हूं कि केवल शब्दों से प्रायश्चित नहीं होगा। मुझे ऐसा प्रायश्चित करना चाहिए जो मुझे सबक दे। इसलिए मैं तहलका के संपादक पद से और तहलका के दफ्तर से अगले छह महीने के लिए खुद को दूर करने की पेशकश कर रहा हूं”। किस उत्कृष्ट परम्परा की बात कर रहे हैं तेजपाल? तहलका की उस परम्परा की जहाँ कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन के मामलों की जाँच के लिये कोई समीति बनाई ही नहीं गयी? छोटे छोटे कार्यालयों में भी किसी महिला सदस्य की अध्यक्षता में गठित एसी समीतिया कार्य करती हैं। यहाँ तो ठसक है कि लो जी अपराध कर लिया, अब हम प्रायश्चित करेंगे इसलिये अपनी सजा खुद मुकर्रर करते हैं, इतना कुछ तो कर लिया अब क्या जान लीजियेगा इस इन्नोसेंट की? कल आशाराम बयान जारी कर दें कि हमसे भूल हो गयी अब दो साल कोई प्रवचन नहीं तो मान्यवर को फूल माला पहना कर घर छोड आना चाहिये? यह तर्क तो वही है जो तरुण तेजपाल का है? क्या एक लेखक और पत्रकार होने के कारण उनकी जिम्मेदारी उस आचरण को आत्मसात करने की नहीं है जैसी दुनिया बनाने का दावा उनके आलेख और पत्रिका करती है? 

लेखक राजेन्द्र यादव की अंत्येष्टि क्रिया पर आलोचनात्मक बयान क्यों आये? यह इसलिये आये थे कि आजीवन राजेन्द्र यादव ने कर्मकाण्डों के विरोध में अपनी पक्षधरता दर्शायी थी। जब उनके ही परिजनों ने परलोक सुधारने की कवायद में राम नाम सत्य किया तो विरोधाभास पर प्रश्नचिन्ह लगने ही थे। तरुण तेजपाल भी नहीं बच सकते, उन्हें बचाया जाना नहीं चाहिये जैसा कि उनकी संस्था तहलका और उसकी प्रबन्ध सम्पादक शोमा चौधरी के द्वारा किया जा रहा है। एक महिला होने तथा एक एसी पत्रिका से जुडने के बाद जिसका दायित्व ही सच के साथ खड़े होने का है, खुद शोमा इस बात की चिंता अधिक करती नजर आती हैं कि ईमेल किसने लीक की है या पीडिता को कैसे मैनेज किया जाये? कोई ठोस बयान या आश्वासन सामने नहीं आने का कारण यही है कि उनके भीतर की स्त्री के उपर उनका प्रबन्धक होना हावी है, वे तहलका की चमक दमक और बने बनाये बाजार को अपनी पीठ से टिकाये रखना चाहती हैं; इसके लिये दरकी हुई दीवारों पर लीपापोती आवश्यक है। 

कितना कोमल ताना बाना है इस घटना का। पीड़िता तेजपाल के मित्र की बेटी हैं यह भी एक एसा सम्बन्ध है जिसमे स्वाभाविक विश्वास और संरक्षण की भावना अंतर्निहित है। पीडिता तरुण तेजपाल की बेटी की दोस्त हैं इस लिहाज से यह सम्बन्ध की और भी नाजुक कड़ी है। इस स्थल पर ठहर कर आप दोषी पत्रकार की मानसिकता से पहले पीडिता के ईमेल की इन पंक्तियों पर गौर कीजिये जिसमे वह लिखती हैं कि “जब दूसरी बार यौन उत्पीड़न के बाद मैंने तरुण तेजपाल की बेटी को इस बारे में बताया, तो तरुण मुझ पर चीखने लगे और धमकाने लगे”। इस बात से यह अर्थ न निकाल लीजिये कि माफीनामा या प्रायश्चित कोई हृदयपरिवर्तन है अपितु लीपापोती की कोशिश ही है। अपने शिकायती मेल में महिला पत्रकार ने ही तरुण से लिखित में माफी मांगने के साथ साथ यह मांग भी की कि पूरे तहलका संगठन को इसके बारे में बताया जाए। तरुण को शायद गोलमोल और दंभ भरे शब्दों में प्रायश्चित की बात करते हुए छ: महीने तक मुह छिपाना अपने बचाव का बेहतर विकल्प लगा होगा। 

तहलका तो मचता रहता है। क्या हुआ तो तमाम घोटाले होते हैं, फाईलें गुमाने का विकल्प जो जिन्दा रहता है? क्या हुआ जो जन-लोकपाल बिल पास नहीं हुआ आम आदमी पार्टी जैसा राजनैतिक दल तो बना जिसके नेता वैसे ही स्टिंग ऑपरेशन में गोलमाल करते नजर आ रहे हैं जैसी तहलका के तेजपाल करने में वन एण्ड ओनली हैं? क्या हुआ जो पीडित लडकी शिकायत नहीं कर रही वैसे भी इस देश में बलात्कार की एफआईआर ही कितनी हो पाती है? क्या हुआ जो शोमा चौधरी गोलमोल जवाब दे रही हैं क्योंकि दुनिया गोल है और हमाम मे भीतर गजब का साम्यवाद है; वह फिर नेता हो, अभिनेता हो, अफसर हो या कि पत्रकार? क्या हुआ कि तेजपाल की बेटी ने आलोचनाओं से व्यथित हो कर अपना ट्विटर एकाउंट ही बंद कर दिया क्योंकि समाज तो पुरुषवादी ही है जिसके केन्द्र में पिता विराजमान होता है? क्या हुआ कि कथित प्रगतिशील और जिन्दाबाद-मुर्दाबाद वाले लेखक मौन हैं आखिर वे जानते हैं कि उनके पास हमेशा दो मापदण्डों का विकल्प मौजूद होता है? तरुण का अगला छ: महीना भले ही छुट्टियों में बीत जाये लेकिन वे लौटेंगे नयी उर्जा, नये तेवर, नये कलेवर और नये बहानों के साथ क्योकि आप दुनिया बदलना चाहते हैं; तहलका युग के मुखौटों से कभी मुक्ति नहीं....। 

-राजीव रंजन प्रसाद 

Saturday, November 16, 2013

बस्तर में लोकतंत्र अभी सांसे ले रहा है


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बस्तर में विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होते ही गहरी गहरी स्वांसों के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। सुरक्षाबलों के अपना एक सिपाही श्री पी. डी. जोसेफ़ को खोया तो कुछ ग्रामीण भी घायल हुए किंतु यह सब वर्ष 2008 में इस क्षेत्र में हुए मतदान के समय हुई नक्सली हिंसा जिसमे बयालिस से अधिक शहादत दर्ज हुई थी, उसके समकक्ष राहत भरी खबर बन कर आया है। क्षेत्र में चुनाव विश्लेषणों का समय अब उबर गया है तथा नारे और झंडे अब उत्तरी छत्तीसगढ की ओर केन्द्रित होने लगे हैं। अब गहरी खामोशी है, सुरक्षा बलों के मतदान केन्द्रों के छोडते ही कुछ खम्बे नोचे गये और दिन भर कई बम विस्फोट तो कई विस्फोटक बरामद होने की खबरें आती रहीं। इस बीच बस्तर के भीतर बैलेट और बुलेट की जय पराजय पर चर्चायें होने लगी हैं। यह चर्चा न केवल बस्तर अपितु दिल्ली से भी जारी है चूंकि विचारधारा की युद्धभूमि होने के कारण व्यापक दृष्टि से यहाँ हुए चुनावों के प्रत्येक कदम की विवेचना हुई और यह जानने की कोशिश की जाती रही कि क्या वास्तव में बैलेट से बुलेट पराजित हुआ है?

इस दृष्टिकोण को समझने से पहले इस बार चुनावों में चुनाव आयोग की भूमिका की सराहना करनी आवश्यक है। भारी मात्रा में सुरक्षाबल की तैनाती और सभी प्राप्त जानकारियों के अनुरूप समुचित निर्णय ले कर इन चुनावों को त्रासदी बनने से रोक दिया गया। यदि एसा न हुआ होता तो आज हम रक्तपात के अनुपात पर विमर्श कर रहे होते, मृतक अवशेषों पर मेनहीर गड़ रहे होते और यह मान लिया जाता कि समानांतर सरकार चलाने का दावा वास्तव में एक सच्चाई है। एसा नहीं था कि प्रयास नहीं हुए अथवा जंगल के भीतर से लोकतंत्र के इन महापर्व को धमाके सुनाये जाने की तैयारी नहीं थी। बीजापुर के अनेक क्षेत्रों से रह रह कर नक्सली फायरिंग तथा सुरक्षा बलों द्वारा उत्तर दिये जाने की सूचनायें आती रहीं, करकेली में जहाँ गोली चला कर नक्सली भाग निकले तो मंकेली बूथ पर उन्होने गोली चालन किया। बीजापुर चुनावी परिक्षेत्र के आवांपल्ली में दस किलोग्राम का एक शक्तिशाली बम भी बरामद किया गया था। दंतेवाड़ा में इससे भी भयावह तैयारियाँ थीं तथा पैंतीस और चालीस किलोग्राम के दो बम यहाँ भी बरामद हुए जबकि धानीरका बूथ के पास से दो टिफिन बम भी मौके पर नष्ट किये गये। यही नहीं बरसोल क्षेत्र में छ: आईडी बमो की बरामदगी हुई तो स्थान स्थान पर पोलिंग पार्टी पर नक्सली हमला होने की खबरे पूरे दिन आम थीं। कोण्टा विधानसभा क्षेत्र में हालात इतने खराब थे कि सुकमा के मुरतुण्डा बूथ पर जा रही पोलिंग पार्टी को ही वापस बुला लिया गया। कमोमेश यह स्थिति बस्तर में सभी सीटों पर देखी गयी थी। ओरछा मे दो बम जिन्दा बम मिले, नारायणपुर के आकाबेडा में पच्चीस किलोग्राम का बम बरामद हुआ था तो दरभा के कोलांग मतदान केन्द्र पर गोलीबारी हुई थी। कांकेर की भी यही स्थिति थी जहाँ दुर्गापल्ली के पास एक बम मिला तो पखाञुर मे शक्तिशाली बम विस्फोट के कारण बीएसएफ का एक जवान घायल हो गया, जिसे एयर-एम्बुलेंस से तत्काल ही अस्पताल पहुँचाया गया। ये सभी घटनायें सिद्ध करती हैं कि आतंकवाद ने अपनी ओर से तैयारियों में कोई कमी नही रखी थी। बस्तर समेत जिन अठारह सीटों के लिये छत्तीसगढ में मतदान हुआ वहाँ संवेदनशील मतदान केन्द्रों की संख्या 1517 थी जबकि लगभग इतनी ही अर्थात 1311 संख्या अतिसंवेदनशील मतदान केन्द्रों की थी। इन परिस्थितियों ने लोहा लेना कोई आसान कार्य नहीं था और इसे संभव कर दिखाने में लगी सभी संस्थाओं की सराहना इस लिये भी होनी चाहिये कि बुलेट को यदि योजनाबद्ध रूप से नहीं रोका जाता तो बैलेट की कभी जीत नहीं हो सकती थी। यहाँ जोडना चाहूंगा कि ये सभी तैयारियाँ केवल सुरक्षाबलों के विरुद्ध नहीं थी अपितु उस आम आम मतदाता पर सीधा हमला करने के लिये भी थीं जो अपने क्षेत्र में पसंद की सरकार चुनने के लिये प्रतिबद्ध हो कर साहस जुटा कर मतदान केन्द्रों तक पहुँचा था।       

भय और साहस के बीच संघर्ष की अनेक लोमहर्षक कथायें इस चुनाव में सामने आयीं। यह भी हुआ है कि दंतेवाड़ा, कोण्टा और बीजापुर के अनेक मतदान केन्द्रों में एक भी मतदाता नहीं पहुँचा जबकि इस बार प्रत्येक बूथ में 70-80 सुरक्षा कर्मी तैनात थे यहाँ तक कि हर बूथ में विभिन्न राज्यों से आयी महिला पुलिस कर्मी और कमाण्डों को भी ड्यूटी पर तैनात किया गया था। किंतु एसा भी हुआ है कि पैरों से लाचार मतदाता दोनों हाथों में जूते ठूसे कंटकाकीर्ण पगडंडियों पर घिसटता हुआ बूथ तक पहुँचा। एसे भी दृश्य है जहाँ चलने से लाचार बूढे की लाठी बन कर कोई बुढिया मतदान केन्द्र तक उसे ले आई थी। मतदाताओं को बूथों तक न पहुँचने देने के लिये नक्सलियों ने अनेक स्थानों पर सड़क काट दी तो कहीं नावों-डोंगियों को डुबो दिया था। ग्रामीण इस परिस्थिति से भी लडे और देखने में आया कि मुचनार के परिवर्तित मतदान केन्द्रों में उन्होंने अपनी व्यवस्था से छोटी डोंगियों से नदी पार की और मतदान किया। कई गाँवों के मतदाता चौबीस से अठाईस किलोमीटर पैदल चल कर वोट डालने पहुँचे जिसे अदम्य साहस संज्ञापित किया जाना चाहिये। बैलेट की जीत यदि हुई है तो इसी साहस के कारण संभव हुई है जहाँ आम आदिवासी ने यह बताया है कि उसकी आस्था तो अपनी व्यवस्था पर अब भी है और यदि यह तथ्य हमारे लोकतंत्र की बुनियादी समझ बन सके तो बस्तर ही बदल जाये।   

इन्ही परिस्थितियों के दृष्टिगत आखिरी समयों में अनेक मतदान केन्द्रों के बदले जाने को ले कर चुनाव आयोग की तीखी आलोचना भी देखी गयी। सुरक्षा कारणों से इसे सही भी माना जाये तो भी यदि आवश्यकता से अधिक दूर मतदान केंन्द्र होंगे, गाँवों से असहज दूरी और दुर्गम रास्तों से हो कर उन्हें वोट डालने के लिये बाध्य होना पडेगा तो निश्चित है कि औसत मतदान में गिरावट देखी जायेगी। नदी के उसपार के मतदाताओं को इसपार आने के लिये अपनी व्यवस्था से अगर नावों और अन्य संसाधनों का सहारा लेना पडा तो इन बदले गये बूथों पर मतदान होने का श्रेय ग्रामीणों के साहस को ही जाता है तथा इसके बदले जाने के विपक्ष में खडे तर्क मान्य प्रतीत होते हैं। इस सभी बातों को देखते हुए यदि छत्तीसगढ राज्य में पिछले दो चुनावों के साथ वर्तमान मतदान के प्रतिशत की एक विवेचना की जाये तो क्षेत्रवार जो चित्र उभरता है वह गहरा विमर्श मांगता है। 

इस बार हुए रिकॉर्ड मतदान के कारण यह माना जा रहा है कि चुनावों के नतीजे विविध होंगे जिसके कारण अटकलों का बाजार गर्म है। जगदलपुर, कांकेर, कोण्डागाँव, केशकाल चित्रकोट, नारायणपुर तथा दंतेवाडा में जहाँ पिछले चुनावों के मुकाबले बढत देखी गयी किंतु 2003 के आंकडों को भी सामने रखा जाये तो इन सभी सीटों में उतार चढाव भरा मतदान होने की परम्परा रही है साथ ही साथ भानुप्रतापपुर तथा नारायणपुर जैसी सीटों में यथास्थितिवाद दृष्टिगोचर हो रहा है। नक्सल प्रभावित दक्षिण बस्तर में दंतेवाडा के आंकडे चौंकाने वाले हैं यहाँ 67% मतदान का होना कई तथ्य को विवेच्य बनाता है। महेन्द्र कर्मा के निधन को एक कारण मान कर यदि हालिया घटनाओं के देखा जाये तो नक्सलियों द्वारा चुनाव बहिष्कार की अपील के पश्चात दंतेवाडा के कमलनार में पंद्रह गावों के प्रतिनिधियों ने बैठक की और वोट डालने का निश्चय किया। इसके पश्चात हुआ भारी मात्रा में मतदान होना वस्तुत: क्या सिद्ध करता है इसके लिये तो चुनाव परिणामों की प्रतीक्षा करनी ही होगी। तथापि कोण्टा और बीजापुर में मतदान का प्रतिशत गिरा है। कोण्टा में 2008 के मुकाबले 12% के लगभग मत प्रतिशत में कमी आना तथा 2003 के स्तर से भी इसका नीचे चला जाना क्या यह इशारा करता है कि यहाँ नक्सली धमकी का खासा असर देखा गया है। बीजापुर सीट में भी रिकॉर्ड गिरावट के साथ केवल 24% मतदान हुआ जबकि यह 2008 में 37% एवं 2003 में 29% रहा है। अंतागढ में भी गिरावट दर्ज की गयी है किंतु 58% मतदान होना संतोषप्रद ही कहा जायेगा।   

 यह इस दिशा की ओर भी इशारा करता है कि दक्षिण बस्तर से केवल वे वोटर ही बाहर निकले हैं जो किसी न किसी पार्टी का निर्धारित वोट बैंक हैं। क्या दक्षिण बस्तर मे कम मतदान का होना कोण्टा और बीजापुर में वाम संभावनाओं को क्षीण करता है यह भी देखना होगा। वाम अतिवाद ने यहाँ वाम दलों की जमीनी लडाईयों को कमजोर ही किया है तथा मनीष कुंजाम जैसे नेता अपनी “फेस वेल्यु” के कारण ही मुख्य पार्टियों को टक्कर दे पाते हैं। 

आंकडे चाहे जो कहते हों किंतु यह कहना होगा कि इस बार सारे चुनावी पंडित मौन हैं तथा यकीनी तौर पर कोई नहीं कह सकता है कि बस्तर की बारह सीटो पर किस राजनीतिक दल का पक्ष बंधा हुआ है। जो भी बातें सामने आ रही हैं वे केवल अनुमान भर हैं। चुनाव आयोग ने बहुत अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निर्वहन किया है और एक भयानक खून-खराबा भरा दिन देखने से हम बच गये हैं। आम मतदाताओं ने चुनाव के महति पर्व को अपने साहस के सफल बनाया है तथा भारी मात्रा में बस्तरियों ने लोकतंत्र के प्रति आस्था जताई है। ये चुनाव लाल-आतंकवाद के सूत्रधारों को बैठ कर सोचने के लिये भी बाध्य करेगा कि क्या बाहरी दहशत के भीतर उनकी जमीन पतली तो नहीं होती जा रही? चुनाव आयोग ने व्यवस्था को भी एक मार्ग दिखाया है कि समुचित इच्छाशक्ति के दम पर नक्सलवाद से निर्णायक लडाई लडी जा सकती है। बस्तर में सम्पन्न हुए इस सुनाव का उपसंहार यही है कि बस्तर में लोकतंत्र अभी सांसे ले रहा है।  

-राजीव रंजन प्रसाद
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Saturday, November 09, 2013

बस्तर - जहाँ गिरवी है लोकतंत्र

[बस्तर में विधान सभा चुनाव-2013 पर विशेष आलेख]  

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यहाँ लोकतंत्र गिरवी है। सन्नाटे चुनाव प्रचार कर रहे हैं और दहशत ही प्रत्याशी है। कहने को तो सभी राजनीतिक दलों ने अपने अपने उम्मीदवार उतारे हैं जिनके भाग्य का फैसला अंतत: यह तय करेगा कि राज्य में ऊँट किस करवट बैठने वाला है। इसमे कोई संदेह नहीं कि छत्तीसगढ राज्य बनने के पश्चात हुए पिछले दो चुनावों में बस्तर की लगभग सभी सीटों पर कॉग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी रही हैं तथापि कम्युनिष्ट पार्टियों, राष्ट्रवादी कॉंग्रेस पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी की भी उल्लेखनीय उपस्थिति इन चुनावों मे देखी गयी है। यह बड़ा सवाल है कि नवम्बर-2013 के आगामी विधानसभा चुनावों में बस्तर की बारह सीटों में कैसे समीकरण होने जा रहे हैं?

दक्षिण बस्तर इस समय भयावह स्थितियों से गुजर रहा है। जिन भी प्रत्याशियों की स्थिति का आंकलन करने की कोशिश होती है वहाँ से अंदरूनी इलाको में जा कर अपनी बात न रख पाने की चिंता प्राथमिकता से उजागर होती है। प्रत्याशी और उनके समर्थक केवल उन स्थानो तक ही पहुँच रहे हैं जहाँ उन्हें जीवन सुरक्षित जान पडता है। जितनी राजनैतिक पोस्टरों की संख्या है उतनी ही तादाद में लाल बैनर भी उन क्षेत्रों का सीमांकन कर रहे हैं जहाँ माओवादियों की घोषित उपस्थिति है। वस्तुत: विकास यात्रा और परिवर्तन यात्रा के साथ ही बस्तर में चुनावी बिगुल फूंक दिया गया था और माओवादी पक्ष ने अपनी मजबूत उपस्थिति झीरमघाटी की घटना को अंजाम दे कर सिद्ध कर दी थी। कॉग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले को महज एक आतंकवादी वारदात कह कर नजरंदाज नही किया जा सकता क्योंकि उसके स्पष्ट राजनैतिक मायने हैं और घटना के बाद हुई खींचतान का भी वर्तमान चुनावों पर निश्चित ही असर पडने वाला है। वस्तुत: राजनीति भांति भांति के गणित पर आधारित होती है।

उदाहरण के लिये वर्ष-2008 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अनेक नये चेहरों को टिकट दिया था और उसके सकारात्मक परिणाम उन्हे प्राप्त भी हुए थे; इस बार यही फारम्यूला कॉग्रेस ने आजमाया है। एसा नहीं कि गणित बिलकुल सीधा है क्योंकि जिनका टिकट कटा वे कितना भितरघात करने की क्षमता रखते हैं यह गुणा-भाग भी घोषित प्रत्याशियों की जीत-हार तय करता है। भाजपा के लिये जहाँ लगातार दस साल तक सत्ता में काबिज रहने के कारण एंटी इनकम्बेंसी का प्रभाव भी परिणामों पर अपनी जगह बना सकता है वहीं अनेको पुराने चेहरों पर फिर से विश्वास दिखाने की उनकी नीति क्या सही सिद्ध होगी यह तो परिणाम ही तय कर सकते हैं।

जिन अवस्थाओं में चुनाव हो रहे हैं, वे जब लोकतंत्र की उपस्थिति पर ही प्रश्न खड़ा कर रहे हैं, एसे में एग्जिटपोल और ओपीनियन पोल की बहुत अधिक सार्थकता बस्तर के संदर्भ में दृष्टिगोचर नहीं होती। यहाँ हर सीट अपने आप में खास है तथा परिणामों पर - खडे होने वाले प्रत्याशियों की संख्या, वोटिंग प्रतिशत, पोलिंग बूथ की अवस्थिति, माओवादियों का क्षेत्र में प्रभाव आदि आदि बहुत मायने रखते हैं। राज्य बनने के पश्चात हुए दो चुनावों में डाले गये मतों के प्रतिशत के आधार पर यदि बस्तर की अलग अलग सीटों पर एक दृष्टि डाली जाये तो यह कहना होगा कि यहाँ क्षेत्रवार वोटिंग पैटर्न भी अपनी ही कहानी कहते हैं तथा उन्हें भी विजय की संभावनाओं का एक घटक मानना ही होगा। 

तालिका – 1: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणाम विश्लेषण वर्ष – 2003

यदि 2003 के चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि डाली जाये तो दक्षिण बस्तर पर कांग्रेस का कब्जा था। दंतेवाड़ा, कोण्टा तथा बीजापुर की सीटे उनके द्वारा जीती गयी थीं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि भाजपा के मुकाबले मतों के अंतर का प्रतिशत दंतेवाडा (16.84%) तथा कोण्टा (34.74%) में बहुत बडा था जबकि बीजापुर में भी कॉग्रेस 8.49% मतो के अच्छे अंतर से विजयी रही थी। दंतेवाड़ा तथा कोण्टा में भाजपा तीसरे नम्बर पर रही थी जबकि यहाँ कम्युनिष्ट पार्टियों ने कॉग्रेस को ठीक ठाक टक्कर देते हुए दूसरा स्थान हासिल किया था। इसके ठीक उलट मध्य एवं उत्तर बस्तर में भारतीय जनता पार्टी ने जो जीत हासिल की वहाँ भी उसने एक बडे अंतर से कॉग्रेस को शिकस्त दी थी जिसमे कि सबसे सबसे उल्लेखनीय हैं – केशलूर (30.86%),  जगदलपुर (28.36%) तथा कांकेर (28.34%)। भारतीय जनता पार्टी को सर्वाधिक संघर्ष के साथ इस चुनाव में भानुप्रतापपुर की सीट हासिल हुई थी जहाँ दोनो प्रमुख पार्टियों के बीच जीत का अंतर केवल 1.33% था। इस चुनाव में आश्चर्यजनक रूप से एनसीपी का प्रदर्शन माकपा/भाकपा  के समकक्ष रहा था व चार विधानसभा सीटों पर उसने तीसरा स्थान प्राप्त किया था। इस चुनाव में बहुजन समाजपार्टी का विशेष प्रभाव तो नहीं देखा गया किंतु उसने अपनी मामूली उपस्थिति जगदलपुर (2.40%), चित्रकोट(3.21%), भानपुरी (3.21%) तथा केशलूर (2.99%) क्षेत्रों में दर्ज करायी थी।

तालिका – 2: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणाम विश्लेषण - वर्ष 2008 

वे परिस्थितियाँ क्या रहीं कि वर्ष-2008 के विचारसभा चुनाव में दक्षिण बस्तर में भी कॉग्रेस कोण्टा को छोड कर कोई भी सीट नहीं बचा सकी। कोण्टा की सीट को भी कांटे की टक्कर ही कहना होगा चूंकि यह पूरी तरह से त्रिकोणीय मुकाबला सिद्ध हुआ जिसमे आश्चर्यजनक रूप से भाजपा को दूसरा (31.12%) तथा माकपा को तीसरा (30.12%) स्थान हासिल हुआ जबकि केवल 0.28% मतो की बढत के साथ कॉग्रेस के कवासी लकमा ने पहला (31.40%) स्थान प्राप्त किया था। इसी तरह दंतेवाडा का मुकाबला यद्यपि भाजपा ने बडे अंतर (12.99%) से जीता तथापि भाकपा ने दूसरा स्थान प्राप्त किया था। दंतेवाडा सीट पर शिवसेना की उपस्थिति भी 6.14% वोटो के साथ महत्वपूर्ण थी। निर्दलीय प्रत्याशियों का भी शानदार संघर्ष इस चुनाव की विशेषता थी;  कांकेर से निर्दलीय प्रत्याशी चन्द्रप्रकाश ठाकुर ने 10.52% वोट हासिल किये थे जबकि भानुप्रतापपुर से निर्दलीय प्रत्याशी मनोज मंडावी को 24.07 प्रतिशत वोट मिले थे और उन्होंने क्षेत्र में कॉग्रेस को तीसरे नम्बर की पार्टी बना दिया था। मुख्य मुकाबले से एक कदम पीछे चलते हैं और बस्तर मे तीसरे प्रमुख दल अर्थात वामदलों के चुनावी प्रदर्शन तथा संभावनाओं पर एक दृष्टि डालते हैं।

चित्र -1: वामदलों का वर्ष 2003 के चुनावों में प्रदर्शन

वर्ष 2003 के चुनावों में कोण्टा और दंतेवाड़ा को छोड कर शेष सभी सीटों पर वालदल लगभग अनुपस्थित रहे अर्थात उन्हें 15% मत भी प्राप्त नहीं हुए थे।  कांकेर एवं कोण्डागांव में वामदलों का खाता भी नहीं खुला था।   

चित्र -2: वामदलों का वर्ष 2008 के चुनावों में प्रदर्शन

वामदलो की हालत को वर्ष 2008 के चुनाव और भी पतला कर देते हैं जहाँ कि वे अधिकतम सीटों पर 5% से भी कम वोट शेयर के साथ दिखाई पडते हैं तो अंतागढ, केशकाल, भानुप्रतापपुर और कोण्डागाँव में पूरी तरह अनुपस्थित हो जाते हैं। संभवत: अपनी इस दयनीय हालत की भरपाई उन्होंने दक्षिण बस्तर में अपना वोटशेयर बढा कर की थी जो कि लगभग 25 से 30% तक उनके हिस्से में गया था। इस तरह वे कोई सीट भले ही न निकाल पाये हों किंतु यह सिद्ध करने में कामयाब रहे थे कि इस बार भी दक्षिण बस्तर में चुनावी मुकाबला त्रिकोणीय ही होगा। 

उपरोक्त विवेचना को सही सिद्ध करते हुए कोण्टा विधानसभा सीट में त्रिकोणीय मुकाबला स्पष्ट्त: देखा जा रहा है। कम्युनिष्ट पार्टी के उम्मीदवार मनीष कुंजाम इस बार अच्छी स्थिति में नजर आ रहे हैं किंतु कवासी लकमा को और दरभाघाटी के कारण कांग्रेस के पक्ष में जाती संवेदनाओं को भी कमतर नहीं समझा जा सकता। इस सीट पर सीधी रेस है और देखना दिलचस्प होगा कि क्या कोण्टा सीट जीत कर इस बार वामदल अपना खाता खोल पाते हैं? दक्षिण बस्तर की दंतेवाड़ा सीट पर मुकाबला कॉग्रेस और भाजपा के बीच अधिक नज़र आता है। बैलाडिला में मजदूर संगठनों में कई फाड हो गये हैं; अब ये मजदूर संगठन वाम राजनीति को सीधे प्रभावित करने की स्थिति में नहीं रह गये हैं। महेन्द्र कर्मा इस बार दंतेवाड़ा सीट से मजबूत नजर आ रहे थे किंतु माओवादियों द्वारा उनकी हत्या के पश्चात इस क्षेत्र में उभरी सहानुभूति क्या कॉंग्रेस को यह सीट दिला पायेगी, यह देखना दिलचस्प होगा? बीजापुर से महेश गागडा भरतीय जनता पार्टी के युवा प्रत्याशी हैं जिसपर पार्टी द्वारा पुन: भरोसा जताया गया है। बीजापुर में मतदान हमेशा से एक चुनौती रहा है पिछले दोनो चुनावों में यह क्रमश: 37.07% तथा 29.20% ही रहा है। एसी स्थिति में मतदान का कम होना अथवा अधिक होना भी प्रत्याशियों की सांस उपर-नीचे करता रहेगा। कॉग्रेस के उम्मीदवार विक्रम मण्डावी पिछले चुनाव के 24.11% के मत अंतर को काटने के लिये श्रम करते दिखाई पड रहे हैं किंतु यहाँ उनकी ही पार्टी के एक अन्य असंतुष्ट टिकिटार्थी द्वारा भितरघात की बाते भी कही जा रही हैं। 

चित्रकोट, जगदलपुर, बस्तर तीनो ही मध्य बस्तर के विधानसभा क्षेत्रों में इस बार भी द्विपक्षीय मुकाबले की ही संभावना है। चित्रकोट से भाजपा के उम्मीदवार बैदूराम कश्यप चुनाव के मुकाबले कॉग्रेस के प्रत्याशी दीपक वैज एक नया चेहरा हैं जिनका प्रयोग संभवत: मौजूदा विधायक के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी की भावना को वोटो में तब्दील करने के लिये किया गया है। चित्रकोट विधानसभा में माकपा की भी सशक्त उपस्थिति है (18.51%), जिसे कोई भी राजनैतिक दल हल्के में नहीं ले सकता। जगदलपुर में कॉग्रेस ने सामान्य विचानसभा सीट होने के बाद भी आदिवासी कार्ड खेलने का यत्न किया है। यहाँ से कॉग्रेस के शामू कश्यप भाजपा के मौजूदा विधायक संतोष बाफना के खिलाफ लड रहे हैं। बीजापुर से टिकट न मिलने से नाराज भाजपा के नेता राजाराम तोडेम ने पार्टी छोड कर स्वाभिमान मंच से लडना निश्चित किया है। यह एक तरह का भितरघात है जो संतोष बाफना के खिलाफ जा सकता है। यदि पिछले चुनाव में भाजपा की जीत का अंतर देखा जाये तो यह 15.32% थी जिसे पाटना कॉग्रेस के लिये वास्तविक चुनौती है। जगदलपुर तथा मध्य बस्तर की अन्य सीटों से प्रत्याशी बडी मात्रा में खडे होते हैं तथा उनके द्वारा वोटों का बटवारा भी सीधे जीत-हार के गणित को प्रभावित करता है। बस्तर सीट की बात करें तो यहाँ पिछले चुनावों में डॉ. सुबाहू कश्यप (भाजपा) और लखेश्वर बघेल (कॉग्रेस) के बीच हारजीत केवल 1.23% वोटो के अंतर से तय हुई थी। मध्य बस्तर चुनाव के लिहाज से अपेक्षाकृत शांत क्षेत्र है अत: प्रत्याशियों की हलचल और चुनाव के दंगल का नज़ारा यहाँ बखूबी देखा जा सकता है; शहरी और मैदानी क्षेत्रों के लिये चुनाव वैसे भी उत्सव ही बन जाते हैं।  

उत्तर बस्तर की ओर आते ही स्थितियाँ पुन: संघर्ष की जान पडती हैं। नारायणपुर सीट पर केदार कश्यप मजबूत प्रत्याशी हैं। प्रतिद्वंद्वी से पिछले चुनावी नतीजों में 24.47% वोट अंतर के कारण नारायणपुर सीट भाजपा के पक्ष में जाती प्रतीत होती है। यह स्थिति अंतागढ में उलट जाती है; विक्रम उसेंडी को अपनी ही पार्टी से अलग हुए भोजराक नाग का न केवल विरोध झेलना है जो उनके वोट काट सकते हैं अपितु कॉग्रेस के उम्मीदवार मंगतूराम पवार भी एक मजबूत प्रत्याशी हैं। इस क्षेत्र में खास कर पखांजूर और आसपास, दण्डकारण्य परियोजना के तहत विस्थापित हो कर आये बंगाली शरणार्थियों (नामशूदों) का वर्चस्व है। इन शरणार्थियों की बडी तादाद संगठित हो कर वोट देती है और उन्होंने प्रमुखता से स्वयं को अनुसूचित जाति में सम्मिलित किये जाने की माँग उठाई हुई है। यह देखना होगा कि किस प्रत्याशी का आश्वासन से विस्थापित बंगाली समाज लपक लेता है और उसकी जीत में अपनी भूमिका निभाता है। अंतागढ में 2008 के चुनावों में भाजपा की जीत का अंतर केवल 0.03% था अर्थात केवल 109 वोट से विक्रम उसेंडी जीत हासिल कर सके थे अत: यह दिलचस्प सीट सिद्ध होने जा रही है। केशकाल विधानसभा सीट में निर्दलीय उम्मीदवार ही यदि त्रिपक्षीय मुकाबला खडा कर सकें तभी चुनाव रोचक होगा अन्यथा तो भाजपा के सेवकराम नेताम और कॉग्रेस से संतराम नेताम आमने सामने भिडने वाले हैं। पिछले चुनाव में जीत का अंतर दोंनो प्रमुख पार्टियों के बीच महज 7.73% था जो सुरक्षित दूरी किसी लिहाज से नहीं है। यही स्थिति कमोबेश कोण्डागाँव में भी है जहाँ वर्तमान में भाजपा की विधायक लता उसेंडी चुनाव लड रही हैं। केवल 2.62% मतो के अंतर से भाजपा ने पिछले चुनाव में कोण्डागाँव सीट पर जीत दर्ज की थी। यहाँ कॉग्रेस की अंदरूनी लडाई के कारण उनके लिये अंगूर खट्टे भी हो सकते हैं। मोहन मरकाम को फिर से कॉग्रेसी उम्मीदवार बनाने से नाराज शंकर सोढी (भूतपूर्व सांसद मानकू राम सोढी के बेटे) के निर्दलीय लडने से त्रिपक्षीय समीकरण बनने लगे हैं। यद्यपि शंकर सोढी 2008 में भी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में केशकाल से लडे थे और उन्हें केवल 4627 (4.36%) मत ही प्राप्त हुए थे। कांकेर विधानसभा सीट पर भाजपा ने वर्तमान विधायक की टिकट काट दी है तथा नये उम्मीदवार के रूप में संजय कोडोपी को मैदान में उतारा है। पिछले चुनाव में भाजपा ने बडे अंतर (16.78%) से कॉग्रेस को हराया था अत: प्रश्न सामने हैं कि क्या कॉग्रेस के उमीदवार शंकर धुर्वा मतो की यह खाई पाट सकते हैं? यह ध्यान देने योग्य बात है कि तीसरा पक्ष वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों में लगभग नगण्य था; यहाँ से 2.95% वोट कम्युनिष्ट दल के हिस्से तो महज 4.12% वोट बसपा के खाते में दर्ज हुए थे। बिलकुल कांकेर वाली स्थिति भानुप्रतापपुर की भी है जहाँ मौजूदा विधायक का टिकट काट कर भाजपा ने रुक्मिणी ठाकुर को मैदान में उतारा है। कॉग्रेस के प्रत्याशी मनोज मण्डावी को पिछले चुनावों के 15.83% मतों के अंतर से जूझना होगा।

चित्र -3: चुनावों में जीत का अंतर (प्रतिशत में)


चुनावी गणित में मतो के अंतर अवश्य मायने रखते हैं किंतु मतदान कितना हुआ इस पर सभी राजनीतिक दलों की निगाह रहती है। सुरक्षा कारणों से निर्वाचन आयोग ने अनेक मतदान केन्द्रों को अस्थाई रूप से स्थानांतरित कर दिया है। उदाहरण के लिये अंतागढ के सोलह मतदान केन्द्रों को दूसरे स्थानों पर ले जाया गया है। इस कदम के अपने पक्ष-विपक्ष हैं तथा यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या जिन गावों में नक्सली भय से लोग मतदान के लिये बाहर ही नहीं आते वे नये बूथों तक पहुँचेंगे? जिन बूथों से गावों की दूरी कई किलोमीटर बढ गयी है क्या वह मतदान प्रतिशत में गिरावट का एक कारण नहीं सिद्ध होगी? कई पत्रकार मित्रों ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में चुनाव की स्थिति को ले कर अपने अनुभव मुझसे साझा किये हैं। जो बात बाहर निकल कर आयी है वह सु:खद आश्चर्य पैदा करती है चूंकि आदिवासी मतदान में भाग लेना चाहते हैं। कई ग्रामीणों ने खुल कर कहा कि वे अगर वोट नहीं डालेंगे तो सडक, बिजली पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओं पर उनका हक समाप्त हो जायेगा। वस्तुत: सबसे बडा लोकतंत्र विवश है चूंकि आज भी एसे तंत्र विकसित नहीं हो सके जिससे कि हर इच्छुक मतदाता अपनी राय जाहिर करने के लिये उपस्थित हो सके भले ही वह “इनमे से कोई नहीं” वाले बटन को चटखा कर चला आये। चुनावों को प्रभावित करने वाला एक बडा पक्ष है बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों से विस्थापन। सलवा जुडुम की समाप्ति के साथ ही हजारों विस्थापित आदिवासी परिवारों के साथ अपनी पुनर्स्थापना की दिक्कते आने लगीं। यह भी समझने योग्य बात है कि नक्सलवाद भी बडे पैमाने पर विस्थापन को जन्म देता है तथा परिवार के परिवार भय से अथवा मुखबिर करार दिये जाने के बाद अपनी जमीन छोड देने के लिये बाध्य हो जाते हैं। यह एक बडा आंकडा है जो मतदाताओं की सूची के बहुतायत उपस्थित नामों को केन्द्रों से गायब पाता है। हमारे चुनाव विश्लेषण इन विस्थापितों के महत्व को हमेशा ही नजरंदाज कर देते हैं। एक सही चुनाव के लिये वास्तविक मतदाता और सही मतप्रतिशत की आवश्यकता है अन्यथा विजय खोखली ही है। प्रस्तुत आंकडे बस्तर के चुनाव की जो भी दिशा-दशा बताते हों इनमे विस्तापित आदिवासी अनुपस्थित हैं। यही कारण है कि इस प्रश्न से बचा नहीं जा सकता कि क्या हमारे चुनाव वास्तविक लोकतंत्र के प्रतिनिधि हैं? 

-राजीव रंजन प्रसाद 
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Wednesday, November 06, 2013

बस्तर के मृतक स्मृति स्मारक इतिहास और कला की दुर्लभ युति हैं।


एक मृत्यु गीत (हनाल पाटा) की दार्शनिकता ने मुझे अपनी ओर खींचा। शब्द थे - “अब तुम मर चुके हो; अब हम तुम्हारी सम्पत्ति खुशी खुशी मिल कर खा जायेंगे”“”। इस गीत का मर्म जीवन की निस्सारता की ओर ही इशारा करता है। बस्तर की मान्यताओं में आत्मा का अस्तित्व है और पुनर्जन्म तथा मोक्ष की अवधारणायें भी हैं। इससे अधिक महत्वपूर्ण कि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति की पहचान को जीवित रखा जाता है, उसकी स्मृतियों को कलात्मकता के साथ सजो कर रखा जाता है। बस्तर में स्मृति स्मारक बनाने की परम्परा है जिसे ध्यान से देखने पर आप मृतक के व्यक्तित्व का अपने मन मे खाका खीच सकते हैं। यह एक व्यक्ति के इतिहास को लम्बे समय तक सुरक्षित रखने की परम्परा है। बस्तर दुनिया के उन गिने चुने क्षेत्रों में से एक है जहाँ महापाषाण सभ्यता के प्राचीनतम अवशेष आज भी सुरक्षित है। महापाषाण सभ्यता की पहचान है कि वहाँ मृतकों को अथवा उनके अवशेषों को पत्थर की बड़ी बड़ी शिलाओं को खड़ा कर के उनके मध्य अकेले अथवा सामूहिक रूप से दफनाया जाता था। महापाषाण शब्द मेगालिथ शब्द का हिन्दी रूपांतर है; यूनानी भाषा में मेगास का अर्थ है ‘विशाल’ और लिथोज का अर्थ है ‘पाषाण’। महापाषाण परम्परा बस्तर में किसी न किसी रूप में वर्तमान में भी सांस ले रही है; अत: इस निष्कर्ष पर पहुँचना गलत नहीं कि मृतक स्मारकों के माध्यम से आदिवासी समाज ने अपने इतिहास को सुरक्षित रखा है। 

बस्तर के मृतक स्तम्भ यहाँ के आम जनमानस की समाधियाँ हैं। कई तरह की समाधियाँ बनाने का चलन महापाषाण सभ्यता के विभिन्न स्थलों में देखा गया है। जिनमें प्रमुख हैं – “कैर्न समाधियाँ” जिसमे पत्थरों को गोल चक्र में बिछा कर इस घेराव के अंदर गड्ढा खोद कर उसमे शव रख मिट्टी से ढक दिया जाता था। तत्पश्चात उपर से पत्थर भर दिये जाते थे। “डोलमेन समाधियाँ” आयताकार मेज आकृति की समाधियाँ होती हैं अर्थात इसमे भूमि शिला खण्ड रख कर उसपर शव तथा अन्य सामग्रियाँ रखते हैं। इसके बाद चारो तरफ सपाट शिलाओं को खडा कर दिया जाता है। इसके पश्चात समाधि को उपर से एकाधिक शिलाओं द्वारा ढक दिया जाता है। “छत्र शिला” अर्थात चार प्रस्तर खण्डों को खड़ा गाड़ कर उसके उपर एक गोलाकार प्रस्तर खण्ड रखा जाता है इससे यह मृतक स्मारक किसी छत्र की तरह दिखाई देता है। “फन शिला” के निर्माण के लिये एक खोदे हुए गड्ढे में शव और अन्य सामग्री रख कर मिट्टी से ढकने के उपरांत उसके उपर गोलाकार पत्थर रख दिया जाता है। यह गोलाकार पत्थर सर्प के फन के समान दिखाई पड़ता है। “गुफा समाधियाँ” वस्तुत: पहाड़ों की चट्टानों को आयताकार अथवा वर्गाकार काट कर निर्मित की जाती हैं। “मेनहीर” प्रकार में मृतक की अंतिम क्रिया के पश्चात उस स्थल पर एक खड़ा पत्थर लगा दिया जाता है। ये पत्थर डेढ मीटर से पाँच मीटर तक लम्बे हो सकते हैं। बस्तर में मेनहीर समाधियाँ प्रमुखता से पायी जाती हैं तथा इसका विस्तार कांकेर से कोण्टा तक सर्वत्र देखा जा सकता है। बस्तर पर उपलब्ध प्राचीनतम संदर्भ ग्रंथ बस्तर भूषण में केदार नाथ ठाकुर ने मेनहीर समाधियों का उल्लेख करते हुए लिखा है – “महत्वपूर्ण व्यक्ति या कोई बुड्ढा मर जाने पर रास्ते के किनारे यादगार के लिये ऊँचा पत्थर गाड़ देते हैं। ये पत्थर तीन हाथ से ले कर पंद्रह पंद्रह हाथ तक के हो सकते हैं। रास्ते चलते लोग इन पत्थरों पर तम्बाकू डालते जाते हैं”। दक्षिण बस्तर में मृतक समाधियों के प्रकारों की विविधता दृष्टिगोचर होती है तथा कैर्न समाधियाँ और डोलमेन समाधियाँ भी अच्छी मात्रा में देखी जा सकती हैं। आमतौर पर ये समाधियाँ लम्बी लम्बी कतारों में पहाडी ढलानो पर, खेतों से अलग, सड़क के किनारे, घाटी में, तालाब के किनारे, गाँव की सीमा के पास और कभी कभी गाँव के भीतर भी स्थित होती हैं। दंतेवाड़ा-बीजापुर क्षेत्रों के माडिया मृतक स्तम्भों को मुख्य मार्गों के किनारे लगाते हैं। दण्डामि माडिया, अबूझ माडिया, दोरला और मुरिया जनजातियाँ अभी भी अपनी मृतक स्मारक निर्माण संस्कृति को बचाये हुए हैं।

मेनहीर प्रकार के मृतक स्तम्भ चूंकि सर्वाधिक मात्रा में बस्तर संभाग में पाये जाते हैं हमें इसके प्राप्त प्रकारों पर भी विवेचना करनी आवश्यक है। मुख्य प्रकारों में उरूसकल, बीत और खम्ब चलन में हैं। “उरुसकल” का गोण्डी में संधिविच्छेद कर अर्थ तलाशने की कोशिश की जाये तो उरूस अथवा उरसाना को दफनाना का पर्याय कहा जाता है जबकि कल का अर्थ है पत्थर; उरूसकल के स्थान पर कोटोकल शब्द भी चलन में मिलता है। उरूसकल आमतौर पर सीधा गाडा जाने वाला पत्थर होता है। मेनहीर लगाने की प्रक्रिया को कल उरसाना या पत्थर गाडना भी कहते हैं। उरूसकल प्रकार के मेनहीरों में समय के साथ प्रस्तर खण्डों के स्थान पर लकड़ी के नक्काशीदार खम्बे प्रयोग में आने लगे थे। “बीत” प्रकार के मेनहीर वस्तुत: छोटे छोटे पत्थरों का वर्गाकार ढेर होते हैं। “खम्ब” प्रकार के मेनहीर, लकडी के खम्बे (कभी कभी पत्थर के भी) होते हैं जिनके शीर्ष पर चिड़िया, जानवर या आदमी की आकृति उकेरी जाती है। मृतक स्मृति स्मारकों में आज अनेक प्रकार के बदलाव देखे जा रहे हैं तथा पत्थरों के स्थान पर सीमेंट, टाईल्स, संगमरमर आदि का भी प्रयोग होने लगा है किंतु परम्परागतता इन स्मारकों अथवा मठों का वास्तविक परिचय स्वत: ही करवा देती है; उदाहरण के लिये यदि सीमेंट के स्मृति स्तम्भ पर किसी तरह का कपड़ा लपेटा गया है तो उसे गायता (ग्राम प्रधान) के स्मारक के रूप में पहचाना जा सकता है। 

आमतौर पर स्त्री और पुरुषों के मृतक स्मृति स्तम्भ अलग अलग लगाये जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यदि किसी व्यक्ति की संदेहास्पद मृत्यु होती है तो उसका स्मारक अन्य उपस्थित मृतक स्तम्भों से दूर खडा किया जाता है। पत्थर गाडने की प्रक्रिया में मुख्य व सीधे खडे किये जाने वाले पत्थर नीचे एक छोटा और चपटा पत्थर जिसे दो अन्य पत्थरों से सहारा दिया गया होता है अवश्य लगाया जाता है। इन तीन पत्थरों को ‘हनाल गरया’ अर्थात आत्मा का सिंहासन कहते हैं। चूकि अब मृतक स्मृति स्तंभ लगाने की परम्परा टूटने और अपने स्वरूप में बदलने लगी है अत: वंश और गोत्र के हिसाब से पत्थरों को लाने के स्थान जैसी बाध्यतायें समाप्त होने लगी हैं। सामान्य तौर पर आदिवासी समाज अपने मृतक स्मारकों में प्रयोग करने के लिये पत्थर अथवा अपने देवताओं के लिये लकड़ी विशेष जंगलों और चिन्हित पहाड़ों से ही लाना पसंद करते हैं। वेरियर एल्विन से प्राप्त संदर्भ के अनुसार कोकोरी में नैतामी वंश के लोग चापा डोंगरी से और मरावी वंश के लोग महादेवडोंगरी से मृतक स्तम्भों के निर्माण के लिये पत्थर लाते थे। इसी तरह स्मृति स्तम्भों के आकार प्रकार को ले कर भी अलग अलग स्थानों में विविधतायें पायी गयी हैं। अंतागढ के पास अवस्थित मृतक स्मृति स्तम्भों के आकार आठ फीट तक उँचे हैं और चार फीट तक चौडे भी पाये गये हैं जबकि कोण्डागाँव के आसपास एक फुट से उँचे मेनहीर बमुशिक ही दिखाई पड़ते हैं। एक समय था जब सबसे विशालकाय स्मारक जिनमे बडे बडे पत्थर प्रयोग किये जाते थे, यह परम्परा झोरिया आदिवासियों में देखी जाती थी किंतु अब यह विलुप्त प्रथा है। जिस तेजी से आदिवासी समाज बदल रहा है तथा वंश विखर रहे हैं वे चिन्हित इलाको के देवताओं और जनजातियों की दावेदारी को भी मिटाते जा रहे हैं। 

यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि प्रचलित मान्यता कहती है अगर आत्मा अपने लिये की गयी व्यवस्था से प्रसन्न होती है तो मेनहीर (स्मृति पाषाण) का आकार बढ जायेगा। एक बच्चे के स्मारक में छोटा पत्थर लगाया जाता है; यह विश्वास किया जाता है कि अगले बीस वर्षों में यह पत्थर उतना ही बडा हो जायेगा जितना कि मृत शिशु युवा हो कर आकार लेता। इन मृतक स्मृति स्तम्भों से जोड कर व्यक्तियों, उनके वंश, गाँव और समाज के शगुन-अपशगुन भी देखे जाते हैं। किसी मृतक स्मारक की शिला का बढना एक शुभ शगुन माना जाता है। यदि स्मारक शिला गिर पड़े या टेढी हो जाये तो तुरंत ही मृतक के रिश्तेदार किसी गुनिया या सिरहा की सलाह लेते हैं और शांति के उपाय करते हैं चूंकि यह मान्यता है कि पत्थर तभी गिरता है जब मृतक की आत्मा क्रोधित या उपेक्षित महसूस कर रही हो। कई बार मृतक स्तम्भ के गिरने को गाँव में होने वाले अनिष्ट से भी जोड कर देखा जाता है। अगर सफेद चींटियाँ किसी स्मृति शिला के उपर बाबी बना लें तो यह अशुभ लक्षण है। एसा भी नहीं कि इन स्तभों पर सर्वदा निगाह रखी जाती है कहते हैं बीस वर्षों में मृतक या हनाल अपने पूर्वज में विलीन हो जाता है और उसका आत्मा के रूप में जीवन समाप्त हो जाता है; इसीलिये जब कोई पुराना पत्थर गिरता है तो उसपर ध्यान नहीं दिया जाता। 

बस्तर के मृतक स्मृति स्तंभ अपनी पुरातनता के लिये ही नहीं अपितु अंतर्निहित कलापक्ष के कारण भी विश्वप्रसिद्ध हैं। वर्तमान में मृतक स्मृति शिलाओं पर भित्तिचित्र उकेरने की परम्परा देखी गयी है जबकि लकडी के स्मृति स्तम्भों में नक्काशी कर उसे लगाने के अनेक प्राचीनतम अवशेष दक्षिण बस्तर में विभिन्न स्थानो पर देखे जा सकते हैं। कला अनायास ही पत्थरों-लकडी के स्मारकों के साथ समाहित नहीं हुई होगी अपितु गुफाओं में लिखने वाला मानव निश्चित ही पूर्वजों के स्मृति स्तम्भों पर आकृतियाँ अंकित करता रहा होगा। धूप और बारिश का आघात सहने वाले और निरंतर क्षरित होते रहने वाले खुले में खडे पत्थर गुफाचित्रों की भांति प्राकृतिक रंगो से बने चित्रों को सहेज नहीं सके। आज यही परम्परा इन पत्थरों में पेंटिंग कर के निभाई जा रही है। इन स्तम्भों में मृतक के प्रिय अस्त्र शस्त्र, हल-बैल, पशु-पक्षी, कीट पतंगों को उकेरा जाता है। उस व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण पक्ष उसकी स्मृति मे खडे किये जाने वाले पत्थर पर चित्रित कर दिया जाता है। वह कैसे रहता था, उसके क्या महत्वपूर्ण शिकार किये, गाँव में वह कितने महत्व का व्यक्ति था आदि इन चित्रों में उकेर दिये जाते हैं। स्मृति स्तम्भ बनाने वाले कलाकार लोक जीवन में शामिल चिन्हों और प्रतीकों को अपने चित्रों में शामिल करते हैं। यह सही है कि कंकरीट के स्मृति स्तम्भ अब बहुत बडी संख्या में लगाये जा रहे हैं जिन्हें रंगा जाता है, चित्रित किया जाता है एवं उनके शीर्ष पर काष्ठ से पशु अथवा पक्षियों की आकृति लगा दी जाती है। यदि इन स्मृति शिलाओं मे उकेरे गये परम्परागत चित्रों के देखा जाये तो एक शिला में कई भागों में चित्र उकेरे जाते हैं और हर हिस्सा अलग अलग अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। अनेको बार चित्र उसके समय का प्रतिनिधित्व नहीं करते जैसे कि हाथी और घोडे आज का बस्तर नहीं हैं फिर भी व्यक्ति की प्रधानता अथवा महत्ता दर्शाने के लिये चित्रित किये जा रहे हैं। अन्य पशुपक्षियों में शेर, हिरण बतख, केकडे, सांप, उल्लू आदि प्रमुखता से मृतक स्मृति स्तंभों पर अंकित किये जा रहे हैं। अनेक बार उकेरे गये समानुवर्ती अथवा भांति भांति के ज्यामितिक आकार ध्यान खींचते हैं। सल्फी के पेड का यदा कदा चित्रण तो मिलता है किंतु पेड पौधों का बहुत अधिक चित्रण इन स्मृति शिलाओं में नहीं पाया जाता, इसके कारणों की विवेचना होनी चाहिये। यदि मृतक स्तम्भ काष्ठ निर्मित है तो उसकी भव्यता अतुलनीय होती है। प्राय: काष्ठ स्तंभ चौडाई में चौकोर आकृति के होते हैं जबकि लम्बाई दो से पाँच फुट तक होती है। कुछ पुराने काष्ठ स्तभ विशालकाय भी पाये गये हैं। इन काष्ठ स्तंभों के शीर्ष को आमतौर पर गोल आकृति में बनाया जाता है जिसके उपर यदा-कदा कोई मानव आकृति अथवा चारो दिशाओं में कोई पशु अथवा पक्षी आकृति अलग से लगा दी जाती है। काष्ठ स्तंभ में नीचे से उपर तक विभिन्न स्तरों और अनेक भांति की आकृतियाँ उकेर दी जाती हैं। मानव आकृतियों में गौर सींग लगाये हुए दण्डामि माडिया नर मुख्य रूप से बनाये जाते हैं। आदिवासी नृत्य भी उकेरे जाने वाली रचनाओं में प्रमुख हैं। काष्ठ निर्मित मृतक स्तंभों में पाषाण स्मारकों की तरह रंग नहीं भरे जाते किंतु उनकी कलात्मकता और भव्यता हर किसी का ध्यान उनकी ओर आकर्षित करती ही है। आज काष्ठ स्मृति स्तंभों का चलन न के बराबर हो गया है अत: जो भी शेष हैं उन्हें धरोहर की तरह संरक्षित किया जाना चाहिये।    
 
 बस्तर के आदिवासी जन्म से ले कर मृत्यु तक कलाधर्मी हैं; वे धर्मभीरू भी हैं और दार्शनिक भी। इन मृतक स्मारकों को लगाने के दौरान गाये जाने वाले मृत्यु गीत अर्थात हनाल पाटा वस्तुत: आदिवासी धर्म, उनके मृत्यु और आत्मा विषयक दर्शन की प्रस्तुति है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बस्तर के आदिवासी समाज से यह विरासत लुप्त होती जा रही है। अब न केवल शिला और काष्ठ के स्थान पर सीमेंट और ईंटों के स्मारक बनाये जाने लगे हैं अपितु संगमरमर तथा टाल्स का भी प्रयोग किया जाने लगा है। वंश के मृतक स्मारकों को एक स्थान पर लगाये जाने वाली परम्परा में भी बदलाव देखे जा रहे हैं एवं अब इसकी अनिवार्यता न होने की बात मुझे कई स्थानों पर आदिवासी प्रतिनिधियों ने बताई। यद्यपि आदिवासी समाज के प्रतिष्टित व्यक्तियों के मृतक स्मारक आपको अब भी परम्परागत एवं निर्दिष्ट स्थानों पर मिलेगें उदाहरण के लिये फरसपाल में आदिवासी नेता महेन्द्र कर्मा और उनके परिवार के सामूहिक मठ (स्मारक) देखे जा सकते हैं। 
इसी तरह स्मारकों में अंकित किये जाने वाले चित्रों में भी बदलाव हुए हैं; अब इनमे ट्रक, जीप, मोटरसाईकिल आदि देखने को मिल रही हैं। उत्तर बस्तर में मृतक स्मारकों के स्वरूप भी बदल रहे हैं और भिन्न भिन्न आकृतियाँ बनाई जा रही है जैसे मकान, जीप, मोटरसाईकल में सवार युवक आदि। दक्षिण बस्तर में भी मैने एक स्मारक एसा देखा जिसमे व्यक्ति का चेहरा ही मठ के रूप में बनवा कर स्थापित करवा दिया गया है। माओवादी हिंसा से जूझते इस अंचल में संघर्ष के प्रतीक भी स्मारक चित्रों में देखे जा रहे हैं उदाहरण के लिये मैने बंदूखें भी चित्रित देखीं और हेलीकॉप्टर भी। 
माओवाद ने भी बस्तर की इस संरक्षित की जाने वाली परम्परा को गहरा धक्का पहुँचाया है। यह ध्यान देने योग्य सत्य है कि माओवाद के नाम पर माड क्षेत्र में जारी युद्ध में मारे जाने वाले अधिकतम लोग माडिया ही हैं क्योंकि उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में खडा किया गया है। मारे जाने के बाद उनके अंतिम कर्म तो परम्परागत हों भले ही बंदूख वालों को ईश्वर पर आस्था नहीं तथापि इतिहास पर तो होनी चाहिये? लाल रंग के जिन स्तूपों का निर्माण मृतकों की स्मृतियों को जिन्दा रखने के बहाने इन दिनों देखने में आ रहा है वे प्राचीन काल में बनाये जाने वाले युद्ध स्तंभों जैसे हैं इनका आदिम परम्पराओं से कोई लेना देना नहीं है।

- राजीव रंजन प्रसाद
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Friday, November 01, 2013

बस्तर के आदिवासी जानते हैं अपने वोट की कीमत


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[बस्तर में विधान सभा चुनाव के इतिहास पर विशेष आलेख]

छत्तीसगढ राज्य के स्पष्ट भैगोलिक विभाजन क्षेत्र बस्तर की अपनी पहचान तथा राजनीतिक समझ रही है। हाल के दिनो में दिल्ली के बड़े बड़े अखबारों ने बस्तर के पिछडेपन और अबूझियत पर पन्ने काले किये हैं, एक दृश्य उभारा गया है जिसके अनुसार इस क्षेत्र की आदिवासी जनता राजनैतिक समझ नहीं रखती। अब फिर चुनाव सामने हैं और बस्तर ही छत्तीसगढ की राजनीति के केन्द्र में अवस्थित है। रायपुर में वही अपनी सरकार का दावा प्रस्तुत कर सकता है जिसने बस्तर को साध लिया। कोशिश करते हैं यह समझने की कि क्या बस्तर के आदिवासी अपने वोट की कीमत जानते हैं; अथवा दिल्ली के टेलीस्कोप की तस्वीर साफ साफ है? 

बस्तर के चुनावी संघर्षो पर बात करने से पूर्व मैं वर्ष 1957 से ले कर वर्ष 2008 तक के परिणामों पर एक वहंगम दृष्टि डालना चाहूंगा। मोटे तौर पर हमें राजनीतिक परिस्थितियो को तीन भागों में विभाजित करना होगा। पहला भाग आरंभ होता है जब स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ बस्तर और कांकेर रियासतों का भारतीय संघ में विलय हुआ और वृहत बस्तर जिला अस्तित्व में आया। इस क्षेत्र की राजनीति को दोनो ही रियासतों के पूर्व शासक किसी न किसी तरह से प्रभावित करते रहे तथा 1957 से 1972 तक के चुनाव परिणामों में लोकतंत्र के शैशव काल का अस्त हो चुके राजतंत्र के साथ संघर्ष स्पष्ट देखा जा सकता है। बदलाव का समय अर्थात दूसरा भाग परिलक्षित होता है वर्ष 1977 के चुनाव परिणामों के साथ जो किसी न किसी तरह छत्तीसगढ राज्य की स्थापना तक राजनैतिक दशा दिशा को अपने नियंत्रण में बनाये रखता है। यह समझना भी आवश्यक है कि बस्तर और कांकर के राजपरिवारों का जैसे ही वर्चस्व समाप्त हुआ यह क्षेत्र नेतृत्व शून्यता के दौर से गुजरा। बस्तर की राजनीति का तीसरा भाग अर्थात छत्तीसगढ राज्य बनने के साथ साथ माओवाद और सलवाजुडुम जैसी गतिविधियों ने बस्तर की राजनीति को बुरी तरह प्रभावित किया। इसके बाद भी वाम दल पूरी तरह हाशिये पर चले गये और चुनावी नूराकुश्ती केवल दो दलों कॉग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी के बीच ही सिमट कर रह गयी। किसी न किसी तौर पर माओवादी बस्तर की सभी बारह सीटों पर अपना प्रभाव रखते हैं परंतु यह भी सत्य है कि उनकी गतिविधियों का चरमकाल वर्ष-2003 और वर्ष-2008 के विधान सभा चुनाव का दौर था जबकि इन समयों में वाल दलों की उपस्थिति बस्तर से नगण्य हो गयी।

चुनावों की तीन अलग अलग परिस्थितियो का विवेचन करते हैं। मुझे यह लिखने में कत्तई संकोच नहीं कि बस्तर की आम जनता अत्यधिक जागरूक है तथा वह राजनैतिक समझ रखती है। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की अपनी ही सोच थी जिसमे कभी वे गहरे सामंतवादी प्रतीत होते थे तो कभी प्रखर बुद्धिजीवी। बस्तर क्षेत्र में हुए पहले चुनाव में राष्ट्रीय भावना हावी थी किंतु उम्मीदवारों के चयन में प्रवीर फैक्टर का बडा असर रहा। यह सब कुछ प्रारंभ हुआ था जब 13 जून 1953 को उनकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत ले ली गयी। 1957 में प्रवीर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विजित हो कर विधानसभा पहुँचे; 1959 को उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 11 फरवरी 1961 को राज्य विरोधी गतिविधियों के आरोप में प्रवीर धनपूँजी गाँव में गिरफ्तार कर लिये गये। इसके तुरंत बाद फरवरी-1961 में “प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट” के तहत प्रवीर को गिरफ्तार कर नरसिंहपुर जेल ले जाया गया। राष्ट्रपति के आज्ञापत्र के माध्यम से 12.02.1961 को प्रवीर के बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त कर दी गयी। यही परिस्थिति 1961 के कुख्यात काण्ड का कारण बनी जहाँ प्रवीर की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे आदिवासियों को घेर कर लौहण्डीगुडा में गोली चलाई गयी। बस्तर की जनता ने इस बात का लोकतांत्रिक जवाब दिया। फरवरी 1962 को कांकेर तथा बीजापुर को छोड पर सम्पूर्ण बस्तर में महाराजा पार्टी के निर्दलीय प्रत्याशी विजयी रहे तथा यह तत्कालीन सरकार को प्रवीर का लोकतांत्रिक उत्तर था। इस चुनाव का एक और रोचक पक्ष है। कहते हैं कि राजनैतिक साजिश के तहत तत्कालीन जगदलपुर सीट को आरक्षित घोषित कर दिया गया जिससे कि प्रवीर बस्तर में स्वयं कहीं से भी चुनाव न लड़ सकें। उन्होंने कांकेर से पर्चा भरा और हार गये। कांकेर से वहाँ की रियासतकाल के भूतपूर्व महाराजा भानुप्रताप देव विजयी रहे थे। 

बस्तर जिले की सभी सीटों पर प्रवीर की जबरदस्त पकड के कारण राजनैतिक साजिशों के लम्बे दौर चले। अंतिम परिणति हुई 1966 में महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की उनके ही महल में गोलीबारी के दौरान नृशंस हत्या। इसके अगले ही वर्ष चुनाव हुए; बस्तर की जनता ने फिर जवाब दिया। कांकेर, चित्रकोट और कोण्टा सीट को छोड कर कॉग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। अंतत: राजनैतिक पासे बाबा बिहारी दास की आड़ में खेले गये। उस दौर में स्वयं को प्रवीर का अवतार घोषित कर बाबा बिहारीदास ने जबरदस्त ख्याति पूरे बस्तर में अर्जित कर ली थी अत: वर्ष 1972 का चुनाव भी प्रवीर फैक्टर के साथ ही लडा गया। बाबा बिहारी दास ने कॉग्रेस के पक्ष में प्रचार किया। बिहारीदास ने चित्रकोट, बकावंड, कोंड़ागाँव, दंतेवाड़ा, केशकाल, नारायनपुर और जगदलपुर विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार किया। इन सभी सीटों पर कॉग्रेस वर्ष-1967 का चुनाव हार गयी थी; अप्रत्याशित रूप से इस बार सभी सीटों पर कॉग्रेस की जीत हुई। लोकतांत्रिक बस्तर के इन आरंभिक चुनावों से यह ज्ञात होता है कि दौर एक एसे नायक का था जिसे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त था। अपने जीवनकाल तथा मृत्यु के पश्चात के दो चुनावों तक उसने बस्तर संभाग की राजनीति को अपने अनुरूप बनाये रखा। एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी यह कि वर्ष 1967 के चुनावों में जनसंघ ने भी दो सीटे जीती थी और यही परिणाम उसने 1972 के चुनावों में भी दिखाया।  

तालिका – 1: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि (वर्ष 1957 – 1972 तक)


प्रवीर के अवसान के साथ ही बस्तर नायक विहीनता के अंधकार में जाता हुआ प्रतीत होता है। यदि बस्तर की आदिवासी जनता में चुनावी समझ नहीं होती तो वर्ष 1977 के चुनाव में क्षेत्रवार भिन्न भिन्न परिणाम आने चाहिये थे। यह बस्तर में संकर काल था जो व्यक्ति आधारित राजनीति से बाहर आ कर नयी दिशायें तलाश रहा था। अब आंचलिक समस्याओं के लिये मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य की राजधानी भोपाल तक बस्तरियो का पहुँचना वैसा ही था जितना कि दिल्ली दूर थी। इसी कारण क्या बस्तर देश की राजनीति से सीधे प्रभावित हो रहा था? 

आपातकाल के बाद चुनावों का दौर आया; बस्तर में भी विधानसभा के चुनाव होने थे। यह समय देश भर में  इन्दिरा गाँधी के विरोध का था। यह जनता पार्टी के उत्थान का काल भी था; कई विचारधाराओं और छोटे-बड़े दलों को जोड़कर यह पार्टी बनी थी। क्या बस्तर की आदिवासी जनता ने भी राष्ट्रीय राजनीति के नायक जयप्रकाश नारायण के साथ अपनी सहभागिता दर्शाई थी? वर्ष 1977 के चुनाव तो यही कहते हैं। कोण्डागाँव को छोड कर शेष बस्तर की सभी सीटे जनता पार्टी के हिस्से में आयी थीं। राष्ट्रीय राजनीति के प्रभाव वाले इस दौर में एनएमडीसी की आमद के साथ ही दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में मजदूर राजनीति का उद्भव हुआ। जनता पार्टी से देशभर का मोह भंग हो चुका था और कॉग्रेस का नवोत्थान हो गया था। वर्ष 1980 के चुनाव परिणाम पहली बार बस्तर में खिचडी सिद्ध हुए। एक ओर नारायणपुर से जनता पार्टी का उम्मीदवार विजयी रहा तो कांकेर और कोण्टा से निर्दलीय प्रत्याशियों को विजय हासिल हुई। पांच सीटें कॉग्रेस की झोली में गयीं जबकि तीन सीट भारतीय जनता पार्टी के हिस्से में आयी। इस के साथ ही मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की टिकट से महेन्द्र कर्मा ने दंतेवाडा सीट जीत ली थी। इस जीत के पीछे बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना में कार्यरत कम्पनी एनएमडीसी की मजदूर यूनियनों का बहुत बडा योगदान था, साथ ही साथ वर्ष 1978 में हुआ किरन्दुल गोलीकाण्ड भी इस मजदूर बाहुल्य क्षेत्र में वामपंथ की जमीन तैयार करने में मुख्य सहयोगी बना। 

पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था, इन्दिरागाँधी की राजनैतिक साख आगामी चुनाव में एक बार फिर दाँव पर थी। इसी बीच वह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी जिसने पूरे देश को आक्रोशित कर दिया था; 31 अक्टूबर 1984 को इन्दिरा गाँधी की हत्या कर दी गयी। वर्ष 1985 में हुए विधानसभा चुनावों में सहानुभूति की वह लहर चली कि बस्तर क्षेत्र में जनता पार्टी ने  वर्ष 1977 के चुनावों में जो करिश्मा कर दिखाया था वह कॉग्रेस ने दोहरा दिया। भानपुरी की विधानसभा सीट जो कि भारतीय जनता पार्टी ने जीती इसे छोड कर शेष सभी ग्यारह सीटों पर कॉग्रेस का कब्जा हो गया। कॉग्रेस ने बस्तर क्षेत्र में पहली बार एसा वर्चस्व कायम किया था। इन चुनावों के परिणामों से यह बात तो स्पष्ट है कि वृहद मध्यप्रदेश का भाग बस्तर क्षेत्र अपने राज्य का एसा उपेक्षित हिस्सा था जिसकी स्थानीयता ही चुनावी मुद्दा नहीं बन पाती थी। आश्चर्य की बात यह कि 1977 से ले कर 1993 तक लगभग हर चुनाव परिणाम के पीछे किसी न किसी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की बडी घटना को देखा जा सकता है। 

इसके साथ ही यह बात इनकार करने योग्य नहीं है कि इन समयो में ही आन्ध्रप्रदेश से चल कर माओवाद ने बस्तर के अबूझमाड में अपने पैर रख दिये थे। यद्यपि वामपंथ की लोकतांत्रिक जमीन भी इसी दौर में फैली और मनीष कुंजाम जैसे जमीन से जुड कर संघर्ष करने वाले नेता लाल झंडे को दंतेवाड़ा के साथ साथ बस्तर के दक्षिणी छोर कोण्टा में भी फहराने में सफल हुए; वाम दलों के लिये सीटों की यह स्थिति वर्ष 1990 और 1993 के चुनावों में बनी रही। नब्बे के दशक में राम मंदिर आन्दोलन बहुत तेजी से देश भर को प्रभावित कर रहा था। आश्चर्य यह कि राष्ट्र की मुख्यधारा का यही मुद्दा बस्तर में भी वोटरों को प्रभावित कर रहा था। बलीराम कश्यप जैसे आदिवासी नेताओं ने बस्तर में भारतीय जनता पार्टी के लिये जमीन तैयार की और वर्ष 1990 के चुनाव में इस दल ने बारह में से आठ सीटो पर अपना कब्जा कर लिया। कॉग्रेस को केवल एक सीट हासिल हुई जबकि भानुप्रतापपुर से निर्दलीय उम्मीदवार झाडूराम रावटे ने जीत हासिल की। यह कहना होगा कि वर्ष 1972 और उसके बाद के चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत लगभग असंभव हो गयी थी यद्यपि इक्का-दुक्का प्रभावी अथवा बागी उम्मीदवार अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे। आंकडे यह भी तस्दीक करते हैं कि वर्ष 1980 से ही बस्तर के विधानसभा चुनावों में मुख्य मुकाबला कॉग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच होने लगा था। वर्ष 1993, एक स्थिर राजनीति और लगभग मुद्दाविहीन चुनाव का दौर था। बस्तर में कॉग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी ने पाँच पाँच सीटों पर जीत हासिल की जबकि दो सीटें भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के हिस्से गयीं। 
   
तालिका – 2: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि (वर्ष 1977 – 1993 तक)


छत्तीसगढ राज्य निर्माण के आश्वासनों के बीच वर्ष 1998 के चुनाव हुए। कॉग्रेस ने वर्ष 1985 के चुनाव परिणामों वाला अपना करिश्मा दोहरा दिया। भारतीय जनता पार्टी को केवल कांकेर सीट से ही संतोष करना पडा जबकि शेष सभी ग्यारह सीटे कॉग्रेस के हिस्से में गयीं। वायदों पर अमल हुआ और 1 नवम्बर 2000 को मध्यप्रदेश से पृथक हो कर छत्तीसगढ राज्य अस्तित्व में आया। राज्य बनने का परिणाम यह हुआ कि बस्तर की राजनीति में स्थानीय मुद्दों की पुन: जगह बनने लगी। छत्तीसगढ राज्य के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी बने जबकि विद्याचरण शुक्ल की ताजपोशी तय मानी जा रही थी। सतारूढ कांग्रेस पार्टी के बीच हो रही अनेक तरह की अंदरूनी खीचतानों के बीच अगला विधान सभा का चुनाव वर्ष 2003 में हुआ जिसमे भारतीय जनता पार्टी ने अब तक का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिखाते हुए नौ सीटों पर जीत हासिल कर ली, कॉग्रेस को केवल तीन सीटों से संतोष करना पडा जो कि दक्षिण बस्तर में अवस्थित थीं। 

राज्य में अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। इस समय तक नक्सलवाद छत्तीसगढ में प्राथमिक समस्या बन कर उभर आया था; क्या इस कारण जमीनी वामपंथ की हत्या हो गयी? यह सवाल आगे और बढता है चूंकि वर्ष 2004 से 2006 के बीच की ही बात है जब कई माओवादी धड़े संगठित हुए। इसी दौरान आन्ध्रप्रदेश में भीषण दमनात्मक कार्यवाईयों के फलस्वरूप अपने काडर के अठारह सौ से भी अधिक कार्यकर्ताओं को माओवादियों ने खो दिया था। अत: यही समय बस्तर के प्रवेश करने तथा स्वयं को संरक्षित करने की दृष्टि से माओवादियों के लिये सबसे मुफीद था। इसी समय अबूझमाड़ माओवादी गतिविधियों का केन्द्रीय स्थल बना। यही वह समय है जब बस्तर में कई विकास परियोजनायें घोषित हुई। यही वह समय है जब सलवा जुडूम आरंभ हुआ। यही वह समय है जब सैंकडों राहत शिविरों में लाखों विस्थापित रहने लगे और गाँवों में सन्नाटों ने बस्तियाँ बसायीं। यही वह समय है जब सलवा जुडुम का जवाब देने के लिये माओवादियों ने ‘कोया भूमकाल मिलीशिया’ का गठन किया और अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों के हजारों आदिवासियों को गृह युद्ध की आहूति बनाया। इस सभी हलचलों के बीच देश-विदेश का मीडिया, मानवाधिकार कार्यकर्ता और एनजीओ बस्तर में सक्रिय हुए। सलवाजुडुम को ले कर देश भर में सरकार विरोधी मुहिम चलाई गयी। नतीजा यह हुआ कि वर्ष-2006 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सलवा जुडुम को गैर-वैधानिक करार दिया गया। 

हालाकि समानांतर रूप से प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने पब्लिक डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम जैसे उपाय ग्रामीण क्षेत्रों से जुडने के लिये तलाश लिये। वर्ष 2008 का विधान सभा चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी की बस्तर में सबसे बडी जीत का कारण बना। केवल कोण्टा की सीट जो कि कॉग्रेस के कवासी लकमा के हिस्से आयी थी को छोड कर शेष सभी ग्यारह सीटों में भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशियों को जीत हासिल हुई। इस जीत के कई प्रकार के विश्लेषण संभव है लेकिन स्पष्ट तौर पर नक्सली रणनीति और लोकतंत्र को धत्ता बताने के लाल-प्रयासों की पराजय के रूप में भी इसे देखना चाहिये। लोकतंत्र में अनेक खामियाँ है लेकिन वह आम जन का स्वीकार्य तंत्र भी है यदि एसा न होता तो बस्तर के चुनाव परिणाम के पैटर्न बिलकुल विपरीत होते। आदिवासी बस्तर ने झारखण्ड होने जैसी अदूरदर्शिता नहीं दिखाई तथा अपनी सरकार चुनने और बदलने का हक अपने पास रखा है। यही कारण है कि सभी राजनैतिक दल बस्तर की ओर अपेक्षा की निगाह से आज देख रहे हैं। 

तालिका – 3: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि (वर्ष 1998 – 2008 तक)


नया इतिहास बनने का द्वार बस खुलने को है। कई चुनावी सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि राज्य में कांटे का संघर्ष होगा तथा संभावना है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ही तीसरी बार भी सत्ता हासिल कर सकेगी। सर्वेक्षणों से इतर यदि देखा जाये तो हाल ही में माओवादियों ने मई 2013 को बस्तर की दरभा घाटी में कॉंग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर महेन्द्र कर्मा, नंद कुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल जैसे कद्दावर नेताओं की हत्या कर दी। महेन्द्र कर्मा इस चुनाव को बहुत गंभीरता से ले रहे थे तथा उनका व्यापक चुनाव प्रचार अभियान परिवर्तन यात्रा के बहुत पहले से ही आरंभ हो गया था। उनकी हत्या के पश्चात यह देखना आवश्यक है कि सहानुभूति की जो लहर दंतेवाडा-बीजापुर जैसे क्षेत्रों में विद्यमान है क्या वह कॉग्रेस के पक्ष में वोट बन पाती है? कोण्टा सीट कई सालों से कॉंग्रेस के पास ही है; कवासी लकमा पर उठ रही उंगलियों और मनीष कुंजाम की जबरदस्त सक्रियता के बीच यह भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या कॉग्रेस अपनी यह परम्परागत सीट बचा पाती है? क्या बस्तर के माओवाद प्रभावित क्षेत्रो में ठीक तरीके से मतदान हो पाता है इसपर भी पार्टियों का भविष्य निर्भर करेगा। हालाकि भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में जो बात जाती है वह है पिछले चुनावों में जीत का प्राप्त प्रतिशत को कि सवा ग्यारह के लगभग है। किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये यह दूरी पाटना बड़े संघर्ष का कार्य है। बस्तर को ले कर कोई भी राजनीतिक दल यह गलतफहमी नहीं पाल सकता कि यहाँ के वोटर राजनैतिक पैतरेबाजी नहीं समझते, यही कारण है कि बस्तर किसी भी एक पार्टी का गढ बन कर नहीं रहा। नक्सलियों की धमकी, चुनाव आयोग की सक्रियता, पोलिंग स्टेशन पर वीडियोग्राफी, कडी सुरक्षा व्यवस्था आदि से संभव है बस्तर के अंदरूनी इलाकों में वोट के प्रतिशत में कमी आये; यह भी चुनाव परिणामों पर असर डालने वाला कारक है। अब चुनाव बहुत दूर नहीं किंतु अभी से कहा जा सकता है कि दिलचस्प होंगे छत्तीसगढ के विधानसभा चुनाव जिसमे बस्तर सरकार बनाने की निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है।   
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