किसी समाज में कलाप्रियता और जीवंतता का प्राथमिक साक्ष्य उनके मकान हैं, उनके ग्राम हैं तथा जीवन शैली है। बस्तर संभाग में समग्रता से यदि मकानों की अवस्थिति को देखा जाये तो दो मुख्य विभेद सामने आते हैं। वे आदिवासी समूह जो पर्वत श्रंखलाओं और उनके शिखरों को अपना आवास चुनते हैं और दूसरे वे जो मैदानी इलाकों का चयन करते हैं। केवल माडिया जनजाति के ही दो मुख्य प्रकार देखें तो उपरोक्त आधार पर अबूझमाडिय़ा पर्वतों पर बसाहट वाली जनजातियों को कहा गया जबकि दण्डामि माडिया मैदानी आदिवासी मैदानी क्षेत्रों में बसे। यह स्पष्ट कर दूं कि परिचयात्मक विभेद किताबी हैं और केवल वस्तुस्थिति को समझाने के लिये है; वे आदिवासी स्वयं को कोयतूर या कोया कहना पसंद करते हैं जिन्हें मानव विज्ञान की पुस्तकें माड़िया निरूपित करती हैं। बस्तर में जनजातिगत विविधता चाहे जितनी हो किंतु बहुत हद तक रहन-सहन तथा मकान निर्माण की शैली में साम्यता दृष्टिगोचर होगी है। संभव है कि दक्षिण बस्तर में जिस मकान की छत पर ताड के पत्ते और पुआल थे वही मध्य और उत्तर बस्तर तक आते आते खपरैल और चूना पत्थर की फर्सियों से ढके नजर आयें किंतु मकान के आकार प्रकार, उनकी साज सज्जा, अहाते और पशु-पक्षियों के लिये नियत स्थानों आदि में सर्वत्र साम्यता ही प्राप्त होगी। अधिकतम गाँव पेडों के कुंज अथवा झुरमुटों के बीच बसे होते हैं जो आदिवासी जीवन की प्रकृतिप्रियता और शांतिप्रियता का परिचायक है। मुरिया आदिवासी सामान्य तौर पर अपनी बसाहट के लिये पहाडियों की चोटियों का चयन नहीं करते जबकि पर्वतीय-माडिया की स्वाभाविक पसंद होते हैं ये स्थल। मै यह मानता हूँ कि एसी अनेकता बस्तर में केवल सैद्धांतिक रूप से विद्यमान है जबकि एकरूपिता कांकेर से कोण्टा तक सर्वत्र देखी जा सकती है केवल दृष्टि को सही कोण चाहिये।
बस्तर के पर्वतीय स्थानों पर निवास करने वाले आदिवासी सघन बसाहटों मे रहते नहीं पाये जाते। इसका कारण इतिहास से जुडा भी हो सकता है जो यह बताता है कि राजा भैरमदेव (1853-1891) के समय तक बस्तर रियासत में स्थाई गाँवों की संख्या बहुत कम थी। तत्कालीन दीवान दलगंजन सिंह ने कुछ प्रथाओं का सख्ती से अंत कराया जिनमे से एक थी कि यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो ग्रामीण अपनी बस्ती को उजाड कर नये सिरे से नये स्थान पर बस जाते थे। आज भी बडी बडी बसाहटों को देखना मुमकिन नहीं। पर्वतीय क्षेत्रों में आदिवासी पंद्रह-बीस मकानों के झुंड में बसे दिखाई पडते हैं। कई नितांत अकेली झोपडियाँ घाटी की ओर अथवा तलहटी में दिखाई पड सकती हैं, जो उसमे निवास कर रहे आदिवासी बंधु के निर्भय स्वभाव का परिचायक है। पर्वतीय स्थानों के मकान किसी टीले को चुन कर उनपर निर्मित किये जाते हैं। मकान क्रमिकता में पाये जाते हैं अर्थात लम्बाई में क्रमश: दो से तीन मकान एक साथ। मकान की निर्मिति में और रहन सहन में स्थानीय मान्यताओं की क्षेत्रवार झलख देखने को मिलती है; उदाहरण के लिये अबूझमाड़िया अपने मकान को लीपते नहीं हैं। ये लोग आज भी एक स्थान पर दो या तीन वर्ष की अवधि से अधिक नहीं टिकते। घर के भीतर की व्यवस्था में भी देवी देवताओं की रोकटोक है तथा स्त्री-पुरुष घर में एक स्थान पर नहीं सोते; इनका विश्वास है कि एसा करने पर देवता घर से बाहर चले जायेंगे। अबूझमाड के भीतर आज परम्पराओं और मान्यताओं की क्या स्थिति है व जीवन शैली में कैसे परिवर्तन आये हैं यह अलग अध्ययन का विषय है। माओवादियों ने सामाजिक अवस्थाओं को कितनी गहरी चोट पहुँचाई है इसकी विवेचना तो अब आने वाले समय के हाथ में ही है।
आदिवासी घर आमतौर पर बांस की लकडी से निर्मित और बांस की छत वाले होते हैं। बांसों और लकड़ियों को आपस में मिट्टी से जोडा जाता है। आवश्यकतानुसार कमरों की संख्या निर्धारित की जाती है साथ ही बरामदा निवास की आवश्यक शर्त होता है। आदिवासी मकानों में मुख्य द्वार तो एक ही होता है किंतु पूरे घर में दो से अधिक दरवाज़ों की अवस्थिति सामान्य तौर पर मिलेगी। प्राय: घर एक कतार में बनाये जाते हैं जो गली में खुलते हैं। रिश्तेदारों के घर आसपास निर्मित किये जाते हैं जो आमतौर पर तीन-चार की संख्या में होते हैं और एक चौक मे खुलते हैं। आदिवासी जीवन में परिवार का हिस्सा उनके परिजनों के साथ साथ पशु-पक्षी भी होते है। यही कारण है कि आपको मकान के भीतर ही घूमते सूअर कुता, मुर्गी आदि तो नज़र आयेंगे ही इनके योग्य आवास अथवा बाडे भी मकान का ही हिस्सा होते हैं। सूअरों के रहने के बाडे आमतौर पर देखे जा सकते हैं, कभी कभी इन्हें दोहरी छत दे कर बनाया जाता है। अंडे से रही मुर्गियों को आरामदेय घोंसले दिये जाते हैं जो जमीन से ऊँचे स्थान पर बनाये जाते हैं। घरों के कुछ भाग का उपयोग आवास के लिये तो कुछ का अनाज भण्डारण के लिये होता है। बसाहट का एक प्रकार है लाडी जो एक प्रकार की झोपडी होती है। लाडी को खेतों के पास बनाया जाता है तथा वहीं अनाज की कटाई के पश्चात मिंजाई की जाती है। अनाज को प्राय: लाडी में ही रख दिया जाता है अत: इसे बनाने के लिये एसे स्थानों का चयन होता है जो आड में हो।
आदिवासी घर नितांत आरामदेय होते हैं। आमतौर पर हर घर में भांति भांति की टोकरियाँ, चटाईयाँ, पत्तों के बंडल तथा मिट्टी और धातु के बर्तन नज़र आयेंगे। शराब और लांदा बनाने का उपक्रम भी हर आदिवासी घर के अहाते में मौजूद होता है। घर में मछली पकडने के जाल, ढोल आदि छत से लटकते नजर आ सकते हैं। बाँसुरियाँ, धनुष और वाण घर के छत की घास में अंदर की तरफ घुसा कर रखे जाते हैं। आदिवासियों के इन घरों का रसोई वाला कोना बहुत साधारण होता है। किसी कोने में अर्धचन्द्राकार स्थान को चुन कर रसोई बना लिया जाता है। मिट्टी के बर्तनों के अलावा घडे आदि भी रसोई मे रखे दिखाई पड जायेंगे। लकडी की चम्मच साथ ही बडे गोलाकार चमचे जिनसे रसदार भोजपदार्थ निकाला और परोसा जा सके इन रसोईयों में किसी कोने में पडा मिल जायेगा। अल्यूमीनियम की देगची और दूसरे बर्तनों को भी मैने अनेक रसोईयों में देखा है।
स्थान स्थान पर जैसे परम्परायें बदलती हैं, बोलियाँ बदलती हैं वैसे ही घरों के नीयम भी बदले पाये जा सकते हैं। अनेक आदिवासी घरों में एक गहन कक्ष में मृतक स्मृति संजोये हुए एक रहस्यमयी घडा रखा जाता है। यह प्रतीक है कि घर में परिवार के पूर्वजों का स्मरण बनाये रखा गया है एवं इस तरह उनके प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है। कुछ आदिवासी समाजो में स्त्रियों के मासिकधर्म को ले कर भी भ्रांतियाँ हैं जो सीधे ही निवास व्यवस्था में परिलक्षित होती है। कुछ परम्परागत आदिवासी गाँवों में औरतों के लिये अलग झोपड़ी बना दी जाती है जिसका प्रयोग मे मासिकधर्म के दौरान करती हैं। एसी झोपडियों को गाँव के भीतर ही किंतु निर्जन स्थान पर बनाया जाता है। यह झोपडी और इसके दरवाजे छोटे होते हैं; अंदर एक बिस्तर, खाना बनाने की जगह, कुछ घड़े, कुछ कपड़े और आग जलाने की लकडियाँ रखी होती हैं। बातचीत में मुझे जानकारी मिली कि ये अब विलुप्त होती हुई प्रथायें हैं और पुरानी पीढी भी अब इन बातों को नहीं मानती। पहले थानागुडी किसी ग्रामीण व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी जिसमे कि बाहर से आने वाले अतिथियों को ठहराया जाता था एवं उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिये किसी ग्रामीण को नियत किया जाता था जिसे अठपहरिया कहते थे। अब थानागुडियाँ भी अतीत का हिस्सा हो गयी हैं। यदि आप विभिन्न गावों के नक्शों का निर्माण करें और उसमे प्रभावशाली व्यक्तियों के आवास खोजने की कोशिश करें तो आपको निराशा हाथ लगेगी। बस्तर के आदिवासी गाँवों में स्वाभाविक रूप से साम्य अवस्था विद्यमान है तथा आवास व्यवस्था में वर्चस्व की भावना का नितांत अभाव दिखाई पड़ेगा। गायता, पटेल, पुजारी आदि के निवास भी आपको समान बसाहट में सम्मिलित मिलेंगे। यहाँ भी बदलाव के कुछ दृश्य नजर आने लगे हैं; प्रभावशाली आदिवासी परिवारों अथवा राजनैतिक परिवारों ने स्वयं को एक सीढी उपर चढा कर अपने ही बंधु-बांधवों से काट लिया है।
हर घर के चारो ओर एक चारदीवारी निर्मित की जाती है। चारदीवारी का कि निर्माण निजी अथवा सामुदायिक बागीचे की परिधि में भी होता है। चारदीवारी अथवा परिधि निर्माण बस्तर के घरों की विशेषता है। बाडी बनाना तो आधुनिक समयों में अधिक होने लगा है किंतु मेढे पाषाणकाल से ही बस्तर के आसिवासी जीवन की विशेषता रहे हैं। मेढ़ा - लकड़ी या बांस का वह सीधा गाड़ा गया खूंटा होता है जो किसी बाडी की बुनावट को आधार देता है। जितनी लम्बी बाडी लगानी है उतने ही अधिक मेढे। समान आकार और गोलाई के तनों को सीधे और एक के बाद एक गाड कर किसी मकान की परिधि बनाई जाती है। लकडी के स्थान पर लम्बे आकार के पत्थर खास तौर पर चूना पत्थर की फर्सियाँ भी इस काम में प्रयुक्त की जाती हैं। चूना पत्थर की अलग अलग परतों को उखाड़ कर बराबर आकार प्रकार में बना लिया जाता है फिर परिधि में एक के पश्चात एक सीधा गाडा जाता है। ये मेढे न केवल किसी मकान, बागीचे अथवा खेत की सीमा निर्धारित करते हैं अपितु इनका लोक-ज्योतिष मे भी अपना ही महत्व है। मेढ़ा गन्तेया यानी कि मेढ़ा गिनने वाला ज्योतिषी; किसी घर की परिधि में लगाई गयी इनकी संख्या से ही वह विचित्र गणनायें कर लेता है और किसी ग्रामीण की समस्याओं का हल बता सकता है। मध्यबस्तर में जहाँ कि चूने पत्थर की अधिकता है वहाँ मकान के निर्माण तथा चौखटों में भी सीधी और लम्बी लम्बी फर्सियों का प्रयोग होता है। पत्थरों के छोटे छोटे टुकडों को एक के उपर एक चढा कर मिट्टी के माध्यम से जोड कर घर की दीवारें तैयार कर ली जाती हैं।
बस्तरिया आदिवासी घर करीने से बने और साफसुथरे होते है। फर्श और दीवारों को रंग-बिरंगी मिट्टी अथवा गोबर से लीपना आम है किंतु पहली दृष्टि में बहुत अधिक कलात्मक सजावट इन मकानो में दिखाई नहीं पडेगी। मुझे उन दीवारों पर ही भित्तिचित्र नजर आये जिनमें कोई पर्व अथवा उत्सव मनाया जा रहा था। प्राय: घर की चौखट भी सामान्य ही होती है और लकडी से अथवा बाँस गूथ कर बनाये गये दरवाजों को ले कर भी एक प्रकार की उदासीनता है। आदिवासी जीवन अपने घोटुलों को जितना सजीव और कलात्मक बनाता है उनता ही साधारण और सादगी से भरा वह अपने निवास को रखता है। इसका अर्थ यह नहीं कि ये दर्शनीय नहीं हैं, बस्तर में मकान बनाये जाने के तरीके, परिधियाँ निर्माण की विशेषतायें और यहाँ के सामाजिक सहसम्बन्ध किसी भी समाजशास्त्री के लिये आदर्श विषय हो सकते हैं।
-राजीव रंजन प्रसाद
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