Saturday, November 16, 2013

बस्तर में लोकतंत्र अभी सांसे ले रहा है


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बस्तर में विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होते ही गहरी गहरी स्वांसों के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। सुरक्षाबलों के अपना एक सिपाही श्री पी. डी. जोसेफ़ को खोया तो कुछ ग्रामीण भी घायल हुए किंतु यह सब वर्ष 2008 में इस क्षेत्र में हुए मतदान के समय हुई नक्सली हिंसा जिसमे बयालिस से अधिक शहादत दर्ज हुई थी, उसके समकक्ष राहत भरी खबर बन कर आया है। क्षेत्र में चुनाव विश्लेषणों का समय अब उबर गया है तथा नारे और झंडे अब उत्तरी छत्तीसगढ की ओर केन्द्रित होने लगे हैं। अब गहरी खामोशी है, सुरक्षा बलों के मतदान केन्द्रों के छोडते ही कुछ खम्बे नोचे गये और दिन भर कई बम विस्फोट तो कई विस्फोटक बरामद होने की खबरें आती रहीं। इस बीच बस्तर के भीतर बैलेट और बुलेट की जय पराजय पर चर्चायें होने लगी हैं। यह चर्चा न केवल बस्तर अपितु दिल्ली से भी जारी है चूंकि विचारधारा की युद्धभूमि होने के कारण व्यापक दृष्टि से यहाँ हुए चुनावों के प्रत्येक कदम की विवेचना हुई और यह जानने की कोशिश की जाती रही कि क्या वास्तव में बैलेट से बुलेट पराजित हुआ है?

इस दृष्टिकोण को समझने से पहले इस बार चुनावों में चुनाव आयोग की भूमिका की सराहना करनी आवश्यक है। भारी मात्रा में सुरक्षाबल की तैनाती और सभी प्राप्त जानकारियों के अनुरूप समुचित निर्णय ले कर इन चुनावों को त्रासदी बनने से रोक दिया गया। यदि एसा न हुआ होता तो आज हम रक्तपात के अनुपात पर विमर्श कर रहे होते, मृतक अवशेषों पर मेनहीर गड़ रहे होते और यह मान लिया जाता कि समानांतर सरकार चलाने का दावा वास्तव में एक सच्चाई है। एसा नहीं था कि प्रयास नहीं हुए अथवा जंगल के भीतर से लोकतंत्र के इन महापर्व को धमाके सुनाये जाने की तैयारी नहीं थी। बीजापुर के अनेक क्षेत्रों से रह रह कर नक्सली फायरिंग तथा सुरक्षा बलों द्वारा उत्तर दिये जाने की सूचनायें आती रहीं, करकेली में जहाँ गोली चला कर नक्सली भाग निकले तो मंकेली बूथ पर उन्होने गोली चालन किया। बीजापुर चुनावी परिक्षेत्र के आवांपल्ली में दस किलोग्राम का एक शक्तिशाली बम भी बरामद किया गया था। दंतेवाड़ा में इससे भी भयावह तैयारियाँ थीं तथा पैंतीस और चालीस किलोग्राम के दो बम यहाँ भी बरामद हुए जबकि धानीरका बूथ के पास से दो टिफिन बम भी मौके पर नष्ट किये गये। यही नहीं बरसोल क्षेत्र में छ: आईडी बमो की बरामदगी हुई तो स्थान स्थान पर पोलिंग पार्टी पर नक्सली हमला होने की खबरे पूरे दिन आम थीं। कोण्टा विधानसभा क्षेत्र में हालात इतने खराब थे कि सुकमा के मुरतुण्डा बूथ पर जा रही पोलिंग पार्टी को ही वापस बुला लिया गया। कमोमेश यह स्थिति बस्तर में सभी सीटों पर देखी गयी थी। ओरछा मे दो बम जिन्दा बम मिले, नारायणपुर के आकाबेडा में पच्चीस किलोग्राम का बम बरामद हुआ था तो दरभा के कोलांग मतदान केन्द्र पर गोलीबारी हुई थी। कांकेर की भी यही स्थिति थी जहाँ दुर्गापल्ली के पास एक बम मिला तो पखाञुर मे शक्तिशाली बम विस्फोट के कारण बीएसएफ का एक जवान घायल हो गया, जिसे एयर-एम्बुलेंस से तत्काल ही अस्पताल पहुँचाया गया। ये सभी घटनायें सिद्ध करती हैं कि आतंकवाद ने अपनी ओर से तैयारियों में कोई कमी नही रखी थी। बस्तर समेत जिन अठारह सीटों के लिये छत्तीसगढ में मतदान हुआ वहाँ संवेदनशील मतदान केन्द्रों की संख्या 1517 थी जबकि लगभग इतनी ही अर्थात 1311 संख्या अतिसंवेदनशील मतदान केन्द्रों की थी। इन परिस्थितियों ने लोहा लेना कोई आसान कार्य नहीं था और इसे संभव कर दिखाने में लगी सभी संस्थाओं की सराहना इस लिये भी होनी चाहिये कि बुलेट को यदि योजनाबद्ध रूप से नहीं रोका जाता तो बैलेट की कभी जीत नहीं हो सकती थी। यहाँ जोडना चाहूंगा कि ये सभी तैयारियाँ केवल सुरक्षाबलों के विरुद्ध नहीं थी अपितु उस आम आम मतदाता पर सीधा हमला करने के लिये भी थीं जो अपने क्षेत्र में पसंद की सरकार चुनने के लिये प्रतिबद्ध हो कर साहस जुटा कर मतदान केन्द्रों तक पहुँचा था।       

भय और साहस के बीच संघर्ष की अनेक लोमहर्षक कथायें इस चुनाव में सामने आयीं। यह भी हुआ है कि दंतेवाड़ा, कोण्टा और बीजापुर के अनेक मतदान केन्द्रों में एक भी मतदाता नहीं पहुँचा जबकि इस बार प्रत्येक बूथ में 70-80 सुरक्षा कर्मी तैनात थे यहाँ तक कि हर बूथ में विभिन्न राज्यों से आयी महिला पुलिस कर्मी और कमाण्डों को भी ड्यूटी पर तैनात किया गया था। किंतु एसा भी हुआ है कि पैरों से लाचार मतदाता दोनों हाथों में जूते ठूसे कंटकाकीर्ण पगडंडियों पर घिसटता हुआ बूथ तक पहुँचा। एसे भी दृश्य है जहाँ चलने से लाचार बूढे की लाठी बन कर कोई बुढिया मतदान केन्द्र तक उसे ले आई थी। मतदाताओं को बूथों तक न पहुँचने देने के लिये नक्सलियों ने अनेक स्थानों पर सड़क काट दी तो कहीं नावों-डोंगियों को डुबो दिया था। ग्रामीण इस परिस्थिति से भी लडे और देखने में आया कि मुचनार के परिवर्तित मतदान केन्द्रों में उन्होंने अपनी व्यवस्था से छोटी डोंगियों से नदी पार की और मतदान किया। कई गाँवों के मतदाता चौबीस से अठाईस किलोमीटर पैदल चल कर वोट डालने पहुँचे जिसे अदम्य साहस संज्ञापित किया जाना चाहिये। बैलेट की जीत यदि हुई है तो इसी साहस के कारण संभव हुई है जहाँ आम आदिवासी ने यह बताया है कि उसकी आस्था तो अपनी व्यवस्था पर अब भी है और यदि यह तथ्य हमारे लोकतंत्र की बुनियादी समझ बन सके तो बस्तर ही बदल जाये।   

इन्ही परिस्थितियों के दृष्टिगत आखिरी समयों में अनेक मतदान केन्द्रों के बदले जाने को ले कर चुनाव आयोग की तीखी आलोचना भी देखी गयी। सुरक्षा कारणों से इसे सही भी माना जाये तो भी यदि आवश्यकता से अधिक दूर मतदान केंन्द्र होंगे, गाँवों से असहज दूरी और दुर्गम रास्तों से हो कर उन्हें वोट डालने के लिये बाध्य होना पडेगा तो निश्चित है कि औसत मतदान में गिरावट देखी जायेगी। नदी के उसपार के मतदाताओं को इसपार आने के लिये अपनी व्यवस्था से अगर नावों और अन्य संसाधनों का सहारा लेना पडा तो इन बदले गये बूथों पर मतदान होने का श्रेय ग्रामीणों के साहस को ही जाता है तथा इसके बदले जाने के विपक्ष में खडे तर्क मान्य प्रतीत होते हैं। इस सभी बातों को देखते हुए यदि छत्तीसगढ राज्य में पिछले दो चुनावों के साथ वर्तमान मतदान के प्रतिशत की एक विवेचना की जाये तो क्षेत्रवार जो चित्र उभरता है वह गहरा विमर्श मांगता है। 

इस बार हुए रिकॉर्ड मतदान के कारण यह माना जा रहा है कि चुनावों के नतीजे विविध होंगे जिसके कारण अटकलों का बाजार गर्म है। जगदलपुर, कांकेर, कोण्डागाँव, केशकाल चित्रकोट, नारायणपुर तथा दंतेवाडा में जहाँ पिछले चुनावों के मुकाबले बढत देखी गयी किंतु 2003 के आंकडों को भी सामने रखा जाये तो इन सभी सीटों में उतार चढाव भरा मतदान होने की परम्परा रही है साथ ही साथ भानुप्रतापपुर तथा नारायणपुर जैसी सीटों में यथास्थितिवाद दृष्टिगोचर हो रहा है। नक्सल प्रभावित दक्षिण बस्तर में दंतेवाडा के आंकडे चौंकाने वाले हैं यहाँ 67% मतदान का होना कई तथ्य को विवेच्य बनाता है। महेन्द्र कर्मा के निधन को एक कारण मान कर यदि हालिया घटनाओं के देखा जाये तो नक्सलियों द्वारा चुनाव बहिष्कार की अपील के पश्चात दंतेवाडा के कमलनार में पंद्रह गावों के प्रतिनिधियों ने बैठक की और वोट डालने का निश्चय किया। इसके पश्चात हुआ भारी मात्रा में मतदान होना वस्तुत: क्या सिद्ध करता है इसके लिये तो चुनाव परिणामों की प्रतीक्षा करनी ही होगी। तथापि कोण्टा और बीजापुर में मतदान का प्रतिशत गिरा है। कोण्टा में 2008 के मुकाबले 12% के लगभग मत प्रतिशत में कमी आना तथा 2003 के स्तर से भी इसका नीचे चला जाना क्या यह इशारा करता है कि यहाँ नक्सली धमकी का खासा असर देखा गया है। बीजापुर सीट में भी रिकॉर्ड गिरावट के साथ केवल 24% मतदान हुआ जबकि यह 2008 में 37% एवं 2003 में 29% रहा है। अंतागढ में भी गिरावट दर्ज की गयी है किंतु 58% मतदान होना संतोषप्रद ही कहा जायेगा।   

 यह इस दिशा की ओर भी इशारा करता है कि दक्षिण बस्तर से केवल वे वोटर ही बाहर निकले हैं जो किसी न किसी पार्टी का निर्धारित वोट बैंक हैं। क्या दक्षिण बस्तर मे कम मतदान का होना कोण्टा और बीजापुर में वाम संभावनाओं को क्षीण करता है यह भी देखना होगा। वाम अतिवाद ने यहाँ वाम दलों की जमीनी लडाईयों को कमजोर ही किया है तथा मनीष कुंजाम जैसे नेता अपनी “फेस वेल्यु” के कारण ही मुख्य पार्टियों को टक्कर दे पाते हैं। 

आंकडे चाहे जो कहते हों किंतु यह कहना होगा कि इस बार सारे चुनावी पंडित मौन हैं तथा यकीनी तौर पर कोई नहीं कह सकता है कि बस्तर की बारह सीटो पर किस राजनीतिक दल का पक्ष बंधा हुआ है। जो भी बातें सामने आ रही हैं वे केवल अनुमान भर हैं। चुनाव आयोग ने बहुत अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निर्वहन किया है और एक भयानक खून-खराबा भरा दिन देखने से हम बच गये हैं। आम मतदाताओं ने चुनाव के महति पर्व को अपने साहस के सफल बनाया है तथा भारी मात्रा में बस्तरियों ने लोकतंत्र के प्रति आस्था जताई है। ये चुनाव लाल-आतंकवाद के सूत्रधारों को बैठ कर सोचने के लिये भी बाध्य करेगा कि क्या बाहरी दहशत के भीतर उनकी जमीन पतली तो नहीं होती जा रही? चुनाव आयोग ने व्यवस्था को भी एक मार्ग दिखाया है कि समुचित इच्छाशक्ति के दम पर नक्सलवाद से निर्णायक लडाई लडी जा सकती है। बस्तर में सम्पन्न हुए इस सुनाव का उपसंहार यही है कि बस्तर में लोकतंत्र अभी सांसे ले रहा है।  

-राजीव रंजन प्रसाद
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