Friday, November 22, 2013

तहलका युग के मुखौटे


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यह तहलका युग है; यहाँ धमाकों पर चर्चा अवश्यम्भावी है। इस देश ने तालियाँ बजा कर उन खुफिया कैमरों की तारीफ की जिसने पैसे लेते हुए बंगारू लक्ष्मण को कैद किया और उनका राजनैतिक जीवन हमेशा के लिये समाप्त कर दिया, जिसने क्रिकेट के चेहरे से नकाब उतारी जिसके बाद जडेजा तथा अजहरूद्दीन का खेल भविष्य हमेशा के लिये समाप्त हो गया, जिसने जेसिकालाल हत्याकाण्ड के एक चश्मदीद गवाह श्यान मुंशी के हिन्दी ज्ञान का पिटारा सार्वजनिक किया और सिनेमा में भविष्य देखने वाले इस राह भटके युवक को फिर माया मिली न राम, एक असफल कोशिश और भी थी जिसमे गुजरात दंगों में सरकारी मशीनरी की भूमिका साबित करने का प्रयास था। अब समय है कि इन कैमरों के पीछे छिपे चेहरे तरुण तेजपाल पर भी उतनी ही गंभीरता से बात हो। खुफिया कैमरों से तहलका मचाने वाले इस व्यक्ति से उसके अब तक हासिल उपलब्धियों पर कोई सवाल उठाने का मेरा इरादा नहीं हैं अपितु यहाँ बात उस व्यक्तित्व की है जो अनेकों युवाओं का आदर्श माना जाता था और खोजी पत्रकारिता के सूत्रधारों मे गिना जाता है। तरुण तेजपाल एक एसे आरोप से घिरे हैं जिसे सभ्य समाज में अक्षम्य माना जाता है। आरोप संभवत: गलत शब्द प्रयोग है क्योंकि जब तरुण स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने वह सब किया है जिसके लिये हर तरफ छि: छि:-थू थू हो रही है तो खांटी पत्रकार और शब्दों के बीच में घुस कर अर्थ निकालने की अपनी महारत से वे यह बखूबी समझते होंगे कि जो कुछ उन्होंने किया है वह अपराध है। यह उतना ही जघन्य अपराध है जितना कि बंगारू लक्ष्मण का था, जडेजा-अजहरुद्दीन का था या कि श्यान मुंशी का था और इन सभी ने जो परिणाम भुगते हैं वही तरुण तेजपाल की भी नियति होनी चाहिये।   

हाल के दिनों मे बलात्कार और यौन शोषण की घटनाओं ने पूरे देश को दहलाया है। यह भी सही है कि अधिकतम एसे मामलों में दबंग शामिल होते हैं। दबंग से मेरा अर्थ है रसूखदार लोग जो जानते हैं कि उनका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता। वे धनबल से युक्त हैं लेकिन जो जनबल से युक्त हैं वे भी भयावह बाहूबलि हैं, बस चेहरे पर सफेदपोशियत और कॉलर सफेद होने के कारण ये पहचाने नहीं जाते। ये लोग जानते हैं कि के.पी.एस गिल की चुटकी काटने की घटना को कौन याद रखता है? ये जानते हैं कि सवाल ज्योति कुमारी से ही पूछे जायेंगे लेकिन राजेन्द्र यादव के मौन पर कभी चर्चा नहीं होगी। ये जानते हैं आरोप दबावों के आगे जिन्दा नहीं रहते और उनके चेहरों पर लगे दाग तहलका और सनसनी सुनने वाले इस देश में चार दिन भी नहीं टिकेंगे; छ: महीने की मोहलत तो सोच समझ कर ही तरुण तेजपाल ने खुद को दी है। इन छ: महीनों में किसे याद रहेगा कि दुनिया बदलने का सपना दिखाने वाले चेहरे की दो आँखे वस्तुत: किसी स्त्री को किन निगाहों से देखना चाहती हैं?   

इस घटना के कई पहलू हैं। एक पक्ष है तरुण तेजपाल का वह ईमेल जो तहलका की प्रबन्ध सम्पादक शोमा चौधरी को उनके द्वारा भेजा गया। इस इमेल की प्रत्येक पंक्ति दंभ और संवेदनहीनता से भरी हुई है। तरुण लिखते हैं कि “पिछले कुछ दिन बहुत परीक्षा वाले रहे और मैं पूरी तरह इसकी जिम्मेदारी लेता हूँ। एक गलत तरह से लिए फैसले, परिस्थिति को खराब तरह से लेने के चलते एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई जो उन सभी चीजों के खिलाफ है जिनमें हम विश्वास करते हैं और जिनके लिए संघर्ष करते हैं। मैंने संबंधित पत्रकार से अपने दुर्व्यरवहार के लिए पहले ही बिना शर्त माफी मांग ली है, लेकिन मैं महसूस कर रहा हूं कि और प्रायश्चित की जरूरत है”। इस सादगी पर कौन न मर जाये ए खुदा!! किस बात की परीक्षा? कैसा संघर्ष? कैसा विश्वास? किसी महिला को अपमानित करने के बाद कैसे आरोपो से बचा जाये क्या इस मनोदशा की बात कर रहे हैं तेजपाल? यह जिम्मेदारी लेना क्या होता है? किस साफगोई से अपनी लिजलिजी हरकत को सहलाते हुए “गलत तरीके से लिये गये फैसले”, “परिस्थिति को खराब तरीके से लेने”, “दुर्भाग्यपूर्ण घटना” जैसे शब्द मरहम उन्होंने खुद पर ही पोतने की कोशिश की है। तेजपाल ने अपने पत्र में आगे लिखा है “क्योंकि इसमें तहलका का नाम जुड़ा है और एक उत्कृष्ट परंपरा की बात है, इसलिए मैं महसूस करता हूं कि केवल शब्दों से प्रायश्चित नहीं होगा। मुझे ऐसा प्रायश्चित करना चाहिए जो मुझे सबक दे। इसलिए मैं तहलका के संपादक पद से और तहलका के दफ्तर से अगले छह महीने के लिए खुद को दूर करने की पेशकश कर रहा हूं”। किस उत्कृष्ट परम्परा की बात कर रहे हैं तेजपाल? तहलका की उस परम्परा की जहाँ कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन के मामलों की जाँच के लिये कोई समीति बनाई ही नहीं गयी? छोटे छोटे कार्यालयों में भी किसी महिला सदस्य की अध्यक्षता में गठित एसी समीतिया कार्य करती हैं। यहाँ तो ठसक है कि लो जी अपराध कर लिया, अब हम प्रायश्चित करेंगे इसलिये अपनी सजा खुद मुकर्रर करते हैं, इतना कुछ तो कर लिया अब क्या जान लीजियेगा इस इन्नोसेंट की? कल आशाराम बयान जारी कर दें कि हमसे भूल हो गयी अब दो साल कोई प्रवचन नहीं तो मान्यवर को फूल माला पहना कर घर छोड आना चाहिये? यह तर्क तो वही है जो तरुण तेजपाल का है? क्या एक लेखक और पत्रकार होने के कारण उनकी जिम्मेदारी उस आचरण को आत्मसात करने की नहीं है जैसी दुनिया बनाने का दावा उनके आलेख और पत्रिका करती है? 

लेखक राजेन्द्र यादव की अंत्येष्टि क्रिया पर आलोचनात्मक बयान क्यों आये? यह इसलिये आये थे कि आजीवन राजेन्द्र यादव ने कर्मकाण्डों के विरोध में अपनी पक्षधरता दर्शायी थी। जब उनके ही परिजनों ने परलोक सुधारने की कवायद में राम नाम सत्य किया तो विरोधाभास पर प्रश्नचिन्ह लगने ही थे। तरुण तेजपाल भी नहीं बच सकते, उन्हें बचाया जाना नहीं चाहिये जैसा कि उनकी संस्था तहलका और उसकी प्रबन्ध सम्पादक शोमा चौधरी के द्वारा किया जा रहा है। एक महिला होने तथा एक एसी पत्रिका से जुडने के बाद जिसका दायित्व ही सच के साथ खड़े होने का है, खुद शोमा इस बात की चिंता अधिक करती नजर आती हैं कि ईमेल किसने लीक की है या पीडिता को कैसे मैनेज किया जाये? कोई ठोस बयान या आश्वासन सामने नहीं आने का कारण यही है कि उनके भीतर की स्त्री के उपर उनका प्रबन्धक होना हावी है, वे तहलका की चमक दमक और बने बनाये बाजार को अपनी पीठ से टिकाये रखना चाहती हैं; इसके लिये दरकी हुई दीवारों पर लीपापोती आवश्यक है। 

कितना कोमल ताना बाना है इस घटना का। पीड़िता तेजपाल के मित्र की बेटी हैं यह भी एक एसा सम्बन्ध है जिसमे स्वाभाविक विश्वास और संरक्षण की भावना अंतर्निहित है। पीडिता तरुण तेजपाल की बेटी की दोस्त हैं इस लिहाज से यह सम्बन्ध की और भी नाजुक कड़ी है। इस स्थल पर ठहर कर आप दोषी पत्रकार की मानसिकता से पहले पीडिता के ईमेल की इन पंक्तियों पर गौर कीजिये जिसमे वह लिखती हैं कि “जब दूसरी बार यौन उत्पीड़न के बाद मैंने तरुण तेजपाल की बेटी को इस बारे में बताया, तो तरुण मुझ पर चीखने लगे और धमकाने लगे”। इस बात से यह अर्थ न निकाल लीजिये कि माफीनामा या प्रायश्चित कोई हृदयपरिवर्तन है अपितु लीपापोती की कोशिश ही है। अपने शिकायती मेल में महिला पत्रकार ने ही तरुण से लिखित में माफी मांगने के साथ साथ यह मांग भी की कि पूरे तहलका संगठन को इसके बारे में बताया जाए। तरुण को शायद गोलमोल और दंभ भरे शब्दों में प्रायश्चित की बात करते हुए छ: महीने तक मुह छिपाना अपने बचाव का बेहतर विकल्प लगा होगा। 

तहलका तो मचता रहता है। क्या हुआ तो तमाम घोटाले होते हैं, फाईलें गुमाने का विकल्प जो जिन्दा रहता है? क्या हुआ जो जन-लोकपाल बिल पास नहीं हुआ आम आदमी पार्टी जैसा राजनैतिक दल तो बना जिसके नेता वैसे ही स्टिंग ऑपरेशन में गोलमाल करते नजर आ रहे हैं जैसी तहलका के तेजपाल करने में वन एण्ड ओनली हैं? क्या हुआ जो पीडित लडकी शिकायत नहीं कर रही वैसे भी इस देश में बलात्कार की एफआईआर ही कितनी हो पाती है? क्या हुआ जो शोमा चौधरी गोलमोल जवाब दे रही हैं क्योंकि दुनिया गोल है और हमाम मे भीतर गजब का साम्यवाद है; वह फिर नेता हो, अभिनेता हो, अफसर हो या कि पत्रकार? क्या हुआ कि तेजपाल की बेटी ने आलोचनाओं से व्यथित हो कर अपना ट्विटर एकाउंट ही बंद कर दिया क्योंकि समाज तो पुरुषवादी ही है जिसके केन्द्र में पिता विराजमान होता है? क्या हुआ कि कथित प्रगतिशील और जिन्दाबाद-मुर्दाबाद वाले लेखक मौन हैं आखिर वे जानते हैं कि उनके पास हमेशा दो मापदण्डों का विकल्प मौजूद होता है? तरुण का अगला छ: महीना भले ही छुट्टियों में बीत जाये लेकिन वे लौटेंगे नयी उर्जा, नये तेवर, नये कलेवर और नये बहानों के साथ क्योकि आप दुनिया बदलना चाहते हैं; तहलका युग के मुखौटों से कभी मुक्ति नहीं....। 

-राजीव रंजन प्रसाद 

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