Friday, June 30, 2017

कीर्तिमान है किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 13)


दंतेवाड़ा क्षेत्र में औद्योगीकरण की प्रथम आहट के साथ ही किरन्दुल को विशाखापट्टनम से जोड़ने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। इस सम्बन्ध में रेल्वे नेटवर्क की संकल्पना दण्डकारण्य-बोलांगीर-किरिबूरू (डीबीके) परियोजना के रूप में हुई थी। यह तीन रेल्वे लाईनों का नेटवर्क था, चूंकि ओड़िशा के किरिबुरू से भी लगभग बीस लाख टन लौह अयस्क जापान को निर्यात किये जाने के करार को संभव बनाना था। किरन्दुल से विशाखापट्टनम को जोड़ने के लिये जो रेलमार्ग नियत किया गया उसकी लम्बाई चार सौ अड़तालीस किलोमीटर थी और आज इसे के-के (किरन्दुल – कोटावलसा) रेल्वे नेटवर्क  के रूप में पहचान मिली हुई है। 

पूर्वीघाट पर्वत श्रंखला की कठोर किंतु प्राचीन क्वार्जाईट चट्टानों में से सुरंगों का निर्माण करते हुए ब्रॉड गेज लाईने बिछाना जिसपर से भारी-भरकम लौह अयस्क का परिवहन हो सके, कोई साधारण कार्य नहीं था। निर्माण उपकरणों को दुरूह पर्वतीय स्थलों पर ले जाना, लोहे और सीमेंट आदि की ढुलाई किस तरह संभव हुई होगी इसे आज किसी परिकथा की तरह ही सोचा समझा का सकता है। स्वतंत्र भारत को विकास के पथ पर ले जाने वाली कठिनतम परियोजनाओं में से एक किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन निर्माण के पश्चात इसपर चलने वाली रेल अपनी यात्रा में एक स्थान पर सर्वाधिक 996.32 मीटर की ऊँचाई को भी स्पर्श करती है, साथ ही इस यात्रा का आकर्षण है अन्ठावन टनल (जिनकी सम्मिलित लम्बाई चौदह किलोमीटर से अधिक है) तथा चौरासी बड़े पुलो पर से गुजरने का रोमांच। कल्पना की जा सकती है कि सुरंगों से गुजरते, निकलते और अंधेरे उजाले का खेल खेलती रेलगाड़ी किसी यात्री को कितना अधिक रोमांचित कर सकती है विशेषकर जब उसे अहसास हो कि अपनी यात्रा में वह बारह सौ से भी अधिक पुलों पर से गुजर रहा है। इस कठिनतम निर्माण की उस समय आयी लागत महज पचपन करोड़ रुपये थी साथ ही यह रिकॉर्ड समय में पूरी की गयी परियोजना भी है। वर्ष 1962 में कार्यारम्भ हुआ जिसे वर्ष 1966 में पूरा भी कर लिया गया। वर्ष 1967 से किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन पर बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना से अयस्क का परिवहन आरम्भ हो गया था।

- राजीव रंजन प्रसाद 

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Thursday, June 29, 2017

नक्सलवाद – पहली विफलता और पहली सफलता (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 12)


बस्तर में नक्सलवाद की प्रथम असफल दस्तक वर्ष 1967 में सुनाई पड़ी थी। आंध्रप्रदेश की ओर से प्रवेश कर नक्सलवादियों द्वारा पहली बड़ी कार्रवाई दिनांक 19 जनवरी 1981 को ग्राम गंगलेर थाना, गोलापल्ली में की गयी। प्रधान आरक्षक जगदीश नारायण सिंह पर चार नक्सलवादियों ने घात लगा कर हमला किया। जगदीश नारायण सिंह ने बहादुरी से फायरिंग का मुकाबला लिया। नक्सली जंगल की आड ले कर भाग निकले तथा कोई भी हताहत नहीं हुआ। इस घटना के लगभग चार वर्ष पश्चात मुखबिर के माध्यम से थाना पखांजुर में नक्सलियों के गाँव में आने की सूचना मिली जिसका नेतृत्व गणपति कर रहा था। थाना पखांजुर में दर्ज अपराध क्रमांक 36/85 दिनांक 5 मार्च 1985 के अनुसार उस दिन सुबह 11 बजे प्राप्त सूचना के आधार पर पुलिस द्वारा सतर्कता के साथ घटना स्थल की घेराबंदी की गयी। गणपति दल ने नक्सलियों ने स्वयं को घिरा पा कर प्रतिवाद में फायरिंग आरम्भ कर दी। नक्सली लीडर घटनास्थल पर ही मारा गया जबकि उसके अन्य सभी भागने में सफल हो गये। 

नक्सलवादियों को अपने किसी हमले में पहली सफलता थाना बीजापुर में मिली। दिनांक 11 अगस्त 1988 को गाँव करकेली से किसी प्रकरण की विवेहना कर प्रधान आरक्षक कल्याण सिंह, आरक्षक रैनू राम, आरक्षक राजेंद्र सिंह परिहार लौट रहे थे। रास्ते में एम्बुश लगाये नक्सलियों ने उन्हें निशाने में ले कर और घेर कर फायरिंग आरम्भ कर दी। निशाना ले कर पुलिस पर फायर करना आरम्भ कर दिया। दोनो ओर से गोलियाँ चलने लगीं किंतु इस अचानक हमले के लिये तैयार न रहने के कारण प्रधान आरक्षक कल्याण सिह की जांघ में,  आरक्षक राजेंद्र सिंह परिहार के गले में तथा आरक्षक रैनू राम के हाथ में गोली लगी। इस घटना में राजेंद्र सिंह परिहार शहीद हो गये।  

- राजीव रंजन प्रसाद 

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बनती-टूटती पाठशाला (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 11)


बस्तर में राजा भैरमदेव का शासन समय था। अंग्रेजों के प्रेक्षण-निरीक्षण के साथ वर्ष 1886 में एक साथ तीन विद्यालय खोले गये। ये तीनों विद्यालय तीन अलग अलग माध्यमों के थे अर्थात हिन्दी, ओडिया एवं उर्दू। तीनों ही स्कूलों का संयुक्त तब साठ विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया था। इसके ठीक एक दशक बाद वर्ष 1896 में राज्य के विभिन्न स्थानों पर पंद्रह नये विद्यालय आरम्भ किये गये और इस समय तक छात्रों की संख्या 2252 हो गयी थी। वर्ष 1897 में बस्तर में विद्यालय की संख्या बढ कर 58 हो गयी साथ ही छात्रों की संख्या अब 2627 हो गयी थी। उत्साहित प्रशासन ने ग्यारह और भवन विद्यालय संचालन के लिये उपलब्ध करा दिये। वर्ष 1897 में एक विद्यालय संस्कृत अध्यापन के लिये आरम्भ किया गया था। शिक्षा प्रसारित करनी है किंतु उसे प्रदान करने का एक तरीका तथा स्थानीय समझ भी आवश्यक है। राजा रुद्रप्रताप देव के शासन समय में पंडा बैजनाथ राज्य के दीवान नियुक्त किये गये। उन्होंने प्रत्येक बच्चे को विद्यालय आना अनिवार्य कर दिया और इस नियम को कड़ाई से अनुपालित किया जाने लगा। बालक की अनुपस्थिति पर पालक के लिये सजा निर्धारित थी। दीवान बैजनाथ शिक्षा की अनिवार्यता का संदेश सही तरह से प्रसारित नहीं कर सके इसलिये जनाअक्रोश के शिकार हुए। वर्ष 1910 के महान भूमकाल के समय जब विद्यालयों की संख्या साठ हो गयी थी उनमें से पैंतालीस भवन जला दिये गये। इसके पश्चात प्रशासन ने स्वनिर्णय से विद्यालय आरम्भ करना बंद कर दिया एवं उसे जनता की मांग आधारित कर स्थापित किया जाने लगा। वर्ष 1921 के बस्तर में विद्यालयों की संख्या केवल 21 रह गयी थी। उपलब्धि आगे बढी जब वर्ष 1928 में बस्तर का पहला हाई-स्कूल खोला गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बस्तर में 59 तथा कांकेर में 36 विद्यालय थे।  

- राजीव रंजन प्रसाद 

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Wednesday, June 28, 2017

एक विरासत टुकड़े आठ (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 10)


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समय अपनी रफ्तार से चला। राजे रजवाड़े अपनी गरिमा, दौलत तथा प्रभाव लुटा चुके थे तो किसी वन्य क्षेत्र के आदिवासी जमींदार की क्या हैसियत हो सकती थी। मध्यप्रदेश शासन ने 06 जनवरी 1972 को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत भोपालपटनम जमींदारी को उसके चौदह वारिसों के सुपुर्द कर दिया। वे चौदह वारिस थे  नरसैया राज पामभोई/समैया राज पामभोई; किस्टैया राज पामभोई/बसवैया राज पामभोई;  रमैय्या राज पामभोई/ बुचैय्या राज पामभोई; नरसैंया राज पामभोई/ बुचैय्या राज पामभोई;  लक्षमैया राज पामभोई/ पापैया राज पामभोई; राजैया राज पामभोई/ कैस्टैया राज पामभोई; बतकैया राज पामभोई/ लालैया राज पामभोई; बकैया राज पामभोई/ वैन्कैया राज पामभोई; रामचन्द्रम राज पामभोई/ वैकैय्या राज पामभोई; आनंदैया राज पामभोई/ वेंकैय्या राज पामभोई; पापैया राज पामभोई/ लिंगैय्या राज पामभोई; जगैया राज पामभोई/ किस्टैया राज पामभोई; शुभ्रा भाई (पत्नी पापैया राज पामभोई); कु. सत्यवती (पुत्री लिंगैय्या राज पामभोई)। इन चौदह वारिसदारों में से कुल आठ वारिसों के हिस्से भोपालपट्टनम का राजमहल आया। इस समय इन परिवारों की आर्थिक अवस्थिति इतनी बदतर थी कि राजमहल के संरक्षण की बात उनके द्वारा सोची नहीं जा सकती थी। राजमहल के इन वारिसों ने तत्कालीन मध्यप्रदेश प्रशासन को राजमहल के संरक्षण के लिए लिखा किंतु इस विरासत पर ध्यान देने के स्थान पर इसे तब खंडहर घोषित कर दिया था, जबकि इस इमारत का एक प्लास्टर भी नहीं उखड़ा था (स्त्रोत – संदीप राज, भोपालपट्टनम)। इसके पश्चात इस विरासत को मयियामेट होने के लिये छोड दिया गया। अब भवन के भीतर के कमरों में कब्जा कर लिया गया है तथा पीछे अवस्थित मैदानों में भी लोग झोपड़ियाँ बना कर रहने लगे हैं। सामने की संरचना, भीतर का अहाता अभी ठीक-ठाक अवस्था में हैं जबकि पिछली दीवारों पर बरगद का कब्जा है। शायद इतिहास तो केवल लालकिलों के ही होते हैं....। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Tuesday, June 27, 2017

अंतानम अविजितानम (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 9)


मौर्य कालीन प्राचीन बस्तर उस ‘आटविक जनपद’ का हिस्सा था जो स्वतंत्र शासित प्रदेश बन गया था। सम्राट अशोक ने कलिंग़ (261 ईसा पूर्व) को जीतने के लिये भयानक युद्ध किया। अशोक ने जब आक्रमण किया तो उसके प्रतिरोध में आटविक जनपद  के योद्धा भी कलिंग के समर्थन में आ गये। कलिंग ने तो अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली किंतु आटविकों पर ‘मौर्य-ध्वज’ स्वप्न ही रहा। अपनी इस विफलता को सम्राट अशोक ने स्वीकार करते हुए शिला पर खुदवाया –‘अंतानं अविजितानं; आटविक जन अविजित पड़ोसी है’। इसके साथ ही अशोक ने आटविक जनता को उसकी ओर से चिंतिन न होने एवं स्वयं को स्वतंत्र समझने के निर्देश दिये थे –“एतका वा मे इच्छा अंतेषु पापुनेयु; लाजा हर्बं इच्छति अनिविगिन हेयू; ममियाये अखसेयु च में सुखमेव च; हेयू ममते तो दु:ख”। 

गंभारतापूर्वक अशोक के शिलालेखों का अध्ययन करने पर यह प्रतीत होता है कि आटविक क्षेत्र की स्वतंत्रता अशोक को प्रिय नहीं रही थी। जनजातियों की ओर से अशोक के साम्राज्य को यदा-कदा चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा होगा। इस सम्बन्ध में अशोक का तेरहवा शिलालेख उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने स्पष्ट चेतावनी जारी की है कि अविजित आटविक जन किसी प्रकार की अराजकता करते हैं तो वह उनका समुचित उत्तर देने के लिये भी तैयार है। यह कथन इसलिये भी महत्व का है क्योंकि इससे उस सम्राट की बौखलाहट झलकती है जो विशाल साम्राज्यों को रौंद कर उनपर मौर्य ध्वज लहरा चुका था लेकिन आटविक क्षेत्र के आदिवासी जन उसकी सत्ता और आदेश की परिधि से बाहर थे। इसी शिलालेख में अशोक ने आदिम समाज को दी हुई अपनी धमकी पर धार्मिक कम्बल भी ओढ़ाया है और वे आगे लिखवाते हैं कि - “देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी वनवासी लोगों पर दयादृष्टि रखते हैं तथा उन्हें धर्म में लाने का यत्न करते हैं।”

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Sunday, June 25, 2017

जब असफल रहा अंग्रेज जासूस (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 8)




18 जनवरी 1795 को अंग्रेज जासूस कैप्टन जे डी बलण्ट, चुनारगढ़ होते हुए कांकेर रियासत में प्रविष्ठ हुआ। ईस्ट इंड़िया कम्पनी यहाँ के जंगलों की जानकारी चाहती थी। उसे बस्तर राज्य की सामाजिक-भौगोलिक जानकारियाँ जुटाने के उद्देश्य से भेजा गया था। कोरिया, मातिन, रतनपुर और रायपुर जैसी बड़ी जमीन्दारियों को पार करता हुआ वह कांकेर पहुँचा। कांकेर रियासत के राजा शामसिंह ने कैप्टन ब्लण्ट की आगवानी की। कैप्टन ब्लण्ट का बस्तर राज्य के भीतर स्वागत नहीं था। राजा दरियावदेव ने बस्तर राज्य को रहस्यमयी बना दिया था। आसानी से किसी भी अपरिचित आगंतुक को पार-पत्र प्रदान नहीं किया जाता था। अंग्रेज जासूस ने भोपालपट्टनम की ओर से बस्तर में चुपचाप प्रवेश करने का निश्चय किया। अभी वे सीमा के भीतर सौ गज की दूरी ही तय कर पाये थे कि झाडियों की ओट से दसियों आदिवासी सामने आ गये, सभी के कंधे पर धनुष और हाँथों में वाण। झाड़ियों में होती हुई सरसराहट ने सभी को सिहरा दिया। रह रह कर “टोम्स-टोम्स” की अस्फुट आवाजें उन तक पहुँच रही थी। ब्लण्ट के इशारे पर साथ आये सैनिकों ने पोजीशन ले कर बंदूख तान लिया। एक चेतावनी से भरा तीर कैप्टन ब्लण्ट के निकट से हो कर गुजर गया। भयभीत सैनिक भी गोलियाँ चलाने लगे। ब्लण्ट देख रहे थे कि गोली से घायल साथियों को घसीट कर ले जाते हुए आदिवासी जंगल की ओर लौट रहे हैं। अंग्रेज अफसर ने तुरंत ही पीछे हटना उचित समझा। रात्रि में ही वे गोदावरी के तट पहुँचे और अरपल्ली की जमीन्दारी में प्रवेश कर गये। इसके साथ ही ब्लण्ट का बस्तर राज्य के भ्रमण का हौसला टूट गया था। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Saturday, June 24, 2017

सुकमा के रामराज और रंगाराज (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 7)


बस्तर पर चालुक्य/काकतीय राजाओं के अधिकार के पश्चात सुकमा के जमींदारों ने वहाँ के राजाओं से हमेशा वैवाहिक सम्बन्ध बना कर रखे इस कारण इस जमींदारी का न केवल महत्व बढ़ा अपितु यह शक्तिशाली भी हुआ। विवरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि सुकमा की नौ राजकुमारियों का विवाह बस्तर के राजकुमारों के साथ सम्पन्न हुआ था, दहेज में कुवाकोण्डा, कटेकल्याण, प्रतापगिरि, छिंदावाड़ा, टहकवाड़ा, कोकापाड़ा, कनकपाड़, कुकानार, सलीमनगर और कोड़ता गाँव दिये गये थे। मुख्य रूप से राजकुमारी जानकीकुँवर का विवाह राजा भैरमदेव से, रुद्रकुँवर का विवाह राजा रक्षपालदेव से तथा कमलकुँवर का विवाह राजा दलपतदेव से होने के विवरण प्राचीन दस्तावेजों से प्राप्त होते हैं। सुकमा जमीदारी से जुडी अनेक रोचक कथायें हैं जिसमें प्रमुख है राजतंत्र की समाप्ति तक सुकमा के जमींदारों की लगभग 11 पीढ़ी में नाम क्रमिकता में रामराज और रंगाराज ही रखा जाना।

सुकमा के तहसीलदार ने 25 अगस्त 1908 को बस्तर रियासत के दीवान पंड़ा बैजनाथ को एक पत्र भेजा था। इस पत्र मे एक दंतकथा का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार पाँच सौ वर्ष पहले जब रंगाराज यहाँ शासक थे उनके चार पुत्र -  रामराज, मोतीराज, सुब्बाराज तथा रामराज, राज्य को ले कर विवाद कर बैठे। विवश हो कर सुकमा जमीन्दारी के चार हिस्से किये गये जो थे सुकमा, भीजी, राकापल्ली तथा चिन्तलनार। कहते हैं राजा ने इसके बाद अपने पुत्रों को शाप दिया कि अब सुकमा की गद्दी के लिये एक ही पुत्र बचेगा साथ ही आनेवाली पीढ़ियों के केवल दो ही नाम रखे जायेंगे रामराज और रंगाराज।
        
- राजीव रंजन प्रसाद 
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Friday, June 23, 2017

एक हथिनी के लिये खिंच गयीं तलवारें (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 6)


कभी दक्षिण बस्तर में हाथी  बहुतायत में थे। राज्य की सीमा के भीतर अवैध रूप से हाथी पकड़ने को ले कर बस्तर तथा जैपोर राज्य (वर्तमान ओडिशा में स्थित) के बीच प्राय: तनाव अथवा युद्ध जैसी स्थिति बन जाया करती थी। जैपोर राज्य के कुशल शिकारी बस्तर में हाथी पकड़ने के लिये प्रशिक्षित हथिनियों का प्रयोग करते थे। उल्लेख मिलता है कि राजा भैरमदेव के शासन समय में एक बार बस्तर के अधिकारी जयपोर से भेजी गयी हथिनी को अपनी सीमा के भीतर पकड़ने में कामयाब हो गये। अब दोनो ही राज्य इस हथिनी पर अपना दावा करने लगे और बीचबचाव अंग्रेज अधिकारी मैक्जॉर्ज को करना पड़ा। अंग्रेज अधिकारी ने हथिनी को सिरोंचा (वर्तमान महाराष्ट्र में स्थित) बुलवा लिया तथा बस्तर के दावे को खारिज करते हुए उसे जैपोर राज्य को लौटा दिया।  

कभी जिस जीव को ले कर विवाद की स्थिति बनती थी आज पूरे बस्तर संभाग के किसी जंगल में हाथी नहीं पाया जाता। कभी वन भैंसे बस्तर की पहचान थी, अंग्रेज शिकारियों ने इस जीव का समूल नाश कर दिया। एक पुराना संदर्भ मुझे बस्तर के जंगलों में किसी समय गेंडा पाये जाने का प्राप्त हुआ है। इन्द्रावती नदी अपनी पूरी यात्रा में बहुत से ऐसे स्थान निर्मित करती है जो गेंडे के लिये स्वाभाविक आश्रय स्थल रहा करते होंगे। भैंसा दरहा जैसे क्षेत्र न केवल जंगली भैंसे बल्कि गेंडे के लिये भी अच्छा हेबीटाट प्रतीत होते हैं। अगर इन संदर्भों के दौर के बस्तर में लौटे तो कल्पना कीजिये कि तब से आज तक कितनी अनमोल जैव-विविधता यहाँ नष्ट हो गयी है?

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Thursday, June 22, 2017

डाकिये तलवार रखते थे और हरकारे भाला (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 5)



कल्पना कीजिये उस दौर की जब ग्राम-डाकिये तलवार ले कर चला करते थे और हरकारे भाला। बस्तर में डाक व्यवस्था को आरम्भ करने के पीछे का मुख्य कारण वर्ष 1876 की जनजातीय क्रांति थी। इससे डरे हुए अंग्रेजों ने अपने सूचनातंत्र को मजबूत करने के लिये बस्तर और कांकेर में डाक व्यवस्था का आरम्भ किया। सेंट्रल प्रोविंस की नागपुर-सर्किल के अंतर्गत नागपुर में पोस्ट मास्टर जनरल, रायपुर डिविजन में डाकघर अधीक्षक तथा धमतरी सबडिविजन में डाकघर निरीक्षक का कार्यालय था। उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में इसी व्यवस्था के माध्यम से जगदलपुर, कोण्डागाँव, केशकाल तथा कांकेर मे आरम्भिक डाकघर स्थापित किये गये थे। इन डाकघरों में तार की प्राप्ति तथा प्रेषण के लिये समुचित व्यवस्थायें की गयी थीं। 

बस्तर रियासत की राजधानी जगदलपुर के डाकघर में एक पोस्टमास्टर, एक क्लर्क, एक पोस्टमैन, एक पैकर और एक टेलीग्राफ मैसेंजर था। जगदलपुर में तब गोलबाजार, कोतवाली, मिशन कम्पाऊंड, राजमहल एवं महारानी अस्पताल के पास लैटरबॉक्स लगाये गये थे। जगदलपुर से कोण्डागाँव, केशकाल, कांकेर, धमतरी और रायपुर के लिये डाक रोज सुबह 9 बजे की बस के माध्यम से भेजी जाती थी। ग्रामीण क्षेत्रों में डाक बांटने के लिये ग्राम-डाकिये होते थे जो सप्ताह में एक बार ही अपने निर्धारित क्षेत्र में प्राय: पैदल अथवा साईकिल से जाते थे। वे अपनी तथा डाक की सुरक्षा के लिये ये अपने पास तलवार अनिवार्य रूप से रखते थे। 

भोपालपट्टनम, मद्देड, बीजापुर, गीदम, दंतेवाड़ा और कोण्टा में शाखा-डाकघरों की स्थापना की गयी थी। इन स्थानों तक डाक पहुँचाने के लिये हरकारे नियुक्त किये जाते थे। प्रत्येक हरकारा अपने साथ भालानुमा एक अस्त्र ले कर जिसके सिर पर घुंघरू बंधे होते थे, साथ ही उसके सिरे पर डाकथैला लटका कर लगभग दौडता हुआ जंगलों के बीच पाँच मील की दूरी तय करता था। इस दूरी के पश्चात उसे नियत स्थान पर अगला हरकारा खडा मिलता था। भोपालपट्टनम, कुटरू, कोण्टा जैसे दूरस्थ स्थानों तक डाक पहुँचने में महीनों लग जाते थे एवं बारिश में डाक व्यवस्था बाधित भी होती थी। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Wednesday, June 21, 2017

भोपालपट्टनम में उजाला था (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 4)


भोपालपट्टनम की वर्तमान संकल्पना पिछडेपन और उपेक्षा का जो चित्र सामने लाती है इसके ठीक उलट रियासतकाल में यह एक प्रगतिशील जमीदारी थी। इस जमीदारी का मुख्यालय भोपालपट्टनम नगर था जहाँ वर्ष 1908 से पूर्व ही राजमहल, अस्पताल, स्कूल, पोस्ट ऑफिस, पुलिस कार्यालय, इन्जीनियर कार्यालय एवं तहसील कार्यालय बनाये गये थे। भोपालपट्टनम को सड़क मार्ग से जगदलपुर से जोड़ दिया गया था (केदारनाथ ठाकुर, 1908)। वर्ष 1910 के पूर्व एक स्थाई पुल इंद्रावती नदी पर निर्मित था जो इस अंचल को सिरोंचा, चाँदा तथा नागपुर से जोडता था (महान भूमकाल के दौरान यह पुल क्षतिग्रस्त हो गया था)। रिकॉर्ड बताते हैं कि श्रीकृष्ण पामभोई के कार्यकाल के दौरान कारण उनकी जमींदारी मेनेजमेंट के तहत थी। उस दौरान 147 एकड़ बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया गया और 4300 रुपये तकाबी ऋण के रूप में किसानों मे वितरित किया गया (एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट 1954, अप्रकाशित)। जमींदार की आय का मुख्य स्त्रोत सागवान जैसी कीमती इमारती लकड़ियाँ एवं वनोपज थे। गोदावरी तथा इन्द्रावती नदी मार्ग से निर्यात किया जाता था। राजधानी भोपालपट्टनम में उस दौर में समुचित विद्युत व्यवस्था उपलब्ध थी। नगर में बिजली का वितरण जमीदार की ओर से किया जाता था जिसके लिये एक जेनरेटर महल परिसर में स्थापित किया गया था। स्वतंत्रता प्राप्त हुई, जमीदार भी प्रजा हो गये। भोपालपट्टनम जमीदारी के पास रहा जेनरेटर बेच दिया गया और इसके  साथ ही पूरा नगर अंधेरे में डूब गया था। इस अंधकार के कई दशक बाद भोपालपट्टनम में बिलजी पहुँचाई जा सकी थी। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Tuesday, June 20, 2017

प्रथम महिला शिक्षक और प्रथम महिला शासक (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 3)



उन्हें बस्तर में पहली महिला शिक्षक होने का गर्व प्राप्त है। वे बस्तर की पहली महिला शासक महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की अध्यापिका थीं। अध्यापिका बी माधवम्मा नायडू के बस्तर आने तथा राजपुत्री को शिक्षित करने एवं कन्या पाठशाला खोलने तक का सफर किसी चलचित्र जैसा है। बाल-विधवा तथा निराश्रित होने के पश्चात भी अध्ययनशील माधवम्मा अपने भाई के साथ मद्रास रेजिमेंट की पोस्टिंग स्थलों पर रह रही थीं। इस रेजीमेंट के टूटने के पश्चात वर्ष - 1894 में यह परिवार बस्तर राज्य की परलकोट जमीदारी तक पहुँचा। माधवम्मा तब जमींदार के बच्चों को पढाने लगीं। परलकोट से वे भोपालपट्टनम पहुँची एवं वहाँ भी अध्यापन करती रहीं। ख्याति जगदलपुर खींच लायी जहाँ तत्कालीन राजा रुद्रप्रदाप देव ने अपनी पुत्री राजकुमारी प्रफुल्ल कुमारी देवी के शिक्षण के लिये वर्ष 1916 में उन्हे नियुक्त किया। प्रत्यक्षदर्शियों तथा माधवम्मा नायडू पर प्राप्त आलेख (द्वारा श्री बी एन आर नायडू, सेवानिवृत्त प्राचार्य, नायडू मैंशन, सदर, जगदलपुर) के अनुसार उस दौर में अध्यापिका माधवम्मा को लेने के लिये पर्दा लगी हुई बैलगाडी राजमहल से भेजी जाती थी। शिष्या जब राज्य की शासक (वर्ष 1921 - 1936) बन गयीं तब उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि आप जीवन में आगे क्या करना चाहती हैं। शिक्षक पढाना ही चाहता है अत: महारानी के निर्देश पर भैरमगंज में एक कन्या पाठशाला आरम्भ की गयी। इस पाठशाला की शुरुआत में अध्ययन के लिये आने वाली बालिकाओं की संख्या बहुत सीमित थी किंतु धीरे धीरे उसमें अभिवृद्धि होने लगी। माधवम्मा वर्ष 1929 में रिटायर हुईं तथा इसके पश्चात उन्हे ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट के माध्यम से पेंशन मिलने लगी। वर्ष 1936 में महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी का देहावसान हुआ और उसके बाद से उनकी शिक्षक को पेंशन देना बंद कर दिया गया।

- राजीव रंजन प्रसाद 


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जब बस्तर हाई स्कूल में जलाया गया यूनियन जैक (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग - 2)



जगदलपुर बस्तर रियासत की एक जागृत राजधानी थी तथा यहाँ तत्कालीन क्रांतिकारी गतिविधियों एवं ब्रिटिश खिलाफत के आंदोलन का नेतृत्व श्री पी. सी नायडू कर रहे थे। स्वतंत्रता सेनानी श्री नायडू की एक सोडा फैक्ट्री थी जो क्रांतिकारियों का सम्मिलन स्थल तथा रणनीति बनाने का अड्डा बनी हुई थी। उनके नेतृत्व में अंग्रेजों भारत छोड़ो के स्वर को मुखर करने की योजना तैयार हुई। भारत की इस उपेक्षिततम रियासत की आवाज़ को सहजता से नहीं सुना जा सकता था तथा जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे सागवान की दरख्तों द्वारा ही सोख लिये जाते ऐसे में क्रांतिकारियों ने बहरों को सुनाने और अपनी उपस्थिति सही प्रकार से महसूस कराने की योजना पर कार्य आरंभ किया। स्वतंत्रता आन्दोलन की भीतर अलख जलाने मोहसिन नाम का एक उत्साही युवक इस कार्य के लिये चुना गया। बस्तर के तत्कालीन एक मात्र हाई-स्कूल के मैदान में यूनियन जैक फहराया जाता था। मोहसिन ने दुस्साहस पूर्ण कार्रवाई को अंजाम देते हुए यूनियन जैक को फ्लैग-पोस्ट सहित जला कर राख कर दिया था। बस्तर अंचल में पहली बार अंग्रेजों भारत छोड़ो के तीव्र और स्पष्ट स्वर ने आकार लिया था। निश्चित ही विरोध की अनेकों ऐसी घटनायें रही होंगी लेकिन उनका दस्तावेजीकरण अंग्रेजों ने हर्गिज नहीं होने दिया। बाद में श्री सी पी नायडू के भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस के साथ जुड़ कर स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने की जानकारी मिलती है।

- राजीव रंजन प्रसाद 



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प्लम्बली के लकड़ी के पुल (बस्तर: अनकही अनजानी कहानियाँ, भाग 1)



बस्तर के चालुक्य शासक राजा रुद्रप्रताप देव के शासनकाल  (1891 – 1921 ई.) में स्टेट इंजीनियर के पद पर ब्रिटिश अधिकारी प्लम्बली पदस्थ हो कर आये थे। प्लम्बली ने राज्य में लकड़ी की अधिकता व ग्रामीणों की काष्ठकृतियों के निर्माण में परम्परागत दक्षता को समझा और उसी को आधार बना कर लकड़ी के विशेष प्रकार के पुलों की डिजाईन तैयार की। उनका प्रयोग इतना कारगर सिद्ध हुआ कि बनाये गये पुलों के उपर से ट्रकों को गुजारना भी सम्भव हो सका था। प्लम्बली ने अपने इस कार्य और काष्ठपुलों की निर्माण शैली पर उन दिनों एक पुस्तक लिखी जो अभियांत्रिकी के दृष्टिगत महत्वपूर्ण मानी जाती है।

रियासतकालीन बस्तर में पहला काष्ठपुल वर्ष 1906 में बन कर तैयार हुआ था और वर्ष 1952 तक इस प्रकार के पुल बनाये जाते रहे। लकड़ी का सबसे बड़ा पुल दक्षिण बस्तर के गिलगिचा नाले पर बनाया गया था। बस्तर में विभिन्न सड़कों के मध्य एक समय पन्द्रह सौ से भी आधिक छोटे-बड़े काष्ठपुल निर्मित थे जिनका स्थान धीरे धीरे सीमेंट-कंकरीट के पुलों ने ग्रहण कर लिया। इसका कारण सीमेंट-सरिया के पुलों की मजबूती और अधिक भार-वहन क्षमता थी। इसके अतिरिक्त लकड़ी के पुलों को नियमित रख रखाव की आवश्यकता भी होती थी जो स्वयं भी एक खर्चीला कार्य था।    

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Thursday, June 08, 2017

अन्नदाता कब तक अनुत्तरित रहेंगे?



व्यवस्था ने किसानों को हमेशा दोयम समझा है। हम विकास-गति के आंकडों पर प्रसन्न और गमगीन हो जाते हैं जबकि भारतीय अर्थशास्त्र की बुनियाद उसकी कृषि-प्रधानता है। विधारधाराओं ने भारत माता का स्वरूप गढा है लेकिन इस प्रश्न पर मौन है कि वह रहती कहाँ है? इसके उत्तर में  सुमित्रानंदन पंत लिखते हैं - खेतों में फैला है श्यामल/ धूल भरा मैला सा आँचल/ गंगा यमुना में आँसू जल/ मिट्टी कि प्रतिमा उदासिनी/ भारत माता ग्रामवासिनी। अपने किसान की अनदेखी कर हम प्रगति की किसी अवधारणा को साकार नहीं देख सकते क्योंकि प्रकृति ने मनुष्य को ईंट और गारा खाने योग्य नहीं बनाया है। वैश्विक आंकड़े हासिल करने की दौड़ ने मशीनों के ऐसे युग को पैदा किया है जहाँ “हर हाँथ को काम देंगे” जैसे वाक्यांश कपोल कल्पना बन गये हैं। किसान और उसका योगदान सेंसेक्स और निफ्टी की चकाचौंध में दिखाई-सुनाई ही नहीं देता है। वर्तमान व्यवस्था के पास ऐसी आँख ही नहीं जो अपने अन्नदाता की पीड़ा को देख सके और ऐसे कान नहीं जो घुट-घुट कर किसी तरह जीवन-यापन करते कृषक-परिजनों की वेदना सुन-महसूस कर सकें। हमारी समग्र चेतना ने भी किसानों की आत्महत्याओं को केवल एक समाचार की हेडलाईन मान लिया है। 

इस दौर में जब कंकरीट के जंगलों का विस्तार हमारी प्राथमिकता है तब हमें यह भी याद रखना चाहिये कि देश के बहुत बड़े भू-भाग में आज भी सिंचाई की समुचित व्यवस्था दे पाने में हम नाकामयाब रहे हैं। आज भी हमारी पैंसठ प्रतिशत कृषियोग्य भूमि सिंचाई सुविधा युक्त नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक बाद भी अगर किसान को “काले मेघा पानी दे” ही करना है तो उसकी इस मांग में कुछ भी अनुचित नहीं कि फसल खराब होने पर उसे अपने खाद-बीज के लिये लिये गये कर्ज से माफी मिल सके। सरकारें जो कॉऑपरेटिव बनाती है उसमें गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि मेहनतकश किसान निजी क्षेत्र से बीज-खाद आदि का क्रय करना इस अपेक्षा से पसंद करता है कि फसल अच्छी हुई तो वह कर्ज भी लौटा सकेगा (गुणवत्ता युक्त बीजों से उत्पादन में २०% तक की अभिवृद्धि संभव है) और अपने लिये अच्छे दिन भी ला सकेगा। मुनाफाखोरी की वृत्ति हमारे भीतर ऐसी घुसी हुई है कि बीजों की गुणवत्ता का सही समय पर समुचित आंकलन करने में हमारे विभाग नाकामयाब रहते ही हैं अब नकली बीजों की बहुतायतता की समस्या से भी दो-चार होना पड रहा है।

विषय को समझने के लिये बस्तर का उदाहरण लीजिये जब इस अंचल में खेती के आयाम बदलने लगे। जूम कल्टिवेशन के स्थान पर स्थाई खेती की दिशा आदिवासियों को मिली। बस्तर में आज भी राज्य के कुल सिंचित क्षेत्र का केवल एक प्रतिशत ही अवस्थित है जबकि यहाँ की मुख्य नदियों को देखें तो उत्तर की ओर महानदी, दक्षिण की ओर शबरी, पूर्व की ओर से आरंभ कर संभाग के पश्चिमी भाग तक अपनी सहायक नदियों का जाल बनाती जीवनरेखा सरित इंद्रावती प्रवाहित है और पश्चिम में बीजापुर जिले के एक बडे हिस्से को छू कर गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। वास्तविकता देखी जाये तो इनही नदियों का समुचित उपयोग बस्तर संभाग से लगे निकटवर्ती राज्यों ने भरपूर किया है जबकि हम अब भी सिंचाई को ले कर किसी ठोस रणनीति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह भी सत्य है कि छत्तीसगढ राज्य में भी सिंचाई क्षेत्र का औसत असामान्य है। सिंचित क्षेत्र को भी आनुपातिक दृष्टि से परखा जाये तो राज्य का पच्चीस प्रतिशत से अधिक सिंचित क्षेत्र रायपुर, दुर्ग, धमतरी, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा आदि जिलों में है जिन स्थानों को गंगरेल, दुधावा, खारंग, मिनीमाता, खुड़िया, तांदुला, खरखरा, सीकासेर आदि जलाशयों से पानी उपलब्ध हो रहा है। राज्य के राजनांदगाँव, कबीरधाम, महासमुन्द, और रायगढ जिलों में सिंचाई पंद्रह से बीस प्रतिशत भूमि में हो रही है जबकि शेष जिलों में यह अनुपात दस प्रतिशत के लगभग है। अर्थात बस्तर अभी समुचित और व्यावहारिक रूप से खेती के लिये किसी बडे कायाकल्प की प्रतीक्षा कर रहा है। इस अंचल के बाँध काजगी विरोध में ध्वस्त हों, विकासोन्मुखी परियोजनायें दिल्ली की एनजीओ आधारित राजनीति में पिस जायें और सारे ग्लोब को यह तस्वीर दिखती रहे कि कितना शोषित पीडित है बस्तर....यही वर्तमान की सत्यता है। कमोबेश देश के सभी पिछडे क्षेत्रों की स्थिति ऐसी ही है। 

हमने खेती तथा सिंचाई के मसलों में गैर सरकारी संगठनों और विदेशी रायचंदों की बहुत सुनी है इसलिये हमारे लिये कब और क्या आवश्यक है इसका स्वस्थ और निर्पेक्ष मूल्यांकन कभी नहीं हुआ। हमने बाँधों को मानवता का दुश्मन घोषित कर दिया और हमें वाटरशेड मैंनेजमेंट का झुनझुना पकडाया गया। रेखांकित कीजिये कि भू-जल स्तर का किसी क्षेत्र में बढना केवल पानी को स्थान स्थान पर रोकने से सम्भव नहीं, छोटे छोटे तालाब भी समग्र सिंचाई आवश्यकता की पूर्ति करने में सफल सिद्ध नहीं हो सकते। बस्तर के बोधघाट बाँध परियोजना तथा ओडिशा की अपर-इंद्रावती परियोजना को केसस्डडी की तरह समझते हैं। एक ही नदी-घाटी के अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम में बन रही दो परियोजनाओं के सुचारू रूप से संचालन के लिये वर्ष 1975 से 1979 के मध्य तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री प्रकाशचन्द्र सेठी एवं ओड़िशा के मुख्यमंत्री नंदिनी सत्पथी के मध्य जलबटवारे पर समझौता हुआ था जिसके तहत इन्द्रावती बाँध से बोधघाट परियोजना के लिये 45 टीएमसी पानी छोड़ना आवश्यक था। अब न बोधघाट बाँध रहा न ओड़िशा सरकार की बाध्यता रही इसलिये कभी आठ टीएमसी पानी तो कभी तीन टीएमसी पानी छोड़ने की बात इस नदी में होने लगी है। इतना ही नहीं इस बीच बिना किसी विरोध और पर्यावरण के लिये हो हल्ले के ओड़िशा ने इन्द्रावती के साथ साथ उसकी सहायक नदियों क्रमश: पोड़ागढ़, कपूर, मुरान के सम्पूर्ण जल को भी अपने रिजर्वायर में मिला लिया और बाँध के सभी गेट बंद कर लिये। दंतेवाड़ा के बोधघाट की तरह ही नवरंगपुर की इन्द्रावती बाँध परियोजना को क्यों बंद नहीं किया गया? क्या केवल बस्तर के ही बाँध का विरोध किसी बड़ी और सोची समझी राजनीति का हिस्सा था? कोई आन्दोलनकरी तब इन सवालों के साथ क्यों सामने नहीं आया कि इन्द्रावती नदी के अपस्ट्रीम पर पानी को पूरी तरह रोक लिये जाने से नीचे के क्षेत्र में जल-जंगल-जमीन पर जो गहरे प्रभाव पड़ेंगे उसकी भरपाई किस तरह की जायेगी? बोधघाट के निरस्तीकरण के बाद भी ओड़िशा में इन्द्रावती और उसकी सहायक नदियों पर प्रोजेक्ट बनते कैसे रह सके? विरोध की राजनीतियाँ जिन्हें कथित रूप से बस्तर से सहानुभूति थी वे यहाँ के जनजातियों के इन्द्रावती नदी जल पर वास्तविक हक के लिये आवाज बुलंद करती क्यों दिखाई नहीं दीं? ये जलते हुए सवाल हैं जो देश में प्रगति के पैमानों का सरकारी अनुमापन तथा व्याप्त असमानताओं को उजागर करते हैं साथ ही किसी क्षेत्र के पिछडेपन का एक कारण भी स्पष्ट करते हैं। 

बात मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन की। निर्णय लेने की प्रक्रियायें जितनी विलम्बित होंगी आंदोलन उतने ही उग्र होंगे। सरकारें अवगत रहें कि देश भर में नक्सलवाद जैसी अवधारणा को प्रसारित करने वालों के निशाने पर सर्वदा किसान ही होते हैं। नक्सलबाडी से ले कर तेलंगाना तक उग्र-वामपंथ अपने साथ किसानों के एक वर्ग को जोडने में इस लिये सफल हो सका चूंकि हमारी अनदेखियाँ अपने चरम पर थीं। प्रश्न यह नहीं है कि किसानों पर गोली किसने चलाई बल्कि उत्तर इस बात का चाहिये कि हमारे अन्नदाता कब तक अनुत्तरित रहेंगे? पूंजीपति जमीनों पर काबिज हो हो कर स्वयं को किसान घोषित कर रहे हैं और अपना इनकम टैक्स बचा रहे हैं जबकि हल और बैल लिये खड़ा होरी समझ ही नहीं पाता कि किसानी उसकी हड्डी तो तोड रही है लेकिन यह इनकम किस चिडिया का नाम है। 

- राजीव रंजन प्रसाद
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Sunday, June 04, 2017

हमारा किताबी आपदा प्रबंधन और माउंट सेंट हेलेन्स ज्वालामुखी



माउंट हेलेन्स का जिक्र करते हुए मैं जवालामुखी और उसकी विभीषिकाओं पर बात नहीं करना चाहता अपितु मेरी चिंता है कि प्रकृति और प्राकृतिक घटनाओं को देखने का हमारा नजरिया क्या होना चाहिये? क्या प्राकृतिक घटाओं और उनकी विभीषिकाओं को भी विद्यार्थियों और आने वाली पीढी के लिये सहेज कर रखना आवश्यक है? क्या पर्यावरण को समझने के लिये हमें प्राकृतिक घटनाओं के प्रति नितांत संवेदनशील होना चाहिये? क्या इस तरह हम प्राकृतिक आपदा का प्रबंधन करने में भी समर्थ हो सकते हैं? कुछ वर्षों पहले मैं अमेरिका के पोर्टलैण्ड (ऑरेगॉन) गया था और ज्वालामुखी पर्वत माउंट हेलेन्स को निकट से देखने का अवसर मिला। रह रह कर धुँवे और राख उगलने वाला यह ज्वालामुखी दशकों के अंतराल में अचानक सक्रिय हो जाता है और अपनी उपस्थिति का अहसास कराने के पश्चात पुन: ध्यान की अवस्था में चला जाता है। उपर बर्फ और भीतर आग का अभिनव समागम है माउंट हेलेन्स, जिसे निहारते हुए प्रकृति की सुंदरता और ताकत का इस तरह अहसास होता है कि मनुष्य के सर्वे-सर्वा होने का अहं धराशायी हो जाये। 

विषय पर आने से पहले थोडी बात बात मिथकों और किम्वदंतियों की। केवल भारत के पर्वत, नदी-नाले और समुन्दर ही कथा-कहानियों से नहीं जुडे बल्कि पूरी दुनियाँ ही जिन रहस्यों को समझ नही पाती उसका उत्तर दंतकथाओं में तलाशती है। अमेरिकी मानते हैं कि कोलम्बिया नदी की सैर पर महान आत्मा के दो पुत्र जब साथ निकले तो सुंदरता से प्रभावित उन्होंने यहीं बसने का निर्णय ले लिया। कुछ समय साथ रहने के पश्चात दोनों ही बेटों में अहं का टकराव हुआ और भूभाग पर अधिकार के लिये लड़ाई होने लगी। आखिर महान आत्मा पिता ने बीच बचाव करते हुए दोनो के बीच भूभाग का बटवारा कर दिया। उन्होने उत्तर और दक्षिण दिशा में दो तीर चला कर कोलम्बिया घाटी भूभाग का सीमांकन किया तथा दोनो ही बेटों के अधिकार क्षेत्रों के बीच उनसे मिलने जाने के उद्देश्य से पुल बना दिया। अब जमीन को ले कर लडाई बंद हुई तो स्त्री को ले कर आरम्भ हो गयी। एक ही सुंदर लड़की से दोनो भाई प्रेम करने लगे और उसे पाने के लिये लड़ने भिडने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ उससे पूरी कोलम्बिया घाटी तबाह हो गयी यहाँ तक कि पुल भी नष्ट हो गया। इस विनाशलीला से नाराज महान आत्मा ने तीनों प्रेमियों को पर्वत में बदल दिया और उन्हें बर्फ से ढक दिया,  ये तीन पर्वत हैं माउंट सेंट हेलेन्स (प्रेमिका), माउंट हुड तथा माउंट एडम्स। प्रेमियों के हृदय की अग्नि को बर्फ क्या दबाये रख सकता है? इसी लिये गाहे - बगाहे वे अपने भीतर की सुलगन से पूरी दुनिया को आगाह करते रहते हैं। 
  
इन कहानियों में संवेदनाओं के अनेक निहितार्थ छिपे हुए हैं लेकिन उनसे उपर है प्रकृति की वे अभिक्रियायें जिनसे उसके सर्वशक्तिमान होने का बोध होता है। हजारों धुँआ उलगती फैक्ट्रियों, नदियों को मल-मूत्र से भर देने वाले शहरों और रासायिन खाद से खेतों को जला कर राख कर देने वाली वर्तमान मान सभ्यता को कभी कभी ही यह अहसास होता है कि उससे पहले डायनासोर भी इस धरती पर अपना मालिकाना हक समझते थे लेकिन वे नहीं बचे। ज्वालामुखी विस्फोट प्रकृति की मनुष्य सभयता को चेतावनी है। बात आगे बढाने से पहले एक अमेरिकी बच्चे की कविता का अनुवाद अवश्य पढाना चाहता हूँ – 

चलो बहता लावा देखें 
यह समय है कि आकाश हो जाये रौशन 
आओ महसूस करें उडती हुई राख की धूम
माउट सेंट हेलेन्स पर आज रात 
बूम! बूम!! बूम!! बूम!!!! 

अमेरिकी बच्चों के मन में ज्वालामुखी को ले कर जो कल्पनायें है वे साकार इसलिये हो उठी कि उन्होंने निकटता से इस भू-वैज्ञानिक घटना को देखा है। ज्वलामुखी और भूकम्प टाले नहीं जा सकते और मनुष्य केवल उनसे होने वाले विनाश तथा निर्माण को महसूस भर कर सकता है। १८ मई वर्ष १९८० को हुए माउंट हेलेन्स ज्वालामुखी विस्फोट में मानव हानि के अतिरिक्त लाखो  जीव जंतु तथा जल जंतु की हानि हुई हजारो हेक्टेयर भूमि पर लपलपाते लावा के डैने पसर गये और धूल धुँवे का अम्बार फैल गया। समय पर्यंत राहत और बचाव कार्य चलते रहे, तथा धीरे धीरे बदले हुए वातावरण को स्वीकार करता हुआ जीव-जगत यहाँ पुन: अपनी सक्रियता दर्शाता देखा जा सकता है। अब अमेरिकी प्रशासन ने ज्वालामुखी और आसापास के बहुत बड़े क्षेत्र को बसाहट विहीन तथा मानवीय दखल से दूर कर दिया है। राहत कार्य के पश्चात यह पूरा संरक्षित इलाका जैसे थे वाली अवस्था में रखा गया है अर्थात लावा प्रवाह के दौरान अगर कोई पेड झुलस गया, कोई वाहन दब गया, कोई मकान चपेट में आ गया, कोई तालाब लावा से भर गया तो उसकी क्या अवस्था हुई वह आज भी देखा और महसूस किया जा सकता है। हमारी प्राथमिक चट्टानों के निर्माता लावा ही हैं तथा कोई छात्र आसानी से स्त्रोत से लावा के बहने के तरीकों उनके विस्तार तथा जमने के दौरान एवं बाद में होने वाले प्रभावों को देख-महसूस कर सकता है।

मैं माउंट सेंट हेलेन्स को देख कर रोमांचित इसलिये हो सका चूंकि प्रकृति क्या, कितना और किस तरह कर सकती है सब कुछ आँखों के सामने ही देख रहा था। क्या हम भारतीय ऐसी प्राकृतिक घटनाओं को जिससे लड-पाना हमारी क्षमता के बाहर है, उसे समझने के लिये इसी तरह सहेजने वाला दृष्टिकोण भी रखते हैं? हम अवैध खनन और अन्धाधुंध प्रकृति का दोहन करने वाले लोग जब तक अपनी धरती और उसकी गतिविधियों को ठीक उसी तरह समझने की कोशिश नहीं करेंगे जैसे कि कोई डॉक्टर मरीज की दिल की धडकनों को…..तब प्राकृतिक आपदाओं से लडने-बचने की समझ हमारे भीतर विकसित नहीं होगी। भारत ज्वालामुखी वाला देश भले ही न हो लेकिन उससे जनित सुनामी जैसी आपदाओं को झेलता रहा है। लगभग पूरा देश खास कर हमारा हिमालयी हिस्सा भूकम्प की प्रबल सम्भावनाओं से डरा-सहमा रहता है। माउंट सेंट हेलेंस का प्राकृतिक घटना संग्रहालय हमें समझ प्रदान करता है कि समय रखते हमारे शोध तथा प्रयास भी इसी दिशा में जाने चाहिये। प्रकृति रौद्र रूप क्यों धारण करती है इसे समझने का अगर हमारे पास समय नहीं है तो विनाश से बचने का कोई उपाय भी नहीं होगा। विश्व के अन्य देशों की तुलना में तूफान, भूकम्प, बाढ, सुनामी जैसी आपदाओं में भारत में अपेक्षाकृत आधिक जान-माल की हानि होती है क्योंकि हमारा आपदा प्रबंधन किताबी है।  

- राजीव रंजन प्रसाद 
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एक पेड़ के बदले एक सिर



यह वर्ष 1859 की घटना है जिसे कालांतर में "कोई आन्दोलन" के रूप में जाना गया। बस्तर रियासत के राजा और दीवान की उपेक्षा करते हुए अंग्रेजों ने यहाँ के जंगलों को काटने का ठेका निजाम हैदराबाद के आदमियों को दे दिया था। बाहरी ठेकेदार को न तो आम आदिवासी के सरोकारों से मतलब था न ही उसे लूट के दामों में यहाँ से सस्ते मजदूर अपने राज्य में उपलब्ध हो सकते थे। कितने आश्चर्य की बात थी कि जिनका जंगल है वे नहीं जानते कि यहाँ कटाई किसलिये हो रही है। जिनके घर हैं इन जंगलों में वे नहीं जानते कि उन्हे उजड़ जाने के आदेश किसलिये दिये गये। सबसे बड़ी बात कि जंगल बस्तर का और लाभार्थी निजाम? जंगल की कटाई आरंभ हुई तब इसकी गंभीरता का किसी को अनुमान नहीं था। पहले पहल असंतोष ठेकेदार हरिदास भगवानदास के कारण उभरा। हरिदास के सिर्फ नाम में हरि था किंतु मानवता उसमें नाम मात्र नहीं थी। उसकी निगाह में आदिवासी इंसान नहीं थे। उसके लिये कटाई के कार्य में लगे मजदूर निजी संपत्ति थे। 

जंगल की कटाई के काम ने जैसे ही गति पकड़ी, आदिवासियों में बेचैनी बढ़ने लगी। आदिवासियों के भीतर इस आरा मशीन से तेजी से काटे जा रहे जंगलों के खिलाफ आक्रोश पनपने लगा। स्थान स्थान पर आदिवासी लामबन्द होने लगे। मुख्य संगठनर्ता नेताओं में भोपालपट्टनम से रामभोई; भीजी से जुग्गाराजू और जुम्मा राजू; फोतकेल नागुलदोरा और कुन्यादोरा आदि थे। जंगल नहीं रहेगा तो घर किधर रहेगा, शिकार किधर रहेगा? यह दुष्चिंता आदिवासियों की पर्यावरण के प्रति अपनी समझ से निकली थी। चिंता स्वाभाविक भी थी, इस तेजी से जंगल के कटने को बस्तर ने पहले कभी नहीं देखा था। आरा मशीनें देखते ही देखते सागवान के बड़े बड़े पेड़ धराशायी कर देती और फिर उससे निश्चित आकार के छोटे छोटे टुकड़ों को काटा जा रहा था। इन लकड़ियों को ढुलवा कर हैदराबाद ले जाया जाता था। माझियों में रेलगाड़ी या उसके लिये लगने वाले स्लिपरों की समझ नहीं थी लेकिन इतना वे जानते थे कि जंगल उनकी अपनी संपत्ति हैं। जो कुछ भी हो रहा है वह डकैती है। अपने जंगल खो देने के अहसास ने उन्हें एक जुट कर दिया। यह तय किया गया कि अब जंगल और नहीं कटने दिये जायेंगे। माझियों ने एक राय हो कर फैसला किया कि "एक पेड़ के बदले एक सिर होगा" और यही संदेश उन्होंने अपने राजा, अंग्रेज अधिकारियों और ठेकेदारों को भी भिजवा दिया। 

वह साम्राज्य जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता उसके प्रतिनिधियों को जुगनू आँखें दिखाये यह तो बर्दाश्त किये जाने वाली बात नहीं थी। निर्देश जारी किये गये कि जंगल की कटाई करने वाले मजदूरों के साथ हथियारबंद सिपाही भेजे जायें। आदिवासी भी अब हथियार का जवाब हथियार से देने के लिये तैयार थे। उनका नारा था – एक पेड़ के पीछे एक सिर। अगली सुबह खबर फैली कि आरा चलाने वालों के साथ हथियारबंद सिपाही लगाये गये हैं। स्वत: स्फूर्त आक्रोश ने जन्म लिया। सवाल जंगल का था। बंदूख के साये में आरा मशीनों की घरघराहट जैसे ही आरंभ हुई आदिवासी अनियंत्रित हो गये। हजारो सिर कुर्बानी देने के लिये तत्पर हो गये। ठेकेदार स्तब्ध रह गया। हर ओर से भाले और फरसे लिये वे दौड़ते चले आ रहे थे। नंगी छातियों ने खुली चुनौती दे दी कि चाहे जितने कारतूस फूंक दो अब रहेंगे तो हम और हमारे जंगल या फिर कुर्बानी ही सही। इससे पहले कि मशीने सागवान का सीना चीरती अनेक पेड़ों की तनों पर चेतावनी से भरे बाण बिंध गये। रायफ़लें भी गरजी। भाले और तीर कमानों ने भी वीरता के साथ प्रत्युत्तर दिया। युद्ध शस्त्रों से ही नहीं हौंसलों से भी लड़े जाते हैं। दो चार राईफलों से इतने बड़े हमले का सामना संभव नहीं था। आरा चलाने वाले, निजाम के दोनों कारीगरों के सिर धड़ों पर नहीं रहे। लकड़ी की टालों को आग के हवाले कर दिया गया। एकदम से दहशत व्याप्त हो गयी, लकड़ी काटने के लिये आये सभी आदमी भाग खड़े हुए तथा ठेकेदार को भी भूमिगत हो जाना पड़ा। 

चिंतलनार के पास बंजारे अभी भी निजाम के लोगों तक लकड़ी पहुँचा रहे थे। आदिवासियों के नाजायज शोषण में बंजारों की कई सौ सालों से भूमिका रही है। नमक, गुड़ और कुछ रंग-बिरंगे सौन्दर्य उत्पादों के एवज में कीमती वनोपज धड़ल्ले से राज्य के बाहर ले जाया जाता है। बापीराजू की अगवाई में घात लगा कर बैठे आदिम वीरों ने अनेकों बंजारा काफिलों पर एक साथ हमला किया। सामान लूट लिया गया। एक काफिले से ढ़ाई हजार रुपये भी लूटे गये। इसी तरह विद्रोह फैलता गया। समूचे दक्षिण बस्तर में कोई आन्दोलन का प्रभाव था। एक भी पेड़ कटता तो उसके एवज में जान ले ली जाती। अनेकों बंजारे और छोटे बड़े ठेकेदार मारे गये। स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि ग्लस्फर्ड को ब्रिटिश सेना ले कर दक्षिण बस्तर आना पड़ा। हालात का जायजा लेने के बाद अंग्रेज अधिकारी को पैरों तले जमीन जाती दिखी। विद्रोह को कुचला जा सकता था लेकिन इसमें महीनों लग जाते। जिस तरह अनेकों समूहों में बंट कर और अलग अलग नेतृत्व में यह विद्रोह सक्रिय था उससे निबटना आसान नहीं था। एक नेता या एक समूह द्वारा संचालित विद्रोह को तो अंग्रेज आसानी से मसल दिया करते थे, यह नयी परिस्थिति थी। जुग्गाराजू, जुम्माराजू, बापीराजू, नागुलदोरा, कुन्यादोरा, पामभोई, रामसायबहादुर....अनेकों नाम ग्लस्फर्ड के सम्मुख रखे गये। 

ग्लस्फर्ड की चिंता बढ़ गयी थी। अचरज भरा सच था कि अधनंगे और अधपेट जीने वाले आदिवासी ऐसी चुनौतियाँ उत्पन्न कर रहे हैं जो अंग्रेजों को अन्यत्र नहीं मिलीं। आदिमों की राजनीतिक समझ बेमिसाल थी। कागज पर शासक जो चाहे हों लेकिन जगदलपुर के प्रति ही राज्य की हर आदिम प्रजाति की प्रतिबद्धता रही। आदिवासी भी सामंती व्यवस्था के अंतर्गत शासित थे और वे राजा की प्रभुसत्ता स्वीकार करते हुए अपने प्रमुख अर्थात माझियों के आधीन थे। अंग्रेज अधिकारी को यह समझ आ गया था कि प्रतिरोध आगे बढ़ाने से बेहतर है कि जंगल कटाई का काम बस्तर रियासत के माध्यम से ही करवाया जाये। ब्रिटिश सेना लौटा ली गयी। निजाम के आदमियों को दिये गये सभी ठेके निरस्त कर दिये गये। अंग्रेजों के लिये भले ही यह कदम रणनीति का हिस्सा हों, कोई आन्दोलन ने अपनी सफलता का इतिहास लिख दिया था। सही मायनों में यह बस्तर का पहला पर्यावरण आन्दोलन था। 

- राजीव रंजन प्रसाद
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Saturday, June 03, 2017

मावल्यान्नॉग - एशिया में स्वच्छतम एक भारतीय गाँव



एशिया का सबसे साफ-सुथरा गाँव भारत में है इस बात का गर्व किसे नहीं होगा? मेघों की धरती मेघालय के पूर्वी खासी हिल्स जिले में अवस्थित एक छोटा सा गाँव मावल्यान्नॉग अब एक पर्यटक स्थल में परिवर्तित हो गया है। जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह था किसी गाँव की स्वच्छता को देखने के लिये विकसित हुआ पर्यटन। पन्चानबे परिवारों का गाँव जिसकी कुल आबादी लगभग पाँच सौ व्यक्ति है, उन्होंने ऐसा क्या विशेष किया है जिसके कारण उन्हें एशिया के नक्शे पर महत्वपूर्ण स्थान हासिल हुआ। यह बात भी सु:खद है कि इस गाँव की एक बड़ी विशेषता मातृसत्तात्मक परम्परा तो है ही यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति साक्षर भी है। गाँव में प्रवेश करने से पूर्व ही एक दृष्टि डालने पर बहुत सी बाते स्पष्ट हो जाती हैं। पहली यह कि परम्परा और आधुनिकता का बेहतर समायोजन किया गया है इसलिये सडक में निश्चित दूरी पर सौर ऊर्जा से चलने वाली लाईटें लगाई गयी हैं साथ ही प्रत्येक कुछ कदम पर बाँस के तिकोने आकार के टोकरे भी आपको लटके हुए मिलेंगे जिसे आप कूडादान कहते हुए एकबार हिचकेंगे अवश्य। इन कचरा-कूडा सहेजने के लिये लगायी गयी बाँस की टोकरियों ने गाँव की कलात्मक अभिरुचि को अभिव्यक्त किया है तथा सुन्दरता प्रदान की है। 

भारतीय गाँव की अवधारणा में स्वच्छता को अधिक प्राथमिकता प्राप्त नहीं है। हम “गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा” जैसे गीतों से झूम अवश्य उठते हैं किंतु मक्खियों से भिनभिनाते घरों, अनपढता और जनसंख्या के दबाव से जूझते परिवारों की घुटन को देख आह भर रह जाते हैं। आदर्श गाँव की अनेक संकल्पनायें हैं और वे केवल कोरी कल्पनायें बन कर अपकी कागजी-मगजमार योजनाओं की भेंट चढती हुई ही दिखाई पडती हैं। बहुत कम गाँव ऐसे हैं जहाँ स्कूल, चिकित्सालय, डाकघर या बैंक जैसी बुनियादी सुविधायें उनकी परिधि के भीतर ही उपलब्ध हों। शौचालयों पर चर्चा के इस दौर में किसी भी गाँव से हो कर गुजरती पक्की सडकों के दोनो ओर बिखरी गंदगी का साम्राज्य आमतौर पर देखा जा सकता है। जिस भारत को गाँवों का देश कहा जाता है वहाँ आप एक व्यवस्थित गाँव को तलाशते थक जायेंगे। मैं यह नहीं कहता कि अपवाद नहीं है, निजी प्रयासों अथवा सामूहिक दायित्वों के निर्वहन ने अनेक गाँवों की तकदीर और तस्वीर भी बदली है तथापि हम भारत को एक सुन्दर, साक्षर और स्वच्छ देश बनाने की दिशा में बहुत पीछे रह गये हैं। 

मावल्यान्नॉग में बाँस के बने सुन्दर और नक्काशीदर घर हैं जहाँ जन-जीवन सामान्य दिखाई पडता है। ग्रामीण, पर्यटक आगमन के इतने आदी हो गये हैं कि उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं लगता कि लोग उन्हें अचरज से देख रहे हैं, उनकी जीवन शैली को समझने के कोशिश कर रहे है, उनकी तस्वीरें ले रहे हैं। अपितु मैने यहाँ के लोगों में इस बात का गर्व देखा कि वे विशिष्ठ हैं और उन्होंने जो अलग कर दिखाया है, आज उसका ही प्रतिसार प्राप्त हुआ है। गाँव को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये जैविक वस्तुओं का जीवन व कृषि में प्रयोग के साथ ही पॉलिथीन पर प्रतिबन्ध जैसे आवश्यक कदम यहाँ लोगों तथा प्रशासन ने सख्ती से उठाये हैं। चूंकि अजैविक कचरा कम से कम  एकत्रित होता है अतत: यहाँ उपलब्ध कचरे को अलग करना व उनसे जैविक खाद प्राप्त करना भी सहज है, इससे बेहतर कचरा निस्तारण योजना क्या हो सकती है? यही कारण है कि लहलहाती खेती, खुश दिखते वृक्षों और हर घर के आगे करीने से लगाये गये पौधों में मुस्कुराते फूलों पर बैठी तितली स्वत: बताती है कि क्यों इस गाँव को भगवान का बग़ीचा कहा जाता है।     

स्वच्छता अपने भीतर से पनपने वाली अवधारणा है। भारत को स्वच्छ रखने का लक्ष्य झाडू पकड कर सेल्फी खिंचाने से कदापि हासिल नहीं हो सकता अपितु इसके लिये मावल्यान्नॉग के ग्रामीणों जैसी सोच-समझ और सामूहिक कर्तव्य निर्वाह की दृष्टि होनी चाहिये। इस गाँव में ‘सरकार सफाई नहीं करती’, ‘स्वच्छता कर्मी नहीं आता’, ‘कचरा पडा है कोई नहीं उठाता’, ‘पड़ोसी मेरे घर अपना कूडा डाल जाता है’ जैसी शिकायतें नहीं हैं अपितु हर व्यक्ति स्वयं गाँव का स्वच्छताकर्मी है। मैने एक बूढे को देखा जो सड़क के किनारे की खरपतवार को उखाड रहा था और पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह उसने अपने खाली समय का उपयोग किया है। गाँव का कोई भी व्यक्ति सड़क पर पडे कूडे-कचरे को अनदेखा नहीं करता अपितु स्वयं उसे उठा कर कूडेदान में डाल देना अपना कर्तव्य समझता है। मावल्यान्नॉग के लोगों की यही दृष्टि और सोच रही तो यह गाँव एक दिन निश्चित ही विश्व का सबसे सुन्दर गाँव बनेगा। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

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Thursday, June 01, 2017

पर्यावरण संरक्षण और हम



प्रेरक प्रसंग है कि एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी। यही पर्यावरण एवं जैव-विविधता संरक्षण और प्रबन्धन का मुख्यस्त्रोत है कि प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। 

आज  पेड़, पौधों, जीव-जंतुओं को विलुप्त होने से बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास चल रहे हैं। वर्ष 2000 में लंदन में अंतरराष्ट्रीय बीज बैंक की स्थापना की गई। बीज बैंक में अब तक 10 फीसदी जंगली पौधों के बीज संग्रहित हो चुके हैं। नार्वे में ‘स्वाल बार्ड ग्लोबल सीड वाल्ट’ की स्थापना की गई है, जिसमें विभिन्न फसलों के 11 लाख बीजों का संरक्षण किया जा रहा है। अर्थात ऊँट के मुह में जीरा की तरह कुछ कोशिशें निरंतर की जा रही हैं। वर्तमान समय में जैव विविधता बैंकों का निर्माण किया जा रहा है जहां पौधों, बैक्टीरिया, फंगस, बीजों आदि की विभिन्न प्रजातियों को संभाल कर रखा जा रहा है इसका सबसे अच्छा उदाहरण आस्ट्रेलिया का नेटिव वेजिटेशन मैनेजमेंट फ्रेमवर्क है। भारत में भी इस तरह के बैंकों के निर्माण का प्रयास किया जा रहा है। भारत में जैव विविधता को बचाने के लिये स्मिथसोनिया ट्रॉपिकल रिसर्च इन्सटीट्यूट, एसोसिएशन फॉर ट्रॉपिकल बायोलॉजी एंड कंजर्वेशन, ईटीसी ग्रुप, सोसायटी फॉर कंजवेर्शन बायोलॉजी, अमेजन कन्जर्वेशन टीम, कन्जवेर्शन बायोलॉजी इन्सटीट्यूट आदि कार्यरत है। भारत में जैव विविधता संरक्षण के लिये कई परियोजनाएं भी कार्यरत है।

इस बात से शायद ही कोई इन्कार करेगा कि जैव विविधता का सरंक्षण आज के समय की मांग है। पर इस बात पर कोई एकमत नहीं है कि इसे कैसे किया जाए। मूल रूप से संरक्षण क्रियाएं दो प्रकार की हो सकती हैं - ‘इन-सीटू’ एवं ‘एक्स-सीटू’ संरक्षण। इन-सीटू से तात्पर्य है, ”इसके वास्तविक स्थान पर या इसके उत्पत्ति के स्थान तक सीमित।“ इन-सीटू संरक्षण का एक उदाहरण आरक्षित या सुरक्षित क्षेत्रों का गठन करना है। एक्स-सीटू संरक्षण की कोशिश का उदाहरण एक जर्मप्लाज्म बैंक या बीज बैंक की स्थापना करना है। संरक्षण योजना की दृष्टि से इन-सीटू संरक्षण प्रयासों को बेहतर माना जाता है। परन्तु कई बार इस प्रकार का संरक्षण कार्य किया जाना संभव नहीं होता है। उदाहरण के लिए यदि किसी प्रजाति का प्राकृतिक आवास पूरी तरह नष्ट हो गया हो तो एक्स-सीटू संरक्षण प्रयास, जैसे एक प्रजनन चिडि़याघर का गठन, अधिक आसान होगा। वास्तव में एक्स-सीटू संरक्षण इन-सीटू संरक्षण को सहायता प्रदान करने में महत्वपूर्ण है।तो, क्या सब कुछ समाप्त हो चुका है? या हमारे पास अभी भी जैव विविधता को बनाए रखने के लिए एक मौका बाकी है। इस विषय की शुरूआत करने के लिए इस दिशा में इन्सानी कोशिशों को देखना बेहतर होगा।

कभी कभी परम्परायें जाने अनजाने जैव-विविधता संरक्षण में सहयोग कर देती हैं। हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित अनेक विधान विभिन्न तरह की वृक्ष पूजाओं को प्रोत्साहित करते हैं। तमिल रामायण के अनुसार यदि कोई मनुष्य अपने जीवन काल में दस आम के वृक्ष लगा लेता है तो वह निश्चित रूप से स्वर्ग का भागी बनता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार पीपल के पौधे को रोपित कर व्यक्ति यदि शनिवार के दिन प्रातःकाल जल चढ़ाता है तो उसके सभी कष्टों का निवारण हो जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार अशोक के पौधे को रोपित कर उसे प्रतिदिन एक ताँबे के लोटे से जल चढ़ाने से असीम मानसिक शांति का अनुभव होता है। यही नहीं आँवले के पौधे को रोपकर व उसे बड़ा कर दूध मिश्रित जल प्रतिदिन चढ़ाने से आने वाली विपदाओं/बाधाओं से मुक्ति मिलती है। इसी तरह बिल्वपत्र के वृक्ष को अमावस के दिन प्रातः जल चढ़ाकर धूप-दीपकर उसकी जड़ों में 50 ग्राम के लगभग शुद्ध गुड़ का चूरा रखने से अनेक रोगों से मुक्ति मिलती है। बारीकी से देखा जाये तो बिल्वपत्र के वृक्ष तो संरक्षण हुआ ही आस पास रहने वाली चींटियों और अन्य कीट पतंगों की भी दावत हो गयी। संरक्षण को धर्म के साथ जोडने के फलस्वरूप पीपल-बट-आम-नीम आदि के कई वृक्ष समाज की बाध्यता स्वरूप सुरक्षित रह गये हैं। 

भारत के कई हिस्सों में ग्रामीण कई संरक्षण योजनाओं को अपनाते हैं। इनमें मादा पशुओं के शिकार पर पाबंदी, साल के समय विशेष में कुछ विशिष्ट प्रजातियों के शिकार या भोजन के रूप में प्रयोग से बचना (आमतौर से प्रजाति के प्रजनन काल में), धार्मिक क्रियाओं के लिए कुछ प्रजातियों का संरक्षण, वनों के कुछ भाग या जलाशयों का इलाके के मान्य देवी-देवताओं के नाम पर संरक्षण सम्मिलित हैं। जनता की ओर से शुरू किए गए संरक्षण प्रयासों में अत्यधिक क्षमता आंकी गई है। जिन क्षेत्रों में इस प्रकार के रिवाज अपनाए जाते हैं वहां हिरन, कृष्ण मृग, मोर और चिंकारा या छोटा गरुड़ जैसे प्राणि बगैर किसी डर के घूमते नजर आते हैं और ग्रामीण अपनी दैनिकचर्या में व्यस्त रहते हैं।

बहुत से जीव-जंतु देवी-देवताओं के साथ सम्बद्ध हैं और उन्हीं के साथ पूजे जाते हैं। शेर, हंस, मोर और यहां तक कि उल्लू और चूहे भी तुरन्त दिमाग में आ जाते हैं जो कि देवी दुर्गा और उनके परिवार से संबंधित माने जाते हैं जिनकी दुर्गा पूजा के दौरान पूजा होती है। परम्परावादी लोग कभी भी तुलसी (ऑसिमम सैंक्टम) या पीपल (फाइकस बंगालेन्सिस) के पौधे को नहीं उखाड़ते, चाहे वह कहीं भी उगा हुआ हो। प्रायः परम्परागत धार्मिक क्रियाओं या व्रत के दौरान कोई न कोई वनस्पति प्रजाति महत्वपूर्ण मानी जाती है। अधिकांश व्रत विशिष्ट वनस्पति प्रजाति से जुड़े हुए हैं। रोचक तथ्य यह है कि इनमें से कई प्रजातियां औषधीय गुणों से भी परिपूर्ण हैं। बंगाल में दीपावली से एक दिन पहले 14 विभिन्न हरी पत्तेदार सब्जियां या शाक खाना एक परम्परा है। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि चौदह खाने योग्य प्रकारों की पहचान करना, सीखना या उन्हें उगाना एक व्यक्ति की जैव विविधता के बारे में प्रायोगिक ज्ञान को एक लाभदायक रूप में बढ़ाने में सहयक होगा।

बहुत सी जनजातियाँ कुछ प्रजातियों के साथ अपनी वंश परंपरा मानते हैं। इन प्रजातियों को गणचिह्न प्रजातियां कहा जाता है। सगोत्रीय व्यक्ति अपनी गणचिह्न प्रजाति का शिकार नहीं करते। एक तरह से यह साधनों का टिकाऊ बंटवारा करने का ढंग है और साधनों के लिए लड़ाई होने की संभावना घट जाती है। सबसे आम पवित्र पशु बाघ, गाय या सांड, मोर, नाग, हाथी, बंदर, भैंस, सियार, कुत्ता, हिरन और कृष्ण मृग हैं। कई बार एक पूरा क्षेत्र, चाहे यह जंगल का क्षेत्र हो, पहाड़ों की चोटियां हों, नदियां, जलाशय, घास के मैदान हों या फिर बहुधा, एक अकेला वृक्ष ही किसी विशिष्ट देवी-देवता के साथ जोड़कर पवित्र बना दिया जाता है। इसकी यह प्रतिष्ठा इसे मानवीय स्वार्थसिद्धि से परम्परागत सुरक्षा प्रदान करती है। ये पुनीत उपवन देश के विभिन्न भागों में भिन्न नामों से जाने जाते हैं। उदहरण के तौर पर केरल में इन्हें ‘कणु’ कहा जाता है। ‘देवारबन/देवारकाडु/नागवन’ कर्नाटक में इनका चर्चित नाम है, तमिलनाडु में ‘कोविलकाडु’ तो महाराष्ट्र में ये ‘देवरहाटी’ के नाम से जाने जाते हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में नदियों के कुछ हिस्से जिन्हें ‘मच्छियाल’ कहा जाता है, संरक्षित है। इन सुरक्षित क्षेत्रों के ऊपरी या निचले बहाव पर मछली पकड़ने पर पाबंदी होती है। हरिद्वार से ऋषिकेश के मध्य गंगा का विस्तार इसका एक उदाहरण है। भारत में पुनीत उपवनों की उपस्थिति 18वीं सदी के आरंभ से रिकार्ड की गई है। उदाहरण के लिए बिश्नोई जनजाति राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में आज भी ‘ओरण’ नामक पुनीत उपवनों को बरकरार रखे हुए हैं। बिश्नोइयों के कानून पशुवध और पेड़ काटने को प्रतिबंधित करते हैं, विशेषकर उनके पवित्र खेजड़ी वृक्ष को। खेजड़ी के वृक्ष बालू के टीलों को दृढ़ता प्रदान करते हैं। ‘ओरण’ भारतीय चिंकारा या कृष्ण मृग को भी सुरक्षित प्राकृतिक आवास प्रदान करते हैं। बंगाल में देवी शोश्ती को मातृत्व की देवी माना जाता है और उसका वाहन बिल्ली को माना गया है। यह विश्वास किया जाता है कि बिल्ली के मारने वाले को देवी के कोप का भागी बनना पड़ता है और शायद ही कोई मां जानते-बूझते इस खतरे को उठाने को तैयार होती है। यह वास्तव में आश्चर्यजनक है कि किस तरह हमारे पूर्वजों ने अपने विश्वासों को अपने खुद के अस्तित्व के लिए संजो कर रखा था। 

पूरी दुनिया में जमीन से जुड़े देशी लोगों ने प्रकृति का सम्मान किया और उसे अपनी आवश्यकता के लिए उपयोग किया न कि लालच के लिए। उदाहरण के लिए जाम्बिया के कुछ आदिवासी जनजातियों में मान्यता है कि एक शहद भरा छत्ता मिलना अच्छे भाग्य का सूचक है। दो छत्ते मिलना सौभाग्य है परन्तु तीन छत्ते मिलना जादू-टोना माना जाता है। इससे आत्म-नियंत्रण पैदा होता है। यह प्राकृतिक संसाधनों के अधिक दोहन पर लगाम कसने का तरीका है। इससे कोई भी प्रजाति नष्ट नहीं होगी और इस प्रकार जैव विविधता को संरक्षण भी मिलता रहेगा है। आज की नई पीढ़ी में परम्पराओं और विश्वासों के लिए सम्मान नहीं है और अधिकतर युवा इन परम्परागत रिवाजों को अंधविश्वास के रूप में ही देखते हैं। सौभाग्यवश, भारत में बहुत से संरक्षणकर्ता, समुदाय, सरकार और गैर-सरकारी संस्थाएं यह जान चुके हैं कि विकास; प्रगति एवं आधुनिकता एवं परम्परागत रिवाजो के साथ-साथ चल सकता हैं। यह विचार तेजी से फैलता जा रहा है कि आधुनिक तंत्र में परम्परागत ज्ञान का होना बहुत आवश्यक है, अनुभवों से साबित हुआ है कि यह संभव है। भारत के पवित्र उपवनों की सुरक्षा का विचार गति पकड़ता जा रहा है। विद्यालयों एवं समुदायों में पुनीत उपवन जागृति अभियान चलाए जा रहे हैं जिससे लोगों को जैव विविधता के संरक्षण के महत्व के बारे में शिक्षित किया जा सके और परम्पराओं के पुनः प्रचलन को बढ़ावा दिया जा सके।

- राजीव रंजन प्रसाद 
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