Wednesday, June 28, 2017

एक विरासत टुकड़े आठ (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 10)


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समय अपनी रफ्तार से चला। राजे रजवाड़े अपनी गरिमा, दौलत तथा प्रभाव लुटा चुके थे तो किसी वन्य क्षेत्र के आदिवासी जमींदार की क्या हैसियत हो सकती थी। मध्यप्रदेश शासन ने 06 जनवरी 1972 को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत भोपालपटनम जमींदारी को उसके चौदह वारिसों के सुपुर्द कर दिया। वे चौदह वारिस थे  नरसैया राज पामभोई/समैया राज पामभोई; किस्टैया राज पामभोई/बसवैया राज पामभोई;  रमैय्या राज पामभोई/ बुचैय्या राज पामभोई; नरसैंया राज पामभोई/ बुचैय्या राज पामभोई;  लक्षमैया राज पामभोई/ पापैया राज पामभोई; राजैया राज पामभोई/ कैस्टैया राज पामभोई; बतकैया राज पामभोई/ लालैया राज पामभोई; बकैया राज पामभोई/ वैन्कैया राज पामभोई; रामचन्द्रम राज पामभोई/ वैकैय्या राज पामभोई; आनंदैया राज पामभोई/ वेंकैय्या राज पामभोई; पापैया राज पामभोई/ लिंगैय्या राज पामभोई; जगैया राज पामभोई/ किस्टैया राज पामभोई; शुभ्रा भाई (पत्नी पापैया राज पामभोई); कु. सत्यवती (पुत्री लिंगैय्या राज पामभोई)। इन चौदह वारिसदारों में से कुल आठ वारिसों के हिस्से भोपालपट्टनम का राजमहल आया। इस समय इन परिवारों की आर्थिक अवस्थिति इतनी बदतर थी कि राजमहल के संरक्षण की बात उनके द्वारा सोची नहीं जा सकती थी। राजमहल के इन वारिसों ने तत्कालीन मध्यप्रदेश प्रशासन को राजमहल के संरक्षण के लिए लिखा किंतु इस विरासत पर ध्यान देने के स्थान पर इसे तब खंडहर घोषित कर दिया था, जबकि इस इमारत का एक प्लास्टर भी नहीं उखड़ा था (स्त्रोत – संदीप राज, भोपालपट्टनम)। इसके पश्चात इस विरासत को मयियामेट होने के लिये छोड दिया गया। अब भवन के भीतर के कमरों में कब्जा कर लिया गया है तथा पीछे अवस्थित मैदानों में भी लोग झोपड़ियाँ बना कर रहने लगे हैं। सामने की संरचना, भीतर का अहाता अभी ठीक-ठाक अवस्था में हैं जबकि पिछली दीवारों पर बरगद का कब्जा है। शायद इतिहास तो केवल लालकिलों के ही होते हैं....। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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