Thursday, June 01, 2017

पर्यावरण संरक्षण और हम



प्रेरक प्रसंग है कि एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी। यही पर्यावरण एवं जैव-विविधता संरक्षण और प्रबन्धन का मुख्यस्त्रोत है कि प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। 

आज  पेड़, पौधों, जीव-जंतुओं को विलुप्त होने से बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास चल रहे हैं। वर्ष 2000 में लंदन में अंतरराष्ट्रीय बीज बैंक की स्थापना की गई। बीज बैंक में अब तक 10 फीसदी जंगली पौधों के बीज संग्रहित हो चुके हैं। नार्वे में ‘स्वाल बार्ड ग्लोबल सीड वाल्ट’ की स्थापना की गई है, जिसमें विभिन्न फसलों के 11 लाख बीजों का संरक्षण किया जा रहा है। अर्थात ऊँट के मुह में जीरा की तरह कुछ कोशिशें निरंतर की जा रही हैं। वर्तमान समय में जैव विविधता बैंकों का निर्माण किया जा रहा है जहां पौधों, बैक्टीरिया, फंगस, बीजों आदि की विभिन्न प्रजातियों को संभाल कर रखा जा रहा है इसका सबसे अच्छा उदाहरण आस्ट्रेलिया का नेटिव वेजिटेशन मैनेजमेंट फ्रेमवर्क है। भारत में भी इस तरह के बैंकों के निर्माण का प्रयास किया जा रहा है। भारत में जैव विविधता को बचाने के लिये स्मिथसोनिया ट्रॉपिकल रिसर्च इन्सटीट्यूट, एसोसिएशन फॉर ट्रॉपिकल बायोलॉजी एंड कंजर्वेशन, ईटीसी ग्रुप, सोसायटी फॉर कंजवेर्शन बायोलॉजी, अमेजन कन्जर्वेशन टीम, कन्जवेर्शन बायोलॉजी इन्सटीट्यूट आदि कार्यरत है। भारत में जैव विविधता संरक्षण के लिये कई परियोजनाएं भी कार्यरत है।

इस बात से शायद ही कोई इन्कार करेगा कि जैव विविधता का सरंक्षण आज के समय की मांग है। पर इस बात पर कोई एकमत नहीं है कि इसे कैसे किया जाए। मूल रूप से संरक्षण क्रियाएं दो प्रकार की हो सकती हैं - ‘इन-सीटू’ एवं ‘एक्स-सीटू’ संरक्षण। इन-सीटू से तात्पर्य है, ”इसके वास्तविक स्थान पर या इसके उत्पत्ति के स्थान तक सीमित।“ इन-सीटू संरक्षण का एक उदाहरण आरक्षित या सुरक्षित क्षेत्रों का गठन करना है। एक्स-सीटू संरक्षण की कोशिश का उदाहरण एक जर्मप्लाज्म बैंक या बीज बैंक की स्थापना करना है। संरक्षण योजना की दृष्टि से इन-सीटू संरक्षण प्रयासों को बेहतर माना जाता है। परन्तु कई बार इस प्रकार का संरक्षण कार्य किया जाना संभव नहीं होता है। उदाहरण के लिए यदि किसी प्रजाति का प्राकृतिक आवास पूरी तरह नष्ट हो गया हो तो एक्स-सीटू संरक्षण प्रयास, जैसे एक प्रजनन चिडि़याघर का गठन, अधिक आसान होगा। वास्तव में एक्स-सीटू संरक्षण इन-सीटू संरक्षण को सहायता प्रदान करने में महत्वपूर्ण है।तो, क्या सब कुछ समाप्त हो चुका है? या हमारे पास अभी भी जैव विविधता को बनाए रखने के लिए एक मौका बाकी है। इस विषय की शुरूआत करने के लिए इस दिशा में इन्सानी कोशिशों को देखना बेहतर होगा।

कभी कभी परम्परायें जाने अनजाने जैव-विविधता संरक्षण में सहयोग कर देती हैं। हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित अनेक विधान विभिन्न तरह की वृक्ष पूजाओं को प्रोत्साहित करते हैं। तमिल रामायण के अनुसार यदि कोई मनुष्य अपने जीवन काल में दस आम के वृक्ष लगा लेता है तो वह निश्चित रूप से स्वर्ग का भागी बनता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार पीपल के पौधे को रोपित कर व्यक्ति यदि शनिवार के दिन प्रातःकाल जल चढ़ाता है तो उसके सभी कष्टों का निवारण हो जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार अशोक के पौधे को रोपित कर उसे प्रतिदिन एक ताँबे के लोटे से जल चढ़ाने से असीम मानसिक शांति का अनुभव होता है। यही नहीं आँवले के पौधे को रोपकर व उसे बड़ा कर दूध मिश्रित जल प्रतिदिन चढ़ाने से आने वाली विपदाओं/बाधाओं से मुक्ति मिलती है। इसी तरह बिल्वपत्र के वृक्ष को अमावस के दिन प्रातः जल चढ़ाकर धूप-दीपकर उसकी जड़ों में 50 ग्राम के लगभग शुद्ध गुड़ का चूरा रखने से अनेक रोगों से मुक्ति मिलती है। बारीकी से देखा जाये तो बिल्वपत्र के वृक्ष तो संरक्षण हुआ ही आस पास रहने वाली चींटियों और अन्य कीट पतंगों की भी दावत हो गयी। संरक्षण को धर्म के साथ जोडने के फलस्वरूप पीपल-बट-आम-नीम आदि के कई वृक्ष समाज की बाध्यता स्वरूप सुरक्षित रह गये हैं। 

भारत के कई हिस्सों में ग्रामीण कई संरक्षण योजनाओं को अपनाते हैं। इनमें मादा पशुओं के शिकार पर पाबंदी, साल के समय विशेष में कुछ विशिष्ट प्रजातियों के शिकार या भोजन के रूप में प्रयोग से बचना (आमतौर से प्रजाति के प्रजनन काल में), धार्मिक क्रियाओं के लिए कुछ प्रजातियों का संरक्षण, वनों के कुछ भाग या जलाशयों का इलाके के मान्य देवी-देवताओं के नाम पर संरक्षण सम्मिलित हैं। जनता की ओर से शुरू किए गए संरक्षण प्रयासों में अत्यधिक क्षमता आंकी गई है। जिन क्षेत्रों में इस प्रकार के रिवाज अपनाए जाते हैं वहां हिरन, कृष्ण मृग, मोर और चिंकारा या छोटा गरुड़ जैसे प्राणि बगैर किसी डर के घूमते नजर आते हैं और ग्रामीण अपनी दैनिकचर्या में व्यस्त रहते हैं।

बहुत से जीव-जंतु देवी-देवताओं के साथ सम्बद्ध हैं और उन्हीं के साथ पूजे जाते हैं। शेर, हंस, मोर और यहां तक कि उल्लू और चूहे भी तुरन्त दिमाग में आ जाते हैं जो कि देवी दुर्गा और उनके परिवार से संबंधित माने जाते हैं जिनकी दुर्गा पूजा के दौरान पूजा होती है। परम्परावादी लोग कभी भी तुलसी (ऑसिमम सैंक्टम) या पीपल (फाइकस बंगालेन्सिस) के पौधे को नहीं उखाड़ते, चाहे वह कहीं भी उगा हुआ हो। प्रायः परम्परागत धार्मिक क्रियाओं या व्रत के दौरान कोई न कोई वनस्पति प्रजाति महत्वपूर्ण मानी जाती है। अधिकांश व्रत विशिष्ट वनस्पति प्रजाति से जुड़े हुए हैं। रोचक तथ्य यह है कि इनमें से कई प्रजातियां औषधीय गुणों से भी परिपूर्ण हैं। बंगाल में दीपावली से एक दिन पहले 14 विभिन्न हरी पत्तेदार सब्जियां या शाक खाना एक परम्परा है। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि चौदह खाने योग्य प्रकारों की पहचान करना, सीखना या उन्हें उगाना एक व्यक्ति की जैव विविधता के बारे में प्रायोगिक ज्ञान को एक लाभदायक रूप में बढ़ाने में सहयक होगा।

बहुत सी जनजातियाँ कुछ प्रजातियों के साथ अपनी वंश परंपरा मानते हैं। इन प्रजातियों को गणचिह्न प्रजातियां कहा जाता है। सगोत्रीय व्यक्ति अपनी गणचिह्न प्रजाति का शिकार नहीं करते। एक तरह से यह साधनों का टिकाऊ बंटवारा करने का ढंग है और साधनों के लिए लड़ाई होने की संभावना घट जाती है। सबसे आम पवित्र पशु बाघ, गाय या सांड, मोर, नाग, हाथी, बंदर, भैंस, सियार, कुत्ता, हिरन और कृष्ण मृग हैं। कई बार एक पूरा क्षेत्र, चाहे यह जंगल का क्षेत्र हो, पहाड़ों की चोटियां हों, नदियां, जलाशय, घास के मैदान हों या फिर बहुधा, एक अकेला वृक्ष ही किसी विशिष्ट देवी-देवता के साथ जोड़कर पवित्र बना दिया जाता है। इसकी यह प्रतिष्ठा इसे मानवीय स्वार्थसिद्धि से परम्परागत सुरक्षा प्रदान करती है। ये पुनीत उपवन देश के विभिन्न भागों में भिन्न नामों से जाने जाते हैं। उदहरण के तौर पर केरल में इन्हें ‘कणु’ कहा जाता है। ‘देवारबन/देवारकाडु/नागवन’ कर्नाटक में इनका चर्चित नाम है, तमिलनाडु में ‘कोविलकाडु’ तो महाराष्ट्र में ये ‘देवरहाटी’ के नाम से जाने जाते हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में नदियों के कुछ हिस्से जिन्हें ‘मच्छियाल’ कहा जाता है, संरक्षित है। इन सुरक्षित क्षेत्रों के ऊपरी या निचले बहाव पर मछली पकड़ने पर पाबंदी होती है। हरिद्वार से ऋषिकेश के मध्य गंगा का विस्तार इसका एक उदाहरण है। भारत में पुनीत उपवनों की उपस्थिति 18वीं सदी के आरंभ से रिकार्ड की गई है। उदाहरण के लिए बिश्नोई जनजाति राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में आज भी ‘ओरण’ नामक पुनीत उपवनों को बरकरार रखे हुए हैं। बिश्नोइयों के कानून पशुवध और पेड़ काटने को प्रतिबंधित करते हैं, विशेषकर उनके पवित्र खेजड़ी वृक्ष को। खेजड़ी के वृक्ष बालू के टीलों को दृढ़ता प्रदान करते हैं। ‘ओरण’ भारतीय चिंकारा या कृष्ण मृग को भी सुरक्षित प्राकृतिक आवास प्रदान करते हैं। बंगाल में देवी शोश्ती को मातृत्व की देवी माना जाता है और उसका वाहन बिल्ली को माना गया है। यह विश्वास किया जाता है कि बिल्ली के मारने वाले को देवी के कोप का भागी बनना पड़ता है और शायद ही कोई मां जानते-बूझते इस खतरे को उठाने को तैयार होती है। यह वास्तव में आश्चर्यजनक है कि किस तरह हमारे पूर्वजों ने अपने विश्वासों को अपने खुद के अस्तित्व के लिए संजो कर रखा था। 

पूरी दुनिया में जमीन से जुड़े देशी लोगों ने प्रकृति का सम्मान किया और उसे अपनी आवश्यकता के लिए उपयोग किया न कि लालच के लिए। उदाहरण के लिए जाम्बिया के कुछ आदिवासी जनजातियों में मान्यता है कि एक शहद भरा छत्ता मिलना अच्छे भाग्य का सूचक है। दो छत्ते मिलना सौभाग्य है परन्तु तीन छत्ते मिलना जादू-टोना माना जाता है। इससे आत्म-नियंत्रण पैदा होता है। यह प्राकृतिक संसाधनों के अधिक दोहन पर लगाम कसने का तरीका है। इससे कोई भी प्रजाति नष्ट नहीं होगी और इस प्रकार जैव विविधता को संरक्षण भी मिलता रहेगा है। आज की नई पीढ़ी में परम्पराओं और विश्वासों के लिए सम्मान नहीं है और अधिकतर युवा इन परम्परागत रिवाजों को अंधविश्वास के रूप में ही देखते हैं। सौभाग्यवश, भारत में बहुत से संरक्षणकर्ता, समुदाय, सरकार और गैर-सरकारी संस्थाएं यह जान चुके हैं कि विकास; प्रगति एवं आधुनिकता एवं परम्परागत रिवाजो के साथ-साथ चल सकता हैं। यह विचार तेजी से फैलता जा रहा है कि आधुनिक तंत्र में परम्परागत ज्ञान का होना बहुत आवश्यक है, अनुभवों से साबित हुआ है कि यह संभव है। भारत के पवित्र उपवनों की सुरक्षा का विचार गति पकड़ता जा रहा है। विद्यालयों एवं समुदायों में पुनीत उपवन जागृति अभियान चलाए जा रहे हैं जिससे लोगों को जैव विविधता के संरक्षण के महत्व के बारे में शिक्षित किया जा सके और परम्पराओं के पुनः प्रचलन को बढ़ावा दिया जा सके।

- राजीव रंजन प्रसाद 
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