Thursday, June 22, 2017

डाकिये तलवार रखते थे और हरकारे भाला (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 5)



कल्पना कीजिये उस दौर की जब ग्राम-डाकिये तलवार ले कर चला करते थे और हरकारे भाला। बस्तर में डाक व्यवस्था को आरम्भ करने के पीछे का मुख्य कारण वर्ष 1876 की जनजातीय क्रांति थी। इससे डरे हुए अंग्रेजों ने अपने सूचनातंत्र को मजबूत करने के लिये बस्तर और कांकेर में डाक व्यवस्था का आरम्भ किया। सेंट्रल प्रोविंस की नागपुर-सर्किल के अंतर्गत नागपुर में पोस्ट मास्टर जनरल, रायपुर डिविजन में डाकघर अधीक्षक तथा धमतरी सबडिविजन में डाकघर निरीक्षक का कार्यालय था। उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में इसी व्यवस्था के माध्यम से जगदलपुर, कोण्डागाँव, केशकाल तथा कांकेर मे आरम्भिक डाकघर स्थापित किये गये थे। इन डाकघरों में तार की प्राप्ति तथा प्रेषण के लिये समुचित व्यवस्थायें की गयी थीं। 

बस्तर रियासत की राजधानी जगदलपुर के डाकघर में एक पोस्टमास्टर, एक क्लर्क, एक पोस्टमैन, एक पैकर और एक टेलीग्राफ मैसेंजर था। जगदलपुर में तब गोलबाजार, कोतवाली, मिशन कम्पाऊंड, राजमहल एवं महारानी अस्पताल के पास लैटरबॉक्स लगाये गये थे। जगदलपुर से कोण्डागाँव, केशकाल, कांकेर, धमतरी और रायपुर के लिये डाक रोज सुबह 9 बजे की बस के माध्यम से भेजी जाती थी। ग्रामीण क्षेत्रों में डाक बांटने के लिये ग्राम-डाकिये होते थे जो सप्ताह में एक बार ही अपने निर्धारित क्षेत्र में प्राय: पैदल अथवा साईकिल से जाते थे। वे अपनी तथा डाक की सुरक्षा के लिये ये अपने पास तलवार अनिवार्य रूप से रखते थे। 

भोपालपट्टनम, मद्देड, बीजापुर, गीदम, दंतेवाड़ा और कोण्टा में शाखा-डाकघरों की स्थापना की गयी थी। इन स्थानों तक डाक पहुँचाने के लिये हरकारे नियुक्त किये जाते थे। प्रत्येक हरकारा अपने साथ भालानुमा एक अस्त्र ले कर जिसके सिर पर घुंघरू बंधे होते थे, साथ ही उसके सिरे पर डाकथैला लटका कर लगभग दौडता हुआ जंगलों के बीच पाँच मील की दूरी तय करता था। इस दूरी के पश्चात उसे नियत स्थान पर अगला हरकारा खडा मिलता था। भोपालपट्टनम, कुटरू, कोण्टा जैसे दूरस्थ स्थानों तक डाक पहुँचने में महीनों लग जाते थे एवं बारिश में डाक व्यवस्था बाधित भी होती थी। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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