Friday, June 30, 2017

कीर्तिमान है किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 13)


दंतेवाड़ा क्षेत्र में औद्योगीकरण की प्रथम आहट के साथ ही किरन्दुल को विशाखापट्टनम से जोड़ने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। इस सम्बन्ध में रेल्वे नेटवर्क की संकल्पना दण्डकारण्य-बोलांगीर-किरिबूरू (डीबीके) परियोजना के रूप में हुई थी। यह तीन रेल्वे लाईनों का नेटवर्क था, चूंकि ओड़िशा के किरिबुरू से भी लगभग बीस लाख टन लौह अयस्क जापान को निर्यात किये जाने के करार को संभव बनाना था। किरन्दुल से विशाखापट्टनम को जोड़ने के लिये जो रेलमार्ग नियत किया गया उसकी लम्बाई चार सौ अड़तालीस किलोमीटर थी और आज इसे के-के (किरन्दुल – कोटावलसा) रेल्वे नेटवर्क  के रूप में पहचान मिली हुई है। 

पूर्वीघाट पर्वत श्रंखला की कठोर किंतु प्राचीन क्वार्जाईट चट्टानों में से सुरंगों का निर्माण करते हुए ब्रॉड गेज लाईने बिछाना जिसपर से भारी-भरकम लौह अयस्क का परिवहन हो सके, कोई साधारण कार्य नहीं था। निर्माण उपकरणों को दुरूह पर्वतीय स्थलों पर ले जाना, लोहे और सीमेंट आदि की ढुलाई किस तरह संभव हुई होगी इसे आज किसी परिकथा की तरह ही सोचा समझा का सकता है। स्वतंत्र भारत को विकास के पथ पर ले जाने वाली कठिनतम परियोजनाओं में से एक किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन निर्माण के पश्चात इसपर चलने वाली रेल अपनी यात्रा में एक स्थान पर सर्वाधिक 996.32 मीटर की ऊँचाई को भी स्पर्श करती है, साथ ही इस यात्रा का आकर्षण है अन्ठावन टनल (जिनकी सम्मिलित लम्बाई चौदह किलोमीटर से अधिक है) तथा चौरासी बड़े पुलो पर से गुजरने का रोमांच। कल्पना की जा सकती है कि सुरंगों से गुजरते, निकलते और अंधेरे उजाले का खेल खेलती रेलगाड़ी किसी यात्री को कितना अधिक रोमांचित कर सकती है विशेषकर जब उसे अहसास हो कि अपनी यात्रा में वह बारह सौ से भी अधिक पुलों पर से गुजर रहा है। इस कठिनतम निर्माण की उस समय आयी लागत महज पचपन करोड़ रुपये थी साथ ही यह रिकॉर्ड समय में पूरी की गयी परियोजना भी है। वर्ष 1962 में कार्यारम्भ हुआ जिसे वर्ष 1966 में पूरा भी कर लिया गया। वर्ष 1967 से किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन पर बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना से अयस्क का परिवहन आरम्भ हो गया था।

- राजीव रंजन प्रसाद 

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