Thursday, June 08, 2017

अन्नदाता कब तक अनुत्तरित रहेंगे?



व्यवस्था ने किसानों को हमेशा दोयम समझा है। हम विकास-गति के आंकडों पर प्रसन्न और गमगीन हो जाते हैं जबकि भारतीय अर्थशास्त्र की बुनियाद उसकी कृषि-प्रधानता है। विधारधाराओं ने भारत माता का स्वरूप गढा है लेकिन इस प्रश्न पर मौन है कि वह रहती कहाँ है? इसके उत्तर में  सुमित्रानंदन पंत लिखते हैं - खेतों में फैला है श्यामल/ धूल भरा मैला सा आँचल/ गंगा यमुना में आँसू जल/ मिट्टी कि प्रतिमा उदासिनी/ भारत माता ग्रामवासिनी। अपने किसान की अनदेखी कर हम प्रगति की किसी अवधारणा को साकार नहीं देख सकते क्योंकि प्रकृति ने मनुष्य को ईंट और गारा खाने योग्य नहीं बनाया है। वैश्विक आंकड़े हासिल करने की दौड़ ने मशीनों के ऐसे युग को पैदा किया है जहाँ “हर हाँथ को काम देंगे” जैसे वाक्यांश कपोल कल्पना बन गये हैं। किसान और उसका योगदान सेंसेक्स और निफ्टी की चकाचौंध में दिखाई-सुनाई ही नहीं देता है। वर्तमान व्यवस्था के पास ऐसी आँख ही नहीं जो अपने अन्नदाता की पीड़ा को देख सके और ऐसे कान नहीं जो घुट-घुट कर किसी तरह जीवन-यापन करते कृषक-परिजनों की वेदना सुन-महसूस कर सकें। हमारी समग्र चेतना ने भी किसानों की आत्महत्याओं को केवल एक समाचार की हेडलाईन मान लिया है। 

इस दौर में जब कंकरीट के जंगलों का विस्तार हमारी प्राथमिकता है तब हमें यह भी याद रखना चाहिये कि देश के बहुत बड़े भू-भाग में आज भी सिंचाई की समुचित व्यवस्था दे पाने में हम नाकामयाब रहे हैं। आज भी हमारी पैंसठ प्रतिशत कृषियोग्य भूमि सिंचाई सुविधा युक्त नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक बाद भी अगर किसान को “काले मेघा पानी दे” ही करना है तो उसकी इस मांग में कुछ भी अनुचित नहीं कि फसल खराब होने पर उसे अपने खाद-बीज के लिये लिये गये कर्ज से माफी मिल सके। सरकारें जो कॉऑपरेटिव बनाती है उसमें गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि मेहनतकश किसान निजी क्षेत्र से बीज-खाद आदि का क्रय करना इस अपेक्षा से पसंद करता है कि फसल अच्छी हुई तो वह कर्ज भी लौटा सकेगा (गुणवत्ता युक्त बीजों से उत्पादन में २०% तक की अभिवृद्धि संभव है) और अपने लिये अच्छे दिन भी ला सकेगा। मुनाफाखोरी की वृत्ति हमारे भीतर ऐसी घुसी हुई है कि बीजों की गुणवत्ता का सही समय पर समुचित आंकलन करने में हमारे विभाग नाकामयाब रहते ही हैं अब नकली बीजों की बहुतायतता की समस्या से भी दो-चार होना पड रहा है।

विषय को समझने के लिये बस्तर का उदाहरण लीजिये जब इस अंचल में खेती के आयाम बदलने लगे। जूम कल्टिवेशन के स्थान पर स्थाई खेती की दिशा आदिवासियों को मिली। बस्तर में आज भी राज्य के कुल सिंचित क्षेत्र का केवल एक प्रतिशत ही अवस्थित है जबकि यहाँ की मुख्य नदियों को देखें तो उत्तर की ओर महानदी, दक्षिण की ओर शबरी, पूर्व की ओर से आरंभ कर संभाग के पश्चिमी भाग तक अपनी सहायक नदियों का जाल बनाती जीवनरेखा सरित इंद्रावती प्रवाहित है और पश्चिम में बीजापुर जिले के एक बडे हिस्से को छू कर गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। वास्तविकता देखी जाये तो इनही नदियों का समुचित उपयोग बस्तर संभाग से लगे निकटवर्ती राज्यों ने भरपूर किया है जबकि हम अब भी सिंचाई को ले कर किसी ठोस रणनीति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह भी सत्य है कि छत्तीसगढ राज्य में भी सिंचाई क्षेत्र का औसत असामान्य है। सिंचित क्षेत्र को भी आनुपातिक दृष्टि से परखा जाये तो राज्य का पच्चीस प्रतिशत से अधिक सिंचित क्षेत्र रायपुर, दुर्ग, धमतरी, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा आदि जिलों में है जिन स्थानों को गंगरेल, दुधावा, खारंग, मिनीमाता, खुड़िया, तांदुला, खरखरा, सीकासेर आदि जलाशयों से पानी उपलब्ध हो रहा है। राज्य के राजनांदगाँव, कबीरधाम, महासमुन्द, और रायगढ जिलों में सिंचाई पंद्रह से बीस प्रतिशत भूमि में हो रही है जबकि शेष जिलों में यह अनुपात दस प्रतिशत के लगभग है। अर्थात बस्तर अभी समुचित और व्यावहारिक रूप से खेती के लिये किसी बडे कायाकल्प की प्रतीक्षा कर रहा है। इस अंचल के बाँध काजगी विरोध में ध्वस्त हों, विकासोन्मुखी परियोजनायें दिल्ली की एनजीओ आधारित राजनीति में पिस जायें और सारे ग्लोब को यह तस्वीर दिखती रहे कि कितना शोषित पीडित है बस्तर....यही वर्तमान की सत्यता है। कमोबेश देश के सभी पिछडे क्षेत्रों की स्थिति ऐसी ही है। 

हमने खेती तथा सिंचाई के मसलों में गैर सरकारी संगठनों और विदेशी रायचंदों की बहुत सुनी है इसलिये हमारे लिये कब और क्या आवश्यक है इसका स्वस्थ और निर्पेक्ष मूल्यांकन कभी नहीं हुआ। हमने बाँधों को मानवता का दुश्मन घोषित कर दिया और हमें वाटरशेड मैंनेजमेंट का झुनझुना पकडाया गया। रेखांकित कीजिये कि भू-जल स्तर का किसी क्षेत्र में बढना केवल पानी को स्थान स्थान पर रोकने से सम्भव नहीं, छोटे छोटे तालाब भी समग्र सिंचाई आवश्यकता की पूर्ति करने में सफल सिद्ध नहीं हो सकते। बस्तर के बोधघाट बाँध परियोजना तथा ओडिशा की अपर-इंद्रावती परियोजना को केसस्डडी की तरह समझते हैं। एक ही नदी-घाटी के अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम में बन रही दो परियोजनाओं के सुचारू रूप से संचालन के लिये वर्ष 1975 से 1979 के मध्य तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री प्रकाशचन्द्र सेठी एवं ओड़िशा के मुख्यमंत्री नंदिनी सत्पथी के मध्य जलबटवारे पर समझौता हुआ था जिसके तहत इन्द्रावती बाँध से बोधघाट परियोजना के लिये 45 टीएमसी पानी छोड़ना आवश्यक था। अब न बोधघाट बाँध रहा न ओड़िशा सरकार की बाध्यता रही इसलिये कभी आठ टीएमसी पानी तो कभी तीन टीएमसी पानी छोड़ने की बात इस नदी में होने लगी है। इतना ही नहीं इस बीच बिना किसी विरोध और पर्यावरण के लिये हो हल्ले के ओड़िशा ने इन्द्रावती के साथ साथ उसकी सहायक नदियों क्रमश: पोड़ागढ़, कपूर, मुरान के सम्पूर्ण जल को भी अपने रिजर्वायर में मिला लिया और बाँध के सभी गेट बंद कर लिये। दंतेवाड़ा के बोधघाट की तरह ही नवरंगपुर की इन्द्रावती बाँध परियोजना को क्यों बंद नहीं किया गया? क्या केवल बस्तर के ही बाँध का विरोध किसी बड़ी और सोची समझी राजनीति का हिस्सा था? कोई आन्दोलनकरी तब इन सवालों के साथ क्यों सामने नहीं आया कि इन्द्रावती नदी के अपस्ट्रीम पर पानी को पूरी तरह रोक लिये जाने से नीचे के क्षेत्र में जल-जंगल-जमीन पर जो गहरे प्रभाव पड़ेंगे उसकी भरपाई किस तरह की जायेगी? बोधघाट के निरस्तीकरण के बाद भी ओड़िशा में इन्द्रावती और उसकी सहायक नदियों पर प्रोजेक्ट बनते कैसे रह सके? विरोध की राजनीतियाँ जिन्हें कथित रूप से बस्तर से सहानुभूति थी वे यहाँ के जनजातियों के इन्द्रावती नदी जल पर वास्तविक हक के लिये आवाज बुलंद करती क्यों दिखाई नहीं दीं? ये जलते हुए सवाल हैं जो देश में प्रगति के पैमानों का सरकारी अनुमापन तथा व्याप्त असमानताओं को उजागर करते हैं साथ ही किसी क्षेत्र के पिछडेपन का एक कारण भी स्पष्ट करते हैं। 

बात मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन की। निर्णय लेने की प्रक्रियायें जितनी विलम्बित होंगी आंदोलन उतने ही उग्र होंगे। सरकारें अवगत रहें कि देश भर में नक्सलवाद जैसी अवधारणा को प्रसारित करने वालों के निशाने पर सर्वदा किसान ही होते हैं। नक्सलबाडी से ले कर तेलंगाना तक उग्र-वामपंथ अपने साथ किसानों के एक वर्ग को जोडने में इस लिये सफल हो सका चूंकि हमारी अनदेखियाँ अपने चरम पर थीं। प्रश्न यह नहीं है कि किसानों पर गोली किसने चलाई बल्कि उत्तर इस बात का चाहिये कि हमारे अन्नदाता कब तक अनुत्तरित रहेंगे? पूंजीपति जमीनों पर काबिज हो हो कर स्वयं को किसान घोषित कर रहे हैं और अपना इनकम टैक्स बचा रहे हैं जबकि हल और बैल लिये खड़ा होरी समझ ही नहीं पाता कि किसानी उसकी हड्डी तो तोड रही है लेकिन यह इनकम किस चिडिया का नाम है। 

- राजीव रंजन प्रसाद
==========

No comments: