Friday, May 30, 2008

तालाब नहीं भाते हैं..

मुझे तालाब नहीं भाते हैं
ठहर जाते हैं
और तुम इसीलिये उदास करती हो मुझे..

तुममें अपनी परछाई देखता हुआ
खीज कर फेंकता हूँ पत्थर
भँवरें मुझतक आती हैं
फिर ठहर जाती हैं..

शाम कूट कूट कर लाल मिर्च
झोंक देता है मेरी आँखों में
मैं पिघल पिघल कर बहा जाता हूँ
ठहर जाता हूँ... ठहर जाता हूँ

लेकिन जानम
मुझे तालाब नहीं भाते हैं..

*** राजीव रंजन प्रसाद
९.०३.१९९८

Monday, May 26, 2008

बस्तर का हूँ इस लिये चुप रहूँ - साभार मोहल्ला।

संस्मरण (कडी-1)
जगदलपुर का सीरासार चौक, शाम के करीब सात बजे होंगे। अचानक एक जनसैलाब उमडा और चौंक से उस बेहद संकरी सडक में जैसे उमडता हुआ पुलिस थाने की ओर बढने लगा। मैं कुछ समझ पाता इससे पहले बचने की कोशिश जरूरी थी। मैं अपने मित्र अफज़ल के घर की ओर भागा जो बिलकुल बस स्टैंड के करीब ही था। उसने मुझे बदहवास देख कर बिना कोई कारण पूछे पहले तो पानी का ग्लास थमाया। तब तक शोर तीखा हो गया था। हम बालकनी की ओर दौडे, एक जन सैलाब उमडा चला आ रहा था। और जैसे जैसे यह सैलाब नजदीक आया, हम चौंक गये। ब्रम्हदेव शर्मा?...हाँ वही हैं, और उन्हे जलील करती यह भीड कैसी है? आदिवासी लडकों का हुजूम और एक एक्टिविस्ट की एसी दुर्गति करता हुआ? यह माजरा हम देखते रहे.....भीड नें चंद कपडे ही उनके शरीर पर रहने दिये थे। गले में साईकल के टायर, जूते चप्पलों की माला और मुँह काला। बस्तर में यह नया सांस्कृतिक तत्व था। प्राय: शांत रहने वाले इस शहर में इस उफान को असाधारण घटना कहा जाना स्वाभाविक था। लेकिन असाधारण एक और बात थी और वह थी शिक्षित आदिवासी युवकों के हुजूम का इस तरह एकत्रित हो कर इस कृत्य में सम्मिलित होना। भीड इतनी अधिक थी कि पुलिस को मशक्कत करनी पडी ब्रह्मदेव शर्मा को मुक्त करा पाने में और देर शाम जब यह भीड छटी तो जगदलपुर अंतर्राष्ट्रीय खबरों में उछल गया। बी.बी.सी से उसी रात यह समाचार प्रसारित हुआ। एक नया हीरो पैदा हो चुका था....

जगदलपुर से उन दिनों मैं ग्रेजुएशन कर रहा था। उन दिनों धरमपुरा लगभग आबादी रहित ही था, और यहाँ रहने का विकल्प केवल शासकीय आदिवासी छात्रावास ही था। विकलांग होने के कारण मुझे कॉलेज प्रशासन नें इस छात्रावास में रहने की अनुमति दे दी। यह मेरे जीवन के लिये सकारात्मक और बेहद अनुभवों से भरा समय रहा। आदिवासी युवकों को पहले पहल मेरे साथ समायोजन बनाना और मेरा उनके बीच घुलना मिलना एक स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं थी। लेकिन समयपर्यंत सब सहज होता गया। मैं बॉलीबॉल और बैडमिंटन का स्वाभाविक रैफरी हो गया था और यह हमारे पानी में चीनी की तरह घुल जाने का आरंभ थी। मरकाम मेरा रूमपार्टनर था। उसके साथ हॉस्टल में मेरी पहली रात भुलाये नहीं भूलती। मैं जब सामान के साथ प्रविष्ठ हुआ तो एक अजीब सी गंध कमरे में फैली हुई थी। रात का खाना खाने हम साथ साथ हॉस्टल की मेस में गये और.....इतना चावल? इतना मोटा चावल? सब की थाली में भात का पहाड था जिसके बीच मे सब्जी का भ्रम सा।...। मैं जितना खा सका वह....मेरी हिम्मत ही थी। हॉस्टल में ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट कर रहे आदिवासी युवको का स्वाभिमान और गर्व देखते ही बनता था। उन्हें यह आभास था कि शिक्षा के इस पडाव तक पहुँच कर उनमें एक विशिष्ठता आ गयी है जो इस वन प्रांतर में हर किसी के लिये न तो सहज थी न ही स्वाभाविक। अध्ययन जमीन के प्रति नयी सोच पैदा करता है और यह मैने तब जाना जब हॉस्टल का सांस्कृतिक सचिव बनाये जाने के बाद मैने एक वाद विवाद प्रतियोगिता आयोजित करवायी। बस्तर के पिछडेपन पर शोषण और सरकारी धन के दुरुपयोग की बहुत सी कहानियाँ सुनी और बहुत सा आक्रोश मन में भरा भी। एक बडी बात जो समझ सका वह थी विकास की ललक। विकास तेंदू पत्ते से बीडी बना कर तो होता नहीं, लुट जाने वाले दाम में इमली बेच कर भी नहीं होता और पढ लिख जाने के बाद इन युवको की सोच में सरकारी कार्यालय, मिलें और खदान भी आ गयी हैं। बस्तर में इनके लिये क्या है? लोहा, टिन, कोरंडम यहाँ तक कि हीरा जैसे खनिज यहाँ हैं और कुछ सरकारी कंपनियों द्वारा दोहित होते हैं तो कुछ स्मगल होने की चर्चायें यदा कदा कान में पडती रहती थीं। कुल मिला कर यह कि रोजगार की खटपट यहाँ भी पढी लिखी पीढी में आवाज बनने लगी थी। कश्यप सर (उन्हें मैं इसी नाम से बुलाता था) आई.ए.एस की तैयारी कर रहे थे। आजकुल सुना है कि दंतेवाडा में ही कहीं पोस्टेड हैं और अधिकारी हैं। अधिक जानकारी मुझे नहीं (यदि मेरी यह पोस्ट कश्यप सर आप पढ रहे हों, तो मुझसे संपर्क की कोशिश कीजियेगा)। उनसे मेरी लम्बी चर्चायें होती रही थीं। एक लम्बी चर्चा में उन्होने जब कहा कि विकसित होने का अधिकार केवल शहरियों को ही क्यों है? क्यों लोग चाहते हैं कि हम पत्ते पहने जीवन पर्यंत रहे?

मावली भाटा लगभग बंजर इलाका है। यहाँ एक स्टील प्लांट खुलने का प्रस्ताव आया। मैनें देखा कि छात्रावास में एक खुशी की लहर थी। सभी को एसा लगने लगा कि उनके भविष्य का द्वार अब खुलने पर ही है। भिलाई का रेखाचित्र सभी के मानस पर खिंच गया था। विकास की ललक सभी की आँखों की चमक में दिखती थी और इस चमक को वही समझ सकता था जो कई दिनों की भूख के बाद पहला निवाला खा रहा हो। छात्रावास में यह उत्साह इतना अधिक था कि लगभग हर कोई कॉमन रूम में अखबार पर सुबह ही टूट पडता और स्टील प्लांट से जुडी सारी खबरों को पढ जाना चाहता।..। उस सुबह जब मैं कॉमन रूम अखबार पढने पहुँचा तो वहाँ अजीब सी खलबली थी। ब्रम्हदेव शर्मा का नाम मैने पहली बार सुना था। बस्तर के पूर्व कलेक्टर अपनी रिटायरमेंट काटने बस्तर पहुँच गये थे। स्टील प्लांट का विरोध...एक सूत्रीय कार्यक्रम। ये शर्मा जी हैं कौन? छात्रावास में बहुत सी चर्चायें थी। कुछ का कहना था कि बहुत विवादास्पद व्यक्तित्व है, खैर मैं किसी भी आरोप पर यकीन नहीं करता, आज भी नहीं। संभव था कि सपनों के टूटने की आहट से युवकों की भडास निकल रही हो।....और एक सिलसिला आरंभ हो गया। अखबार शर्मा जी की स्टेटमेंट्स से रंगने लगे। बहुत से तर्क। दो बाते बहुत सहज हैं पत्रकार हो जाना और पर्यावरणविद हो जाना। कुछ भी बन रहा हो कहीं भी बन रहा हो खडे हो जाईये और चीखिये पर्यावरण नष्ट हो जायेगा, दुनिया खतम हो जायेगी बस इस प्लांट के बनते ही। आपको हाँथो हाँथ लिया जायेगा। कोई आपसे आपकी क्वालिफिकेशन पूछने थोडे ही आ रहा है कि भईया पर्यावरण की कौन सी डिग्री ली है जो आपको भूकंप से ले कर व्न्य प्रजातियों के जीवन चक्र की एसी जानकारी है। भूगर्भशास्त्री होने के कारण शर्मा जी के आरंभ्क लेखों से मैं प्रभावित हो गया और यह मान बैठा कि इस स्टील प्लांट का बनना विकास नहीं विनाश है। दादू की दुकान पर चाय पीते हुए मेरी छात्रावासी मित्रों से लम्बी बहस हो गयी। पर्यावरण मेरे लिये भी बहस का आकर्षक विषय था और जंगल काट कर स्टील प्लांट बनाये जाने के तर्क के विरोध में मैं खडा था। कश्यप सर बहुत देर तक मेरे तर्क सुनते रहे फिर मुझे पास बुलाया और पूछा – मावली भाटा गये हो? मेरे ना में सिर हिलाते ही मुस्कुरा दिये बोले - चलो।

पत्थर और पत्थर, बंजर और वीराना। डिस्प्लेसमेंट बडा संदर्भ नहीं था, वृक्ष बडा सवाल नहीं थे....सच्चाई के सामने खडा कर कश्यप सर नें मुझसे कहा-मेरे कमर में पैंट देख रहे हो यह किसी को पचता नहीं है। हमें अजायबघर की चीज समझने वाले लोगों की साजिश है कि हम आदमी कभी बनें ही नहीं...हम नंगे हैं तो इन्हे सुकून है। क्यों हमारे बच्चों को स्कूल नसीब न हों? क्यों हमें बिजली न मिले? क्यों हम कमीज पतलून में टाई न लगा कर घूमें....क्यों हम जंगली रहें इस सदी में?.. मैं कश्यप सर की आँखों के आक्रोश को अपने भीतर गहरे महसूस कर रहा था। यहाँ स्टील प्लांट को बनना ही होगा, उनकी आँखों में अंगारे उग आये थे।

हँस्टल में हमेशा बासी अखबार ही पहुँचता था, एक दिन बाद की खबरे। उन दिनों टीवी-समाचार उतना पापुलर नहीं थे जितना कि रेडियो और समचार पत्र। ब्रम्हदेव शर्मा हाई प्रोफाईल आंदोलनकारी थे। उनकी बाते ही मीडिया को सच लगती थी और समझ में आती थी। मीडिया लोकतंत्र का पाँचवा स्तंभ है और अपने शेष चार स्तंभो की तरह प्रदूषण मुक्त नहीं। अखबारनवीसों को पता होता है कि कब, क्या और किसे छापना है। ब्रम्हदेव शर्मा की चर्चायें होने लगी, उनकी बातों को प्रमुखता प्राप्त होने से बहुत सी आवाजे दब गयी जो उनसे सहमत नहीं थीं।

छात्रावास में उस रात बैठक हुई। यह तय किया गया कि अपने अपने स्तर से ब्रम्हदेव शर्मा का विरोध किया जाये। जगदलपुर शहर में लडकों नें रैलियों के माध्यम से अपना विरोध भी दर्ज कराया किंतु उनकी सोच और दृष्टिकोण खबर नहीं बने। कुछ लडकों नें फिर भी दीपक जलाने का निर्णय लिया। उसी जबान में विरोध करने का जैसे स्वर उठें...। पारिस्थितिकी तंत्र और मावली भाटा की बायोडाईवर्सिटी पर खूब छापा जा रहा था साथ में फोटो दी जाती थी सुदूर दंडकारण्य की। बॉटनी के छात्रों नें सेंपल इकट्ठे किये, भू विज्ञान के छात्रों नें पत्थरों का सच लिखा लेकिन इनके आलेखों तस्वीरों और सच को छापने कोई अखबार तैयार नहीं हुआ। बस्तर प्रभात और दंडकारण्य जैसे छोटे और क्षेत्रीय अखबारों नें छापा भी तो कवरेज इतनी कम दी कि इनकी बात आगे आ ही न सकी। ब्रम्हदेव शर्मा के खिलाफ बस्तर के शिक्षित युवाओं में असंतोष फैलता ही जा रहा था। लेकिन भीतर का सच बाहर कोई ले कर जाता भी तो कौन और कैसे? पत्रकार आते थे और इस संदर्भ का एकतरफा बयान ले कर शर्मा जी के साथ गाडियों में जंगल घूम कर मुर्गा-शुर्गा खा कर निकल लेते। बडे अखबारों के पत्रकार भी तो हाई-प्रोफाईल होते हैं। फिर उनकी बातों में वजन भी होता है। उन्होने कहा कि मुर्गे की एक टाँग है तो फिर है जिसे दो दिखती हो अपनी आँख दिखवा ले। पत्रकार हैं भाई सच का ठेका ले रखा है। सच कोई मुफ्त में थोडे ही बनता है....

लेकिन जनसमर्थन साधारण प्रयासों से तो मिलता नहीं। यह कुनैन की तरह कडवी सच्चाई थी कि शर्मा जी के आन्दोलन (तथाकथित) को जिस तबके का सहयोग प्राप्त था वह जमीनी नहीं था। अपने कथन को जमीनी बनाने के लिये इस अभियान के कर्ताधर्ताओं नें परियोजना स्थल पर माँ दंतेशवरी की मूर्ति रख दी और धार्मिक भावनाओं को उकेर कर अपने पक्ष का मजबूत हथियार बना लिया। यह कारगर अस्त्र था। बस्तर और माँ दंतेश्वरी जैसे एक दूसरे के पूरक नाम हैं। हर एक की आत्मा और प्राण में माँ दंतेशवरी बसी है और सुजान जानते हैं कि एसी भावनाओं को क्या दिशा दी जानी चाहिये।....। यही हुआ भी।

उस दिन छात्रावास में इसी नें खाना नहीं खाया, एसा प्रतीत होता था कि कोई मर गया है। अखबार में खबर थी कि बस्तर के भीतर विरोध के कारण स्टील प्लांट का प्रस्ताव खारिज हो गया है। अब यह विशाखापटनम में लगना तय हुआ था। बस्तर के बाहर कुछ भी, कहीं भी लग जाये पर्यावरण को नुकसान नही होता है।...। कश्यप सर नें मेरे कंधे पर हाँथ रख कर कहा था – झूठ जीतते हैं। साँच में आँच लग गयी थी और बहुत से सपने झुलस कर खाक हो गये थे। लेकिन अखबारों को ये सपने कभी नहीं दीखे, सभी इस आंदोलन की सफलता की दास्तान लिखने में व्यस्त थे। जिन्हें फर्क पडता था वे अपने बुझे हुए दिल लिये नये सपनों की तलाश में लग गये।

तभी अनायास ब्रम्हदेव शर्मा कुछ युवाओं की चपेट में आ गये। फिर जो कुछ हुआ वह मैं बयाँ कर चुका हूँ। जो हुआ वह विरोध भी एक आंदोलन था। हीरो कोई भी बन कर निकला हो, दुनिया जो भी सच जानती हो लेकिन बस्तर के आदिवासी युवकों की पीडा और प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। मैं शर्मा जी पर हुए बर्ताव का समर्थन नहीं करता न ही उन युवकों के कृत्य को सही ठहराना मेरे इस संस्मरण का मकसद है। मैं उस दर्द की कहानी को शब्द दे रहा हूँ जो परदे में रही।

आन्दोलन और आन्दोलनकर्ताओं के बहुत से सच होते हैं। अविनाश जी आपके चश्मे से ही मैं दुनिया देखूँ यह सोच गलत भी नहीं, आज की पत्रकारिता एसी ही है। आप सच कहते हैं बस्तर का हूँ इस लिये चुप रहूँ। लेकिन साधुवाद के पात्र हैं आप, कि मेरे मुख पर टेप लगाने की आपकी कोशिश में बहुत से संस्मरण जी उठे। एक एक कर भूली बिसरी दास्तां ले कर आता रहूँगा। सच पर भडास निकालिये...

***राजीव रंजन प्रसाद

Saturday, May 24, 2008

राजस्थान की आग पर...पधारो म्हारे देस...

केसरिया बालमवा..पधारो म्हारे देस...

आदम ढूंढो, आदिम पाओ
रक्त पिपासु, प्यास बुझाओ
मेरी माँगें, तेरी माँगें
खींचें इसकी उसकी टाँगें
मेरा परिचय, मेरी जाती
छलनी कर दो दूजी छाती
नेताजी का ले कर नारा
गुंडागर्दी धर्म हमारा
हमें रोकने की जुर्ररत में
खिंचवाने क्या केस?
पधारो म्हारे देस..

किसका ज्यादा चौडा सीना
मैं गुज्जर हूँ, वो है मीणा
दोनों मिल कर आग लगायें
रेलें रोकें बस सुलगायें
कितना अपना भाईचारा
मिलकर हमने बाग उजाडा
बीन जला दो, धुन यह किसकी
भैंस उसी की लाठी जिसकी
मरे बिचारे आम दिहाडी
गोली के आदेस
पधारो म्हारे देस..

ईंट ईंट कर घर बनवाओ
जा कर उसमें आग लगाओ
और अगर एसा कर पाओ
हिम्मत वालों देश जलाओ
अपनी पीडा ही पीडा है
भीतर यह कैसा कीडा है
अपनी भी देखो परछाई
निश्चित डर जाओगे भाई
बारूदों में रेत बदल दी
इसी काज के क्लेस
पधारो म्हारे देस...

जाग जाग शैतान जाग रे
आग आग हर ओर आग रे
जला देश परिवेश नाच रे
झूम झूम आल्हे को बाँच रे
इंसानों की मौत हो गयी
सोच सोच की सौत हो गयी
होली रक्त चिता दीवाली
गुलशन में उल्लू हर डाली
हँसी सुनों, हैं सभी भेडिये
इंसानों के भेस
पधारो म्हारे देस...

केसरिया बालमवा.........!!!

*** राजीव रंजन प्रसाद

Friday, May 23, 2008

सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..

पुरबा बता दे, कहाँ की हवा है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..


लहू जिसका पानी, है एसी जवानी
जो आँसू बिकेंगे, उन्ही में कहानी
जिसे दिखता सूरज, वो आशा दिवानी
जो पत्थर कभी थे, वो हैं पानी पानी..
वो लहरें उठी थीं, भंवर बन गयी हैं
जो उस पार पहुँचे, वो नौका कहाँ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..

बहुत मोड आये, तुम्ही मुड गये थे
जहाँ जोड पाये थे, तुम जुड गये थे
नमक जिसपे डाला, वो अंकुर नये थे
जो टूटे हैं, उन घोसलों में बये थे..
क्षितिज एक धोखा, झुके कैसे अंबर
चढे हौसला उसपे,जरिया कहाँ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..

कभी सात पर्दों को आँधी हटा कर
काटने वाले हाँथों की चाँदी हटा कर
जो मुर्दे जिला दे वो, एसी दवा कर
कि हर एक आँखों को पारस छुवा कर
कोई दीप बुझता हुआ आग धर ले
सांस लेती रहें चिनगियाँ ये दुआ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..

न नापो, बडी या कि छोटी मिलेगी
अगर सोच बाँटोगे, रोटी मिलेगी
जो पत्थर चलेंगे तो नीवें हिलेंगी
कलम गाड दोगे तो कलियाँ खिलेंगी
अंधेरे बहुत फैल जायें तो समझो
उठो अब कि अपना सवेरा हुआ है..
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..

*** राजीव रंजन प्रसाद
12.03.2007

Wednesday, May 21, 2008

अपनी शादी की सालगिरह पर..एक रचना दिल से...

दिन खास है तो सोचा दिल के करीब की कोई रचना प्रस्तुत करूं। जैसे डायरी में कोई पुराना गुलाब सहेज कर रखा जाता है बिलकुल वैसे ही सहेज कर रखी थी यह रचना।...।
शादी से पहले लिख कर यह कविता जिसे पत्र द्वारा भेजी थी वही आज मेरी ज़िन्दगी हैं, और आज हमारी शादी को पूरे छ: वर्ष भी हो गये।

सोचो जानम..

सोचो मेरा साथ
और कुछ सपने देखो
आँगन सोचो, जिसमें तुलसी का पौधा हो
जिसके आगे दीप जला कर
सूरज को तुम जगा रही हो
और ज़ुल्फ का सारा सावन
मेरे चेहरे पर बरसा कर कहा करोगी
चलो उठो ‘जी’, सुबह हो गयी
और चाय की प्याली मेरे सिरहाने रख
मेरे बिलकुल पास बैठ कर
कोई एसी चुहल करोगी
कि बरबस ही आँखें खोलूं
भरी भोर में चाँद देख लूँ...
सोचो जानम
भारी कोई बनारस वाली साडी पहने
और गाल तक झूम रहे कानों के गहने
और कोहनियों तक काँच की चूडी पहने
छम छम की पाजेब पहन कर, दबे पाँव तुम
आ कर मेरी पलकें ढाँपे यह पूछोगी
बतलाओ कैसी लगती हूँ?
और तुम्हारी बाँह थाम कर आँखों का आईना दूँगा
तुम शरमा कर दूर हटोगी
और हाँथ की कोई चूडी, मेरे हाँथों से टकरा कर
टूटेगी और गिर जायेगी
अब कि आँखों में ढेर सा गुस्सा भर कर
तुम जो मेरी आँखों में देखोगी
छुई-मुई सी हो जाओगी...


और कमर में साडी का ही पल्लू खोंचे
बेलन हाँथों में ले कर
मुझे रसोई ना आने की कडी नसीहत दे कर
तुम आँटे को थाली में डालोगी
मैं तुम्हे परेशां करने की नीयत रख कर
एक हाँथ से कमर तुम्हारी थाम
आँटे में पानी इतना डाल दूंगा, गीला हो जायेगा
मुझसे छूटने की नाकाम कोशिश कर
पानी में और आँटा डाल लेई बना लोगी
और चकले पर रख कर उसे
उस पर बेलन रख कर
और बेलन पर अपने हाँथ रख
उन हाँथों पर मेरा हाँथ पा कर भी
बेलोगी कि रोटी बन ही जाये
दिल बन जायेगा..
मेरी बेतरतीब चीजें सवाँर कर
और फिर फिर उसे बेतरतीब ही पा कर
झल्लाओगी
बडी बडी आँखें इस तरह दिखाओगी
कि बस अब काट ही खाओगी
मुझे दफ्तर भेज कर ही तुम्हें चैन आया करेगा
और शाम तुम्हारी बेकरार आँखें
बिलकुल दरवाजे पर होंगी
मेरे आते ही लड पडोगी रोज़ रोज़
कि देर से घर आना कोई अच्छी बात नहीं है
मैं चाय पी चुकने तक
सुनूंगा तुम्हारी सारी बक-बक
और फिर/तुम्हारे चुप के लिये
तुम्हें अपने करीब खींच कर
होठ सी दूंगा... दिन बेहद खूबसूरत होंगे
और रेशमी रातें जानम
सोचो और ज़िन्दगी सोचो
सोचो वह दिन भी आयेगा
जब सारा आराम तुम्हें दे
सारी जिम्मेदारी बाँटूंगा
मेरी हालत पर हँस हँस कर
छोटे छोटे मोजे स्वेटर
रंग बिरंगे से बुन बिन कर
बार बार सपनों में जा कर, यह सोचोगी
किस पर जायेगी
और निशानी मेरे प्यार की कैसी होगी...
सपनों से मत भागो चाँद
अंतहीन तुम सपने देखो
आओ जी लें एक ज़िन्दगी
सपनों में ही दुनियाँ कर लें
तुम मेरी आँखों में बैठो
खो जायें हम अंतहीन में...

***राजीव रंजन प्रसाद

तुम सिमट आतीं मेरे करीब....

काला जादू..

जब कि बादल नहीं होते
जी करता है खींच लूं चोटी तुम्हारी
और तुम झटक कर सिर
आँखों को तितलियाँ कर लो
अब कि जब मेरी हथेलियों में
तुम्हारा आंचल होता
तुम सिमट आती मेरे करीब
तुम्हारे केश मेरी उंगलियों पर
जाल बनाते जाते हैं
खुलते जाते हैं खुद ब खुद
घनघोर काली घटाओं का काला जादू
गुपचुप मुझमें खो जाता है
तुम में चुप सा बो जाता है..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.११.९५

Tuesday, May 20, 2008

चरित्र और चेहरे..


एकांत
ध्यानमग्न बगुला
एकदम से ताल के ठहरे पानी पर झपटा
पानी भवरें बनानें लगा
उसकी परछाई लहरानें लगी
वह शांत हुआ
पंजे में कुछ न था
मछली या कि अपनी ही परछाई

फिर वही एकांत
वही ध्यानमग्न बगुला
वही ठहरा हुआ पानी
वही परछाई..

मछली तो फसेगी आखिरकार
क्योंकि उसे नहीं पता
चरित्र और चेहरे एक नहीं होते
और मैं हर बार देखता हूं
झपटते हुए बगुले को
अपनी ही परछाई पर..

*** राजीव रंजन प्रसाद
७.०१.१९९५

Saturday, May 17, 2008

मैं कभी ज़िंदा नहीं था..(कहानी)


रोज देखता था उस लडकी को। सुबह हुई नहीं कि हाँस्टल की पिछली दीवार से लगे कूडे के ढेर में जानें क्या खोजती, ढूंढ़ती, बीनती मिलती। उसके घुटनों से लम्बा उसका बोरा पीठ पर लदा होता। अभी उम्र ही क्या होगी? ज्यादा से ज्यादा आठ वर्ष, किंतु जिन्दगी पीठ पर लदे पहाड़ से कम नहीं। उसका चेहरा उसके कपडो की तरह मटमैला नही था। हल्का गेहुँआपन लिये गोल, आँखें अंदर को धँसी-छोटी-छोटी। मैने अनुभव किया कि वह लडकी जानती ही नहीं हँसी किसे कहते हैं। टीन के ड़ब्बे, प्लास्टिक, पोलीथीन, कागज, अखबार यहाँ तक कि सिगरेट की डिबियों को वह उठा, झाड कर अपनें बोरे में भर लेती।....। हाँस्टल का ये कोना कभी साफ रहा हो मैने नही देखा। चपरासी हर कमरे का कचरा झाड कर यहीं पटक जाता है। उस लडकी के लिये कुबेर का खजाना था ये कोना।....।बचपन यानी कि तितली हो जाना, खिलखिलाना, कूदना, सपने बुनना और जगमग आँखों से आकाश के सारे तारे लूट लेना...पर एसा बचपन! सच, पहली बार देखा। नहीं, उसमें बचपन था ही कहाँ? वह लडकी आठ वर्ष की अधेड थी। कुछ दिनों से उसके साथ एक बच्ची आनें लगी थी, हाथ थामें। उसकी छोटी बहन होगी, शायद। पाँच साल की भी न थी। यहाँ पहुँचते ही वह एक कोने में खडी हो जाती और अपनी दीदी को कबाड बीनते देखा करती । नि:शब्द। बचपना उसके बचपन में भी नहीं दीखा।सुबह जल्दी उठ जाने के बावजूद स्ट्डी टेबल पर कभी नहीं बैठा। छ्त पर हवा सुहानी लगती थी और मै टूथब्रश मुँह में दबाये घंटे भर दाँतो में इधर उधर करता रहता। सुबह सुबह और सोचता भी क्या? फिर दिमाग खाली भी नहीं रहता शायद इसीलिये कई बार मैने उस लड्की को अपनी सोच में कुलबुलाते पाया था। मुझे बेचैन कर देती थीं उसकी बेहद खामोश आँखें।....और अब यह छोटी...मैं उनकी आँखों में बचपन तलाशता और पाता आँखों के कोरों पर कीचड और भीतर मुर्दनी। बचपन को यह कैसा लकवा? अब कल ही तो वह मशहूर गज़ल सुन रहा था – “ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती,वो बारिश का पानी”, मेरे तो सारे रोये जैसे रो उठे थे। दिल कोई कस कर दबा रहा हो जैसी स्थिति हो गई थी। सोचता हूँ क्या कभी ये लड़कियाँ समझ सकेंगी इस गजल का अर्थ?....। बोरा खचाखच भर चुका था। लडकी नें दोंनो हाथों से उठा कर वजन सा लिया, फिर एक झटका दोनो हाथों से बोरे को दिया और उसे कंधे से धकेल कर पीठ पर लाद लिया। छोटी नें बहन की फ्राक का एक सिरा थामा और दोनों चल पडीं।
सूरज से चिंगारिया निकलनी शुरू हो चुकी थीं और बीच कुछ नीला सा गोल गोल घूमने लगा था। मैनें दादू की चाय की दूकान पर नजर डाली, दादू व्यस्त था। सुबह पाँच बजे ही वह दूकान खोल लेता है और फिर रात्रि नौ बजे तक....पूरा कोल्हू का बैल है वह। मैं भी कुल्ला कर, पानी मुँह और आँखों में डाल, नीचे उतर आया। बाथरूम में अभी पानी नहीं आ रहा था सोचा तब तक एक कप चाय ही सही।
“गोपाल चाय पिला यार” मैने दादू के लडके से कहा। गोपाल यंत्रवत ले आया। इस बीच मैने दादू को ईशारा कर दिया था – “एक फुल, कडी, स्पेशल”। गोपाल के हाँथ से मैने पानी लिया और देखा वह फिर मशीन हो गया है। सामने की बैंच पर जूठन पडी थी, कही से कर्कश आवाज आयी - “कपडा मार’’ और गोपाल बेंच साफ करने लगा। दादू चिल्लाया- ‘’गोपाल पीछे लडका ‘मन’ को दो हाफ चाय दे के आ’’ गोपाल ने दादू के हाँथ से दो ग्लास ले लिये। मेरी चाय बनने में देर थी। दादू मुझसे बेहद परेशान रहता है। सुबह मै कड़ी चाय पीना पसंद करता हूँ, वह भी खालिस दूध की। दादू कई बार टिप्पणी कर चुका है ‘’इतना पत्ती में मै चार जन को चाय पिलाता’’ और कई बार दबा प्रतिरोध भी “इतना कडा चाय पीने से काला हो जायेगा’’।मै दादू की झल्लाहट पर मजाक जड देता हूँ ‘’कौन सा लडकी हूँ दादू कि काला हो जाने से फर्क पडेगा?’’। दादू को भी क्या फर्क पडता है, मेरी चाय का वैसे भी वह तीन रूपया चार्ज करता है। “गोपाल’’ दादू नें फिर आवाज दी, “राजू को चाय दे के आओ’’। गोपाल ने चाय मुझको थमा दी।आज सुबह से ही दिमाग जानें क्या क्या सोच रहा था और अब.....मैं सर झटक कर अपनी चेतना बटोरनें लगा कि अभी आखिर सोच क्या रहा था मैं...शायद गोपाल के बारे में..वही आठ वर्ष की उम्र, दादू का अपना बेटा....एक बाल मजदूर। “दादू!! तुम गोपाल को पढ़नें क्यों नहीं भेजते?’’ मैने पूछा। “जायेगा अभी टेम नही हुआ” दादू नें अपनी उफनती चाय को स्टोव से उतारते हुए कहा। हाँ! ग्यारह बजे से गोपाल दुकान में नहीं रहता, मुझे याद आया। तब तक चटर्जी काम करता है। दादू नें काम पर रखा है इसे। तपन नाम है पर चटर्जी ही सभी पुकारते हैं.....ये नही पढ़ता। पढेगा तो पैसे नहीं मिलेगे, पैसे नहीं मिलेंगे तो खायेगा क्या? इस तरह के उत्तर उसने मुझे कई बार दिये थे किंतु अपने घर के विषय में कभी नहीं बताया। चंचल है यह लडका। दादू के तो नाकों चने चबवाता रहता है। जब चटर्जी की जरूरत हो चटर्जी गायब। पता चला मैदान में पतंग उडा रहा है। दादू दुकान से चिल्लाता है, और भागता हुआ आता है चटर्जी-क्या काम है? सपाट सा उसका प्रश्न और दादू गालियों का भंडार उस पर खोल देता। मैनें चटर्जी को अपने बचपन के लिये लडते पाया है। उसे दादू की गालियों की परवाह नहीं वेतन कट जानें की परवाह नहीं। परवाह है तो पतंग की, जिसकी डोर में धार नहीं है। इसी कारण तो झबलू की पतंग को बार बार, उलझा कर भी काट नहीं पा रहा। उसे परवह है तो उन सारे कंचो की जिन्हें कल हार गया था। उसे परवह है तो गुल्ली और डंडे’ की क्योकी ‘गिल्ली में पर्याप्त उछाल नहीं है। उसने दादू की मिल्कियत को खुली चुनौती दे रखी है, पीटना है तो पीट लो...। मेरी चाय खत्म हो चुकी थी, गोपाल के हाँथों में ग्लास थमा मै अपने कक्ष की ओर लौटा। डर था कि पानी आ गया होगा, कहीं बाथरूम में भीड न हो गई हो।
****
लडकी नें शराब की खाली बोतल उठाई और बोरे में डालने से पूर्व एसी निगाहों से देखा जैसे अभी पटक कर फोड डालेगी। किंतु...शराब भले ही जहर हो, ये बोतल तो उसकी रोटी है, लडकी नें बोतल को बोरे में डाल लिया। उसकी इस गतिविधी नें मेरी कल्पना पैनी कर दी थी...शायद बाप शराबी हो, बच्चियों को मारता पीटता हो, कमाई पी कर उडा देता हो...और..और...मैं अपनी कल्पना में स्वत:संवेदित होने लगा। छ्त से थोडा झुक कर देखा। छोटी, चुपचाप खडी थी। “ए लड़की!! तुम्हारा नाम क्या है” मैने पुकारा। बड़ी के हाँथ कुछ उठाते उठाते रूक गये, उसने झुके हुए ही उपर देखा। मुझे छोटी से मुखातिब देख वह पुन: कार्य में लग गई। “ए लडकी” मैने छोटी को पुन: पुकारा। छोटी ने उपर तो देखा लेकिन सहमी आँखों से। मुझे लगा जैसे मेरे शब्दों में मिठास नहीं और इसीलिये बच्ची सहम गई। “तुम्हारा नाम क्या है?” पूरी मृदुता मैनें आवाज में भरी। छोटी नि:शब्द रही। मैं.....मैं उसके सहम जानें का उत्तर स्वयं से पूछ रहा था। मुझे छोटी पर गुस्सा नहीं आया।......। अभी कुछ दिनों पूर्व ही किसी दोस्त से बहस में मैने दलीलों पर दलीलें दी थीं कि बचपन चाहे निम्न वर्ग का, मध्यम या उच्च वर्ग का, बचपन तो बचपन ही होता है। एक तर्क मुझे मिला “कभी अनाथालय गये हो?”। इस दलील पर यद्यपि मुझे निरुत्तर हो जाना चाहिये था, तथापि मैने जाने किन किन तर्कों से यह वाद- विवाद जीता था।....शायद अपने इसी खोखलेपन से डरा था मैं? दाँतों में घूमता ब्रश अनायास रुक गया। अनाथालय तो बहुत दूर है, मेरे सामने, मेरे रोज की अनुभव-ये दो लडकियाँ। किस बचपन से तुलना करुं और कैसे बचपन से? इनको तो किसी कुत्ते के पिल्ले के बचपन सा सुख भी प्राप्त नहीं...बेचारे....ब्रश दाँतों के इर्द गिर्द फिर घूमने लगा। बोरा भर चुका था और लडकियाँ जाने लगीं। मैं उन्हें जाते देखता रहा। बोझ कंधे पर लादे बडी, जिसकी फ्राक का एक सिरा पकडे छोटी..
मस्तिष्क इतना बोझिल हो गया था कि चाय पीना आवश्यक हो गया। दादू को मैने हाँथ से इशारा किया “एक फुल कडी स्पेशल”। लडकियाँ दादू की दूकान के सामने ही बोझा कंधे से उतार सुस्ता रही थीं। “गोपाल” मैंने आवाज दी। “जा दोनों को हाफ चाय दे कर आना” मैने इशारा किया। गोपाल मेरे चेहरे में दृष्टि टिका कर खडा रहा। “जा दे के आ” मैने आदेश के स्वर में कहा। गोपाल नें अब दादू की ओर देखा। दादू नें दो हाफ गोपाल को थमा दिये। गोपाल फिर भी झिझका, पर हार कर गया ही। “ले” गोपाल नें मोटे स्वर में बडी को कहा। बडी नें दादू की ओर देखा। दादू व्यस्त था। मैंने देखा एक आश्चर्य की रेखा उसके चेहरे पर उभरी, उसकी नज़र मुझपर पडी। “ले लो-ले लो” मैंने आग्रह सूचक शब्दों में कहा। बडी नें दोनों हाँथों में ग्लास थामें फिर छोटी को एक थमा दिया। उसने अजीब सी निगाहों से मुझे देखा, शायद कृतज्ञता थी।
जगदलपुर को पूरी तरह शहर तो नहीं कहा जा सकता। किंतु बस्तर जैसे क्षेत्र के लिये यह जिले का मुख्यालय, शहर से कम भी नहीं। अगरसिंह के साथ मैटिनी शो जा रहा था। अनुपमा चौक पर बहुत भीड थी। “क्या हुआ भाई साहब” मैंने वहीं खडे एक व्यक्ति से पूछा। “एक्सीडेंट” एक शब्द में उसने स्थिति स्पष्ट कर दी। जिज्ञासावश मैं भीड में अपने लिये जगह बनाने लगा। अचानक चौंक उठा...”अरे यह तो वही...वो....वही लडकी है”। “कौन” अगर सिंह नें प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा। “अपने हॉस्टल के पास कबाड बीनने आती है रोज” मेरे स्वर में घबराहट थी और अगरसिंह की आँखों में अचरज। बडी, सडक पर पडी थी। सर फट गया था और खून बिखरा हुआ था। एक सफेद कार जिसके अगले हिस्से पर खून लगा था, वहाँ खडी थी। ड्राईवर कोई धन्नासेठ था जो रूमाल से अपना पसीना पोंछ रहा था।....। मैंने हमेशा देखा है दुर्घटनाओं में ड्राईवर भीड के हाँथ लगा तो भीड उसे अधमरा कर ही मानती है पर....धन्नासेठ के कपडे मँहगी सफारी के थे। टाईपिन भी सोने की नज़र आ रही थी, भला भीड उसे हाँथ कैसे लगा सकती थी? मेरे मन में गुस्से का गुबार सा उठा कि उसका मुँह ही नोंच डालूं या...या...या....मैंने आश्चर्य से देखा, उसनें नें एक निगाह लाश पर डाली फिर वापस अपनी कार में बैठा और चलता बना। मैने कार का नम्बर नोट किया। “चल न यार पिक्चर छूट जायेगी” अगर सिंह नें मेरा हाँथ पकड कर खींचा। “छोड मैं नहीं देखूंगा” मैंने जवाब दिया। मैं उस छोटी लडकी को देख रहा था जो रोये जा रही थी। मेरी पलकों के कोरों पर नमीं बैठने लगी। “तू भी यार छोटी छोटी बातों पर रो डालता है” अगर नें टिप्पणी की। मुझे महसूस हुआ शायद सचमुच.....। वर्ना क्या भीड इसी तरह खामोश रहती? हमें क्या लेना देना की मनोवृत्ति। किसी को भी क्या लेना देना? सडक दुर्घटना में एक मौत हुई बस। फिर ये कुत्ते से बदतर मौत? लाश लावारिस पडी रही। छोटी के रोने की आवाज मेरे कानों में सूईयाँ चुभाने लगी। मैं क्या करता? मैं क्या कर सकता था?...मुझे क्या करना चाहिये था?....?....? ये प्रश्न आज तक अपने आप से दोहराता रहा हूँ। उस क्षण मैं स्वयं को बिखरा बिखरा महसूस कर रहा था, सडक पर बिखरे कबाड की तरह।
****
मैं मुँह धोता टहल रहा था, जानता था, अब कबाड बीनने कोई नही आयेगा। फिर भी अनायास छत से झाँक लेता...। रात भर ठीक से सो नहीं सका था।....और सचमुच सप्ताह भर कोई नहीं आया। कबाड जमा होता रहा, होता रहा और आज......आज, छोटी कबाड बीन रही थी। मैंने देखा, फिर देखा, फिर देखा...उसके घुटनों से बडा उसका बोरा। पीठ पर वही सब कुछ - डब्बे, बोतल, सिगरेट के पैकेट, पोलीथीन...। शराब की बोतल उसके हाँथों में थी। छोटी नें बहुत शांत आँखों से देखा, फिर उसे बोरे में डाल लिया। मैं उसके चेहरे में आये हर भाव पढ जाना चाहता था, निराशा हुई मुझे। बोरा भर गया था। छोटी नें वजन लेने के लिये हाँथों से बोरे को खींचा...नहीं बहुत भारी था। उसने पुन: यत्न किया। उससे नहीं उठा। मैनें देखा छोटी नें बोरा खोल भीतर से शराब की बोतल निकाल निकाल फेंक दी। बोरा कंधे पर उठाया और चल पडी, बिलकुल भाव शून्य।....। तभी मैंने देखा वही सफेद कार सामने फर्राटे से निकली और आज खून के एक छींटे उस पर न थे। एक भी नहीं....। मैं देख रहा था एक लाश आहिस्ता आहिस्ता, कंधे पर पहाड़ ढोए जा रही है। फिर मैंने महसूस लिया कि मैं कभी ज़िन्दा था ही नहीं।


राजीव रंजन प्रसाद
27.05.1992

Friday, May 16, 2008

मेरे कतरे कतरे को चाहा था..



उसने मुझको छोड
मेरे कतरे कतरे को चाहा था
उसने कतरा कतरा ले कर
मुझको छोड दिया जीने..

मैं कहता हूँ सागर से
मुझमे डूब मरो कम्बख्त
कलेजा भर जायेगा
मेरी आँखों से तो
सारा झर जायेगा
उसने तो मन की गागर में
ठूस ठूस कर सागर भर कर
मुझको छोड दिया पीने...

मेरा लहू निकाला मुझसे
मेरी आँखें छीन ले गया
मेरे मन की जीभ काट ली
मेरे पंख कुतर डाले
मैं कहता था दिल चिरता है
और कलेजा फट पडता है
कुछ मकडी के जाले दे कर
मुझको छोड दिया सीने...

*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.०१.१९९६

Thursday, May 15, 2008

समाजवाद बबुआ.. (तिब्बत की पराधीनता क्या लाल-झंडा बरदारों का असली चेहरा नहीं है?)


ल्हासा लाल हो गया है
साम्यवाद नें
खीसें निपोड कर कहा है
’धम्मम शरणम गच्छामि’
और पकड पकड कर तिब्बतियों के
फोडे जा रहे हैं सर
कील लगे बूटों के सेलूट
खामोश होती गलियों, सडकों और मठों पर
हुंकार रहे हैं – लाल सलाम।
अफ़ज़लों को पोसने वाले
इस देश की सधी प्रतिक्रिया है
दूसरों के फटे में अपनी टाँग क्योंकर?
वैसे भी यहाँ आज़ादी का अर्थ आखिर
दीवारों पर पिच्च से थूकना
या कि सडकों पर
अनबुझे सिगरेट के ठुड्डे फेंकना ही तो है?
फिर सरकार की बैसाखियों का रंग लाल है
लेनिन के अंधे को लाल-लाल दिखता है
मजबूरी है भैया
जय गाँधी बाबा की।
घुप्प अंधकार में
जुगनू की चुनौती
कुचल तो दी जायेगी, तय है
और मेरी नपुंसक कलम
आवाज़ नहीं बन सकती, जानता हूँ।
दूर बहरा कर देने की हद तक
पीटा जा रहा है ढोल
नुक्कड में क्रांति के ठेकेदार जुटे हैं
देखो भीड नें ताली बजाई
समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई...।

*** राजीव रंजन प्रसाद
16.03.2008

Wednesday, May 14, 2008

जयपुर में मौत के तांडव पर एक श्रद्धांजलि - मर गये आदमी, एक खबर बन गयी



मर गये आदमी, एक खबर बन गयी

जल गयी लाश थी कोई पत्थर हुआ
क्या संभाले उसे, क्या करेंगे दुआ
ज़िंदगी आँख में रुक गयी काँच बन
और हाँथों की हर फूटती चूडियाँ

इसमें भी है खबर, कैमरे की नज़र
चीखती अधमरी की तरफ तन गयी
मर गये आदमी, एक खबर बन गयी

जिसने फोडा था बम उसका ईमान क्या
उफ पिशाचों से बदतर वो हैवान था
हो कि हूजी, सिमि या कि लश्कर कोई
कैसे खुफिया हैं क्यों तंत्र अंजान था

लोकशाही में आलू तो मँहगा हुआ
आदमी की रही कोई कीमत नहीं
मर गये आदमी, एक खबर बन गयी

वो पहन कर के खादी निकल आयेंगे
उंगलियों को उठा कर के चिल्लायेंगे
चुप हैं घडियाल सूखी नदी देख लो
उनकी आँखों से आँसू निकल आयेंगे

जो बचाते हैं अफज़ल को इस देश में
वो हैं कारण अमन की कबर बन गयी
मर गये आदमी, एक खबर बन गयी

मुझको अफसोस मेरे गुलाबी शहर
तेरे सीने में नश्तर, लहू का कहर
अब सियासी बिसातों की सौगात बन
फैलता जायेगा हर डगर एक ज़हर

हादसे पर सिकेंगी बहुत रोटियाँ
देख गिद्धों की कैसी नज़र बन गयी
मर गये आदमी, एक खबर बन गयी

***राजीव रंजन प्रसाद
14.05.2008

Tuesday, May 13, 2008

ज़ुल्फ और क्षणिकायें


ज़ुल्फ -१

उसनें कहा था हवाओं में खुश्बू भरी होगी
मुझसे दूर
मेरे ज़ुल्फों के खत पुरबा सुनायेगी तुम्हे
ये क्या कि ज़हर घुला है हवाओं में
एक तो जुदाई का मौसम
उसपर तुम्हारी तनहाई का दर्द हवाए कहती हैं मुझसे..

ज़ुल्फ -२

तुमने ज़ुल्फें नहीं सवारी हैं
घटायें कहती हैं मुझसे
बेतरतीब चाँद भला सा नहीं लगता
बादलों में उलझा उलझा सा
हल्की सी बारिश से नहा कर निकला
उँघता, अनमना, डूबा सा
झटक कर ज़ुल्फें
खुद से खींच निकालो खुद को
सम्भालो खुद को..

ज़ुल्फ -३


ज़ुल्फों के मौसम फिर कब आयेंगे?
बिलकुल भीगी ज़ुल्फें
एकदम से मेरे चेहरे पर झटक कर
चाँद छुपा लेती थी अपना ही
मैं चेहरे पर की फुहारों को मन की आँखों से छू कर
दिल के कानों से सूंघ कर
और रूह की गुदगुदी से सम्भालता खुद को
फिर तुम्हे ज़ुल्फों से खीच कर
हथेलियों में भर लिया करता था…
तुमने ज़ुल्फें मेरी आँखों में ठूंस दी हैं
अब तो पल महसूस भी न होंगे, गुजर जायेंगे
ज़ुल्फों के मौसम फिर कब आयेंगे..

ज़ुल्फ -४


ज़ुल्फों के तार तार खींचो
उलझन उलझन को सुलझाओ
तुम खीझ उठो तो ज़ुल्फों को
मेरी बाहों में भर जाओ
मेरी उंगली से बज सितार
बुझ जायेंगे मन के अंगार
मैं उलझ उलझ सा जाउंगा
खो जाउंगा भीतर भीतर
हो जाउंगा गहरा सागर..

ज़ुल्फ -५


बांध कर न रखा करो ज़ुल्फें अपनी
नदी पर का बाँध ढहता है
तबाही मचा देता है
एसा ही होता है
जब तुम
एकाएक झटकती हो खोल कर ज़ुल्फें..

ज़ुल्फ -६


टूट गया
बिखर गया
सपनों की तरह मैं
कुचल गया
पिघल गया
मोम हो गया जैसे
फैल गया
अंतहीन समंदर की तरह मैं
खो गया
खामोश था
रात हो गया जैसे
और तार तार था
उलझी सी गुत्थी बन
ज़ुल्फ हो गया तेरी..

ज़ुल्फ -७


मुर्दा चाँदनी का कफन
जला देता है
कफन तो कफन है
ज़ुल्फ ढांप दो..


*** राजीव रंजन प्रसाद
७.०१.१९९६

Monday, May 12, 2008

मछली की आँखें


मेरी अमावस्या इस लिये है
कि मेरा चाँद
मेरी आँखों की बाहों में लिपट गया है
और कुछ दीख नहीं पडता
सिर्फ मछली की आँखें..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२१.०२.१९९७

Sunday, May 11, 2008

माँ तुम्हारा खत

(यह रचना छात्रावास के दिनों में मैंने लिखी थी और आज भी पढता हूँ तो हर शब्द सामयिक पाता हूँ। तस्वीर मेरी पूजनीय माताजी की है अपनी पोती के साथ...)

माँ
अब तुम्हारा खत
मुझे वो उष्मा नहीं देता
जब पहले पहल तुम्हारे आँचल से दूर
अनजानी हवाओं में तनहा हुआ था
पहले पहल जब मेरे पैरों के पास
ज़मीन हुई थी
और मेरे पंख कुतर गये थे
माँ तभी पहले पहल
जब तुम्हारा खत मिला था
तो उसे पढ पाना मुश्किल हो गया था
मेरे बेसब्र अनपढ आँसुओ के उतावलेपन में
और माँ
उस दिन सितारे फीके नहीं लगे
चाँद से दोस्ती हो गयी
और उस दिन मैं गुनगुनाता ही रहा घंटों

माँ!
जैसे जैसे सूरज मेरी छाती पर चढता जाता है
जैसे जैसे ज़िन्दगी मरुस्थल होती जाती है
मैं अपनें जले पाँव और छिली छाती लिये
किताबें ओढ लेता हूँ
दिमाग का भारीपन भुला ही देता है तुम्हे
मैं काश कि तुम्हारी गोद में सिर रख
आखें बंद करता
और वक्त की सांसें थम जाती
और माँ जब भी एसा सपना आता है न
तब मुझे अपना रूआसापन भला नहीं लगता
मेरे रोनें पर तुम्हे दुख होता होगा है न माँ...
क्या समय बीतता है तो अतीत पर
जम जाती है मोम की परत
तुम्हारे खत अब भी तो आते हैं
वैसे ही खत
वे ही नसीहतें
वे ही चिंतायें
जैसे कि तुम्हारे लिये वक्त ठहरा हुआ हो..

माँ तुम बहुत भोली हो
और भागती हुई दुनियाँ तुमसे बहुत आगे निकल चुकी है
मैं भी बदल गया हूं माँ
बडा हो गया हूं शायद
कि अब तुम्हारे खत
मुझे वो उष्मा नहीं देते
जबकि तुम्हारे खत की खुश्बू वैसी ही है
तुम्हारे खत पढ कर मन मोर नहीं होता लेकिन
बादल हो जाता है माँ
और माँ लगता है
भट्टी में तप कर कुन्दन बन निकलूं
क्योंकि दुनिया की सबसे अच्छी माँ मेरी माँ है..
लेकिन माँ
एसा भी होता है
जब दिनों तक तुम्हारे खत नहीं आते
तो दिनों तक कुछ भी अच्छा नहीं लगता
सितारे उदास हो जाते हैं
चाँद गुमसुम
एसा अब भी होता है लेकिन..

*** राजीव रंजन प्रसाद
८.१२.१९९५

Saturday, May 10, 2008

बम


उसे भूख लग आयी थी..और जब भूख लगी होती है, तो ज़िन्दा होता है सिर्फ पेट। रोज़ रोज़ यह देश जाने कितने ज़िन्दा पेटों वाले मुर्दे ढोता है और आहिस्ता-आहिस्ता मर रहा है खुद भी। भूखा पेट, इंकलाब नहीं होता, बहुत से भूखे पेट सैलाब होते हैं लेकिन।...।ज़िन्दा पेट गुमराह हो जाता है, फट पडता है। इसी लिये तो कभी बम्बई में धमाका होता है और कोई बाजार राख हो जाता है, या कभी कलकत्ता की कोई सडक, या मद्रास की इमारत.....।

भूख जब उसकी आँखों में उतरने लगी, पानी से निकाली गयी मछली हो गया वह। एक दम से दौडा और सामने की दूकान से समोसे उठा कर जितनी तेज हो सकता था भागा। तेज..और तेज..और तेज। चोर! चोर!! चिल्लाते दौड पडे लोग। जब भीड के हाँथ लगा तो अधमरा हो गया।

तीन दिन से खाली था पेट। स्टेशन पर, बस अड्डे, घर-घर जा कर.....लोग तो भीख भी नहीं देते आज कल। लंगडा, लूल्हा, अंधा, कोढी हर मुद्रा आजमा आया था। धत्! किसमत ही साली......उसने सडक पर पडे पत्थर को भरपूर लात मारी। हवा उसे डरा रही थी और पेट भीतर ही भीतर उमेठा जा रहा था। वह खामोश था, सोच शून्य। निगाहें हर ओर कि कहीं कुछ मिल जाये, जूठा पत्तल ही सही। धूप तेज थी, सिर चकराने लगा। वह पेड के नीचे आ खडा हुआ। फिर दूर दीख पडते हैंडपंप से जैसे उसमे रक्त फिर चल पडा हो। वह तेजी से हेंड पंप की ओर लपका। हैंडल दबाई, उठाई...ओं..आँ...खटर..पटर...और गट गट गट....जितना पी सकता था, पी गया। थोडा सुकून मिला उसे।

”कल भी कुछ न मिला तो मर जायेगा वह” उसने सोचा। उसे कुछ न कुछ तो करना ही था। फिर अंधा, लंगडा, लूल्हा बन कर स्टेशन हो आये या फिर भीड भाड वाली सडक....उहूं, उसे बहुत जोर की भूख लगी थी और क्या पता कल भी किसमत खराब हुई तो? “चोरी???” एक दम से विचार कौंधा, फिर हाल ही में हुई पिटाई का दर्द महसूस होने लगा उसे, जिसे भूख नें जैसे भुला ही दिया था। नहीं नहीं चोरी नहीं...घबरा कर अपना विचार बदल देना चाहा उसने। लेकिन भूख!!!!....।

सामने ही कोई सरकारी कार्यालय था। शाम लगभग ढल चुकी थी इस लिये सुनसान भी। एक बूढा सा चौकीदार गेट के पास स्टूल लगाये तम्बाकू मल रहा था। उसने बहुत ही नीरस निगाह इस इमारत पर डाली। निगाहें इससे पूर्व कि सिमटतीं, इमारत पर ही ठहर गयीं, एक चमक थी अब उनमें। थोडी देर में रात हो जायेगी। चौकीदार कौन सा जाग कर रात भर ड्युटी देगा। उसने देखा घिरी हुई दीवार ज्यादा उँची न थी।.....।रात हुई। घुप्प संन्नाटे में झिंगुर चीख रहे थे। वह दीवार फाँद कर भीतर प्रविष्ठ हुआ। बहुत सधे पाँव। खिडकी से हो कर बडी ही सावधानी से लडकते हुए कुछ लाल-पीले तार नोच लिये, बल्ब निकाल लिया, होल्डर खोल लिया, और भी...काली रंग की उस पोलीथीन में जो कुछ डाल सका। रामदरस दस रुपये तो देगा ही इतने के, उसने सोचा। वह उतर ही रहा था कि.....”धप्प!!!!!”। पॉलीथीन हाँथ से छूटा और फिर जोर की आवाज़...कौन?? कौन है वहाँ?? चौकीदार के जूतों की आवाज नें सन्नाटा चीर दिया था। जब तक चौकीदार आता, दीवार फाँद चुका था वह। दीवार के उस ओर बहुत हार कर बैठा वह हाँफ रहा था...“किसमत ही साली....”।

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ऑफिस में हो हल्ला मचा हुआ था।
“अजी साहब वो तो मैंने देख लिया कहिये, वर्ना आज हम सब...” शर्मा जी गर्व से बता रहे थे।
” क्या हो गया है हमारे देश को शर्मा जी, एवरीवेयर आतंकवाद है। आपने पुलिस को फोन तो कर दिया न?” घबराये अंदाज़ में मिसेज मिश्रा बोलीं।”
मैनें बम को देखते ही कर दिया था जी, वो जी अब पुलिस तो आती ही होगी जी”। सुब्रमण्यम नें नाक का चश्मा ठीक करते हुए कहा।
“हाऊ स्वीट सुब्रमण्यम” मिस लिलि नें भरपूर मुस्कान दी और सुब्रमण्यम जी, घोडा हिनहिनाये सी हँसी हँस कर रह गये।
काले रंग की प्लास्टिक एक कोनें में देखी गयी थी, जिसमें से झाँकते कई तरह के तार उसे संदिग्घ बना रहे थे। ऑफिस में बम होनें की दहशत थी। कर्मचारी भीड बनाये सडक पर खडे थे। सारे बाज़ार में बम होने का तहलका, गर्मागर्म खबरों और अफवाहों से बाज़ार गर्म।
“आपने सुना मिर्जा साहब, क्या ज़माना आ गया है” पान लगाते हुए बनवारी बोला।”एक हमारा ज़माना था बनवारी, हमारे बाप-दादाओं का ज़माना था, अमन और सुकून की दुनियाँ थी और आज....”
“आदमी की तो कीमत ही नहीं रही। इतना खौफ फैला है कि जान तो हवा में लटकी होती है। सुबह घर से निकले तो क्या पता शाम तक घर लौट पायें भी या नहीं।“
“अजब अंधेरगर्दी है मियां। गलती हमारी गवरन्मेंट की है कि रोजगार तो देते नहीं ये लडकों को। अब लडके बंदूख न चलायें, बम न चलायें तो क्या करें?”
”वैसे मिर्जा साहब कितने बच्चे हैं आपके” बनवारी नें चुहुल से पूछा।
“खुदा के फज़ल से नौं लडकें हैं तीन लडकियाँ।“
“मिर्जा साहब, छ: घरों की संतान अकेले अपने घर में पालोगे तो क्या करेगी गवर्नमेंट”
”अमां बनवारी तुम मज़ाक न किया करो हमसे, अच्छा लाओ, एक पान और बनाओ। वैसे पता कैसे लगा कि बम रखा है” मिर्जा साहब बिगड गये।
”वो किरानी हैं शर्मा जी। इमानदार इतने कि भले कोई काम न करें आधा घंटे पहले ऑफिस आ जाते हैं। उन्होंने ही देखा।“
”क्या कहें बनवारी लगता है पतन होता जा रहा है दुनियाँ का। जहाँ देखो वही लूटमार, छीना झपटी, बम धमाके। अमां दहशत का आलम ये है कि हमने सुना था कि एक केला और दो सेव थैले में रख कर, बम और पिस्तौल बता कर हवाई जहाज का अपहरण कर लिया था किसी नें”। मिर्जा साहब नें गहरी स्वांस छोडते हुए कहा।
सायरन की आती हुई आवाज़ ने माहौल को और गंभीर बना दिया।
”लीजिये पुलिस आ गयी लगता है” बनवारी नें पान मिर्जा साहब को थमाते हुए कहा।पुलिस की दसियों गाडियाँ आ कर रुकीं। धडाधड पुलिस वाले उतरने लगे। बम को निष्कृय करने के लिये एक पूरा दस्ता आया हुआ था। चारों ओर मोर्चा बँधा। अंतरिक्ष यात्रियों जैसी पोशाकें पहने दो लोग धीरे धीरे बढने लगे पॉलीथीन में लिपटे उस बम की ओर।...। माहौल जिज्ञासु, शांत। चारों ओर से आँखें पुलिस कार्यवाही की ओर।...। निकलता क्या? तार के लाल पीले टुकडे, होल्डर और वही सब कुछ जो पिछली रात...।
“शर्मा जी पूरे अंधे हैं आप, बेकार में....” मिसेज मिश्रा नें नाराजगी जाहिर की।
”और आप सुब्रमण्यम जी, कौवा कान ले कर जा रहा है सुना तो कौवे के पीछे भागने लगे। देख तो लेते आपके कान सलामत हैं या नहीं” मिस लिली बोलीं।
“बनवारी ये नौबत है देश की” एक दीर्ध नि:स्वांस भरी मिर्जा जी नें और जाने लगे।..।


*** राजीव रंजन प्रसाद
25.08.1993

Friday, May 09, 2008

क्या उपहार दूँ तुम्हें...


सोचता रहा क्या उपहार दूं तुम्हें
तुमने मुझे इतना कुछ दिया है
जिंदगी दी है
और शाम का गुलाबी आसमान
सूरज चाँद, धूप और चाँदनी
नदी और पंछी, गुंजन और हवा
अंबर की फुनगी के उपर का सपना
सागर के तल के भी भीतर सब अपना
तुम जा कर जीवन से अब रात भी देते हो
गिरती हुई दामिनी और बरसात भी देते हो

मैनें जो बंद सीप में धडकन निकाल कर
तुमको दिया था प्राण! लौटा रहे हो तुम
मैं सुर्ख उस गुलाब के काँटों को देख कर
अब सोचता हूँ दर्द जो तुमने दिया उसे
सीने में चुभा कर हो जानें दूं लहू
फिर वक्त के केनवास पर
अपनी लाल तस्वीर बना कर
सुर्ख गुलाब की एक माला डाल दूं उस पर...

*** राजीव रंजन प्रसाद
२७.०३.१९९८

Thursday, May 08, 2008

या मुरली मुरलीधर की, अधरा न धरी, अधरा न धरौंगी..


कोमल श्वेत हाँथ पग मेरे, मैं सिमटी उस उदर अंधेरे
अभिमन्यु को चक्रव्यूह था, मुझको तू तू तेरे मेरे
माँ तूने तस्वीर निकाली, फिर की तय, टूटेगी डाली
मुझे लहू करने को बेबस दिल पत्थर कर गोली खा ली

जा दूध में बतासा, हो भैया, करे तमासा, आह दिलासा
मैं होती बिटिया, गाली थी, ना हो बेचैन, मरौंगी
या मुरली मुरलीधर की, अधरा न धरी अधरा न धरौंगी

मैं बढती थी तो गडती थी, अफसोस रहा मैं मरी नहीं
भाई की आया, करमजली, मैं तितली या जलपरी नहीं
घर दरवाजों पर साँकल थे, पैरों की बेडी पायल थे
मैं तनहा थी, कमजोर नहीं, मैं बेबस थी पर डरी नहीं

भैया की पुस्तक पढती थी, था एकलव्य बन कर जीना
फिर धोना बुनना सीना मैं, वर कर दर से जो टरौंगी
या मुरली मुरलीधर की, अधरा न धरी अधरा न धरौंगी

पी पी करे पपीहा रोये, बिना कार पी चढे न घोडी
रात पिया पी घर आये, मोडा मुख फिर बहिंया मोडी
हिय मिलते जब, ससुर भरे घर, या धर नयना अंबर
तनहा ताने सुनती कहती, माँ यह कैसी किसमत मोरी

जीवन परबत, अंगना कारा, जलता सूरज, चुभता तारा
टूटी खटिया, हाँथ, दाँत रे, दरपन क्या सिंगार करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की, अधरा न धरी अधरा न धरौंगी

नारी नारी चीख चीख कर संसद में बंदर नें बाँटा
इसकी सीटें, उसकी सीटें, मेरा तराजू उसका काँटा
एक विधेयक, सदियों लटके, चौराहे पर रोता पाया
नारी के हक की बातों को, नारी के जायों ने खाया

अंबर सुन लो फँट जाओगे, अगर गिरेबाँ पकडा मैने
यह इलाज कडुवा है जो, मैं ठान निबौरी, अगर फरौंगी
या मुरली मुरलीधर की, अधरा न धरी अधरा न धरौंगी।

*** राजीव रंजन प्रसाद
7.04.2008

Wednesday, May 07, 2008

तुमसे मोहब्बत होगी....


और भी लोग है
जिन्हे तुमसे मोहब्बत होगी
और भी दिल है,
जिन्हे तेरा दर्द भाता है
और भी आह
तेरे ज़ख्म से उभरती है
और भी टीस तुझे देख कर उतरती है...

मै फिर भी ईस बियाबां मे
पत्थर तराशता फिरता हूं
मुझे, सिर्फ मुझे ही आस्था है तुम पर..

कि मन्दिर बना कर ही दम लूंगा
जिसमे तुम्हारा एक बुत रख
प्राण-प्रतिष्ठा कर दूंगा उसमें..
बोलो क्या तब तुम
सारी दुनिया से सिमट कर
एक पत्थर की मूरत नहीं हो जाओगी?

*** राजीव रंजन प्रसाद
२९.०५.१९९७

Tuesday, May 06, 2008

तुम्हारा खत पढा...


तुम्हारा खत पढा
फिर पढा
कितने ही टुकडे चाक कलेजे के
मुँह को आ पडे
थामा ज़िगर को
और बिलकुल बन चुका मोती भी चूने न दिया
फिर पढा तुमहारा खत
और शनैः-शनैः होम होता रहा स्वयमेव
एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....स्वाहा!

आँखों को धुवाँ छील गया
गालों पर एक लम्बी लकीर खिंच पडी
जाने भीतर के वे कौन से तंतु
आर्तनाद कर उठे..शांतिः शांतिः शांतिः
अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया
लगा चीख कर उठूं और एक एक खत
चीर चीर कर इतने इतने टुकडे कर दूं
जितनें इस दिल के हैं.....

हिम्मत क्यों नहीं होती मुझमे??

***राजीव रंजन प्रसाद
२३.०४.१९९५

Monday, May 05, 2008

अस्तित्व..


कितनी शरारती आँखें बना कर
तुमनें पूछा था मुझसे
कितना प्यार करते हो मुझसे?
और अपनी बाहें पूरी फैला कर
तुमने पूछा था क्या इतना?
और मैं मुस्कुरा भर गया था
कि तुम्हारी फैली बाहों के भीतर
सारा आकाश सिमट सकता था
सारी की सारी सृष्टि
सभी कुछ..
मैं भी और मेरा हृदय भी
मेरी तपन भी और मेरा स्नेह भी
और तुम भी
जो मेरे ही भीतर मेरा ही अस्तित्व हो..

*** राजीव रंजन प्रसाद
६.१२.१९९६

Friday, May 02, 2008

बरसाती नदी हो गये गीत मेरे..


बरसाती नदी हो गये गीत मेरे
कहीं खो गये अर्थ हैं मीत मेरे..

बहुत सोचता हूँ कि लय ही में लिक्खूं
तय हैं जो मीटर तो तय ही में लिक्खूं
हरेक शब्द नापूं , हरेक भाव तोलूं
कठिन लिक्खूं भाषा, मैं विद्वान हो लूं

मगर माफ करना यही लिख सकूंगा
बहुत बेसुरे से हैं, संगीत मेरे
बरसाती नदी हो गये गीत मेरे..

माँ शारदा से, लडा भी बहुत मैं
ये क्या लिख रहा हूँ अडा भी बहुत मैं
मुझे भी तो जुल्फों में बादल दिखा है
मेरे भी तो खाबों में संदल दिखा है

तो ये दर्द क्यों, क्यों मुझे आह लिखना
तेरे आँख के अश्क क्यों रीत मेरे
बरसाती नदी हो गये गीत मेरे..

मेरा शब्द बन कर मचलती हैं चीखें
तेरी ही घुटन है तू देखे न दीखें
कलम एक चिनगी, कलम जिम्मेदारी
कलम शंख है, फूंकता मैं पुजारी
मेरे शब्द गर तुझमें उम्मीद भर दें
तू फिर उठ खडा हो तो है जीत मेरे
बरसाती नदी हो गये गीत मेरे..

मैं लिक्खूं मजूरा, मैं हल्ला ही बोलूं
न सहमत हुआ तो मैं झल्ला ही बोलूं
मैं अपशब्द लिक्खूं, मेरे शब्द पत्थर
मेरे शब्द में नीम, आँगन का गोबर
मेरे शब्द रौशन, अगर है अंधेरा
निराशा में ये शब्द उम्मीद मेरे
बरसाती नदी हो गये गीत मेरे..

कहीं एक रोडा, कोई ईंट जोडा
सच है री कविता कहीं का न छोडा
मेरी लेखनी में नहीं बात कोई
मगर साफ कहता हूँ है साफगोई

कहीं से शुरू फिर कहीं बेतुके
बहुत सिरचढे शब्द मनमीत मेरे
बरसाती नदी हो गये गीत मेरे..

*** राजीव रंजन प्रसाद
15.04.2007

Thursday, May 01, 2008

कारण क्या था?


नारज़गी हद से बढी
और हो गयी पर्बत
आँखों से पिघल गया ग्लेशियर
जैसे मोम नदी हो जाता है
पत्थर की तरह पिघल पिघल कर..

पीठ से पीठ किये
युगों तक खमोश दो बुत
इस तरह बैठै रहे
तोड तोड कर चबाते हुए घास के तिनके
जैसे गरमी की दोपहर ढलती नहीं..

और जब नदी न रही
पिघल चुका पत्थर
बुत "मै" और "तुम" हो गये
बहुत सोच कर भी
याद न रहा, न रहा
कि मुह फुलाये ठहर गये कितने ही पल

...कारण क्या था?

*** राजीव रंजन प्रसाद
२३.११.१९९५