Friday, November 21, 2014

दुर्गा-महिषासुर प्रसंग, फॉर्वर्ड प्रेस में गिरफ्तारियाँ और बौद्धिक लफ्फाजियाँ







अभिव्यक्ति की नियती जहर की तरह है, यह संयम और सोचपूर्णता से प्रयुक्त हो तो औषधि है और यूं ही गटकनी पडे तो प्राणघाती। ताजा चर्चा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में आयोजित महिषासुर दिवस तथा फॉर्वर्ड प्रेस के अक्टूबर अंक में प्रकाशित कतिपय सामग्री की है जिसपर स्वाभाविक विवाद हुआ और कुछ गिरफ्तारियाँ भी हुईं। दुर्गा-महिषासुर प्रसंग पर पत्रिका में प्रस्तुत सामग्री चित्रकथा शैली की है, कुछ पेंटिंग्स हैं जिन्हें डॉ. लाल रत्नाकर ने बनाया है जिसका विवरण हिन्दी और अंग्रेजी में फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका द्वारा दिया गया है। 

इस बहस को साहित्यकार उदयप्रकाश ने आगे बढाते हुए फेसबुक पर लिखा है – “दरअसल दुर्गा, महिषासुर (भैंस पालक चरवाहा समुदाय), वृत्रासुर (बांधों को तोडने वाला पूर्व कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर वनवासी समुदाय) आदि वगैरह ही नहीं रामायण में वर्णित हनुमान, जामवंत, अतिबल, दधिबल, सुग्रीव, बालि, अंगद, गुह, निषाद, कौस्तुभ, मारीच, आदि सब के सब विभिन्न समुदाय के मिथकीय, अस्मितामूलक प्रतीक चिन्ह (आयकन) हैं” स्वाभाविक है कि उदयप्रकाश मिथक को इतिहास मान लेने की वकालत कर रहे हैं। उनका इतिहास उनकी मान्यताओं व विधारधारा के अनुरूप किस तरह लिखा जाना चाहिये इसके लिये वे लिखते हैं कि ‘”सुर कौन था या है और असुर कौन था या है, इसे समझने का दौर अब आ चुका है। किसी के भी मौलिक अधिकारों को इतने दीर्घ काल तक स्थगित नहीं रखा जा सकता”। उदयप्रकाश जैसा साहित्यकार यह बात कह रहा है तो हर्ज क्या है हमें सारी प्राचीन काव्यकृतियों को इतिहास मान लेना चाहिये यहाँ तक कि पंचतंत्र और जातक कथाओं के सभी पशु-पक्षी बिम्बों में भी अपने अपने पक्ष के आदिवासी-गैरआदिवासी, सुर-असुर, चिन्ह-टोटेम आदि अलग अलग कर लेने चाहिये? नया दौर है इसलिये समाज को लडने-लडाने के अतिबौद्धिक और प्रगतिशील तरीके अपनाने ही चाहिये, क्या रखा है जातिवाद, साम्प्रदायवाद जैसे झगडे-झंझट, खून-खराबे फैलाने के आउट ऑफ डेटेड कारणों में?                

दुर्गा-महिषासुर कथा का जो सर्वज्ञात पक्ष है एवं उपलब्ध प्राचीन पुस्तकें हैं उन्हें सामने रख कर तो बात होनी ही चाहिये। कल्पनाशीलता एक हद तक ही सही है। निहितार्थ निकालने वालों को नीबू दिखा कर कद्दू की कल्पना करने की छूट तो दी जा सकती है लेकिन चींटी देख कर डायनासोर पर व्याख्यान होने लगें तो कदाचित बौद्धिक लफ्फाजी पर सवाल खडे करना आवश्यक हो जाता है। भैस प्रतीक देख कर यदि महिषासुर किसी को भैंसपालक कृषक समुदाय लगा तो उनके द्वारा की जाने वाली खेती आदि के कुछ तो विवरण किन्हीं पुरानी पंक्तियों अथवा जनश्रुतियों में छिपे मिले होंगे? जवाहरलाल नेहरू के लाल-विचारक जिस महिषासुर की चर्चा करते रहे हैं उसे बंगाल का राजा बताया जाता है। कोई इन विद्वानों से पूछे कि उनके लिये  मैसूर शहर के दावों को क्यों खारिज कर दिया जाये? यह मान्यता है कि महिषासुर एक समय मैसूर (महिसुर) का राजा था और दुर्गा द्वारा भीषण युद्ध में उसका वध जिस स्थल पर हुआ उसे चामुण्डा पर्वत कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश का शक्तिपीठ नैनादेवी भी दावा करता है कि महिषासुर का वध वहाँ हुआ। झारखण्ड का भी दावा है कि चतरा जिले में तमासीन जलप्रपात के निकट महिषासुर का वध हुआ। छत्तीसगढ का भी महिषासुर पर दावा है जहाँ बस्तर के डोंगर क्षेत्र में अनेक महिष पदचिन्हों को महिषासुर की कथा से जोड कर देखा जाता है और मान्यता है कि यहीं उसका वध हुआ। जहाँ इतनी मान्यतायें उपलब्ध हैं वहाँ फोर्वर्ड प्रेस के सर्वे सर्वा डॉ. सिल्विया फर्नान्डीज या कि इस पत्रिका के मुख्य सम्पादक श्री आयवन कोस्का बिना संदर्भ के भी कोई बात रखते हैं तो सवाल खडे किये जाने चाहिये। असुर जनजाति के वंशज होने का दावा इन दिनों झारखण्ड से हुआ है, ऐसा ही एक दावा बिलकुल पृथक समाज ने रायगढ से भी किया गया है अत: दोनो दावों पर अध्ययन होने चाहिये। वाल्मीकी रामायण के अनेक संदर्भ राक्षसों के तीन मुख विभेद करते हैं – विराध (असुर), दनु (दानव) तथा रक्ष (राक्षस)। वाल्मीकी रामायण मे उल्लेख है कि रावण दानवों की भी हत्या करता है “हंतारं दानवेन्द्रानाम”। यही नहीं उल्लेख है कि जब रावण वध हो जाता है तो विराध (असुर) शाखा प्रसन्नता व्यक्त करती है (वाल्मीकी रामायण 6.59.115-6)। अर्थात असुर, दानव और राक्षस भी आपस में प्रतिस्पर्थी थे और एक दूसरे की पराभव के जिम्मेदार भी थे। 

लौटते हैं फॉर्वर्ड प्रेस की गढी हुई विवादित कहानी पर और उसके दावों की उपलब्ध ग्रंथ दुर्गा सप्तसती के प्रकाश में विवेचना करते हैं। सप्तसती मे दुर्गा-महिषासुर कथा का प्रारभ होता है जब महिषासुर ने इन्द्र को पराजित कर दिया है और देवता विष्णु से मदद मांगने जाते हैं। बात कविता में कही गयी है अत: दुर्गा की उत्पत्ति और शक्ति की जो विवेचना इस में कृति में है वह शब्दश: देखे जाने पर बहुत ही अतिरंजित अथवा अविश्वसनीय लग सकती है। तथापि मैं दुर्गा सप्तशती के द्वितीय अध्याय को स्त्रीविमर्श का उद्धरण मानना चाहूंगा जहाँ एक वीरांगना स्त्री दुर्गा भीषण युद्ध में अपने शत्रु महिषासुर की बहुतायत सेना का संहार कर देती हैं। कविता कहती है कि देवता प्रतिवाद की तैयारी कर रहे हैं, देवी शस्त्रों से सज्जित हैं कदाचित इतनी बलशाली हैं मानों दस हाँथ हों, अनेक तरह के अस्त्र शस्त्र संचालन में दक्ष। महिषासुर देवताओं का दुस्साहस देख कर क्रोधित है और उसे फर्क नहीं पडता कि सामने से लडने वाली स्त्री है। उसका सेनापति चिक्षुर दुर्गा पर पहले आक्रमण करता है (श्रीदुर्गासप्तशत्याम, द्वितियोअध्याय: श्लोक 40-41)। 

यह आक्रमण साधारण नहीं था साठ हजार हाथियों के साथ उदग्र नाम का महादैत्य, एक करोड रथियों के साथ महाहनु नाम का दैत्य, पाँच करोड रथी सैनिकों के साथ असिलोमा नाम का महादैत्य, हाथी व घोडों के दल बल के साथ परिवारित नाम का राक्षस, पाँच अरब रथियों के साथ बिडाल नाम का दैत्य तथा इस सबके साथ स्वयं महिषासुर भी कोटि कोटि सहस्त्र रथ, हाथी और घोडों की सेना से घिरा हुआ था और इन्होंने प्रथमाक्रमण करते हुए दुर्गा पर तोमर, भिन्दिपाल, शक्ति, मूसल, खडग, परशु और पट्टिश आदि शस्त्र फेंके  - युयुधु: संयुगे देव्या खड्गै: परशुपट्टिशै:। केचिच्च चिशिपु: शक्ति: केचित्पाशांस्तथापरे (श्रीदुर्गासप्तशत्याम, द्वितियोअध्याय: श्लोक 48)। यह तथ्य समझने वाला है कि दुर्गा पर न केवल पहला आक्रमण महिषासुर की सेना ने किया अपितु पूरी शक्ति के साथ किया। महिषासुर की सेना, उसकी ताकत व संख्या  का विवरण निश्चित ही अतिश्योक्तिपूर्ण है किंतु कविता में अलंकार का प्रयोग कदाचित वर्जित नहीं है। द्वितीय अध्याय इस युद्ध मे महिषासुर की पराजय का लोमहर्षक वृतांत प्रस्तुत करता है जिसमें कहीं भी दूसरा पक्ष छल करता नजर नहीं आता, किसी तरह के प्रेम अथवा प्रणय निवेदन का जिक्र नहीं है अपितु प्रत्येक पंक्तियाँ यह बताने के लिये लिखी गयी हैं कि एक स्त्री हो कर भी दुर्गा ने कुशल रणनेतृत्व किया और शत्रुपक्ष को पराजित किया। यह समझ से परे है कि इस संदर्भों के बाद भी फॉर्वर्ड प्रेस ने गंदी नीयत से बनाये गये चित्र और घटिया वृतांत क्यों प्रकाशित किये?  

दुर्गासप्तशती का तीसरा अध्याय महिषासुर के अनेक सेनापतियों तथा अंत में उसके ही वध का रुचिकर चित्रण है। इस अध्याय में दो प्रतीकों का युद्ध में बार बार उल्लेख आता है पहला है महिष (भैंस) तथा दूसरा है सिंह। महिष के प्रतिपल रूप बदलने का उल्लेख है किंतु सिंह के नहीं। सप्तशती के श्लोक कहते हैं कि अपनी सेना के नाश को देख कर महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण कर लिया तथा किसी को धूथन से मार कर, किसी के उपर खुरों का प्रयोग कर के कुछ गणों को वेग से, कुछ को सिंहनाद से, कुछ को नि:श्वांस वायु के झोंके से धराशायी कर दिया। कविता में लिखे गये दुर्गा-महिषासुर युद्ध के आखिरी कुछ हिस्से बहुत ही आश्चर्य में डालने वाले हैं। यह श्लोक देखें कि – सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम। तत्याज माहिषं रूपं सोअपि बद्धो महामृधे। तत: सिंहोअभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिर:। छिनत्ति तावत्पुरुष: खड्गपाणिरदृश्यत (श्रीदुर्गासप्तशत्याम, तृतीयोअध्याय: श्लोक 29-30) अर्थात - युद्ध में स्वयं को लगभग पराजित देख कर महिषासुर ने भैंस का स्वरूप छोड कर सिंह का रूप धारण कर लिया। कुछ देर इसी तरह संघर्ष करने के पश्चात जब दुर्गा उसके गर्दन पर प्रहार करने को उद्यत हुई तो वह सिंह रूप छोड कर अपने पुरुष स्वरूप में आ गया जिसके हाथ में एक खड्ग था। यही नहीं बाद के श्लोकों में महिषासुर के हाथी और फिर पुन: भैसे के रूप में आ जाने का वर्णन भी मिलता है। भैसे और मनुष्य के बीच के स्वरूप अथवा अवस्था में होने के दौरान दुर्गा द्वारा महिषासुर का वध किये जाने का विवरण दुर्गासप्तशती के माध्यम से मिलता है। 

एक काल्पनिक चित्र का विवरण देते हुए फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका लिखती है कि “सुरों ने सुन्दरी दुर्गा को असुरों के राजा महिषासुर की हत्या करने के लिये भेजा था इस छल से अनभिज्ञ महिषासुर ने संभावित आगमन की सूचना परिवारजनों को अग्रिम रूप से दे दी थी (फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका, अक्टूबर 2014 अंक पृ-6)। आखिर इस संदर्भ का विवरण कहाँ से लिया गया है? सच यह है कि मूल उपलब्ध कथा के साथ कल्पनानुसार भयावह छेडछाड पत्रिका ने तथा चित्रकार ने नितांत बदनियती के साथ की है। आगे यह पत्रिका लिखती है कि दुर्गा द्वारा महिषासुर की छाती में खंजर उतारने के बाद उन्होंने उसके आवास में प्रवेश कर बडे पैमाने पर असुरों का संहार किया (फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका, अक्टूबर 2014 अंक पृ-6)। दुर्गासप्तशती जिसे आधार मान कर सारी कथा लिखी, गढी और पुन: पुन: गढी जा रही हैं वह फॉर्वर्ड पत्रिका के कथन को झूठा बताती है। वास्तविक श्लोक है कि - “अर्धनिष्क्रांत एवासौ युद्य्हमानो महासुर:। तया महासिना देव्या शिरशिचत्त्वा निपातित:” अर्थात आधा निकला होने पर भी वह महादैत्य देवी से युद्ध करने लगा तब देवी ने बहुत बडी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया (श्रीदुर्गासप्तशत्याम, तृतीयोअध्याय: श्लोक 29-30)। अब बहुत बडी तलवार को फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका तथा उसके महान चित्रकार ने छोटा वाला छुरा यानि कि खंजर बना दिया और जहाँ सिर काटे जाने का विवरण है उसकी जगह छाती में खंजर उतारने की बात शातिराना तरीके से लिख तथा चित्रित कर दी गयी है। 

दुर्गा-महिषासुर मिथक कथा का पाठ प्रेम आधारित छल पर नहीं कहा गया अपितु यह विशुद्ध युद्ध कथा है। यहाँ दो पक्ष लडे जिसमें एक स्त्री थी दूसरा असुर। स्त्री की विजय हुई व असुर मारा गया। किसी तरह का छल नहीं अपितु दोनो ही पक्ष पूरी सेना व क्षमता के साथ लडे और अंतत: एक पक्ष की विजय हुई। चित्रकार ने महिषासुर से प्रणय निवेदन करती दुर्गा का जो चित्र बनाया है (फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका, अक्टूबर 2014 अंक पृ-7) वह यदि किसी भी समाज अथवा पक्ष को भद्दा और आपत्तिजनक लगता है तो इसमे कोई आश्चर्य नहीं। पूर्वाग्रह से भरे लोग जो लिखते व रचते हैं उसमें अध्ययन अथवा तथ्य कम अपितु कल्पना का झोल तथा अनापशनाप बोल और चटख रंगों में छिपी अश्लीलता अधिक होती है। 

पत्रिका इस बात को बहुत ही घटिया तरीके से लिखती है कि महिषासुर की हत्या के पूर्व दुर्गा ने छक कर शराब पी (फॉर्वर्ड प्रेस पत्रिका, अक्टूबर 2014 अंक पृ-7)। फॉर्वर्ड नाम से प्रकाशित पत्रिका की प्रगतिशीलता से मेरा सबसे बडा सवाल कि आप स्त्री को कमतर आंकने की और बंधन में बांधने की वकालत क्यों करना चाहते हैं? क्या आपका मानना है कि स्त्री का शस्त्र पर, सुरा पर और स्वतंत्र जीवन पर कोई अधिकार नहीं? खैर स्त्री को क्या नहीं करना चाहिये की मंशा जताने के लिये जो चित्र प्रकाशित किया गया है वह निश्चित ही आपत्तिजनक है। दुर्गासप्तशती के तीसरे अध्याय का श्लोक 38 है कि – गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम। मया त्वयि हतेअत्रैव गर्जिष्यंताशु देवता:। अर्थात “तब क्रोध में भरी हुई दुर्गा उत्तम मधु का पान करने और लाल आँखें कर के हँसने लगी”। इस मधु की और अधिक पडताल करने पर ज्ञात होता है कि मधु का एक पानपात्र कुबेर ने दुर्गा को भेंट स्वरूप दिया था। मधु शब्द का अर्थ यदि सुरा भी निकाला जा रहा है तो क्या यह बात सही नहीं कि युद्ध क्षेत्र में यह घटना हो रही है न कि शयनकक्ष में। फॉर्वर्ड प्रेस की कथा में मूल उपलब्ध कहानी की हत्या ही नहीं है अपितु शरारपूर्ण नीयत से उसे बदला और तोडा मरोडा गया है। ऐसी प्रगतिशीलता की कठोरतम निन्दा होनी चाहिये। फार्वर्ड प्रेस पत्रिका द्वारा दुर्गा-महिषासुर चित्रकथा किसी आदिवासी विमर्श की नीयत से नहीं अपितु ये   बौद्धिक लफ्फाजियाँ सामाजिक विद्वेष फैलाने के विचारधाराजन्य स्पष्ट उद्देश्य से प्रकाशित की गयी है। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
==========