Thursday, October 04, 2012

ह्वेनसांग की दक्षिणापथ यात्रा और सातवाहन साम्राज्य

रायपुर से प्रकाशित होने वाले सांध्य दैनिक -  ट्रू सोल्जर में दिनांक 3.10.2012 को प्रकाशित 

प्राचीन बस्तर क्षेत्र में सातवाहनों (72 ई-350 ई तक) की सत्ता का उल्लेख ह्वेनसांग द्वारा अपने यात्रा वृतांत में किया गया है। चीनी यात्री की यह यात्रा यद्यपि 629 से ले कर 645 ई तक ठहरती है। यात्रावृतांत का सूक्षमता से अध्ययन करने पर इसमें तत्कालीन बस्तर का इतिहास ही नहीं मिलता अपितु ह्वेनसांग नें अनेकों निकटवर्ती शासनों के क्षेत्रफल, भूगोल, जनश्रुतियों, मिथकों, आदि; सभी कुछ को उल्लेखित किया है। बौद्ध साहित्य तथा उनके समकालीन एवं पूर्ववर्ती विचारकों व उनसे जुडे साक्ष्यों को वे अतीत से भी खोज निकालते हैं तथा उनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं। इस यात्रावृतांत में बस्तर के लिये पो-लो-मो-लो-कि-ली; कलिंग के लिये कई-लिंग-किया; कोशल क्षेत्र के लिये क्यि-वस-लो तथा आन्ध्र के लिये अन-त-लो नाम का प्रयोग ह्वेनसांग द्वारा किया गया है। एस एन राजगुरु (आई ओ, खण्ड-4 भुवनेश्वर, 1966) के अनुसार पो-लो-मो-लो-कि-ली बस्तर के अभिलेखों में वर्णित भ्रमरकोट्य मण्डल है। उनके अनुसार यह पर्वत कालाहाण्डी तथा बस्तर की सीमा पर अवस्थित है। एन के साहू अपनी पुस्तक बुद्धिज्म इन ओडिशा में पो-लो-मो-लो-कि-ली को परिमल गिरि मानते हुए इसे सम्बलपुर एवं बालंगीर की सीमा पर स्थित गंधमर्दन पर्वत निरूपित करते हैं। इन सभी क्षेत्रों की जानकारियों को सामूहिक रूप में देखने पर ही प्राचीन बस्तर की तत्कालीन अवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है। 

ह्वेनसांग के अनुसार बौद्ध महायान शाखा के महान दार्शनिक ‘नागार्जुन’ ईसा की दूसरी शताब्दी में पो-लो-मो-लो-कि-ली के मठ में रहते थे जो दक्षिण कोसल की राजधानी से दक्षिण-पश्चिम में 300 ली की दूरी पर अवस्थित था। इस क्षेत्र के स्वामी सो-तो-पो-हो (सातवाहन) थे और वही इस मठ के संरक्षक थे। यह विवरण ह्वेनसांग द्वारा कोशल तथा बस्तर क्षेत्र में महान दार्शनिक नागार्जुन के सम्बन्ध में जानकारी एकत्रीकरण की कोशिश के रूप में ही दिया गया है; नागार्जुन और ह्वेनसांग समकालीन नहीं थे। इस दृष्टि से यह समझना भी आवश्यक हो जाता है कि बौद्ध साहित्य तथा सिद्धांतों की खोज में ह्वेनसांग केवल वर्तमान की परिधियाँ ही नहीं नाप रहे थे अपितु बहुत सूक्षमता से उन्होंने अपने समय से पहले के इतिहास का अंवेषण भी किया है। ह्वेनसांग कलिंग में प्रवेश से पहले प्राचीन बस्तर क्षेत्र का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि “हम एक भारी निर्जन वन में पहुँचे जिसके चारो ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष सूर्य की आड़ लिये हुए आकाश से बातें करते थे”। कलिंग और उसके सीमांत क्षेत्रों जिसमें स्वाभाविकत: बस्तर का क्षेत्र भी सम्मिलित हो जाता है के विषय में ह्वेनसांग बताते हैं कि “जंगल-झाडी सैंकडो कोस तक लगातार चली गयी है। यहाँ पर कुछ हरापन लिये हुए नीले हाँथी मिलते हैं जो निकटवर्ती सूबों में बडे दाम पर बिकते हैं। मनुष्य का स्वभाव उग्र है परंतु वे अपने वचन का पालन करने वाले विश्वसनीय लोग हैं। बहुत थोडे लोग बुद्ध धर्म पर विश्वास करते हैं, अधिकतम लोग विरुद्ध धर्मावलम्बी ही हैं”। प्रकृति के अलावा भी यदि ह्वेनसांग द्वारा प्रस्तुत तथ्य का विश्लेषण किया जाये तो अंग्रेजों के समय तक हाँथी जयपोर (वर्तमान में ओडिशा में अवस्थित) एवं बस्तर रियासत में प्रमुखता से पाये जाते थे। अंग्रेज अधिकारी मैक्जॉर्ज जो कि बस्तर में 1876 के विद्रोह के दौरान प्रशासक था, नें हाथी और उससे जुडी तत्कालीन राजनीति पर एक रोचक उल्लेख अपने एक प्रतिवेदन में किया है – “रियासतों में छोटी छोटी बातों के लिये झगडे होते थे। जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाँथी। जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाँथी पकड़वाये। इसके लिये वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। उनकी इसी काम के लिये भेजी गयी कोई हथिनी बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। यह बड़ा डिस्प्यूट हो गया। अंतत: अंग्रेज आधिकारियों को इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव करना पड़ा। हथिनी को सिरोंचा यह कह कर मंगवा लिया गया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा लेकिन फिर उसे जैपोर को सौंप दिया गया”। वर्तमान में बस्तर में हाथी नहीं मिलते हैं अत: इस उद्धरण को यहाँ उल्लेखित करने के पीछे मेरा मंतव्य ह्वेनसांग के उल्लेखों और प्राचीन बस्तर में अंतर्सम्बन्ध दर्शाना है। 

कलिंग से जोड कर ह्वेनसांग नें एक मिथक कथा को उल्लेखित किया है जिसके अनुसार “एक समय यह क्षेत्र बहुत घना बसा हुआ था। इतना घना कि रथो के पहियों के धुरे एक दूसरे से रगड खाते थे। एक महात्मा जिन्हें पाँचों सिद्धियाँ प्राप्त थी वे एक उँचे पर्वत पर निवास करते थे। किसी कारण उनकी शक्तियों का ह्रास हो गया तथा लज्जित हो कर उन्होंने श्राप दे दिया जिससे वृद्ध-युवा, मूर्ख-विद्वान, सब के सब समान रूप से मरने लगे, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जनपद का नाश हो गया”। इस कथा का सम्बन्ध मैने कलिंग के एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ह्वेनसांग पूर्व की घटनाओं, उद्धरणों और जनश्रुतियों आदि से करने की कोशिश की किंतु हर बार मेरा ध्यान बस्तर से जुडी राजा दण्ड की उस कथा की ओर ही गया जहाँ शुक्राचार्य के अभिशाप से पूरा दण्डकारण्य जनपद नष्ट हो गया था। उल्लेखनीय है कि कलिंगारण्य तथा दण्डकारण्य समानांतर हैं एवं इन दोनों ही क्षेत्रों के इतिहास को जुडवा भाईयों की कहानी की तरह ही देखना उचित प्रतीत होता है। 

ह्वेनसांग कलिंग से दण्डकारण्य होते हुए कोशल तक पहुँचते हैं। अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम इस कोशल क्षेत्र की सीमा के भीतर प्राचीन बस्तर, वर्तमान छत्तीसगढ के उत्तरी हिस्सों (कोशल और सन्निकट के क्षेत्र), बरार और बहुतायत गोण्डवाना को सम्मिलित कर लेते हैं एवं राजधानी चाँदा, नागपुर अथवा अमरावती को मानते हैं। फगुर्सन नें ह्वेनसांग द्वारा दिये गये माप ‘ली’ (अर्थात छ: ली का एक मील) को आधार बना कर बैरागढ को कोसल की राजधानी बताया है। महायान सम्प्रदाय की सार्वभौमिकता ही ह्वेनसांग की यात्रा कालीन दक्षिणापथ को एक साथ जोडती प्रतीत होती है तथा राजधानी के स्पष्ट नामोल्लेख न होने के कारण इस विवाद को इतिहासकारों की झोली में डालते हुए हम उस विवरण की ओर लौटते हैं जहाँ ह्वेनसांग कहते हैं कि “विधर्मी तथा बौद्ध दोनो यहाँ पर हैं जो उच्च कोटि के बुद्धिमान और विद्याध्ययन में परिश्रमी हैं। कोई सौ संघाराम और दस हजार से कुछ ही कम साधु हैं जो सब के सब महायान सम्प्रदाय का अनुशीलन करते हैं”। यह कथन निस्संदेह सिरपुर से जुडता है किसकी वर्तमान में अवस्थिति रायपुर से 85 किलोमीटर की दूरी पर है। कभी श्रीपुर कहलाने वाला सिरपुर सोमवंशी राजाओं के समय में कोशल की राजधानी भी रहने का गौरव प्राप्त कर चुका है। इस क्षेत्र में निरंतर जारी खुदाई से इतिहास शनै: शनै: सजीव होने लगा है तथा यह तथ्य सामने आ रहा है कि नालंदा और तक्षशिला से भी प्राचीन शिक्षा-केन्द्र था सिरपुर। सिरपुर में उत्खनन कार्य करा रहे पुरातत्ववेत्ता डॉ अरुण कुमार शर्मा के अनुसार खुदाई में प्राप्त एक स्तूप का सम्बन्ध सीधे ही भगवान बुद्ध से है। यह स्तूप सांची के स्तूप से अलग है और पत्थरों से निर्मित है। पत्थर के स्तूपों के बारे में कहा जाता है कि ऐसे स्तूप भगवान बुद्ध के निर्देशन में ही बनते थे। बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख है कि बुद्ध ईसा पूर्व छठीं सदी में सिरपुर आए थे; तब यहां बौद्ध विहारों की स्थापना शुरू हुई। ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने भी इस क्षेत्र में कई स्तूपों का निर्माण कराया। सिरपुर के आलोक में महायान सम्प्रदाय के महान विचारक नागार्जुन की चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। 

नागार्जुन दूसरी सदी में न केवल नालंदा में विद्यार्थी थे अपितु बाद में बहुत समय तक वहाँ के प्रधान भिक्षु के रूप में भी कार्यरत रहे। नागार्जुन का सम्बन्ध प्राचीन बस्तर और कोसल से रहा है तथा उनका अनुमानित जीवनकाल 150 ई – 250 ई के मध्य माना जाता है। नागार्जुन माध्यमिक (मध्य मार्ग) मत के संस्थापक थे जिनकी ‘शून्यता’ (ख़ालीपन) की अवधारणा के स्पष्टीकरण को उच्चकोटि की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि माना जाता है। प्राचीन बस्तर में नागार्जुन की अवस्थिति का एक प्रमाण उनका तत्कालीन सातवाहन वंश के राजा {संभवत: यज्ञश्री (173-202)} को लिखा एक पत्र (सुहारिल्लेख, ‘मैत्रिपूर्ण पत्र’) भी है। तथापि ह्वेनसांग नें नागार्जुन के दर्शन और उनकी महानता का वर्णन करने में कोताही नहीं की है। ह्वेनसांग बताते हैं कि नगर के दक्षिण में एक संघाराम है जिसमें नागार्जुन रहा करते थे। एक बार लंका निवासी देव-बिधिसत्व शास्त्रार्थ के लिये आया। द्वारपाल के माध्यम से मिलने से पूर्व नागार्जुन नें आगंतुक की प्रतिष्ठा में एक पात्र में जल भर कर दिया। देव-बोधिसत्व पहले तो जल को देख कर चुप हो गये फिर एक सूई निकाल कर उसमें डाल दी। यह पात्र पुन: नागार्जुन तक पहुँचा तो वे उत्साहित हो कर बोले यह व्यक्ति सूक्ष्म ज्ञान से भरा हुआ है जिसे हृदयंगम करने का सुअवसर हैं इन्हें भीतर बुलाया जाये। नागार्जुन में इसके पश्चात अपने शिष्यों को दो महाविद्वानों के बीच हुए इस मौन वार्तालाप के विषय में बताया कि वस्तुत: उन्होंने ज्ञान की निर्मलता और ग्राह्यता का संदेश जल-पात्र के रूप में भेजा था जिसके प्रत्युत्तर में अपने सूक्ष्म संदेहों की बात देव-बोधिसत्व द्वारा की गयी। ह्वेनसांग बाद में देव-बोधिसत्व में ज्ञान के अहंकार और उसका नागार्जुन द्वारा किये गये निराकरण का भी जिक्र अपने वृतांतों में करते हैं। नागार्जुन से सम्बन्धित कई पुरा-स्थलों को प्राचीन बस्तर में खोजा जाना शेष है। ह्वेनसांग का यह विवरण देखें – “लगभग 300 ली दक्षिण पश्चिम चल कर हम ब्रम्हगिरि नामक पहाड पर पहुँचे। इस पहाड की सूनसान चोटी सबसे ऊँची है। इस स्थान पर सद्वह राजा नें नागार्जुन बोधिसत्व के लिये चट्टान खोद कर उसके भीतर मध्य-मार्ग में एक संघाराम बनवाया था। इस संघाराम के नष्ट किये जाने का उल्लेख भी ह्वेनसांग करते हैं तथापि इसके आकार प्रकार के विवरण से यह प्रतीत होता है कि इस स्थल की खोज एक बडे एतिहासिक धरोहर से हमें परिचित करायेगी। 

प्राचीन बस्तर की जानकारी सीमांत आन्ध्र की उपलब्ध जानकारियों के विश्लेषण के बिना पूरी नहीं होती। ह्वेनसांग लिखते हैं कि दक्षिण दिशा में एक घने जंगल मे जा कर कोई 900 मील चल कर हम ‘अन-त-लो’ (आन्ध्र) देश में पहुँचे। यहाँ की प्रकृति गर्म तथा मनुष्य साहसी होते हैं। वाक्य विन्यास एवं भाषा मध्य भारत से भिन्न है। यह स्थान भी आंशिक रूप से भगवान बुद्ध के प्रभाव में आया एवं एक शून्य पहाड का जिक्र ह्वेनसांग करते हैं जिस स्थान पर जिन-बोधिसत्व नाम के विद्वान द्वारा हेतुविद्या शास्त्र की निर्मिति का उल्लेख मिलता है। उपरोक्त विवरणों से ह्वेनसांग की दक्षिणापथ यात्रा के दौरान बस्तर भी आने का स्पष्ट उल्लेख है तथा कई राज्यों के मध्य की कडी के रूप में एक घना वन प्रदेश भी यह जान पडता है। ह्वेनसांग के माध्यम से यह भी निरूपित करने में हमे सहायता मिलती है कि महान विद्वान नागार्जुन प्राचीन बस्तर से ही सम्बद्ध थे तथा उन दिनों यह क्षेत्र सातवाहनों द्वारा शासित था। नागार्जुन का इतना अधिक सम्मान था कि उनकी सुरक्षा के लिये शासन द्वारा अंगरक्षक भी प्रदान किये गये थे।  

प्राचीन बस्तर में सत्ता का केन्द्र मौर्य सामाज्य के पतन के बाद से ही बदलने लगा था। 72 ई. पूर्व से ले कर 200 ई. तक का समय इस क्षेत्र में दक्षिण भारत के बढते हुए प्रभावों का समय रहा। सातवाहन राजवंश का केन्द्रीय दक्षिण भारत पर अधिकार था। 22 ई. पूर्व में राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान 106 ई. के बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया। 350 ई. तक यहाँ सातवाहनों की समाप्ति हो गयी थी। इस समय इक्ष्वाकुओं ने दण्ड़कारण्य के पूर्वीभाग पर अपनी संप्रभुता स्थापित की तो उत्तरी भाग में वाकाटकों का प्रभुत्व हुआ। वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के उस राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। तीसरी शताब्दि के मध्य तक वाकाटक संप्रभुता सम्पन्न हो गये थे।