Wednesday, February 04, 2009

हजार पच्यासीवें का बाप [बस्तर में जारी नक्सलवाद के समर्थकों के खिलाफ] - राजीव रंजन प्रसाद

दिल्ली में बैठा हूँ और सुबह सुबह एक प्रतिष्ठित अखबार भौंक गया है, बस्तर के जंगलों में क्रांति हो रही है। लेखिका पोथी पढ पढ कर पंडित हैं, कलकत्ता से बस्तर देखती हैं। दिख भी सकता है, गिद्ध की दृष्टि प्रसिद्ध है, कुछ भी देख लेते हैं। वैसे लाशों और गिद्धों का एक संबंध है और कुछ लेखक इस विषय पर शौकिया लिखते हैं। 

दुनियाँ वैसे भी छोटी हो गयी है, रुदालियाँ किराये पर चुटकियों में उपलब्ध हैं। कुछ एक रुदालियाँ अपने बाँध-फोबिया के कारण जगत प्रसिद्ध हैं, जा कर उनके कान में मंतर भर फूँकना है कि फलाँ जगह बाँध बनना है पूरे दलबल के साथ रोने के लिये हाजिर। रोती भी इतनी चिंघाड चिंघाड कर हैं कि दिल्ली में बाकी काम बाद में निबटाये जाते हैं पहले इनके मुख में निप्पल डालने का इंतजाम जरूरी हो जाता है। एक आध रुदालियाँ तो लिपस्टिक पाउडर लगा कर कुछ भी बोलने के लिये खडी हैं, कैमरे में कुब्बत होनी चाहिये इन्हे बर्दाश्त कर पाने की। हाल ही में बक गयी कि कश्मीर को आजाद कर दो, जैसे इनकी बनायी चपाती है कश्मीर। डेमोक्रेसी है यानी जो जी में आया बको, न बक सको तो लिखो, न लिख सको तो किराये के पोस्टर उठाओ और शुरु हो जाओ ‘दाहिने’ ‘बायें’ थम। 

वह बुदरू का बाप था। “हजार पच्च्यासीवे का बाप” लिखूँगा तो थोडा फैशनेबल लगेगा। हो सकता है कोई बिचारे पर तरस खा कर पिच्चर-विच्चर भी बना दे। मौत तो कई गुना ज्यादा हुई हैं और कहीं अधिक बरबर, फिर भी आँकडे रखने अच्छे होते हैं। आँकडे मुआवजों से जुडते हैं, आँकडे हों तो मानव अधिकार की बाते ए.सी कॉंफ्रेस हॉल में आराम से बैठ कर न्यूयॉर्क में की जा सकती हैं। हजार पच्च्यासीवें का बाप सरकारी रिकार्ड में इसी नम्बर की लाश का बाप था। वह इस देश में चल रही क्रांति के मसीहाओं के हाँथों मारा गया एक आदिम भर तो था। उसके मरने पर कौन कम्बख्त बैठ कर उपन्यास लिखेगा? 

उपन्यास लिखने के लिये बुदरू को कम से कम मिडिल क्लास का होना चाहिये, वैसे यह आवश्यक शर्त नहीं है। आवश्यक शर्त है उसका चक्कर वक्कर चलना चाहिये। रेस्टॉरेंट में बैठ कर पिज्जा गटकते हुए उसे लकडी, हथौडा, पत्थर, मजदूर, यूनियन, मार्क्स और लेनिन पर सिगरेट के छल्ले उडाते हुए डिस्कशन करना आना चाहिये। ‘केरेक्टर’ के पास होनी चाहिये एक माँ, जमाने की सतायी हुई। आधी विक्षिप्त टाईप, जिसके चश्मे का नम्बर एसा होना चाहिये कि चींटी देखो तो हाँथी दिखायी पडे। उसकी माँ का एक हस्बैंड होना चाहिये, एकदम मॉडर्न। हस्बैंड का कैरेक्टरलैस होना सबसे जरूरी शर्त है। उसकी बहन वहन हो तो उसका प्री-मैरिटल या आफ्टर मैरिटल अफैयर होना आवश्यक है। उपन्यास इससे रीयलिस्टिक लगता है।.....। एसे घरों के बच्चे सनकी या रिबेल नहीं होगें क्या? यह सवाल उपन्यासकार/कारा से नहीं पूछा जाना चाहिये चूंकि कई “लेखक यूनियनों” द्वारा श्री श्री पुरस्कृत हैं इसलिये जो लिख जायें वह ‘क्लास’। अर्थात एसे महान घरों से क्रांतिकारी जन्म लेते हैं। अपने बाप के खिलाफ बोलते जिनकी पतलून गीली होती रही वे इस देश को बदलेंगे। अच्छा है, हममें तो इतना गूदा नहीं कि एसे प्लॉट्स को बकवास कह सकें। इस लिये बिचारा हजार पच्च्यासीवे का बाप किसी उपन्यास का विषय नही बन सकता यह तो तय हो गया। लेकिन यह तो किसी नें नहीं कहा कि बाप पत्थर दिल होते हैं, फिर बुदरू का मुडी हुई टाँगों वाला, केवल एक गमछे में अपने वदन को ढके हुए इस तरह पत्थर बना क्यों खडा है?

यह हजार पच्च्यासीवी लाश अदना पुलिस के सिपाही की है। पुलिस का सिपाही यानी कि सिस्टम का हिस्सा। जंगल में दुबके ‘क्रांतिकारियों’ का फिर तो हक बनता है कि इसकी लाश एसी बना दें कि बुदरू की धड में सुकारू का हाथ मिले और सोमारू की गर्दन। खोज खोज कर भी तीन चौथाई ही बटोरा जा सका था वह। पर इस बात के लिये सहानुभूति क्यों? बुदरू का बाप अपने बेटे की लाश पहचाने से इनकार नहीं करता, शर्मिन्दा नहीं होता केवल खोज रहा है उसे पसरी हुई बोटियों में। बुदरु बिचारे की तो कोई तस्वीर भी नहीं और इस हजार पच्च्यासीवें के बाप के पास एसी कोई पक्की दीवाल भी नहीं थी जिस पर तस्वीर जैसी कोई चीज लगती। बुदरु पर लिखने के लिये कोई अखबार तैयार भी नहीं और कोई अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का हराम का पैसा उसकी शोक शभा आयोजित करने में लगा भी नहीं है। वह कोई खुजेली दाढी वाला नहीं कि गिरफ्तार भी होता तो अमरीका से श्वेतपत्र जारी होता, चीन आँसू बहाता, कलकता में राईटर्स लिखते और दिल्ली में कठपुललियाँ नाचतीं। उस पर आंन्दोलित होने वाली कोई रुदाली भी नहीं, वे निर्जज्ज कफन खसोंट हैं, व्यापारी हैं, आतंकवाद समर्थक हैं और बददिमाग भी। हजार पच्च्यासी तो कहिये ज्ञात आँकडा हुआ, लेकिन अनगिनत मौते, लाशे जिनका कोई हिसाब नहीं उनके लिये किसका स्वर बुलंद हुआ है इस एक अरब की आबादी वाले देश में? कहाँ से होगा बुलंद, दुनिया जानती है कि आज आवाज उठाने वाले “पेड” हैं, तनखा पाते हैं इस बात की, जोंक हैं.....काहे की लडाई, कौन सा आंदोलन, कैसी क्रांति? कौन सा व्यवस्था परिवर्तन? बस्तर के आदिमों की लाश पर दिल्ली की सरकार बदल जायेगी, हास्यास्पद। और यह कोई बताये कि दिल्ली, कलकता, चेन्नई, मुम्बई में क्या समाजवाद है, वहाँ शायद एसी लडाईयों की आवश्यकता ही नहीं? वहाँ कोई शोषण नहीं, कोई वर्गविभेद नहीं कोई सामाजिक असमानता नहीं राम राज्य है (साम्प्रदायिक स्टेटमेंट न माना जाये)। लडो भाई, क्रांति करो, भगत सिंह नें कब बस्तर के जंगल में बम फोडा? चंद्रशेखर आज़ाद कब दंडकारण्य में छिप कर लडते रहे? सुभाष नें कब दंतेवाडा चलो का नारा दिया? बटुकेश्वर दत्त को कब आई.एस.आई या कि लिट्टे से हथियार मिले? इनके समर्थन में तो को डाक्टर भी अपनी पोटली ले कर नहीं उतरा न ही रुदालियों नें सिर पीटा, इन महान क्रांतिकारियों पर तो लिखने वालों के कलेजे ही दूसरी मिट्टी के बने थे। खैर तब लेखक यूनियनों में किसी पार्टी-वार्टी के कब्जे भी नहीं होते होंगे कि कुछ भी लिखो पीठ खुजाया जाना तय है। लाल-पीले छंडे की विचारधारा पोषित करते रहो, किताबों के अंबार लगवाओ, रायलटी की बोटी चूसो। इस फिक्सड रैकेट में लेखन कहाँ है? 

हजार पच्च्यासीवीं लाश को गठरी में संभालता वह बाप जानता था कि वह अकेला है, अकेला ही रोयेगा और अकेला ही रह जायेगा। उसके बेटे के कोई मानवाधिकार नहीं, उसका बेटा मानव था भी नहीं, या कभी समझा नहीं गया। उसका बेटा खबर बनने लायक भी नहीं था चूंकि अखबार लिखता है “जंगल में बारूदी सुरंग फटी- आठ मरे”। यह हजार पच्च्यासीवी लाश उन्हीं आठ अभागों में से एक की थी, जिन्हे कुत्तों की तरह मारे जाते देख कर भी रायपुर में सम्मेलन होते हैं फलां सेन को रिहा करो, फलां फलां जगह सरकारी दमन है, फलाँ फलाँ शिविरों में घपले हैं...यहाँ एक विश्वप्रसिद्ध रुदाली की बात करनी आवश्यक है। माननीया को “बाँध-फोबिया” की प्रसिद्ध बीमारी है। पार्ट टाईम में किसी भी पंडाल में लेक्चराती नजर आती हैं, समस्या उन्हे समझ आये तब भी, न समझ आये तब भी, वे खुद वहाँ समस्या हों तब भी। कोई विकास कार्य हो रिहेबिलिटेशन और रिसेटिलमेंट (पुनर्स्थापन और पुनर्वास) पर इनकी थ्योरियाँ सुनी जा सकती हैं। पिछले कई सालों, विशेषकर पिछले पाँच सालों में ही नक्सली हिंसा (महोदया द्वारा मानकीकृत क्रांति) में हजारो हजार आदिवासी अपने घर, जमीन, संस्कृति और शांति खो कर सरकारी रहम पर जी रहे हैं। माननीया आपकी दृष्टि इनपर पडती भी कैसे? इनके बारे में सोच कर किसी फंड का जुगाड शायद नहीं था? खैर आपकी विवशता समझी जा सकती है, आप जगतप्रसिद्ध विकास विरोधी ठहरीं, यहाँ आपके मन का ही तो काम जारी है। इन महान क्रांतिकारियों के फलस्वरूप सडकें नहीं बनती, बिजली बंद है, स्कूलों में ताले हैं बस्तियाँ खाली हैं....जय हो, आपका मोटिव तो सॉल्व है। रही आर एण्ड आर की बात तो जंगल से बेहतर आपके क्रांतिकारी कहाँ सुरक्षित थे तो आदिवासियों के सबकुछ लूटे जाने का सार्वजनिक समर्थन कीजिये। वैसे भी बस्तर आपकी समझ आने से रहा, आपकी कुछ भी समझ आने से रहा। यह विक्षिप्ति की दशा में बहुदा होता है.... 

हजार पच्च्यासीवे का बाप सब कुछ लुटा चुका है। बेटा पढ लिख गया, शायद इसी लिये “रुदाली-कम्युनिटी” को खटक गया। उसे व्यवस्था का हिस्सा मान लिया गया। आदिम तो जानवर ठहरे इन कलमघसीटों की निगाहों में? बस्तर बहुतों को मानव संग्रहालय बना ही ठीक लगता है, इन आदिवासी युवकों को कोई अधिकार नहीं कि मुख्य धारा में आयें। किन परिस्थितियों से निकल कर बुदरू मुख्यधारा में जुडा कोई नहीं जानता। बीमारी उसकी माँ को लील गयी चूंकि गाँव में अस्पताल नहीं (अब बनेंगे भी नहीं, यहाँ क्या डाक्टर मरने को आयेंगे? सुना है क्रांतिकारियों को अवश्य कुछ प्राईवेट डाक्टरों की सेवायें मानव अधिकार सेवा के तहत प्राप्त हैं/थीं/होंगी)। उसके पिता को अब जंगल निषेध है, अपनी जमीन, अपने ही घर गया तो पुलिस का मुखबिर घोषित कर मारा जायेगा, क्रांतिकारियों का इंसाफ है भाई। महान लेखिकायें कहती हैं कि क्रांतिकारी बहुत इंसाफ पसंद होते हैं, अपनी अदालतें लगवाते हैं, खुद ही जज और जनाब खुद ही वकील और सजा भी क्रांतिकारी। तालिबान शरमा जाये, एसी सजायें....। मारो, इस हजार पच्यासीवी लाश के बाप को भी मारो।...। मर तो यह तब ही गया था जब इसकी बेटी महान क्रांतिकारियों के हवस का शिकार हुई, फिर अपहृत भी, अब एसा समझा जाता है कि अब किसी समूह में क्रांतिकारियों के जिस्म की आग को अपनी आहूति देती है। क्रांतिकारियों के जिस्म नहीं होते क्या? उनकी भी तो भूख है, प्यास है फिर इसमें गलत क्या है? ये कोई भगत सिंह तो नहीं कि शादी इस लिये नहीं की कि जीवन देश को कुर्बान। अब जमाना बदल गया है, अब भगत सिंह बन कर तो नहीं रहा जा सकता न? जंगल में पुलिस का डर नहीं और डर के मारे आधे पेट खाने वाले ग्रामीण भी इनके लिये अपने मुर्गे, बकरे खून के आँसू पी पी कर काट रहे है, एक क्रांति के लिये सारी खुराक उपलब्ध है भीतर। और क्या चाहिये?

हजार पच्यासीवे का बाप मीडिया की नजरों में नहीं आयेगा। बिक नहीं सकेगा। वह सनसनी खेज कहानी नहीं बन सकता। वह केवल एक लाश का बाप भर तो है और इस प्रकार की मौत कोई बडी घटना नहीं होती। बडी घटना होती है किसी नक्सली के पकडे जाने पर उससे पूछताछ, एसा करने पर मानवाधिकार का हनन होता है और विश्व बाईनाकुलर लगा कर जंगल में झांकने लगता है। मर भाई बुदरू, तेरा और तेरे जैसों का क्या? तू तो सिस्टम है, तुझे ही तो मिटाना है, तभी क्रांति की पुखता जमीन तैयार होगी। न रहेंगे आदिम जंगल में, न रहेंगे मुखबिर, न होगी एश में खलल। तुम्हारा तो एसा “लाल सलाम” कर दिया कि कोई और बुदरू वर्दी पहने तो रूह काँप उठे।...। जलाओ इस हजार पच्चीसवी लाश की गठरी को और एक और कहानी का खामोश अंत हो जाने दो। 

हजार पच्च्यासीवी लाश के इस बाप का एपेंडिक्स नहीं फटेगा। कहानी का एसा अंत उसके नसीब में नहीं। उसकी किसमत में सलीब है।...। वह तो जानता भी नहीं कि व्यवस्था का हिस्सा उसका बेटा समाज और इंसानियत का इतना बडा दुश्मन था कि उसके खिलाफ बडे बडे बुद्धिजीवी और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी लामबंद है। काश वह देख पाता यह सब कुछ, काश वह जान पाता, काश वह सोच पाता, काश वह लड पाता...।....। एक लडाई आरंभ तो हुई थी। सलवा जुडुम एक आन्दोलन बन कर खडा भी हुआ था लेकिन इस अभियान के पैर भी एक साजिश के तहत तोड दिये गये। बस्तर को औकात में रह कर जीना सीखना ही होगा, वह कोई होटल ताज नहीं कि उसके जख्म देश भर को दिखाई पडें और फिर यहाँ तो कातिल नहीं होते, आतंकवादी नहीं, यहाँ खालिस क्रंतिकारी पाये जाते हैं। जोंक, कम्बख्त.....
*******************