Wednesday, July 15, 2015

किशोर कुमार का पैतृक आवास और उपेक्षायें





जब कलाकार आसमान को अपनी बाँहों में भर लेता है तो ज़मीन से उसका रिश्ता टूटने लगता है। किशोर अलग ही मिट्टी के थे, जीवन भर जन्मभूमि के बने रहे। किशोर कुमार के साथ “खण्डवा वाले” उनके हर सार्वजनिक कार्यक्रमों में उपनाम की तरह उद्घोषित होता रहा। एक पुराना शहर किशोर की आवाज का इस तरह पर्याय बन गया कि आज भी खण्डवा की हवा में गुनगुनाहट है, मीठापन है। यहाँ के लोग इस कलाकार से जिस तरह गुथे हुए हैं इसके कई उदाहरण मेरे सामने आये। मैं एक चाट वाले के ठेले के पास रुका जो तनमयता से किशोर दा के गाने गुनगुना कर अपने काम में लगा हुआ था। मैने उसकी आवाज़ की तारीफ क्या की उसने किशोर के गानों से शुरुआत की फिर उनसे जुडे संस्मरणों पर उतर आया। उसने कब किशोर को देखा, आज उनके परिवार में कब कौन खण्डवा आता है, जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर किस तरह के कार्यक्रम होते हैं आदि।

“साहब आपने किशोर दा का मकान देखा है?” अनायास उस चाट वाले ने मुझसे पूछा।

“नहीं, लेकिन देखना है मुझे” 

“मत देखना साहब दु:ख होगा आपको” उसने भारी आवाज़ में कहा।

“क्यों, क्या किराये पर लगा है मकान?” 

“नहीं वीरान है, उनके परिवार वाले ही बेचना चाहते हैं।”

“बेचना चाहते हैं, क्यों?” 

“मकान है तो उनके परिवारवालों की प्रापर्टी। करोडों की सम्पत्ति है आज नहीं तो कल बिक ही जायेगी” 

“किशोर के नाम पर स्मारक या संग्रहालय क्यों नहीं बना देते इस मकान को?” 

“खण्डवा वाले तो यही चाहते हैं”

मैने किशोर दा के मकान को इसी क्षण देखने का निर्णय लिया और बताई गयी दिशा में रेल्वेस्टेशन की और बढ चला। वहीं मोड़ पर मुझे बताया गया था कि बाम्बे बाजार में स्टेट बैंक के एटीएम के बगल में उनका पुश्तैनी मकान है। मैने आसपास के दूकानदारों से पूछा और वे जिस ओर इशारा कर रहे थे वहाँ मुझे कोई मकान नजर ही नहीं आया। आखिरकार एक इलेक्ट्रिकल समान की दूकान से सरदार जी बाहर आये और साथ ले चल कर किशोर दा के मकान के सामने मुझे खड़ा कर दिया। मुख्य सड़क पर होने के बाद भी दूकानों की भीड़, अतिक्रमण और प्लास्टिक के लम्बे लम्बे खिंचे तिरपालों के कारण मकान का मुख्य द्वार आसानी से दिखाई नहीं पड़ता। पुरानी फिल्मों में खण्डहर हवेलियों के चौकीदारों की तरह ही एक वृद्ध केयर टेकर सीताराम से मेरी इस मकान में मुलाकात हुई। आरम्भ में तो उसके चेहरे पर उपेक्षा का ही भाव था और वह मुख्यद्वार के भीतर सामने एक टूटी फूटी खटिया डाल कर उस पर बैठा हुआ था। उसने बताया कि कमरों में ताले लगा दिये गये हैं और अंदर से मकान देखने-दिखाने की इजाजत नहीं है।

मैं स्वयं ही आगे बढा और मकान का चारो और से मुआयना करने लगा। मकान के हर कोने से आती कराह सुनी जा सकती थी कि “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन”। ब्रिटिशकालीन इमारतों का यह सजीव उदाहरण है जो यद्यपि खण्डहर में बदलता जा रहा है किंतु बडे बडे गोलाकार स्तम्भों और काष्ठ से बनी छत की संरचनाओं के आज भी पूर्ववत होने के कारण विशेष दर्शनीय है। यह मकान लगभग 7600 वर्गफीट में फैला हुआ है जिसके आगे की और कई दूकाने भी निर्मित हैं जिनका किराया प्राप्त जानकारी के अनुसार किशोर दा के परिजनों के पास जाता है; साथ ही एक दूकान के किराये से मकान के केयरटेकर सीताराम को सेलरी दी जाती है। मुझे बताया गया कि किशोर दा का पैतृक निवास अब अनूप कुमार के बेटे अर्जुन कुमार के नाम पर है। पारिवारिक सम्पत्ति के बंटवारे में यह सम्पत्ति किशोर कुमार के छोटे भाई अनूपकुमार को मिली, जिसमें लीना चंदावरकर और अमित कुमार भी हिस्सेदार थे, लेकिन किशोर दा की इच्छा को देख कर लीना चंदावरकर और अमित कुमार ने अपना हिस्सा अनूप कुमार के नाम कर दिया था।

मुझे किशोर समाधि के पास “प्रिंस मेलोडी मेकर्स ऑरकेस्ट्रा, खण्डवा” की ओर से लगाये गये कुछ पोस्टर दिखाई दिये थे जिनमें किशोर दा के पैतृक निवास को संग्रहालय में बदले जाने की अपील की गयी थी। जन-भावना जो भी हो यह सम्पत्ति किसी भी तौर पर वर्तमान बाजार दर के अनुरूप पंद्रह से बीस करोड की है इसलिये परिजनों द्वारा इसको बेचे जाने की कोशिश किये जाने सम्बन्धी खबरें निरंतर अखबारों में आती रहती हैं। निजी सम्पत्ति होने के कारण निश्चित ही इस सम्बन्ध में निर्णय लेने का सर्वाधिकार किशोर दा के पोते अर्जुन के पास है। किसी समय इस भवन के सम्बन्ध में कोई न कोई निर्णय लिया ही जायेगा और फिर धीरे धीरे तेजी से बढता शहर भूल जायेगा कि इस गली में एक इमारत थी जिसके मुख्य द्वार पर गौरी कुंज अंकित था और सगर्व सामने के गेट पर गांगुली हाउस लिखा हुआ था। किंवदंतिकयाँ रह जायेंगी कि बाँबे बाजार कहे जाने वाले खण्डवा के एक क्षेत्र में 4 अगस्त 1929 को गांगुली हाउस में एक वकील कुंजीलाल के घर किसी आभास कुमार गांगुली का जन्म हुआ था जिसे सारी दुनिया ने किशोर कुमार के नाम से जाना और धीरे धीरे एक शहर ही दुनिया भर में उसकी मखमली, दर्द से भीगी हुई, मस्ती भरी आवाज के कारण पहचाना गया।

किशोर दा को उनका काम, उनके गीत ही अमर रखेंगे; इसके बाद भी क्या यह सही नहीं कि ऐसी स्मृतियाँ आने वाली पीढी के लिये सहेजी जानी चाहिये? आवास के केयरटेकर सीताराम ने संभवत: मेरी अभिरुचि को देख कर अपना बक्सा खोला और उसमें से किशोर दा के कुछ पुराने और दुर्लभ चित्र मुझे दिखाये। वैसे तो मकान में सामने ही एक फोटोफ्रेम में कुछ ब्लैक एण्ड व्हाईट तस्वीरें बेतरतीब सी इस तरह डिस्प्ले पर लगायी गयी हैं जैसे रस्म अदायगी होती है। शाम हो चुकी थी और जब मैं मकान के पिछले हिस्से की ओर गया तो देखा छत के पीछे ही सूरज डूब रहा था। मेरी संवेदनायें तब और सिहर उठीं जब मैंने देखा कि मकान में उपर की ओर पीपल के पेड़ ने अच्छा खासा आकार ले लिया है और उसकी जड़े किसी पैने नाखून की तरह दरारों को खरोंच रहीं हैं, चौड़ा कर रही हैं। शायद यह जान बूझ कर किया जा रहा है कि फिर समय को ही दोष दिया जा सकेगा कि किशोर दा की खण्डवा शहर में स्थित वह आखिरी निशानी खुद ब खुद ढह गयी। यह भवन वाकिफ है कि किशोर ने ही गाया था वह अमरगीत – आने वाला पल जाने वाला है।
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Tuesday, July 07, 2015

बस्तरनामा की समीक्षा उम्मीद में

मेरी कृति बस्तरनामा की पत्रिका उम्मीद में प्रकाशित समीक्षा -