Wednesday, January 29, 2014

अभिव्यक्ति के लिये नक्सलगढ में दुस्साहस भरी पदयात्रा


छब्बीस जनवरी का दिन जब राजपथ पर एक ओर जनजातीय क्रांति का सबसे बड़ा प्रतीक बस्तरिया नायक गुण्डाधुर उतरा हुआ था वहीं ओरछा के इस छोर पर छत्तीसगढ के अनेक पत्रकार और लेखक एकत्रित हो रहे थे। पत्रकारिता का मतलब बुद्धू बक्सा की चीख चिल्लाहट और क्रांति का अर्थ केजरीवाल वाला दृष्टिकोण इतना व्यापक हो गया है कि अखबार अपने ही पत्रकारों के दुस्साहस पर चुप्पी साधे बैठे हैं। जब पत्रकार नेमीचन्द्र जैन की हत्या हुई थी तब भी एक तरह की खामोशी थी यह स्थानीय पत्रकारों का ही माओवादियों पर दबाव था जब उन्होंने जंगल के भीतर की रिपोर्टिंग बंद कर दी, जिसके फलस्वरूप नक्सली प्रवक्ताओं को घटना पर खेद जताना पड़ा। कुछ ही समय के पश्चात यही फिर दोहरा दिया गया जब दक्षिण बस्तर के पत्रकार साईं रेड्डी की बहुत ही निर्मम तरीके से हत्या की गयी। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उन क्षमा याचनाओं का क्या जो माओवादियों के जारी परचों की उद्घोषणायें थीं? छत्तीसगढ में कार्य कर रहा संगठन जिसका मुख्य प्रवक्ता गुडसा उसेंडी अपनी पत्नी के साथ बेहतर पुनर्वास की अपेक्षा में आत्मसमर्पण कर चुका हो वहाँ क्या वैचारिक तौर पर खलबली नहीं मची हुई होगी? जब आत्मसमर्पण के बाद स्वयं गुडसा उसेंडी यह बयान देता हो कि उसने जो कुछ कहा है उनमें से अधिकांश के साथ उसकी सहमति नहीं है और वह स्वयं अनावश्यक हिन्सा का विरोधी रहा है तब क्या जो कुछ बस्तर में होता रहा है उसपर बहुत गंभीरता से सोचे जाने की आवश्यकता नहीं है? और इस कारण से भी अबूझमाड में जारी पदयात्रा और अधिक प्रासंगिक नहीं हो जाती? 

ओरछा से बीजापुर तक अनेको पत्रकार और लेखक पैदल निकल चले हैं। यह यात्रा छब्बीस जनवरी से शुरु हुई है जो कि भारत के गणतंत्र हो जाने का दिवस है और तीस जनवरी को समाप्त होनी है जो अहिंसा के सबसे बडे प्रतीक महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि है। प्रतीकों के अपने मायने होते हैं और पैंसठ साल के हो चुके हमारे गणतंत्र को यह स्मरण ही नहीं कि जाने कैसे उसके मूलभूत सिद्धांतों पर धूल की परत चढती गयी है। यह पदयात्रा केवल पत्रकार साथियों की हत्या का विरोध भर नहीं है, यह संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार को कायम रखने के लिये उठाया गया जोखिम भी है। माओवाद यदि क्रांति की किसी अवधारणा के साथ कार्य करता है तो पत्रकार और लेखकों की निर्मम हत्यायें उसके दावों को झुठलाती हैं, खोखला बनाती हैं। किसी पत्रकार और लेखक की कलम वस्तुत: सच उजागर करने का कदम भर होते हैं वे लाभ-हानि, जय-पराजय जैसे दृष्टिकोण के नहीं अपितु नीर-क्षीर विवेक के प्रस्तोता होते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि व्यवस्था के खिलाफ लिखो तो जेलों में सडो, मुकदमों का सामना करो और नक्सलियों के विरुद्ध कलम चल गयी तो गला ही रेत दिया जायेगा। क्या इन परिस्थितियों के बीच काम करने वालों की स्थिति के विषय में हमारे अखबार चलाने वालों ने और उसके पाठकों ने ठहर कर कभी सोचा है? 

स्थानीय पत्रकार दोधारी तलवार पर चलते हैं। बेहतर तथा शीघ्रातिशीघ्र खबरें प्रस्तुत करने का दबाव रायपुर और दिल्ली से उनपर बना रहता है। वे अपना काम करें तो भी उनकी निष्पक्षताओं पर सवाल लिये खडे करने वालों की कोई कमी नहीं। इन्ही सवालों के कारण जंगल के भीतर का सच उजागर करने वाले पत्रकारों को कभी नक्सली होने का लेबल मिल जाता है तो कभी मुखबिर होने की लानत। हर किसी को कलम से ही शिकायत है और बंदूखें जंगल के भीतर और बाहर मुर्गा तोडने में व्यस्त हैं। इतना ही नहीं स्थानीय मुद्दों, इन पत्रकारों के वस्तविक हक-हुकूकों की जम कर अव्हेलना ही नहीं होती बल्कि दु:ख इस बात का भी है कि स्थानीय अखबारों और संचार माध्यमों तक ने अपने पत्रकार साथियों की दु:साहसी पदयात्रा को खबर बनाना जरूरी नहीं समझा? इन पत्रकारों को उनके अखबारों की ओर से न तो भविष्यनिधि हासिल है न ही बीमा लेकिन इतना तो हो सकता था कि इनके हौसलों को उनका हक और साहिल प्रदान किया जाता?

इस अभियान को सहमति स्वरूप वरिष्ठ लेखक गिरीश पंकज के साथ साथ अनेक पत्रकार जिनमे कमल शुक्ला, बाप्पी रे, रंजन दास, नितिन सिन्हा, लक्षमी नारायण लहरे, नील कमल वैष्णव, अशोक गभेल, लक्षमण चंद्रा आदि आदि के साथ साथ पटना से आये बिहार टुडे से दो पत्रकार भी सम्मिलित हैं। पदयात्रा में 26 जनवरी को पहला पड़ाव ओरछा से 13 किमी दूर जाटलूर में 27 जनवरी को दूसरा पड़ाव होगा, 28 को अगला पड़ाव लंका और 29 को कुटरू होगा, जहां पत्रकारों द्वारा सभा आयोजित होनी है। 30 जनवरी बीजापुर में पदयात्रा का समापन प्रस्तावित है। ओरछा से पदयात्रा के आगे बढने के पश्चात पिछले दो दिनों से इन साथियों की कोई भी खबर किसी भी स्त्रोत अथवा माध्यम से नहीं आ रही है। मैं यह मानता हूँ कि पंखों से नहीं अपितु हौसलों से उडान होती है और यही कारण है कि हमारे ये पत्रकार और लेखक साथी अपनी दुस्साहसी यात्रा अवश्य पूरी कर लेंगे तथा एक आवश्यक संदेश जंगल के भीतर छोड कर आने में सफल होंगे। संचार माध्यमों की इस महत्वपूर्ण खबर पर रहस्यमयी चुप्पी से मुझे कोई शिकायत नहीं उनके लिये दिल्ली है और दिल्ली की सरकार है खूब खबरें छापिये वहाँ की कानून व्यवस्था और वहाँ के कानून मंत्री की; बस्तर के पत्रकार अपनी अभिव्यक्ति का हक गुमनाम लडाईयों से भी हासिल करना जानते हैं। प्रतीक्षा है सथियों आपकी....।

- राजीव रंजन प्रसाद
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Tuesday, January 28, 2014

राजपथ पर गुण्डाधुर



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राजपथ पर गुण्डाधुर को देखना कोई साधारण घटना नहीं थी। भव्य गणतंत्र दिवस समारोह में महामहिम राष्ट्रपति सलामी ले रहे थे और उनके सामने से गुजर रही थी छत्तीसगढ की वह झांकी जिसमें वर्ष 1910 की बस्तर में हुई आदिवासी क्रांति – भूमकाल को प्रदर्शित किया गया था। झांकी के केन्द्र में महान आदिवासी नायक गुण्डाधुर थे जिनके एक कंधे पर तीर तथा दूसरे हाथ डालामिरी अर्थात आम की डाम और लाल मिर्च पकड़ाई गयी थी जो कि तत्कालीन क्रांति का प्रतीक चिन्ह थी। डालामिरी को तब गाँव गाँव घुमाया गया था जिसे स्वीकार करने वाले वस्तुत: उस विद्रोह में शामिल होने की समहति देते थे जो फरवरी 1910 को योजना बद्ध रूप से अचानक फैला और उसने ब्रिटिश प्रशासन को लगभग खदेड़ कर कुछ दिनों तक एक बडे क्षेत्र में मुरियाराज स्थापित करने में सफलता पायी थी। यह कहना आवश्यक हो जाता है कि गुण्डाधुर को आज भारत के ज्ञात आदिवासी नायकों के बीच जो स्थान मिलना चाहिये था वह अभी तक अप्राप्य है। 

छत्तीसगढ सरकार की झांकी ने गुण्डाधुर को राजपथ तक पहुँचा कर इस नायक को उसका वास्तविक सम्मान दिलाने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है। मैं इस अद्भुत झांकी का पूरा श्रेय छत्तीसगढ के उन अधिकारियों को देना चाहता हूँ जिन्होंने गुण्डाधुर को इस तरह जीवंत करने का विचार किया। उन कलाकारों की भूरि भूरि प्रसंशा करना चाहता हूँ जिन्होंने अपनी संकल्पना से एक गुमनाम नायक को मूर्त रूप दिया। गुण्डाधुर और 1910 की आदिवासी क्रांति पर यह केवल झाँकी भर नहीं है बस्तर और बस्तरियों का सम्मान भी है। सुकून है कि बहुत थोडा योगदान इस झांकी की संकल्पना में मेरा भी है। मेरी दोनो पुस्तकें ‘आमचो बस्तर’ तथा ‘बस्तर के जननायक” से गुण्डाधुर के संदर्भ सम्बन्धित अधिकारियों ने प्राप्त किये साथ ही साथ पुस्तक लेखन के समय मैने जहाँ जहाँ से सम्बन्धित उद्धरण प्राप्त किये थे, अंग्रेजों के समय के गजट, रिपोर्त, पत्र आदि के संदर्भ भी मैने मुझसे संपर्क कर रहे अधिकारियों को उपलब्ध कराये थे। 

यह सही है कि गुण्डाधुर पर आज भी बहस जारी है। अंग्रेज कालीन जो भी दस्तावेज उपलब्ध हैं सभी गुण्डाधुर के होने की तस्दीक तो करते हैं किंतु वह कैसा था, वह रहस्यमय तरीके से गायब कैसे हो गया आदि आदि तथ्यों की पुष्टि नहीं हो पाती। जब कहानी का दूसरा सिरा न मिले तो तरह तरह की थ्योरियाँ जन्म लेती है जिसमे से एक के अनुसार राजपरिवार के सदस्य तथा राजा के सौतेले भाई लालकालेन्द्र सिंह भी गुण्डाधुर हो सकते हैं। जगदलपुर में आज भी खडा इमली का पेड उस याद को ताजा करता है जब गुण्डाधुर के साथी रहे डेबरीधुर और माड़िया माझी को भूमकाल (आदिवासी क्रांति) की समाप्ति पर यहाँ सरे-आम फाँसी दी गयी थी। सच तो यह है कि गुण्डाधुर आज भी बस्तर के आदिवासियों का जननायक है यह अलग बात है कि स्वयं को मुख्यधारा कहने वाली दुनियाँ इन कहानियों की अनपढ है। 

अपनी गुमनामी के सौ साल से अधिक बीत जाने के पश्चात राजपथ से गुजरने वाले गुण्डाधुर पर आज चर्चाओं को पुनर्जीवित करना अवश्यम्भावी हो जाता है। बात 1910 की है; अंग्रेजी प्रशासन निरंतर हावी होता जा रहा था जिसके दबाव में भांति भांति के वन कानून लागू किये जा रहे थे जो आदिवासी असंतोष को उकसा रहे थे। बस्तर राजपरिवार के भीतर भी फूट पडी हुई थी और उसका एक धडा भी आदिवासियों के साथ उस भूमकाल का हिस्सा बन गया जिसका उद्देश्य एसी क्रांति था जिसके द्वारा मुरियाराज की स्थापना की जाये। गुण्डाधुर को वर्ष-1910 की जनवरी में ताड़ोकी की एक जनसभा में लाल कालिन्द्र सिंह की उद्घोषणा के द्वारा सर्वमान्य नेता चुना गया (फॉरेन डिपार्टमेंट सीक्रेट, १.०८.१९११)। इसके साथ ही गुण्डाधुर ने अपने भीतर छिपी अद्भुत संगठन क्षमता का परिचय दिया और उसने सम्पूर्ण रियासत की यात्रा की। वह एक घोटुल से दूसरे घोटुल भूमकाल का संदेश प्रसारित करता घूमता रहा। डेबरीधूर उत्साही युवकों का संगठन तैयार करने में लग गया था। इतनी बड़ी योजना पर खामोशी से अमल हो रहा था। इसके पीछे गुण्डाधुर और लाल कालिन्द्रसिंह, दोनों का ही बेहतरीन नेतृत्व कार्य कर रहा था। 'आदिवासी और गैर-आदिवासी' जैसे शब्द मायनाहीन हो गये और "बाहरी" शब्द की परिभाषा ने स्पष्टाकार ले लिया। बाहरी अर्थात अंग्रेज, अंग्रेज अधिकारी, दीवान पण्डा बैजनाथ, पुलिस, डाक कर्मचारी, अध्यापक, मिशनरी। जन-जन तक उसकी अविश्वसनीय तरीके से पहुँच ने किंवदंती प्रसारित कर दी कि गुण्डाधुर को उड़ने की शक्ति प्राप्त है। गुण्डाधुर के पास पूँछ है। वह जादुई शक्तियों का स्वामी है। जब भूमकाल शुरु होगा और अंग्रेज बंदूक चलायेंगे तो गुण्डाधुर अपने मंतर से गोली को पानी बना देगा। आज यह बात आश्चर्य से भर देती है कि तब संचार के उन्नत साधन नहीं थे तब भी डालामिरी संकेत के साथ ही गुण्धाधुर ने इसतरह से भूमकाल आन्दोलन को जोडा था कि ठीक 2 फरवरी 1910 को एक साथ एक ही समय पर पूरी रियासत में विद्रोह प्रारम्भ हो गया और फिर देखते ही देखते इन्द्रावती नदी घाटी के अधिकांश हिस्सों पर दस दिनों में मुरियाराज का परचम बुलन्द हो गया। 

तिथिवार भूमकाल को इस तरह समझा जा सकता है - "२५ जनवरी को यह तय हुआ कि विद्रोह करना है और २ फरवरी १९१० को पुसपाल बाजार की लूट से विद्रोह आरंभ हो गया। इस प्रकार केवल आठ दिनों में गुण्डाधुर और उसके साथियों ने इतना बड़ा संघर्ष प्रारंभ कर के एक चमत्कार कर दिखलाया। ७ फरवरी १९१० को बस्तर के तत्कालीन राजा रुद्रप्रताप देव ने सेंट्रल प्राविंस के चीफ कमिश्नर को तार भेज करविद्रोह प्रारंभ होने और तत्काल सहायता भेजने की माँग की। (स्टैण्डन की रिपोर्ट, २९.०३.१९१०)। विद्रोह इतना प्रबल था कि उसे दबाने के लिये सेंट्रल प्रोविंस के २०० सिपाही, मद्रास प्रेसिडेंसी के १५० सिपाही, पंजाब बटालियन के १७० सिपाही भेजे गये (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। १६ फरवरी से ३ मई १९१० तक ये टुकड़ियाँ विद्रोह के दमन में लगी रहीं। ये ७५ दिन बस्तर के विद्रोही आदिवासियों के लिये तो भारी थे ही, जन साधारण को भी दमन का शिकार होना पड़ा। अंग्रेज टुकड़ी विद्रोह दबाने के लिये आयी, उसने सबसे पहला लक्ष्य जगदलपुर को घेरे से मुक्ति दिलाना निर्धारित किया। नेतानार के आसपास के ६५ गाँवों से आये बलवाइयों के शिविर को २६ फरवरी को प्रात: ४:४५ बजे घेरा गया; ५११ आदिवासी पकड़े गये जिन्हें बेंतों की सजा दी गयी (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। नेतानार के पास स्थित अलनार के वन में हुए २६ मार्च के संघर्ष में २१ आदिवासी मारे गये। यहाँ आदिवासियों ने अंग्रेजी टुकड़ी पर इतने तीर चलाये कि सुबह देखा तो चारो ओर तीर ही तीर नज़र आये (फ़ॉरेन डिपार्टमेंट फाईल, १९११)। अलनार की इस लड़ाई के दौरान ही आदिवासियों ने अपने जननायक गुण्डाधुर को युद्ध क्षेत्र से हटा दिया, जिससे वह जीवित रह सके और भविष्य में पुन: विद्रोह का संगठन कर सके। ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि १९१२ के आसपास फिर सांकेतिक भाषा में संघर्ष के लिये तैयार करने का प्रयास किया गया (एंवल एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट ऑफ बस्तर फ़ोर द ईयर १९१२)। उल्लेखनीय है कि १९१० के विद्रोही नेताओं में गुण्डाधुर ही न तो मारा जा सका और न अंग्रेजों की पकड़ में आया। गुण्डाधुर के बारे में अंग्रेजी फाईल इस टिप्पणी के साथ बंद हो गयी कि "कोई यह बताने में समर्थ नहीं है कि गुण्डाधुर कौन था? कुछ के अनुसार पुचल परजा और कुछ के अनुसार कालिन्द्र सिंह ही गुण्डाधुर थे (फॉरेन पॉलिटिकल सीक्रेट, १.०८.१९१०) बस्तर का यह जन नायक अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण इतिहास में सदैव महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता रहेगा"। 

पूरे आन्दोलन को समग्रता से देखा जाये तो नेतानार का एक साधारण धुरवा आदिवासी अद्धभुत संगठनकर्ता सिद्ध हुआ था। भूमकाल एक बहुत बडा आन्दोलन था जिसने अनेक पक्षों पर विस्तार से किसी एक लेख में बात करना संभव नहीं है। यह समझने की अवश्य कोशिश की जा सकती है कि भूमकाल का अंतत: दमन कैसे हुआ। कहते हैं कि कोण्टा से ले कर कोण्डागाँव तक लड़ी गयी हर बड़ी लड़ाई में गुण्डाधुर स्वयं उपस्थित था। यहाँ तक कि सीधी लडाई में असफल हो रहे अंग्रेजों को इस विद्रोह का दमन करने के लिये षडयंत्र का रास्ता लेना पडा जब अंग्रेज अधिकारी गेयर और दि ब्रेट के साथ सेना की एक टुकडी जगदलपुर पहुँच गयी थी तब तक आदिवासी विद्रोही संख्या और ताकत में अधिक थे। समझौते का बहाना बना कर और आदिवासियों के सामने खुद मिट्टी की सौगंध खा कर गेयर ने मनोवैज्ञानिक अस्त्र साधा था। उसने आदिम समूहों को भी मिट्टी की कसम उठाने के किये बाध्य कर दिया कि जब तक बातचीत की प्रक्रिया चलेगी, विद्रोही आक्रमण नहीं करेंगे। यह चालाकी केवल समय गुजारने भर की थी जिससे कि बहु प्रतीक्षित पंजाबी बटालियन सहित जबलपुर, विजगापट्टनम, जैपोर और नागपुर से भी २५ फरवरी 1910 तक सशस्त्र सेनायें जगदलपुर पहुँच सकें। जैसे ही अंग्रेज शक्ति सम्पन्न हुए तुरंत ही राजधानी से विद्रोहियों को खदेडने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी गयी। अब सरकारी सेना आगे बढ़ती जा रही थी और विद्रोही जगदलपुर से खदेड़े जा रहे थे। कई विद्रोही गिरफ्तार कर लिये गये और कई बस्तर की माटी के लिये शहीद हो गये। 

२५ मार्च २०१०; उलनार भाठा के निकट सरकारी सेना का पड़ाव था। गुण्डाधुर को जानकारी दी गयी कि गेयर भी उलनार के इस कैम्प में ठहरा हुआ है। डेबरीधुर, सोनू माझी, मुस्मी हड़मा, मुण्डी कलार, धानू धाकड, बुधरू, बुटलू जैसे राज्य के कोने कोने से आये गुण्डाधुर के विश्वस्त क्रांतिकारी साथियों ने अचानक हमला करने की योजना बनायी। विद्रोहियों ने भीषण आक्रमण किया। गेयर के होश उड़ गये। एक घंटे भी सरकारी सेना विद्रोहियों के सामने नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई। उलनार भाठा पर अब गुण्डाधुर के विजयी वीर अपने हथियारों को लहराते उत्सव मना रहे थे। नगाडों ने आसमान गुंजायित कर दिया। मुरियाराज की कल्पना ने फिर पंख पहन लिये थे। 

इस विजयोन्माद में सबसे प्रसन्न गुण्डाधुर का एक साथी सोनू माझी लग रहा था। कोई संदेह भी नहीं कर सकता था कि वह अंग्रेजों से मिल गया है। महीने भर बाद मिली इस बड़ी जीत से सभी विद्रोही उत्साहित थे। सोनू माझी ने स्वयं आगे बढ़ बढ़ कर शराब परोसी। सभी ने छक कर शराब और लाँदा पिया। जब निद्रा और नशा विद्रोही दल पर हावी होने लगा तब सोनू माझी दबे पाँव बाहर निकला। वह जानता था कि इस समय गेयर कहाँ हो सकता है। उलनार से लगभग तीन किलोमीटर दूर एक खुली सी जगह पर गेयर सैन्यदल को एकत्रित करने में लगा था। सोनू माझी के यह बताते ही कि विद्रोही इस समय अचेत अवस्था में हैं तथा यही उनपर आक्रमण करने का सही समय है, गेयर को अपनी कायरता दिखाने का भरपूर मौका मिल गया। गेयर ने संगठित आक्रमण किया। गोलियों की आवाज ने अचेत गुण्डाधुर में चेतना का संचार किया। वह सँभला और आवाज़ें दे-दे कर विद्रोहीदल को सचेत करने लगा। नशा हर एक पर हावी था। कुछ अर्ध-अचेत विद्रोहियों में हलचल हुई भी किंतु उनमें धनुष बाण को उठाने की ताकत शेष नहीं थी। हर बीतते पल के साथ गेयर के सैनिक कदमताल करते हुए नज़दीक आ रहे थे। कहते हैं कि इस परिस्थिति को समझ कर गुण्डाधुर ने कमर में अपनी तलवार खोंसी और भारी मन तथा कदमों से घने जंगलों की ओर बढ़ गया। वह जानता था कि उसके पकड़े जाने से यह महान भूमकाल समाप्त हो जायेगा। अभी उम्मीद तो शेष है। कोई विरोध या प्रत्याक्रमण न होने के बाद भी क्रोध से भरे गेयर ने देखते ही गोली मार देने के आदेश दिये थे। सुबह इक्क्सीस लाशें माटी में शहीद होने के गर्व के साथ पड़ी हुई थी। 

छत्तीसगढ सरकार की झांकी वास्तव में गुण्डाधुर पर नयी बहस की शुरुआत बन सकती है। राजपथ पर गुण्डाधुर का सौ साल बाद लाया जाना एक आरम्भ होना चाहिये जहाँ से हम कोशिश करें कि आदिवासी नायक को उसका वस्तविक सम्मान मिल सके जो तीस से अधिक जनजातियों का ही नहीं अपितु गैर आदिवासियों का भी सर्वमान्य नायक था। जिसके प्रभाव का दायरा एक पूरी रियासत थी जो वर्तमान के कई राज्यों से भी बडी भूमि है। गुण्डाधुर भी उसी सम्मान का हकदार है जो झारखण्ड में बिरसा मुण्डा और बिहार में तिलका माझी को हसिल है। हमारा गणतंत्र उन्हीं गुमनाम शहादतों की बुनियाद पर मजबूती से खडा है जिसमें से एक नाम गुण्डाधुर का भी है।    

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Friday, January 17, 2014

बस्तर की जीवंत संस्कृति का हिस्सा है - श्रृंगार


सुड़ी (चूड़ी) तो ले ले नूनी (लड़की)/ तीन तीन पएँसा (पैसा) चार चार आना/ सुड़ी तो ले ले नूनी/ री रेलो रेलाय रेलाय रे रेलो रे रे लोय। मधुर गीत है और मुरिया परिवेश में चूड़ी बेचने वाले और किसी युवती के बीच का वार्तालाप है। इस गीत में जब युवती अपने पास पर्याप्त पैसे न होने की दुहाई देती है तो अंत में फेरी वाला कहता है कि विचमा (फीता) तो ले ले नूनी...और लड़की फिर भारी मन से नकारती है कि मेरे पास चूड़ी तो क्या फीता खरीदने के लिये भी पैसे नहीं हैं। इस मुरिया-कविता के मर्म में सामाजिक अवस्थिति पर बात तो है ही किंतु आदिवासी युवतियों की श्रृंगार आसक्ति पर भी समुचित चर्चा है। बस्तर का आदिवासी समाज रंग-बिरंगा है, सजा-सजीला है और जीवंत है। उसके गीतों में ही देखिये कितनी श्रृंगारिकता है और श्रृंगार पर चर्चा है – “गुगे मारे वंजीते नावा एचाड़ पोयतू नावा इचाड़ पौयतू/ ओना बोना डेरा ते परंज ओवै डेल्टा परंज ओवै डेलटा”” अर्थात “धान खेत मे तितली सूखे, मेरा जूडा हिलता है, हिलता है मेरा जूडा/ उसके घर में मधुमक्खी रहती है, मधुमक्खी रहती””। इन प्राकृतिक और स्वाभाविक बिम्बों के अर्थ तलाशने के लिये बस्तरिया आदिवासी समाज में साज-सज्जा और श्रृंगार पर चर्चा आवश्यक है। 

श्रृंगार का तरीका तथा उसके साज-सामान सभी कुछ प्रकृति और कला की अनुपम युति से तैयार होते हैं। गुदना तो शरीर का प्राथमिक श्रृंगार है ही जिसे बड़े ही चाव से आदिवासी युवतियाँ अपने गाल, छाती, कलाईयों, हथेली के पिछले हिस्से, घुटने के उपर, पैर की उंगलियों पर, पिंडलियों पर अंकित कराती हैं। गुदनारी (गुदना करने वाली स्त्री) जब पत्तों के रस में डुबों डुबो कर किसी नवयुवती के शरीर पर कहीं सर्पाकार आकृतियाँ तो कहीं मोर, फूल या फिर मछली बना रही होती है तब उसे पीड़ा से अधिक सुखानुभूति होते है। युवतियाँ गुनगुनाती भी हैं कि – “ईली ओझिल गोदालि बांहां/ इज्जत गेली मरजद गेली/ घांड़ी दे महां रे अर्थात प्रेमी का नाम अपनी बाँह पर गुदवा कर वह जगहँसाई का पात्र तो बन जायेगी किंतु प्रेमपगा यह परिहास उसे स्वीकार है। आदिवासी युवतियाँ अपनी साफ सफाई और फिर स्वयं को सजाने में पर्याप्त श्रम और कल्पनाशीलता सन्निहित करती हैं। स्नान करते समय कवेलू के टुकड़ों और गोल पत्थरों से शरीर को मल-मल कर साफ किया जाता है। शरीर और हाथ पैरों की सफाई के लिये परम्परागत रूप से मिट्टी का भी प्रयोग किया जाता रहा है, यहाँ तक कि बाल धोने के लिये भी मिट्टी ही प्रयोग में लाई जाती थी। अब साबुन जन सामान्य की पहुँच और परिचय में है अत: मिट्टी से शरीर की साफ सफाई अतीत की बात होने लगी है। अब युवतियों की पहचान लिपस्टिक से हो गयी है और मैने यह पाया कि गाढ़ा लाल रंग होठों को रंगने के लिये पहली पसंद है। आदिवासी समाज में प्राकृतिक रूप से छींद की पत्तियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं जिन्हें चबा कर युवतियाँ अपने होंठ लाल करती रही हैं। आँखों में काजल लगाना भी श्रृंगार का अनिवार्य हिस्सा है। आज मुखड़ा देखने के लिये आईने तो सर्वत्र उपलब्ध हैं अन्यथा तो नदी का निर्मल पानी ही अरण्य के अनुपम श्रृंगार का प्रथम दर्शक हुआ करता था। 

सहभागिता और सामूहिकता बस्तर के आदिवासी समाज की पहचान रही है। एक अवधारणा की तरह पर्व-उत्सवों में, घोटुलों में अथवा नृत्य के अवसरों पर एक जैसा परिधान पहने युवक-युवतियों अथवा चेलक मोटियारियों को देखा जा सकता है। युवतियों के पहनावे बहुत चटखीले रंगों के होते हैं। युवतियाँ प्राय: घुटने तक ‘पाटा’ पहनती हैं किंतु समय के साथ आये बदलाव के कारण अब वे घुटने के नीचे तक ‘लूगे’ पहने लगी हैं। एक समय आदिवासी स्त्रियाँ कमर के उपर के वस्त्रों को ले कर अधिक सजग नहीं थी एवं उपरी भाग को मालाओं आदि से ही सज्जित किया करती थीं। घोटुल के संदर्भों में यह मान्यतायें भी प्राप्त होती हैं कि स्तन तो वो लड़कियाँ ढ़कती हैं जो प्रेम करना जानती ही नहीं; किंतु अब चोलियाँ स्त्रियों के सभी प्रकार के परिधानों का स्वत: ही स्वाभाविक हिस्सा बनने लगी हैं।  

आदिवासी स्त्रियों ने केश से ले कर नाखून तक अपने श्रृंगार के लिये कुछ न कुछ नियत कर रखा है। किसी पक्षी के रंग बिरंगे पंख, किसी जानवर की खाल, किसी हिंसक पशु का नाखून, भांति भांति और रंग रंग के पत्थर, कांच, लकड़ी, बाँस, पत्ते, कौड़ी, नकली मूंगा, मोती की सस्ती मालायें, लाख से बने अलंकार आदि आदि वह सब कुछ आदिवासी युवतियों की साज सज्जा का हिस्सा है जिसे अपनी जडों से कट चुका आधुनिक समाज अकल्पनातीत समझे। आभूषण धातुओं से भी बनाये हाते हैं तथा इनमें चाँदी और पीतल का बहुतायत प्रयोग देखा जा सकता है। सोना भी चलन में हैं जो विशेष रूप से कंठ में पहने जाने वाले आभूषणों में प्रयुक्त होता है। आभूषणों के लिये अन्य प्रयोग में आने वाली धातुओं में कासा, ताम्बा, गिलट आदि प्रमुख हैं। 

बस्तर के लगभग सभी क्षेत्रों में केश-विन्यास में अनेक समानतायें देखने को मिल जाती हैं। आम तौर पर युवतियाँ अपने बालों को लम्बे लाल अथवा सफेद कपड़े में लपेट कर ढीला जूड़ा बनाती हैं। उनका यह जूड़ा दाहिने कंधे की ओर हल्का सा लटकता दिखाई पड़ता है। बाल बनाने की एक अन्य विधि यह भी है कि युवतियाँ लकड़ी का चौकोर किंतु नक्काशीदार टुकड़ा अपने बालों के बीच रख कर उसके चारो ओर लपेट कर अपना जूड़ा बना लेती है। प्राय: मांग बीच से काढी हुई होती है तथा बाल अधिकतम सिर से चिपके रहते हैं। आदिवासी स्त्रियाँ सिर में तेल बहुत अधिक डालती है तथा वे अपने बालों को खींच कर बाँधती है। पड़िया (लकड़ी की कंघी), प्लास्टिक की कंघी, लकड़ी के बने केशपिन, प्लास्टिक की क्लिप अथवा रिबन आदि का बहुतायत प्रयोग केशविन्यास में किया जाता है। सजावट के पश्चात यह संभव है कि अंतिम रूप देने के लिये किसी रंगीन पंख को, गेन्दे के फूल को, आम की पत्ती को, खजूर या ताड़ के पत्तों को ही जूड़े में खोंच दिया जाये। गैर गोंड आदिवासी समाज में केश विन्यास में आंशिक विविधता एवं बहुत हद तक आधुनिकता देखी जा सकती है। भतरा अथवा राजमुरिया आदिवासी समाज में युवतियाँ बहुत सी सजीले जूड़े बनाती हैं जिसे खोसा कहा जाता है। बालों को मनचाहा रूप देने के लिये ककई का प्रचनल रहा है जिसे कंघी का पर्याय मान सकते है। ककई वस्तुत: बाँस की सींकों और धागे के गुंथाव से बनती है। अब केशविन्यास मे भी बाजार का प्रभाव देखा जा सकता है और श्रृंगार में प्रयोग आने वाली वस्तुओं में भी शहरी चमकदमक की झलख घुलने लगी है एसे में आदिवासी समाज कब तक अपनी परम्परागत श्रृंगार की वस्तुओं अथवा केश सज्जा के विशिष्ठ तरीकों को बचा पायेगा कहा नहीं जा सकता। 

कौड़ियों का सिर की सज्जा में अपना ही स्थान है। न केवल जूड़े में कौड़ियों का प्रयोग देखा गया है अपितु माड़िया समाज का कौड़ियों के प्रति आकर्षण इतना अधिक है कि वे अपने मस्तक पर अनेक कड़ियों के रूप में इसे धारण करते हैं। यदि चेहरे की सज्जा को देखा जाये तो सभी आदिवासी जनजातियाँ कानों में बालियाँ पहनती हैं। दक्षिण बस्तर की ओर कान के उपरी हिस्से में कई-कई विभिन्न आकार की बालियाँ पहनने का चलन है जबकि निचले हिस्से में कर्णफूल अथवा खिलवाँ धारण किया जाता है। नाक की सज्जा भी विशिष्ठ होती है, जिसमे दोनो ओर फूली पहनी जाती है जो प्राय: गोल आकार की नक्काशीदार होती है तथा आम तौर पर पीतल या अन्य पीली धातु से निर्मित होती है। नथनी दोनो नाक छिद्रों के बीचोबीच नीचे की ओर धारण की जाती है। गले का श्रृंगार सभी आदिवासी समूहो में मुख्य आकर्षण का केन्द्र होता है। गले को जितनी विविधता और रंगों से भरा जाये उतना ही वह युवतियों की सौन्दर्याभिवृद्धि करता है इसे ध्यान में रखते हुए रंग बिरंगी लाल-सफेद घुंघचियों की माला, घास के बीज की माला, कौड़ियों की माला, मूंगा की माला, काँच-पत्थर और प्लास्टिक की मालायें आदि प्रमुखता से डाली जाती है जो उदर-भाग तक लटकती है। अनेक क्षेत्रों में सिक्कों से बनी “रुपया माला” बहुत चाव से पहनी जाती हैं। गले के अन्य श्रृंगारों में सूता अथवा हँसुली प्रमुख है जिसे प्राय: गिलट अथवा अन्य मिश्रित धातु से बनाया जाता है। गैर-गोंड आदिवासी समाज जैसे राज-मुरिया अथवा भतरा स्त्रियों में चापसरी पहनने का चलन है; पीतल की लगभग एक इंच चौड़ी पट्टी को चापसरी कहा जाता है। बस्तर के हलभी-भतरी क्षेत्रों में मालाओं-दानों से बनी चापसरी भी चलन में है। 

बाहों की साज सज्जा के लिये जो आभूषण हैं उनमें बाँहटा और नागमोरी अधिक चलन में हैं। कुछ समय पहले तक पत्थर के कड़े भी बाहों के श्रृंगार के रूप में दिखाई पड़ जाते थे किंतु अब उनका प्रचलन समाप्त हो गया है। युवतियाँ अधिक सुन्दर दिखने की लालसा में कभी कभी दो-दो बाहटे भी धारण करती हैं अथवा चांदी की नागमोरी पहनी जाती है। कलाईयों में गिलट, मिश्रित धातु अथवा चाँदी से बनाई गयी खाडू (कड़ा) और काँच की चूड़ियों को पहनने का चलन तो है ही। यदा-कदा कलाई में चाँदी के पटे भी पहने जाते हैं। जहाँ तक उंग्लियों का प्रश्न है उसका मुख्य श्रृंगार हैं मूंदियाँ (अंगूठियाँ)। हाथों में एक से अधिक अंगूठी पहनी जाती है यह भी ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि अंगूठी देना अथवा पहनाना न केवक प्रेमप्रदर्शन के लिये होता है अपितु कुछ आदिवासी समाजों में यह सगाई अथवा विवाह प्रथाओं की अनिवार्य शर्त भी है। श्रृंगार में कमर के हिस्से की भी अपनी उपादेयता है और इसके लिये पीतल के छोटे छोटे घुंघरू महति भूमिका अदा करते हैं। कमर में चाँदी की एक पट्टी पहहने का भी चलन रहा है। यदि पैरों की बात की जाये तो पायल उसका मुख्य आभूषण है जिसे पयँड़िया भी कहा जाता है। अपनी बजने वाली प्रवृत्ति के कारण बाजनी पयँड़ी और नहीं बजने के कारण बाकटी पयँड़ी, पहने जाने वाली पायल के दो मुख्य प्रकार है। पयँड़ी आवश्यक नहीं कि चाँदी की हो, यह किसी भी सफेद धातु की अथवा पीतल की भी हो सकती है। पैर की उंग्लियों में चुटकी (छल्ले) और झोटिया (बिछिया) पहनने का चलन है। अंगूठे के बगल वाली दोनो उँग्लियों पर चुटकी पहनी जाती है और शेष दो उंग्लियों में झोटिया पहनी जाती है। बजने वाली बिछिया को बाँजनी झोटिया कह कर सम्बोधित किया जाता है।  

केवल स्त्रियाँ ही क्यों, बस्तरिया पुरुष भी कम सजीले और छैल छबीले नहीं होते। मुख्य परिधान के रूप में इन दिनो युवक आधे बाँह की कमीज और घुटनों तक रंगीन अंगोछे या लुंगी पहनते देखे जा सकते हैं। युवकों आज भी पगड़ी पहनते हैं। भांति भांते के रंगबिरंगे पंख अपनी पगड़ी में खोंसते हैं तथा उसे यदा-कदा कौड़ियों से भी सजाते हैं। गोंड समाज में पुरुष भी अपने बालों को जूड़े का आकार देते हैं। पुरुष पीले धातु की बालियाँ कानो में पहनते हैं। गैर गोंड आदिवासी युवक अपने कानों के निचले भाग में लुड़की (कुण्डल) धारण करते हैं। गले में भी वे रंगीन मालायें पहनते हैं। युवक प्राय: अपनी ‘डगरपोल’ यानी कि माला, को घास के बीजों, मूंगों और मनकों से तैयार करते हैं यदा कदा उसमे साँप के दाँत की बनी मनखिया भी धारण करते हैं। आदिवासी युवक भी बाँहों में बाहँटा और कलाईयों में खाडू (कड़े) धारण करते हैं, इनकी उँगलियों को भी मूंदियाँ (अंगूठियाँ) सजाती हैं। 

बस्तर की जीवंत आदिवासी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है श्रृंगार। समय के साथ बदलाव भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं और शनै: शनै: कथित मुख्यधारा की पहुँच जैसे जैसे जंगल के भीतर तक हो रही है सारा कुछ परम्परागत और पुरातन नष्ट होने लगा है। एसी स्थिति में यह दायित्व अब जागरूक हो रहे आदिवासी समाज का भी है कि कैसे बदलाव और परम्परागतता के बीच सामंजस्य बिठाया जाये और अपनी ही पहचान का किस तरह संरक्षण किया जाये।

-राजीव रंजन प्रसाद
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Friday, January 10, 2014

बस्तर: कुछ समाधान विज्ञान के पास भी हैं



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[समेकित विकास की अवधारणा के लिये धारण क्षमता अध्ययन आवश्यक]
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समस्याओं की बात बहुत हो गयी है। बस्तर के संदर्भ में क्या हमारे पास समाधानों पर भी पर्याप्त विमर्श हैं? संसाधनों या कि जंगल और जमीन के लिये होने वाले संघर्षों का एक लम्बा सिलसिला होने के बाद भी बहुधा यह नहीं हुआ है कि सूखते हुए पत्तों के लिये कभी जड़ों की पड़ताल की गयी हो। यह बात इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है चूंकि हमें ज्ञात है कि यहाँ नक्सलवाद लगातार पाँव पसारती हुई समस्या है जिसके साथ साथ व्यवस्थागत खामियों के कारण आज भी यह वनांचल रोटी, कपडा और मकान जैसी बुनियादी आवश्यकातों की पूर्ति में ही लगा हुआ है। सड़क, बिजली और पानी यदि विकास के प्रतिमान हैं तो वे कभी ठेकेदारों की बंदरबाँट में तो कभी माओवादियों के हमलों-धमाकों से पिसते हुए बस्तर संभाग में मध्ययुगीन परिस्थितियाँ पैदा किये हुए हैं। सरकार के लिये भी इस क्षेत्र में कार्य करने के दृष्टिगत व्यावहारिक दिक्कते हैं। 

यह विचारणीय तथ्य है कि स्वतंत्रता के पश्चात अनेकों परियोजनायें घोषित होने के बाद भी यदि उंगलियों पर गिना जाये तो केवल बैलाड़िला लौह अयस्क परियोजना ही अस्तित्व में है। भारत के अनेकों राज्यों से भी बडे भू-भाग बस्तर संभाग में कोई खनन परियोजना नहीं जबकि खनिजों की भरमार है; कोई पनबिजली अथवा सिचाई परियोजना नहीं जबकि विद्युत उत्पादन की क्षमता वाली नदी घाटियाँ यहाँ अवस्थित हैं और एक प्रतिशत भूमि ही सिचाई की सुविधा से युक्त है; कोई औद्योगिक परिक्षेत्र नहीं जब कि परती भूमि की उपलब्धता भी संभाग में अनेक स्थानों पर है। साथ ही साथ शिक्षित बेरोजगार आदिवासी-गैर आदिवासी युवक युवतियों की फौज खड़ी होती जा रही है।

यह सही है कि जल, जंगल और जमीन की लड़ाईयाँ बस्तर क्षेत्र में मुखर हैं। विकास परियोजनायें घोषित होती हैं और इसके साथ ही उनका व्यापक विरोध आरंभ हो जाता है। यह सिलसिला एक समय में बारसूर (दंतेवाड़ा) में अवस्थित बोधघाट जलविद्युत परियोजना के विरोध से आरंभ हुआ था और फिर नगरनार होता हुआ एसी परिस्थिति तक आ पहुँचा है कि संभाग में अब कोई निवेशक कार्य करने में शायद ही रुचि दिखाये। यह भी एक सत्य है कि परियोजनाओं की घोषणाओं का आधार आर्थिक अवश्य है किंतु पर्यावरणीय एवं सामाजिक अवस्थितियों पर इनकी संकल्पना के साथ साथ चर्चा नहीं होती। यह मान लिया जाये कि परियोजनायें अव्यावहारिक हैं तो भी उन कारकों पर कभी बातें नहीं होती जो उनके न निर्मित किये जाने से उत्पन्न हो सकती हैं। उदाहरण के लिये इन्द्रावती नदी बस्तर से बहती हुई जा कर आन्ध्र के गोदावरी में जलवृद्धि करती है। आन्ध्र को अपने किसानों के लिये पानी चाहिये, नहरों के जाल हैं वहाँ। ऐसा क्यों नहीं होता कि जिन वन क्षेत्रों में ‘पर्यावरण और विकास’ की बहसें सिचाई परियोजनायें नहीं बनने देती वहाँ अपने संसाधन न इस्तेमाल करने के एवज में मुआवजा मिले? हमने इन्द्रावती को बहने दिया लेकिन गोदावरी अगर रोक ली गयी तो आन्ध्र मुआवजा दे अथवा केन्द्र क्षतिपूर्ति निर्धारित करे? गोदावरी नदी की बात करें तो उसके जलागम का लगभग चालीस हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र बस्तर के जंगलों से अबाध बहती सहायक नदियों के कारण है। बस्तर का हक है इस पानी पर। बस्तर ने अपनी नदियों से बिजली नहीं बनायी; अगर इन नदी-संसाधनों का उपयोग होता तो लगभग तीन हजार मेगावाट बिजली उत्पादित करने की क्षमता यहाँ की जलधाराओं में है। यह तर्क स्वीकार है कि वृहत भारत के हित में ये नदियाँ इन जंगलों से तो अबाध ही बहेंगी, लेकिन बिजली न बना पाने की क्षतिपूर्ति बस्तर को क्यों न मिले? इस दिशा में भी सोचा जाना आवश्यक है और इसके लिये हमें समेकित अध्ययन करने की आवश्यकता है। 

जब हम बस्तर जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र की बात कर रहे होते हैं तो हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि यहाँ न केवल विशिष्ट इतिहास अपितु जटिल सांस्कृतिक स्थितियाँ भी मौजूद हैं। इसके साथ साथ खनिज भी इसी क्षेत्र में हैं, बहुमूल्य वनोत्पादों के लिये भी यही क्षेत्र पहचाने गये हैं या कि इमारती लकडियों के लिये भी इसी ओर सभी की दृष्टि टिकी होती है। यहाँ महात्मा गाँधी का वह चर्चित वाक्यांश सामने रखना आवश्यक हो जाता है कि धरती प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता तो पूरी कर सकती है किंतु उसके लालच को नहीं। इसे दृष्टिगत रखते हुए यह सोचना समझना आवश्यक है कि बस्तर संभाग क्षेत्र में विकास की क्या दिशा-दशा होनी चाहिये? यहाँ अवस्थित आदिवासी समाज को उनके ही संसाधनों के लिये क्या, कैसा और कितना हक मिलना चाहिये? किन संसाधनों का दोहन होना चाहिये और किनका बिलकुल भी नहीं। पर्यावरणविद होने के कारण मेरी दृष्टि पहले हरीतिमा पर ही जाती है और उसके बाद ही मैं किसी विकास की अवधारणा से सहमत हो पाता हूँ। इसलिये अपने समाधान पर बात करने से पूर्व थोडी चर्चा बैलाडिला की कर लेते हैं। 

मैने सुदूर संवेदन विषय में एमटेक करने के दौरान बैलाडिला लौह अयस्क खदानों की पर्यावरणीय परिस्थितियों पर अध्ययन किया था। यह बात वर्ष 1996 की है; उस दौरान के सेटेलाईट चित्रों का गंभीरता से अध्ययन करते हुए मलबा निस्तारण और लाल पानी की समस्या की ओर मेरा ध्यान विशेष रूप से गया था। सेटेलाईट चित्रों में यह स्पष्ट होता था कि वे स्त्रोत कौन से हैं जो बहते हुए पानी को निरंतर लाल कर रहे हैं। नदी-नालों की एक सामान्य वृत्ति होती है कि वे एक ओर से मिट्टी काटते हैं और दूसरी ओर अपर्दित सामग्री को जमा करते जाते हैं। चूंकि नदी नाले अपने साथ भारी लौह अयस्क का बुरादा अथवा चूर्ण निरंतर ढोते हुए आगे बढ रहे थे अत: जितना हेमेटाईट अयस्क चूर्ण अपनी रासायनिक अभिक्रियाओं से पानी को लाल रंग दे रहा था उतना ही खतरा नदी-नालों द्वारा उनके तटों पर जमा होने वाली नीली-मिट्टी से भी था। अयस्क धारिता होने के कारण मृदा की उर्वरता बहुत तेजी से नष्ट हो रही थी। परियोजना द्वारा अनेक उपाय किये गये हैं, अनेक चैकडैम आदि बनाये गये हैं जिसके कारण बहुत हद तक इस समस्या का निदान देखा गया है तथापि यदि हम सतत विकास की अवधारणा के साथ एक व्यावहारिक समाधान देखें तो जलागम क्षेत्र प्रबन्धन में इस विकराल और जटिल समस्या का समाधान सन्निहित है। परियोजना क्षेत्र और उसके दस किलोमीटर की परिधि में आने वाले सभी नाले वस्तुत: अनिवार्य उपचार मांगते हैं। इन स्त्रोंतों के उद्गम से ले कर मुख्य सरित में विलीन होने तक यदि स्थान स्थान पर अवरोध खडे किये जायें तो आरंभिक कुछ किलोमीटर में ही लालपानी को निर्मल प्राकृतिक रूप से ही किया जा सकता है। उपाय तो बहुत से हैं लेकिन केवल बोल्डर चैक डैम को उदाहरण की तरह लेते हैं। जैसे जैसे समान अंतराल पर बोल्डर चैक डैम पानी की प्राकृतिक गति के अवरोधक बनेंगे वैसे वैसे साथ बह आने वाली अयस्क मिश्रित अपर्दित सामग्री तल पर जमा होने लगेगी। जितनी पहले यह सामग्री जमा होगी उसे निकाल लेने पर उसके अयस्क तत्व उतने ही अधिक संरक्षित तथा पुनर्प्रयोग में आने योग्य मिलेंगे और इस तरह उपयोगी मृदा का अपरदन भी तत्क्षण ही रुक सकेगा, लाल पानी समस्या का निदान तो इससे होगा ही।

लाल पानी की समस्या का उल्लेख करने के पीछे यह बताना मेरा उद्देश्य है कि विज्ञान और समाजशास्त्र समाधानों के द्वार हैं; केवल उन्हें खटखटा कर देखने की आवश्यकता है। क्या एसा नहीं हो सकता कि हम पहले ज्ञान चक्षु खोलें और उसके पश्चात कोई एसी योजना बनायें जिससे कि बस्तर क्षेत्र का समेकित विकास हो सके? विज्ञान की भाषा में इस तरह के समेकित अध्ययन को धारण क्षमता अध्ययन (कैरिंग कैपेसिटी स्टडी) कहा जाता है। किसी क्षेत्र की धारण क्षमता का अर्थ है उसमे अवस्थित सभी प्रकार के प्राकृतिक, खनिज तथा मानव संसाधनों का समग्रता से अध्ययन कर यह जानना कि कोई भी योजना-परियोजना वहाँ कितनी उपयुक्त सिद्ध हो सकती है। एक एसा ही अध्ययन किया जा सकता है जिसमे क्षेत्र का भूविज्ञान, भू-आकृति, वानस्पतिकी, जीवजगत, समाजशास्त्र, इतिहास आदि आदि सम्मिलित हों। सबसे महत्वपूर्ण है यह कि समाजशास्त्र आधारित अध्ययन का महत्वपूर्ण हिस्सा जनजातीय समीकरण होने के साथ साथ आदिवासियों की आर्थिक अवस्थिति, जीविकोपार्जन के वर्तमान आधार, उनकी सांस्कृतिक विरासतें, उनके रहन-सहन-रिवाज, उनके देवी-देवता, उनके परम्परागत पर्व-तिहार, इलाज-उपचार आदि आदि भी बनेंगे। इस तरह क्षेत्रवार वे संसाधन जिसमे कि मानव भी सम्मिलित है उनके सतत विकास की अवधारना के अनुरूप उपयोग की एक रूप रेखा तैयार की जा सकेगी। इस आधार पर यह सोचा जा सकता है कि वे कौन कौन से खनिज हैं जिनका हमें दोहन करना है तथा कौन से एसे है जिन्हें आगामी पीढी की विरासत के रूप में संरक्षित रखना है। कहाँ परियोजनायें बनाना व्यावहारिक है और कहाँ इनका विरोध समुचित है। यदि कहीं परियोजनाओं को लगाये जाने की संस्तुति है तो उसके साथ साथ क्या क्या सुधारात्मक कार्य होने अवश्यंभावी हैं। विस्थापन और पुनर्वास जैसे संदर्भों को किस प्रकार पूरा किया जायेगा इसका खाका भी पहले ही अध्ययन के माध्यम से बना लिया जा सकता है जो कि नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकता है। 

सुदूर संवेदन तकनीक का विशेषज्ञ होने के कारण यह बात बहुत जोर दे कर कहना चाहूँगा कि क्षेत्र के वे हिस्से जो दुर्गम हैं, जहाँ लाल-आतंकवाद की समस्या मौजूद है तथा जहाँ सीधे तौर पर पहुँच कर वैज्ञानिक अन्वेषण करना संभव नहीं है वहाँ अंतरिक्ष से हमारे भेजे गये उपग्रहों की सजग निगाहें हैं। भांति भांति के उपग्रह आज भारत के पास हैं जिनके चित्र वनों के प्रकार, खनिजो के प्रकार, मृदा के भीतर की अवस्थितियाँ, भूजल की किसी क्षेत्र में स्थिति, जलागम क्षेत्र का घाटीवार विस्तार, प्राणीजगत आदि की जानकारी बखूबी प्रदान कर सकता है। कथनाशय यह है कि यदि परियोजनाओं की घोषणा अथवा बस्तर के विकास पर किसी निर्णय के प्रतिपादन से पहले एक विशेषज्ञ टीम गठित कर एक अथवा दो वर्ष का समय लगा कर व्यापक रूप से इन वनांचल की धारण क्षमता का अध्ययन करा लिया जाये तो सरकार एवं प्रशासन को एक सकारात्मक दिशा प्राप्त हो सकती है। इस अध्ययन में न केवल वनस्पति शास्त्री, जीव विज्ञानी, रसायन शास्त्री, भूगर्भ शास्त्री, सांख्यिकी विशेषज्ञ, समाजशास्त्री, पुरातत्वविद आदि विषय विशेषज्ञ सम्मिलित हों अपितु प्रशासनिक अधिकारियों के साथ साथ अंचल में कार्य करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं का भी सहयोग लिया जा सकता है। इस प्रकार के अध्ययनों में उन ख्यातिनाम संस्थाओं और व्यक्तियों से भी राय ली जा सकती है जो समाज से जुडे मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। 

इस तरह एक वैज्ञानिक तरीके से किया गया धारण क्षमता अध्ययन यह तथ्य बाहर लाने में सहायक हो सकता है कि किन स्थानों को हमें औद्योगिक विकास के लिये चुनना है, किस स्थानों पर खनन की स्वीकृति दी जा सकती है, किन स्थानों पर दुर्लभ प्रजाति के वन व जीव हैं और उन्हें किसी भी कीमत पर बचाना है, आदिवासी समाज के समेकित विकास के लिये किन स्थानों से उनके खेतों तक पानी पहुँचाया जा सकता है, भूजल का उत्थान कैसे हो सकता है, परम्परागत आजीविका के साधनो को कैसे बचाया और बेहतर बनाया जा सकता है, किस तरह आदिवासी संस्कृति का संरक्षण, प्रोत्साहन और उत्थान हो सकता है, आदिवासी नृत्य संगीत और कला को किस तरह दिशा और प्रसार प्रदान किया जा सकता है, आदिवासी उत्पादों को किस तरह समुचित मूल्य और बाजार उपलब्ध कराया जा सकता है। बस्तर एसा सवाल नहीं है जिसका उत्तर ही न हो; हमें अब समस्या नहीं समाधानों पर केन्द्रित होना होगा।

-राजीव रंजन प्रसाद
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