Friday, January 17, 2014

बस्तर की जीवंत संस्कृति का हिस्सा है - श्रृंगार


सुड़ी (चूड़ी) तो ले ले नूनी (लड़की)/ तीन तीन पएँसा (पैसा) चार चार आना/ सुड़ी तो ले ले नूनी/ री रेलो रेलाय रेलाय रे रेलो रे रे लोय। मधुर गीत है और मुरिया परिवेश में चूड़ी बेचने वाले और किसी युवती के बीच का वार्तालाप है। इस गीत में जब युवती अपने पास पर्याप्त पैसे न होने की दुहाई देती है तो अंत में फेरी वाला कहता है कि विचमा (फीता) तो ले ले नूनी...और लड़की फिर भारी मन से नकारती है कि मेरे पास चूड़ी तो क्या फीता खरीदने के लिये भी पैसे नहीं हैं। इस मुरिया-कविता के मर्म में सामाजिक अवस्थिति पर बात तो है ही किंतु आदिवासी युवतियों की श्रृंगार आसक्ति पर भी समुचित चर्चा है। बस्तर का आदिवासी समाज रंग-बिरंगा है, सजा-सजीला है और जीवंत है। उसके गीतों में ही देखिये कितनी श्रृंगारिकता है और श्रृंगार पर चर्चा है – “गुगे मारे वंजीते नावा एचाड़ पोयतू नावा इचाड़ पौयतू/ ओना बोना डेरा ते परंज ओवै डेल्टा परंज ओवै डेलटा”” अर्थात “धान खेत मे तितली सूखे, मेरा जूडा हिलता है, हिलता है मेरा जूडा/ उसके घर में मधुमक्खी रहती है, मधुमक्खी रहती””। इन प्राकृतिक और स्वाभाविक बिम्बों के अर्थ तलाशने के लिये बस्तरिया आदिवासी समाज में साज-सज्जा और श्रृंगार पर चर्चा आवश्यक है। 

श्रृंगार का तरीका तथा उसके साज-सामान सभी कुछ प्रकृति और कला की अनुपम युति से तैयार होते हैं। गुदना तो शरीर का प्राथमिक श्रृंगार है ही जिसे बड़े ही चाव से आदिवासी युवतियाँ अपने गाल, छाती, कलाईयों, हथेली के पिछले हिस्से, घुटने के उपर, पैर की उंगलियों पर, पिंडलियों पर अंकित कराती हैं। गुदनारी (गुदना करने वाली स्त्री) जब पत्तों के रस में डुबों डुबो कर किसी नवयुवती के शरीर पर कहीं सर्पाकार आकृतियाँ तो कहीं मोर, फूल या फिर मछली बना रही होती है तब उसे पीड़ा से अधिक सुखानुभूति होते है। युवतियाँ गुनगुनाती भी हैं कि – “ईली ओझिल गोदालि बांहां/ इज्जत गेली मरजद गेली/ घांड़ी दे महां रे अर्थात प्रेमी का नाम अपनी बाँह पर गुदवा कर वह जगहँसाई का पात्र तो बन जायेगी किंतु प्रेमपगा यह परिहास उसे स्वीकार है। आदिवासी युवतियाँ अपनी साफ सफाई और फिर स्वयं को सजाने में पर्याप्त श्रम और कल्पनाशीलता सन्निहित करती हैं। स्नान करते समय कवेलू के टुकड़ों और गोल पत्थरों से शरीर को मल-मल कर साफ किया जाता है। शरीर और हाथ पैरों की सफाई के लिये परम्परागत रूप से मिट्टी का भी प्रयोग किया जाता रहा है, यहाँ तक कि बाल धोने के लिये भी मिट्टी ही प्रयोग में लाई जाती थी। अब साबुन जन सामान्य की पहुँच और परिचय में है अत: मिट्टी से शरीर की साफ सफाई अतीत की बात होने लगी है। अब युवतियों की पहचान लिपस्टिक से हो गयी है और मैने यह पाया कि गाढ़ा लाल रंग होठों को रंगने के लिये पहली पसंद है। आदिवासी समाज में प्राकृतिक रूप से छींद की पत्तियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं जिन्हें चबा कर युवतियाँ अपने होंठ लाल करती रही हैं। आँखों में काजल लगाना भी श्रृंगार का अनिवार्य हिस्सा है। आज मुखड़ा देखने के लिये आईने तो सर्वत्र उपलब्ध हैं अन्यथा तो नदी का निर्मल पानी ही अरण्य के अनुपम श्रृंगार का प्रथम दर्शक हुआ करता था। 

सहभागिता और सामूहिकता बस्तर के आदिवासी समाज की पहचान रही है। एक अवधारणा की तरह पर्व-उत्सवों में, घोटुलों में अथवा नृत्य के अवसरों पर एक जैसा परिधान पहने युवक-युवतियों अथवा चेलक मोटियारियों को देखा जा सकता है। युवतियों के पहनावे बहुत चटखीले रंगों के होते हैं। युवतियाँ प्राय: घुटने तक ‘पाटा’ पहनती हैं किंतु समय के साथ आये बदलाव के कारण अब वे घुटने के नीचे तक ‘लूगे’ पहने लगी हैं। एक समय आदिवासी स्त्रियाँ कमर के उपर के वस्त्रों को ले कर अधिक सजग नहीं थी एवं उपरी भाग को मालाओं आदि से ही सज्जित किया करती थीं। घोटुल के संदर्भों में यह मान्यतायें भी प्राप्त होती हैं कि स्तन तो वो लड़कियाँ ढ़कती हैं जो प्रेम करना जानती ही नहीं; किंतु अब चोलियाँ स्त्रियों के सभी प्रकार के परिधानों का स्वत: ही स्वाभाविक हिस्सा बनने लगी हैं।  

आदिवासी स्त्रियों ने केश से ले कर नाखून तक अपने श्रृंगार के लिये कुछ न कुछ नियत कर रखा है। किसी पक्षी के रंग बिरंगे पंख, किसी जानवर की खाल, किसी हिंसक पशु का नाखून, भांति भांति और रंग रंग के पत्थर, कांच, लकड़ी, बाँस, पत्ते, कौड़ी, नकली मूंगा, मोती की सस्ती मालायें, लाख से बने अलंकार आदि आदि वह सब कुछ आदिवासी युवतियों की साज सज्जा का हिस्सा है जिसे अपनी जडों से कट चुका आधुनिक समाज अकल्पनातीत समझे। आभूषण धातुओं से भी बनाये हाते हैं तथा इनमें चाँदी और पीतल का बहुतायत प्रयोग देखा जा सकता है। सोना भी चलन में हैं जो विशेष रूप से कंठ में पहने जाने वाले आभूषणों में प्रयुक्त होता है। आभूषणों के लिये अन्य प्रयोग में आने वाली धातुओं में कासा, ताम्बा, गिलट आदि प्रमुख हैं। 

बस्तर के लगभग सभी क्षेत्रों में केश-विन्यास में अनेक समानतायें देखने को मिल जाती हैं। आम तौर पर युवतियाँ अपने बालों को लम्बे लाल अथवा सफेद कपड़े में लपेट कर ढीला जूड़ा बनाती हैं। उनका यह जूड़ा दाहिने कंधे की ओर हल्का सा लटकता दिखाई पड़ता है। बाल बनाने की एक अन्य विधि यह भी है कि युवतियाँ लकड़ी का चौकोर किंतु नक्काशीदार टुकड़ा अपने बालों के बीच रख कर उसके चारो ओर लपेट कर अपना जूड़ा बना लेती है। प्राय: मांग बीच से काढी हुई होती है तथा बाल अधिकतम सिर से चिपके रहते हैं। आदिवासी स्त्रियाँ सिर में तेल बहुत अधिक डालती है तथा वे अपने बालों को खींच कर बाँधती है। पड़िया (लकड़ी की कंघी), प्लास्टिक की कंघी, लकड़ी के बने केशपिन, प्लास्टिक की क्लिप अथवा रिबन आदि का बहुतायत प्रयोग केशविन्यास में किया जाता है। सजावट के पश्चात यह संभव है कि अंतिम रूप देने के लिये किसी रंगीन पंख को, गेन्दे के फूल को, आम की पत्ती को, खजूर या ताड़ के पत्तों को ही जूड़े में खोंच दिया जाये। गैर गोंड आदिवासी समाज में केश विन्यास में आंशिक विविधता एवं बहुत हद तक आधुनिकता देखी जा सकती है। भतरा अथवा राजमुरिया आदिवासी समाज में युवतियाँ बहुत सी सजीले जूड़े बनाती हैं जिसे खोसा कहा जाता है। बालों को मनचाहा रूप देने के लिये ककई का प्रचनल रहा है जिसे कंघी का पर्याय मान सकते है। ककई वस्तुत: बाँस की सींकों और धागे के गुंथाव से बनती है। अब केशविन्यास मे भी बाजार का प्रभाव देखा जा सकता है और श्रृंगार में प्रयोग आने वाली वस्तुओं में भी शहरी चमकदमक की झलख घुलने लगी है एसे में आदिवासी समाज कब तक अपनी परम्परागत श्रृंगार की वस्तुओं अथवा केश सज्जा के विशिष्ठ तरीकों को बचा पायेगा कहा नहीं जा सकता। 

कौड़ियों का सिर की सज्जा में अपना ही स्थान है। न केवल जूड़े में कौड़ियों का प्रयोग देखा गया है अपितु माड़िया समाज का कौड़ियों के प्रति आकर्षण इतना अधिक है कि वे अपने मस्तक पर अनेक कड़ियों के रूप में इसे धारण करते हैं। यदि चेहरे की सज्जा को देखा जाये तो सभी आदिवासी जनजातियाँ कानों में बालियाँ पहनती हैं। दक्षिण बस्तर की ओर कान के उपरी हिस्से में कई-कई विभिन्न आकार की बालियाँ पहनने का चलन है जबकि निचले हिस्से में कर्णफूल अथवा खिलवाँ धारण किया जाता है। नाक की सज्जा भी विशिष्ठ होती है, जिसमे दोनो ओर फूली पहनी जाती है जो प्राय: गोल आकार की नक्काशीदार होती है तथा आम तौर पर पीतल या अन्य पीली धातु से निर्मित होती है। नथनी दोनो नाक छिद्रों के बीचोबीच नीचे की ओर धारण की जाती है। गले का श्रृंगार सभी आदिवासी समूहो में मुख्य आकर्षण का केन्द्र होता है। गले को जितनी विविधता और रंगों से भरा जाये उतना ही वह युवतियों की सौन्दर्याभिवृद्धि करता है इसे ध्यान में रखते हुए रंग बिरंगी लाल-सफेद घुंघचियों की माला, घास के बीज की माला, कौड़ियों की माला, मूंगा की माला, काँच-पत्थर और प्लास्टिक की मालायें आदि प्रमुखता से डाली जाती है जो उदर-भाग तक लटकती है। अनेक क्षेत्रों में सिक्कों से बनी “रुपया माला” बहुत चाव से पहनी जाती हैं। गले के अन्य श्रृंगारों में सूता अथवा हँसुली प्रमुख है जिसे प्राय: गिलट अथवा अन्य मिश्रित धातु से बनाया जाता है। गैर-गोंड आदिवासी समाज जैसे राज-मुरिया अथवा भतरा स्त्रियों में चापसरी पहनने का चलन है; पीतल की लगभग एक इंच चौड़ी पट्टी को चापसरी कहा जाता है। बस्तर के हलभी-भतरी क्षेत्रों में मालाओं-दानों से बनी चापसरी भी चलन में है। 

बाहों की साज सज्जा के लिये जो आभूषण हैं उनमें बाँहटा और नागमोरी अधिक चलन में हैं। कुछ समय पहले तक पत्थर के कड़े भी बाहों के श्रृंगार के रूप में दिखाई पड़ जाते थे किंतु अब उनका प्रचलन समाप्त हो गया है। युवतियाँ अधिक सुन्दर दिखने की लालसा में कभी कभी दो-दो बाहटे भी धारण करती हैं अथवा चांदी की नागमोरी पहनी जाती है। कलाईयों में गिलट, मिश्रित धातु अथवा चाँदी से बनाई गयी खाडू (कड़ा) और काँच की चूड़ियों को पहनने का चलन तो है ही। यदा-कदा कलाई में चाँदी के पटे भी पहने जाते हैं। जहाँ तक उंग्लियों का प्रश्न है उसका मुख्य श्रृंगार हैं मूंदियाँ (अंगूठियाँ)। हाथों में एक से अधिक अंगूठी पहनी जाती है यह भी ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि अंगूठी देना अथवा पहनाना न केवक प्रेमप्रदर्शन के लिये होता है अपितु कुछ आदिवासी समाजों में यह सगाई अथवा विवाह प्रथाओं की अनिवार्य शर्त भी है। श्रृंगार में कमर के हिस्से की भी अपनी उपादेयता है और इसके लिये पीतल के छोटे छोटे घुंघरू महति भूमिका अदा करते हैं। कमर में चाँदी की एक पट्टी पहहने का भी चलन रहा है। यदि पैरों की बात की जाये तो पायल उसका मुख्य आभूषण है जिसे पयँड़िया भी कहा जाता है। अपनी बजने वाली प्रवृत्ति के कारण बाजनी पयँड़ी और नहीं बजने के कारण बाकटी पयँड़ी, पहने जाने वाली पायल के दो मुख्य प्रकार है। पयँड़ी आवश्यक नहीं कि चाँदी की हो, यह किसी भी सफेद धातु की अथवा पीतल की भी हो सकती है। पैर की उंग्लियों में चुटकी (छल्ले) और झोटिया (बिछिया) पहनने का चलन है। अंगूठे के बगल वाली दोनो उँग्लियों पर चुटकी पहनी जाती है और शेष दो उंग्लियों में झोटिया पहनी जाती है। बजने वाली बिछिया को बाँजनी झोटिया कह कर सम्बोधित किया जाता है।  

केवल स्त्रियाँ ही क्यों, बस्तरिया पुरुष भी कम सजीले और छैल छबीले नहीं होते। मुख्य परिधान के रूप में इन दिनो युवक आधे बाँह की कमीज और घुटनों तक रंगीन अंगोछे या लुंगी पहनते देखे जा सकते हैं। युवकों आज भी पगड़ी पहनते हैं। भांति भांते के रंगबिरंगे पंख अपनी पगड़ी में खोंसते हैं तथा उसे यदा-कदा कौड़ियों से भी सजाते हैं। गोंड समाज में पुरुष भी अपने बालों को जूड़े का आकार देते हैं। पुरुष पीले धातु की बालियाँ कानो में पहनते हैं। गैर गोंड आदिवासी युवक अपने कानों के निचले भाग में लुड़की (कुण्डल) धारण करते हैं। गले में भी वे रंगीन मालायें पहनते हैं। युवक प्राय: अपनी ‘डगरपोल’ यानी कि माला, को घास के बीजों, मूंगों और मनकों से तैयार करते हैं यदा कदा उसमे साँप के दाँत की बनी मनखिया भी धारण करते हैं। आदिवासी युवक भी बाँहों में बाहँटा और कलाईयों में खाडू (कड़े) धारण करते हैं, इनकी उँगलियों को भी मूंदियाँ (अंगूठियाँ) सजाती हैं। 

बस्तर की जीवंत आदिवासी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है श्रृंगार। समय के साथ बदलाव भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं और शनै: शनै: कथित मुख्यधारा की पहुँच जैसे जैसे जंगल के भीतर तक हो रही है सारा कुछ परम्परागत और पुरातन नष्ट होने लगा है। एसी स्थिति में यह दायित्व अब जागरूक हो रहे आदिवासी समाज का भी है कि कैसे बदलाव और परम्परागतता के बीच सामंजस्य बिठाया जाये और अपनी ही पहचान का किस तरह संरक्षण किया जाये।

-राजीव रंजन प्रसाद
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