Friday, August 28, 2015

रक्षाबन्धन और बस्तर का दफ़्न इतिहास


रक्षाबन्धन पर बहुत सी कहानियाँ हमारे सम्मुख हैं। अधिकतम कहानियाँ पौराणिक आख्यान हैं तो कुछ भारत के गौरवशाली इतिहास में सद्भावना वाले पन्नों से भी जुड़ी हुई हैं। भविष्य पुराण में इन्द्राणी द्वारा देव-असुर संग्राम के दौरान रक्षा की कामना से इन्द्र को रक्षासूत्र बाँधने का उल्लेख मिलता है। स्कंधपुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में देवी लक्ष्मी द्वारा राजा बलि को रक्षा सूत्र बाँधने का उल्लेख मिलता है। महाभारत का वह प्रसंग जहाँ भरी सभा में दु:शासन द्वारा साड़ी खींचे जाने से द्रौपदी की रक्षा श्री कृष्ण करते हैं उसके परोक्ष में भी एक कथा है जहाँ कृष्ण के जख्मी हाथों में द्रौपदी द्वारा कपडे का टुकडा बाँधे जाने का उल्लेख मिलता है। यह सिलसिला प्राचीन कृतियों और महाकाव्यों से बाहर निकल कर इतिहास की दहलीज पर पहुँचता है। कहा जाता है कि सिकन्दर की पत्नी ने राजा पुरु को राखी बाँध कर अपने पति की रक्षा का वचन लिया था। एक अन्य आख्यान जहाँ यह उल्लेख मिलता है कि मेवाड़ की महारानी कर्मावती ने रक्षासूत्र भेज कर मुगल बादशाह हुमायूं से सहायता माँगी, आक्रांता बहादुरशाह के विरुद्ध मेवाड़ की रक्षा के लिये यह सहायता की गयी थी।
रक्षाबन्धन के पर्व की महत्ता जितनी अधिक है यदि इतिहास टटोला जाये तो उससे जुडे अनेक ऐसे प्रसंग और भी हैं जिन्हें यदि दस्तावेजबद्ध किया जाये तो आने वाली पीढी को अपनी संस्कृति व अतीत को सही तरह से समझने में सहायता मिल सकती है। इसी तरह की एक कहानी सत्रहवीं सदी के बस्तर राज्य से जुडी हुई है। राजशाही का सबसे क्रूरतम पहलू यह हुआ करता था कि शासक बाहरी शत्रुओं से अधिक अपने परिजनों से ही भयभीत रहा करता था। सिंहासन के लिये पिता की हत्या पुत्रों ने, भाई की हत्या भाई ने यहाँ तक कि माताओं ने पुत्रों की भी हत्या करवायी है। वह बस्तर शासन के लिये ऐसा ही कठिन समय था।

बस्तर के राजा राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) की दो रानियाँ थी – रुद्रकुँवरि बघेलिन तथा रामकुँवरि चंदेलिन। रानी रुद्रकुँवरि से दलपत देव तथा प्रताप सिंह राजकुमारों का जन्म हुआ तथा रानी रामकुँवरि के पुत्र दखिन सिंह थे। रानी रामकुँवरि अपने पुत्र दखिन सिंह को अगला राजा बनाना चाहती थी। रामकुँवरि की साजिश के अनुसार राजकुमार दलपत देव को कोटपाड़ परगने तथा प्रतापसिंह को अंतागढ़ मुकासा का अधिपति बना कर राजधानी से बाहर भेज दिया गया। इससे वयोवृद्ध राजा के स्वर्गवास के बाद दखिन सिंह को सिंहासन पर बैठाने में आसानी होती। कहते हैं कि बुरी नीयत से देखे गये सपने सच नहीं होते। दखिन सिंह भयंकर रूप से बीमार पड़ गये। उनके बचने की सारी उम्मीद जाती रही। आखिरी कोशिश दंतेश्वरी माँ के दरबार में की गयी। मृत्यु से बचाने के लिये राजा ने अपने बीमार बेटे को दंतेश्वरी माँ की मूर्ति के साथ बाँध दिया। दखिन सिंह स्वर्ग सिधार गये। लाश के बोझ से रस्सियाँ टूट गयी। माँ दंतेश्वरी के चरणों में राजकुमार का मस्तक पड़ा था। राजा यह सदमा सह नहीं कर सके। एक वर्ष के भीतर ही सन 1721 ई. में स्वर्ग सिधार गये।

राजा के दोनों बेटे उनकी मौत के समय राजधानी से बाहर थे। रानी रामकुँवरि अभी भी षडयंत्र कर रही थीं। मौका पा कर बस्तर का सिंहासन रानी रामकुँवरि के भाई (1721-1731 ई.) ने हथिया लिया। असली वारिस खदेड़ दिये गये। राजकुमार प्रतापसिंह रीवा चले गये और दलपतदेव ने जैपोर राज्य में शरण ली। जैपोर के राजा की सहायता से दलपतदेव ने कोटपाड़ परगना पर अधिकार कर लिया। अब वे बस्तर राज्य के दरबारियों से गुपचुप संबंध स्थापित करने लगे। एक वृहद योजना को आकार दिया जाने लगा और इसके प्रतिपादन का दिन निश्चित किया गया – रक्षाबन्धन। दलपतदेव ने मामा को संदेश भिजवाया कि उन्हें आधीनता स्वीकार्य है तथा वे राखी के दिन मिल कर गिले-शिकवे दूर करना चाहते हैं। संधि का प्रस्ताव पा कर मामा की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। इस संधि से उसका शासन निष्कंटक हो जाने वाला था। वर्ष 1731 को रक्षाबन्धन के दिन दलपतदेव नेग ले कर दरबार में उपस्थित हुए। मामा-भाँजे का मिलन नाटकीय था। भाँजे ने सोचने का अवसर भी नहीं दिया। निकट आते ही अपनी तलवार खींच ली और सिंहासन पर बैठे मामा का वध कर दिया (दि ब्रेत, 1909)। इस तरह दस साल भटकने के बाद दलपत देव (1731-1774 ई.) ने अपना वास्तविक अधिकार रक्षाबन्धन के दिन ही प्राप्त किया था।

रक्षाबन्धन के दिन अपना राज्याधिकार योग्यता, युक्ति, साहस तथा रणनीति के बल पर हासिल करने वाले राजा दलपत देव के नाम पर की जगदलपुर राजमहल की पृष्ठभूमि में अवस्थित दलपतसागर ताल है जिसे बाहरी आक्रांताओं से राजधानी को सुरक्षित रखने के लिये उन्होंने ही खुदवाया था। राज-पाट की कहानियाँ एक तरफ लेकिन रक्षाबन्धन से जुडी इस कहानी से पर्व की महत्ता और बढ जाती है। रक्षाबन्धन का यह प्रसंग बस्तर के इतिहास का गर्व से भरा पन्ना भी है।
 -दैनिक छ्त्तीसगढ में प्रकाशित 

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Sunday, August 02, 2015

मीनाकुमारी, सारथी - पासवान और बुद्ध का रास्ता

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“मीना कुमारी हमको बहुत पसंद है सर इसलिये अपनी घोड़ी का नाम भी यही रख दिये हैं”। सुरेन्द्र पासवान, जो राजगीर में मेरे सारथी थे, कुछ मुस्कुराकर और थोड़ी उँची आवाज में बोले।

मौसम मनोनुकूल था, बादल छाये हुए थे और हवा की सामान्य से कुछ तेज गति होने के कारण ‘टमटम’ से परिभ्रमण आनंददायी हो गया। यथानाम तथा गुण, मीनाकुमारी की सधी हुई चाल थी उसपर गले में लगे पट्टे पर से एक ही धुन में बजते घुंघरु…..। मसीही कैलेंडर में जहाँ से शून्य शुरु होता है उससे भी कई हजार साल पीछे जाने पर ही राजगीर (राजगृह) के वैभव की कल्पना संभव है। उस महाराज जरासंध की राजधानी थी यह मगध भूमि जिन्हें परास्त करने के लिये कौटिल्य के आगमन से बहुत पहले ही कृष्ण को कुटिलता की दीक्षा भीम को प्रदान करनी पडी थी जिसके फलस्वरूप विलक्षण वरदान से सुरक्षित उस महाप्रतापी नरेश की मलयुद्ध में हत्या हो गयी। नन्दों के उत्थान और पतन, अनेकों राजवंशों की गौरवपूर्ण राजधानी रहने, समकालीन दो महानतम दिव्यात्माओं – भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के द्वारा पवित्र की हुई यह भूमि पाँच पहाडों से घिरी और हरी भरी है।

एसा क्यों है कि हम भारतवासियों को अपने वास्तविक इतिहास को उकेरने, खोजने तथा उसके वैज्ञानिक प्रामाणिकरण में बहुत रुचि नहीं है। दु:ख है कि हमारा इतिहास भी जातिवादी-वर्गवादी तथा विचारधारावादी है। एक ही स्थान पर अलग अलग सोच वाले लेखक उपलब्ध जानकारियों को अपनी सोच के अनुरूप मोड़ते और घुमाते रहते है। नालंदा अंग्रेजों ने खोज दिया, जमीन से आपके लिये निकाल दिया वरना तो हम भूल ही बैठे थे। अभी 10% भी खुदाई पूरी नहीं हुई है लेकिन लगता है हमे ही कोई जल्दीबाजी नहीं है एक मुहावरा कहता भी है अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम…..लेकिन मेरे टमटम में लगी घोड़ी मीनाकुमारी न तो अजगर थी और न ही पंछी इस लिये पर्वतीय चढ़ाईयों में उसकी गति बदल जाया करती थी।

वेणुवन अर्थात भगवान बुद्ध का वर्षा प्रवास स्थल जो सौभाग्य से अभी भी हरा भरा है, वहाँ से गुजरते हुए मैने पासवान जी से पूछा कि कितनी कमाई हो जाती है दिन भर मे? उन्होंने अपनी व्यथाकथा की शुरुआत मीनाकुमारी के चारे से की। बोले – “सर कमाई हो या नहीं हो दो सौ रुपिया का चारा तो आपको चाहिये ही। ऑफ सीजन में तो चारा ही निकलता रहे, थोड़ी बहुत खेती बाड़ी से घर चल जाता है। सीजन में कमाई हो जाती है। अभी आप अकेला आदमी टमटम रिजर्व करा कर जितना में घूम रहे हैं उतना तब दो सवारी से ही निकल जाता है”।

“अच्छा है चार महीना जम कर काम कीजिये और बाकी दिन आराम भी मिल जाता है”। मैंने कहा।

“आराम करना कौन चाहता है सर!! सवारी से ही रोजी रोटी है। लेकिन अब बहुत मुश्किल आ गया है”। पासवान जी की आवाज दबी हुई थी।

“क्या हुआ?” मेरी जिज्ञासा बढी।

“सर अब टैक्सी आ गया है, कार आ गया है एसे में टमटम को लोग भूलते जा रहे हैं। आदमी पटना से आता है तो वहीं से कार करके चला आता है। लोकल में भी खूब टैक्सी वाला सब हो गया है। आगे ये टमटम चलेगा नहीं, खतम हो जायेगा।“

बात तो सही है। पर्यटन केवल मौजमस्ती नहीं है। आप जब घूमने निकलते हैं तो महसूस कीजिये कि उससे बहुत से रोजगार आपकी ओर इस उम्मीद से देख रहे हैं कि अगर हमारी उपयोगिता आपने ही नहीं समझी तो मिट ही जायेंगे हम।

“कौन चीज हमेसा रही है सर!! इसी जगह बड़े बड़े राजा थे आज कोई भी नहीं बचा, उनकी पीढी भी खतम हो गयी।“ अपनी रौ में पासवान जी बोल रहे थे और मै महसूस कर रहा था कि सचमुच क्या टमटम के आनंद का टैक्सी कभी विकल्प बन सकती है? आखिर क्यों विलुप्त हो जायें ये सवारियाँ? केवल इस लिये कि हमारी सोच को आधुनिक होने का अहंकार हो गया है? विचार का क्रम टूटा बगल से एक ट्रैक्टर गुजर रहा था जिसमे कोई गीत बहुत तेज बज रहा था। गानें में मैं केवल दो ही शब्द समझ सका ‘भौजाई’ और ‘देवरवा’।

“पहले हमारे टमटम में भी म्यूझिक सिस्टम था सर, प्रसासन नें हटवा दिया” पासवान जी नें बुझे स्वर में कहा।

“ट्रैफिक में डिस्टर्ब होता होगा।“ मैं उनके चेहरे के मनोभाव देख मुस्कुरा दिया।

“ट्रैक्टर में काहे लगा है? कार में और टैक्सी में भी लगा है, बस वाला भी लगा के रखा है। बहुत सा सवारी आता है और डिमांड करता है”। अबकि पासवान जी बिदक गये और स्वर भी तेज हो उठा था।

मैं मौन हो गया, या कहूँ कि निरुत्तर। अजीब बाजारवाद है जिसमे मरती हुई चीज ही मारी जाती है? हम भी जाने दो, चलता है और यस बॉस के युग में जी रहे है शायद इन बातों से फर्क ही नहीं पड़ता हमें। सुरेन्द्र पासवान के सरोकार हमारे अपने सरोकार क्यों नहीं बन पाते? मैं अभी भी नाउम्मीद नहीं हुआ था पूछ ही बैठा “आप लोगों की यूनियन वगैरह नहीं है क्या?”

“है सर। सीटू से जुड़े हैं हम लोग। यहाँ कुछ भी बात होती है तो दिल्ली तक जाती है और वहीं फैसला होता है।“ पासवान ने बताया।

“मन के अनुसार परिणाम मिल जाते हैं आपको? काम हो जाता है?” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी।

“हम लोगों का बात दिल्ली में कौन सुनता है सर? जब जरूरत पड़ता है और बंद कराना है या हड़ताल कराना है तब तो टमटम वाला सबका याद पड़ जाता है लेकिन उसके बाद कौन जानता है कि घोड़ा को दाना मिलता है कि नहीं?” पासवान जी की वेदना उनकी ज़ुबान पर थी।

टमटम वालों की समस्याओं जैसे नितांत स्थानीय सरोकार भी अगर समाधान के लिये दिल्ली का मुँह ताकते हैं तो मुझे यह कहने में गुरेज नहीं कि कभी कोई समाधान नहीं निकलेगा। अगर मजदूर और किसान नेता जमीनी लड़ाईयाँ छोड़ कर यह महसूस करते हैं कि दिल्ली से जुड़ कर उनकी शान बढ़ती है तो मान लीजिये कि आप केवल इस्तेमाल की वस्तु हैं। शायद आम आदमी के वास्तविक सरोकारों का किसी कोल्हू में घुमा घुमा कर तेल निकाल दिया गया है इसीलिये न तो अब सही मायने लिये मजदूर किसान आन्दोलन ही जीवित बचे न ही वैसे जीवट नेता जिनकी मुट्ठिया तन जायें तो हजारों हाँथ एक साथ इंकलाब उद्घोष करते उपर उठें। सरोकार बस्तर से ले कर राजगीर तक रूप बदल बदल कर भी एक जैसे हैं लेकिन उन्हें सुनने वाले कानों की जगह दिल्ली नें खरीद ली है कुछ मोमबत्तियाँ।…..और मैं केवल कुछ पंक्तियाँ लिख कर अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता। यह वायदा है मीनाकुमारी और उसके सारथी से कि अब किसी भी स्थान पर घूमने जाउंगा तो सबसे पहले तलाश करूंगा वहाँ की स्थानीय सवारी की, वह घोड़ा हो, उँट हो या रिक्शा ही क्यों न हो। आभार! आज से पहले मैने इस तरह कभी सोचा न था।
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(पुरस्कृत कृति "मौन मगध में" से एक अंश)