Friday, August 10, 2007

मैनें जीना सीख लिया है..



मैनें जीना सीख लिया है
तुमनें सोचा था सुलगता धुवां धुवां होगा
बिखर जायेगा खुद्-ब-खुद खुद से
राख हो जायेगा बुझेगा जब..

तुमने सोचा न था कि अंबर है
मेरी आँखों में आ के ठहरा सा
तुमने सोचा न था कि सागर है
मेरे दिल ही में एक गहरा सा
तुमनें तो आग दे के देख लिया
खुश हुए दिल कि जल गया होगा..

भाप बन कर के उड गया सागर
और बादल बना गमों का सा
आँख से फिर बरस पडा सावन
देख लो बुझ गया है मेरा मन..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१२.११.१९९५

Wednesday, July 25, 2007

मछली की आँखें




मेरी अमावस्या इस लिये है
कि मेरा चाँद
मेरी आँखों की बाहों में लिपट गया है
और कुछ दीख नहीं पडता
सिर्फ मछली की आँखें..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२१.०२.१९९७

Wednesday, July 11, 2007

हर बार

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

एकांत
ध्यानमग्न बगुला
एकदम से ताल के ठहरे पानी पर झपटा
पानी भवरें बनानें लगा
उसकी परछाई लहरानें लगी
वह शांत हुआ
पंजे में कुछ न था
मछली या कि अपनी ही परछाई

फिर वही एकांत
वही ध्यानमग्न बगुला
वही ठहरा हुआ पानी
वही परछाई..

मछली तो फसेगी आखिरकार
क्योंकि उसे नहीं पता
चरित्र और चेहरे एक नहीं होते
और मैं हर बार देखता हूं
झपटते हुए बगुले को
अपनी ही परछाई पर..

*** राजीव रंजन प्रसाद
७.०१.१९९५

Monday, July 09, 2007

तस्वीरों को..


सिर्फ तुम्हारी चंद तस्वीरें मेरे पास हैं
और तुम कहीं भी नहीं

तुम्हें भूल जाने की कोशिशें तो की हैं
लेकिन जला नहीं पाता उन तस्वीरों को
एक सोच सुलग जाती है हर बार
तुम्हारी तस्वीर मेरी आँखें झुलसा देती है
और अपनें अंतिम-संस्कार पर
तुम्हारी उन्ही उदास तस्वीरों को
फिर रोता पाता हूँ..

*** राजीव रंजन प्रसाद
९.०३.१९९८

Friday, July 06, 2007

अपना ही कलेजा बुझा लिया..


मनाओ कि दिवाली है तुम्हारी
कि दिल जले..

इस दिलजले के दिल को जला कर की रोशनी
आँखों में कुछ धुवां सा गया
आँख नम हुई
मैनें जो कहा था तो बताओ ये सच है न
तुम मतलबी हो यार, बहुत मतलबी हो यार
मुझे फिर जला गये समूचा जो रो दिये
फिर रो के भी अपना ही कलेजा बुझा लिया..

*** राजीव रंजन प्रसाद
५.१०.१९९८

Tuesday, July 03, 2007

चाँद पूनम का और क्षणिकायें


चाँद पूनम -१

वस्ल की रात
पलक मूंद कर पाया मैनें
हर तरफ चाँदनी की खुशबू थी
आँख जो मेरी खुली, तुमने बन्द की आखें
आज पूनम का चांद निकला है
मैंनें चंदा रखा हथेली पर
झील हैं जान आपकी आँखें
चाँद इस तरह सहम कर बोला
जैसे डूबेगा तो खो जायेगा...

चाँद पूनम -२

चाँद पूनम सा तुम्हारा चेहरा
और घनघोर अमावस गहरा
चाँदनी आग लगाती है
और कतरा कतरा शबनम
पलक पंखुडी पर पडी है
आज फिर रात बहुत काली है
इस मुलाकात फिर वही बातें
वस्ल में हिज़्र की तडप फिर फिर..

चाँद पूनम -३

चाँदनी रात जलाती क्यों है
याद इस तरह से आती क्यों है
चाँद पूनम का आज निकला है
और मेरी निगाह में डूबा
जिस तरह मैं तुम्हारी आखों में
डूब जाता था
मेरा तुम्हारा और चाँद का
जो वस्ल में नाता था
वो हिज़्र मे मेरा, चाँद का और यादों का रह गया है..

चाँद पूनम -४

वस्ल का चाँद मुस्कुराता है
हिज़्र का अश्क बहाता है
रात कल किस तरह उदास रही
आँख को यार की तलाश रही
आज पूनम का चाँद सीनें पर
सिर रखे चुप का इशारा मुझको
कर के सुनता है कहकहे तम के..

चाँद पूनम -५

चाँद पूनम के मेरे
ज़ुल्फ न बिखरा के रखो
बादलों से न ढको आज ये अपना चेहरा
एक बिन्दी कि नज़र न लगे...
नज़ारों को भी खबर हो
चाँदनी के जलाने का राज़ गहरा
शर्म से पिघल जाता है मेरा चाँद
पा कर मेरी निगाह का पहरा..

***राजीव रंजन प्रसाद
११.११.२०००

Monday, June 25, 2007

कुछ टूट गया है...



सागर न समाओगे कि कुछ टूट गया है
जीता ही जलाओगे कि कुछ टूट गया है..

हँस हँस के किसी कोर के अश्कों को रौंद कर
क्या क्या न बताओगे कि कुछ टूट गया है..

अपनी तलाश में कि जो तुम चाँद तक गये
क्या लौट भी पाओगे कि कुछ टूट गया है..

चेहरे पे नया चेहरा लिये मिल जो गया वो
क्या हाँथ मिलाओगे कि कुछ टूट गया है..

हर ओर पीठ पीठ है "राजीव" भीड में
क्या साथ निभाओगे कि कुछ टूट गया है..

*** राजीव रंजन प्रसाद
११.०२.२००७

Friday, June 22, 2007

उजालों नें डसा



हर किरन चाहती है
कि हाथ थाम ले मेरा
और मैं अपने ही गिर्द
अपने ही बुने जालों में छटपटाता
चीखता/निढाल होता
और होता पुनः यत्नशील
अपनी ही कैद से बाहर आना चाहता हूं

काश कि अंधेरे ओढे न होते
तुम्हारी तरह मज़ाक समझा होता
अपना साथ, प्यार, भावना
संबंधों की तरलता
लोहित सा उद्वेग
तमाम चक्रवात, तूफान, ज्वार और भाटे

काश कि मेरा नज़रिया मिट्टी का खिलौना होता
किसी मासूम की बाहों या कलेजे से लगा नहीं
किसी खूबसूरत से मेजपोश पर
आत्मलिप्त..खामोश
जिसकी उपस्थिति का आभास भी हो
जिसकी खूबसूरती का भान भी हो
जिसके टूट जाने का गम भी न हो
जो ज़िन्दगी में हो भी
और नहीं भी..

काश कि मेरा मन इतना गहरा न होता
काश कि होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश कि मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने
तुम्हारे चेहरे को आइना समझ लिया
आज भान हुआ
कितनी उथली थी तुम्हारी आँखें
कि मेरा चेहरा तो दीखता था
लेकिन मेरा मन और मेरी आत्मा आत्मसात न हो सकी तुममें

काश कि तुम्हे भूल पाने का संबल
दे जाती तुम ही
काश कि मेरे कलेजे को एक पत्थर आखिरी निशानी देती
चाक चाक कलेजे का सारा दर्द सह लेता
आसमां सिर पे ढह लेता तो ढह लेता..
गाज सीने पे गिरी
आँधियां तक थम गयी
खामोशियों की सैंकडों परतें जमीं मुझ पर तभी
आखों में एक स्याही फैली..फैली
और फैली
समा गया सम्पूर्ण शून्य मेरे भीतर
और "मैं" हो गया
मुझे पल पल याद है
अपने खंडहर हो जाने का

काश कि हवायें बहना छोड दें
सूरज ढलना छोड दे
चाँद निकलना छोड दे
नदियाँ इठला कर न बहें
तितलियाँ अठखेलियाँ न करें
चिडिया गीत न गाये
बादल छायें ही नहीं आसमान पर
काश कि मौसम गुपचुप सा गुज़र जाये
काश कि फूल अपनी मीठी मुस्कान न बिखेरें
काश्...
काश कि एसा कुछ न हो कि तुम्हारी याद
मेरे कलेज़े का नासूर हो जाये
कि अब सहन नहीं होती
अपना ही दर्द आप सहने की मज़बूरी....

और वो तमाम जाले
जो मैंने ही बुने हैं
तुम्हारे साथ गुज़ारे एक एक पल की यादें
तुम्हारी हँसी
तुम्हारी आँखें
तुम तुम सिर्फ तुम
और तुम
और तुम
रग रग में तुम
पोर पोर में तुम
टीस टीस में तुम

धडकनें चीखती रही तुम्हारा नाम ले ले कर
और अपने कानों पर हथेलियाँ रख कर भी
तुम होती रही प्रतिध्वनित भीतर
तुमनें मुर्दों को भी जीनें न दिया
अंधेरे ओढ लिये मैनें
सचमुच उजालों से डर लगता है मुझे
जबसे उजालों नें डसा है
कि तुमनें न जीनें दिया न मारा ही

*** राजीव रंजन प्रसाद
१६.०४.१९९५

Thursday, June 21, 2007

मैं मोम नहीं हूँ..




पूरी रात पिघलता रहा हूँ
समूचा दिन जम कर थमा रहा
एक हलकी सी चिन्गारी
एक ठंडी बर्फ सा अहसास
दोनों ही की कशमकश जीनें नहीं देती..

बोलो कि अपना पागल कलेजा
किस पिंजरे में कैद करूंगा
बोलो कि आवारा अंधेरा
जो मुझे छेड जाता है
किससे करूंगा शिकायत
एक तमन्ना ही नें मुझे
जाने कितने सांचों में ढाला निकाला
मेरे प्यार मैं मोम नहीं हूं
लेकिन हो जाता हूँ...

*** राजीव रंजन प्रसाद
१९.०४.१९९७

Monday, June 18, 2007

मछली और क्षणिकायें..


मछली -१

मुझे पानीं से निकाल कर
यूं हथेली पर न रखो
जानम तुममें डूबा हुआ ही ज़िन्दा हूं मैं..


मछली -२

मेरी सोन मछली मेरी जल परी
यूं डुबक पानी में उतर
अनगिनत भँवरें गिनता मुझे छोड
हर पल डूबती उतराती हुई तुम
बार बार करीब आ कर जाती हुई तुम
क्यों चाहती हो कि
जाल फेंक तुम्हें उलझा लाऊं

मछली -३

हर बार सोचता हूँ
उस एक मछली को
जिसनें सारा तालाब उथल पुथल कर रखा है
काँच के मर्तबान में कैद कर दूं
और अपनी आँखों में
पार्थ का चिंतन..

मछली -४

उस चटुल मछरिया नें
मेरी आँखों में डूब कर कहा
तुम बहुत गहरे हो..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२०.०४.१९९७

Friday, June 15, 2007

ज़ुल्फ और क्षणिकायें

ज़ुल्फ -१


उसनें कहा था
हवाओं में खुश्बू भरी होगी मुझसे दूर
मेरे ज़ुल्फों के खत पुरबा सुनायेगी तुम्हे
ये क्या कि ज़हर घुला है हवाओं में
एक तो जुदाई का मौसम
उसपर तुम्हारी तनहाई का दर्द
हवाए कहती हैं मुझसे..



ज़ुल्फ -२



तुमने ज़ुल्फें नहीं सवारी हैं
घटायें कहती हैं मुझसे
बेतरतीब चाँद भला सा नहीं लगता
बादलों में उलझा उलझा सा
हल्की सी बारिश से नहा कर निकला
उँघता, अनमना, डूबा सा
झटक कर ज़ुल्फें
खुद से खींच निकालो खुद को
सम्भालो खुद को..



ज़ुल्फ -३



ज़ुल्फों के मौसम फिर कब आयेंगे?
बिलकुल भीगी ज़ुल्फें
एकदम से मेरे चेहरे पर झटक कर
चाँद छुपा लेती थी अपना ही
मैं चेहरे पर की फुहारों को मन की आँखों से छू कर
दिल के कानों से सूंघ कर
और रूह की गुदगुदी से सम्भालता खुद को
फिर तुम्हे ज़ुल्फों से खीच कर
हथेलियों में भर लिया करता था…



तुमने ज़ुल्फें मेरी आँखों में ठूंस दी हैं
अब तो पल महसूस भी न होंगे, गुजर जायेंगे
ज़ुल्फों के मौसम फिर कब आयेंगे..



ज़ुल्फ -४



ज़ुल्फों के तार तार खींचो
उलझन उलझन को सुलझाओ
तुम खीझ उठो तो ज़ुल्फों को
मेरी बाहों में भर जाओ
मेरी उंगली से बज सितार
बुझ जायेंगे मन के अंगार
मैं उलझ उलझ सा जाउंगा
खो जाउंगा भीतर भीतर
हो जाउंगा गहरा सागर..



ज़ुल्फ -५



बांध कर न रखा करो ज़ुल्फें अपनी
नदी पर का बाँध ढहता है
तबाही मचा देता है
एसा ही होता है
जब तुम एकाएक झटकती हो
खोल कर ज़ुल्फें..



ज़ुल्फ -६



टूट गया
बिखर गया
सपनों की तरह मैं
कुचल गया
पिघल गया
मोम हो गया जैसे
फैल गया
अंतहीन समंदर की तरह मैं
खो गया
खामोश था
रात हो गया जैसे
और तार तार था
उलझी सी गुत्थी बन
ज़ुल्फ हो गया तेरी..



ज़ुल्फ -७



मुर्दा चाँदनी का कफन
जला देता है
कफन तो कफन है
ज़ुल्फ ढांप दो..



*** राजीव रंजन प्रसाद
७.०१.१९९६

Wednesday, June 13, 2007

मासूम जख्म..


जैसे गिलहरी कुतरती है दाने
मासूमियत से, बहुत हौले
तुमने सिर्फ छिलकों सा कर दिया है मन..
कितनी भोली तुम्हारी आँखों का
मुझको जो चीर गया था सावन
मैनें फिर डूब कर के तुममें ही
बूँद प्यारी सी तेरी पलकों से
अपनी उंगली पे थाम ही ली थी
जैसे सीने का अपने ही पत्थर
मैनें कंधे पे रख लिया अपनें
जैसे कि झुक गयी कमर मेरी
जैसे कि उम्र बीत जाती हो..
फिर वो मोती निगाह से छू कर
पी गया चूम कर वही सागर
तुमने सूनी सी आँख से देखा
जैसे कुछ भी न शेष हो तुम पर
फिर हवा बोलती रही केवल
और मछली की आँख आखों में
ले के बुत ही हो गया था मै
फिर न तुम्हे याद रहा कैसी घटा
फिर न मुझे याद रही वो टीसें
एक हल्का सा जो गुलाब खिला
तेरे भीगे हुए कपोलों पर
मेरे मन में उडे कबूतर फिर
फिर भी मैं क्यों बिखर गया हूं फिर
फिर भी मेरा वज़ूद क्यों खोया
ए मेरे प्यार, मेरी नज़्म, मेरे दिल
तेरी आँखों के अश्क खंजर हैं
मुझको क्यू कर सहे नहीं जाते
दोनो हाथों में ले के हौले से
जैसे कुतरा किये गिलहरी हो
तेरे मासूम ज़ख्म तो हैं पर
मेरे अहसास सह नहीं पाते..
*** राजीव रंजन प्रसाद
१४.११.१९९५

Monday, June 11, 2007

अगर आदमी नहीं होता


तुमने मुझको गलत तराशा है
मैं गुलाब की पंखुडी होता
या कि ताज के संगमरमर का टुकडा कोई
या कि बादल..
मोर का पंख हो गया होता
या कि उसकी पलकों में ठहरता मोती
या कि मेरी रूह किनारा होती
किसी दूर दीख पडते अंतहीन मझधार का..

तुमने पानी को आग से बांधा
तुमने पीडा को राग से बांधा
तुमने सागर भरा है सीने में
तुमने दिल मोम का बनाया है
तुमने मन से पतंग बांधी है
तुमने दरिया को दरख्त कर दिया है
तुमने सोचा ये किस किये
सागर सूख जाता तो बस हवा होता
मैं अगर आदमी नहीं होता
खुदा होता..

*** राजीव रंजन प्रसाद
९.०१.१९९६

Sunday, June 10, 2007

नाउम्मीदी..

पेड के बिलकुल उपर की
फुनगी पर बैठी खमोशी
मेरी निगह से अनबोली सी
देखती रही एकटक
ओह कि ये अनबोला
खलबला देता है मुझे
कि तुम्हारी बडी बडी आखें
एकदम से याद आती हैं
और मुस्कुराता चेहरा भी
कि देखें कबतक न बोलोगे
और तुम्ही बोलोगे पहले
उफ कि वो खमोशी
उफ कि वो आतुरता
पिघल पिघल कर मोम की दीवार हो गयी
और हमारे बीच की खामोशी
सिमटती सिमटती ठहरी मेरी आँखों में
बैठ गयी फुनगी पर
उफ कि ये अनबोला
क्या फुनगी पर बैठ गयी चिडिया सा
फुर्र से उडेगा
और दूर क्षितिज तक देखता रहूंगा मैं
नाउम्मीदी फुनगी सी सिर हिलायेगी..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१६.११.१९९५

Friday, June 08, 2007

नींद और क्षणिकायें


नींद -१

ख्वाब टूटेंगे कांच की तरह
और नंगे पाँव जो चलना होगा
ज़िन्दगी फिर लहू लहू होगी
मुझको ख्वाबों में और जीनें दो
नींद तुम ओढ लो मुझे आ कर
और जानम के देश हो आयें...

नींद -२

नींद नदी हो गयी
और मैनें तुम्हे देखा चाँद
बिलकुल क्षितिज पर जहाँ नदी मुडती है
मैं कागज़ की कश्ती को हाथों से खेता था
आह कि साहिल पर रेत ही रेत रही
तुम डूब गये
भोर का ख्वाब था

नींद -३

रात रहे नींद रहे और आफताब रहे
मुझसे सच को परे हटा के रखो
मुझको सोने दो और जीने दो
रात होती तो दिन निकलता है
गम का सूरज भी तभी ढलता है
दिन निकलता है रात होती है
और ख्वाबों के टूटते मोती
फिर बटोरो कि रात हो जाये
मेरे ख्वाबों का फिर सवेरा हो
हमनें माना कि खाब का क्या है
खाब तो फिर भी एक खाब रहे
फिर भी जीनें की हमें हसरत है
रात रहे, नींद रहे और आफताब रहे..

नींद -४

रात और चांद का एक रिश्ता है
नींद और चांद का एक रिश्ता है
मेरा और चांद का एक रिश्ता है
मै, नींद, रात और चांद
जब इकट्ठे होते हैं
महफिलें सजती हैं
और ज़िन्दगी जाग जाती है..

नींद -५
तुम न आओ न सही
नींद तो आये मुझको
रात आँखों में कट गयी तो सनम
फिर मुलाकात कब कहाँ होगी?

नींद -६

आप तो जाते रहे
फिर नींद भी जाती रही
आसमां की चांदनी
हमको जलाती भी रही
वो एक ख्वाब जो आँखें खुले
देखा किये हम रात भर
जलती रही अपनी चिता
जैसे जला करते अभी
जब बुझ गये बस राख थे
आ कर कहीं से तुम तभी
ले चुटकियों में राख
माथे पर सजा ली
फिर जी गये हम
पलक झपकी
रात काली...

*** राजीव रंजन प्रसाद
६.११.२०००

Thursday, June 07, 2007

वे स्मृतियाँ..


वे स्मृतियाँ
बिलकुल एसी ही हैं
जैसे बोझिलता के बाद चाय की पहली घूंट
जैसे गहरी घुटन के बाद एक गहरी स्वांस
जैसे आकाश ताकती ज़मीन पर हलकी सी फुहार
जैसे मरूस्थल की दुपहरी में ठंडी बयार
जैसे महीनों की कश्मकश के बाद लिखी गयी नज़्म
जैसे वीरान आसमान पर बादलों से लड झगड
निकल ही आया कोई सितारा
जैसे गहरी खामोशी में बजता हुआ जलतरंग
जैसे भटके हुए जहाजी को दूर दीख पडती हुई ज़मीन
जैसे प्यासे को नज़र आयी मरीचिका
वे स्मृतियाँ
बिलकुल एसी ही हैं
जैसे बहुत कडी धूप के बाद
टुकडा भर छाँव..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२३.११.१९९५

मुस्कुरा दूँ बस..


खामोश रहने की बात
कुछ ऐसे हो
कि तुम्हारे होठों पर
अपनी उंगली रख कर
अपनी आखों को,
तुम्हारी पलकों पर
ठहर जाने दूं..


और खामोशी यूं टूटे
कि मेरी उंगली
कस कर दांतों में दाब लो तुम
आँखें जुगनू कर लो
मैं उफ भी न करूं
मुस्कुरा दूं बस
बहुत हौले..


*** राजीव रंजन प्रसाद
९.११.१९९५

Thursday, May 24, 2007

तुम्हारा खत...


तुम्हारा खत पढा
फिर पढा
कितने ही टुकडे चाक कलेजे के
मुँह को आ पडे
थामा ज़िगर को
और बिलकुल बन चुका मोती भी चूने न दिया
फिर पढा तुमहारा खत
और शनैः-शनैः होम होता रहा स्वयमेव
एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....
स्वाहा!

आँखों को धुवाँ छील गया
गालों पर एक लम्बी लकीर खिंच पडी
जाने भीतर के वे कौन से तंतु
आर्तनाद कर उठे..
शांतिः शांतिः शांतिः

अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया

लगा चीख कर उठूं
और एक एक खत
चीर चीर कर इतने इतने टुकडे कर दूं
जितनें इस दिल के हैं.....

हिम्मत क्यों नहीं होती मुझमे??


***राजीव रंजन प्रसाद

Wednesday, May 23, 2007

तरक्की


सभ्यता व्यंग्य से मुस्कुराती है
जंगल के आदिम जब "मांदर" की थाप पर
लय में थिरकते हैं
जूडे में जंगल की बेला महकती है
हँसते हैं, गुच्छे में चिडिया चहकती है
देवी है, देवा है
पंडा है, ओझा है
रोग है, शोक है, मौत है
भूख है, अकाल है, मौत है..
फिर भी यह उपवन है
हँसमुख है, जीवन है

करवट बदलता हूँ अपनी तलाशों में
होटल में, डिस्को में, बाजों में, ताशों में
बिजली के झटके से जल जाती लाशों में
भागा ही भागा हूँ
पीछा हूँ, आगा हूँ
जगमग चमकती जो
दुनियाँ महकती जो
उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाँथों नें मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाँथों नें मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं

देखो तो आईना हँसता है मुझपर
सभ्यता के लेबल पर, मेरी तरक्की पर
हम्माम में ही आदमी का सच नज़र आता है
दंगा एसा ही गुसलखाना है मेरे दोस्त
अपनी कमीज पर पडे खून के छींटे संभाल कर रखना
कि दंगा तो होली है,
हर बार नयी कमीज क्यों कर खराब करनी?

तरक्की का दौर है, आदमी बढा है
देखो तो कैसा ये चेहरा गढा है
उपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखडा हटा तो कोई रक्तबीज है
नया दौर है, सचमुच तरक्की भी क्या चीज है...

*** राजीव रंजन प्रसाद
२८.०१.२००७

Monday, April 30, 2007

वही रास्ता..


मुझे मौत ही की सजा मिले।
मुझे गम के फंदे में झोल कर,
तुझे मुस्कुराने की बात हो
मुझको कबूल फिर रात है।
मुझे उफ न करने का दम्भ है
मुझे नश्तरों से गिला नहीं
मुझे रात भर तेरी कैद थी
तू जो खिल गया
मुझे मिल गया
वही रास्ता जहाँ जन्नतें
वही ठौर जिसको कि मन्नतें
कभी सजदा करके न पा सकी.

*** राजीव रंजन प्रसाद

16.04.2007

Friday, April 20, 2007

रिक्त...



गुजरा हुआ जमाना
जिस पेड पर टंगा था
बंदर वहाँ बहुत थे
कुछ पोटली से उलझे
मिल गाँठ खोल डाली
पर हिल गयी जो डाली
पल झर गये नदी में
घुट मर गये नदी में
अब जल रही नदी है
मैं रिक्त हो गया हूँ..

*** राजीव रंजन प्रसाद
20.04.2007

Sunday, April 15, 2007

शक

तुम याद आये और हम खामोश हो गये
पलकों पे रात उतरी, शबनम से रो गये

सौ बार कत्ल हो कर जीना था फिर भी मुमकिन
अश्कों के सौ समंदर पीना था फिर भी मुमकिन
फटते ज़िगर में अंबर आ कर ठहर गया है
टुकडे बटोर कर दिल सीना था फिर भी मुमकिन

नफरत नें तेरे दिल को पत्थर बना दिया है
सपनों नें तेरी आँखें देखीं की सो गये
पलकों पे रात उतरी, शबनम से रो गये

मेरी नींद में तुम्हारा आना भी अब सज़ा है
करवट बदलना नींद न आना भी अब सज़ा है
जीना ये कैसा जीना, मुर्दा ये जिस्म ये मन
सांसों का आना, थमना, जाना भी अब सज़ा है

तेरा ही शक, तेरा ही हर ज़ख्म तेरे दिल पर
तुम अपने ही सीनें में खुद खार बो गये
पलकों पे रात उतरी, शबनम से रो गये

तुम चैन न पाओगे, मुझको यकीं है ए दिल
तेरे आँसुओं की कश्ती, ढूंढा करेगी साहिल
मुझे जीते जी जला कर तुमनें ये क्या किया है
मेरी राख तेरे माथे का सच है मेरी मंज़िल

खुद को न यूं बिखेरो, मेरी जान, मेरी धडकन
सच दिल से पूछ लो दिल, तुम तुम से खो गये
पलकों पे रात उतरी, शबनम से रो गये

***राजीव रंजन प्रसाद
७.०१.१९९५

Saturday, April 14, 2007

तुम और क्षणिकायें..

तुम -१

मेरे बगीचे के गुलाब
मुस्कुराते नहीं थे
हवा मुझे छू कर गुनगुनाती नहीं थी
परिंदों नें मुझको चिढाया नहीं था
मेरे साथ मेरा ही साया नहीं था
तुम्हे पा लिया, ज़िन्दगी मिल गयी है
चरागों को भी रोशनी मिल गयी है
नदी मुझसे मिलती है इठला के एसे
कि जैसे शरारत का उसको पता हो
कि कैसे मेरे पल महकने लगे हैं
कि कैसे मेरा दिल धडकने लगा है..

तुम -२

ग़मों ने दामन छोडा तो..
उलझा मैं एसा था
कि खरोंचों नें
दिल का कोना कोना लहू कर दिया था
मैनें भी जीना छोड दिया था
ये क्या हुआ जानम
ये कैसी हलचल है
तुम्हे छू कर दिल बे-लगाम हो गया है
और खुशी नें मुझे चिमट कर कहा
क्या सोचते हो?..
यकीन नहीं आता कि ज़िन्दा हूं मैं

तुम -३

मैं जिस राह चला था
अंधेरा था
मैं जिस मोड मुडा था,
एक भुलभुलैया थी
मेरे कदम उस मंज़िल की ओर थे,
जो थी ही नहीं
और जो तुम मिले
राहों में चाँदनी हो गयी
और जब मैंनें महसूस किया
कि मंज़िल बस कदम भर के फासले पर है
बढ कर तुम्हे बाहों में भर लिया मैनें

तुम -४

तुमसे ज़न्नत हो गयी
और तब उन पुरानी किताबों पर
यकीन गहरा हो गया
जिन्होनें खुदा का यकीन दिलाया था..
और जानम तुम मिल भी गये

तुम -५

तुम गहरे हो
मन गहरा है
और प्यार कितना गहरा है
अब जो डूबा, डूब गया हूं
मुझे कभी साहिल पर ला कर
रेत रेत कर लौ लहर सी
तुम जाना मत जानम मेरे
मैं फिर मरुथल हो जाऊंगा..

तुम -६

मुझमें डूब गया है चाँद
और सुबह हो गयी
रात कितनी काली थी
अब सोचता हूं मैं..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१.११.२०००

Friday, April 13, 2007

ए मेरे दोस्त

ज़िन्दगी अब तेरे नाम पे हँस के देखा
और छल छल के भरी आँख का पानी मुझको
चुपचाप कान ही में कह गया देखो
होठ इतने भी न फैलाओ मेरे यार सुनो
ग़म को सहने के लिये दम न निकालो अपना
चीख कर रो भी लो
बहुत देर तक ए मेरे दोस्त..

राजीव रंजन प्रसाद
८.१२.१९९५

Wednesday, April 11, 2007

प्यासा और पानी...

प्यासा समंदर के किनारे मर गया
पानी के नमक हैं, युवक मेरे देश के
प्यासे की चिता पर फट पडे बादल
तेजस्वी घनघोर हैं, युवक मेरे देश के
प्यासे की राख तैरती रही, बहती रही..
पानी पानी भी नहीं हैं
रवानी की बात करते हैं
किसी बोतल में बंद
शाम सुहानी की बात करते हैं
प्यासा अब है ही नहीं..

दुनिया में कितनी है चमक
जो लडखडा के गिर पडा
वो सलीम है इस युग का
तकदीर मुल्क की
पानी के छींटे मुख पर
छिडक भी दो अनारकली
खोल देगा पलक
मरा नहीं है युवक..

*** राजीव रंजन प्रसाद
10.04.2007

Saturday, April 07, 2007

तुम कहाँ थे?

जब नेता बिक रहे थे
विधान सभा में फेकी जा रही थी माईकें
टीवी पर बिना पतलून के दिखाई जा रही थी खादीगिरि
”उनके” इशारों पर हो रहे थे एनकाउंटर्स
जलाये जा रहे थे मुहल्ले
तुम कहाँ थे?

मैं कोई सिपहिया तो हूँ नहीं
कि लोकतंत्र के कत्ल की वजह तुमसे पूछूं
मुझे कोई हक नहीं कि सवाल उठाऊं तुम्हारी नपुंसकता पर
लेकिन आज बोरियत बहुत है यार मेरे
मिर्च-मसाले सा कुछ सुन लूं तुम ही से
टाकीज में आज कौन सी पिक्चर नयी है?
तुम्हारी पुरानी गर्लफ्रेंड के नये ब्वायफ्रेंड की
दिलचस्पी लडको में है?
कौन से क्रीकेटर नें फरारी खरीदी?
कौन सा बिजनेसमेन देश से फरार है?
बातें ये एसी हैं, इनमें ही रस है
देश का सिसटम तो जैसे सर्कस है
अब कोई नहीं देखता....

मेरे दोस्त,
किसी बम धमाके में
अपने माँ, बाप, भाई, बहन को खो कर
अगर चैन की नींद सोनें का कलेजा है भीतर
तो मत सोचो, सिगरेट से सुलगते इस देश की
कोई तो आखिरी कश होगी?

उस रोज संसद में फिर हंगामा हुआ था
उस रोज फिर बहस न हुई बजट पर
मैं यूं ही भटकता हुआ सडक पर
जाता था कि फेरीवाले नें कहा ठहरो “युवक”
यह भेंट है रखो, बाँट लो आपस में
कहता वह ओझल था, आँखों से पल भर में
खोला जब डब्बे को, हाँथों से छूट गया
बिखर गयी सडको पर चूडियाँ चूडियाँ...


*** राजीव रंजन प्रसाद
7.04.2007

Monday, March 26, 2007

एक संवाद सूरज से..

कई भोर बीते, सुबह न आई
तो सूरज से पूछा
हुआ क्या है भाई?
पिघलती हुई एक गज़ल बन गये हो
ये पीली उदासी है या चाँदनी है
वो अहसास गुम क्यों,
वो गर्मी कहाँ है?
अगर रोशनी है, कहाँ है छुपाई?
कई भोर बीते, सुबह न आई..

तो सूरज ने मुझको हिकारत से देखा
आँखें दबा कर शरारत से देखा
कहा अपने जाले से निकला है कोई?
तुम्हारे ही भीतर
तुम्हारी है दुनिया
तुम्हीं पलकें मूंदे अंधेरा किये हो
तुम्हें देती किसकी हैं बातें सुनाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..

तुमसे है रोशन
अगर सारी दुनिया
तो मेरी ही दुनिया में कैसा अंधेरा?
ये कैसा बहाना कि इलजाम मुझपर
ये कैसी कहानी कि बेनाम हो कर
मुझे ही मेरा दोष बतला रहे हो?
मुझे दो उजाला तुम्हे है दुहाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..

ये उजले सवरे उन्हें ही मिलेंगे
जो आंखों को मन की खोला करेंगे
यादों की पट्टी पलक से हटाओ
कसक के सभी द्वार खोलो
खुली स्वास लो तुम
अपने ही में गुम
न रह कर उठो तुम
तो देखो हरएक फूल में
वो है तुमनें
पलक मूंद कर जिसको
मोती बनाया
नई मंज़िलों को तलाशो तो भाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२.०१.२००७

Saturday, March 10, 2007

"निठारी के मासूम भूतों नें पूछा"

वो चाकलेट
जब नाखून भरे हाथ बन जाती होगी
तो मासूम छौने सी, नन्ही सी, गुडिया सी
छोटी सी बिल्ली के बच्चे सी बच्ची
सहसा सहम कर, रो कर, दुबक कर
कहती तो होगी 'बुरे वाले अंकल'
मेरे पास है और भी एसी टॉफी
मुझे दो ना माफी, जाने भी दो ना..
मुझे छोड दो, मेरी गुडिया भी लो ना
तितली भी है, मोर का पंख भी है
सभी तुमको दूंगी, कभी फिर न लूंगी
मुझे छोड दो, मुझको एसे न मारो
ये कपडे नये हैं, इन्हें मत उतारो
मैं मम्मी से, पापा से सबसे कहूँगी
मगर छोड दोगे तो चुप ही रहूंगी..

क्या आसमा तब भी पत्थर ही होगा
क्यों इस धरा के न टुकडे हुए फिर?
पिशाचों नें जब उस गिलहरी को नोचा
तो क्यों शेष का फन न काँपा?
न फूटे कहीं ज्वाल के मुख भला क्यों?
गर्दन के, हाँथों के, पैरों के टुकडे
नाले में जब वो बहा कर हटा था
तो ए नीली छतरी लगा कर खुदा बन
बैठा है तू, तेरा कुछ भी घटा था
तू मेरी दृष्टि में सबसे भिखारी
दिया क्या धरा को ये तूनें 'निठारी'?

ये कैसी है दुनियाँ, कहाँ आ गये हम?
कहाँ बढ गये हम, कि क्या पा गये हम?
न आशा की बातें करो कामचोरों
'लुक्क्ड', 'उचक्को', 'युवा', तुम पे थू है
तुम्ही से तो उठती हर ओर बू है
अरे 'कर्णधारो' मरो, चुल्लुओं भर पानीं में डूबो
वेलेंटाईनों के पहलू में दुबको, तरक्की करो तुम
शरम को छुपा दो, बहनों को अमरीकी कपडे दिला दो
बढो शान से, चाँद पर घर बनाओ
नहीं कोई तुमसे ये पूछेगा कायर
कि चेहरे में इतना सफेदा लगा कर
अपना ही चेहरा छुपा क्यों रहे हो
उठा कर के बाईक 'पतुरिया' घुमाओ
समाचार देखो तो चैनल बदल दो
मगर एक दिन पाँव के नीचे धरती
अगर साथ छोडेगी तो क्या करोगे?
इतिहास पूछेगा तो क्या गडोगे?
तुम्हारी ही पहचान है ये पिटारी
उसी देश के हो है जिसमें निठारी...

भैया थे, पापा थे, नाना थे, चाचा थे
कुछ भी नहीं थे तो क्या कुछ नहीं थे
बदले हुए दौर में हर तरफ हम
पिसे हैं तो क्या आपको अजनबी थे?
नहीं सुन सके क्यों 'बचाओ' 'बचाओ'
निठारी के मासूम भूतों नें पूछा
अरे बेशरम कर्णधारों बताओ..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१३.०२.२००७

Thursday, February 15, 2007

टुकडे अस्तित्व के..

जरासंध की जंघाओं से दो फांक हो कर
जुडते हैं इस तरह टुकडे अस्तित्व के
जैसे कि छोटी नदिया गंगा में मिल गयी हो
चाहो तो जाँच कर लो
अब मिल गया है सब कुछ, एक रंग हो गया है
हर हर हुई है गंगे, हर कुछ समा गया है
फिर उठ खडा हुआ हूँ, हिम्मत बटोर ली है
मैं जानता हूँ दुनिया भी भीम हो गयी है
वो दांव-पेंच जानें कि फिर चिरा न जाऊं
लेकिन लडूंगा जब तक सागर में मिल न जाऊं
मैं जानता हूँ कान्हा तुम राज जानते हो
टुकडा उठा के तृण का
दो फांक कर के तुमने उलटा रखा है एसे
जैसे कि वक्त मेरा मुझको छला किये है
मैं मुस्कुरा रहा हूँ
मैं मिटने जा रहा हूँ
तुममें समा रहा हूँ
फिर ये सवाल होगा, क्या मुझसे वक्त जीता?
तुम सोच रखो उत्तर, तुम ठेके हो सत्य के
जब सामना करेंगे मेरे टुकडे अस्तित्व के...


*** राजीव रंजन प्रसाद
१०.०२.२००७

Monday, February 05, 2007

गज़ल

निगाह मिल न सकी कैसी मुलाकात हुई
होठ खामोश रहे, आज कितनी बात हुई..

मैनें सपनों को डुबोया तो ताल सूख गया
मैनें सपनों को जगाया तो कितनी रात हुई..

तेरी मुस्कान नें ही राज सभी खोल दिये
दिल को अहसास हुआ मेरी कहाँ मात हुई..

तुमनें मोती वो लुटाये जो मुलाकात हुई
मुझसे पलकों नें कहा, कैसी ये सौगात हुई..

मैनें "राजीव" तेरे बिन वो खंडहर देखे
जाल मकडी के हुए, सांय-सांय वात हुई..

*** राजीव रंजन प्रसाद
२९.०१.२००७

Monday, January 22, 2007

खबरें…

कब हुई सगाई, कब होगी शादी
कहाँ हनीमून और किस अस्पताल में बच्चे
महीनों से टेलीविजन पर बन सतरंगी समाचार
और रंगबिरंगा हो कर रंगीनपृष्ठी अखबार
खींच रहा है विज्ञापन
कि शीघ्र विवाहित होंगे हरिवंश के पोते
अमिताभ के बेटे अभिषेक बच्चन

..और गुपचुप सी
बीच में चिपक गयी सी खबर
जैसे टाट में पैबंद लग जाता है
वाचक कहता जो, अनसुना सा चला जाता है
दस दिन की बच्ची कचरे के ढेर में मिली
फिर किसी लडकी के चेहरे में तेजाब
फिर कोई स्टोव फटा फिर कोई जली
रोज की खबरें हैं इस लिये बासी हैं
ये कौन सी सद्दाम हुसैन की फॉसी है
कि मौत का आनंद चाय की चुस्कियों के साथ लिया जाये..

ठंड है, रजाई है
रिमोट है और मसालेदार समाचार
किसी के घर के भीतर घुस कर
बेडरूम से लाई गयी ताजा खबर..

दूर दीख पडते फुटपाथ पर
एक गुदडी में सिमट कर सो रहे
बूढे बाबा को देख कर कोई "माईक"
शायद ही पूछे कैसे हैं आप?
जब तक किसी सलमान की गाडी अंतडी न फाड दे..

चाय की दूकान पर "निठारी" की खबरें सुनता
और चाय की ग्लास मुझे थमाता
नन्हा वेटर, अपने जिज्ञासु कान खडे किये
ठिठुरता है ठंड से या खबर से पता नहीं
कि फिर "बच्चन" की शादी की खबरें
उसकी कोरी आँखों में सपना मुस्कुराता है
पैर मेज से टकराती है
ग्लास फूटता है और मालिक के नुकसान से
खिंचे हुए कान सहलाता
फिर देखता है वह उसी खबर की ओर..

मैं महसूस करता हूँ हर ओर कितनी है शांति
विज्ञापन खबरें खरीद रहे हैं
किसे चाहिये क्रांति...

*** राजीव रंजन प्रसाद
१८.०१.२००७

Tuesday, January 16, 2007

बडा स्कूल…

स्कूल बहुत बडा है
डिजाईनर दीवारें हैं
हर कमरे में ए.सी है
एयरकंडीश्नर बसें आपके बच्चों को घर से उठायेंगी
यंग मिस्ट्रेस नयी टेकनीक से उन्हे पढायेंगी
सूरज की तेज गर्मी से दूर
नश्तर सी ठंडी हवाओं से दूर
मिट्टी की सोंधी खुश्बू से दूर
जमीन से उपर उठ चुके माहौल में बच्चे आपके
केवल आकाश का सपना बुनेंगे
नाम स्कूल का एसा है साहब
मोटी तनख्वाहें देने वाले
स्वतः ही आपके बच्चों को चुनेंगे
बच्चे गीली मिट्टी होते हैं
हम उन्हें कुन्दन बनाते हैं
आदमी नहीं रहने देते..

मोटी जेबें हों तो आईये एडमिशन जारी है
पैसे न भी हों तो आईये, अगर प्यारा है बच्चा आपको
और अपनी आधी कमाई फीस में होम कर
आधे पेट सोने का माद्दा है आपमें
जमाने की होड में चलने का सपना है
और बिक सकते हैं आप,तो आईये
बेच सकते हैं किडनी अपनी, मोस्ट वेलकम
जमीर बेच सकते हैं...सुस्वागतम|

कालाबाजारियों से ले कर मोटे व्यापारियों तक
नेताओं से ले कर बडे अधिकारियों तक
सबके बच्चे पढते हैं इस स्कूल में
और उनके बच्चे भी जो अपने खून निचोड कर
अपने बच्चों की कलम में स्याही भरते हैं..

हम कोई मिडिलक्लास पब्लिक स्कूल की तरह नहीं
कि बच्चों को बेंच पर खडा रखें
मुर्गा बनानें जैसे आऊट ऑफ फैशन पनिशमेंट
हमारे यहाँ नहीं होते..
हम बच्चों में एसे जज्बे, एसे बीज नहीं बोते
कि वो "देश्" "समाज" "इंसानियत" जैसे आऊट ऑफ सिलेबस थॉट्स रखे..

यह बडा स्कूल है साहब..
और आप पूछते हैं कि
ए से "एप्पल", "अ" से "अनार" से अलग
एसा क्या पढायेंगे कि मेरे बच्चे अगर कहीं बनेंगे,
तो यहीं बन पायेंगे?
सो सुनिये..हर बिजनेस की अपनी गारंटी है
हम सांचा तैयार रखते हैं
बच्चों को ढालते हैं
फ्यूचर के लिये तैयार निकालते हैं
हमारे प्राडक्ट एम.बी.ए करते हैं
डाक्टर ईन्जीनियर सब बन सकते हैं
कुछ न बने तो एम.एम.एस बनाते हैं..

हम बुनियाद रख रहे हैं
नस्ल बदल देंगे
जितनी मोटी फीस
वैसी ही अकल देंगे
कि आपके बच्चे राह न भटक पायें
पैसे से खेलें, पैसे को ओढें, पैसे बिछायें
आपका इंवेस्टमेंट वेस्ट न जानें दें
पैसा पहचानें, पैसा उगायें
सीट लिमिटेड है, डोनेशन लाईये
बच्चे का भविष्य बनाईये
होम कर दीजिये वर्तमान अपना
कि शक्ल से ही मिडिल क्लास लगते हैं आप..

और कल आप देखेंगे आपका लाडला
पहचाने न पहचाने आपको,
मिट्टी को, सूरज को, पंछी को, खुश्बू को
पहचाने न पहचाने देश, परिवेश
इतना तो जानेगा
कौन सा रिश्ता मुनाफे का है
हो सकता है आपसे पीठ कर ले
कि बरगद के पेड में फल कहाँ लगते हैं
घाटे की शिक्षा वह यहाँ नहीं पायेगा
यह बडा स्कूल है...

*** राजीव रंजन प्रसाद
१५.०१.२००७