Wednesday, July 11, 2007

हर बार

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

एकांत
ध्यानमग्न बगुला
एकदम से ताल के ठहरे पानी पर झपटा
पानी भवरें बनानें लगा
उसकी परछाई लहरानें लगी
वह शांत हुआ
पंजे में कुछ न था
मछली या कि अपनी ही परछाई

फिर वही एकांत
वही ध्यानमग्न बगुला
वही ठहरा हुआ पानी
वही परछाई..

मछली तो फसेगी आखिरकार
क्योंकि उसे नहीं पता
चरित्र और चेहरे एक नहीं होते
और मैं हर बार देखता हूं
झपटते हुए बगुले को
अपनी ही परछाई पर..

*** राजीव रंजन प्रसाद
७.०१.१९९५

5 comments:

महावीर said...

राजीव, तुम्हारी रचनाओं में निस्संदेह ही शब्दों का चयन और भावों की अभिव्यक्ति का सामञ्जस्य एक ऐसी गहराई में ले जाता है जिससे मस्तिष्क भी कुछ खोजने के लिए बाध्य हो जाता है।
सुंदर रचना के लिए बधाई।

Gaurav Shukla said...

"मछली तो फसेगी आखिरकार
क्योंकि उसे नहीं पता
चरित्र और चेहरे एक नहीं होते
और मैं हर बार देखता हूं
झपटते हुए बगुले को
अपनी ही परछाई पर"

बहुत गहन मंथन का ही परिणाम है यह कविता
अत्यन्त गहरे भाव उकेर देती है आपकी कलम
बहुत सुन्दर

बधाई

सस्नेह
गौरव शुक्ल

Anupama said...

मछली तो फसेगी आखिरकार
क्योंकि उसे नहीं पता
चरित्र और चेहरे एक नहीं होते
और मैं हर बार देखता हूं
झपटते हुए बगुले को
अपनी ही परछाई पर..

koi tod nahi in panktiyon ka

Mohinder56 said...

जो कुछ ये आंखें देखती हैं वही सत्य नहीं होता राजीव जी, सत्य उससे बहुत परे की वस्तु है..
कभी कभी शिकार का भाग्य शिकारी से ज्यादा अच्छा होता है.... बैसे शेर को भी मख्खियों से अपनी रक्षा करनी पडती है... यही सत्य है

Narender said...

Rajeev ji aapki rachna dil ko lag gayi bagule ke niyati hi hai jhaptna. aur machliyan bhi usko shaant dekhkar dhoka kha jaati hai aaj ke samaj me yahi to har jagah ho raha hai. kitne hi bagule har roj machliyon ko nigal jaate hai