Tuesday, October 21, 2014

लालबुझक्कड ही लिखेंगे बस्तर का इतिहास





हम इसी योग्य हैं कि हमें पूर्वाग्रही और विचारधारापरक इतिहास मिले। हम इसी योग्य हैं कि अतीत बांचने वाले हमारे क्रांतिकारियों को डाकू और लुटेरा लिख जायें। हम इसी योग्य हैं कि अंधेरे में जियें; रूस का गेंहूँ, चीन के खिलौने और अमेरिका की किताबें चाटते रहें। मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं हूँ लेकिन बस्तर को जितना टटोलने की कोशिश कर रहा हूँ उससे इस दावे में कोई त्रुटि नहीं कि हमारी इतिहास पुस्तकें केवल सतही हैं और आधिकतम तो मुंगेरीलाल के सपनों का दस्तावेजीकरण। मैं इस बात की शिकायत प्रस्तुत नहीं कर रहा कि बारसूर या गढधनौरा की अधिकांश जमीन के भीतर छिपी विरासतें कब बाहर लायी जायेगी? मुझे इस बात का रंज भी नहीं कि बस्तर के “नल” कौन थे और बस्तर के नागों की शासन प्रणालियाँ कैसी रही हैं, इसपर हमारे पास कोई संतोषजनक उत्तर क्यों नहीं हैं। किंतु जो विरासतें आज भी समय, पानी और उपेक्षा की मार झेलती हुई खडी हैं क्या हम उनकी मौत के पश्चात फिर उनपर काल्पनिक कहानियाँ गढ कर अपनी पीढियों के लिये छोड जायेंगे? ये सवाल भोपालपट्टनम में मेरे सामने साक्षात हो गये थे। 

भोपालपट्टनम में संदीपराज पामभोई जी से मुलाकात हुई। वे उस परिवार से सम्बन्ध रखते हैं जिनके पूर्वज बस्तर में काकतीय/चालुक्य शासनकाल के दौरान भोपालपट्टनम जमींदारी के प्रमुख रहे हैं। यह दुर्भाग्य है कि इस जमींदारी द्वारा चलाये जा रहे शासन प्रबन्धों, कर विधानों अथवा संचालित कार्यों का कोई दस्तावेज़ अब तलाशे नहीं मिलता। भोपालपट्टनम की सबसे भव्य इमारत जिसे स्थानीय राजमहल के नाम से पहचानते हैं, संरक्षण के अभाव में सिर्फ एक खण्डहर है। जानकारियाँ प्रदान करने की प्रक्रिया में संदीपराज जी ने बताया कि उनके पूर्वजों के कुछ स्मारक आज भी एक तालाब के निकट सुरक्षित हैं। भोपालपट्टनम में यह स्थान है जहाँ केवल पामभोई परिवार के ही सदस्यों का अंतिम संस्कार किया जाता है। 

पामभोई शासकों के स्मृति स्मारकों की ओर बाईक से आगे बढते हुए रास्ते में बिखरी हुई अनेक प्राचीन प्रस्तर प्रतिमायें दिखाई पड़ीं। एक पेड के नीचे अपने अस्तित्व की रक्षा में प्रयासरत नागयुगीन शिवप्रतिमा ध्यानमग्न थी। मैने दया भरी दृष्टि भोलेशंकर की इस प्रतिमा पर डाली जो कई सौ साल जिन्दा रही लेकिन हम अब अपनी अगली पीढी तक भी इसे सलामत नहीं पहुँचा सकेंगे। फिर भी प्रतिमा है तो उसके साथ कहानी भी होगी। मुझे बताया गया कि प्रात:काल हाट-बाजार जाता कोई भी ग्रामीण यहाँ अपनी मन्नत प्रकट करता हुआ चला जाता है कि आज उसकी सब्जी बिक जाये, उसकी इमली खरीद ली जाये। अगर उनकी सुनी नहीं गयी तो भगवान शंकर की इस प्रतिमा की खैर नहीं। लौटते हुए वही ग्रामीण बची हुई इमली या कि टमाटर या जो कुछ भी उसके पास होता है यही प्रतिमा के सर पर पटक जाता है। इस कहानी से मुझे उत्तर बस्तर के भंगाराम की याद ताजा हो आई जहाँ भक्त की मन्नतें पूरी नहीं करने वाले देवताओं को अदालत लगा कर सजा दी जाती है। ईश्वर और उसके आस्थावानों का ऐसा सम्बन्ध केवल बस्तर में ही देखने को मिल सकता है, जीवित धर्म वास करता है यहाँ। 
घास में दबे एक पत्थर कर उकेरी हुई नक्काशियों ने बहुत प्रभावित किया तो हम वहाँ रुक कर उसका अपने अनुमानों के आधार पर विवेचन करने लगे। यह शिलाखण्ड किसी मंदिर के द्वार स्तम्भ का हिस्सा रहा होगा, आज अनजाना सा घांस-लताओं में दुबका-छिपा अपर्दित हो रहा है। हमने पिछले हिस्से को देखने की जिज्ञासा में जैसे ही इस शिलाखण्ड को हिलाया सिहर गये। भीतर एक वृहदाकार बिच्छू था जो हलचल के पश्चात अपना डंक उपर उठाये हमलावर मुद्रा में इधर उधर भागने लगा। चलिये, जिन विरासतों को हमने नहीं अपनाया उन्हें इन साँप-बिछुओं ने अपना बना लिया। 

आगे बढने के पश्चात दो वृहदाकार स्मृति स्मारकें दृष्टिगत हुई। एक वर्गाकार चबूतरा जिसके हर ओर से सीढियाँ उपर की ओर जाती हैं। चबूतरों के चारो ओर चार स्तम्भ तथा शीर्ष पर एक गुम्बद। दूर से इसकी ओर निहारते हुए यह पीड़ा हो रही थी कि धीरे धीरे समय अपने आगोश में इन स्मृतियों को लेता जा रहा है। इन स्मारकों तक बिना झाडियों और घास-लताओं को हटाये पहुँचना संभव नहीं था। देखते ही यह अहसास होता है मानों सैंकडों वर्षों से स्मारकों को प्रतीक्षा हो कि कोई आयेगा और पूछेगा इनसे वे कहानियाँ, जिन्हें जिन्दा रखने के लिये यह निर्माण किया गया था। इन स्मारकों की दीवारें काई से पटी पडी थी इसलिये प्रतीत होता था जैसे किसी ने इन्हें हरा रंग दिया हो, मनुष्यों की निर्मितियों की सुध वे ही नहीं लेंगे तो प्रकृति यथासंभव संवारेगी-सुधारेगी ही। झाडियों को परे कर हम जैसे ही एक स्मारक के निकट पहुचे उसे संपूर्णता से निहार कर बीते हुए युग की भव्यता का अनुभव हुआ। 

मकडी के जालों ने मुश्किल से स्मारक के भीतर जाने की जगह प्रदान की। आम तौर पर स्मारक के मुख्य चबूतरों के मध्य में एक छोटा चबूतरा भी होता है जिसे प्रतीक माना जाता है। दुर्भाग्यवश मध्य का हिस्सा बुरी तरह खोद दिया गया था। मेरी निगाह प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ संदीप जी के चेहरे की ओर टिक गयी। उन्होंने बताया कि खजाने की तलाश में लोगों ने यहाँ स्थित पुराने मठों के मध्य से अथवा किनारों से खुदाई कर दी है। इससे संरचना का जो नुकसान होना था वह तो हुआ ही चोरो को जो कुछ मिला होगा उससे अधिक और बेशकीमती बस्तर ने खो दिया है। आसपास अवस्थित दोनो भव्य मठ निश्चित ही बेहद प्राचीन हैं लेकिन अब परिजन भी नहीं बता सकते कि किसके हैं और किस युग के हैं। आखिर कौन है इन परिस्थितियों का जिम्मेदार? नाहरसिंह पामभोई अन्नमदेव की बस्तर राज्यस्थापना के पश्चात प्रथम नामित जमींदार थे। आज भी पामभोई पीढियाँ भोपालपट्टनम में निवासरत हैं लेकिन समय ने उनके पास वे क्षमतायें नहीं रखीं कि राजमहल तथा अपने पूर्वजों के भव्य स्मारकों की देखरेख कर सकें। क्या इसका अर्थ यह है कि बस्तर के ये इतिहास साक्ष्य संरक्षित रहने का हक नहीं रखते?

आसपास अनेक स्मारक हैं, कुछ नये भी। इस पूरे क्षेत्र में अनेक प्राचीन प्रतिमायें बिखरी हुई हैं जिनमें से अधिकांश नंदी की हैं। मुझे बताया गया कि निकट ही अठारहवी सदी का एक स्मारक भी है जो किसी अंग्रेज का है। बहुत रुचि के साथ मैं इस मृतक स्मारक को देखने के लिये पहुँचा। स्मारक क्या केवल ढाँचा भर रह गया था जिसकी आकृति ही उसे निकटवर्ती अन्य स्मारकों से पृथक करती थी। संदीप लगातार इस स्मारक पर निगाहें गडाये कुछ तलाश कर रहे थे। अंतत: उन्होंने बताया कि सब नष्ट हो गया। पहले इस पर उस अंग्रेज का नाम तथा मृत्यु तिथि अंकित थी। 

मेरे सामने यह प्रश्न था कि क्या बस्तर के वे सभी प्राचीन मृतक स्मृति स्मारक इसी अवस्था में हैं जिनका सम्बन्ध प्राचीन शासकों अथवा जमींदारियों से रहा है? मुझे बताया गया कि कुटरू में भी यही स्थिति है और वहाँ भी लोगों से खजाने की आस में स्मारक को खोदा हुआ है। सवाल और बडा हो गया था इस लिये मैने सीधे जगदलपुर चलने का फैसला किया। मैं यह सुकून पाना चाहता था कि बस्तर के प्राचीन शासकों के स्मृति स्मारक तो कम से कम अच्छी हालत में हैं। जैसे ही जगदलपुर में अवस्थित उस स्थल पर पहुँचा जहाँ बस्तर के काकतीय/चालुक्य शासकों की अंतिम स्मृतियाँ अवस्थित हैं, बस नि:शब्द रह गया। 

चारदीवारी अवश्य थी किंतु उसके कोई मायने नहीं थे। मुख्यद्वार कभी बंद किया जाता हो ऐसा लगता नहीं। भीतर पेड़-पौधे, जंगली घास और लतायें उग आयी थीं। कुछ भव्य संरचनायें दिखाई पड रही थीं जिन तक पहुँचना साहस का कार्य था। मैने हिम्मत की और आगे बढा तभी एक बच्चे ने मुझे यह कह कर रोक दिया कि आगे मत जाओ लोग वहाँ मैदान में लोग शौच करते हैं। दिमाग सुन्न हो गया था लेकिन निकट से यह जानना आवश्यक था कि आखिर स्मारकों की वास्तविक स्थिति क्या है। आखिरकार दो स्थानीय मुझे दिखाई पडे जिसमे से एक लम्बे समय से वहीं रहता था और दूसरा राजमहल मे कर्मचारी था। मुझे दु:ख इस बात का हुआ कि उनमे से कोई स्पष्ट रूप से बताने में सक्षम नहीं था कि कौन से स्मारक किस शासक के हैं। 

जो प्राचीनतम स्मारक थे, मैं झाडियों-लताओं से लडता हुआ उनतक पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि इन्हें भी दूसरी ओर से खोदा गया है। स्थानीय पड़ताल से पता चला कि कुछ वर्ष पूर्व खजाना तलाशने की इच्छा से आये कुछ लोगों ने जब यहाँ के स्मृति स्मारकों की रात्रि में खुदाई आरम्भ की तब उन्हें पकड कर पुलिस के हवाले भी किया गया था। जो अहाता है उसके लगभग मध्य में जो स्मारक है उसका चबूतरा द्विस्तरीय है एवं संगमरमर का बना हुआ है। स्मारक के स्तम्भ उपरी हिस्से तथा गुम्बद नक्काशीदार है। वहाँ समुपस्थित सभी स्मारकों में यह सर्वाधिक सुन्दर प्रतीत होता है। यद्यपि खजाना खोजने की आकांक्षा वालों ने इस स्मारक का उपरी हिस्सा भी नष्ट करने का यत्न किया है। यह स्मारक मुझे महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी का बताया गया।      
    
दुर्भाग्यवश ग्रामीण इस बात में एक मत नहीं हैं कि कौन से स्मारक किस शासक के हैं। किसी भी स्मारक पर कोई परिचय चिन्ह अथवा नाम आदि लिख कर उन्हें पहचान देने की कोशिश नहीं की गयी है। मैं बहुत दावे के साथ स्मारकों को उनकी वास्तविक पहचान से नहीं जान सका यद्यपि आज भी इतिहासकारों और राज-परिजनों के लिये यह कोई कठिन कार्य नहीं है। मैने जब महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की समाधि के विषय में पूछा तो स्थानीय लोगों ने जिस समाधि की ओर इशारा किया उसकी अवस्थिति तो अत्यधिक दयनीय थी। समाधि को एक ओर तेजी से बढ रहे पेड की टहनी ने धकेलना आरंभ कर दिया था तो वह भीतर से झाड़ झंकाड से इस तरह घिरा अस्तित्व बचाने के लिये जूझ रहा था मानो अब शिकायत भी नहीं कि क्यों इतनी उपेक्षा से इसे छोड दिया गया है। यह किसी राज-परिवार का मसला नहीं है अपितु महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव तक के सभी स्मारक वस्तुत: बस्तर इतिहास की थाती हैं। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव का बस्तर के इतिहास और वर्तमान को गढने में भी जो योगदान है क्या उसके दृष्टिगत उनकी स्मृतियों को इस तरह उपेक्षित रखना उचित है? 

अतीत को ले कर हमारा दृष्टिकोण बहुत ही कामचलाऊ है। हम किताबों को पढ कर ही इतिहास का बोध रखने में रुचि रखते है न कि जिन्दा स्मृति शेषों से अपने कल को जानना बूझना चाहते हैं। हमारे पास दायित्वबोध ही नहीं है कि अतीत का संरक्षण वस्तुत: मिथक कथाओं की तरह लिखे जाने वाले इतिहास का प्रतिवाद बन सकता है। आज बस्तर को एक दूसरा चेहरा देने की जो कोशिशे हो रही हैं उसका कारण हमारी अपनी उपेक्षायें ही हैं। यह सावधान होने का वक्त है अन्यथा कोई बडी बात नहीं कि कल बस्तर का इतिहास केवल लाल-आतंकवाद की परिधि तक सिमटा रह जाये। दिल्ली के बडे बडे प्रकाशन संस्थाओं के सम्पादक जिस तरह चुनिंदा कहानियों और विचारधारापरक घटनाओं को ही दस्तावेजीकृत करने पर जोर देते हैं, कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाली पीढी बस्तर को अंधे का हाँथी समझ बैठे। परिस्थितियाँ यही रहीं तो कदाचित केवल लालबुझक्कड ही लिखेंगे बस्तर का इतिहास। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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Friday, October 10, 2014

बस्तरिया आदिवासी कविता – विरासत को अस्तित्व का संकट





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बस्तर के जनजातीय परिवेश में कविता सदियों से लहलहाती फसल रही है। आदिवासी कविता ने कभी जनजीवन के हर्ष और विषाद को धुन-लय दी है तो कभी वह अंतर्निहित संघर्ष और शोषण को उजागर करने का स्वर बनी है। कविता राजा और देवी-देवता का स्तुति गीत बनी तो भूमकाल और विद्रोहों का स्वर भी बन कर बाहर निकली है। बस्तर की आदिवासी कविता में बिम्ब वही हैं जो उनके रोज के अनुभव हैं जिनमे आदिवासी समाज नित्य उठता बैठता, जिनको जीता आया है। इसीलिये कविता में चिड़िया भी आती है तो तूम्बा भी आता है, मछली भी आती है तो कांटा भी आता है, सौकार (साहूकार अथवा ब्याज पर रुपये देने वाला) भी आता है तो राजा भी आता है, दर्द भी आता है और ओझा-गुनिया भी आता है। बस्तरिया काव्य आज भी मौखिक साहित्य के रूप में ही विद्यमान है। इसे संग्रहित करने के गिने चुने प्रयास ही हुए है और उसपर बहुत अधिक कहा-लिखा नहीं गया है। मुख्यधारा कही जाने वाली कविता को यदि किसी तरह का दर्प हो कि उसकी कविता में रहस्य है, प्रयोग है, गहराई है, दर्शन है तो जरा रुक कर यह गीत गंभीरता से सुनना चाहिये  -  

सोरा धारू धरती नउ खण्डु पिरथी हो/ धरती मालिक बोरू लरियो मालिक बोरू हो/ धरती मालिक लिंगो लरियो पिरथी मालिक राजाल हो/ लिंगोना बेहले पाटा लरियो, लिंगोन बेहले डाकान हो/ पहिलि पाटा लिंगो लरियो, पहिलि डाकान लिंगो हो/ माड़िया पाटा लयोर लरियो माड़िया डाकान लयोर हो/ नाडुं नर्का दिया लरियो निके पोरोय पोयतोम हो/ होंगु दापु आयमा लरियो निके होहार लागि हो। 

कई कई कोण से इस गीत को समझने की कोशिश करता हूँ और हर बार नये नये अर्थ मिलते हैं। यह .काव्य प्रार्थना भी है तो आदिवासी दर्शन का उद्धरण भी। धरती को ले कर जिज्ञासाओं का एक सिरा है तो लिंगो के माध्यम से उत्तर भी सामने रखा गया है। कविता सवाल पूछती है कि आखिर सोलह खण्ड वाली पृथ्वी और नौ खण्डों वाले आकाश का स्वामी कौन है? उत्तर स्पष्ट है और बिम्ब के साथ दिया गया है कि जिस तरह राजा पृथ्वी का स्वामी होता है उसी तरह इस जगत का स्वामी है लिंगो। वही लिंगो जिसने पहला गीत लिखा फिर बहुत से गीत बनाये। वही लिंगो जिसके पहले कदम से जीवन का प्रादुर्भाव हुआ और आज माडियाओं की हर पदचाप का सर्जन उससे ही तो संभव हुआ है। मध्यरात्रि में दीपक जला कर हम तुम्हारा स्मरण कर रहे हैं लिंगो जिससे कि तुम हम से नाराज न हो जाओ, हमारा जोहार स्वीकार करो। यह कविता जितनी सहज है उतनी ही विशेषताओं भरी है। 

बस्तरिया कविता में अधिकांश प्रश्नोत्तर शैली की हैं अत: सीधे श्रोता से बात करती हैं और उससे जुडती हैं। अनेक बार कविता में समुपस्थित तीसरा पक्ष भी अपनी बात किसी न किसी माध्यम से कहने लगता है। यह तीसरा पक्ष कोई देवी-देवता अथवा मृतक पूर्वज हो सकता है। एक मृत्यु गीत से इसी तरह का उदाहरण देखिये -   

झुलना झूले मायू रा/ निकुन सेवा कियकौम रा/ निकुन पूजा हियाकौम रा/ काला मेंडा हियाकौम रा/ ताने भोजन केविन रा/ पुजारी लामे लेंगरा हिमु रा/ ताने भोजन किया का रा/ पुजारी अहर टुपु हिमु रा/ गिरदा वानाह किमु रा...।  

मृतक स्तम्भ बना कर अपने पूर्वजों को सर्वदा स्मरण में रखने वाले आदिवासी किस तरह उनसे जुडे होते हैं यही इस गीत की मधुरता है। मृतक पूर्वज से उसके परिवार की मनुहार चल रही है जहाँ उसे प्रसन्न रखने के लिये कहा जा रहा है कि आप झूले में बैठ कर झूलो और हम आपकी सेवा करेंगे, हम आपको काला मेंढा भेंट में देंगे। अब मृतक पूर्वज बिना उत्तर दिये कैसे रह सकता है? उसकी बात कहने का माध्यम कोई भी बन सकता है चाहे वह घर का ही कोई बालक-बालिका हो अथवा कोई ओझा-गुनिया। मृतक स्पष्ट कर रहा है कि उसे काला मेंढा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं है उसे तो लम्बी पूंछ वाला बैल चाहिये। वह परिजनों के समक्ष मांग रखता है कि सुगंधित धूप जलाया जाये और अच्छी तरह उसकी सेवा की जाये। कविता के इस पक्ष में यह समझने की आवश्यकता नहीं कि मांग रखी गयी है तो मान भी ली जायेगी। परिजन मृतक से मान मनुव्वल करेंगे, माँग को घटाने की कोशिश करेंगे और अनेकों बार बैल से आरंभ हुई मांग मुर्गी के अंडे पर जा कर भी खतम हो सकती है। कई बार लडाई-झगडे और रूठना-मनाना जैसे दृश्य भी सामने आते हैं। आदिवासी कविताओं में इसी सादगी का सोंधापन है।   

इन कविताओं की सबसे बडी बात है स्पष्टता। इस बात का ध्यान है कि सुनने वाला सहजता से अर्थ ग्रहण करे और आनंदित हो। कविता नयी पीढी को सिखाती है, युवाओं के लिये प्रेम संप्रेषण का माध्यम है तो बुजुर्गों के लिये अपने अनुभव बाँटने का भी। मैथिली शरण गुप्त की प्रसिद्ध कविता “माँ कह एक कहानी/ बेटा समझ लिया क्या तूने/ मुझको अपनी नानी” की पूरी बुनावट ही प्रश्न और उसका उत्तर है। अधिकतम बस्तरिया कविता का यही स्वाद है। गुलेल से शिकार करना सिखाने के लिये बना यह गीत और इसकी सहजता देखिये -   
कायनाके गुलेल दर्द कायनाके डोरी वो दई कायनाके गुलेल/ बाँस के तो गुलेल बाबू सन सुनरी डोरिगा बाबू/ कायनाके घोडा दर्द कायनाके फाटा वो दई/ बाँस के तो घोडा बाबू सुत के तो फाटा बाबू/ कायनाके धुनी दई कायनाके के गुल्ला/ बाँस के तो धुती बाबू माटी की गुल्ला/ कोनी हाथ में गुलेल दई कोनी हाथ में गुल्ला/ देरी हाथ में गुलेल बाबू जिउनी हाथ में गुल्ला।

बेटे का प्रश्न है कि माँ बताओ गुलेल कैसी होती है, वह कैसे बनायी जाती है? प्रत्युत्तर में माँ कहती है कि बेटे बांस की लकडी और सन की रस्सी से गुलेल बनती है। बेटा पुन: पूछता है कि गुलेल का घोडा किसका और उसकी लगाम किसकी बनेगी? माँ बताती है कि बाँस से घोडा बनाया जायेगा और सुतली से उसकी लगाम बनेगी, इस तरह गुलेल तैयार होगी। बात यहीं पूरी नहीं हुई चूंकि केवल गुलेल के घोडे और उसकी लगाम से ही बात नहीं बन सकती थी। बेटे ने अगला प्रश्न किया कि माँ टोकरी किससे बनती है और छोटी गोलियाँ किससे बनती हैं? माँ ने बताया कि टोकरी बाँस से बनेगी और मिट्टी से छोटी छोटी गोलियाँ बनायी जायेंगी जिनका प्रयोग गुलेल से शिकार करने के लिये किया जायेगा। बेटे ने पुन: पूछा कि किस हाँथ में गुलेल पकड़नी है और गोलियाँ किस हाँथ में रख कर चलानी है? माँ बताती है कि बेटे गुलेल को बायें हाँथ में पकड़ना है तथा दायें हाँथ से गोलियाँ चलानी है।      

कविता वह जो अपने परिवेश का दृश्य उपस्थित कर दे, परिस्थितियों का इस तरह प्रस्तुतिकरण हो कि उसे सुनने वाला भाव-विभोर हो उठे। अकाल पर इस आदिवासी कविता को देखिये जिसमें अनेक मर्म को छू लेने वाले बिम्ब हैं और एसे प्रभावी कि आश्चर्य से भर देते हैं। कविता है – 

निमारे वेके दांतोना रावानी/ डोरी भूमि दांतोंना दादा ले/ भूमि दुकार दुकार रौए दादा ले/ भूमि ते दुकार अरित रौए दादा ले/ हिकात हुरो भैंसो रौए दादा ले/ सरपाने भैसो अरित रौए दादा ले/ पुहले दहेलात रौनाल रौए दादा ले/ वेटले माराते कौशल रौए दादा ले/ कावर वोकार इंता रौए दादा ले  रायका रेयौन कौराल रौए दादा ले।  

एक भूखे का प्रश्न कि कहाँ उड़े बाज? और दूसरे भूखे का उत्तर कि बाज पश्चिम की ओर उड चला है क्योंकि भूख का दिन चढ़ा आया है और सारी दुनियाँ में अकाल फैला हुआ है। मेरे दोस्त वे भैंसे जो काली काली होती हैं सारी की सारी मर गई हैं। रूई के फूल सी सफेद होती हैं गायें, वे गर्मी में लडखडा कर गिर पडी हैं। टूटी हुई मिट्टी पर बाज और सूखे हुए पेड पर कौवा बोल रहा है और अब यह उड कर नीचे आने वाला है। 

अकाल पर मैने अनेकों कवितायें पढी हैं किंतु स्मरण नहीं आता कि इतनी स्वाभाविक और सजीव कोई अन्य रचना निगाह से गुजरी हो। समस्या अथवा परिस्थिति ही क्यों आदिवासी कविता अपने भूगोल और इतिहास की व्याख्या के साथ भी जुडती है। बस्तर में अन्नमदेव और उसके वंशज काकतीय नहीं चालुक्य थे इस बात को इतिहासकार बहुधा एक कविता में प्राप्त पंक्ति “चालकी बंस राजा” से जोड कर देखने की कोशिश करते हैं। इसी तरह कला संस्कृति किस तरह राज्यों-रियासतों के दायरे लांघती रही है यह जानने के लिये शरीर पर चित्रित कराये जाने वाले गोदना पर ये पंक्तियाँ देखें -      
                                                                       
अगो बागाईडाग टुमकी दाई/ राईगढ दा डंकिंग दाई/ अगो बागा वाताक़ंग दाई/ सिंगार काती वातांग दाई/ सिंगार काती पुरौंग दाई/ डंडा नीला किंतांग दाई/ हुई तासी पुरौंग दाई/ मात मोली हीवौन दाई/ मात कोटी हेवाक दाई/ मात सिंगार कोटेरोम दाई। 

प्रश्नोत्तर शैली की ही यह कविता बताती है कि गोदना गोदने वाले रायगढ से आये हुए हैं। रायगढ से बस्तर का जुडना और परस्पर कला के आदान प्रदान का इससे बेहतर साक्ष्य क्या हो सकता है। कविता में मानवीय भावों का चित्रण देखिये कि गोदना कराने वाली युवती सूई से डर रही है और होने वाले दर्द की कल्पना मात्र से विचलित है। वह गोदना न कराने के लिये तरह तरह के बहाने बना रही है जैसे कि ये गोदना करना नहीं जानते, इन्हें सूईयाँ चलाना नहीं आता इसलिये हम उनके दाम नहीं चुकायेंगे। इसके साथ ही साथ गोदना करा कर सुन्दर दिखने की इच्छा भी युवती में है अत: वह ऐसा रास्ता निकालना चाहती है जिससे दर्द भी न हो और काम भी बने अत: सखी से पूछती है कि अगर गुदनारियों (गोदना करने वालों) को आपत्ति न हो तो मैं स्वयं अपना गुदना कर लूं।  
     
जीवंतता आदिवासी समाज का परिचय है। आज घोटुल समाप्त हो गये हैं तथापि उससे जुडे गीत युवा मन के भीतर रचे बसे हैं। घोटुल वे सांस्कृतिक सभागार थे जिन्होंने लम्बे समय तक बस्तरिया आदिवासी कला, संगीत, साहित्य तथा समाज की बनावटक़ को दिशा देने में महत्व की भूमिका निभाई थी। घोटुल इतने शक्तिशाली संस्थान थे कि अनेक आदिवासी क्रांतियों के समय में वहीं युवा एकत्रित होते, वहीं उनके हथियार तैयार होते और वहीं से योजनायें बना करती थीं। घोटुल युवाओं नित्य रात्रि सम्मिलन स्थल तो था ही प्रेम और परिणय की स्थली भी था। चेलक और मोटियारी की अनेक मनोरम कहानियाँ और मनभावन दृश्य बस्तर में अब दिखाई-सुनाई नहीं पडते। घोटुल संस्था के इतिहास बनने की तकलीफ को उससे जुडी कवितायें कम अवश्य करती हैं। यह गीत देखिये जहाँ युवती विवाहित होने जा रही है अत: उसे घोटुल छोड़ना पड़ रहा है। यह उसके लिये गाया जा रहा बिदाई गीत है -  

घोटु दे गाजुर हिन्दु रौय हेलो/ किलो रे कोरू राचा रौय हेलो/ नियरा जोर तोर लायोर रौय हेलो  जोदिरे औनदौय किनी रोय हेलो/ संगी रे तासी डाकी रौय हेलो/ दिन्दा रे राजते मंडी रौय हेलो/  अंदेरे राजो पुतो रौय हेलो/ बुतो रे कबार पुनविन रौय हेलो/ सगारे सिदुर पुनविन रौय हेलो/ हतों ने वातों ने पुनवित रौय हेलो/ कोसूरे कोयतुने पुनविन रौय हेलो/ इडेके सूडी वायार रौय हेलो/ इडेके बारा पुंडाजी रौय हेलो। 

गीत में लड़की के लिये उलाहना है कि घोटुल जैसी सुन्दर जगह को छोड कर विवाहित होने जा रही हो अब आनंद के स्थान पर कठिन व्यावहारिक जीवन से तुम्हारा सामना होने वाला है। कविता युवती को छेडते हुए कहती है कि शोर और आनंद वाली स्थली, अविवाहितों का राज्य और अपने चेलक (प्रेमी) को तुम छोड कर जा तो रही हो, अब लौट कर इस आनंद और उत्सव भरी दुनिया में नहीं आ पाओगी। कविता युवती को सचेत करती है कि विवाह के बाद तुम नहीं जानती कि कैसे कैसे समयों से गुजरना होगा, कैसे कैसे मेहमान आयेंगे, कैसे कैसे अधिकारी आयेंगे, कितना श्रम है विवाहितों की दुनिया में यह सब तुम जल्दी ही जान जाओगी।  

आदिवासी जीवन में युवक और युवती विषम इकाईयाँ नहीं हैं। वे एक साथ हैं तभी उत्सव हैं अत: गीतों पर भी दोनो का समान हक है। घोटुल छोडने वाले लडके पर यह रचना देखिये - 

डिंडोराजि जोराजो निना/ इडे राजो पुटी नोनो/ निया वायना घोटुल नोना/ पारमाकोरो घोटुल नोना/ दावा कायदे गिकी नोना/ टिना कायदे हर्गा नोना। 

भावार्थ है कि युवक अब तुम स्वतंत्र लोगों के राज्य को छोड कर परतंत्रता की दुनिया में जा रहे हो। मैं इस बिम्ब से बहुत प्रभावित हूँ जहाँ युवक की सुन्दरता की तुलना सांड के सींगों से की गयी है। तुलना अद्भुत है कि ओ सांड के सींगो से सुन्दर युवक घोटुल में तुम्हारी स्मृतिया सर्वदा रहेंगी कि किस तरह तुम बायें हाथ में गीकी (चटाई) और दायें हाथ में डंडा लिये रोज यहाँ आया करते थे। 

संवेदनायें केवल मनुष्यों से जुडी नहीं अपितु सम्पूर्ण जीव और वनस्पति जगत भी तो आदिवासियों का सहचर है। युवक विवाह करने जा रहा है और ताड का पेड जो चार दीवारी के पास लगा हुआ है वह उदास है। कविता देखिये – 

बारी काटा छिन्द बूटा राती राती कंडे/ ना कांड रे छिन्द बूटा बाबू मौड़ पिंडे/ बाँदो ते बाँदो पुजारी चुटुक मौड बाँदो।  

युवक के नये जीवन में उस ताड के पेड की भी तो सहभाविता होगी जो घर की चारदीवारी में खडा है। जिसने युवक को निरंतर बडा होते देखा है। वह जिसके पत्ते युवक के छत पर का छप्पर हैं और जिसका रस युवक को सर्वदा आनंदानुभूति देता रहा है। आदिवासी पिता ताड की मनोदशा को समझ रहा है इसलिये उसे सांत्वना देता है, ओ ताड के पेड मैं जानता हूँ कि तुम सारी रात रोते रहे हो। अब मत रोना क्योंकि अपने विवाह के अवसर पर मेरा बेटा तुम्हें मौड के रूप में अपने सिर पर अवश्य पहनेगा।  

नख-शिख वर्णन में हिन्दी के मध्यकालीन कवियों ने दर्जनों ग्रंथ रच दिये हैं और सभी के केन्द्र में नायिकायें ही रही हैं। यह रचना देखिये जहाँ आदिवासी युवक के अंग प्रत्यंग का मनोहारी वर्णन किया जा रहा है। कोई युवक लडकियों के समक्ष अपने मित्र का रूप चित्र रख रहा है  - 

कुडौर कोलांग डाकांग मावौर/ नेका डाकांग वातमा मावौर/ केरी गाबो मेंडुल; मेंडुल गाला निनदोये/ अली आकी मोहा; मोहा गाला निनदोये/ बरेल आपकी छाती छाती गाला निनदोये/ कारेका काया तेला; ताला गाला निन्दोये/ किरवूल माटी डंडा; डंडा गाला निनदोये/ नेका झाले केना डंडा डोले मायार। 

युवक छैला-छबीला-गठीला है। लडके का एक डग कुदाल की मूठ जितना लम्बा है। वर्णन करने के साथ ही गीत के माध्यम से वर्णित युवक को अपनी विशेषताओं का प्रदर्शन करने के लिये भी उकसाया जा रहा है कि जल्दी जल्दी डग मत भरो लडके। गीत आगे कहता है कि लडके का तन केले के फल की तरह है; वह अभी पका हुआ नहीं है। लडके का चेहरा पीपल के पत्ते जैसा है; वह अभी पका नहीं है। लडके की छाती बरगद के पेड की तरह है, वह अभी पकी नहीं है। लडके का सिर कादान के फल की तरह है, वह अभी पका नहीं है। लडके का हाथ टुंडरी की जड के समान है, वह अभी पका नहीं है। ओ लडके अपना हाथ अधिक मत हिलाओ, वर्ना यह टूट जायेगा। 

सभी उदाहरण यह तर्क सिद्ध करते हैं कि बस्तरिया आदिवासी कविता में प्राण तत्व हैं। इन्हें सुननना भी अनूठा अंभव होता है चाहे आप पंक्तियों के अर्थ न समझ रहे हों। “ते रेला, रे रेला रे रेलो” अथवा “ते नामुर ना मुर रे ना ना” जैसी अनेक स्थाई धुनों में गीत पिरोये हुए हैं जो नितांत कर्णप्रिय प्रतीत होते हैं। ध्वनियाँ भी गीतों में जगह बनाती दिखाई पडती हैं जैसे  - “टिमकी टिमकी टिम टिम/ टिम टिम टिम टिम/ ते ते रेलो रेलो रे हो ओ ओ”। मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग का सुन्दर उदाहरण भी काव्यांशों अथवा आम बोलचाल की भाषा में देखा सुना जा सकता है। यह कहावत देखें कि “काकडी चोर, कुम्हड़ा चोर, धीरे धीरे घर फोड़” अर्थात कहड़ी और कुम्हड़ा जैसी छोटी छोटी चीजें चुराने वाला एक दिन अपना घर अवश्य फोड लेगा।

बस्तर में लोक काव्य के गायन की परम्परा है तथा चईत परब, लेजा, डाँडामाली आदि गीत बहु प्रचलित है। अनेक गीत ऐसे भी हैं जिन्हें महाकाव्यों की श्रेणी प्रदान करनी चाहिये। कई तरह के जगार गाये जाते हैं जिन्हें जागृति पर्याय से समझना अधिक उचित होगा। जगार वस्तुत: उत्सवधर्मी आयोजन ही हैं जिसमें कभी देवता को जगाने का प्रायोजन होता है तो कभी अच्छी फसल के आभार स्वरूप। लछ्मी जगार, तिजा जगारम अस्य़मी जगार, बाली अगार आदि मौखिक परम्परा के महाकाव्य बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों में अपने अस्तित्व की लडाई लडते हुए आज भी चलन में हैं।
बस्तरिया आदिवासी कविता के वर्तमान स्वरूप की तलाश में पिछले दिनों दक्षिण बस्तर क्षेत्र में मुझे पत्रकार साथियों के माध्यम से कुछ गीत सुनने को मिले जिन्हें जनगीत कहा गया था। बताया गया कि माओवादी इस माध्यम से कथित जागृति करते हैं तथा अपने संदेशों का ग्रामीणों के मध्य प्रसारण करते हैं। इस बात ने मुझे गीतों के भीतर अंतर्निहित ‘जागो’, ‘लडो’ और ‘होंगे कामयाब’ जैसे कठपुतली शब्दों की भावभंगिमाओं को बूझने पर बाध्य किया। यह बात समझ से परे नहीं कि आज हिन्दी कविता की हत्या के जिम्मेदार वे लोग हैं जिन्होंने सहज अभिव्यक्ति के इस माध्यम पर प्रयोगों और विचारधाराओं से कुठाराघात किया है। छापने और पुरस्कारों का चुग्गा दे दे कर जैसी कविता पिछले कुछ दशकों से मुख्यधारा में चलाई-खपाई जा रही है वह एक फारमेट है, एक ढाला हुआ सांचा जिसमें सहज अभिव्यक्ति का कोई स्थान नहीं। एसी कवितायें जिन्हें पाठकों तक पहुँचना ही नहीं है, ये वो कवितायें हैं जिनका जन्म किसी सोच, अनुभूति अथवा पीडा से नहीं हुआ है अपितु ये गिरगिट हैं जिन्हें संपादक की उंगली के इशारे पर पत्रिका के कलेवर वाला रंग धारण कर लेना है। 

आयातित जनगीतों के नाम पर बस्तर के भीतरी क्षेत्रों में अवस्थित मौलिक आदिवासी कविता के साथ न केवल गैरजरूरी हस्तक्षेप हो रहा है अपितु इसकी आड़ में मांदर की ताल-धुन बदलने की जो कोशिश हो रही है वह स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रास्ते में खडा किया जा रहा बांध है। “जुगचो बोहता आँसू/ आमी हुनके पीवते रोहू” कह कर सदियों की अपनी पीडा को सशक्तता से आदिवासी कविता सामने लाती है तो यही कविता अपने देवता को भी पत्थर कहने की क्षमता रखती है और कह उठती है कि “देव तुचो जानू पखना होलीसे”। इतना ही नहीं कविता व्यवस्था के खिलाफ भी व्यंग्य करती है कि “पढुन लिखुन कुरची बसा/राज के चलावा/जोहार बाबू बल्ले कोनी/ मूड के हलावा” अर्थात पढ लिख कर मिली कुर्सी की उपादेयता क्या है और शासन क्या केवल इसी तरह चलाना है कि किसी ने नमस्कार-जोहार किया तो गर्दन भर हिलाते रहो। वाह!! ये कवितायें बस्तर की थाती हैं और आह!! कि इस विरासत को नष्ट होने से बचाने का कहीं कोई प्रयास भी नहीं।      

-राजीव रंजन प्रसाद 
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