Tuesday, October 21, 2014

लालबुझक्कड ही लिखेंगे बस्तर का इतिहास





हम इसी योग्य हैं कि हमें पूर्वाग्रही और विचारधारापरक इतिहास मिले। हम इसी योग्य हैं कि अतीत बांचने वाले हमारे क्रांतिकारियों को डाकू और लुटेरा लिख जायें। हम इसी योग्य हैं कि अंधेरे में जियें; रूस का गेंहूँ, चीन के खिलौने और अमेरिका की किताबें चाटते रहें। मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं हूँ लेकिन बस्तर को जितना टटोलने की कोशिश कर रहा हूँ उससे इस दावे में कोई त्रुटि नहीं कि हमारी इतिहास पुस्तकें केवल सतही हैं और आधिकतम तो मुंगेरीलाल के सपनों का दस्तावेजीकरण। मैं इस बात की शिकायत प्रस्तुत नहीं कर रहा कि बारसूर या गढधनौरा की अधिकांश जमीन के भीतर छिपी विरासतें कब बाहर लायी जायेगी? मुझे इस बात का रंज भी नहीं कि बस्तर के “नल” कौन थे और बस्तर के नागों की शासन प्रणालियाँ कैसी रही हैं, इसपर हमारे पास कोई संतोषजनक उत्तर क्यों नहीं हैं। किंतु जो विरासतें आज भी समय, पानी और उपेक्षा की मार झेलती हुई खडी हैं क्या हम उनकी मौत के पश्चात फिर उनपर काल्पनिक कहानियाँ गढ कर अपनी पीढियों के लिये छोड जायेंगे? ये सवाल भोपालपट्टनम में मेरे सामने साक्षात हो गये थे। 

भोपालपट्टनम में संदीपराज पामभोई जी से मुलाकात हुई। वे उस परिवार से सम्बन्ध रखते हैं जिनके पूर्वज बस्तर में काकतीय/चालुक्य शासनकाल के दौरान भोपालपट्टनम जमींदारी के प्रमुख रहे हैं। यह दुर्भाग्य है कि इस जमींदारी द्वारा चलाये जा रहे शासन प्रबन्धों, कर विधानों अथवा संचालित कार्यों का कोई दस्तावेज़ अब तलाशे नहीं मिलता। भोपालपट्टनम की सबसे भव्य इमारत जिसे स्थानीय राजमहल के नाम से पहचानते हैं, संरक्षण के अभाव में सिर्फ एक खण्डहर है। जानकारियाँ प्रदान करने की प्रक्रिया में संदीपराज जी ने बताया कि उनके पूर्वजों के कुछ स्मारक आज भी एक तालाब के निकट सुरक्षित हैं। भोपालपट्टनम में यह स्थान है जहाँ केवल पामभोई परिवार के ही सदस्यों का अंतिम संस्कार किया जाता है। 

पामभोई शासकों के स्मृति स्मारकों की ओर बाईक से आगे बढते हुए रास्ते में बिखरी हुई अनेक प्राचीन प्रस्तर प्रतिमायें दिखाई पड़ीं। एक पेड के नीचे अपने अस्तित्व की रक्षा में प्रयासरत नागयुगीन शिवप्रतिमा ध्यानमग्न थी। मैने दया भरी दृष्टि भोलेशंकर की इस प्रतिमा पर डाली जो कई सौ साल जिन्दा रही लेकिन हम अब अपनी अगली पीढी तक भी इसे सलामत नहीं पहुँचा सकेंगे। फिर भी प्रतिमा है तो उसके साथ कहानी भी होगी। मुझे बताया गया कि प्रात:काल हाट-बाजार जाता कोई भी ग्रामीण यहाँ अपनी मन्नत प्रकट करता हुआ चला जाता है कि आज उसकी सब्जी बिक जाये, उसकी इमली खरीद ली जाये। अगर उनकी सुनी नहीं गयी तो भगवान शंकर की इस प्रतिमा की खैर नहीं। लौटते हुए वही ग्रामीण बची हुई इमली या कि टमाटर या जो कुछ भी उसके पास होता है यही प्रतिमा के सर पर पटक जाता है। इस कहानी से मुझे उत्तर बस्तर के भंगाराम की याद ताजा हो आई जहाँ भक्त की मन्नतें पूरी नहीं करने वाले देवताओं को अदालत लगा कर सजा दी जाती है। ईश्वर और उसके आस्थावानों का ऐसा सम्बन्ध केवल बस्तर में ही देखने को मिल सकता है, जीवित धर्म वास करता है यहाँ। 
घास में दबे एक पत्थर कर उकेरी हुई नक्काशियों ने बहुत प्रभावित किया तो हम वहाँ रुक कर उसका अपने अनुमानों के आधार पर विवेचन करने लगे। यह शिलाखण्ड किसी मंदिर के द्वार स्तम्भ का हिस्सा रहा होगा, आज अनजाना सा घांस-लताओं में दुबका-छिपा अपर्दित हो रहा है। हमने पिछले हिस्से को देखने की जिज्ञासा में जैसे ही इस शिलाखण्ड को हिलाया सिहर गये। भीतर एक वृहदाकार बिच्छू था जो हलचल के पश्चात अपना डंक उपर उठाये हमलावर मुद्रा में इधर उधर भागने लगा। चलिये, जिन विरासतों को हमने नहीं अपनाया उन्हें इन साँप-बिछुओं ने अपना बना लिया। 

आगे बढने के पश्चात दो वृहदाकार स्मृति स्मारकें दृष्टिगत हुई। एक वर्गाकार चबूतरा जिसके हर ओर से सीढियाँ उपर की ओर जाती हैं। चबूतरों के चारो ओर चार स्तम्भ तथा शीर्ष पर एक गुम्बद। दूर से इसकी ओर निहारते हुए यह पीड़ा हो रही थी कि धीरे धीरे समय अपने आगोश में इन स्मृतियों को लेता जा रहा है। इन स्मारकों तक बिना झाडियों और घास-लताओं को हटाये पहुँचना संभव नहीं था। देखते ही यह अहसास होता है मानों सैंकडों वर्षों से स्मारकों को प्रतीक्षा हो कि कोई आयेगा और पूछेगा इनसे वे कहानियाँ, जिन्हें जिन्दा रखने के लिये यह निर्माण किया गया था। इन स्मारकों की दीवारें काई से पटी पडी थी इसलिये प्रतीत होता था जैसे किसी ने इन्हें हरा रंग दिया हो, मनुष्यों की निर्मितियों की सुध वे ही नहीं लेंगे तो प्रकृति यथासंभव संवारेगी-सुधारेगी ही। झाडियों को परे कर हम जैसे ही एक स्मारक के निकट पहुचे उसे संपूर्णता से निहार कर बीते हुए युग की भव्यता का अनुभव हुआ। 

मकडी के जालों ने मुश्किल से स्मारक के भीतर जाने की जगह प्रदान की। आम तौर पर स्मारक के मुख्य चबूतरों के मध्य में एक छोटा चबूतरा भी होता है जिसे प्रतीक माना जाता है। दुर्भाग्यवश मध्य का हिस्सा बुरी तरह खोद दिया गया था। मेरी निगाह प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ संदीप जी के चेहरे की ओर टिक गयी। उन्होंने बताया कि खजाने की तलाश में लोगों ने यहाँ स्थित पुराने मठों के मध्य से अथवा किनारों से खुदाई कर दी है। इससे संरचना का जो नुकसान होना था वह तो हुआ ही चोरो को जो कुछ मिला होगा उससे अधिक और बेशकीमती बस्तर ने खो दिया है। आसपास अवस्थित दोनो भव्य मठ निश्चित ही बेहद प्राचीन हैं लेकिन अब परिजन भी नहीं बता सकते कि किसके हैं और किस युग के हैं। आखिर कौन है इन परिस्थितियों का जिम्मेदार? नाहरसिंह पामभोई अन्नमदेव की बस्तर राज्यस्थापना के पश्चात प्रथम नामित जमींदार थे। आज भी पामभोई पीढियाँ भोपालपट्टनम में निवासरत हैं लेकिन समय ने उनके पास वे क्षमतायें नहीं रखीं कि राजमहल तथा अपने पूर्वजों के भव्य स्मारकों की देखरेख कर सकें। क्या इसका अर्थ यह है कि बस्तर के ये इतिहास साक्ष्य संरक्षित रहने का हक नहीं रखते?

आसपास अनेक स्मारक हैं, कुछ नये भी। इस पूरे क्षेत्र में अनेक प्राचीन प्रतिमायें बिखरी हुई हैं जिनमें से अधिकांश नंदी की हैं। मुझे बताया गया कि निकट ही अठारहवी सदी का एक स्मारक भी है जो किसी अंग्रेज का है। बहुत रुचि के साथ मैं इस मृतक स्मारक को देखने के लिये पहुँचा। स्मारक क्या केवल ढाँचा भर रह गया था जिसकी आकृति ही उसे निकटवर्ती अन्य स्मारकों से पृथक करती थी। संदीप लगातार इस स्मारक पर निगाहें गडाये कुछ तलाश कर रहे थे। अंतत: उन्होंने बताया कि सब नष्ट हो गया। पहले इस पर उस अंग्रेज का नाम तथा मृत्यु तिथि अंकित थी। 

मेरे सामने यह प्रश्न था कि क्या बस्तर के वे सभी प्राचीन मृतक स्मृति स्मारक इसी अवस्था में हैं जिनका सम्बन्ध प्राचीन शासकों अथवा जमींदारियों से रहा है? मुझे बताया गया कि कुटरू में भी यही स्थिति है और वहाँ भी लोगों से खजाने की आस में स्मारक को खोदा हुआ है। सवाल और बडा हो गया था इस लिये मैने सीधे जगदलपुर चलने का फैसला किया। मैं यह सुकून पाना चाहता था कि बस्तर के प्राचीन शासकों के स्मृति स्मारक तो कम से कम अच्छी हालत में हैं। जैसे ही जगदलपुर में अवस्थित उस स्थल पर पहुँचा जहाँ बस्तर के काकतीय/चालुक्य शासकों की अंतिम स्मृतियाँ अवस्थित हैं, बस नि:शब्द रह गया। 

चारदीवारी अवश्य थी किंतु उसके कोई मायने नहीं थे। मुख्यद्वार कभी बंद किया जाता हो ऐसा लगता नहीं। भीतर पेड़-पौधे, जंगली घास और लतायें उग आयी थीं। कुछ भव्य संरचनायें दिखाई पड रही थीं जिन तक पहुँचना साहस का कार्य था। मैने हिम्मत की और आगे बढा तभी एक बच्चे ने मुझे यह कह कर रोक दिया कि आगे मत जाओ लोग वहाँ मैदान में लोग शौच करते हैं। दिमाग सुन्न हो गया था लेकिन निकट से यह जानना आवश्यक था कि आखिर स्मारकों की वास्तविक स्थिति क्या है। आखिरकार दो स्थानीय मुझे दिखाई पडे जिसमे से एक लम्बे समय से वहीं रहता था और दूसरा राजमहल मे कर्मचारी था। मुझे दु:ख इस बात का हुआ कि उनमे से कोई स्पष्ट रूप से बताने में सक्षम नहीं था कि कौन से स्मारक किस शासक के हैं। 

जो प्राचीनतम स्मारक थे, मैं झाडियों-लताओं से लडता हुआ उनतक पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि इन्हें भी दूसरी ओर से खोदा गया है। स्थानीय पड़ताल से पता चला कि कुछ वर्ष पूर्व खजाना तलाशने की इच्छा से आये कुछ लोगों ने जब यहाँ के स्मृति स्मारकों की रात्रि में खुदाई आरम्भ की तब उन्हें पकड कर पुलिस के हवाले भी किया गया था। जो अहाता है उसके लगभग मध्य में जो स्मारक है उसका चबूतरा द्विस्तरीय है एवं संगमरमर का बना हुआ है। स्मारक के स्तम्भ उपरी हिस्से तथा गुम्बद नक्काशीदार है। वहाँ समुपस्थित सभी स्मारकों में यह सर्वाधिक सुन्दर प्रतीत होता है। यद्यपि खजाना खोजने की आकांक्षा वालों ने इस स्मारक का उपरी हिस्सा भी नष्ट करने का यत्न किया है। यह स्मारक मुझे महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी का बताया गया।      
    
दुर्भाग्यवश ग्रामीण इस बात में एक मत नहीं हैं कि कौन से स्मारक किस शासक के हैं। किसी भी स्मारक पर कोई परिचय चिन्ह अथवा नाम आदि लिख कर उन्हें पहचान देने की कोशिश नहीं की गयी है। मैं बहुत दावे के साथ स्मारकों को उनकी वास्तविक पहचान से नहीं जान सका यद्यपि आज भी इतिहासकारों और राज-परिजनों के लिये यह कोई कठिन कार्य नहीं है। मैने जब महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की समाधि के विषय में पूछा तो स्थानीय लोगों ने जिस समाधि की ओर इशारा किया उसकी अवस्थिति तो अत्यधिक दयनीय थी। समाधि को एक ओर तेजी से बढ रहे पेड की टहनी ने धकेलना आरंभ कर दिया था तो वह भीतर से झाड़ झंकाड से इस तरह घिरा अस्तित्व बचाने के लिये जूझ रहा था मानो अब शिकायत भी नहीं कि क्यों इतनी उपेक्षा से इसे छोड दिया गया है। यह किसी राज-परिवार का मसला नहीं है अपितु महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव तक के सभी स्मारक वस्तुत: बस्तर इतिहास की थाती हैं। महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव का बस्तर के इतिहास और वर्तमान को गढने में भी जो योगदान है क्या उसके दृष्टिगत उनकी स्मृतियों को इस तरह उपेक्षित रखना उचित है? 

अतीत को ले कर हमारा दृष्टिकोण बहुत ही कामचलाऊ है। हम किताबों को पढ कर ही इतिहास का बोध रखने में रुचि रखते है न कि जिन्दा स्मृति शेषों से अपने कल को जानना बूझना चाहते हैं। हमारे पास दायित्वबोध ही नहीं है कि अतीत का संरक्षण वस्तुत: मिथक कथाओं की तरह लिखे जाने वाले इतिहास का प्रतिवाद बन सकता है। आज बस्तर को एक दूसरा चेहरा देने की जो कोशिशे हो रही हैं उसका कारण हमारी अपनी उपेक्षायें ही हैं। यह सावधान होने का वक्त है अन्यथा कोई बडी बात नहीं कि कल बस्तर का इतिहास केवल लाल-आतंकवाद की परिधि तक सिमटा रह जाये। दिल्ली के बडे बडे प्रकाशन संस्थाओं के सम्पादक जिस तरह चुनिंदा कहानियों और विचारधारापरक घटनाओं को ही दस्तावेजीकृत करने पर जोर देते हैं, कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाली पीढी बस्तर को अंधे का हाँथी समझ बैठे। परिस्थितियाँ यही रहीं तो कदाचित केवल लालबुझक्कड ही लिखेंगे बस्तर का इतिहास। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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