Thursday, November 30, 2006

गज़ल

जिस राह पर चलो तुम, मेरी भी राह हो
पग-पग में गुल बिछे हों, पेडों की छांह हो..

इस तरह मुझसे यार, निगाहें चुराये है
जैसे मेरी निगाह, उसी की निगाह हो..

दाँतों से लब दबाये, जो होठों से गुल छुवे
जैसे मेरा गुनाह, उसी का गुनाह हो..

बाहों में भर लिया तो वो आँखें नहीं खुली
जैसे मेरी पनाह, उसी की पनाह हो..

राजीव डूबता हूँ, तो वो भी पिघल गया
जैसे मेरा बहाव उसी का बहाव हो..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१२.११.२०००

Wednesday, November 29, 2006

गज़ल

जैसे इकलौता गुल खिल कर, काँटों को बेमोल बना दे
सीपी क्या है एक खोल है, मोती हो अनमोल बना दे..

तुम होते हो खो जाता हूं, फिर अपनी पहचान साथ है
जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..

मन के भीतर की आवाज़ें, आँखों से सुन लेता हूँ,
साथ हमारा एसा जो, खामोशी को भी बोल बना दे..

तुम को खो कर हालत मेरी, उस बच्चे के इम्तिहान सी
टीचर उसकी काँपी में, कुछ अंक नहीं दे गोल बना दे..

चार दीवारें, आँखों में छत, तनहाई "राजीव" रही
जैसे गम दुनिया निचोड कर इतना ही भूगोल बना दे..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१२.११.२०००

Friday, November 24, 2006

काला जादू

काला जादू

जब कि बादल नहीं होते
जी करता है खींच लूं चोटी तुम्हारी
और तुम झटक कर सिर
आँखों को तितलियाँ कर लो
अब कि जब मेरी हथेलियों में
तुम्हारा आंचल होता
तुम सिमट आती मेरे करीब
तुम्हारे केश मेरी उंगलियों पर
जाल बनाते जाते हैं
खुलते जाते हैं खुद ब खुद
घनघोर काली घटाओं का काला जादू
गुपचुप मुझमें खो जाता है
तुम में चुप सा बो जाता है..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.११.९५

Tuesday, November 21, 2006

कतरा-कतरा

उसने मुझको छोड
मेरे कतरे कतरे को चाहा था
उसने कतरा कतरा ले कर
मुझको छोड दिया जीने..

मैं कहता हूँ सागर से
मुझमे डूब मरो कम्बख्त
कलेजा भर जायेगा
मेरी आँखों से तो सारा झर जायेगा
उसने तो मन की गागर में
ठूस ठूस कर सागर भर कर
मुझको छोड दिया पीने...

मेरा लहू निकाला मुझसे
मेरी आँखें छीन ले गया
मेरे मन की जीभ काट ली
मेरे पंख कुतर डाले
मैं कहता था दिल चिरता है
और कलेजा फट पडता है
कुछ मकडी के जाले दे कर
मुझको छोड दिया सीने...

*** राजीव रंजन प्रसाद
बच्चों सा

मै अपनें सब्र की शरारत से हैरां हूँ
ईतना बडा पत्थर कलेजे पर ढो लाया
और अब टूटे हुए कलेजे पर
टूटे हुए खिळौने सा रूठता है..
बच्चों सा


***राजीव रंजन प्रसाद

Monday, November 20, 2006

मौत

मेरे कलेजे को कुचल कर
तुम्हारे मासूम पैर जख्मी तो नही हुए?
मेरे प्यार
मेरी आस्थाए सिसक उठी है,
इतना भी यकीन न था तुम्हे
कह कर ही देखा होता कि मौत आये तुम्हे
कलेजा चीर कर
तुम्हे फूलो पर रख आता......

***राजीव रंजन प्रसाद
उधार की ज़िन्दगी

मैने सोचा न था
कि सिर्फे एक स्वप्न मुझे
एक आसमान और अमावस की
अँतहीन रात भेट करेगा
और मेरे कँधे पर
अहसान भरा हाथ रख कर कहेगा
लो आज से उधार की ज़िन्दगी जीयो तुम......

***राजीव रंजन प्रसाद
खामोश मौत

वो जो तङप भी नही पाते है
उनसे क्या पूछते हो मौत क्या है,
तङप कर जिनमे सह लेने का साहस आ जाता हो,
उनसे क्या पूछते हो मौत क्या है....
मेरी साँस लेती हई लाश से पूछो
कि तडपन की शिकन को दाँतो से दाब कर
मुस्कुरा कर
यह कह देना "जहाँ रहो खुश रहो"
फिर एक गेहरी खामोश मौत मर जाना
कैसा होता है..

***राजीव रंजन प्रसाद्
मै बिखरता जाता हूँ

मैने फूटा हुआ आईना जोडने कि कोशिश मे
ज़िन्दगी बटोर ली
दर्द की लेई बना कर
सब कुछ जोडता जाता हूँ......

वक्त के साथ कडुवाहट जुडती है
कडुवाहट के साथ अश्क जुडॅते है,
अश्क के साथ टीसे जुडती है
टीसो के साथ आहे जुडती है
आहो के साथ कसक जुडती है
कसक के साथ बहुत से सपने बटोर कर जोडता हूँ..
और उनके साथ तुम्हे जोडता हूँ

ज़िन्दगी जुडती जाती है,
मै बिखरता जाता हूँ...

***राजीव रंजन प्रसाद
मूरत

और भी लोग है
जिन्हे तुमसे मुहब्बत होगी
और भी दिल है,
जिन्हे तेरा दर्द भाता है
और भी आह
तेरे ज़ख्म से उभरती है
और भी टीस तुझे देख कर उतरती है...

मै फिर भी ईस बियाबा मे
पत्थ्रर तराशता फिरता हूं
मुझे सिर्फ मुझे ही आस्था है तुम पर..
कि मन्दिर बना कर ही दम लूंगा
जिसमे तुम्हारा एक बुत रख
र्प्राण-प्रतिष्ठा कर दूंगा उसमें..

बोलो क्या तब तुम सारी दुनिया से सिमट कर
एक पत्थर की मूरत नहीं हो जाओगी....

*** राजीव रंजन प्रसाद
आत्मसंतोष


वे सारे लोग
जिनसे धोखा खाया है तुमने
भले थे..

उन्होने तुम्हे अनुभव दिया है
और चेतना का उपहार भी
और ले गये हैं साथ
एक आत्मग्लानि
वे तुमसे कभी आँख नहीं मिलायेंगे
उन गलियों, रास्तों और कूचों से
बच कर निकलेंगे
जिनसे तुम निर्बध
गुजरते रहते हो..

अपने अफसोस को
आत्मसंतोषमें कर दो परिणित
प्रसन्नता का एक कारण बना लो...

***राजीव रंजन प्रसाद
गज़ल

मन को भी रफू कीजिये, केंचुल निकालिये,
बन कर दिखे जो आदमी, हैरत में डालिये..

रंगों ने ढक रखा है, वो चेहरा गुलाब सा,
गो सादगी कहाँ है कि,चाहत ही पालिये..

मोबाईलों के दौर में, ईज़हार-ए-ईश्क क्या,
एक कान का रिश्ता है, क्या जां निकालिये..

पुरबा में मन हिलोरा, सावन में मोर नाचे,
सदियाँ ही जैसे बीतीं, एसा मज़ा किये..

मरते हुए जीते हैं वो, "राजीव" तुम डरो,
मारे ही जाओगे कि जो, जीते हुए जिये..

***राजीव रंजन प्रसाद
परिचय......राजीव रंजन प्रसाद
कविता ईन्हें विरासत में मिली है. कवि के शैशवकाल में ही पिता का देहांत हो गया था. पिता की लेखनी ही मुझमें जीती है, एसा कवि का मानना है."राजीव रंजन प्रसाद का जन्म बिहार के सुलतानगंज में २७.०५.१९७२ में हुआ, किन्तु उनका बचपन व प्रारंभिक शिक्षा छत्तिसगढ राज्य के अति पिछडे जिले बस्तर (बचेली-दंतेवाडा)में हुई. विद्यालय के दिनों में ही उन्होनें एक अनियतकालीन-अव्यावसायिक पत्रिका "प्रतिध्वनि" निकाली....ईप्टा से जुड कर उनकी नाटक के क्षेत्र में रुचि बढी और नाटक लेखन व निर्देशन उनके स्नातक काल से ही अभिरुचि व जीवन का हिस्सा बने.
आकाशवाणी जगदलपुर से नीयमित उनकी कवितायें प्रसारित होती रही थी तथा वे समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकशित भी हुए किन्तु अपनी रचनाओं को संकलित कर प्रकाशित करनें का प्रयास उन्होनें कभी नहीं किया.
उन्होंने स्नात्कोत्तर की परीक्षा भोपाल से उत्तीर्ण की और उन दिनों वे भोपाल शहर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का सक्रिय हिस्सा भी रहे. ईन दिनों वे एक प्रमुख सरकारी उपक्रम "राष्ट्रीय जलविद्युत निगम" में सहा. प्रबंधक (पर्यावरण)के पद पर कार्यरत हैं..लेखनी उनकी अब भी अनवरत गतिशील है......