Friday, November 24, 2006

काला जादू

काला जादू

जब कि बादल नहीं होते
जी करता है खींच लूं चोटी तुम्हारी
और तुम झटक कर सिर
आँखों को तितलियाँ कर लो
अब कि जब मेरी हथेलियों में
तुम्हारा आंचल होता
तुम सिमट आती मेरे करीब
तुम्हारे केश मेरी उंगलियों पर
जाल बनाते जाते हैं
खुलते जाते हैं खुद ब खुद
घनघोर काली घटाओं का काला जादू
गुपचुप मुझमें खो जाता है
तुम में चुप सा बो जाता है..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.११.९५

1 comment:

Anonymous said...

कविता बहुत अच्छी है
अभिषेक