काला जादू
जब कि बादल नहीं होते
जी करता है खींच लूं चोटी तुम्हारी
और तुम झटक कर सिर
आँखों को तितलियाँ कर लो
अब कि जब मेरी हथेलियों में
तुम्हारा आंचल होता
तुम सिमट आती मेरे करीब
तुम्हारे केश मेरी उंगलियों पर
जाल बनाते जाते हैं
खुलते जाते हैं खुद ब खुद
घनघोर काली घटाओं का काला जादू
गुपचुप मुझमें खो जाता है
तुम में चुप सा बो जाता है..
*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.११.९५
1 comment:
कविता बहुत अच्छी है
अभिषेक
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