Sunday, June 04, 2017

एक पेड़ के बदले एक सिर



यह वर्ष 1859 की घटना है जिसे कालांतर में "कोई आन्दोलन" के रूप में जाना गया। बस्तर रियासत के राजा और दीवान की उपेक्षा करते हुए अंग्रेजों ने यहाँ के जंगलों को काटने का ठेका निजाम हैदराबाद के आदमियों को दे दिया था। बाहरी ठेकेदार को न तो आम आदिवासी के सरोकारों से मतलब था न ही उसे लूट के दामों में यहाँ से सस्ते मजदूर अपने राज्य में उपलब्ध हो सकते थे। कितने आश्चर्य की बात थी कि जिनका जंगल है वे नहीं जानते कि यहाँ कटाई किसलिये हो रही है। जिनके घर हैं इन जंगलों में वे नहीं जानते कि उन्हे उजड़ जाने के आदेश किसलिये दिये गये। सबसे बड़ी बात कि जंगल बस्तर का और लाभार्थी निजाम? जंगल की कटाई आरंभ हुई तब इसकी गंभीरता का किसी को अनुमान नहीं था। पहले पहल असंतोष ठेकेदार हरिदास भगवानदास के कारण उभरा। हरिदास के सिर्फ नाम में हरि था किंतु मानवता उसमें नाम मात्र नहीं थी। उसकी निगाह में आदिवासी इंसान नहीं थे। उसके लिये कटाई के कार्य में लगे मजदूर निजी संपत्ति थे। 

जंगल की कटाई के काम ने जैसे ही गति पकड़ी, आदिवासियों में बेचैनी बढ़ने लगी। आदिवासियों के भीतर इस आरा मशीन से तेजी से काटे जा रहे जंगलों के खिलाफ आक्रोश पनपने लगा। स्थान स्थान पर आदिवासी लामबन्द होने लगे। मुख्य संगठनर्ता नेताओं में भोपालपट्टनम से रामभोई; भीजी से जुग्गाराजू और जुम्मा राजू; फोतकेल नागुलदोरा और कुन्यादोरा आदि थे। जंगल नहीं रहेगा तो घर किधर रहेगा, शिकार किधर रहेगा? यह दुष्चिंता आदिवासियों की पर्यावरण के प्रति अपनी समझ से निकली थी। चिंता स्वाभाविक भी थी, इस तेजी से जंगल के कटने को बस्तर ने पहले कभी नहीं देखा था। आरा मशीनें देखते ही देखते सागवान के बड़े बड़े पेड़ धराशायी कर देती और फिर उससे निश्चित आकार के छोटे छोटे टुकड़ों को काटा जा रहा था। इन लकड़ियों को ढुलवा कर हैदराबाद ले जाया जाता था। माझियों में रेलगाड़ी या उसके लिये लगने वाले स्लिपरों की समझ नहीं थी लेकिन इतना वे जानते थे कि जंगल उनकी अपनी संपत्ति हैं। जो कुछ भी हो रहा है वह डकैती है। अपने जंगल खो देने के अहसास ने उन्हें एक जुट कर दिया। यह तय किया गया कि अब जंगल और नहीं कटने दिये जायेंगे। माझियों ने एक राय हो कर फैसला किया कि "एक पेड़ के बदले एक सिर होगा" और यही संदेश उन्होंने अपने राजा, अंग्रेज अधिकारियों और ठेकेदारों को भी भिजवा दिया। 

वह साम्राज्य जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता उसके प्रतिनिधियों को जुगनू आँखें दिखाये यह तो बर्दाश्त किये जाने वाली बात नहीं थी। निर्देश जारी किये गये कि जंगल की कटाई करने वाले मजदूरों के साथ हथियारबंद सिपाही भेजे जायें। आदिवासी भी अब हथियार का जवाब हथियार से देने के लिये तैयार थे। उनका नारा था – एक पेड़ के पीछे एक सिर। अगली सुबह खबर फैली कि आरा चलाने वालों के साथ हथियारबंद सिपाही लगाये गये हैं। स्वत: स्फूर्त आक्रोश ने जन्म लिया। सवाल जंगल का था। बंदूख के साये में आरा मशीनों की घरघराहट जैसे ही आरंभ हुई आदिवासी अनियंत्रित हो गये। हजारो सिर कुर्बानी देने के लिये तत्पर हो गये। ठेकेदार स्तब्ध रह गया। हर ओर से भाले और फरसे लिये वे दौड़ते चले आ रहे थे। नंगी छातियों ने खुली चुनौती दे दी कि चाहे जितने कारतूस फूंक दो अब रहेंगे तो हम और हमारे जंगल या फिर कुर्बानी ही सही। इससे पहले कि मशीने सागवान का सीना चीरती अनेक पेड़ों की तनों पर चेतावनी से भरे बाण बिंध गये। रायफ़लें भी गरजी। भाले और तीर कमानों ने भी वीरता के साथ प्रत्युत्तर दिया। युद्ध शस्त्रों से ही नहीं हौंसलों से भी लड़े जाते हैं। दो चार राईफलों से इतने बड़े हमले का सामना संभव नहीं था। आरा चलाने वाले, निजाम के दोनों कारीगरों के सिर धड़ों पर नहीं रहे। लकड़ी की टालों को आग के हवाले कर दिया गया। एकदम से दहशत व्याप्त हो गयी, लकड़ी काटने के लिये आये सभी आदमी भाग खड़े हुए तथा ठेकेदार को भी भूमिगत हो जाना पड़ा। 

चिंतलनार के पास बंजारे अभी भी निजाम के लोगों तक लकड़ी पहुँचा रहे थे। आदिवासियों के नाजायज शोषण में बंजारों की कई सौ सालों से भूमिका रही है। नमक, गुड़ और कुछ रंग-बिरंगे सौन्दर्य उत्पादों के एवज में कीमती वनोपज धड़ल्ले से राज्य के बाहर ले जाया जाता है। बापीराजू की अगवाई में घात लगा कर बैठे आदिम वीरों ने अनेकों बंजारा काफिलों पर एक साथ हमला किया। सामान लूट लिया गया। एक काफिले से ढ़ाई हजार रुपये भी लूटे गये। इसी तरह विद्रोह फैलता गया। समूचे दक्षिण बस्तर में कोई आन्दोलन का प्रभाव था। एक भी पेड़ कटता तो उसके एवज में जान ले ली जाती। अनेकों बंजारे और छोटे बड़े ठेकेदार मारे गये। स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि ग्लस्फर्ड को ब्रिटिश सेना ले कर दक्षिण बस्तर आना पड़ा। हालात का जायजा लेने के बाद अंग्रेज अधिकारी को पैरों तले जमीन जाती दिखी। विद्रोह को कुचला जा सकता था लेकिन इसमें महीनों लग जाते। जिस तरह अनेकों समूहों में बंट कर और अलग अलग नेतृत्व में यह विद्रोह सक्रिय था उससे निबटना आसान नहीं था। एक नेता या एक समूह द्वारा संचालित विद्रोह को तो अंग्रेज आसानी से मसल दिया करते थे, यह नयी परिस्थिति थी। जुग्गाराजू, जुम्माराजू, बापीराजू, नागुलदोरा, कुन्यादोरा, पामभोई, रामसायबहादुर....अनेकों नाम ग्लस्फर्ड के सम्मुख रखे गये। 

ग्लस्फर्ड की चिंता बढ़ गयी थी। अचरज भरा सच था कि अधनंगे और अधपेट जीने वाले आदिवासी ऐसी चुनौतियाँ उत्पन्न कर रहे हैं जो अंग्रेजों को अन्यत्र नहीं मिलीं। आदिमों की राजनीतिक समझ बेमिसाल थी। कागज पर शासक जो चाहे हों लेकिन जगदलपुर के प्रति ही राज्य की हर आदिम प्रजाति की प्रतिबद्धता रही। आदिवासी भी सामंती व्यवस्था के अंतर्गत शासित थे और वे राजा की प्रभुसत्ता स्वीकार करते हुए अपने प्रमुख अर्थात माझियों के आधीन थे। अंग्रेज अधिकारी को यह समझ आ गया था कि प्रतिरोध आगे बढ़ाने से बेहतर है कि जंगल कटाई का काम बस्तर रियासत के माध्यम से ही करवाया जाये। ब्रिटिश सेना लौटा ली गयी। निजाम के आदमियों को दिये गये सभी ठेके निरस्त कर दिये गये। अंग्रेजों के लिये भले ही यह कदम रणनीति का हिस्सा हों, कोई आन्दोलन ने अपनी सफलता का इतिहास लिख दिया था। सही मायनों में यह बस्तर का पहला पर्यावरण आन्दोलन था। 

- राजीव रंजन प्रसाद
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