Thursday, June 29, 2017

बनती-टूटती पाठशाला (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 11)


बस्तर में राजा भैरमदेव का शासन समय था। अंग्रेजों के प्रेक्षण-निरीक्षण के साथ वर्ष 1886 में एक साथ तीन विद्यालय खोले गये। ये तीनों विद्यालय तीन अलग अलग माध्यमों के थे अर्थात हिन्दी, ओडिया एवं उर्दू। तीनों ही स्कूलों का संयुक्त तब साठ विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया था। इसके ठीक एक दशक बाद वर्ष 1896 में राज्य के विभिन्न स्थानों पर पंद्रह नये विद्यालय आरम्भ किये गये और इस समय तक छात्रों की संख्या 2252 हो गयी थी। वर्ष 1897 में बस्तर में विद्यालय की संख्या बढ कर 58 हो गयी साथ ही छात्रों की संख्या अब 2627 हो गयी थी। उत्साहित प्रशासन ने ग्यारह और भवन विद्यालय संचालन के लिये उपलब्ध करा दिये। वर्ष 1897 में एक विद्यालय संस्कृत अध्यापन के लिये आरम्भ किया गया था। शिक्षा प्रसारित करनी है किंतु उसे प्रदान करने का एक तरीका तथा स्थानीय समझ भी आवश्यक है। राजा रुद्रप्रताप देव के शासन समय में पंडा बैजनाथ राज्य के दीवान नियुक्त किये गये। उन्होंने प्रत्येक बच्चे को विद्यालय आना अनिवार्य कर दिया और इस नियम को कड़ाई से अनुपालित किया जाने लगा। बालक की अनुपस्थिति पर पालक के लिये सजा निर्धारित थी। दीवान बैजनाथ शिक्षा की अनिवार्यता का संदेश सही तरह से प्रसारित नहीं कर सके इसलिये जनाअक्रोश के शिकार हुए। वर्ष 1910 के महान भूमकाल के समय जब विद्यालयों की संख्या साठ हो गयी थी उनमें से पैंतालीस भवन जला दिये गये। इसके पश्चात प्रशासन ने स्वनिर्णय से विद्यालय आरम्भ करना बंद कर दिया एवं उसे जनता की मांग आधारित कर स्थापित किया जाने लगा। वर्ष 1921 के बस्तर में विद्यालयों की संख्या केवल 21 रह गयी थी। उपलब्धि आगे बढी जब वर्ष 1928 में बस्तर का पहला हाई-स्कूल खोला गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बस्तर में 59 तथा कांकेर में 36 विद्यालय थे।  

- राजीव रंजन प्रसाद 

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