Wednesday, May 31, 2017

विलुप्त होता जीवजगत, खतरे में इंसान भी


प्रकृति जिन जीवों को अपने सुचारू संचालन में अनुपयुक्त पाती है उनसे पीछा छुडा लेती है। उदाहरण के लिए डायनासोर जो एक समय धरती पर व्यापकता से प्रसारित थे, आज विलुप्त प्राणी हैं। पृथ्वी पर बड़ी संख्या में विलुप्तताओं के पांच काल रहे हैं ये 4,400 लाख, 3,700 लाख, 2,500 लाख, 2,100 लाख एवं 650 लाख वर्ष पूर्व हुए थे। ये प्राकृतिक प्रक्रियाएं थीं। यह बात वर्तमान में हो रही विलुप्तताओं पर लागू नहीं होती। आज जीव-वनस्पतियाँ बहुत तेजी से और अस्वाभाविक प्रक्रियाओं के फलीभूत विलुप्त होती जा रही हैं। आज होने वाली विलुप्तताओं के लिये जीवजगत का वह प्राणी सबसे अधिक जिम्मेदार है जो इसके शीर्ष पर होने का दम्भ रखता है- अर्थात मनुष्य। यह समझने योग्य बात है कि स्वाभाविक विलुप्तीकरण की प्रक्रिया में खतरा प्राय: उन अधिक सफल प्रजातियों पर होता है जो कम सफल प्रजातियों पर अपनी उपस्थिति फैला लेते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इंसानों को इसी दृष्टोकोण से किसी टाईमबम पर खड़ा देखा जाना चाहिये।

आज हम विलुप्तता के छठे काल में चल रहे हैं और यहाँ जैव-विविधता के नष्ट होने का कारण प्रकृति नहीं अपितु स्वयं मनुष्य है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजनर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) 2000 की रिपोर्ट में कहा कि, विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक प्रजातियाँ यानी 7291 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ ताजा पानी में रहने वाले सरिसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में 800 से ज्यादा प्रजातियाँ सिर्फ एक ही स्थान पर पाई जाती हैं। अगर इन्हें संरक्षित नहीं किया गया तो कई विलुप्त हो जाएंगी। 

कालिदास का वर्णन मिलता है जो उसी डाल को काट रहा था जिस पर स्वयं बैठा हुआ था। परिणाम स्पष्ट है कि उसे धरातल पर गिरना ही था। अपनी ही तादाद बे लगाम तरीके से बढने वाला मनुष्य वस्तुत: कालिदास की तरह ही व्यवहार कर रहा है। देखा जाये तो दुनिया की जनसंख्या इस समय छ: अरब से अधिक है जिसके वर्ष 2050 तक दस अरब तक पहुंचने के अनुमान व्यक्त किए गए हैं। तेजी से बढ़ती इस जनसंख्या से दुनिया के पारिस्थितिकी तंत्रों और प्रजातियों पर अतिरिक्त दबाव तो पड़ना ही है जो जैव-विविधता को घटाने में उत्प्रेरक का कार्य करता रहेगा। जब मनुष्यों को स्वयं के रहने के लिये आज आवास की समस्या का सामना करना पड रहा है तो उनसे कैसे उम्मीद करेंगे कि वे धरती के अन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों के प्रति चिंतित रहेंगे। सन् 1000 से 2000 के मध्य हुए प्रजातीय विलुप्तताओं में से अधिकांश मानवीय गतिविधियों के चलते प्राकृतिक आवासों के विनाश के कारण हुई हैं। 

मोटे तौर पर देखा जाये तो जनसंख्या, वनों का कटाव, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा संदूषण एवं ग्लोबल वार्मिंग आदि कारक जैव विविधता को नष्ट करने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। हम लापरवाह कौम हैं तथा केवल अपने भोजन के प्रति ही सजग रहते हैं तथा अपनी किसी भी गतिविधि में अन्य जीवों का किसी तरह खयाल नहीं रखते। यह सही है कि कृषि आवश्यक है किंतु जब हम फसल उगाने के लिए वनों को काटते हैं तब भी जैव विविधता को दरकिनार कर देते हैं। एसा ही एक उदाहरण पैसेन्जर कबूतर (एक्टोपिस्टेस माइग्रेटोरियस) से जुडा हुआ है। एक समय में ये कबूतर धरती पर बहुतायत में पाए जाते थे किंतु आज ये विलुप्त हो गये हैं। मानवीय सनक देखिये कि सन् 1878 में, अमेरिका के मिशीगन शहर में हर रोज लगभग 50,000 पैसेन्जर कबूतर पक्षियों को मारा जाता था और मौत का ये तांडव लगभग पांच माह चला। इस तरह के क्रूरता के पश्चात तो इस प्रजाति का विलुप्त होना स्वाभाविक ही था। 
जैवविविधता के लिये एक बडा खतरा किसी क्षेत्र विशेष में बाहर से लाये गये जीवो-वनस्पतियों की बसाहट भी है। कुछ उदाहरण महत्वपूर्ण हैं। हवाई द्वीप में, इस प्रकार की एक मैना प्रजाति है। इसे गन्ने के कीटों के नियंत्रण के लिए प्रवेश कराया गया था परन्तु यह लैन्टाना कैमारा नामक खरपतवार के बीजों के प्रसारक का काम करने लगी। द्वितीय विश्व युद्ध के फौरन बाद सर्प युक्त गुवाम में एक भूरा वृक्षवासी सांप दुर्घटनावश प्रवेश करा दिया गया। सांप की संख्या नाटकीय ढंग से अत्यधिक बढ़ गई और क्षेत्रीय प्राणी समूह  नीचे दब गए। गुवाम में मूल रूप से पाई जाने वाली जंगली चिडि़या की 13 प्रजातियों में से अब मात्रा 3 जीवित हैं और छिपकली की 12 मूल प्रजातियों में से भी अब मात्रा 3 ही जीवित हैं। ये सांप खम्बों पर चढ़कर बिजली के तारों को फंसा देते हैं और वह इलाका अंधेरे में डूब जाता है। गैलेपागोस द्वीपों की कहानी इसका एक अन्य महत्वपूर्ण उदाहरण है। गैलेपागोस द्वीप समूह इक्वाडोर का ही एक भाग हैं। यह 13 प्रमुख ज्वालामुखी द्वीपों 6 छोटे द्वीपों और 107 चट्टानों और द्वीपिकाओं से मिलकर बना है। इसका सबसे पहला द्वीप 50 लाख से 1 करोड़ वर्ष पहले निर्मित हुआ था। सबसे युवा द्वीप, ईसाबेला और फर्नेन्डिना, अभी भी निर्माण के दौर में हैं और इनमें आखिरी ज्वालामुखी उद्गार 2005 में हुआ था। ये द्वीप अपनी मूल प्रजातियों की बहुत बड़ी संख्या के लिए प्रसिद्ध हैं। चाल्र्स डार्विन ने अपने अध्ययन यहीं पर किए और प्राकृतिक चयन द्वारा विकासवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। 2005 में लगभग 1,26,000 लोगों ने पर्यटक के रूप में गैलेपागोस द्वीपसमूह का भ्रमण किया। इससे न सिर्फ द्वीपों पर मौजूद साधनों को खामियाजा भुगतना पड़ा बल्कि पर्यटकों की बहुत बड़ी संख्या ने यहाँ के वन्यजीवन को भी प्रभावित किया है। 

पारिस्थितिकी तंत्र बहुत सी ऐसी सूक्ष्म सेवाएं भी हमें प्रदान करता है जिन्हें अनुमोदित करना तो दूर, हम उन्हें पहचान भी नहीं पाते हैं। उदाहरण के लिए, जीवाण एवं मिट्टी के जीव कूड़े-कचरे को अपघटित कर उर्वर भूमि का निर्माण करते हैं। पौधों में परागण क्रिया के वाहक, जैसे चमगादड़ और मधुमक्खी, यह सुनिश्चित करते हैं कि साल दर साल हमारी फसलें अंकुरित हो सकने वाले बीज पैदा करती रहें। अन्य प्राणि, जैसे लेडीबग और मेंढक फसलों के कीटाणुओं को सीमित रखने में सहायक होते हैं। इन कार्यों के प्रभाव अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं जैसे मिट्टी की उर्वरता, कूड़े-कचरे का अपघटन आदि और साथ ही हवा एवं पानी की शुद्धता, जलवायवीय नियमन एवं बाढ़/सूखा आदि को भी यह कार्य प्रभावित करते हैं। एक पारिस्थितिकी तंत्र में जितनी अधिक विविधताएं होंगी, उतना ही अधिक ये पर्यावरण संबंधी दबाव को सहने में सक्षम होगा। वातावरण में उपस्थित विभिन्न गैसों के बीच संतुलन जैव विविधता के कारण ही होता है। यह जाहिर सत्य है कि जिस बेदर्दी से हमने अपने वृक्षों को समाप्त किया है उसने हमारे वातावरण मे नकारात्मक बदलाव के बीज बो दिये हैं। हानिकारक किरणों से बचाने वाली ओजोन परत में छिद्र होने से ले कर आज जिस ग्लोबल वार्मिंग के खतरे का हम सामना कर रहे हैं उसके पीछे का प्रमुख कारण अपने पर्यावरण का भली प्रकार संरक्षण नहीं करना है। हमने यह बुनियादी समझ ही नहीं रखी कि जैव-विविधतता सीधे हमारे अस्तित्व से जुडा हुआ मसला है।  

- राजीव रंजन प्रसाद 
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