Tuesday, May 30, 2017

जैव विविधता संवर्धन ही पर्यावरण संरक्षण है


यह धरती हमारे सौरमण्डल का सबसे सुन्दर ग्रह है। इसे विशिष्ठ और अद्भुत बनाता है इसका पर्यावरण; इसमें उपस्थित जलवायु और यहाँ का जीव जगत। जीव-जगत भी यहाँ इतना विविध है कि वनस्पतियों के लाखों प्रकार, मत्स्यों के लाखों प्रकार, स्तनधारी जीवों के लाखों प्रकार, पक्षियों के लाखों प्रकार इतना ही नहीं किट-पतंगों और तितलियों की भी अनगिनत भांतियाँ। इसे दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जैव विविधता वस्तुत: किसी दिये गये पारिस्थितिकी तंत्र, किसी बायोम अथवा एक पूरे ग्रह में जीवन के रूपों की विभिन्नता का परिमाण है। हमारी पृथ्वी पर जीवन आज लाखों विशिष्ट जैविक प्रजातियों के रूप में उपस्थित हैं। समूचे विश्व में 2 लाख 40 हजार किस्म के पौधे 10 लाख 50 हजार प्रजातियों के प्राणी हैं। केवल भारत में ही जंगलों, आर्द्रभूमियों और समुद्री क्षेत्रों में कई तरह की जैव विविधता पाई जाती है। विश्व के बारह चिन्हित मेगा बायोडाइवर्सिटी केन्द्रों में से भारत एक है। विश्व के 18 चिन्हित बायोलाजिकल हाट स्पाट में से भारत में दो पूर्वी हिमालय और पश्चिमी घाट हैं। 

देश में 45 हजार से अधिक वानस्पतिक प्रजातियाँ अनुमानित हैं, जो समूची दुनियॉ की पादप प्रजातियों का 7 फीसदी हैं; इन्हें 15 हजार पुष्पीय पौधों सहित कई वर्गिकीय प्रभागों में बांटा जाता है। करीब 64 जिम्नोस्पर्म 2843 ब्रायोफाइट, 1012 टेरिडोफाइट, 1040 लाइकेन, 12480 एल्गी तथा 23 हजार फंजाई की प्रजातियाँ लोवर प्लांट के अंतर्गत् अनुमानित हैं। पुष्पीय पौधों की करीब 4900 प्रजातियाँ देश की स्थानिक हैं। करीब 1500 प्रजातियाँ विभिन्न स्तर के खतरों के कारण संकटापन्न हैं। भारत खेती वाले पौधों के विश्व के 12 उद्भव केन्द्रों में से एक है। भारत में समृध्द जर्म प्लाज्म संसाधनों में खाद्यान्नों की 51 प्रजातियाँ, फलों की 104 प्रजातियाँ, मसालों की व कोन्डीमेंट्स की 27 प्रजातियाँ, दालों एवं सब्जियों की 55 प्रजातियाँ, तिलहनों की 12 प्रजातियाँ तथा चाय, काफी, तम्बाकू एवं गन्ने की विविध जंगली नस्लें शामिल हैं। देश में प्राणी सम्पदा भी उतनी विविध है। विश्व की 6.4 प्रतिशत प्राणी सम्पदा का प्रतिनिधित्व करती भारतीय प्राणियों की 81 हजार प्रजातियाँ अनुमानित हैं। भारतीय प्राणी विविधता में 5000 से अधिक मोलास्क और 57 हजार इनसेक्ट के अतिरिक्त अन्य इनवार्टिब्रेट्स शामिल हैं। मछलियों की 2546, उभयचरों की 204, सरीसृपों की 428, चिड़ियों की 1228 एवं स्तनधारियों की 327 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। भारतीय प्राणी प्रजातियों में स्थानिकता या देशज प्रजातियों का प्रतिशत काफी अधिक है, जो लगभग 62 फीसदी है।

इन आंकडों को सामने रखते हुए यह स्पष्ट परिभाषा आवश्यक है कि वस्तुत: जैव विविधता है क्या? संरक्षण जीवविज्ञानी थॉमस यूजीन लवजॉय ने 1980 में ‘बायोलोजिकल’ और ‘डायवर्सिटी’ शब्दों को मिलाकर ‘बायोलॉजिकल डायवर्सिटी’ या जैविक विविधता शब्द प्रस्तुत किया। 1985 मं  डब्ल्यू.जी.रोसेन ने ‘बायोडायवर्सिटी’ या जैव विविधता शब्द की खोज की; यह शब्द छोटा तथा सुग्राह होने के कारण शीघ्र प्रचलन में आ गया तथा इसे वैश्विक स्वीकार्यता प्राप्त हो गयी। डब्ल्यू.जी.रोसेन ने ‘बायोडायवर्सिटी’ शब्द को पारिभाषित करते हुए कहा है कि “पादपों, जंतुओं, एवं सूक्ष्मजीवों के विविध प्रकार और उनमें विभिन्नता ही जैव-विविधता है”। सामान्य अर्थों में इस जगत में विविध प्रकार के लोगों के साथ, इस जीव परिमंडल में भी भौगोलिक रचना के अनुसार अलग-अलग नैसर्गिक भूरचना, वर्षा, तापमान एवं जलवायु के कारण वनस्पति एवं प्राणी सृष्टि में जैव विविधता हमें प्राप्य है। 1992 में रियो डी जेनेरियो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता की मानक परिभाषा दी गयी जिसके अनुसार “समस्त स्रोतों, यथा अन्तर्क्षेत्रीय, स्थलीय, समुद्री एवं अन्य जलीय पारिस्थितिकी तंत्रों के जीवों के मध्य अन्तर और साथ ही उन सभी पारिस्थितिकी समूह, जिनके ये भाग हैं, में पाई जाने वाली विविधताएं; इसमें एक प्रजाति के अन्दर पाई जाने वाली विविधताएं, विभिन्न जातियों के मध्य विविधताएं एवं पारिस्थितिकी तंत्रों की विविधताएं सम्मिलित रूप से जैव-विविधता कहलाती हैं”। संयुक्त राष्ट्र जैविक विविधता सभा द्वारा अनुसंशा के पश्चात सम्पूर्ण विश्व ने इसी को जैव-विविधता की मानक परिभाषा के रूप में अपना लिया है; यद्यपि कुछ देश जिनमें एन्डोरा, ब्रुनेई, दार-अस-सलाम, होली सी, ईराक, सोमालिया, तिमोर-लेस्ते और संयुक्त राज्य अमेरिका सम्मिलित हैं, ने इस परिभाषा को मान्यता नहीं दी है। यही नहीं दुनिया भर में अनेक देशों ने अपने-अपने संविधान के मुताबिक जैव विविधता को संरक्षित और विकसित करने के कानून बनाये है। 

जैवविविधता की परिभाषा केवल राष्ट्रों की राजनीति में ही नहीं उलझती वरन बारीकी से विवेचना की जाये तो विज्ञान के अलग अलग कोष्टकों में जाते हुए इस शब्द की परिभाषा भी बदलने लगती है। यद्यपि जैव विविधता की सबसे स्पष्ट परिभाषा होगी “जैविक संगठन के सभी स्तरों पर पाई जाने वाली विविधताएं ही जैव विविधता है” तथापि एक जीव विज्ञानी जैव-विविधता को जीवों एवं प्रजातियों तथा उनके मध्य प्रभावों के वर्णक्रम की तरह देखता है। जीवविज्ञानी के लिये यह दृष्टिकोण आवश्यक है कि पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति कैसे हुई, उनका विस्तार कैसे हुआ, उनके विविध प्रकार कैसे हुए, इन प्रकारों में भेद-विभेद क्या हैं, किस प्रकार वे विभिन्न प्रकार विलुप्त हो रहे हैं आदि आदि। यही दृष्टिकोण किसी परिस्थितिविज्ञानी के लिए बदल जाता है उसके लिये जैव विविधता केवल प्रजातियों के संदर्भ तक सिकुड जाती है; चूंकि यह स्थापित सत्य है कि प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र में उपस्थित जीव न सिर्फ अन्य जीवों से अपितु अपने चारों ओर मौजूद वायु, जल और मिट्टी से भी परस्पर प्रभावित होते हैं। आनुवंशिकी विज्ञानियों का मानना है कि जैव विविधता जीनिक विविधता पर निर्भर करती है। यहाँ जैव-विविधता का दृष्टिकोण म्यूटेशन (उत्परिवर्तन), जीन-विनिमय एवं डीएनए के स्तर पर होने वाली परिवर्तनात्मक सक्रियता आदि से प्राप्त किया जाता है।

जैव विविधता जीवन की सहजता के लिए जरूरी है। प्रकृति का नियामक चक्र जैव विविधता की बदौलत दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वनस्पति, खाद्यान्न, जीव-जंतुओं की अनुपस्थिति से कितना नुकसान हो सकता है। वैज्ञानिक भी इसका आंकलन नहीं कर सकते। मिट्ट में पाये जाने वाला केंचुआ दिखने में साधारण है पर प्रकृति सन्तुलन में इसका भी बहुत बड़ा योगदान है। एक केंचुआ छ: माह की अवधि में बीस पौड़ पोषक कार्बनिक पदार्थ तैयार करके मिट्टी में मिला देता है। यह खेत की जमनी को पोला व भुरभूरा भी बनाता है इनकी जातियां यदि नष्ट न हों तो वे मिट्टी में दस वर्ष में एक इंच सतह को बढ़ा सकते हैं, जो अत्यन्त उपजाऊ होती है। केंचुए यदि नष्ट हो जाएं तो यह कार्य करनें में प्रकिति को पाँच सौ वर्ष लग जाएंगे। धरती अगिनत, अमूल्य धरोहर संजोए हुए, जीवन को जीवन्त बनाए हुए हैं। गीता का एक श्लोक है- ‘जीव जीवनस्य भोजनम।’ यह प्राकृतिक और जीवन क्रम के लिए जरूरी है। हवा, जल, मिट्टी जीवन के आधारभूत तत्व हैं। प्राकृतिक रूप से इनका सामंजस्य सतत् जीवन का द्योतक है। जैव विविधता अरबों वर्षों के विकास का परिणाम है। धरती की जैव विविधता को वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत पर ही संरक्षित किया जा सकता है। प्रकृति, जीव-जंतु और मनुष्य के बीच सामंजस्य कायम रहेगा, तब तक विविधता रंग बने रहेंगे। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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2 comments:

ABHINAV said...

अच्छी लेख लिखा है आपने

ABHINAV said...

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