Tuesday, May 30, 2017

पर्यावरण की बुनियादी समझ आवश्यक है




पर्यावरण शब्द न केवल बहु-आयामी है अपितु अनेको विषयों पर अध्येता की समझ विकसित होने की मांग करता है। इस शब्द की सार्थक विवेचना के पीछे की सबसे बड़ी अडचन यह है कि ‘पर्यावरण और विकास’ को साथ में रख कर समझने की बहुधा कोशिश की जाती रही है और हर बार दो धारायें बाहर निकल कर भिन्न मार्गों की ओर चली गयी हैं। विकास का विरोधाभासी शब्द विनाश है न कि पर्यावरण; इस तथ्य को गंभीरता से समझने की आवश्यकता है। यह ध्यान मे रखना होगा कि उपभोक्ता संस्कृति और वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया है। जीवन स्तर उँचा उठाने के लिये संघर्ष करते लोग और साथ ही साथ असामान्य रूप से बढती जनसंख्या के दबाव ने प्राकृतिक असंतुलन पैदा कर दिया है। अवैज्ञानिक तरीके से जारी विकास की दौड मे उद्योगों ने प्रकृति को अनदेखा कर दिया। यही नहीं जनसंख्या का दबाव झेलने के लिये बनायी जा रही नीतियों ने खाद्यान्न उत्पादन बढाने के लिये कृषि में रासायनो का उपयोग बढाया तो इससे भूमि, पानी, हवा के साथ अन्न भी जहरीला होने लगा। जनसंख्या के विस्फोट ने शहरो की संख्या को बढाया। शहरों मे वाहनो की संख्या बढी तो वहाँ की हवा सांस लेने के लिये अनुपयुक्त होने लगी। यह एक सरल विमर्श है यह समझाने के लिये कि पर्यावरण के साथ हुए नुकसान का खामियाजा पूरी दुनिया को किसी न किसी रूप में भुगतना पड रहा है। इस असतुलित विकास की दिशा ने विनाश की आमद का मार्ग प्रशस्त किया। भूकम्प, जवालामुखी, टॉरनेडो, सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा निरंतर हो गयी हैं तथा जन-धन को समाप्त कर रही है। प्राकृतिक प्रकोप बढने का मुख्य कारण संसाधनों का तीव्रतम दोहन है तो समूची अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर रहा है। निहितार्थ यह है कि पर्यावरण की परिधि में हम और हमारा परिवेश उसकी सम्पूर्णता के साथ आता है अत: विकास और विनाश जैसी बहसों को उसके निष्कर्षों तक पहुँचाने के लिये इसे परिभाषित किया जाना अत्यधिक आवश्यक है। यह विमर्श हमें सोचने पर बाध्य हरता है कि कहीं हमारे व्यवहारशास्त्र में कोई बडी कमी है अथवा हमने अपने पर्यावरण के निहितार्थ को सही प्रकार से ग्रहण नहीं किया है। 

हम कैसे समझें कि पर्यावरण क्या है? एक बडी ही रुचिकर परिभाषा है कि “व्यक्ति गर्भावस्था से लेकर मृत्यु पर्यन्त अपने आस-पास से जो भी उत्तेजनाएं ग्रहण करता है उनके समुच्चय का मान ही पर्यावरण है” (बैरिंग, लैंगफील्ड और बेल्ड)। इस परिभाषा की चीरफाड करें तो निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति को केन्द्र में रखते हुए उसके जीवन तथा व्यवहार को प्रभावित करने वाले सभी कारक सम्मिलित रूप से उसका पर्यावरण हैं। इन प्रभावकारी कारकों को मनुष्य की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति से भी जोडा जा सकता है तथा भौतिक परिदृश्य से भी। मोटे तौर पर वह सब कुछ पर्यावरण है जो हमे हमारे चारो ओर की सजीव तथा निर्जीव वस्तुओं से जोडता है। संधिविच्छेद करने पर पर्यावरण शब्द से ‘परि (चारो ओर) तथा ‘आवरण’ (घेरा) बाहर निकलते हैं; अर्थात सम्मिलित रूप से पर्यावरण का हिस्सा हैं - हमारे वृक्ष-पादप, पक्षी-जंतु जगत, हमारी नदियाँ, हमारी वायु, हमारा आकाश यहाँ तक कि अंतरिक्ष भी। कुछ अन्य परिभाषायें पर्यावरण शब्द की सुन्दर व्याख्या करती हैं जैसे रॉस के अनुसार “पर्यावरण वह बाह्य शक्ति है जो प्रभावित करती है”। हार्कोविट्ज के अनुसार “पर्यावरण सभी बाह्य दशाओं एवं प्रभावों का सम्पूर्ण योग है जो जीवों के कार्यों एवं विकास को प्रभावित करता है”। टेंसले के अनुसार “प्रभावकारी दशाओं का सम्पूर्ण योग जिसमे जीव रहते हैं, पर्यावरण कहलाता है”। फिटिंग के अनुसार “जीव के परिवेशीय कारकों का योग पर्यावरण है”। सरलीकरण करने के लिये आप प्रत्येक जीव या समूह के लिये परिभाषा दे सकते हैं कि वे समस्त जैविक, भौतिक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ जिसमे कोई जीव निवास करता है उसका अपना पर्यावरण है। घिरा होना यहाँ महत्वपूर्ण है जिसके लिये फ्रांसीसी शब्द है “एन्वाईरोनियर” इसी भावार्थ को पकड कर पर्यावरण के लिये अंग्रेजी शब्द की सृष्टि हुई है – एंवायरन्मेंट।

प्राथमिक समझ तो हमारी प्राचीन पुस्तकें ही करा देती हैं जहाँ वे शरीर को जिन पाँच तत्वों की समिष्टि बताती हैं अर्थात धरती, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु; वस्तुत: ये सभी तत्व सम्मिलित रूप से पर्यावरण शब्द की सही परिभाषा निर्मित करते हैं और यह भी बताते हैं कि शरीर की कोशिका जैसे सूक्ष्म तत्व से ले कर अंतरिक्ष की विराटता तक सब कुछ पर्यावरण शब्द के भीतर समिष्ठ हो जाता है। अथर्ववेद मे कहा गया है कि भूमि हमारी माता है। हम पृथ्वी के पुत्र हैं। मेघ हमारे पिता हैं, वे हमें पवित्र करते हुए पुष्ट करें -  मात्य भूमि पुत्रो अहम पृथिव्या। पर्जन्य पिता स उ ना पिपर्तुम। (12.1.12) 

ऋग्वेद में कहा गया है कि पृथ्वी, अंतरिक्ष एवं द्युलोक अखंडित तथा अविनाशी हैं। जगत का उत्पादक परमात्मा एवं उसके द्वारा उत्पन्न यह जीव जगत भी कभी नष्ट न होने वाला है। विश्व की समस्त देवशक्तियाँ अविनाशी हैं। पाँच तत्वों से निर्मित यह सृष्टि अविनाशी है। जो कुछ उत्पन्न हो चुका है अथवा जो कुछ उत्पन्न होने वाला है वह भी अपने कारण रूप से कभी नष्ट नहीं होता है - 
अदितिधौर्रदितिर न्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्र:। 
विश्वे देवाअ अदिति: प न्चजनाअदितिर्जात मदितिर्जनित्वम॥ 

हमारे आसपास की प्रत्येक वस्तु जड़, चेतन, प्राणी, हमारा रहन-सहन, खान-पान, संस्कृति विचार आदि सभी कुछ पर्यावरण के ही अंग है। ‘जल बिन मीन’ के अस्तितिव की कल्पना कीजिये। जल मछली का पर्यावरण है वह जीवित ही नहीं रह सकती यदि उसे पानी से बाहर निकाल दिया जाये। मछली तब भी जीवित नहीं रह सकती यदि जिस पानी में उसका जीवन है वह विषैला हो जाये अथवा उसमे ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगे। यही उदाहरण वृहद हो कर पर्यावरण की सम्पूर्ण परिभाषा बन जाता है। इस आधार पर यह स्पष्ट है कि जीवन के लिए एक परिपूर्ण व्यवस्था बनाने वाले जैविक तथा अजैविक तत्व मिल कर पर्यावरण का निर्माण करते हैं। “किसी भी जीव जन्तु में समस्त कार्बनिक व अकार्बनिक वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों को पर्यावरण कहेंगे” यह परिभाषा  जर्मन वैज्ञानिक अरनेस्ट हैकन ने दी है। इसी उदाहरण पर आगे बढते हुए हम यह समझ सकते हैं कि प्रत्येक प्राणी भिन्न पर्यावरण में निवास करता है। जो मछली के लिये पर्यावरण सही है वह हाथी  के लिये अनुपयुक्त, यही उनके भिन्न भिन्न निवास स्थल होने का कारण भी है। अत: एक विशेष जीव समूह के योग्य पर्यावरण में उसका निवास स्थल अथात हेबिटाट (Habitat) बनता है। हेबिटाट शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द हैबिटेयर (Habitare) से हुई है। बुनियादी तौर पर देखा जाये तो हेबिटाट और पर्यावरण शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची प्रतीत होते हैं किंतु इनमें बुनियादी अंतर व्यापकता का है। जहाँ हैबिटाट शब्द किसी परिवेश के स्थानीय घटकों तक संकुचित है वहीं पर्यावरण व्यापकता में परिवेश के अनेकों घटकों को स्वयं में सहामित करता है। किसी छोटे क्षेत्र में एक जीव विशेष से जुडे परिवेश को उसका अपना सूक्ष्म वातावरण (Micro Climate) कहा जा सकता है।

पर्यावरण की बुनियादी समझ आवश्यक है। हम संरक्षण का अर्थ केवल पौधारोपण समझते हैं और यह मान कर चलते हैं कि इतने ही से अपने कर्तव्यों की इतिश्री हो गयी है। वस्तुत: जबतक कम अपने कार्यकलापों से सूक्ष्म वातावरण में पढने वाले प्रभावों तक की विवेचना में सक्षम नहीं होंगे हमारा लीपा-पोती और नारों वाला पर्यावरण संरक्षण जारी रहेगा जिसका कोई अधिक मायना नहीं। हर जीव समूह, उसका हेबीटाट और जीवन शैली किसी न किसी तरह से मनुष्य के जीवन को भी प्रभावित करती है एवं किसी वातावरण से एक के विलुप्ति भी मानव अस्तितिव पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती चलती है। प्रकृति ने डायनासोर को भी अपने अत्यधिक दोहन के लिये क्षमा नहीं किया, वह मनुष्यों को भी नहीं करेगी। 

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