Thursday, September 12, 2013

“डॉक्टर खान देवा - स्वीकार करो अंड़े”

सांध्य दैनिक "छत्तीसगढ" में दिनांक 12.09.2013 को प्रकाशित


पिछले पृष्ठ से आगे -

बहुत सी राजनीतियाँ हैं जो समाज पर छुरियाँ चलाती हैं और इसके हिस्से-हिस्से एक दूसरे के मुँह पर मल कर जश्न करती प्रतीत होती हैं। हम कैसे बुने गये यह आज महत्व का नहीं रहा जबकि हमें कैसे उधेडा जा सकता है यही सभी के चिंतन का विषय बना हुआ है। आस्तिकताओं के पंथ हैं तो नास्तिकता का अपना ही घमंड कि वही समाज में बदलाव के नये पन्ने लिखने के काबिल है। मुजफ्फरनगर में बह रहा खून और बस्तर में बह रहा लहू यह साम्यता तो दिखाता ही है कि रक्त केवल धार्मिक प्रतिद्वन्दिवता के कारण ही नहीं बहाया जाता अपितु नाहक और अकारण नास्तिकताओं ने भी झंडा थाम कर निर्दोषों पर ट्रिगर दबा दबा कर बहाया है। एसे में कभी कभी बुद्ध याद आते हैं। बुद्धत्व प्राप्ति के लिये सिद्धार्थ मगध जनपद के सैनिक सन्निवेश उरूबेला पहुँचे और निरंजना नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे कटोर तपस्या में लीन हो गये। छ: साल तक कठोर तपस्या लेकिन हाथ रीते? शरीर सूख कर काँटा हो चुका था और प्राण साथ छोडना चाहते थे। तभी जंगल में स्त्रियों का एक समूह गीत गाता हुआ गुजरा जिसके निहितार्थ थे कि वीणा के तार को इतना भी नहीं कसना चाहिये कि वह टूट जाये और इतना ढीला भी नहीं छोडना चाहिये कि उससे कोई आवाज़ ही न निकल सके। बस इसी क्षण बुद्ध को मध्यममार्ग का बोध हुआ। बुद्ध ने एक महिला सुजाता के हाथ खीर ग्रहण कर अपना उपवास तोड दिया और शरीर को तपाने की जगह सत्यबोध में जुट गये। यही मर्म हर नाविक जानता है कि समंदर तक नौका को खेना है तो धार के साथ चलना होगा यदि उद्गम तक पहुँचना है तो धार के विपरीत चलना होगा किंतु किसी भी स्थिति में किनारों की छीना झपटी का कोई निहितार्थ नहीं। 

यह भूमिका लम्बी प्रतीत हो सकती है लेकिन असहिष्णु हो चुके वर्तमान परिवेश को आईना अवश्य दिखाती है। मैं बस्तर से संबंधित एक घटना पर चर्चा को ले जाना चाहता हूँ जो घुलने मिलने वाले समाज, सहिष्णु परिवेश और अनुकरणीय परिस्थिति का अनूठा उदाहरण है। बात बस्तर के प्रवेशद्वार कांकेर से कुछ दूर घाटियों में अवस्थित केशकाल कस्बे की है। मैं पत्रकार मित्र कमल शुक्ला के साथ केशकाल पहुँचा और यहाँ कृष्ण दत्त उपाध्याय जी से मेरी मुलाकात हुई। केशकाल में मेरी रुचि आंगाओ (आदिवासी देव स्वरूपों) को ले कर थी। केशकाल निवासी श्री कृष्ण दत्त उपाध्याय ने स्थानीय देवी-देवताओं एवं आदिवासी परम्पराओं पर महत्वपूर्ण कार्य किया है वे मेरे गाईड बने और हम नगर परिसर से दूर वन परिधि के प्रारंभ होने की अवस्थिति में उस स्थान पर पहुँचे जहाँ भंगाराम देवी का मंदिर बना हुआ है। असाधारण शक्तिशाली देवी हैं भंगाराम और यदि उनकी प्रतिमा को ध्यान से देखा जाये तो इसकी निर्मिति में दक्षिण का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। खपरैल की कुटिया सदृश्य मंदिर जिसके सामने एक प्राचीन काष्ठ स्तम्भ गडा हुआ था जिसके आगे साल-दर-साल होने वाली भादो जात्रा में गाडे जाने वाले सैंकडो लौह त्रिशूल गडे हुए थे। हम पोला त्यौहार के दिन यहाँ पहुँचे थे। मंदिर प्रांगण में केवल दो आदिवासी पुजारी ही मौजूद थे और पूरी तन्यमता से भंगाराम देवी के लिये भोग बना रहे थे। भोग के लिये चावल को पीस लिया गया था जिसमें मीठा और तैलीय पदार्थ मिला कर अब उसे गूंथा जा रहा था। इसे छोटे छोटे गोलाकार में बदला जाना था जिसे तलने के पश्चात भोग स्वरूप देवी के आगे प्रस्तुत किया जाना था। इन पुजारियों की आस्था भी कितनी गैर दिखावटी है, वे जानते हैं कि आज किसी को मंदिर नहीं आना है लेकिन परम्परा कहती है कि आज देवी को विशिष्ठ भोग लगाया जाना है तो दोनो बियाबान में निर्मिप्त भाव से लगे हुए हैं। 

इस मंदिर और यहाँ से जुडी मान्यताओं पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन तभी मुझे एक पुजारी ने आवाज़ दे कर एक ओर बुलाया। वह मंदिर परिसर के दाहिनी ओर बने उन खुले कक्षों में अवस्थित देवी देवताओं के विषय में बताना चाहता था। कृष्ण दत्त उपाध्याय जी ने केशकाल का वासी होने के गर्व के साथ कहा कि यह स्थान साम्प्रदायिक सौहार्द का उदाहरण है तो मैं चौंक गया। बस्तर में आस्तिकों और नास्तिकों की खूनी साम्प्रदायिकता तो जाहिर है और उसपर पूरी दुनिया की निगाह गडी हुई है लेकिन इससे इतर क्या? अब पुजारी ने मेरा ध्यान खींचा और एक पाषाण प्रतिमा की ओर इशारा कर बताया कि “ये डॉक्टर खान देव हैं। मुसलमान देवता है।” 

पुजारी के दिये विवरण के हर शब्द ध्यान खींच रहे थे। मैने अपने मोबाईल का ऑडियो रिकॉर्डर ऑन किया और पुजारी के पास चला आया। मैने पूछा कि क्या यह प्रतिमा किसी डॉक्टर की है? क्या वे मुसलमान थे? वे देवता कैसे बन गये? उत्तर भी आश्चर्यचकित कर देने वाला था। जो मैं समझ सका उसके अनुसार अतीत में कभी बस्तर क्षेत्र में हैजा महामारी की तरह फैल गया था। तब इन क्षेत्रों में बचाव के लिये राजा और ब्रिटिश सरकार द्वारा चिकित्सकों की नियुक्ति की गयी थी। इन्ही में से एक चिकित्सक रहे होंगे जिनका पूरा नाम तो ग्रामीणों को याद नहीं किंतु घटना को कई पीढिया गुजर जाने के बाद आज भी इतनी जानकारी शेष है कि वे डॉक्टर कोई खान थे और मुसलमान थे। कहते हैं कि डॉक्टर खान ने अपनी मेधा और ज्ञान को इन आदिवासियों का जीवन बचाने के लिये समर्पित कर दिया। पुजारी के विवरण के अनुसार डॉ. खान के छडी घुमाने से महामारी गाँव छोड कर भाग रही थी। बारीकी से समझने की कोशिश करता हूँ तो लगता है कि डॉ. खान ने तब स्वयं को महाज्ञानी मान कर अपकी चिकित्सकीय पेटी खोलने के स्थान पर प्रचलित धार्मिक मान्यताओं, सिरहाओं और ओझाओं के माध्यम से लोगों को अपनी दवाईयों के साथ जोडा होगा। देवी का आदेश ग्रामीणों को चिकित्सक तक खीच लाया होगा और डॉ. खान ने ज्ञान और परम्परा को साथ जोड कर उपचार का सर्वमान्य रास्ता निकाल लिया होगा और इससे उन्हे महामारी से लडने में सहायता मिली होगी। उपलब्ध जनश्रुति कहती है कि महामारी से लडते हुए स्वयं इस बीमारी का डॉ. खान शिकार हो गये और अपना दम तोड दिया। 

यहाँ तक तो एक संघर्षशील इंसान की कहानी है लेकिन इसके पश्चात एक प्रेरक और अनुकरणीय उदाहरण देखने को मिलता है। जन-मान्यता है कि देवी भंगाराम इस मुसलमान चिकित्सक से बेहद प्रसन्न थी जो उसकी आज्ञा से उसके ही भक्तों को महामारी से बचा रहा था। इस मुसलमान चिकित्सक की मौत होते ही देवी ने आज्ञा दी कि डॉ. खान हमेशा ही उनके सहयोगी रहेंगे और ‘डाक्टर खान देवा’ बन कर उनसे साथ काम करते रहेंगे। आज इस घटना को सैंकडो साल बीत गये लेकिन डॉ. खान आज भी जन मान्यताओं में जीवित हैं। देवी भंगाराम की आज्ञा से उनका एक पाषाण बुत स्थापित किया गया है। आज भी केशकाल और इसके आसपास अवस्थित क्षेत्रों में किसी भी तरह की बीमारी फैलने पर उसकी चिकित्सा का दायित्व डॉक्टर खान देवा पर ही है। डॉ. खान देवा को विधिवत अंडे तथा नीबू चढाया जाता है और देवी के सहयोगी के रूप में आज भी भरपूर सम्मान प्रदान किया जाता है। पुजारी सगर्व बताता है कि ये मुसलमान देवा हैं जो हमें व्याधि-बीमारियों से बचा कर रखते हैं। 

साम्प्रदायिकता क्यों है इसपर बहस बेमानी है, आस्था क्या है इस पर भी कई बैद्धिजीविक थ्योरी बाजार से खरीदी जा सकती है; लेकिन डॉक्टर खान देवा हर सवाल का खामोश उत्तर हैं। बुतपरस्ती के खिलाफ खडे धर्म के मानने वाले डॉ. खान आज आदिवासी समाज द्वारा स्वयं एक बुत बना दिये गये हैं। यही नहीं पूरी आस्था और सम्मान के साथ वे सिन्दूर से भी पोते जाते हैं, अगरबत्तियाँ उनके गिर्द खोंची जाती हैं, वे अंडा भोग के रूप में स्वीकार करते हैं। वे आज भी अपनी इस बेमिसाल उपस्थिति से आदिवासी समाज को एक मनोवैज्ञानिक ढाढस दिये रखते हैं कि कोई महामारी उनके रहते इस क्षेत्र को छू भी नहीं सकती। तो मुझसे मार्क्स लाख कहे कि धर्म अफीम है लेकिन मैं हजार बार डॉ. खान के इस बुत के आगे नत-मस्तक होने के लिये तैयार हूँ जिनकी मौन उपस्थिति आज भी सार्थक है। आदिवासी समाज अपनी धार्मिक मान्यताओं को तर्क के साथ स्वीकार करता है। इसी भंगाराम मंदिर के पीछे वह स्थल भी है जहाँ देवी देवताओं के खिलाफ उसके भक्त शिकायत प्रस्तुत करते हैं। यहाँ देवी देवताओं को दंडित करने, उन्हें कैद करने, यहाँ तक कि उन्हें नष्ट करने तक का विधान है और यह सब कुछ इसलिये कि एसे देवताओं का क्या लाभ जो उसे मानने वालों के अनुरूप नहीं, जिसमे उसे मानने वालों को व्याधियों से मुक्त कराने का सम्बल नहीं और जिसके पास उसपर भरोसा रखने वालों के प्रश्नो के उत्तर नहीं। यह एक लम्बा विषय है अत: पुन: डॉ. खान देवा पर लौटते हैं। साम्प्रदायिकता के खिलाफ सोच तभी पैदा हो सकती है जब डॉ. खान देवा जैसे सच मुख्यधारा कहे जाने वाले विचारकेन्द्रों तक पहुँचें और चर्चा का कारण बनें। ये कहानियाँ केवल अचरज से सुने जाने के लिये न हों अपितु पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनें जिससे कि हर छात्र यह जान सके कि किसी भंगाराम देवी के मुसलमान सहायक देवता भी हो सकते हैं अर्थात देवता होना किसी चमत्कार पर नहीं, किसी धर्म विशेष की मिल्कियत नहीं अपितु परोपकार पर निर्भर करता है। हर वह व्यक्ति जो अपने समाज के लिये समर्पण के साथ जुटता है और जूझता है वह देवता बना दिया जाता है और कृतज्ञतायें उसे हर काल में जीवित रखती हैं। 

 ==========

No comments: